हस्तिकर्णी कल्प

हस्तिकर्णी कल्प

डी०पी०कर्मकाण्ड के तन्त्र श्रृंखला में काकचण्डीश्वरकल्पतन्त्र में औषिधीयों के विषय में कहा गया है। काकचण्डीश्वरकल्पतन्त्रम् के इस भाग में हस्तिकर्णी कल्प को कहा गया है।

हस्तिकर्णी कल्प

हस्तिकर्णीकल्पः

Hastikarni kalpa

काकचण्डीश्वरकल्पतन्त्रम्

अथ हस्तिकर्णीकल्पः

शुक्लपक्षे तु पञ्चभ्यां पौर्णमास्यां समाहरेत् ।

रेवतीरोहिणीपुष्यश्रवणैश्च समन्विते ॥ १ ॥

रेवती, रोहिणी, पुष्य और श्रवण से युक्त शुक्ल पक्ष की पञ्चमी और पूर्णिमा तिथि को ग्रहण करें ॥ १ ॥

अभ्यर्च्य गन्धपुष्पाद्यैः सह मूलं विचूर्णयेत् ।

तोयं काञ्जिकतकै दधिक्षीरयुतैः क्रमात् ॥ २ ॥

पृथक पृथक सप्तवारं घृतेन सहितं पिवेत् ।

पञ्चाशद्दिवसैस्तेन वज्रकायो भवेन्नरः ॥ ३ ॥

गन्ध-पुष्प आदि से पूजा करके मूल युक्त ओषधि का चूर्ण करे और घृत 'के साथ क्रमशः जल, कांजी, वक्र, दधि और क्षीर से पृथक् पृथक सात बार पान करे। इस प्रकार पचास दिन तक सेवन करने से मनुष्य वज्र के समान देह वाला होता है ।। २-३ ॥

तुरगोपमवेगः स्याज्जीवन्मुक्तोऽतिदीप्तिमान् ।

सहस्रमायुराप्नोति बलोपलितवर्जितः ॥ ४ ॥

अश्व के समान वेग वाला, जीवित रहते हुये भी मुक्त, अधिक प्रकाशमान( मनुष्य ) होता है तथा वली (झुर्री) और केश की श्वेतता से विरहित सहस्र वर्ष की आयु प्राप्त करता है ॥ ४ ॥

यथेष्टं भोजनं कुर्वन् विचरेद् भुवि मानवः ।

एवमापाद्य वातघ्नं काञ्जिकेन समीरजित् ॥ ५ ॥

वायु को वश में रखने वाला ( मनुष्य ) इस प्रकार से वातघ्न इस औषध का कांजी के साथ सेवन कर इच्छानुसार भोजन करता हुआ मनुष्य पृथ्वी पर भ्रमण करे ॥ ५ ॥

जलोदरं तु तक्रेण दध्ना गुल्मं समीरजम् ।

क्षीरेण कुष्ठरोगघ्नमाज्येन सकलामयान् ॥ ६ ॥

मधुना सर्वदोषांश्च नानारोगसमन्वितान् ।

मट्ठा से जलोदर, दधि से वातोत्थ गुल्म, क्षीर (दूध) से कुष्ठ रोग,घृत से सभी रोग और मधु से विभिन्न रोग से युक्त सभी दोषों को नष्ट करता है ।। ६ ।।

अथ प्रयोगः-

औं चौरदृष्टिनिदृष्टे स्वाहा ।

मन्त्रेणानेन शुद्धात्मा सतवारं तु मन्त्रयेत् ॥

प्रयोग इस प्रकार है :-

इस मन्त्र से पवित्रात्मा ( पुरुष ) सात बार अभिमन्त्रित करे ।

मन्त्रान्तरम् --

ॐ अमृते अमृतोद्भवे अमृतकुण्डिनि स्वाहा सर्वोषधीनां रक्षां कुरु कुरु स्वाहा । अयमधिवासनमन्त्रः ।

द्वितीय मन्त्र :-

यह अधिवासन मन्त्र है ।

अन्यो मन्त्रः--

अमृतोद्भवायामृतं मे कुरु महौषधि सत्यं तेऽस्तु नमो नम: ।

अनेन मन्त्रेण सप्तवारं भक्षयेत् ।

इस मन्त्र से सात बार भक्षण करे ।

सोमवारे त्रयोदश्यां सहिते भानुरश्मिभिः ।

विशोष्य चूर्णयेन्नालाञ्जलकन्दसमुद्भवान् ।। ११ ।।

सूर्य की किरणों से युक्त दिन में जब कि सूर्य की किरणें सम्यक् अव्यवहित प्रकाशमान हो सोमवार की त्रयोदशी तिथि में जलस्थित कन्द से उत्पन्न को सुखा कर चूर्ण करे ॥ ११ ॥

सूक्ष्मचूर्ण प्रतिदिनमादाय त्रिफलारसैः ।

मिश्रितं पञ्चलोहेन पञ्चनिष्कसमन्वितम् ।। १२ ।।

पञ्च लौह से मिश्रित पाँच तोला परिमित सूक्ष्म चूर्ण को प्रतिदिन त्रिफला के रस से ग्रहण करे ।। १२ ।।

सेवयेन्मासमात्रं तु यावत् संवत्सरं च तत् ।

ततो ब्रह्मायुषं जीवेद् गजवद्वीर्यवान् सुधीः ।। १३ ।।

एक मास पर्यन्त अथवा एक वर्ष पर्यन्त सेवन करे तो ब्रह्मा कीआयु पर्यन्त हाथी के समान वीर्यसम्पन्न विद्वान् पुरुष जीवित रहे ।। १३ ।।

विध्येश्वररसः प्रोक्तो लोकानां हितकाम्यया ।

भुक्त्वा समूलं सघृतं सक्षौद्रं पिप्पलीयुतम् ॥ १४ ॥

यह विध्यश्वर रस प्राणियों के हित की कामना से कहा गया है। मूल सहित उस औषध को घृत, मधु और पिप्पली से युक्त भक्षण करके ॥ १४ ॥

सङ्क्षिप्य तत्र संमर्थ विधाय च मृदा ततः ।

निक्षिपेदायले पात्रे पुढेदेतद्द्वजे पुटे ।। १५ ।।

वहाँ ( खरल में ) उसे ( औषध को ) मर्दन करके मिट्टी का लेप करे पुनः लौहपात्र में रखकर गजपुट में फूँक देवे ।। १५ ।।

अथ तत्प्रत्यहं जप्त्वा शतायु स्तन्निषेवणात् ।

अनन्तर प्रतिदिन पूर्वोक्त मन्त्रों का जप करे और उसका सेवन करने से मनुष्य सौ वर्ष की आयु प्राप्त करता है।

हरीतकीत रस्तद्वन्मार्कवं त्रिफलान्वितम् ॥ १६ ॥

ब्राह्मीफलं महीधात्रीफलं चैव विमर्दयेत् ।

क्षीरेणालोड्य निष्पीड्य दशरात्रमतन्द्रितः ।। १७ ।।

उसी भाँति हरीत की वृक्ष, आक वृक्ष, त्रिफला के वृक्ष ( पृथक् पृथक् ),ब्राह्मी फल और महाधात्री फल का आलस्य त्याग कर दश रात्रि पर्यन्त दूध से आलोडन और निष्पीडन कर मर्दन करे ।। १७ ।।

प्रियं मुहूर्तमन्विष्य भक्षयेत् प्रातरुत्थितः ।

एतत्सेवनमात्रेण गात्रं तु कनकायते ।। १८ ।।

बाद में उत्तम उपयुक्त मुहूर्त का अन्वेषण करके प्रातःकाल उठते ही भक्षण करे । इसके सेवन करने मात्र से देह स्वर्ण के समान कान्ति सम्पन्न हो जाता है ॥

अनेनैव प्रयोगेण भक्षयेद्बलवान् भवेद् ।

मन्वादियुगपर्यन्तं वर्तते लोकपूजितः ।। १९ ।।

इसी प्रयोग से भक्षण करने से मनुष्य बलवान् होता है और प्राणियों से पूजित होकर मनु आदि के युग पर्यन्त वर्तमान रहता है ।। १९ ।।

आरग्वधं समूलं च तद्वदेव विनिर्दिशेत् ।

समूल आरग्बध (अमलतास ) का भी उसी प्रकार विधान है।

इति काकचण्डीश्वरकल्पतन्त्रम् हस्तिकर्णीकल्पः॥

आगे जारी पढ़ें ............ महानीलीकल्प

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