रुद्रयामल तंत्र पटल ३४

रुद्रयामल तंत्र पटल ३४                        

रुद्रयामल तंत्र पटल ३४ में जनन एवं मरण से छुटकारा प्राप्ति के किए पञ्चस्वर योग का वर्णन है। यह अत्यन्त गोपनीय योग है। भगवती कुण्डलिनी के १००८ नामों के पाठ से साधक महायोगी हो जाता है। नेती, दन्ती, धौती, नेउली और क्षालन ये पञ्चस्वर योग है । फिर पञ्चामरा द्रव्यों का विधान है। दूर्वा, विजया, बिल्वपत्र, निर्गुण्डी, काली  तुलसी- इनके पत्तों को समान मात्रा में लेकर विजया को दुगुना लेना चाहिए। इसके भक्षण मन्त्रों का निर्देश भी किया गया है। पञ्चामरा का विधान कर नेती योग (४०-४४) और दन्ती योग का (४५-५३) वर्णन है ।

रुद्रयामल तंत्र पटल ३४

रुद्रयामल तंत्र पटल ३४                        

Rudrayamal Tantra Patal 34

रुद्रयामल तंत्र चौंतीसवाँ पटल 

रुद्रयामल तंत्र चतुस्त्रिंशः पटल:

रूद्रयामल तंत्र शास्त्र

अथ चतुस्त्रिंशः पटलः

आनन्दभैरवी उवाच

अथ भेदान् प्रवक्ष्यामि हिताय जगतां प्रभो ।

निर्मलात्मा शुचिः श्रीमान् ध्यानात्मा च सदाशिवः ॥ १ ॥

आनन्दभैरवी ने कहा- हे प्रभो ! इसके अनन्तर जगत् के हित के लिए (योग को) कहती हूँ । सदाशिव निर्मलात्मा शुचि श्रीमान् ध्यानात्मा हैं ॥ १ ॥

स मोक्षगो ज्ञानरूपी स षट्चक्रार्थभेदकः ।

त्रिगुणज्ञानविकलो न पश्यति दिवानिशम् ॥ २ ॥

दिवारात्र्यज्ञानहेतोर्न पश्यति कलेवरम् ।

इति कृत्वा हि मरणं नृणां जन्मनि जन्मनि ॥ ३ ॥

वही मोक्ष देने वाले ज्ञान स्वरूप तथा षट्चक्रों का भेदन करने वाले हैं । किन्तु मनुष्य दिन रात त्रिगुणात्मक ज्ञान (सत्त्व, रज, तम) से विकल रहने के कारण उनको नहीं देख पाता । दिन रात का ज्ञान न रहने के कारण वह अपने शरीर का भी ध्यान नहीं करता। इसी कारण वह प्रत्येक जन्म में मृत्यु को प्राप्त होता रहता है ।। २-३ ॥

तज्जन्मक्षयहेतोश्च मम योगं समभ्यसेत् ।

पञ्चस्वरं महायोगं कृत्वा स्यादमरो नरः ॥ ४ ॥

इसलिए जन्म के क्षय के लिए हमारे द्वारा बताए गए योग का अभ्यास करना चाहिए। उस महायोग का नाम पञ्चस्वर है, जिसके करने से मनुष्य अमर हो जाता है ॥ ४ ॥

तत्प्रकारं शृणुष्वाथ वल्लभ प्रियदर्शन ।

तव भावेन कथये न कुत्र वद शङ्कर ॥ ५ ॥

वल्लभ ! हे प्रिय दर्शन ! हे शङ्कर ! अब उस पञ्चस्वर नामक महायोग के प्रकार को सुनिए। मैं आपके ऊपर स्नेह के कारण उसे कहती हूँ। अतः उसे अन्यत्र प्रकाशित न कीजिये ॥ ५ ॥

यदि लोकस्य निकटे कथ्यते योगसाधनम् ।

विघ्ना घोरा वसन्त्येव गात्रे योगादिकं कथम् ॥ ६ ॥

योगयोगाद् भवेन्मोक्षः तत्प्रकाशाद्विनाशनम् ।

अतो न दर्शयेद् योगं यदीच्छेदात्मनः शुभम् ॥ ७ ॥

यदि लोगों के सामने योग साधन प्रकाशित हो जाता है तो साधक को महान् विघ्न होने लगते हैं फिर शरीर से किस प्रकार योग संभव हो सकता है। योग से युक्त हो जाने पर मोक्ष प्राप्ति संभव है। यदि योग प्रकाशित हो जाता है तो साधक का विनाश हो जाता है । इसलिए यदि अपना कल्याण चाहे तो अपना योग किसी के सामने प्रगट न करे।।६-७।।

कृत्वा पञ्चामरा र योगं प्रत्यहं भक्तिसंयुतः ।

पठेत् श्रीकुण्डलीदेवीसहस्रनाम चाष्टकम् ॥ ८ ॥

महायोगी भवेन्नाथ षण्मासे नात्र संशयः ।

पञ्चमे वा योगविद्या सर्वविद्याप्रकाशिनी ॥ ९ ॥

पञ्चामरयोग प्रतिदिन भक्तिपूर्वक निष्पन्न कर श्री कुण्डली देवी के एक हजार आठ नाम का पाठ करना चाहिए। हे नाथ! ऐसा करने से साधक छः महीने में अथवा पाँच महीने में महायोगी बन जाता है इसमें संशय नहीं । वस्तुतः योगविद्या समस्त विद्याओं को प्रकाशित करने वाली हैं ।। ८-९ ।।

कृत्वा पञ्चस्वरा सिद्धिं ततोऽष्टाङ्गादिधारणा ।

आदी पञ्चस्वरा सिद्धिस्ततोऽन्या योगधारणा ॥ १० ॥

पञ्चस्वरों की सिद्धि कर तब अष्टाङ्ग योग वर्णित धारणा करनी चाहिए। अर्थात् पञ्चस्वर की सिद्धि प्रथमत: करके, तदनन्तर अन्य योग धारण का विधान कहा गया है ।। १० ।।

तत्प्रकारं प्रवक्ष्यामि सावधानावधारय ।

अहं जानामि संसारे केवलं योगपण्डितान् ॥ ११ ॥

तत् साक्षिणी ह्यहं नाथ भक्तानामुदयाय च ।

इदानीं कथये तेऽहं मम वा योगसाधनम् ॥ १२ ॥

हे नाथ ! उसका प्रकार कहती हूँ, सावधान होकर धारण कीजिए । क्योंकि सभी योग पण्डितों में केवल मैं ही उसका विधान जानती हूँ। हे नाथ! मैं उसकी साक्षिणी हूँ, इसलिए इस समय भक्तों के कल्याण के लिए उसे कहती हूँ, क्योंकि योग साधन आपके पास है अथवा हमारे पास है ।। ११-१२ ।।

एवं कृत्वा नित्यरूपी योगानामष्टधा यतः ।

ततः कालेन पुरुषः सिद्धिमाप्नोति निश्चितम् ॥ १३ ॥

इसे नित्य करके तब अष्टाङ्ग योग करना चाहिए। फिर तो कुछ काल के अनन्तर पुरुष को निश्चित रूप से सिद्धि प्राप्त होती है ॥ १३ ॥

पञ्चामरा विधानानि क्रमेण शृणु शङ्कर ।

नेतीयोगं हि सिद्धानां महाकफविनाशनम् ॥ १४ ॥

दन्तियोग प्रवक्ष्यामि पश्चाद् हृदयभेदनात् ।

धौतीयोगं ततः पश्चात् सर्वमलविनाशनात् ॥ १५ ॥

हे शङ्कर ! अब पञ्चामर विधान को एक एक के क्रम से सुनिए ! नेती योग सिद्धों के समस्त कफ को विनष्ट करने वाला है। उसके पश्चात् हृदय का भेदन करने वाले दन्तीयोग कहूँगी। इसके पश्चात् सम्पूर्णमल के विनाश करने वाले धौती योग कहूँगी ।। १४-१५ ।।

उलीयोगमपरं सर्वाङ्गोदरचालनात् ।

क्षालनं परमं योगं नाडीनां क्षालनात् स्मृतम् ॥ १६ ॥

एतत् पञ्चामरायोगं यमिनामतिगोचरम् ।

यमनियमकाले तु पञ्चामराक्रियां यजेत् ॥ १७ ॥

फिर सर्वाङ्ग तथा उदर को संचालित करने वाले नेउली योग इसके बाद क्षालन नामक परमयोग को कहूँगी नाड़ियों का प्रक्षालन करने के कारण इसका नाम क्षालन हैं। यह पञ्चामर योग संयम करने वाले योगियों की जानकारी से बाहर है। इसलिए यम नियम के समय योगी को पञ्चामर क्रिया करनी चाहिए ।। १६-१७ ।।

अमरा साधनादेव अमरत्वं लभेद् ध्रुवम् ।

एतत्करणकाले च तथा पञ्चामरासनम् ॥ १८ ॥

पञ्चामराभक्षणेन अमरो योगसिद्धिभाक् ।

अमरा के साधन से साधक अवश्य ही अमरता प्राप्त कर लेता है, इसके करने के समय पञ्चामरासन तथा पञ्चामरा का भक्षण करने से योग की सिद्धि प्राप्त हो जाती है और साधक अमर हो जाता है ।। १८-१९ ।।

तानि द्रव्याणि वक्ष्यामि तवाग्रे परमेश्वर ॥ १९ ॥

येन हीना न सिध्यन्ति कल्पकोटिशतेन च ।

एका तु अमरा दूर्वा तस्या ग्रन्थिं समानयेत् ॥ २० ॥

हे परमेश्वर ! अब भक्षण के लिए आपके आगे उन पञ्चामर द्रव्यों को कहती हूँ । जिनके बिना सेवन किए कोई सैकड़ों करोड़ कल्प में भी सिद्ध नहीं हो सकता । एक अमरा दूर्वा है उसकी ग्रन्थि ले आनी चाहिए ।। १९-२० ।।

अन्या तु विजया देवी सिद्धिरूपा सरस्वती ।

अन्या तु बिल्वपत्रस्था शिवसन्तोषकारिणी ॥ २१ ॥

अन्या तु योगसिद्ध्यर्थे निर्गुण्डी चामरा मता ।

अन्या तु कालितुलसी श्रीविष्णोः परितोषिणी ॥ २२ ॥

दूसरी अन्य विजया देवी हैं जो सिद्धि स्वरूपा सरस्वती हैं, तीसरी अमरा बिल्वपत्र में रहने वाली हैं, जो सदाशिव को तृप्त करने वाली हैं। इसके अतिरिक्त योगसिद्धि के लिए चौथी निर्गुण्डी अमरा कही गई है। इसके बाद पाँचवी अमरा काली तुलसी हैं, जो श्रीविष्णु को संतुष्ट करने वाली हैं ।। २१-२२ ।।

एताः पञ्चस्वराः ज्ञेया योगसाधनकर्मणि ।

एतासां द्विगुणं ग्राह्यं विजयापत्रमुत्तमम् ॥ २३ ॥

इन्हें पञ्चस्वरा भी कहते हैं, योगसाधन कर्म में इनका उपयोग करना चाहिए । इन सभी का दुगुना उत्तम विजया पत्र ग्रहण करना चाहिए ॥ २३ ॥

ब्राह्मणी क्षत्रिया वैश्या शूद्राः सर्वत्र पूजिताः ।

एतद्रव्याणि सङ्ग्राह्य भक्षयेच्चूर्णमुत्तमम् ॥ २४ ॥

तच्चूर्णभक्षसमये एतन्मन्त्रादिपञ्चमम् ।

पठित्वा भक्षणं कृत्वा नरो मुच्येत सङ्कटात् ॥ २५ ॥

ब्राह्मणी, क्षत्रिया वैश्या और शूद्रा जाति की सभी विजया सर्वत्र पूजनीय हैं। इन द्रव्यों को एकत्रित कर इनका श्रेष्ठ चूर्ण भक्षण करना चाहिए। इनके चूर्ण को भक्षण करते समय इन पाँच मन्त्रों को पढ़कर भक्षण करना चाहिए ऐसा करने से मनुष्य सङ्कटों से छूट जाता है ।। २४-२५ ।।

ॐ त्वं दूर्वेऽमरपूज्ये त्वं अमृतोद्भवसम्भवे ।

अमरं मां सदा भद्रे कुरुष्व नृहरिप्रिये ॥ २६ ॥

ॐ दूर्वायै नमः स्वाहा इति दूर्वायाः ।

पुनर्विजयामन्त्रेण शोधयेत् सर्वकन्यकाः ।

ॐ संविदे ब्रह्मसम्भूते ब्रह्मपुत्रि सदाऽनघे ।

भैरवाणां च तृप्त्यर्थे पवित्रा भव सर्वदा ॥ २७ ॥

ॐ ब्राह्मण्यै नमः स्वाहा ।

ॐ सिद्धिमूलकरे देवि हीनबोधप्रबोधिनि ।

राजपुत्रीवशङ्करि शूलकण्ठत्रिशूलिनि ॥ २८ ॥

ॐ क्षत्रियायै नमः स्वाहा ।

ॐ अज्ञानेन्धनदीप्ताग्नि ज्ञानाग्निज्ज्वालरूपिणि ।

आनन्दाद्याहुतिं कृत्वा सम्यक्ज्ञानं प्रयच्छ मे ॥ २९ ॥

ह्रीं ह्रीं वैश्यायै नमः स्वाहा ।

ॐ नमस्यामि नमस्यामि योगमार्गप्रदर्शिनि ।

त्रैलोक्यविजये मातः समाधिफलदा भव ॥ ३० ॥

श्री शूद्रायै नमः स्वाहा ।

ॐ काव्यसिद्धिकरी देवी बिल्वपत्रनिवासिनि ।

अमरत्वं सदा देहि शिवतुल्यं कुरुष्व माम् ॥ ३१ ॥

ॐ शिवदायै नमः स्वाहा ।

निर्गुण्डि परमानन्दे योगानामधिदेवते ।

सा मां रक्षतु अमरे भावसिद्धिप्रदे नमः ॥ ३२ ॥

ॐ शोकापहायै नमः स्वाहा ।

ॐ विष्णोः प्रिये महामाये महाकालनिवारिणी ।

तुलसी मां सदा रक्ष मामेकममरं कुरु ॥ ३३ ॥

ॐ ह्रीं श्रीं ऐं क्लीं अमरायै नमः स्वाहा ।

पुनरेव समाकृत्य सर्वासां शोधनञ्चरेत् ॥ ३४ ॥

१. ॐ त्वं दुर्वे ..... नमः स्वाहा' पर्यन्त मन्त्र दूर्वा के लिए हैं। फिर विजया मन्त्र पढ़कर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र जाति वाली विजया कन्याओं का इस प्रकार शोधन करें ।

२. ॐ सम्विदे.....ॐ ब्राह्मण्यै नमः स्वाहा' पर्यन्त मन्त्र पढ़कर ब्राह्मण जाति वाली विजया का संशोधन करे । तदनन्तर 'ॐ सिद्धिमूल करे ... क्षत्रियायै नमः स्वाहा' पर्यन्त मन्त्र पढ़कर क्षत्रिय जाति वाली विजया का शोधन करे। इसके बाद ॐ अज्ञानेन्धन ....... वैश्यायै नमः स्वाहा' पर्यन्त मन्त्र पढ़कर वैश्या जाति वाली विजया का शोधन करना चाहिए । इसके पश्चात् 'ॐ नमस्यामि . शूद्रायै नमः स्वाहा' पर्यन्त मन्त्र पढ़कर शूद्रा जाति वाली विजया का संशोधन करे ।

३. तदनन्तर 'ॐ काव्यसिद्धिकरी..... शिवदायै नमः स्वाहा' पर्यन्त मन्त्र पढ़कर बिल्वपत्र का संशोधन करे ।

४. फिर 'निर्गुण्डि परमानन्दे ..... शोकापहायै नमः स्वाहा' पर्यन्त मन्त्र पढ़ कर निर्गुण्डी का संशोधन करे ।

५. फिर ॐ विष्णो प्रिये........ मामेकममरं कुरु' पर्यन्त पढ़कर काली तुलसी का संशोधन करे। इसके बाद ॐ ह्रीं श्रीं ऐं क्लीं अमरायै नमः स्वाहा' पर्यन्त मन्त्र पढ़कर सभी को एक में मिलाकर सभी का संशोधन करे।।२६-३४।।

ॐ अमृते अमृतोद्भवेऽमृतवर्षिणि अमृतमाकर्षय ।

आकर्षय सिद्धिं देहि स्वाहा ।

धेनुमुद्रां योनिमुद्रां मत्स्यमुद्रां प्रदर्शयेत् ।

तत्त्वमुद्राक्रमेणैव तर्पणं कारयेद् बुधः ॥ ३५ ॥

इसके बाद 'ॐ अमृते अमृतोद्भवेऽमृतवर्षिणि अमृतमाकर्षय आकर्षय सिद्धिं देहि स्वाहा' पर्यन्त मन्त्र पढ़कर धेनु मुद्रा योनिमुद्रा तथा मत्स्य मुद्रा प्रदर्शित करे । तदनन्तर तत्त्व मुद्रा के क्रम से बुद्धिमान् पुरुष तर्पण भी करावे ॥ ३५ ॥

अमन्त्रकं सप्तवारं गुरोर्नाम्ना शिवेऽर्पयेत् ।

सप्तकञ्च स्वेष्टदेव्या नाम्ना शुद्धिं प्रदापयेत् ॥ ३६ ॥

ततस्तर्पणमाकुर्यात्तर्पयामि नमो नमः ।

एतद्वाक्यस्य पूर्वे च इष्टमन्त्रं समुच्चरेत् ॥ ३७॥

उस चूर्ण को बिना मन्त्र पढ़े केवल सात बार गुरु का नाम लेकर सदाशिव को अर्पण करे । तदन्तर सात बार अपनी इष्टदेवी का नाम ले कर शुद्धि करवावे । इसके बाद 'तर्पयामि नमो नमः' मन्त्र पढ़कर तर्पण करें। किन्तु इसके पहले अपने इष्ट देवता का मन्त्र उच्चारण करे ।। ३६-३७ ॥

परदेवतां समुद्धृत्य सर्वाद्यप्रणवं स्मृतम् ।

ततो मुखे प्रजुहुयात् कुण्डलीनामपूर्वकम् ॥ ३८ ॥

फिर सर्वाद्य प्रणव, तदनन्तर परदेवता, फिर कुण्डली का नाम ले कर अपने मुख में उस चूर्ण की आहुति देवे । मन्त्र का स्वरूप इस प्रकार है ॐ परदेवता मे कुण्डल्यै स्वाहा' ।। ३८ ।।

ॐ ऐं वद वद वाग्वादिनि मम जिह्वाग्रे स्थिरीभव ।

सर्वसत्त्ववशङ्करि शत्रुकण्ठत्रिशूलिनि स्वाहा ।

एतज्जप्त्वा साश्रमी च वशी साधकसत्तमः ।

पञ्चामरा शासनज्ञः कुलाचारविधिप्रियः ॥ ३९ ॥

स्थिरचेता भवेद्योगी यदि पञ्चामरागतः ।

इसके बाद 'ॐ ऐं वद वद वाग्वादिनि मम जिह्वाग्रे स्थिरीभव सर्वसत्त्ववशङ्करी शत्रुकण्ठत्रिशूलिनि स्वाहा' मन्त्र का जप करे। आश्रम युक्त जितेन्द्रिय साधक इस मन्त्र का जप कर पञ्चामरा के शासन को जानकार, कुलाचार विधि मे प्रेम रखने वाला, स्थिर चित्त योगी तथा पञ्चाङ्ग का सेवक हो जाता है ।। ३९-४० ।।

नेतीयोगविधानानि शृणु कैलासपूजिते ॥ ४० ॥

येन सर्वमस्तकस्थकफानां दहनं भवेत् ।

कैलास पूजित ! नेती के योग के विधान को सुनिए । इसके करने से मस्तक में रहने वाले समस्त कफ जल जाते हैं ।। ४०-४१ ॥

सूक्ष्मसूत्रं दृढतरं प्रदद्यात् नासिकाबिले  ॥ ४१ ॥

मुखरन्ध्रे समानीय सन्धानेन समानयेत् ।

पुनः पुनः सदा योगी यातायातेन घर्षयेत् ॥ ४२ ॥

अत्यन्त पतला किन्तु परिपुष्ट सूत्र नासिका के बिल में डालना चाहिए। फिर उसे मुख के छिद्र से बाहर निकाल कर पुनः पुनः यातायात द्वारा घर्षण करना चाहिए ।। ४१-४२ ।।

क्रमेण वर्द्धनं कुर्यात् सूत्रस्य परमेश्वर ।

नेतीयोगेन नासाया रन्ध्र निर्मलकं भवेत् ॥ ४३ ॥

वायोर्गमनकाले तु महासुखमिति प्रभो ।

दन्तीयोगं ततः पश्चात्कुर्यात् साधकसत्तमः ॥ ४४ ॥

हे परमेश्वर ! क्रमशः क्रमशः सूत्र को बढ़ाता रहे। इस प्रकार के नेती योग से नासा का छिद्र सर्वथा निर्मल हो जाता है। जब नासिका छिद्र से वायु का सञ्चार होता है तब, हे प्रभो ! नेती करने वाले को महासुख की अनुभूति होती है। नेती योग बाद उत्तम साधक दन्ती योग करे ।। ४३-४४ ॥

दन्तधावनकाले तु योगमेतत् प्रकाशयेत् ।

दन्तधावनकाष्ठञ्च सार्धहस्तैकसम्भवम् ॥ ४५ ॥

नातिस्थूलं नातिसूक्ष्मं नवीनं नम्रमुत्तमम् ।

अपक्वं यत्नतो ग्राह्यं मृणालसदृशं तरुम् ॥ ४६ ॥

यह योग दन्तधावन काल में प्रदर्शित करना चाहिए। दन्तधावन वाला काष्ठ लगभग डेढ़ हाथ का बनाना चाहिए। जो अत्यन्त मोटा न हो और अत्यन्त पतला भी न हो । सर्वथा नवीन कोमल और उत्तम होना चाहिए। यह बहुत पका भी न हो, मृणाल के सदृश न टूटने वाले पेड़ का होना चाहिए ।। ४५-४६ ।।

गृहीत्वा दन्तकाष्ठं वै योगी रे नित्यं प्रभक्षयेत् ।

दन्तकाष्ठाग्रभागञ्च कनिष्ठाङ्गुलिपर्वतः ॥ ४७ ॥

एवं दन्तावलिभ्याञ्च चर्वणं सुन्दरं चरेत् ।

ततः प्रक्षाल्य तोयेन शनैर्गिलनमाचरेत् ॥ ४८ ॥

शनै: शनै: प्रकर्त्तव्यं कायावाक्चित्तशोधनम् ।

योगी इस प्रकार के दन्त काष्ठ को लेकर नित्य उसको चबाना चाहिए। दन्त काष्ठ का अग्रभाग कानी अंगुली के पर्व के समान होना चाहिए। ऐसे दन्तकाष्ठ को दाँतों के बल चबाते रहना उत्तम प्रक्रिया है, उसे जल से कर धीरे धीरे निगलते रहना चाहिए। इस प्रकार धीरे धीरे शरीर, वाणी एवं चित्त का शोधन करना चाहिए।।४७-४९ ।।

यावदभिन्नकाष्ठाग्रं नाभिमूले त्वनाक्षतम् ॥ ४९ ॥

तावत् सूक्ष्मतरं ग्राह्यमवश्यं प्रत्यहञ्चरेत् ।

हृदये जलचक्रञ्च यावत् खण्डं न जायते ॥ ५० ॥

तावत्कालं सर्वदिने प्रभाते दन्तधावनम् ।

हृदये कफभाण्डस्य खण्डनं जायते ध्रुवम् ॥ ५१ ॥

जब तक काष्ठ का अग्रभाग बिना टूटे हुए बिना क्षति के नाभिमूल में पहुँच न जाय तब तक सूक्ष्मतर दन्त धावन प्रतिदिन आवश्यक रूप से करते रहना चाहिए। जब तक हृदय में रहने वाला जलचक्र खण्डित न हो, तब तक प्रतिदिन प्रभात समय में उक्त दन्तधावन करें, जिससे हृदय में स्थित कफभाण्ड निश्चित रूप से खण्डित हो जाए ।। ४९-५१ ॥

पवनागमने सौख्यं प्रयाति योगनिर्भरम् ।

खेचरत्वं स लभताम् अम्लानञ्च कद्भवम् ॥ ५२ ॥

मिष्टान्नं शाकदध्यन्नं द्विवारं रात्रिभोजनम् ।

अवश्यं सन्त्यजेद्योगी यदि योगमिहेच्छति ॥ ५३ ॥

ऐसा करने से वायु के मुख से वायु का आना सुखपूर्वक होता है, वह आकाश गमन में समर्थ हो जाता है ऐसा करने वाले योगी को खट्टा, कडुआ, मीठा, शाक तथा दधि से मिला हुआ अन्न, दो बार भोजन तथा रात्रि भोजन अवश्यमेव त्याग देना चाहिए ।। ५२-५३ ॥

एकभागं मुद्गबीजं द्विभागं तण्डुलं मतम् ।

उत्तमं पाकमाकृत्य घृतदुग्धेन भक्षयेत् ॥ ५४ ॥

अथवा केवलं दुग्धं तर्पणं कारयेद् बुधः ।

कुण्डलीं कुलरूपाञ्च दुग्धेन परितर्पयेत् ॥ ५५ ॥

यदि वह योग चाहता हो तो एक भाग मूँग का बीज, उसका दूना चावल मिलाकर उत्तम पाक बनावे, फिर घृत मिश्रित दूध से उसका भक्षण करें। अथवा केवल दूध से ही बुद्धिमान् साधक उदर की तृप्ति करे क्योंकि कुलरूपा कुण्डलिनी दुग्ध से ही संतुष्ट रहती हैं ।। ५२-५५ ।।

कुण्डलीतर्पणं योगी यदि जानाति शङ्कर ।

अनायासेन योगी स्यात् स ज्ञानीन्द्रो भवेदुद्ध्रुवम् ॥ ५६ ॥

हे शङ्कर ! यदि योगी कुण्डली का तर्पण जान ले तो वह अनायास ही योगी बन जाता है और निश्चित रूप से ज्ञानियों में सर्वश्रेष्ठ हो जाता है ।। ५६ ।।

यमनियमपरो यः कुण्डलीसेवनस्थो

विभवविरहितो वा भूरिभाराश्रितो वा ।

स भवति परयोगी सर्वविद्यार्थवेद्यो

गुणगणगगनस्थो मुक्तरूपी गणेशः ॥ ५७ ॥

जो यम नियम का अभ्यास करते हुए कुण्डलिनी का सेवन करता है, वह भले ही वैभव रहित हो अथवा भूमिभार से आक्रान्त हो, वह अवश्य ही सर्वश्रेष्ठ योगी बन जाता है, सभी विद्याओं का अर्थ उसे भासित होने लगता है और गुणगणों में सबसे ऊँचा मुक्त स्वरूप तथा गणेश बन जाता है ॥ ५७ ॥

॥ इति श्रीरुद्रयामले उत्तरतन्त्रे महातन्त्रोद्दीपने षट्चक्रप्रकाशे भैरव भैरवीसंवादे पञ्चामरासाधनं २ नाम चतुस्त्रिशः पटलः ॥ ३४ ॥

॥ श्री रुद्रयामल के उत्तरतन्त्र में महातन्त्रोद्दीपन के षट्चक्रप्रकाश प्रकरण में भैरवीभैरव संवाद में चौंतीसवें पटल की डा० सुधाकर मालवीयकृत हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई ॥ ३४ ॥

आगे जारी............रूद्रयामल तन्त्र पटल ३५  

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