गीतगोविन्द सर्ग १२ सुप्रीत पीताम्बर

गीतगोविन्द सर्ग १२ सुप्रीत पीताम्बर

कवि श्रीजयदेवजीकृत गीतगोविन्द के सर्ग १ से सर्ग ११ तक को पिछले अंक में आपने पढ़ा । अब गीतगोविन्द सर्ग १२ जिसका नाम सुप्रीत पीताम्बर है। साथ ही तेईसवें सन्दर्भ अथवा तेईसवें प्रबन्ध अथवा अष्ट पदि २३ का वर्णन किया गया है। इस तेईसवें प्रबन्ध का नाम 'मधुरिपुमोदविद्याधर लीला' है।

गीतगोविन्द सर्ग १२ सुप्रीत पीताम्बर

श्रीगीतगोविन्दम्‌ द्वादशः सर्गः सुप्रीत-पीताम्बरः

गीतगोविन्द सर्ग १२ सुप्रीत पीताम्बर

Shri Geet govinda sarga 12 Suprit Pitamber

श्रीगीतगोविन्द बारहवाँ सर्ग - सुप्रीत पीताम्बर

अथ द्वादशः सर्गः

(सुप्रीत-पीताम्बरः)

गतवति सखीवृन्देऽमन्दत्रपाभर - निर्भर-

स्मरशरशाकूतस्फीतस्मितस्नपिताधराम् I

सरसमनसं दृष्ट्वा राधा मुहुर्नवपल्लव-

प्रसवशयने निक्षिप्ताक्षीमुवाच हरिः प्रियाम् ॥ १ ॥

अन्वय- सखीवृन्दे (सहचरीसमूहे) गतवति [सति] हरिः मन्दत्रपाभर - निर्भर - स्मर-शर-वशाकूत-स्फीत-स्मितस्नपिताधरां (मन्दः शिथिलः यः त्रपाभरः लज्जातिशयः तेन निर्भर: अतिप्रवृद्धः स्मरशरः तद्वशो यः आकूतः अभिप्रायः तेन स्फीतं प्रवृद्धं यत् स्मितं मृदुमधुर हसितं तेन स्नपितः अभिषिक्तः अधरः यस्याः तादृशीं) सरस-मनसं (अनुरागेण आर्द्रचित्तां) [ तथा ] मुहुः (पुनः पुनः ) नवपल्लव- प्रसर- शयने ( नव पल्लवानां प्रसरः समूह एव शयनं तस्मिन्) निक्षिप्ताक्ष (निक्षिप्ते अक्षिनी यस्याः तां) प्रियां (राधां) दृष्ट्वा उवाच ॥ १ ॥

अनुवाद सखीवृन्द के लता-कुञ्ज  से बाहर चले जाने पर अत्यधिक लज्जा से परिपूर्ण श्रीराधा कामदेव के वशीभूत हो गयीं, उनके अधरोष्ठ स्मित से सुशोभित हो गये, रतिक्रीड़ा के लिए अनुरागवती हो नव पल्लवों एवं कुसुमों से रचित शय्या को पुनः पुनः अवलोकन करने लगीं। अपनी प्रिया को ऐसा करते देखकर श्रीकृष्ण ने कहा-

पद्यानुवाद-

स्मर पूरित मन, लगी थिरकने दीठ 'शयन' की ओर

तरल स्मित भी लगी भिगाने मधुर अधरकी कोर,

लज्जासे हो उठे लाल जब गोरे मृदुल कपोल

सखी गमन पर हरि राधासे बोल उठे दो बोल-

बालबोधिनी - जब श्रीराधा निकुंज-लता-गृह में केलि-विलास शय्या के समीप पहुँचीं तो सखियाँ स्वयं को बाधक मानकर विविध प्रकार के बहाने बनाकर चली गयीं। श्रीकृष्ण ने श्रीराधा को मन में अत्यधिक लज्जित होते हुए देखा। काम की परवशता के वशीभूत हो मन्द मन्द मुस्कराहट श्रीराधा के होठों पर खेल रही थी, उत्सुकता से पूर्ण पल्लवों की सेज की ओर देखे जा रही थीं, कुछ बोल नहीं पा रही थीं, मन अनुराग से भरा हुआ था, नवीन पल्लवों द्वारा रचित शय्या ही उनका अभिप्राय सर्वस्व हो रहा था। श्रीराधा की ऐसी मानसिक स्थिति को देखकर श्रीकृष्ण ने सानुराग उनसे कहा ।

प्रस्तुत श्लोक में हरिणी छन्द है । इस सर्ग में स्वाधीनभर्तृका नायिका वर्णित हुई है। शय्याका पुन - पुनरावलोकन श्रीराधा की संभोगेच्छा का निदर्शन करता है।

गीतगोविन्द सर्ग १२ अष्ट पदि २३ - मधुरिपुमोदविद्याधर लीला

त्रयोविंश सन्दर्भ

गीतम् ॥ २३ ॥

विभासरागकतालीतालाभ्यां गीयते ॥ प्रबन्धः ॥ २३ ॥

गीतगोविन्द काव्य के इस २३वें प्रबन्ध को विलास राग तथा एकताली ताल से गाया जाता है।

किसलय - शयन-तले कुरु कामिनि ! चरण- नलिन - विनिवेशम् ।

तव पद-पल्लव-वैरि पराभवमिदमनुभवतु सुवेशम् ॥ १ ॥

क्षणमधुना नारायणमनुगतमनुसर राधिके ! ध्रुवपदम्

अन्वय- अयि कामिनि [ मत्पूजा त्वय्यस्तीति कामिनीशब्दः प्रयुक्तः] किशलय-शयन-तले (नवपल्लवशय्यायां ) चरण नलिन- विनिवेशं (चरण-कमलयोर्विन्यासं) कुरु [पूजायां प्रथमाङ्गमासनम् अङ्गीकुरु ] इदं (तरुण - पल्लवशयनं ) सुवेशं (तत्तद्गुणैः शोभमानमपि तव पद-पल्लव-वैरि (पदपल्लवस्य शत्रुभूतम्  अरुणतादिभिः गुणैः साम्यकाङ्क्षया वैरित्वं ज्ञेयं) [अतः अस्य शिरसि तव पदपल्लवस्य अवस्थापनात्] पराभवम् अनुभवतु, अयि राधिके अधुना नारायणं (नारीणां समूहो नार; नाराणाम् अयनम् स्त्रीसमूहानाम् आश्रयं) अनुगतं (त्वदेकपरं) [ बहुवल्लभमपि त्वदेकनिष्ठमिति भावः ] [ माम्] क्षणम् अनुभज (सेवस्व) ॥ १ ॥

अनुवाद - हे कामिनि । किसलयों से बनी शय्या पर अपने चरण नलिन को न्यस्त करो। तुम्हारे पद-पल्लवों की वैरिणी यह शय्या अब पराभव का अनुभव करे। हे राधिके ! मुहूर्त्त – मात्र के लिए आप मुझ नारायण का अनुसरण करें।

पद्यानुवाद-

मानिनि ! अपना मान बिसारो ।

नव किसलय - शैया पर सुन्दरि ! पद - पद्मोंको धारो ।

और अरुणिमासे पल्लवके अहंभावको मारो ॥

बालबोधिनी - श्रीहरि श्रीराधा से कहने लगे हे कामिनि ! अपने चरण-कमल इस पल्लव की सेज पर स्थापित करो। ये पल्लव तुम्हारे पद-पल्लवों से वैर रखते हैं। अपने पैरों से इन्हें प्रताड़ित करो, जिससे ये अपनी हार को अनुभूत कर लें। शत्रु अपने शत्रु को पराजित कर उसे अपने पैरों से रौंद ही तो डालता है। हे प्रिये! अब तुम मेरा अनुसरण करो, तुम्हारे दर्शनोत्सव से मैं अत्यधिक आनन्दित हो रहा हूँ। अब क्षण भर तुम्हारे साथ सम्भोगोत्सव से मुझे आनन्दित होने दो। अब ऐसा पल आ गया है कि तुम अपने अनुगत नारायण के साथ विलसो रस सृष्टि की भूमिका बनाते हुए श्रीकृष्ण कहने लगे- मैं नारायण हूँ। इस प्रसंग में नारायण का अभिप्राय यह है कि जो नार अर्थात् जल में निवास करता है, जो जनों के आश्रय स्वरूप हैं। जिस प्रकार कोई सन्तप्त व्यक्ति जलाशय में जल क्रीड़ा कर आनन्द की अनुभूति करता है, उसी प्रकार तुम भी कामसंतप्ता हो, मेरे प्रेम सागर में जलक्रीड़ा के समान रतिकेलि का अनुभव कर आनन्द प्राप्त करो और मेरी भी शीतलता का विधान करो।

प्रस्तुत श्लोक में तल्प पर 'पदपल्लवन्यास पद से करणविशेष सूचित हुआ है।

कर-कमलेन करोमि चरण - महमागमितासि विदूरम् ।

क्षणमुपकुरु शयनोपरि मामिव नूपुरमनुगतिशूरम् ॥

क्षणमधुना.... ॥ २ ॥

अन्वय - [तदारोहणेन कथं त्वदनुभजनं स्यादित्यत आह- [अयि प्रिये] [अहम् आत्मनः] करकमलेन [व] चरणमहं (चरणयोः महं पूजां) करोमि (संवाहयामीत्यर्थः) [यतः] [ त्वं ] विदूरम् (अतिदूरम्) आगमितासि (आनीतासि) [मयेति शेषः ]; [दूरागतस्य पादसंवाहनमुचितमितिभावः] ; [तदर्थं] क्षणं शयनोपरि (शय्यायां) अनुगतिशूरं (अनुगतौ अनुगमने सेवायां शूरं निपुणं) नूपुरमिव माम् उपकुरु (अङ्गीकुरु) [अनुगतस्य पाद-लग्नस्य उपकाराचरणं युक्तमेवेत्यर्थः] ॥ २ ॥

अनुवाद - हे प्रिये! आप बहुत दूर से चलकर आयी हैं। मैं अपने कर-कमलों से आपके चरणारविन्दों का संवाहन करता हूँ। अपने नूपुर का अनुसरण करनेवाले मुझ शूर पर भी तुम इस शय्या के ऊपर क्षणभर उपकार करो।

पद्यानुवाद-

दूर देशसे थक आई हो, कर कमलोंसे अपने

पद सहलाकर श्रम हर लूँगा (क्यों विहँसी चल नयने ?)

दूँ उतार पायल, क्षण भर तो शैया पर ढिग मेरे ।

बैठो प्रिय ! बतरससे हिय हो शीतल आज सबेरे ॥

बालबोधिनी - श्रीकृष्ण कहते हैं- राधे! तुम बड़ी दूर से चलकर आई हो, आओ, मैं अपने हाथों से तुम्हारे चरण-कमलों को दबा दूँ, मैं इन चरणों की पूजा करता हूँ। इन नूपुरों पर उपकार कर जैसे तुम इनको धारण करती हो, उसी प्रकार मुझ पर भी उपकार करो इस शय्या पर जिस प्रकार ये नूपुर सदा-सर्वदा तुम्हारा अनुसरण करते हैं, उसी प्रकार मैं भी नित्य निरन्तर तुम्हारा अनुसरण करता हूँ। अतः तुम्हारे द्वारा उपकृत किये जाने की योग्यता मुझमें है। मैं भी तुम्हारे अनुग्रह का पात्र हूँ।

वदन - सुधानिधि - गलितममृतमिव रचय वचनमनुकूलम् ।

विरहमिवापनयामि पयोधर - रोधकमुरसि दुकूलम् ॥

क्षणमधुना....  ॥ ३ ॥

अन्वय - [ अनुज्ञां बिना पूजा न शुभावहा इति अनुज्ञां प्रार्थयते] - अयि प्रेयसि ] वदन-सुधानिधि - गलितम् ( वदनमेव सुधानिधिः चन्द्रः तस्मात् गलितम् निःसृतम् ) अमृतम् इव अनुकूलं (अनुरागात्मकं ) [ अनुकूलमेव वचनम् अमृतवद्भव भावः ] वचनं रचय (वद ) [ ननु किमेतावता तवेप्सितं सेत्स्यतीत्याह ] [ अहं च] पयोधर-रोधकं (स्तनावरकं, स्तनाश्लेष- वाधकमित्यर्थः) दुकूलम् (वसनम् ) उरसि (वक्षसि अत्र पञ्चम्यर्थे सप्तमी ) विरहमिव अपनयामि (अपसारयामि) [ यथा विरहेण पयोधरदर्शनं विच्छिद्यते दुकूलेन; अतस्तत् दूरीकृत्य विरहव्यथामपि निवारयामि ] ॥ ३ ॥

अनुवाद - हे राधे! अपने मुखसुधानिधि से अमृततुल्य अनुकूल वचन कहिये। मिलन में बाधक स्वरूप विरह के समान तुम्हारे पयोधर - स्थल पर स्थित वस्त्र को मैं हटाना चाहता हूँ।

पद्यानुवाद-

उर- दुकूल कर दूर कुचोंकी आलिंगन- आतुरता ।

अन्त करो भुज- पाश समाकर देवि! अखिल व्याकुलता ॥

विरह - अनलसे दग्ध देह यह नष्ट हुए सब सपने ।

अधर - सुधा - रससे जीवन दो इस अनुचरको अपने ॥

बालबोधिनी - हे राधे ! अपने मुख से रति उत्पन्न करनेवाले मनोहारी अनुकूल वचन कहिए। तुम्हारा मुख चन्द्रमा के समान है। जिस प्रकार चन्द्रमा से अमृत निःसृत होता है, उसी प्रकार तुम भी अपने मुखेन्दु से सुधा - धारा वर्षण करो। सुरत-क्रीड़ा अनुकूल मीठी-मीठी बातें बोलो। मैं तुम्हारे विरह से तापित हूँ, परस्पर उपमान- उपमेय भाव से कहते हैं कि दुकूल के समान विरह को हटाता हूँ, विरह के समान दुकूल को हटाता हूँ। जैसे विरह हम दोनों के मिलन में बाधक बनता है, उसी प्रकार से यह तुम्हारे वक्षःस्थल पर विद्यमान दुकूल भी हम दोनों के मिलन में बाधक है। अतः इस बाधक या अवरोधक को हटाने की मुझे अनुमति दो। यह दुकूल पयोधरों का रोधक है। विरह में कामिनियों के पयोधरों की वृद्धि नहीं होती, उसी प्रकार वस्त्र से आवृत पयोधरों की भी वृद्धि नहीं होती। अतः तुम्हारे स्तनों के विकास को रोकनेवाले विरह रूप आवरण को मैं हटा देता हूँ।

प्रिय - परिरम्भण - रभस - वलितमिव पुलकितमति दुरवापम् ।

मदुरसि कुचकलशं विनिवेशय शोषय मनसिज - तापम् ॥

क्षणमधुना.... ॥४॥

अन्वय - [ततो वक्त्रमवलोकयन्तीं प्रति व्याकुल सन्नाह] - [अयि प्रियतमे] मदुरसि (मम उरसि वक्षोदेशे) प्रिय परिरम्भण- रभस वलितमिव (प्रियस्य कान्तस्य मम परिरम्भणाय आलिङ्गनाय यो रभसः औत्सुक्यं तेन आलिङ्गनावेशेन इत्यर्थः वलितम् उच्छलितमिव) पुलकितं (रोमाञ्चितं) [कस्यचित् वृथार्त्त्यावलोकात् करुणः तदार्त्तिशमनाय पुलकितो भवति तद्वदयमपीत्यर्थः] अतिदुरवापं (अतिदुर्लभं) कुचकलसं (स्तनकुम्भं) विनिवेशय (स्थापय) [दुरापस्य हृद्येव धारण- योग्यत्वादिति भावः] [तेनच मम] मनसिज-तापं (मदनसन्तापं) शेषय (खण्डय, निवारय इत्यर्थः) [रसायनाप तापोपशान्तिर्भवत्येवेत्यर्थः] ॥४॥

अनुवाद - हे प्रिये ! प्रियतम के परिरम्भण के लिए सन्नद्ध तथा हर्ष – रोमांच से पुलकित, दुष्प्राप्य इन कुच – कलशों को मेरे वक्षःस्थल पर रखकर मेरे मनसिज ताप को दूर कीजिए।

बालबोधिनी - हे राधे ! मेरे हृदय पर अपने कुच – कलशों को धारण करा दो, जैसे मानो मंगलवेदी पर कुच - कलश रख रही हो। इस तरह मेरे मनसिज ताप को शोषित कर डालो। कलश सन्निहित करने पर ताप तो चला ही जाता है । तुम्हारे कुचकलश पुलकित और रोमांचित हो रहे हैं। तुम्हारे अनुग्रह के बिना इनको प्राप्त करना अत्यन्त कठिन है। प्रियतम के आलिंगन के लिए ये अति सन्नद्ध एवं तत्पर हो रहे हैं। अतः इन्हें मेरे हृदय पर रखकर मेरे काम सन्ताप को दूर कर दीजिए।

अधर - सुधारसमुपनय भामिनि ! जीवय मृतमिव दासम् ।

त्वयि विनिहित-मनसं विरहानलदग्धवपुषमविलासम् ॥

क्षणमधुना.... ॥५॥

अन्वय - [अन्यथा मे दशमी दशा स्यादित्यत आह] – अयि भामिनि (अभिमानवति) [वक्रदृष्ट्या अवलोकनात् भामिनीत्युक्तम् ] अधर- सुधा-रसम् (अधरामृतम्) उपनय (देहि); त्वयि विनिहितमनसं (समर्पितचित्तम् अनन्यगतिकमित्यर्थः) विरहानल- दग्धवपुषम् [अतएव] अविलासं (विलासरहितं निरानन्दमिति यावत्) मृतमिव (मृतप्रायं) दासं (किङ्करं) जीवय (गतजीवितमिव माम् अमृतं दत्त्वा सजीवं कुरु इति भावः) ॥५ ॥

अनुवाद - हे भामिनि ! तुममें ही निविष्ट मनवाले, विरहानल से दग्ध, विलासरहित, मृतवत् मुझ दास को अपनी अधर- सुधा रस का पान कराकर जीवित करो।

बालबोधिनी - हे भामिनि ! तुम्हारे चरणों की ही परिचर्या करनेवाले इस दास पर तुम कृपा कर दो। अपने मान को त्याग दो, कोप को छोड़ दो। तुम्हारा चिन्तन करते-करते मैं विरह की अग्नि में संतप्त हो रहा हूँ। तुम्हारा यह सेवक प्रायः मृतवत् हो गया है। अतः अपनी अधरसुधा से मुझ दास में नये प्राणों का संचार करो, मुझ निश्चेष्ट को पुनः सक्रिय करो, सप्राण करो। मृत व्यक्ति अमृत का पान करके जीवित हो उठता है, मेरा मन तो तुममें ही लगा हुआ है, तुममें ही आसक्त है, विलास रहित विरहरूप अग्नि से दग्ध मुझे अधरामृत से सिंचित करो।

शशिमुखि ! मुखरय मणिरशनागुणमनुगुणकण्ठनिनादम् ।

श्रुति-युगले पिकरुतविकले पुर शमय चिरादवसादम् ॥

क्षणमधुना.... ॥ ६ ॥

अन्वय - [मौनेन तत्सम्मतिमालक्ष्य लोभादन्यदपि प्रार्थयते] - अयि शशिमुखि (चन्द्रानने) अनुगुणकण्ठनिनादम् (अनुगुणः सदृशः कण्ठस्य निनादः ध्वनि यस्य तादृशं तव कण्ठस्वरतुल्यं) मणिरसनागुणं (रत्नमय काञ्चीदामं) मुखरय (मुखरीकुरु; प्रार्थना-विशेषोऽयं) पिकरुत विकले (पिकानां कोकिलानां रुतेन रवेण विकले व्याकुले; विरहस्योद्दीपकत्वादिति भावः) श्रुति- पुटयुगले (कर्णद्वये); चिरात् (चिरकालीनमित्यर्थः) अवसादं (अवसन्नतां) शमय (नाशय) ॥ ६ ॥

अनुवाद - हे विधुमुखी! अपनी करधनी की मणियों को मुखरित करो, उसी के समान अपना कण्ठ निनाद करो। इस प्रकार की कोकिल – ध्वनि से चिरकाल से अवसादित मेरे श्रुतियुगल को शमित करो।

पद्यानुवाद-

मधु किंकिणि ध्वनिसे पूरित हों युगल कान ये मेरे ।

पिक- खसे पीड़ित थे जो अति विरह- समयमें तेरे ॥

बालबोधिनी - हे चन्द्रानने! तुम तो अमृत निस्पन्दन चन्द्रमा ही तो हो । अपनी मणि की करधनी को अपने कण्ठ – स्वर के साथ इस प्रकार मुखरित करो कि विपरीत रति – काल में वे तुम्हारे कण्ठ स्वर के साथ ताल देने लगें । मेरे श्रोत्र - युगल जो कोयल की कूक सुन-सुनकर खिन्न हो रहे थे, उस उद्दीपन से अतृप्त हो रहे थे, उनमें संगीत समा जाने दो और चिरकाल से सञ्चित इस विरह के अवसाद को शमित कर दो। पिक-रव विरहियों के लिए दुःश्रव होता ही है।

मामतिविफलरुषा विकलीकृतमवलोकितुमधुनेदम् ।

मिलतिलज्जितमिव नयनं तव विरमविसृजसि रतिखेदम् ॥

क्षणमधुना.... ॥७ ॥

अन्वय - [मयि अकारण कोपे तव नयनमेव प्रमाणमिति प्रार्थयते] - [अयि प्रेयसि] इदं तव नयनम् अधुना अति विफलरुषा (मानापरनाम्ना अकारण-कोपेन) विकलीकृतं (नितरां क्लेशितं) माम् अवलोकितुं (द्रष्टुं) लज्जितं (सलज्जमिव) मीलति (मुद्रितं भवति) [अन्योऽपि यः कश्चित् निरपराधं कुपित्वा व्याकुलीकरोति सोऽपि तन्मुखावलोकने लज्जितो भवतीत्यभिप्रायः]; तर्हि अधुना] विरम (रोषात् निवर्त्तस्व) [ततश्च] रतिखेदं (सुरत- वाम्यं) विसृज (त्यज) ॥७॥

अनुवाद - हे मानमयी! तुम अकारण ही मेरे प्रति अभिमान कर व्याकुल हो रही हो, देखो तुम्हारे लोचनद्वय मेरी ओर देखकर अर्द्धनिमीलित हो रहे हैं। अब तुम मेरे प्रति वाम्यभाव का परित्याग करो।

पद्यानुवाद-

लाज भरे ये नेत्र देखने खुलते हैं-झप जाते ।

मान निगोड़ेके कारण हम, दो न एक हो पाते ॥

बालबोधिनी - हे राधे ! तुम्हारी ये आँखें सदैव व्यर्थ के क्रोध से मुझे ऐसे देखती थीं कि मैं व्यर्थ ही व्याकुल हो जाता था। मुझे विकल करने के लिए तुम मेरे प्रति अकारण रोष दिखाया करती थीं। तुम्हारी इस उत्तेजना से तो मैं टूक-टूक हो जाया करता था, देखो अब तुम्हारी दृष्टि मुझपर प्रेम वर्षण कर रही है, क्रोध से भरी दृष्टि अब स्वयं ही सलज्ज हो रही हैं, अब इन नेत्रों के निरर्थक उन्मीलन का परित्याग कर दो। मुझ पर प्रसन्न हो जाओ और उत्साह से भरकर रतिजन्य खेद का परित्याग कर दो।

श्रीजयदेव - भणितमिदमनुपद - निगदितमधुरिपु - मोदम् ।

जनयतु रसिकजनेषु मनोरम रतिरस भाव-विनोदम् ॥

क्षणमधुना.... ॥८ ॥

अन्वय- अनुपद-निगदित - मधुरिपु- मोदं (अनुपदं प्रतिपदं निगदितः विवृतः मधुरिपोः श्रीकृष्णस्य मोदः हर्षः यत्र तादृशं) इदं श्रीजयदेव भणितं ( श्रीजयदेव कथित गीतं ) रसिकजनेषु (श्रीकृष्णभक्तजनविशेषेषु) मनोरम रतिरसभावविनोदं (मनोरमे रतिरसे यो भावः तदास्वादरूपः तेन यो विनोदः हर्षः तं) जनयतु ॥ ८ ॥

अनुवाद- पद-पद पर मधुरिपु श्रीकृष्ण के आनन्द विनोद का वर्णन करनेवाले जयदेव कवि द्वारा रचित यह गीत रसिक जनों में मनोरम रति-रस-भाव विनोद को उत्पन्न करे ।

पद्यानुवाद-

माधव कर मनुहार प्रियासे रति- विलास - रस भूले ।

जन-रञ्जक मधुमय लीला गा कवि 'जय' मनमें फूले ॥

बालबोधिनी - प्रस्तुत अष्टपदी 'मधुरिपुमोदविद्याधर - लीला' में कवि जयदेव ने श्रीमधुसूदन के प्रमोद -आनन्द-वर्द्धन का निरूपण किया है। यह गीत रसिकों में मनोहर रति-रस-आनन्द की सृष्टि करे। रसिकजनों में रति-रस अथवा केलि रस की अनुपमता एवं उज्ज्वलता की सर्वश्रेष्ठता अंगीकार की जाती है। इसी राग-रस को ही महामहिम शृङ्गार रस के नाम से ख्यापित किया गया है। इस प्रकार यह प्रबन्ध श्रीपति – श्रीकृष्ण का प्रीतिकारक है, रति-रस के भाव को विकसित करनेवाला है, संभोग-शृङ्गार को उन्मीलित करनेवाला है।

गीतगोविन्द सर्ग १२ सुप्रीत पीताम्बर

प्रत्यूहः पुलकांकुरेण निविडाश्लेषे निमेषेण च

क्रीडाकूत - विलोकितेऽधर - सुधापाने कथा - नर्मभिः ।

आनन्दाधिगमेन मन्मथ - कला - युद्धेऽपि यस्मिन्नभू-

दुद्भुतः स तयोर्बभूव सुरतारम्भः प्रियं भावुकः ॥१॥

अन्वय- [एवमुपकरण-सामग्रीं निरूप्य उपक्रम-सूचित-रहः केलि-पर्यवसानमाह] - यस्मिन् (सुरतारम्भे) निविड़ाश्लेषे (प्रगाढालिङ्गने) पुलकाङ्कुरेण (रोमोद्गमेन); [तथा] क्रीड़ाकूत- विलोकिते (क्रीड़ायाम् आकूलविलोकिते सतृष्णावलोकने) निमेषेण; [तथा] अधरसुधापाने कथाकेलिभिः (वाक्चातुर्यैः); [तथाच] मन्मथकलायुद्धे (कामक्रीड़ाविशेषरूप संग्रामे) आनन्दाधिगमेन (चरमसुखप्राप्त्या) प्रत्यूहः (विघ्नः) अपि तयोः (राधाकृष्णयोः) प्रियम्भावुकः (प्रीतिजनकः) अभूत्, सः (तादृशः) सुरतारम्भः उद्भूतः (उत्पन्नः) वभूव । [अन्यत्र आरम्भे मध्ये वा प्रत्यूहो दोषजनक एव; इहतु आदौ मध्येऽपि प्रत्यूहः उत्तरोत्तरक्रीड़ारम्भक एव इति आरम्भस्य अद्भूतत्वं सूचितम् । एतेन केलीनाञ्च परमप्रेमविलासत्वमपि दर्शितम्] ॥ १ ॥

अनुवाद - तदन्तर उन दोनों का चिराकांक्षित अद्भुत, परमप्रिय सुरत-संग्राम आरम्भ हुआ । उस समय प्रगाढ़ आलिङ्गन में पुलकायमान होना यथार्थ प्रतीत हुआ, क्रीड़ा के अभिप्राय से देखने के समय निमेषपात भी विघ्नीभूत लगता था, अधर-सुधा पान करते हुए केलि-कथाएँ भी कष्टदायिका अनुभूत हुईं, काम-कला–युद्ध में  आनन्द का अधिगम भी विघ्न-सा ही प्रतीत हुआ ।

पद्यानुवाद-

अति क्रीड़ा-बाधित आलिङ्गन ।

मन्द वार्ता - वारित चुम्बन ॥

नयन नमित, वञ्चित मुख दर्शन ।

सुख अति, विस्मृत रति-लीला गुन ॥

उमग रही राधा तन- मनमें।

विलस रही मृदु सुमन - शयनमें ॥

बालबोधिनी - प्रस्तुत श्लोक में कवि जयदेव वर्णन करते हैं कि अब श्रीराधा और श्रीमाधव में चिरकाल से आकांक्षित उनका अतिशय प्रिय सुरत प्रारम्भ हुआ। उस रतिक्रीड़ा के आरम्भ में पुलकावली के प्रस्फुरण से ही बाधा उत्पन्न होती है। आलिङ्गन के आरम्भ में सात्त्विक रोमाञ्च का होना युक्तिसंगत ही है। रोमाञ्च से पूर्णालिङ्गन में बाधा होना स्वाभाविक ही है। काम-क्रीड़ा के लिए विलोकन अवलोकन करने पर पलकों का गिरना भी बाधा प्रतीत हुई। अभिप्राय विशेष से देखने के कारण पलकों का गिरना भी असहनीय होने लगा। अधर - सुधा पान करते समय काम-कथाएँ कहना भी अन्तराय प्रतीत हुआ । अधरपान में प्रियालाप भी सहनीय नहीं होता है। रति प्रियालाप से अतिशय रुचिर अधरपान लगता है । काम-कलाओं से पूर्ण युद्ध में आनन्द की प्राप्ति भी बाधा ही प्रतीत हुई।

प्रस्तुत श्लोक में शार्दूलविक्रीडित छन्द है, यथासंख्य अलंकार है, संभोग नाम का शृङ्गार रस है, प्रस्तुत श्लोक की भूमिका चन्द्रहास नामक चौबीसवें प्रबन्ध की है।

दोर्भ्यां संयमितः पयोधर - भरेणापीडितः पाणिजै

राविद्धो दशनैः क्षताधरपुटः श्रोणीतटेनाहतः ।

हस्तेनानमितः कचेऽधरसुधापानेन सम्मोहितः

कान्तः कामपि तृप्तिमाप तदहो कामस्य वामा गतिः ॥ २ ॥

अन्वय- न केवलं प्रत्यूह एव बन्धनादिकमपि क्रीड़ारम्भको वभूवेत्याह] - कान्तः (श्रीकृष्णः) दोभ्यां (भूजाभ्यां) संयमितः (नियन्त्रितः) पयोधरभरण (पयोधरयोः स्तनयोः भरेण) आपीड़ितः ( नितरां पीड़ितः) पाणिजैः (नखैः) आविद्धः) विक्षतः) दशनैः (दन्तैः) क्षताधरपुटः (क्षतम् अधरपुटं यस्य तादृशः) श्रोणीतटेन (नितम्बदेशेन) आहतः (नितरां ताड़ितः) हस्तेन कचे (केशे) आनमितः (वक्रीकृतः) अधर-मधुस्यन्देन (अधरसुधा- क्षरणेन अधरामृतदानेनेत्यर्थः) सम्मोहितः (सम्यक् मोहं प्राप्तः) [सन्] कामपि (अनिर्वाच्या) तृप्ति आप (प्राप्तवान्); अहो (आश्चर्यम्) तत् (तस्मात्) कामस्य गतिः (स्वरूपं) वामा (विचित्रा) । [कान्तया संयमनादिभिः परिभूतोऽपि कान्तः कामपि अनिर्वचनीयां तृप्ति प्राप्तस्तदतीवाद्भूतमेवेति भावः] ॥ २ ॥

अनुवाद राधिका की बाहों से बँधे, पयोधर भार से दबे, पाणिज अर्थात् नखों से बिद्ध किये गये, दन्तों से क्षत किये गये अधरवाले, कटि-तट (नितम्ब) से आहत, हाथों से केश पकड़कर नमित किये गये, अधर मधु- धारा से सम्मोहित प्रिय कान्त श्रीकृष्ण किसी लोकोत्तर आनन्द को प्राप्त हुए। इस प्रकार कामदेव की गति को अति कुटिल कहा गया है।

पद्यानुवाद-

बाहु-बद्ध, कुचसे आपीड़ित ।

दशन- अधर क्षत, श्रोणी ताड़ित ॥

कर पंकज कल कुच ध्रुव धारित ।

रति - गति वामा (जग अपवारित) ॥

उमग रही राधा तन-मनमें।

विस रही मृदु सुमन - शयनमें ॥

बालबोधिनी - प्रस्तुत पद्य में कवि जयदेव विपरीत रति का वर्णन करते हुए कह रहे हैं कि कान्त श्रीकृष्ण ने किसी वाणी से अगोचर तृप्ति को प्राप्त किया, इसी से कहा जाता है। कि काम की गति वाम है, लोक-पथ से अतीत है । वामत्व रसान्तर के आविर्भाव से हुआ है। मानो अपराधी को वीर रस का आश्रय लेकर क्रम से संयमन, पीड़न, बेधन, क्षताहत, नमन और सम्मोहन की अवस्था तक पहुँचाया है। उत्साह के स्थिर होने पर भी काम युद्ध से विरत नहीं होते । श्रीराधा ने विपरीत रति के माध्यम से श्रीकृष्ण को अनेक प्रकार से दण्डित - पीड़ित किया। अपनी भुजाओं के बन्धन में उनको बाँध लिया। पयोधरों के भार से उनको समस्त रूप से दबाकर पीड़ित किया, नखों से उनको क्षत-विक्षत किया, दाँतों से उनके अधर-पुट को दशित कर लिया, नितम्बों से उनको आस्फालित किया, प्रताड़ित किया, हाथों से बालों को पकड़ लिया, अधरों की मधुधारा को पान करती हुई सम्मोहन को प्राप्त करा दिया। कितना आश्चर्य है !

प्रस्तुत श्लोकमें शार्दूलविक्रीड़ित छंद तथा रसवदलङ्कार है। कुछ विद्वान इसे 'कामिनीहास' नामक प्रबन्ध की भी संज्ञा देते हैं।

माराङ्के रति- केलि - सङ्कुल- रणारम्भे तया साहस-

प्रायं कान्तजयाय किञ्चिदुपरि प्रारम्भि यत्सम्भ्रमात् ।

निष्पन्दा जघनस्थली शिथिलता दोर्वल्लिरुत्कम्पितं

वक्षो मीलितमक्षि पौरुषरसः स्त्रीणां कुतः सिध्यति ॥ ३ ॥

अन्वय - [तत्क्रीड़ाविशेषमाह] - माराङ्के (केलिपक्षे - मारः मदनः अङ्कः चिह्नं यत्रः रणपक्षे-मारः मारं अङ्कः चिह्नं यत्र तस्मिन्) रतिकेलिसङ्कलरणारम्भे (रतिकेलिरेव सस्कुलरणः परस्पराहत-संग्रामः तस्य आरम्भे) तया (श्रीराधया) कान्तजयाय (कान्तस्य पराभवाय) उपरि (कान्तस्येति शेषः) साहसप्रायं (साहसबहुलं) यत्किञ्चित् (अनिर्वचनीयं) प्रारम्भि (उपक्रान्तं) तेन (वैपरीत्येन हेतूना) सम्भ्रमात् (सम्भ्रम- जनितात् आयासात् इत्यर्थः) [श्रीराधायाः] जघनस्थली निस्पन्दा [जाता], दोर्वल्लिः (भूजलता) शिथिलता (श्लथा आलस्यजड़ा इति यावत्) वक्षः उत्कम्पितं (उच्चैः कम्पितं), [तथाच] अक्षि (नेत्रयुगलं) मीलितम् (सङ्कुचितम्) [अभूत्] [युक्तञ्चैतत्] स्त्रीणां (अवलानां) पौरुषरसः (पुरुष - सम्पाद्यव्यापारः) कुतः सिध्यति ॥ ३ ॥

अनुवाद - सुरत- क्रीड़ारूपी संग्राम के प्रारम्भ होने पर श्रीराधा ने काम-स्मर अभिनिवेश के कारण साहस से भरकर अपने कान्त पर विजय प्राप्त करने के लिए कुछ समय तक श्रीकृष्ण के वक्षस्थल पर सम्भ्रमपूर्वक जो विपरीत रति आरम्भ की, उससे उनकी जघनस्थली निष्पन्द हो गयी, बाहें शिथिल हो गयीं, वक्षःस्थल जोर-जोर से काँपने लगा, आँखें बंद हो गयीं भला स्त्रियों का पौरुष-रस- अभिलाष कैसे सफल हो सकता है।

बालबोधिनी - जैसा कि पूर्वोक्त वर्णन करते हुए आ रहे हैं, उसी वीरसंवलित शृङ्गार की विवृत्ति करते हुए कहते हैं । इस श्लोक के पूर्व श्लोक से ही युक्त करना चाहिए। रति-केलि से संकुल रण के आरम्भ में वाम अंग में वर्तमान श्रीराधा के द्वारा सम्भ्रमपूर्वक स्मर-समर अभिनिवेश से संयम आदि के द्वारा कान्त पर विजय प्राप्त करने के लिए जो कुछ भी साहस किया, इससे वे पूर्ण रूप से थक गयीं। जघन-स्थली के निष्पन्द होने से वह चलने में असमर्थ हो गयीं। दोनों भुजाओं की शिथिलता के कारण वे बन्धन प्रहार करने में असमर्थ हो गयीं। वक्षस्थल जोर-जोर से कम्पित होने लगा। आँखें बन्द हो गयीं और देखने में असमर्थ हो गयीं। किसी ने ठीक ही कहा- स्त्रियाँ अबला होती हैं, उनमें वीर रस किस प्रकार से आ सकता है? पौरुषत्व को अबलाएँ प्राप्त नहीं कर सकतीं।

प्रस्तुत श्लोक को कुछ विद्वानों के द्वारा 'पौरुषप्रेम विलास नामक प्रबन्ध माना गया है। इसमें शार्दूलविक्रीड़ित छंद, संभोग - शृङ्गार रस तथा विशेषोक्ति अलंकार है ।

तस्याः पाटल - पाणिजाङ्कितमुरो निद्राकषाये दृशौ

निर्धोतोधर - शोणिमा विलुलिताः स्रस्तस्रजो मूर्धजाः ।

काञ्चीदाम दरश्लथाञ्चलमिति प्रातर्निखाते दृशो –

रेभिः कामशरैस्तदद्भुतमभूत्पत्युर्मनः कीलितम् ॥ ४ ॥

अन्वय - [अथ सुरतान्ते चिह्नशोभित वपु दर्शनेन प्रियस्य प्रेमोत्सवमाह] - तस्याः (राधायाः) उरः (वक्षःस्थलं) पाटल- पाणिजाङ्कितं (पाटलैः पाटलकुसुमवत् श्वेतरक्तैः पाणिजैः नखैः अङ्कितं), दृशौ (नयने) निद्राकषाये (निद्रावेशेन कषाये लोहिते) अधर-शोणिमा, (अधरस्य शोणिमा लौहित्यं) निर्धोतः (बहुशः चुम्बनादिना क्षालितः); मूर्द्धजाः (केशाः) विलुलिताः (आलुलायिताः); [तथा] स्रस्तस्रजः (स्रस्ताः बन्धनशैथिल्यात् इतस्ततोगताः स्रजः मालाः येभ्यः तादृशाः); काञ्चीदाम (मेखला) दरश्लथाञ्चलम् (ईषत्श्लथप्रान्तभागम्); इति (इत्थं) प्रातः (प्रभाते) दृशोः (नेत्रयोः) निखातैः (प्रोथितैः) एभिः कामशरैः (नखाङ्क-जागरण-चुम्बनादिरूपैः मदन-बाणैः) पत्युः (कान्तस्य) मनः कीलितं (बिद्धम्), अहो तत् अद्भुतम् (आश्चर्यम्) अभूत्। [अन्यत्रार्पितशरैरन्यद् विद्धमित्याश्चर्यम्] ॥४॥

अनुवाद श्रीराधा का उर स्थल नखों से अंकित होने के कारण पाटल वर्ण का हो रहा था, निद्रा के अभाव से उसकी दृष्टि लाल-लाल हो रही थी, अधरों की लालिमा चुम्बन से नष्ट हो गयी थी, केशों में ग्रथित पुष्पमाला कुम्हला गयी थी, कमर की करधनी शिथिल हो गयी थी, उसके समीप के वस्त्र खुल गये थे - इस प्रकार पाँच बाण जो प्रातः काल श्रीकृष्ण के नेत्रों में थे, उनको श्रीराधा में देखकर श्रीकृष्ण का मन पुनः कामदेव के बाणों से कीलित हो गया। कैसी आश्चर्य की बात है !

बालबोधिनी - संभोग-लीला का वर्णन करते हुए कवि जयदेव कहते हैं कि सम्भोग के अन्त में श्रीराधा के पाँचों काम-शरों के द्वारा श्रीकृष्ण कीलित हो गये। कितनी अद्भुत बात है! प्रातः काल इन बाणों के प्रभाव से श्रीकृष्ण में पुनः काम उद्भूत हो गया। प्रियाजु के किन अंगों में पञ्च बाणों को देखकर श्रीकृष्ण में काम उत्पन्न हुआ ? इसका निदर्शन करते हुए कवि कहते हैं-

(१) पलाश पुष्प बाण – कामक्रीड़ा में श्रीराधा के वक्षःस्थल पर रक्त – कमल के समान अपने नखों से नखक्षत किया था।

अतः पलाश पुष्प बाण है।

(२) कमल पुष्प बाण – रात्रि में सो न पाने के कारण आँखों में कषाय हो रहा था, आँखें लाल-लाल हो रही थीं, अतः कमल पुष्प बाण है।

(३) बन्धुजीव पुष्पबाण- श्रीराधा के अधरों की लालिमा प्रक्षालित हो गयी थी, अतः बन्धुजीव पुष्पबाण है।

(४) मालती पुष्प बाण-रति-क्रीड़ा में केशों के मर्दन से पुष्पमाला मुरझाकर निपतित हो गयी थी, अतः मालती पुष्पबाण है।

(५) कुसुमास्त्रबाण – श्रीराधा की मेखला और अञ्चल शिथिल हो गये थे, इससे कामदेव के सुवर्ण जातीय चम्पा आदि बाणों को सूचित किया है।

इन श्रीराधा के अङ्गों में विद्यमान पुष्पबाणों को देखकर श्रीकृष्ण का मन भी कीलित हो जाना स्वाभाविक ही था ।

इन बाणों ने श्रीकृष्ण के नेत्रों के माध्यम से उनके मन को भी आहत कर दिया।

प्रस्तुत श्लोक को 'कामाद्भुताभिनवमृगाङ्क लेख' नामक प्रबन्ध माना गया है। वही शार्दूलविक्रीड़ित छंद है और अद्भुतरसोपबृंहित शृङ्गार रस है ।

व्यालोलः केशपाशस्तरलितमलकैः स्वेदलोलौ कपोलौ

क्लिष्टा दृष्टाधरश्रीः कुचकलशरुचा हारिता हारयष्टिः ।

काञ्चीकाञ्चिद्गताशां स्तनजघनपदं पाणिनाच्छाद्यसद्यः

पश्यन्ती सत्रपा मां तदपि विलुलित स्रग्धरेयधिनोति ॥५ ॥

अन्वय - [यद्यपि श्रीराधायाः] केशपाशः व्यालोलः (श्लथः विकीर्ण इत्यर्थः) अलकैः (चूर्णकुन्तलैः) तरलितं (स्वस्थानात् भ्रंशित); कपालौ (गण्डौ) स्वेदलोलौ ( स्वेदेन धर्मजलेन लोलौ व्याप्तौ); दष्टाधरश्रीः (दशन-क्षताधर -शोभा), क्लिष्टा (क्षता); कुचकलस- रुचा (स्तनकुम्भयोः रुचा कान्त्या) [स्पर्द्धयेव] हारयष्टिः (मुक्ताहारः) हारिता (परिभूता); काञ्ची (मेखला) काञ्चीत् आशां (दिशं) गताः तदपि (तथापि) इयं (श्रीराधा) सद्यः (सपदि) पाणिना (क‍ स्तन - जघन-पदम् आच्छाद्य विलुलित- स्रग्धरा (विमर्दित माल्यधारिणी अपि) सत्रपं (रसावेश- शैथिल्ये निजाङ्गावलोकनात् आत्मनः क्रीड़ाविशेषावेशकलनात् सलज्जं यथा तथा) मां पश्यन्ति [सती ] धिनोति (अत्युत्सुकं करोति) [वसनादिव्यतिरेकेण केवलाङ्गशोभादर्शनात् प्रीणनमिति ज्ञेयम्] ॥५॥

अनुवाद - जिनका केशपाश बिखर गया था, अलकावली चंचल हो गयी थी, कपोलयुगल स्वेद से आर्द्र हो गये थे, अधर श्री की शोभा निरस्त हो गयी थी, कुच – कलश की शोभा से मुक्ता - हारावली पराजित हो गयी थी, करधनी की कान्ति हताश हो गयी थी; प्रातः ऐसी अवस्था पर क्लान्तश्रान्त श्रीराधा अपने हाथों से सद्यः वक्षोज एवं उरुद्वय को ढकने लगी, लज्जापूर्वक श्रीकृष्ण को देखती हुई वह अपनी मुग्धकारिणी कान्ति से श्रीकृष्ण को आनन्दकारिणी जान पड़ रही थीं।

बालबोधिनी - श्रीराधा रतिकाल में परिमर्दित होकर श्रान्त- क्लान्त हो गयी थीं। जैसे ही प्रातः काल हुआ, वह लज्जापूर्वक जल्दी-जल्दी अपने अङ्गों को आच्छादित करने लगीं। आच्छादित करती हुई वह श्रीकृष्ण को देख रही थीं और अपनी मुग्ध-कान्ति से श्रीकृष्ण का मन मोह रही थीं। उनका कबरी-बन्धन खुल गया था, अलकावली इधर-उधर बिखर रही थी। कपोलयुगल पर स्वेद सूख जाने पर अनेक धब्बे पड़ गये थे, बिम्ब- अधरों की कान्ति धूमिल हो गयी थी, स्तन कलशों की कान्ति के पुरःसर में हार एवं काञ्ची की कान्ति हताश हो गयी थी । कञ्चुक के अभाव से हार की शोभा फीकी पड़ गयी थी और विवस्त्र होने से मेखला की कान्ति भी धूमिल हो गयी ।

प्रस्तुत पदमें स्रग्धरा छन्द है ।

ईषन्मीलितदृष्टि मुग्धविलसत्सीत्कारधारावशा-

दव्यक्ताकुलकेलिकाकुविकसद्दन्तांशुधौताधरम् ।

शान्तस्तब्धपयोधरं भृशपरिस्वङ्गात्कुरङ्गीदृशो

हर्षोत्कर्षविमुक्तनिःसहतनोर्धन्यो धयत्याननम् ॥६॥

अन्वय - श्वासोन्नद्ध-पयोधरोपरि-परिष्वङ्गी (श्वासेन उन्नद्धयोः स्फीतयोः पयोधरयोः उपरि परिष्वङ्गः आलिङ्गनं विद्यते यस्य तादृश:) धन्यः ( आत्मानं धन्यं मन्यमानः सौभाग्यशाली जनः) हर्षोत्कर्ष - विमुक्तिनिः सहतनोः (हर्षोत्कर्षस्य आनन्दातिशयस्य विमुक्त्या प्रसृत्या निःसहा धर्त्तुमशक्या तनुर्यस्याः तादृश्याः) कुरङ्गीदृशः (मृगलोचनायाः) [कान्तायाः] मीलदृष्टि (मीलन्ती सचन्ती दृष्टिः यत्र तत् आवेशवशात् मुदितलोचनविशिष्ट- मित्यर्थः) मिलत्कपोलपुलकं (कपोल - पुलक - समन्वितं) शीत्कारधारावशात् (शीत्कारस्य या धारा अनवच्छिन्नता तस्या वशात्) अव्यक्ताकुल- केलि-काकु-विकसद्दन्तांशु-धौताधरं (अव्यक्ता अपरिस्फुटा आकुला असम्बन्धा या केलिषु काकुः तया विकसद्भिः दन्तांशुभिर्दन्त - प्रभाभिः धौतः अधरः यत्र तादृशं) आननं धयति ( चुम्बति ) ॥ ६ ॥

अनुवाद - मृगनयनी श्रीराधा की आँखें कामकेलिजन्य आनन्दातिशय के कारण कुछ-कुछ बन्द-सी हो रही थीं, अन्य प्रकार के व्यापार को सह सकने में असमर्थ शरीरवाली हो गयी थीं, मुहुर्मुहुः सीत्कार करने के कारण और अव्यक्त तथा आकुल केलि-काकु ध्वनि-विकार से विकसित दाँतों की किरणों से उनके अधर प्रक्षालित हो गये थे, प्रगाढ़ आलिङ्गन के कारण उनके पयोधर शिथिल श्वासोच्छ्वास के कारण ईषत् कम्पित हो रहे थे - इस प्रकार के मुखमण्डल को कोई पुण्यशाली ही देख सकता है।

बालबोधिनी - कवि कहते हैं कि रतिक्रीड़ा में अत्यधिक हर्षोत्कर्ष प्राप्त कर लेने के कारण आलिंगन, चुम्बन आदि से विमुक्त होकर श्रीराधा एक प्रकार से परमानन्द में डूब गयीं । कामावेश के वशीभूत उनके शरीर ने अब किसी भी प्रकार के व्यापार को सह सकने में असमर्थता प्रकट कर दी। रतिकाल में उस मृगलोचना के पयोधर प्रगाढ़ आलिङ्गन के कारण पुलकरहित कठिन और कुछ झुके हुए हो गये। इस प्रकार सुरतान्त में कान्त श्रीकृष्ण उनके मुखको देखकर पुनरालिङ्गन के द्वारा अधर-पान की स्पृहा करने लगे। नेत्र कुछ मुकुलित हो गये।

विलास-क्रीड़ा के समय उनके द्वारा बार-बार मनोहर सीत्कार करने के कारण निकलनेवाली अव्यक्त एवं आकुल काकु ध्वनि प्रस्फुटित हुईं और दाँतों की किरणों से अधर-पुट धुल गये। श्रीराधा के इस प्रकार के मुखमण्डल को कोई सुकृतिवान ही देख सकता है। यह सौभाग्य या तो श्रीकृष्ण को अथवा उनकी मञ्जरियों को ही प्राप्त हो सकता है।

प्रस्तुत पद में शार्दूलविक्रीड़ित छंद जाति अलंकार, पाञ्चाली रीति, मागधी गीति, भारती वृत्ति और स्थित लययुक्त गान है। श्रीराधा श्रीकृष्ण के बीच प्रगाढ़ आलिङ्गन को 'वृक्षाधिरूढ़कम्' आलिङ्गन कहा गया है।

[अथ सा निर्गतबाधा राधा स्वाधीनभर्तृका ।

निजगाद रतिक्लान्तं कान्तं मण्डनवाञ्छया ॥]

अथ सहसा सुप्रीतं सुरतान्ते सा नितान्तखिन्नाङ्गी ।

राधा जगाद सादरमिदमानन्देन गोविन्दम् ॥७ ॥

अन्वय - [एवं प्रियदर्शनानन्दोन्मत्ता प्रियं जगादेति तस्याः स्वाधीनभर्त्तृकावस्थां वर्णयिष्यन् आह] - [स्वाधीनभर्तृकालक्षणं यथा-कान्तो रतिगुणाकृष्टो न जहाति यदन्तिकम् । विचित्र- विभ्रमासक्ता सा स्यात् स्वाधीनभर्त्तृका ॥ इति साहित्यदर्पणे] सुरतान्ते (सुरतावसाने) नितान्तखिन्नाङ्गी (अतीवक्लान्तावयवा) सा राधा इति (उक्तप्रकारेण) मनसा निगदन्तं (कथयन्तं चिन्तयन्तमित्यर्थः) गोविन्दम् आनन्देन (आनन्दावेशेन) सादरं (यथा स्यात् तथा) इदं (वक्ष्यमाणं वचनं) जगाद (उक्तवती) ॥७॥

अनुवाद - [इसके बाद जिसकी काम-बाधा शान्त हो गयी है, ऐसी स्वाधीनभर्तृका श्रीराधा अपने रति-श्रम – क्लान्त कान्त से अपने शृङ्गार की कामना से बोलीं]

तदनन्तर सुरकाल के अन्त में अति खिन्न अंगोंवाली श्रीराधा अचानक आनन्द और आदरपूर्वक श्रीगोविन्द से कहने लगीं।

पद्यानुवाद-

सरस सुरतिके अन्त, अङ्गसे छिन्न भिन्न हो बाला-

हरिसे बोल उठी आँखोंमें भर कर मदकी हाला-

हे यदुनन्दन! हृदयानन्दन ! इतनी अनुनय मेरी

पूर्ण करो हे असुरनिकन्दन! (लगा रहे क्यों देरी ?)

बालबोधिनी - अनन्तर दोनों के परस्पर आनन्द एवं सन्दोहरूप सुरत के अवसान पर श्रीराधा गोविन्द को प्रोत्साहित करते हुए कहने लगीं। सम्भोग के अवसान पर श्रीराधा के अंग अतिशय रूप से थक गये थे। श्रीराधा ने अपने कान्त श्रीगोविन्द को आनन्दमय देखा और कहा ।

जब स्वामी प्रीतिपरायण हो तब ही अपनी बात कहना साफल्यपूर्ण होता है - यह नीति है। अतः श्रीराधा सस्मित गोविन्द से जो कहने लगीं, उसका वर्णन इस काव्य के अगले प्रबन्ध में किया जा रहा है।

इति त्रयोविंश: सन्दर्भः ।

इस प्रकार श्रीगीतगोविन्द महाकाव्य में सुप्रीत पीताम्बर नामक सर्ग १२ की तेईसवाँ सन्दर्भ 'मधुरिपुमोदविद्याधर लीला' नामक अष्ट पदि २३ की बालबोधिनी वृत्ति समाप्त ।

आगे जारी........ गीतगोविन्द सर्ग 12 अष्ट पदि 24 

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