अष्ट पदि ४ भ्रमर पद

अष्ट पदि ४ भ्रमर पद

कवि श्रीजयदेवजीकृत श्रीगीतगोविन्दम्‌ प्रथम सर्ग सामोद-दामोदर चतुर्थ सन्दर्भ अष्ट पदि ४ का नाम भ्रमर पदम्" है। चतुर्थ प्रबन्ध के श्लोक रामकिरी राग तथा यति ताल से गाये जाते हैं।

अष्ट पदि ४ भ्रमर पदम्

अष्ट पदि ४ भ्रमर पदम्

 “भ्रमर पदम् "

प्रथमः सर्गः सामोद दामोदरः - चतुर्थः सन्दर्भः

अथ चतुर्थः सन्दर्भः

अनेक- नारी- परिरम्भ-सम्भ्रम-

स्फुरन्मनोहारि - विलास - लालसम् ।

मुरारिमारादुपदर्शयन्त्यसौ

सखीसमक्षं पुनराह राधिकाम् ॥१ ॥

अन्वय- [ततश्च तयोः श्रीकृष्णानुसन्धान - चेष्टा सफला सञ्जाता। श्रीकृष्णः तयोर्नेत्रपथवर्त्ती वभुव एवं समये] असौ (पूर्वोक्ता श्रीराधायाः सखी) आरात् (अनतिदूरे) [समवस्थितमिति शेषः] अनेकनारी-परिरम्भ - सम्भ्रम- स्फुरन्मनोहारि-विलासलालसम् ( अनेकानां नारीणां गोपतरुणीनां परिरम्भे निर्भरालिङ्गने यः सम्भ्रमः आवेगः तेन स्फुरन् निरतिशयस्फूर्त्तिशाली अतएव मनोहारी चित्ताकर्षणकारी यः विलासः केलिः तत्र लालसा एकान्तौत्सुक्यं यस्य तादृशं) मुरारिं समक्षं (अक्ष्णोः समीपे ) उपदर्शयन्ती (अङ्गुलीसङ्केतेन प्रदर्शयन्ती) पुनः राधिकाम् आह ॥ १ ॥

अनुवाद - अनन्तर श्रीराधिकाजी की सखी ने बड़ी चतुरता से श्रीकृष्ण का अनुसन्धान कर लिया । सखी ने देखा कि अति सान्निध्य में ही श्रीकृष्ण गोप-युवतियों के साथ प्रमोद विलास में निमग्न आदरातिशयता को प्राप्त कर रहे हैं। उन रमणियों के द्वारा आलिङ्गन की उत्सुकता दिखाये जाने पर श्रीकृष्ण के मन में मनोज्ञ मनोहर विलास की लालसा जाग उठी है। सखी अन्तराल से (आड़ में छिपकर) राधाजी को दिखलाती हुई पुनः यह बोली-

पद्यानुवाद-

परिरम्भ मंदिर रस मातल

प्रमदा परिवेशित हरिको ।

दिखला, राधासे आली

बोली पी कर मधु छबिको ॥

बालबोधिनी – वनशोभा के चित्रण आदि के द्वारा कवि ने श्रीराधाजी के सुदीप्त भाव को प्रकाशित किया है। कोई सखी श्रीराधाजी के समीप उपस्थित होकर श्रीकृष्ण के अभिप्राय को साक्षात् रूप से दिखलाती हुई कहती है (अनेक नारी इति श्लोक के द्वारा ) - सखि देखो! मुरारि इस समय क्या कर रहे हैं ? वे इस समय इतनी तरुणियों का आलिङ्गन प्राप्त करके भी तृप्त नहीं हो सके हैं, इसलिए अति मनोहारिणी श्रीराधाजी से मिलन की उत्सुकता प्रकट करने लगे हैं और विलास की लालसा से उत्कण्ठित हो गये हैं।

श्रीकृष्ण का लीलाविलास नित्य है, इसलिए यह प्रत्यक्ष भी है। विरह में स्मरण, स्फूर्ति तथा आविर्भाव - ये तीन वैशिष्ट्य परिलक्षित होते हैं।

अतः यहाँ विलास का स्फुरित होना युक्तिसङ्गत है । इसमें वंशस्थविला छन्द, अनुप्रास अलङ्कार एवं दक्षिण नायक हैं ॥ १ ॥

अष्ट पदि ४ भ्रमर पदम्

  गीतम् ॥४॥

रामकिरीरागेण यतितालेन च गीयते ।

चन्दन-चर्चित-नील- कलेवर पीतवसन - वनमाली

केलिचलन्मणि- कुण्डल - मण्डित - गण्डयुग - स्मितशाली

हरिरिह - मुग्ध-वधुनिकरे

विलासिनी विलसति केलिपरे ॥१ ॥ध्रुवम् ॥

पीन - पयोधर - भार- भरेण हरिं परिरभ्य सरागं ।

गोपवधूरनुगायति काचिदुदञ्चित - पञ्चम - रागम् –

[हरिरिह-मुग्ध - वधुनिकरे... ॥ २ ॥]

कापि विलास - विलोल - विलोचन - खेलन - जनित - मनोजं ।

ध्यायति मुग्धवधूरधिकं मधुसूदन - वदन - सरोजम्-

[हरिरिह - मुग्ध-वधुनिकरे... ॥ ३ ॥]

कापि कपोलतले मिलिता लपितुं किमपि श्रुतिमूले ।

चारु चुचुम्ब नितम्बवती दयितं पुलकैरनुकूले-

[हरिरिह-मुग्ध-वधुनिकरे... ॥४ ॥]

केलि - कला-कुतुकेन च काचिदमुं यमुनावनकुले ।

मञ्जुल-वञ्जुल-कुञ्जगतं विचकर्ष करेण दुकूले-

[हरिरिह-मुग्ध-वधुनिकरे... ॥५ ॥]

करतल-ताल-तरल - वलयावलि - कलित- कलस्वन - वंशे ।

रासरसे सहनृत्यपरा हरिणा युवतिः प्रशंससे-

[ हरिरिह - मुग्ध - वधुनिकरे... ॥ ६ ॥]

श्लिष्यति कामपि चुम्बति कामपि कामपि रमयति रामः ।

पश्यति सस्मित- चारुतरामपरामनुगच्छति बामां ॥७ ॥

[हरिरिह - मुग्ध - वधुनिकरे... ॥७ ॥]

श्रीजयदेव - भणितमिदमद्भुत - केशव - केलि - रहस्यं

वृन्दावन-विपिने ललितं वितनोतु शुभानि यशस्यम् ॥

[हरिरिह-मुग्ध-वधुनिकरे... ॥ ८ ॥]

अष्ट पदि ४ भ्रमर पदम्

नीचे प्रत्येक पद्य, अन्वय, श्लोकानुवाद, पद्यानुवाद तथा बालबोधिनी व्याख्या दी जा रही है-

चतुर्थ प्रबन्ध के श्लोक रामकिरी राग तथा यति ताल से गाये जाते हैं।

चन्दन - चर्चित - नील- कलेवर पीतवसन - वनमाली

केलिचलन्मणि-कुण्डल- मण्डित - गण्डयुग - स्मितशाली

हरिरिह-मुग्ध-वधुनिकरे

विलासिनी विलसति केलिपरे ॥ १ ॥ध्रुवम् ॥

अन्वय- अयि विलासिनि (विलासवति) केलि-चलन्मणि- कुण्डलमण्डित - गण्डयुग - स्मितशाली (केलिना क्रीड़ारसेन चलन्ती ये मणिकुण्डले रत्नमय-कर्णभूषणे ताभ्यां मण्डितं शोभितं गण्डयुगं कपोलयुगलं यस्य सः; तथा स्मितेन मृदुहासेन शालते शोभते इति स्मितशाली, स चासौ स चेति तथा) चन्दन-चर्चित-नीलकलेवर - पीतवसन - वनमाली (चन्दनैः चर्चितम् अनुलिप्तं नीलं कलेवरं यस्य सः तथा पीत वसनं यस्य तथोक्तः; तथा वनमाली वनकुसुम - मालाधरः; स चासौ स चासौ स चासौ स चेति तथा ) हरिः इह (अस्मिन्) केलिपरे (क्रीडासक्ते) मुग्धवधूनिकरे ( सुन्दरी - समूहे) विलसति (विहरति ) [अहो श्रीकृष्णस्य अकृत-वेदित्वम् ! त्वद्दत्त - चन्दन - वनमाला - भूषित स्त्वद्वर्णवसनावृताङ्गयष्टिरेव विलसतीत्यवलोकय] ॥१ ॥

अनुवाद - हे विलासिनी श्रीराधे! देखो! पीतवसन धारण किये हुए, अपने तमाल- श्यामल-अङ्गों में चन्दन का विलेपन करते हुए, केलिविलासपरायण श्रीकृष्ण इस वृन्दाविपिन में मुग्ध वधुटियों के साथ परम आमोदित होकर विहार कर रहे हैं, जिसके कारण दोनों कानों में कुण्डल दोलायमान हो रहे हैं, उनके कपोलद्वय की शोभा अति अद्भुत है। मधुमय हासविलास के द्वारा मुखमण्डल अद्भुत माधुर्य को प्रकट कर रहा है ॥ १ ॥

पद्यानुवाद-

चन्दन चर्चित नील कलेवर पीत वसन वनमाली

केलि चञ्चला मणि कुण्डल गति स्मितमुख शोभाशाली ।

काम मोहिता, रूप गर्विता, गोपीजन कर साधे

विलस रहे हैं श्रीहरि आतुर, निरखि विलासिनि राधे ॥

बालबोधिनी - इस गीत का राग रामकरी तथा झम्पा ताल है। रस-मञ्जरीकार ने यहाँ रूपक ताल माना है।

जब कान्ता नीलवसन धारणकर प्रभातकालीन आकाश की भाँति स्वर्णिम आभूषण पहनकर अपने कान्त के प्रति उन्नत प्रकार का मान कर बैठती है, तब वह कान्त उनके चरणों के समीप स्थित होकर मनाने लगते हैं, उस समयावस्था का वर्णन रामकरी राग में होता है।

जहाँ श्रीराधाजी अपनी सखी के साथ विद्यमान हैं, उनसे थोड़ी ही दूर श्रीकृष्ण केलिपरायण तथा विलासयुक्त नायिकाओं के समूह में विलासविहार कर रहे हैं, जिसे देखकर राधाजी के मन में भी श्रीकृष्ण के साथ रमण करने की लालसा जाग उठती है। श्रीकृष्ण निकुञ्जवन में किसी व्रजसुन्दरी को आलिङ्गन करते हैं तो कृष्ण के हृदय में राधाजी की स्फूर्ति होने लगती है ॥१॥

मुग्ध- मुग्ध शब्द मुग्धा नायिका के भेद तथा सुन्दर दोनों का वाचक है । मुग्ध के ये दोनों ही अर्थ यहाँ अभिप्रेत हैं।

विलास - एक हावभाव विशेष का नाम है। नाट्यशास्त्र में भरतमुनि ने कहा है-

स्थाने यानासने वापि नेत्र वक्त्रादि कर्मणा ।

उत्पाद्यते विशेषो यः स विलासः प्रकीर्त्तितः ॥

अर्थात् चलते, बैठते तथा यात्रा करने के समय नेत्र एवं मुख आदि की क्रिया और भङ्गी के द्वारा जो मनोहर चेष्टा होती है, वही विलास शब्द से अभिहित है।

स्मित- श्रीकृष्ण मुस्करा रहे हैं। ईषत् हास को स्मित कहते हैं। भरत मुनि के शब्दों में-

ईषद् विकसितैर्गण्डैः कटाक्षैः सौष्ठवान्वितैः ।

अलक्षितद्विजं धीरमुत्तमानां स्मितं भवेत् ॥

अर्थात् जो व्यक्ति मुस्कराता है, उसके दाँत दिखलायी नहीं पड़ते हैं। स्मित में मनोहर कटाक्ष के द्वारा कपोल थोड़े विकसित अवश्य हो जाते हैं।

पीन - पयोधर - भार- भरेण हरिं परिरभ्य सरागं ।

गोपवधूरनुगायति काचिदुदञ्चित - पञ्चम - रागम् –

[हरिरिह-मुग्ध-वधुनिकरे... ॥ २ ॥]

अन्वय- सखि, काचित् गोपवधूः पीनपयोधर-भार- भरेण (पीनयोः विशालयोः पयोधरयोः स्तनयोः भारभरेण भारातिशयेन; निविड़ - स्तनभारातिशयेन इत्यर्थः) सरागं [ यथास्यात् तथा] हरिं परिरभ्य (निर्भरमालिङ्गय) उदञ्चितपञ्चमरागं (उदञ्चित उद्घोषित उच्चैर्गीत इति यावत् पञ्चमरागो यस्मिन् तद् यथा तथा) अनु (पश्चात् परिरम्भणानन्तरमित्यर्थः ) गायति । हरिरिहेत्यादि सर्वत्र योज्यम् ॥ २ ॥

अनुवाद - देखो सखि ! वह एक गोपाङ्गना अपने पीनतर पयोधर-युगल के विपुल भार को श्रीकृष्ण के वक्षस्थल पर सन्निविष्टकर प्रगाढ़ अनुराग के साथ सुदृढ़रूप से आलिङ्गन करती हुई उनके साथ पञ्चम स्वर में गाने लगती है।

पद्यानुवाद-

कोई पीन पयोधर गोपी युग भुजमें बँध जाती

हरि गायनके अन्त साथ उठ पञ्चम स्वरमें गाती ॥

बालबोधिनी - सखी श्रीराधाजी से गोपियों की श्रीकृष्ण के साथ की जानेवाली चेष्टाओं का वर्णन करती हुई कहती है हे राधे, तुम्हारे साथ श्रीकृष्ण का जो विलास है, वह असमोर्द्ध है। विपुल स्तनवाली गौरवातिशय युक्ता गोपी के द्वारा अतिशय अनुराग के साथ श्रीकृष्ण का आलिङ्गन किया जाना तो एक आभास मात्र है। भला ये सुन्दरियाँ तुम्हारी समानता कहाँ कर सकती हैं।

आगे-आगे श्रीहरि पञ्चम राग में गा रहे हैं और गोपी उनके गाने के बाद उसी प्रकार से गा रही है।

गोपी को पीन पयोधरवती बताना उसकी सौन्दर्यातिशयता को सूचित करना है।

इसमें श्रीकृष्ण की अनिपुणता भी प्रदर्शित हो रही है। अतएव उनके द्वारा आलिङ्गन का प्रयास किये बिना ही गोपी उनका आलिङ्गन कर रही है। अतः यह केलि रहस्य मधुर होने पर भी श्रीराधाजी के अभाव में कैसे श्रेष्ठ हो सकता है ? परस्पर आलिङ्गन किये जाने पर ही शृङ्गार रस परिपुष्ट होता है, जो तुम्हारे (श्रीराधाजी के) साथ ही सम्भव है। फिर भी तुम्हारा स्मरण करते हुए श्रीश्यामसुन्दर की लीलाचेष्टा देखो। शृङ्गार रस में पञ्चम राग का ही प्रायः गान किया जाता है।

भरत मुनि ने कहा भी है-

पञ्चमं मध्य भूयिष्ठं हास्य शृङ्गारयोर्भवेत् ।

अर्थात् हास्य तथा शृङ्गार रस में मध्यताल प्रचुर पञ्चम राग ही गाया जाता है ॥२॥

कापि विलास - विलोल - विलोचन - खेलन - जनित - मनोजं ।

ध्यायति मुग्धवधूरधिकं मधुसूदन - वदन - सरोजम्-

[हरिरिह - मुग्ध - वधुनिकरे... ॥ ३ ॥]

अन्वय- सखि, कापि मुग्धवधूः (नवीना रमणी) विलास-विलोल-विलोचन - खेलन-जनित - मनोजम् (विलासेन विलोलयोः चटुलयोः विलोचनयोः नयनयोः खेलनेन चालनभङ्गया कटाक्षपातेनेत्यर्थः जनितः मनोजः कामः यत्र तत् यथास्यात् तथा) मधुसूदन वदन - सरोजम् (श्रीहरिमुख- पङ्कजम्) अधिकं (अतिमात्रं ) ध्यायति (चिन्तयति निरीक्षते भ्रमरवत् रसविशेषा- न्वेषणपर इति श्लिष्ट - मधुसूदन - पदोपन्यासः ) [ अन्यत् पूर्ववत् ] ॥ ३ ॥

अनुवाद - देखो सखि ! श्रीकृष्ण जिस प्रकार निज अभिराम मुखमण्डल की शृङ्गार रस भरी चञ्चल नेत्रों की कुटिल दृष्टि से कामिनियों के चित्त में मदन विकार करते हैं, उसी प्रकार यह एक वराङ्गना भी उस वदनकमल में अश्लिष्ट (संसक्त) मकरन्द पान की अभिलाषा से लालसान्वित होकर उन श्रीकृष्ण का ध्यान कर रही है।

पद्यानुवाद-

कोई लास लोल लोचनसे बने सहज मतवाले।

मधुसूदनके मुख सरसिजमें ठगी, दीठ - मधु ढाले ॥

बालबोधिनी – मुग्धानायिका की चेष्टाओं का वर्णन करती हुई सखी कह रही है वह नायिका श्रीकृष्ण के मुख कमल का ध्यान कर रही है । श्रीश्यामसुन्दर प्रेमविलास के कारण विलसित अपने चञ्चल नेत्रों से दृष्टि डालकर वर रमणियों के मदनविकार को अभिवर्द्धित कर रहे हैं और अत्यधिक आनन्द का अनुभव मन-ही-मन कर रहे हैं। मुग्धा नायिका में लज्जा का प्राचुर्य होता है, अतएव उसकी शृङ्गारिक चेष्टाएँ बड़ी ही मर्यादित होती हैं ॥ ३ ॥

कापि कपोलतले मिलिता लपितुं किमपि श्रुतिमूले ।

चारु चुचुम्ब नितम्बवती दयितं पुलकैरनुकूले-

[हरिरिह-मुग्ध-वधुनिकरे... ॥ ४ ॥]

अन्वय- सखि, नितम्बवती (विपुलनितम्बा) कापि (तरुणी गोपाङ्गना) श्रुतिमूले (कर्णमूले) किमपि लपितुं (भाषितुं) मिलिता (किञ्चित् कथनच्छलेन सङ्गता सती) पुलकैः (रोमाञ्चैः) [प्रियतम-स्पर्शसुखेन-अधीरा सतीति भावः] अनुकूले (अभिलाषुके, प्रियाभिलाषसूचके इति यावत्) कपोलतले (प्रियतमस्य गण्डदेशे ) चारु (मनोज्ञं यथास्यात् तथा) दयितं (प्रियं हरिं) चुचुम्ब॥४॥

अनुवाद - वह देखो सखि ! एक नितम्बिनी (गोपी) ने अपने प्राणवल्लभ श्रीकृष्ण के कर्ण (श्रुतिमूल) में कोई रहस्यपूर्ण बात करने के बहाने जैसे ही गण्डस्थल पर मुँह लगाया तभी श्रीकृष्ण उसके सरस अभिप्राय को समझ गये और रोमाञ्चित हो उठे। पुलकाञ्चित श्रीकृष्ण को देख वह रसिका नायिका अपनी मनोवाञ्छा को पूर्ण करने हेतु अनुकूल अवसर प्राप्त करके उनके कपोल को परमानन्द में निमग्न हो चुम्बन करने लगी।

पद्यानुवाद-

चारु नितम्बवती कोई मिस कानोंमें कुछ कहने-

पुलक कपोल चूम श्रीहरिके लगी प्रेम रस बहने ॥

बालबोधिनी - नितम्बवती किसी प्रौढ़ा नायिका की सौन्दर्यातिशयता को इस पद द्वारा सूचित किया गया है। सखियों के बीच में प्रियतम का चुम्बन करना अनुचित है, इसलिए कार्यान्तर बोधन का बहाना बनाकर उसने श्रीकृष्ण के कपोलप्रान्त को चूम लिया - इस वाक्यांश के द्वारा नायिका के शृङ्गार वैदग्ध्य को सूचित किया गया है, यहाँ श्रीकृष्ण अनुकूल नायक हैं ॥४॥

केलि-कला-कुतुकेन च काचिदमुं यमुनावनकुले ।

मञ्जुल-वञ्जुल-कुञ्जगतं विचकर्ष करेण दुकूले-

[हरिरिह - मुग्ध - वधुनिकरे... ॥५ ॥]

अन्वयसखि, काचित् (गोपललना) यमुनाकूले (यमुनातीरे) मञ्जुल-वञ्जुल-कुञ्जगतं (मञ्जुलः मनोहरः यः वञ्जुलकुञ्जः लतादिपिहितो वेतसकुञ्जः तत्र गतं ) अमुं (हरिं) केलिकला- कुतुकेन (केलिकलायां सुरतनैपुण्ये यत् कुतुकम् औत्सुक्यं तेन हेतुना) करेण (हस्तेन) दुकूले (पीताम्बरे) विचकर्ष (आकृष्टवती) ॥५॥

अनुवाद - सखि ! देखो, यमुना पुलिन पर मनोहर वेतसी( वञ्जुल या वेंत) कुञ्ज में किसी गोपी ने एकान्त पाकर काम रस वशवर्त्तिनी हो क्रीड़ाकला कौतूहल से उनके वस्त्रयुगल को अपने हाथों से पकड़कर खींच लिया।

पद्यानुवाद-

केलि कलाकुल कोई गोपी, यमुना जलके तीरे ।

ले जाने हरि, वसन खींचती, वञ्जुल वनमें धीरे ॥

बालबोधिनी - सखी किसी अधीरा नायिका का वर्णन करते हुए श्रीराधा से कहती है, श्रीकृष्ण जब मनोहर वेतसी लताकुञ्ज में गये हुए थे, तब वह अधीरा नायिका श्रीकृष्ण का वस्त्र पकड़कर उन्हें यमुना किनारे ले गयी; क्योंकि वह रहकेलि कलाकौतूहल से आविष्ट हो गई थी। '' कार से तात्पर्य है कि उसने विजन स्थान देखकर श्रीकृष्ण के साथ अनेक प्रकार से परिहास किया।

यमुनातीरे न कहकर यमुना जलतीरे कहने का अभिप्राय है कि जल के समान ही तट पर शैत्य (शीतलता) तथा पावनता भी है।

अन्य नायिका में अनुरक्त श्रीकृष्ण का वस्त्र खींचकर ले जाना अधीरता का अभिव्यञ्जक है ॥५ ॥

करतल-ताल-तरल - वलयावलि - कलित- कलस्वन - वंशे ।

रासरसे सहनृत्यपरा हरिणा युवतिः प्रशंससे-

[हरिरिह-मुग्ध-वधुनिकरे... ॥ ६ ॥]

अन्वय- सखि, हरिणा (श्रीकृष्णेन) करतल-ताल-तरल- वलयावलि-कलित-कलम्बने वंशे ( करतलयोः पाणितलयोः तालेन ध्वनिविशेषेण तरला चञ्चला या वलयावलिः कङ्कणश्रेणिः तया कलितः अनुपूरितः कलम्बनः मधुरस्वरो वंशः वाद्यविशेषः यस्मिन् तादृशे) रासरसे ( रासोत्सवे) सहनृत्यपरा ( सहनृत्यन्ती) काचित् युवतिः प्रशंशसे (साधु साध्विति प्रशंसिता ॥ ६ ॥

अनुवाद – हाथों की ताली के तान के कारण चञ्चल कंगण- समूह से अनुगत वंशीनाद से युक्त अद्भुत स्वर को देखकर श्रीहरि रासरस में आनन्दित नृत्य-परायणा किसी युवती की प्रशंसा करने लगे ।

पद्यानुवाद-

जिसकी ताल समय कर चूड़ी वंशी- स्वरमें खनकी ।

रास - सखी की स्तुति श्रीहरिने जी भर भर कर की ॥

बालबोधिनी - सखी श्रीराधाजी से कह रही है कि रासलीला में श्रीकृष्ण के साथ नृत्य करती हुई कोई युवती तान, मान, लय के साथ हाथों से ताली बजाने लगी, जिससे उसकी चूड़ियाँ एक दूसरे से टकराकर अभिघात के कारण मधुर ध्वनि प्रकट करने लगीं और इस प्रकार वलय की खनकाहट और वंशीध्वनि मिलकर अद्भुत मधुर नाद प्रस्तुत करने लगी, जिसे सुनकर श्रीकृष्ण पुनः पुनः उस रमणी की प्रशंसा करने लगे ॥ ६ ॥

श्लिष्यति कामपि चुम्बति कामपि कामपि रमयति रामां ।

पश्यति बामां-सस्मित - चारुतरामपरामनुगच्छति

[हरिरिह - मुग्ध - वधुनिकरे... ॥७ ॥]

अन्वय- सखि, [हरिः ] कामपि (तरुणीं) श्लिष्यति (आलिङ्गति),; कामपि चुम्बति; कामपि रामां रमयति (क्रीड़ाकौतुकेन सुखयति); सस्मित - चारुतराम् (सस्मिता अतएव चारुतरा ताम्; मृदुमधुर - हासेन अतिमनोहरामित्यर्थः ) [ कामपि ] पश्यति; [तथा] अपरां वामाम् ( प्रतिकूलाम्, प्रणयकोपवशात् अभिमानभरेण स्थानान्तर - गामिनीम् ) अनुगच्छति ॥७॥

अनुवाद - शृङ्गार रस की लालसा में श्रीकृष्ण कहीं किसी रमणी का आलिङ्गन करते हैं, किसी का चुम्बन करते हैं, किसी के साथ रमण कर रहे हैं और कहीं मधुर स्मित सुधा का अवलोकन कर किसी को निहार रहे हैं तो कहीं किसी मानिनी के पीछे-पीछे चल रहे हैं।

पद्यानुवाद-

किसी सखीको भुजमें भरते और किसीसे रसते ।

गीले कर फिर किसी अधरको, किसी आँखमें हँसते ॥

कहीं किसीके पीछे पीछे छायासे हरि चलते ।

वृन्दावनके लताकुञ्जकी क्रीड़ा कहते कहते ॥

बालबोधिनी – रासक्रीड़ा में श्रीकृष्ण विविध रूप धारण करके क्रीड़ोन्मुख नायिकाओं के साथ विविध शृङ्गारिक चेष्टाओं को किया करते हैं। सम्भोग सुख की लालसा के वशीभूत होकर श्रीकृष्ण कभी किसी कामिनी का आलिङ्गन करते हैं तो कभी किसी का चुम्बन । कहीं किसी के साथ विहार कर रहे हैं तो कहीं सरस रसपूर्ण नेत्रों से किसी वर सुन्दरी का सतृष्ण भाव से निरीक्षण कर रहे हैं और कभी विभ्रम के कारण किसी वराङ्गना को 'श्रीराधा' कहकर सम्बोधित कर रहे हैं, जिससे वह मानिनी हो जाती है। रति की भावना तीव्र होने पर चेष्टा विशेष के साथ उसका अनुगमन करते हैं। मानिनी गोपी के रति परान्मुख होने पर बार-बार अनुनय विनय करते हुए उसके क्रोध (रोष) को विगलित करने का प्रयास करते हैं।

प्रस्तुत श्लोक में श्रीकृष्ण का शठत्व, धृष्टत्व, दक्षिणत्व, अनुकूलत्व तथा धूर्त्तत्व दिखायी देता है। सभी नायिकाएँ अभिसारिका नायिकाएँ हैं।

शृङ्गारतिलक ग्रन्थ में धृष्ट नायक के लक्षण इस प्रकार बताये हैं-

अभिव्यक्तान्य तरुणी भोगलक्ष्मापि निर्भयः ।

मिथ्यावचन दक्षश्च धृष्टोऽयं खलु कथ्यते ॥(शृ. ति. १-१७)

अर्थात् अन्य तरुणी के साथ सम्भोग के चिह्नों के स्पष्ट रहने पर भी बिना भय के निपुणता के साथ जो झूठ बोलता है, उसे धृष्ट नायक कहते हैं।

शठ के लक्षण इस प्रकार बताये गये हैं-

प्रियं व्यक्ति पुरोऽन्यत्र विप्रियं कुरुते भृशम् ।

निगूढमपराद्धं च शठोऽयं कथितो बुधैः ॥ (शृ. ति. १-१८)

अर्थात् विद्वानों ने उस नायक को शठ नायक कहा है, जो अपने अपराध को छिपाये रहता है। किसी दूसरी नायिका के प्रति आसक्त रहता है और अपनी नायिका के समक्ष मीठी-मीठी बातें करता है ॥७॥

श्रीजयदेव - भणितमिदमद्भुत - केशव - केलि - रहस्यं I

वृन्दावन - विपिने ललितं वितनोतु शुभानि यशस्यम्-

[हरिरिह - मुग्ध - वधुनिकरे... ॥ ८ ॥]

अन्वय- श्रीजयदेव - भणितम् (श्रीजयदेवेन भणितम् उक्तम्) वृन्दावन - विपिने ललितं (मनोहरं ) यशस्यम् (यशस्करम्) इदम् अद्भुत - केशव केलिरहस्यं ( अद्भुतम् वैदग्धी- विशेषेण विचित्रं श्रीराधाविलापपरीक्षणरूपं केशवस्य केलिरहस्यं ) [ भक्तानां ] शुभानि वितनोतु (विस्तारयतु ॥८ ॥

अनुवाद- श्रीजयदेव कवि द्वारा रचित यह अद्भुत मङ्गलमय ललित गीत सभी के यश का विस्तार करे। यह शुभद गीत श्रीवृन्दावन के विपिन विहार में श्रीराधाजी के विलास परीक्षण एवं श्रीकृष्ण के द्वारा की गयी अद्भुत कामक्रीड़ा के रहस्य से सम्बन्धित है। यह गान वन बिहारजनित सौष्ठव को अभिवर्द्धित करनेवाला है ॥

पद्यानुवाद-

मग्न हुए रस सरिमें कवि 'जय' निशिदिन बहते बहते ।

श्रोता भी हों मुक्त क्लेशसे सब कुछ सहते सहते ॥

बालबोधिनी गीत के उपसंहार में कहा गया है कि कवि जयदेवजी ने श्रीकेशव की अद्भुत केलिक्रीड़ा – रहस्य का इस गीत में निरूपण किया है। अद्भुत रहस्य यह है कि एक ही श्रीकृष्ण ने एक ही समय में अनेक वराङ्गनाओं की अभिलाषाओं की पूर्ति करते हुए उनके साथ क्रीड़ा की। ताल और राग में आबद्ध होने के कारण यह गीत अति ललित है। इसके लालित्य का सबसे बड़ा कारण यह है कि इसमें श्रीकेशव की केलि-कला का रहस्य वर्णित है। यह मञ्जुल मधुर गीत पढ़ने और सुननेवाले भक्तजनों का कल्याण करे और उनके सुयश की वृद्धि करे ॥ ८ ॥

अष्ट पदि ४ भ्रमर पदम्

विश्वेषामनुरञ्जनेन जनयन्नानन्दमिन्दीवर-

श्रेणीश्यामल-कोमलैरूपनयन्नङ्गैरनङ्गोत्सवम् I

स्वछन्दं व्रजसुन्दरीभिरभितः प्रत्यङ्गमालिङ्गितः

शृङ्गारः सखि मूर्त्तिमानिव मधौ मुग्धो हरिः क्रीड़ति ॥१ ॥

अन्वय - सखि, अनुरञ्जनेन (स्वस्ववाञ्छातिरिक्त- रसदान- प्रीणतेन) विश्वेषाम् (जगताम् ) आनन्दं जनयन्, मुग्धः (सुन्दरः) हरिः मधौ (वसन्ते) इन्दीवर श्रेणी - श्यामल-कोमलैः (नीलोत्पल- श्रेणीतोऽपि श्यामलैः सुकुमारैश्च) अङ्गैः अनङ्गोत्सव (कामोल्लासं) उपनयन् (संवर्द्धयन् ) [ अत्र इन्दीवर शब्देन शीतलत्वं श्रेणीशब्देन नवनवायमानत्वं श्यामलपदेन सुन्दरत्वं, कोमलशब्देन सुकुमारत्वञ्च सूचितम्] अभितः, (समस्ततः, सर्वैरङ्गैरित्यर्थः) व्रजसुन्दरीभिः स्वच्छन्दं, [यथास्यात् तथा] प्रत्यङ्गम् (प्रत्यवयम्) आलिङ्गितः (प्रगाढ़ाश्लिष्टः; आलिङ्गनानु-रञ्जनेनानुरञ्जित इत्यर्थः) मूर्त्तिमान् (देहधरः) शृङ्गारः (शृङ्गाररसः) इव क्रीड़ति (एक एव विश्वमनुरञ्जयन् आनन्दयति ) [ शृङ्गार रसोऽपि श्यामवर्णः - यथा- स्थायी भावो रतिः श्यामवर्णोऽयं विष्णुदैवतः इति ] ॥ १ ॥

अनुवाद- हे सखि ! इस वसन्तकाल में विलास-रस में उन्मत्त श्रीकृष्ण मूर्तिमान शृङ्गार रसस्वरूप होकर विहार कर रहे हैं। वे इन्दीवर कमल से भी अतीव अभिराम कोमल श्यामल अङ्गों से कन्दर्प महोत्सव का सम्पादन कर रहे हैं। गोपियों की जितनी भी अभिलाषा है, उससे भी कहीं अधिक उनकी उन्मत्त लालसाओं को अति अनुराग के साथ तृप्त कर रहे हैं। परन्तु व्रजसुन्दरियाँ विपरीत रतिरस में आविष्ट हो विवश होकर उनके प्रत्येक अङ्ग प्रत्यङ्ग को सम्यक् एवं स्वतन्त्र रूप से आलिङ्गित कर रही हैं ॥ १ ॥

पद्यानुवाद-

हैं विहर रहे मधु ऋतुमें, अनुरागमयी आँखों से-

कोमल श्यामल सरसिजकी, मधु स्निग्धमयी पाँखों से ॥

है अङ्ग अङ्ग आलिङ्गित, मृदु गोपीजन- अङ्गों में ।

शृङ्गार - मूर्ति हरि दीपित, जन करते रस- रङ्गोंसे ॥

बालबोधिनी - सखी श्रीराधाजी की उद्दीपना भावना को अभिवर्द्धित करने हेतु उन्हें प्रियतम श्रीहरि की शृङ्गारिक चेष्टाओं को दिखलाती हुई कहती है- सखि ! देखो, इस समय वसन्तकाल है, इसमें भी मधुमास है और श्रीहरि मुग्ध होकर समस्त गोपीयों के साथ साक्षात् शृङ्गार रस के समान क्रीड़ा विलास कर रहे हैं, शृङ्गारः सखिः मूर्त्तिमानिव – श्रीकृष्ण को मूर्तिमान शृङ्गार रस के समान बनाकर सखी के द्वारा उनका प्रमदासङ्गत्व स्वरूप व्यक्त हुआ है। पुरुषः प्रमदायुक्तः शृङ्गार इति संज्ञितः – प्रमदा से युक्त पुरुष शृङ्गार कहलाता है। गोपियों की जितनी भी अभिलाषा रही, उससे भी कहीं अधिक रूप में श्रीकृष्ण अनङ्ग उत्सव द्वारा उनका अनुरञ्जन कर रहे हैं, आनन्दवर्द्धन कर रहे हैं। वे श्रीहरि अनुराग के द्वारा समस्त जीवों को आनन्द प्रदान कर रहे हैं।

श्रीकृष्ण के अङ्गों का सौन्दर्य वर्णन करते हुए सखी कहती है कि वे नीलकमल से भी अधिक श्यामल तथा कोमल हैं। इन्दीवर शब्द से शीतलत्व, श्यामलत्व और कोमलत्व सूचित होता है। और भी इन्दीवर शब्द से शैत्य और श्रेणी शब्द से नव-नवायमानत्व समझा जाता है । श्यामल शब्द से सुन्दरत्व और कोमल शब्द से सुकुमारत्व घोषित होता है। अपने इन कोमलतम अङ्गों के द्वारा श्रीकृष्ण कामोत्सव मना रहे हैं।

व्रजसुन्दरियाँ बिना किसी अवरोध के स्वछन्दतापूर्वक उनके उन-उन अङ्गों का आलिङ्गन किये हुए हैं।

रस निष्पत्ति दो प्रकार से होती है। नायक का नायिका के प्रति तथा नायिका का नायक के प्रति अनुराग से। नायक का नायिका के प्रति अनुराग रहने पर भी नायिका का नायक के प्रति जबतक अनुराग नहीं होता तब तक रस की निष्पत्ति नहीं हो सकती है।

प्रश्न होता है कि यहाँ तो परस्पर अनुरञ्जन मात्र हुआ है, तब रस कहाँ है ?

विभाव, अनुभाव सात्त्विक तथा सञ्चारी भावों के सम्मिलन में रस की स्थिति है। यही रस स्नेह, मान, प्रणय, राग अनुराग, भाव- महाभाव आदि के क्रम से अभिवर्द्धित होता है। अतः जब प्रेम का परिपाक हो जाता है तब रस का अभ्युदय होता है। यह प्रेम रस जब प्रकाशित होने लगता है, तब नायक-नायिका में काल, देश और क्रिया के सम्बन्ध में कोई सङ्कोच नहीं रहता । निःसङ्कोच भाव रहने पर भी मिलन में सम्पूर्णता नहीं हो सकती, इसके उत्तर में कहते हैं कि महाभाव रस के द्वारा सर्वाङ्ग मिलन सिद्ध होता है।

पुनः शङ्का होने पर कि श्रीकृष्ण ने अङ्गनाओं का केवल एकदेशीय रूप में अवलोकन किया है तो इसका निराकरण यह है कि प्रत्यङ्गमालिङ्गित- अर्थात् श्रीकृष्ण ने सर्वाङ्ग - एक - एक अङ्ग को यथोचित क्रियाओं द्वारा आलिङ्गन, चुम्बन, स्पर्श आदि के द्वारा उन सबका अनुरञ्जन किया है। अब फिर यह प्रश्न सामने आया कि एकाकी श्रीकृष्ण ने सबका आलिङ्गन कैसे किया ? समाधान यह है कि जैसे शृङ्गार रस एक होकर भी समस्त जगत में परिव्याप्त है, उसी प्रकार श्रीकृष्ण में भी सर्वव्यापकत्व है। इसी गुण से वह अखिल विश्व का अनुरञ्जन करते हैं।

प्रस्तुत श्लोक में दीपकालङ्कार है, वैदर्भी रीति है, शार्दूल विक्रीड़ित छन्द है, शृङ्गार रस है तथा वाक्यौचित्य है। सम्पूर्ण गीत की नायिका श्रीराधा उत्कण्ठिता नायिका हैं। नायक के द्वारा विपरीत आचरण किये जाने पर जो नायिका विरहोत्कण्ठिता तथा उदास रहती है, वह उत्कण्ठिता नायिका कहलाती है ॥ १ ॥

रासोल्लासभरेण विभ्रम-भृतामाभीर - वामभ्रुवा-

मभ्यर्णे परिरभ्य निर्भरमुरः प्रेमान्धया राधया ।

साधु तद्वदनं सुधामयमिति व्याहृत्य गीतस्तुति-

व्याजादुद्भटचुम्बितः स्मितमनोहारी हरिः पातु वः ॥२॥

इति श्रीगीतगोविन्द महाकाव्ये सामोद दामोदर नाम प्रथमः सर्गः ।

अन्वय - [अधुना कविर्वसन्तरासमनुवर्णयन् शारदीय- रासकृत-श्रीराधाकृष्ण-विलासमनुस्मरयन् तद्वर्णनरूपया आशिषा भक्तान् संवर्द्धयति] - प्रेमान्धया (अनुरागभरेण ज्ञानशून्यया) राधया रासोल्लासभरेण (रासोत्सवानन्दातिशयेन) विभ्रमभृताम् (हावभाव-समन्विताम्) आभीर-वामभ्रुवाम् (गोप-ललनानां) [मध्ये] अभ्यर्णं (समीपे ) निर्भरं (गाढं यथा तथा ) उरः (वक्षः) परिरभ्य (आश्लिष्य), त्वद्वदनं (तव मुखं) साधु सुधामयम् (पीयूषपूर्णम्) इति गीतस्तुतिव्याजात् (गानप्रशंसाच्छलेन) व्याहृत्य (उक्त्वा) उद्भटचुम्बितः (प्रगाढ़चुम्बितः ) [अतएव ] स्मितमनोहारी ( स्मितेन मनोहरणशीलः) हरिः वः (युष्मान्) [भक्तामिति भावः] पातु॥ [ अतएव सर्गोऽयं श्रीराधा-विलासानुभवेन सम्यङ्मोदेन सह वर्त्तमानो दामोदरो यत्र स इति सामोद - दामोदरः प्रथमः ] ॥ १० ॥

अनुवाद - जिस श्रीकृष्ण के प्रेम में अन्धी होकर विमुग्धा श्रीराधा लज्जाशून्य होकर रासलीला के प्रेम में विह्वला शुभ्रा गोपाङ्गनाओं के समक्ष ही उनके वक्षःस्थल का सुदृढ़रूप से आलिङ्गन कर 'अहा नाथ' तुम्हारा वदनकमल कितना सुन्दर है, कैसी अनुपम सुधाराशि का आकर है - इस प्रकार स्तुति गान करती हुई सुचारु रूप से चुम्बन करने लगी तथा श्रीराधा की ऐसी प्रेमासक्ति देखकर हृदय में स्वतःस्फूर्त्त आनन्द के कारण जिस श्रीकृष्ण का मुखकमल मनोहर हास्यभूषण से विभूषित होने लगा, ऐसे हे श्रीकृष्ण ! आप सबका मङ्गलविधान करें।

पद्यानुवाद-

मधु रास - मुग्ध सखि सम्मुख मातल राधा भर भुजमें-

हरिको; बोली- 'प्रिय, कितना है अमृत मुख सरसिजमें।'

फिर गीत - स्तुति मिस सत्वर वह चूम उठी मुख उनका ।

प्रिय चुम्बनसे प्रमुदित हरि अब दूर करें दुःख सबका ॥

बालबोधिनी - यह प्रथम सर्ग का अन्तिम श्लोक है। इस सर्ग का नाम सामोद दामोदर है।

सखी वासन्ती रात का चित्राङ्कन करते हुए श्रीराधाजी को शारदीया रासस्थित श्रीकृष्ण के विलास का स्मरण कराने लगी। श्रीकृष्ण वसन्त ऋतु में कामोत्सव में मग्न हैं । लीलानायक श्रीकृष्ण आभीर वामनयना गोपियों के मध्य विराजमान हैं। पहले तो श्रीराधा विरहोत्कण्ठिता थी, किन्तु सखी से प्रेरित होने पर उनके हृदय में उत्कट अभिलाषा जाग उठी। लज्जाशीला होने पर भी प्रेमावेश के कारण सभी सखियों के समक्ष सुधामय वाक्यों से स्तुतिगान करने के बहाने श्रीकृष्ण के वक्षःस्थल का सुदृढ़ आलिङ्गन कर उनका चुम्बन करने लगी ।

समस्त व्रजरम्भाओं के समक्ष राधा के हृदय का भाव निःसङ्कोच उद्घाटित होने पर श्रीकृष्ण का मुखमण्डल मञ्जुल हर्ष से परिपूर्ण हो गया। शील स्वभावा श्रीराधिका की विदग्धता एवं रासोल्लास के कारण विभ्रम भावोन्मत्ता प्रेमान्धता से अभिभूत हुए श्रीकृष्ण सबका मङ्गल विधान करें ।

प्रस्तुत श्लोक में नायिका प्रगल्भा है और नायक मुग्ध है। शार्दूल विक्रीड़ित छन्द है। आशीः, अप्रस्तुत प्रशंसा, व्याजोक्ति आदि अलङ्कार हैं।

इति बालबोधन्यां श्रीगीतगोविन्दटीकायां प्रथमः सर्गः ।

आगे जारी........ गीतगोविन्द सर्ग 2 अक्लेश केशव

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