अग्निपुराण अध्याय ७४

अग्निपुराण अध्याय ७४                

अग्निपुराण अध्याय ७४ में शिव पूजा की विधि का वर्णन है।

अग्निपुराण अध्याय ७४

अग्निपुराणम् चतुःसप्ततितमोऽध्यायः                

Agni puran chapter 74

अग्निपुराण चौहत्तरवाँ अध्याय

अग्नि पुराण अध्याय ७४

अग्निपुराणम् अध्यायः ७४-  शिवपूजाकथनम्

अथ चतुःसप्ततितमोऽध्यायः

ईश्वर उवाच

शिवपूजां प्रवक्ष्यामि आचम्य प्रणवार्घ्यवान् ।

द्वारमस्त्राम्बुना प्रोदय होमादिद्वारपान्यजेत् ॥१॥

गणं सरस्वतीं लक्ष्मीमूर्ध्वोदुम्बरके यजेत् ।

नन्दिगङ्गे दक्षिणेऽथ स्थिते वामगते यजेत् ॥२॥

महाकालं च यमुनां दिव्यदृष्टिनिपातितः।

उत्सार्य दिव्यान् विघ्नांश्च पुष्पाक्षेपान्तरिक्षगान् ॥३॥

दक्षपार्ष्णित्रिभिर्घातैर्भूमिष्ठान्यागमन्दिरम् ।

देहलीं लङ्घयेद्वामशाखामाश्रित्य वै विशेत् ॥४॥

प्रविश्य दक्षपादेन विन्यस्यास्त्रमुदुम्बरे

ॐ हां वास्त्वधिपतये ब्रह्मणे मध्यतो यजेत् ॥५॥

महादेवजी कहते हैं- स्कन्द ! अब मैं शिव- पूजा की विधि बताऊँगा। आचमन ( एवं स्नान आदि) करके प्रणव का जप करते हुए सूर्यदेव को अर्घ्य दे। फिर पूजा मण्डप के द्वार को 'फट्' इस मन्त्र द्वारा जल से सींचकर आदि में 'हां' बीजसहित नन्दी आदि द्वारपालों का पूजन करे। द्वार पर उदुम्बर वृक्ष की स्थापना या भावना करके उसके ऊपरी भाग में गणपति, सरस्वती और लक्ष्मीजी की पूजा करे। उस वृक्ष की दाहिनी शाखा पर या द्वार के दक्षिण भाग में नन्दी और गङ्गा का पूजन करे तथा वाम शाखा पर या द्वार के वाम भाग में महाकाल एवं यमुनाजी की पूजा करनी चाहिये। तत्पश्चात् अपनी दिव्य दृष्टि डालकर दिव्य विघ्नों का उत्सारण (निवारण) करे। उनके ऊपर या उनके उद्देश्य से फूल फेंके और यह भावना करे कि 'आकाशचारी सारे विघ्न दूर हो गये।' साथ ही, दाहिने पैर की एड़ी से तीन बार भूमि पर आघात करे और इस क्रिया द्वारा भूतलवर्ती समस्त विघ्नों के निवारण की भावना करे। तत्पश्चात् यज्ञमण्डप की देहली को लाँघे । वाम शाखा का आश्रय लेकर भीतर प्रवेश करे। दाहिने पैर से मण्डप के भीतर प्रविष्ट हो उदुम्बर वृक्ष में अस्त्र का न्यास करे तथा मण्डप के मध्य भाग में पीठ की आधारभूमि में 'ॐ हां वास्त्वधिपतये ब्रह्मणे नमः।' इस मन्त्र से वास्तुदेवता की पूजा करे ॥ १-५ ॥

नारदपुराण के अनुसार नन्दी भृङ्गी, रिटि, स्कन्द, गणेश, उमा-महेश्वर, नन्दी-वृषभ तथा महाकाल-ये शैव द्वारपाल हैं।

निरीक्षणादिभिः शस्त्रैः शुद्धानादाय गड्डकान् ।

लब्धानुज्ञः शिवान्मौनी गङ्गादिकमनुव्रजेत् ॥६॥

पवित्राङ्गः प्रजप्तेन वस्त्रपूतेन वारिणा ।

पूरयेदम्बुधौ तांस्तान् गायत्र्या हृदयेन वा ॥७॥

गन्धकाक्षतपुष्पादिसर्वद्रव्यसमुच्चयम्

सन्निधीकृत्य पूजार्थं भूतशुद्धादि कारयेत् ॥८॥

देवदक्षे ततो न्यस्य सौम्यास्यश्च शरीरतः ।

संहारमुद्रयादाय मूर्ध्नि मन्त्रेण धारयेत् ॥९॥

भोग्यकर्मोपभोगार्थं पाणिकच्छपिकाख्यया

हृदम्बुजे निजात्मानं द्वादशान्तपदेऽथवा ॥१०॥

निरीक्षण आदि शस्त्रों द्वारा शुद्ध किये हुए गडुओं को हाथ में लेकर, भावना द्वारा भगवान् शिव से आज्ञा प्राप्त करके साधक मौन हो गङ्गा आदि नदी के तट पर जाय। वहाँ अपने शरीर को पवित्र करके गायत्री मन्त्र का जप करते हुए वस्त्र से छाने हुए जल के द्वारा जलाशय में उन गडुओं को भरे, अथवा हृदय-बीज (नमः) - का उच्चारण करके जल भरे। तत्पश्चात् पूजा के लिये गन्ध, अक्षत, पुष्प आदि सब द्रव्यों को अपने पास एकत्र करके भूतशुद्धि आदि कर्म करे। फिर उत्तराभिमुख हो आराध्यदेव के दाहिने भाग में- शरीर के विभिन्न अङ्गों में मातृकान्यास करके, संहार मुद्रा द्वारा अर्घ्य के लिये जल लेकर मन्त्रोच्चारणपूर्वक मस्तक से लगावे और उसे देवता पर अर्पित करने के लिये अपने पास रख ले। इसके बाद भोग्य कर्मो के उपभोग के लिये पाणिकच्छपिका (कूर्ममुद्रा ) - का प्रदर्शन करके द्वादश दलों से युक्त हृदयकमल में अपने आत्मा का चिन्तन करे ॥ ६-१० ॥

शोधयेत् पञ्चभूतानि सञ्चिन्त्य शुषिरन्तनौ ।

चरणाङ्गुष्ठयोर्युग्मान् शुषिरान्तर्वहिः स्मरेत् ॥११॥

शक्तिं हृद्वयापिनीं पश्चाद्धङ्कारे पावकप्रभे ।

रन्ध्रमध्यस्थिते कृत्वा प्राणरोधं हि चिन्तकः ॥१२॥

निवेशयेद्रेचकान्ते फडन्तेनाथ तेन च ।

हृत्कण्ठतालुभ्रूमध्यब्रह्मरन्ध्रे विभिद्य च ॥१३॥

ग्रन्थीन्निर्भिद्य हूङ्कारं मूर्ध्नि विन्यस्य जीवनम् ।

सम्पुटं हृदयेनाथ पूरकाहितचेतनम् ॥१४॥

हूं शिखोपरि विन्यस्य शुद्धं विन्द्वात्मकं स्मरेत् ।

कृत्वाथ कुम्भकं शम्भौ एकोद्घातेन योजयेत् ॥१५॥

तदनन्तर शरीर में शून्य का चिन्तन करते हुए पाँच भूतों का क्रमशः शोधन करे। पैरों के दोनों अँगूठों को पहले बाहर और भीतर से छिद्रमय (शून्यरूप) देखे। फिर कुण्डलिनी शक्ति को मूलाधार से उठाकर हृदयकमल से संयुक्त करके इस प्रकार चिन्तन करे- हृदयरन्ध्र में स्थित अग्नितुल्य तेजस्वी 'हूँ' बीज में कुण्डलिनी शक्ति विराज रही है।' उस समय चिन्तन करनेवाला साधक प्राणवायु का अवरोध (कुम्भक) उसका रेचक (निःसारण) करने के पश्चात्, 'हुं फट्' के उच्चारणपूर्वक क्रमशः उत्तरोत्तर चक्रों का भेदन करता हुआ उस कुण्डलिनी को हृदय, कण्ठ, तालु, भ्रूमध्य एवं ब्रह्मरन्ध्र में ले जाकर करके स्थापित करे। इन ग्रन्थियों का भेदन करके कुण्डलिनी के साथ हृदयकमल से ब्रह्मरन्ध्र में आये 'हूं' बीजस्वरूप जीव को वहीं मस्तक में (मस्तकवर्ती ब्रह्मरन्ध्र में या सहस्रारचक्र में) स्थापित कर दे। हृदय स्थित 'हूं' बीज से सम्पुटित हुए उस जीव में पूरक प्राणायाम द्वारा चैतन्यभाव जाग्रत् किया गया है। शिखा के ऊपर 'हूं' का न्यास करके शुद्ध बिन्दुस्वरूप जीव का चिन्तन करे। फिर कुम्भक- प्राणायाम करके उस एकमात्र चैतन्य-गुण से युक्त जीव को शिव के साथ संयुक्त कर दे ॥ ११ - १५ ॥

रेचकेन वीजवृत्त्या शिवे लीनोऽथ शोधयेत् ।

प्रतिलोमं स्वदेहे तु विन्द्वन्तं तत्र विन्दुकम् ॥१६॥

लयन्नीत्वा महीवातौ जलवह्नी परस्परम् ।

साध्यौ तथाकाशमविरोधेन तच्छृणु ॥१७॥

पार्थिवं मण्डलं पीतं कठिनं वज्रलाञ्छितम् ।

हौमित्यात्मीयवीजेन तन्निवृत्तिकलामयम् ॥१८॥

पदादारभ्य मूर्धानं विचिन्त्य चतुरस्रकम् ।

उद्घातपञ्चकेनैव वायुभूतं विचिन्तयेत् ॥१९॥

इस तरह शिव में लीन होकर साधक सबीज रेचक प्राणायाम द्वारा शरीरगत भूतों का शोधन करे। अपने शरीर में पैर से लेकर बिन्दु-पर्यन्त सभी तत्त्वों का विलोम क्रम से चिन्तन करे। बिन्दुरूप जीव को बिन्द्वन्त लीन करके पृथ्वी और वायु का एक-दूसरे में लय करे। साथ ही अग्नि एवं जल का भी परस्पर विलय करे। इस प्रकार दो-दो विरोधी भूतों का परस्पर शोधन (लय) करना चाहिये। आकाश का किसी से विरोध नहीं है; इस भूत-शुद्धि का विशेष विवरण सुनो- भूमण्डल का स्वरूप चतुष्कोण है। उसका रंग सुवर्ण के समान पीला है। वह कठोर होने के साथ ही वज्र के चिह्न से तथा 'हां' इस आत्मीय बीज (भूबीज)- से युक्त है। उसमें 'निवृत्ति' नामक कला है। (शरीर में पैर से लेकर घुटने तक भूमण्डल की स्थिति है।) इसी तरह पैर से लेकर मस्तक पर्यन्त क्रमशः पाँचों भूतों का चिन्तन करना चाहिये। इस प्रकार पाँच गुणों से युक्त वायुभूत भूमण्डल का चिन्तन करे ॥ १६-१९ ॥

अन्य तन्त्रों के अनुसार पृथ्वी का अपना बीज 'लं' है।

अर्धचन्द्रं द्रवं सौम्यं शुभ्रसम्भोजलाञ्छितम् ।

हीमित्यनेन वीजेन प्रतिष्ठारूपतां गतम् ॥२०॥

संयुक्तं राममन्त्रेण पुरुषान्तमकारणम् ।

अर्घ्यञ्चतुर्भिरुद्धातैर्वह्निभूतं विशोधयेत् ॥२१॥

आग्नेयं मण्डलं त्र्यस्त्रं रक्तं स्वस्तिकलाञ्छितम् ।

हूमित्यनेन वीजेन विद्यारूपं विभावयेत् ॥२२॥

घोराणुत्रिभिरुद्धातैर्जलभूतं विशोधयेत्

षडस्रं मण्डलं वायोर्विन्दुभिः षड्भिरङ्कितम् ॥२३॥

कृष्णं हेमिति वीजेन जातं शान्तिकलामयम् ।

सञ्चित्योद्घातयुग्मेन पृथ्वीभूतं विशोधयेत् ॥२४॥

जल का स्वरूप अर्धचन्द्राकार है। वह द्रवस्वरूप है, चन्द्रमण्डलमय है। उसकी कान्ति या वर्ण उज्ज्वल है। वह दो कमलों से चिह्नित है। 'ह्रीं इस बीज से युक्त है। 'प्रतिष्ठा' नामक कला के स्वरूप को प्राप्त है। वह वामदेव तथा तत्पुरुष- मन्त्रों से संयुक्त जलतत्त्व चार गुणों से युक्त है। उसे इस प्रकार (घुटने से नाभि तक जल का) चिन्तन करते हुए उस जल तत्त्व का वह्निस्वरूप में लीन करके शोधन करे। अग्निमण्डल त्रिकोणाकार है। उसका वर्ण लाल है। (नाभि से हृदय तक उसकी स्थिति है।) वह स्वस्तिक के चिह्न से युक्त है। उसमें 'हूं" बीज अङ्कित है। वह विद्याकला- स्वरूप है। उसका अघोर मन्त्र है तथा वह तीन गुणों से युक्त एवं जलभूत है - इस प्रकार चिन्तन करते हुए अग्नितत्त्व का शोधन करे। वायुमण्डल षट्कोणाकार है। (शरीर में हृदय से लेकर भौंहों के मध्य भाग तक उसकी स्थिति है।) वह छः बिन्दुओं से चिह्नित है। उसका रंग काला है। वह "हैं बीज एवं सद्योजात मन्त्र से युक्त और शान्तिकला स्वरूप है। उसमें दो गुण हैं तथा वह पृथ्वीभूत है। इस प्रकार चिन्तन करते हुए वायुतत्त्व का शोधन करे ॥ २० - २४ ॥

१. जल का बीज 'वं' है यही ग्रन्थान्तरों से सिद्ध है।

२. अग्नि का मुख्य बीज 'रं' है।

३. वायु का बीज 'यं' है।

नभोविन्दुमयं वृत्तं विन्दुशक्तिविभूषितम्

व्योमाकारं सुवृत्तञ्च शुद्धस्फटिकनिर्मलम् ॥२५॥

हौङ्कारेण फडन्तेन शान्त्यतीतकलामयम् ।

ध्यात्वैकोद्घातयोगेन सुविशुद्धं विभावयेत् ॥२६॥

आप्याययेत्ततः सर्वं मूलेनामृतवर्षिणा ।

आधाराख्यामनन्तञ्च धर्मज्ञानादिपङ्कजम् ॥२७॥

हृदासनमिदं ध्यात्वा मूर्तिमावाहयेत्ततः ।

सृष्ट्या शिवमयं तस्यामात्मानं द्वादशान्ततः ॥२८॥

अथ तां शक्तिमन्त्रेण वौषडन्तेन सर्वतः।

दिव्यामृतेन सम्प्लाव्य कुर्वीत सकलीकृतम् ॥२९॥

हृदयादिकरान्तेषु कनिष्ठाद्यङ्गुलीषु च ।

हृदादिमन्त्रविन्यासः सकलीकरणं मतम् ॥३०॥

आकाश का स्वरूप व्योमाकार, नाद-बिन्दुमय, गोलाकार, बिन्दु और शक्ति से विभूषित तथा शुद्ध स्फटिक मणि के समान निर्मल है। (शरीर में भ्रूमध्य से लेकर ब्रह्मरन्ध्र तक उसकी स्थिति है।) वह 'हौं फट्" इस बीज से युक्त है। शान्त्यतीतकलामय है। एक गुण से युक्त तथा परम विशुद्ध है। इस प्रकार चिन्तन करते हुए आकाश तत्त्व का शोधन करे। तदनन्तर अमृतवर्षी मूलमन्त्र से सबको परिपुष्ट करे। तत्पश्चात् आधारशक्ति, कूर्म, अनन्त (पृथ्वी) की पूजा करे। फिर पीठ (चौकी) के अग्निकोणवाले पाये में धर्म की, नैर्ऋत्य कोणवाले पाये में ज्ञान की, वायव्यकोण में वैराग्य की और ऐशान्यकोण में ऐश्वर्य की पूजा करनी चाहिये। इसके बाद पीठ की पूर्वादि दिशाओं में क्रमशः अधर्म, अज्ञान, अवैराग्य और अनैश्वर्य की पूजा करनी चाहिये। इसके बाद पीठ के मध्यभाग में कमल की पूजा करे। इस प्रकार मन-ही-मन इस पीठवर्ती कमलमय आसन का ध्यान करके उस पर देवमूर्ति सच्चिदानन्दघन भगवान् शिव का आवाहन करे। उस शिवमूर्ति में शिवस्वरूप आत्मा को देखे और फिर आसन, पादुकाद्वय तथा नौ पीठशक्ति - इन बारहों का ध्यान करे। फिर शक्तिमन्त्र के अन्त में 'वौषट्' लगाकर उसके उच्चारणपूर्वक पूर्वोक्त आत्ममूर्ति को दिव्य अमृत से आप्लावित करके उसमें सकलीकरण करे। हृदय से लेकर हस्त- पर्यन्त अङ्गों में तथा कनिष्ठिका आदि अँगुलियों में हृदय (नमः) मन्त्रों का जो न्यास है, इसी को 'सकलीकरण' माना गया है ।। २५-३० ॥

१. आकाश का बीज 'हं' है यही सर्वसम्मत है।

२. शान्त्यतीतकला के भीतर इन्धिका, दीपिका, रेचिका और मोचिकाये चार कलाएँ आती हैं।

अस्त्रेण रक्ष्य प्राकारं तन्मन्त्रेणाथ तद्बहिः ।

शक्तिजालमधश्चोर्ध्वं महामुद्रां प्रदर्शयेत् ॥३१॥

आपदमस्तकं यावद् भावपुष्पैः शिवं हृदि ।

पद्मे यजेत् पूरकेण आकृष्टामृतसद्धृतैः ॥३२॥

शिवमन्त्रैर्नाभिकुण्डे तर्पयेत शिवानलम् ।

ललाटे विन्दुरूपञ्च चिन्तयेच्छुभविग्रहम् ॥३३॥

तत्पश्चात् 'हुं फट्'इस मन्त्र से प्राकारकी भावना द्वारा आत्मरक्षा की व्यवस्था करके उसके बाहर, नीचे और ऊपर भी भावनात्मक शक्तिजाल का विस्तार करे। इसके बाद महामुद्राका प्रदर्शन करे। तत्पश्चात् पूरक प्राणायाम के द्वारा अपने हृदय – कमल में विराजमान शिव का ध्यान करके भावमय पुष्पों द्वारा उनके पैर से लेकर सिर तक के अङ्गों में पूजन करे। वे भावमय पुष्प आनन्दामृतमय मकरन्द से परिपूर्ण होने चाहिये। फिर शिव- मन्त्रों द्वारा नाभिकुण्ड में स्थित शिवस्वरूप अग्नि को तृप्त करे। वही शिवानल ललाट में बिन्दुरूप से स्थित है; उसका विग्रह मङ्गलमय है - इस प्रकार चिन्तन करे ।। ३१-३३॥

अन्योन्यग्रथिता प्रसारितकराङ्गुली ।

महामुद्रेयमुदिता परमीकरणी बुधैः ॥ (वामकेश्वर तन्त्रान्तर्गत मुद्रानिघण्टु ३१-३२)

-दोनों अंगूठों को परस्पर ग्रथित कर हाथों की अन्य सब अँगुलियों को फैलाये रखना यह 'महामुद्रा' कही गयी है। इसका परमीकरण में प्रयोग होता है।

एकं स्वर्णादिपात्राणां पात्रमस्त्राम्बुशोधितम् ।

विन्दुप्रसूतपीयूषरूपतोयाक्षतादिना ॥३४॥

हृदापूर्य षडङ्गेन पूजयित्वाभिमन्त्रयेत् ।

संरक्ष्य हेति मन्त्रेण कवचेन विगुण्ठयेत् ॥३५॥

रचयित्वार्घ्यमष्टाङ्गं सेचयेद्धेनुमुद्रया ।

अभिषिञ्चेदथात्मानं मूर्ध्नि तत्तोयविन्दुना ॥३६॥

तत्रस्थं यागसम्भारं प्रोक्षयेदस्त्रवारिणा ।

अभिमन्त्र्य हृदा पिण्डैस्तनुत्राणेन वेष्टयेत् ॥३७॥

स्वर्ण, रजत एवं ताम्रपात्रों में से किसी एक पात्र को अर्घ्य के लिये लेकर उसे अस्त्र बीज (फट्) - के उच्चारणपूर्वक जल से धोये। फिर बिन्दुरूप शिव से प्रकट होनेवाले अमृत की भावना से युक्त जल एवं अक्षत आदि के द्वारा हृदय-मन्त्र (नमः) - के उच्चारणपूर्वक उसे भर दे। फिर हृदय, सिर, शिखा, कवच, नेत्र और अस्त्र- इन छः अङ्गों द्वारा (अथवा इनके बीज मन्त्रों द्वारा) उस अर्घ्यपात्र का पूजन करके उसे देवता सम्बन्धी मूलमन्त्र से अभिमन्त्रित करे। फिर अस्त्र-मन्त्र (फट्) से उसकी रक्षा करके कवच बीज (हुम्) - के द्वारा उसे अवगुण्ठित कर दे। इस प्रकार अष्टाङ्ग अर्घ्य की रचना करके, धेनुमुद्रा के द्वारा उसका अमृतीकरण करके उस जल को सब ओर सींचे। अपने मस्तक पर भी उस जल की बूँदों से अभिषेक करे। वहाँ रखी हुई पूजा सामग्री का भी अस्त्र- बीज के उच्चारणपूर्वक उक्त जल से प्रोक्षण करे। तदनन्तर हृदयबीज से अभिमन्त्रित करके 'हुम्' बीज से पिण्डों (अथवा मत्स्यमुद्रा ) द्वारा उसे आवेष्टित या आच्छादित करे ।। ३४-३७ ॥

बायें हाथ के पृष्ठभाग पर दाहिने हाथ की हथेली रखे और दोनों अँगूठों को फैलाये रखे यही 'मत्स्यमुद्रा' है।

दर्शयित्वामृतां मुद्रां पुष्पं दत्त्वा निजासने

विधाय तिलकं मूर्ध्नि पुष्पं मूलेन योजयेत् ॥३८॥

स्नाने देवार्चने होमे भोजने यागयोगयोः ।

श्रावश्यके जपे धीरः सदा वाचंयमो भवेत् ॥३९॥

नादान्तोच्चारणान्मन्त्रं शोधयित्वा सुसंस्कृतम् ।

पूजनेऽभ्यर्च्य गायत्र्या सामान्यार्घ्यमुपाहरेत् ॥४०॥

इसके बाद अमृता ( धेनुमुद्रा) के लिये धेनुमुद्रा का प्रदर्शन करके अपने आसन पर पुष्प अर्पित करे (अथवा देवता के निज आसन पर पुष्प चढ़ावे )। तत्पश्चात् पूजक अपने मस्तक में तिलक लगाकर मूलमन्त्र के द्वारा आराध्यदेव को पुष्प अर्पित करे। स्नान, देवपूजन, होम, भोजन, यज्ञानुष्ठान, योग, साधन तथा आवश्यक जप के समय धीर बुद्धि साधक को सदा मौन रहना चाहिये। प्रणव का नाद- पर्यन्त उच्चारण करके मन्त्र का शोधन करे। फिर उत्तम संस्कारयुक्त देव- पूजा आरम्भ करे। मूलगायत्री (अथवा रुद्र- गायत्री) - से अर्घ्य पूजन करके रखे और वह सामान्य अर्घ्यं देवता को अर्पित करे ॥ ३८-४० ॥

अमृतीकरण की विधि यह है-

'' इस अमृत बीज का उच्चारण करके धेनुमुद्रा को दिखावे। धेनुमुद्रा का लक्षण इस प्रकार है-

वामाङ्गुलीनां मध्येषु दक्षिणाङ्गुलिकास्तथा ।

संयोज्य तर्जनीं दक्षां वाममध्यमया तथा ॥

दक्षमध्यमया वामां तर्जनीं च नियोजयेत् ।

वामयानामया दक्षकनिष्ठां च नियोजयेत् ॥

दक्षयानामया वामां कनिष्ठां च नियोजयेत् ।

विहिताधोमुखी चैषा धेनुमुद्रा प्रकीर्तिता ॥

'बायें हाथ की अँगुलियों के बीच में दाहिने हाथ की अंगुलियों को संयुक्त करके दाहिनी तर्जनी को बायीं मध्यमा से जोड़े। दाहिने हाथ की मध्यमा से बायें हाथ की तर्जनी को मिलाये। फिर बायें हाथ की अनामिका से दाहिने हाथ की कनिष्ठिका और दाहिने हाथ की अनामिका से बायें हाथ की कनिष्ठिका को संयुक्त करे। तत्पक्षात् इन सबका मुख नीचे की ओर करे यही 'धेनुमुद्रा' कही गयी है।'

ब्रह्मपञ्चकमावर्त्य माल्यमादाय लिङ्गतः ।

ऐशान्यान्दिशि चण्डाय हृदयेन निवेदयेत् ॥४१॥

प्रक्षाल्य पिण्डिकालिङ्गे ग्रस्त्रतोये ततो हृदा ।

अर्घ्यपात्राम्बुना सिञ्चेदिति लिङ्गविशोधनम् ॥४२॥

ब्रह्मपञ्चक (पञ्चगव्य और कुशोदक से बना हुआ ब्रह्मकूर्च ) तैयार करके पूजित शिवलिङ्ग से पुष्प निर्माल्य ले ईशानकोण की ओर 'चण्डाय नमः' कहकर चण्ड को समर्पित करे। तत्पश्चात् उक्त ब्रह्मपञ्चक से पिण्डिका (पिण्डी या अर्घा) और शिवलिङ्ग को नहलाकर 'फट्' का उच्चारण करके उन्हें जल से नहलाये। फिर 'नमो नमः' के उच्चारणपूर्वक पूर्वोक्त अर्घ्यपात्र के जल से उस लिङ्ग का अभिषेक करे। यह लिङ्ग शोधन का प्रकार बताया गया है ॥ ४१-४२ ॥

ब्रह्मकूर्च की विधि इस प्रकार है- पलाश या कमल के पत्ते में अथवा तांबे या सुवर्ण के पात्र में पञ्चगव्य संग्रह करना चाहिये। गायत्री मन्त्र से गोमूत्र का 'गन्धद्वारां०' (श्रीसूक्त) इस मन्त्र से गोबर का, 'आप्यायस्व०' (शु० यजु० १२ ११२ ) इस मन्त्र से दूध का दधिक्राव्णो०' (शु० यजु० २३ । ३२ ) इस मन्त्र से दही का 'तेजोऽसि शुक्रं०' (शु० यजु० २२ । १) इस मन्त्र से घी का और 'देवस्य त्वा०' ( शु० यजु० ६।३०) इस मन्त्र से कुशोदक का संग्रह करे चतुर्दशी को उपवास करके अमावस्या को उपर्युक्त वस्तुओं का संग्रह करे। गोमूत्र एक पल होना चाहिये, गोबर आधे अँगूठे के बराबर हो, दूध का मान सात पल और दही का तीन पल है। घी और कुशोदक एक- एक पल बताये गये हैं। इस प्रकार इन सबको एकत्र करके परस्पर मिला दें। तत्पश्चात् सात-सात पत्तों के तीन कुश लेकर जिनके अग्रभाग कटे न हों, उनसे उस पञ्चगव्य की अग्नि में आहुति दे आहुति से बचे हुए पञ्चगव्य को प्रणव से आलोडन और प्रणव से ही मन्थन करके, प्रणव से ही हाथ में ले तथा फिर प्रणव का ही उच्चारण करके उसे पी जाय। इस प्रकार तैयार किये हुए पञ्चगव्य को 'ब्रह्मकूर्च' कहते हैं। स्त्री-शूद्रों को ब्राह्मण के द्वारा पचगव्य बनवाकर प्रणव उच्चारण के बिना ही पीना चाहिये। सर्वसाधारण के लिये ब्रह्मकूर्च पान का मन्त्र यह है-

यत्त्वगस्थिगतं पापं देहे तिष्ठति देहिनाम् ।

ब्रह्मकूर्चो दहेत्सर्व प्रदीप्ताग्निरिवेन्धनम्॥ (वृद्धशातातप० १२)

अर्थात् 'देहधारियों के शरीर में चमड़े और हड्डीतक में जो पाप विद्यमान है, वह सब ब्रह्मकूर्च इस प्रकार जला दे, जैसे प्रज्वलित आग इन्धन को जला डालती है।'

आत्मद्रव्यमन्त्रलिङ्गशुद्धौ सर्वान् सुरान्यजेत् ।

वायव्ये गणपतये हां गुरुभ्योऽर्चयेच्छिवे ॥४३॥

आत्मा (शरीर और मन), द्रव्य (पूजनसामग्री),मन्त्र तथा लिङ्ग की शुद्धि हो जाने पर सब देवताओं का पूजन करे। वायव्यकोण में 'ॐ हां गणपतये नमः । कहकर गणेशजी की पूजा करे और ईशानकोण में 'ॐ हां गुरुभ्यो नमः' कहकर गुरु, परम गुरु, परात्पर गुरु तथा परमेष्ठी गुरु- गुरुपंक्ति की पूजा करे ॥ ४३ ॥

प्रचलित 'गं' आदि स्वबीज के स्थान पर 'हां' बीज सोमशम्भु की 'कर्मकाण्डक्रमावली' में भी मिलता है।

आधारशक्तिमङ्कुरनिभां कूर्मशिलास्थिताम्

यजेद् ब्रह्मशिलारूढं शिवस्यानन्तमासनम् ॥४४॥

विचित्रकेशप्रख्यानमन्योन्यं पृष्टदर्शिनः।

कृतत्रेतादिरूपेण शिवस्यासनपादुकाम् ॥४५॥

धर्मं ज्ञानञ्च वैराग्यमैश्वर्यञ्चाग्निदिङ्मुखान् ।

कर्पूरकुङ्कुमस्वर्णकज्जलाभान् यजेत् क्रमात् ॥४६॥

पद्मञ्च कर्णिकामध्ये पूर्वादौ मध्यतो नव ।

वरदाभयहस्ताश्च शक्तयो धृतचामराः ॥४७॥

तत्पश्चात् कूर्मरूपी शिला पर स्थित अङ्कुर- सदृश आधारशक्ति का तथा ब्रह्मशिला पर आरूढ़ शिव के आसनभूत अनन्तदेव का 'ॐ हां अनन्तासनाय नमः ।' मन्त्र द्वारा पूजन करे। शिव के सिंहासन के रूप में जो मञ्च या चौकी है, उसके चार पाये हैं, जो विचित्र सिंह की-सी आकृति से सुशोभित होते हैं। वे सिंह मण्डलाकार में स्थित रहकर अपने आगेवाले के पृष्ठभाग को ही देखते हैं तथा सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग - इन चार युगों के प्रतीक हैं। तत्पश्चात् भगवान् शिव की आसन पादुका की पूजा करे। तदनन्तर धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य की पूजा करे। वे अग्नि आदि चारों कोणों में स्थित हैं। उनके वर्ण क्रमश: कपूर, कुङ्कुम, सुवर्ण और काजल के समान हैं। इनका चारों पायों पर क्रमशः पूजन करे। इसके बाद (ॐ हां अधश्छदनाय नमोऽधः, ॐ हां ऊर्ध्वच्छदनाय नम ऊर्ध्वे ॐ हां पद्मासनाय नमः । - ऐसा कहकर ) आसन पर विराजमान अष्टदल कमल के नीचे- ऊपर के दलों की, सम्पूर्ण कमल की तथा 'ॐ हां कर्णिकायै नमः ।' के द्वारा कर्णिका के मध्यभाग की पूजा करे। उस कमल के पूर्व आदि आठ दलों में तथा मध्यभाग में नौ पीठ- शक्तियों की पूजा करनी चाहिये। वे शक्तियाँ चँवर लेकर खड़ी हैं। उनके हाथ वरद एवं अभय की मुद्राओं से सुशोभित हैं ॥ ४४ - ४७ ॥

वामा ज्येष्ठा च रौद्री च काली कलविकारिणी ।

बलविकरणी पूज्या बलप्रमथनी क्रमात् ॥४८॥

हां सर्वभूतदमनी केशराग्रे मनोन्मनी

चित्त्यादि शुद्धविद्यान्तु तत्त्वव्यापकमासनम् ॥४९॥

न्यसेत् सिंहासने देवं शुक्लं पञ्चमुखं विभुम् ।

दशबाहुं च खण्डेन्दुं दधानन्दक्षिणैः करैः ॥५०॥

शक्त्यृष्टिशूलखट्वाङ्गवरदं वामकैः करैः ।

डमरुं वीजपूरञ्च नीलाब्जं सूत्रकोत्पलम् ॥५१॥

उनके नाम इस प्रकार हैं-वामा, ज्येष्ठा, रौद्री काली, कलविकारिणी*, बलविकारिणी*, बलप्रमथिनी, सर्वभूतदमनी तथा मनोन्मनी इन सबका क्रमशः पूजन करना चाहिये। वामा आदि आठ शक्तियों का कमल के पूर्व आदि आठ दलों में तथा नवीं मनोन्मनी का कमल के केसर-भाग में क्रमशः पूजन किया जाता है। यथा-'ॐ हां वामायै नमः।' इत्यादि । तदनन्तर पृथ्वी आदि अष्टमूर्तियों एवं विशुद्ध विद्यादेह का चिन्तन एवं पूजन करे। (यथा- पूर्व में 'ॐ सूर्यमूर्तये नमः।' अग्निकोण में 'ॐ चन्द्रमूर्तये नमः।' दक्षिण में 'ॐ पृथ्वीमूर्तये नमः।' नैर्ऋत्यकोण में 'ॐ जलमूर्तये नमः।' पश्चिम में 'ॐ वह्निमूर्तये नमः।' वायव्यकोण में 'ॐ वायुमूर्तये नमः।' उत्तर में 'ॐ आकाशमूर्तये नमः।' और ईशानकोण में 'ॐ यजमानमूर्तये नमः।' ) तत्पश्चात् शुद्ध विद्या की और तत्त्वव्यापक आसन की पूजा करनी चाहिये। उस सिंहासन पर कर्पूर गौर, सर्वव्यापी एवं पाँच मुखों से सुशोभित भगवान् महादेव को प्रतिष्ठित करे। उनके दस भुजाएँ हैं। वे अपने मस्तक पर अर्धचन्द्र धारण करते हैं। उनके दाहिने हाथों में शक्ति, ऋष्टि, शूल, खट्वाङ्ग और वरद मुद्रा हैं तथा अपने बायें हाथों में वे डमरू, बिजौरा नीबू, सर्प, अक्षसूत्र और नील कमल धारण करते हैं । ४८-५१ ॥

*१. अन्य तन्त्र-ग्रन्थों में 'कलविकरिणी' नाम मिलता है।

*२. अन्यत्र 'बलविकरिणी' नाम मिलता है।

द्वात्रिंशल्लक्षणोपेतां शैवीं मूर्तिन्तु मध्यतः ।

हां हं हां शिवमूर्तये स्वप्रकाशं शिवं स्मरन् ॥५२॥

ब्रह्मादिकारणत्यागान्मन्त्रं नीत्वा शिवास्पदम् ।

ततो ललातमध्यस्थं स्फुरत्तारापतिप्रभम् ॥५३॥

षडङ्गेन समाकीर्णं विन्दुरूपं परं शिवम् ।

पुष्पाञ्जलिगतं ध्यात्वा लक्ष्मीमूर्तौ निवेशयेत् ॥५४॥

ॐ हां हौं शिवाय नम श्रावाहन्या हृदा ततः।

वाह्य स्थाप्य स्थापन्या सन्निधायान्तिकं शिवम् ॥५५॥

निरोधयेन्निष्ठरया कालकान्त्या फडन्ततः।

विघ्नानुत्सार्य विष्ठयाथ लिङ्गमुद्रां नमस्कृतिम् ॥५६॥

आसन के मध्य में विराजमान भगवान् शिव की वह दिव्य मूर्ति बत्तीस लक्षणों से सम्पन्न है, ऐसा चिन्तन करके स्वयं प्रकाश शिव का स्मरण करते हुए 'ॐ हां हां हां शिवमूर्तये नमः ।' कहकर उसे नमस्कार करे। ब्रह्मा आदि कारणों के त्यागपूर्वक मन्त्र को शिव में प्रतिष्ठित करे। फिर यह चिन्तन करे कि ललाट के मध्यभाग में विराजमान तथा तारापति चन्द्रमा के समान प्रकाशमान बिन्दुरूप परमशिव हृदयादि छः अङ्गों से संयुक्त हो पुष्पाञ्जलि में उतर आये हैं। ऐसा ध्यान करके उन्हें प्रत्यक्ष पूजनीय मूर्ति में स्थापित कर दे। इसके बाद 'ॐ हां हौं शिवाय नमः।'- यह मन्त्र बोलकर मन- ही मन आवाहनी–मुद्रा* द्वारा मूर्ति में भगवान् शिव का आवाहन करे। फिर स्थापनी मुद्रा* द्वारा वहाँ उनकी स्थापना और संनिधापिनी मुद्रा* द्वारा भगवान् शिव को समीप में विराजमान करके संनिरोधनी मुद्रा* द्वारा उन्हें उस मूर्ति अवरुद्ध करे। तत्पश्चात् निष्ठुरायै कालकल्यायै ( कालकान्त्यै अथवा काल- कान्तायै) फट्।' का उच्चारण करके खड्ग- मुद्रा से भय दिखाते हुए विघ्नों को मार भगावे । इसके बाद लिङ्ग-मुद्रा* का प्रदर्शन करके नमस्कार करे ॥ ५२-५६ ॥

*१. दोनों हाथों की अञ्जलि बनाकर अनामिका अंगुलियों के मूलपर्व पर अंगूठे को लगा देना यह आवाहन की मुद्रा है।

*२. यह आवाहनी मुद्रा ही अधोमुखी (नीचे की और मुखवाली कर दी जाय तो 'स्थापिनी (बिठानेवाली) मुद्रा' कहलाती है।

*३. अँगूठों को ऊपर उठाकर दोनों हाथों की संयुक्त मुट्टी बाँध लेने पर 'संनिधापिनी (निकट सम्पर्क में लानेवाली) मुद्रा' बन जाती है।

*४. यदि मुट्ठी के भीतर अँगूठे को डाल दिया जाय तो 'संनिरोधिनी (रोक रखनेवाली) मुद्रा' कहलाती है।

*५. दोनों हाथों की अञ्जलि बाँधकर अनामिका और कनिष्ठिका अंगुलियों को परस्पर सटाकर लिङ्गाकार खड़ी कर ले। दोनों मध्यमाओं का अग्रभाग बिना खड़ी किये परस्पर मिला दे। दोनों तर्जनियों को मध्यमाओं के साथ सटाये रखे और अंगूठों को तर्जनियों के मूलभाग में लगा ले। यह अर्थासहित शिवलिङ्ग की मुद्रा है।

हृदावगुण्ठयेत् पश्चादावाहः सम्मुखी ततः ।

निवेशनं स्थापनं स्यात्सन्निधानं तवास्मि भोः ॥५७॥

आकर्मकाण्डपर्यन्तं सन्नेधेयोपरिक्षयः।

स्वभक्तेश्च प्रकाशो यस्तद्भवेदवगुण्ठनम् ॥५८॥

सकलीकरणं कृत्वा मन्त्रैः षड्भिरथैकताम् ।

अङ्गानामङ्गिना सार्धं विदध्यादमृतीकृतम् ॥५९॥

चिच्छक्तिहृदयं शम्भोः शिव ऐश्वर्यमष्टधा ।

शिखावशित्वं चाभेद्यं तेजः कवचमैश्वरम् ॥६०॥

प्रतापो दुःसहश्चास्त्रमन्तरायापहारकम्

नमः स्वधा च स्वाहा च वौषट् चेति यथाक्रमम् ॥६१॥

हृत्पुरःसरमुच्चार्य पाद्यादीनि निवेदयेत्

इसके बाद 'नमः' बोलकर अवगुण्ठन करे। आवाहन का अर्थ है सादर सम्मुखीकरण-इष्टदेव को अपने सामने उपस्थित करना। देवता को अर्चा-विग्रह में बिठाना ही उसकी स्थापना है। 'प्रभो! मैं आपका हूँ'- ऐसा कहकर भगवान्से निकटतम सम्बन्ध स्थापित करना ही 'संनिधान' या 'संनिधापन' कहलाता है। जबतक पूजन- सम्बन्धी कर्मकाण्ड चालू रहे, तबतक भगवान्‌ की समीपता को अक्षुण्ण रखना ही 'निरोध' है और अभक्तों के समक्ष जो शिवतत्त्व का अप्रकाशन या संगोपन किया जाता है, उसी का नाम 'अवगुण्ठन' है। तदनन्तर सकलीकरण करके 'हृदयाय नमः', 'शिरसे स्वाहा', 'शिखायै वषट्', 'कवचाय हुम्', 'नेत्राभ्यां वौषट्', 'अस्त्राय फट्' - इन छः मन्त्रों द्वारा हृदयादि अङ्गों की अङ्गी के साथ एकता स्थापित करे - यही 'अमृतीकरण' है। चैतन्यशक्ति भगवान् शंकर का हृदय है, आठ प्रकार का ऐश्वर्य उनका सिर है, वशित्व उनकी शिखा है तथा अभेद्य तेज भगवान् महेश्वर का कवच है। उनका दुःसह प्रताप ही समस्त विघ्नों का निवारण करनेवाला अस्त्र है। हृदय आदि को पूर्व में रखकर क्रमशः 'नमः', 'स्वधा', 'स्वाहा' और 'वौषट्' का क्रमशः उच्चारण करके पाद्य आदि निवेदन करे ॥ ५७ ६१अ ॥

पाद्यं पादाम्बुजद्वन्द्वे वक्त्रेष्वाचमनीयकम् ॥६२॥

अर्घ्यं शिरसि देवस्य दूर्वापुष्पाक्षतानि च ।

एवं संस्कृत्य संस्कारैर्दशभिः परमेश्वरम् ॥६३॥

यजेत् पञ्चोपचारेण विधिना कुसुमादिभिः ।

अभ्युक्ष्योद्वर्त्य निर्मञ्जय राजिकालवणादिभिः ॥६४॥

अर्थ्योदविन्दुपुष्पाद्यैर्गन्धकैः स्नापयेच्छनैः ।

पयोदधिघृतक्षौद्रशर्कराद्यैरनुक्रमात् ॥६५॥

ईशादिमन्त्रितैर्द्रव्यैरर्च्य तेषां विपर्ययः।

तोयधूपान्तरैः सर्वैर्मूलेन स्नपयेच्छिवम् ॥६६॥

पाद्य को आराध्यदेव के युगल चरणारविन्दों में, आचमन को मुखारविन्द में तथा अर्घ्य, दूर्वा, पुष्प और अक्षत को इष्टदेव के मस्तक पर चढ़ाना चाहिये । इस प्रकार दस संस्कारों से परमेश्वर शिव का संस्कार करके गन्ध-पुष्प आदि पञ्च- उपचारों से विधिपूर्वक उनकी पूजा करे। पहले जल से देवविग्रह का अभ्युक्षण (अभिषेक) करके राई- लोन आदि से उबटन और मार्जन करना चाहिये । तत्पश्चात् अर्घ्यजल की बूँदों और पुष्प आदि से अभिषेक करके गडुओं में रखे हुए जल के द्वारा धीरे-धीरे भगवान्‌ को नहलावे। दूध, दही, घी, मधु और शक्कर आदि को क्रमशः ईशान, तत्पुरुष, अघोर, वामदेव और सद्योजात इन पाँच मन्त्रों* द्वारा अभिमन्त्रित करके उनके द्वारा बारी बारी से स्नान करावे। उनको परस्पर मिलाकर पञ्चामृत बना ले और उससे भगवान्‌ को नहलावे। इससे भोग और मोक्ष की प्राप्ति होती है। पूर्वोक्त दूध-दही आदि में जल और धूप मिलाकर उन सबके द्वारा इष्ट देवता - सम्बन्धी मूल मन्त्र के उच्चारणपूर्वक भगवान् शिव को स्नान करावे ॥ ६२-६६ ॥

* ये पाँच मन्त्र इस प्रकार हैं-

(१) ॐ ईशानः सर्वविद्यानामीश्वरः सर्वभूतानां ब्रह्माधिपतिर्ब्रह्मणो ब्रह्मा शिवो मेऽस्तु सदा शिवोम् ॥

(२) ॐ तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि। तन्नो रुद्रः प्रचोदयात् ॥

(३) ॐ अघोरेभ्योऽथ घोरेभ्यो घोरघोरतरेभ्यः। सर्वेभ्यः सर्वशर्वेभ्यो नमस्तेऽस्तु रुद्ररूपेभ्यः ॥

(४) ॐ वामदेवाय नमो ज्येष्ठाय नमः श्रेष्ठाय नमो रुद्राय नमः कालाय नमः कलविकरणाय नमो बलविकरणाय नमो बलाय नमो बल-

प्रमथनाय नमः सर्वभूतदमनाय नमो मनोन्मनाय नमः ॥

(५) ॐ सद्योजातं प्रपद्यामि सद्योजाताय वै नमो नमः । भवे भवे नातिभवे भवस्व मां भवोद्भवाय नमः ॥

विरूक्ष्य यवचूर्णेन यथेष्टं शीतलैर्जलैः।

स्वशक्त्या गन्धतोयेन संस्स्राप्य शुचिवाससा ॥६७॥

निर्मार्ज्यार्घ्यं प्रदद्याच्च नोपरि भ्रामयेत् करम् ।

न शून्यमस्तकं लिङ्गं पुष्पैः कुर्यात्ततो ददेत् ॥६८॥

चन्दनाद्यैः समालभ्य पुष्पैः प्रार्च्य शिवाणुना ।

धूपभाजनमस्त्रेण प्रोक्ष्याभ्यर्च्य शिवाणुना ॥६९॥

अस्त्रेण पूजितां घण्टां चादाय गुग्गुलं ददेत् ।

दद्यादाचमनं पश्चात् स्वधान्तं हृदयाणुना ॥७०॥

आरात्रिकं समुत्तार्य तथैवाचामयेत् पुनः ।

प्रणम्यादाय देवाज्ञां भोगाङ्गानि प्रपूजयेत् ॥७१॥

तदनन्तर जौ के आटे से चिकनाई मिटाकर इच्छानुसार शीतल जल से स्नान करावे। अपनी शक्ति के अनुसार चन्दन, केसर आदि से युक्त जल द्वारा स्नान कराकर शुद्ध वस्त्र से इष्टदेव के श्रीविग्रह को अच्छी तरह पोंछे । उसके बाद अर्ध्य निवेदन करे। देवता के ऊपर हाथ न घुमावे । शिवलिङ्ग के मस्तक भाग को कभी पुष्प से शून्य न रखे। तत्पश्चात् अन्यान्य उपचार समर्पित करे । (स्नान के पश्चात् देवविग्रह को वस्त्र और यज्ञोपवीत धारण कराकर) चन्दन-रोली आदि का अनुलेप करे। फिर शिव-सम्बन्धी मन्त्र बोलकर पुष्प अर्पण करते हुए पूजन करे। धूप के पात्र का अस्त्र- मन्त्र (फट्) -से प्रोक्षण करके शिव मन्त्र से धूप द्वारा पूजन करे। फिर अस्त्र-मन्त्र द्वारा पूजित घण्टा बजाते हुए गुग्गुल का धूप जलावे। फिर 'शिवाय नमः।' बोलकर अमृत के समान सुस्वादु जल से भगवान्‌ को आचमन करावे। इसके बाद आरती उतारकर पुनः पूर्ववत् आचमन करावे। फिर प्रणाम करके देवता की आज्ञा ले भोगाङ्गों की पूजा करे ॥ ६७-७१ ॥

हृदग्नौ चन्द्रभं चैशे शिवं चामीकरप्रभम् ।

शिखां रक्ताञ्च नैर्ऋत्ये कृष्णं वर्म च वायवे ॥७२॥

चतुर्वक्त्रं चतुर्बाहुं दलस्थान् पूजयेदिमान् ।

दंष्ट्राकरालमप्यस्त्रं पूर्वादौ वज्रसन्निभम् ॥७३॥

अग्निकोण में चन्द्रमा के समान उज्ज्वल हृदय का, ईशानकोण में सुवर्ण के समान कान्तिवाले सिर का, नैर्ऋत्यकोण में लाल रंग की शिखा का तथा वायव्यकोण में काले रंग के कवच का पूजन करे। फिर अग्निवर्ण नेत्र और कृष्ण पिङ्गल अस्त्र का पूजन करके चतुर्मुख ब्रह्मा और चतुर्भुज विष्णु आदि देवताओं को कमल के दलों में स्थित मानकर इन सबकी पूजा करे। पूर्व आदि दिशाओं में दाढ़ों के समान विकराल, वज्रतुल्य अस्त्र का भी पूजन करे ।। ७२-७३ ॥

मूले हौं शिवाय नमः ॐ हां हूं हीं हों शिरश्च ।

हं शिखायै हैं वर्म हश्चास्त्रं परिवारयुताय च ॥७४॥

शिवाय दद्यात् पाद्यञ्च श्राचामञ्चार्घ्यमेव च ।

गन्धं पुष्पं धूपदीपं नैवेद्याचमनीयकम् ॥७५॥

करोद्वर्तनताम्बूलं मुखवासञ्च दर्पणम् ।

शिरस्यारोप्य देवस्य दूर्वाक्षतपवित्रकम् ॥७६॥

मूलमष्टशतं जप्त्वा हृदयेनाभिमन्त्रितम् ।

चर्मणावेष्टितं खड्गं रक्षितं कुशपुष्पकैः ॥७७॥

अक्षतैर्मुद्राया युक्तं शिवमुद्भवसञ्ज्ञया

मूल स्थान में 'ॐ हां हूं शिवाय नमः।' बोलकर पूजन करे। 'ॐ हां हृदयाय नमः, हीं शिरसे स्वाहा।' बोलकर हृदय और सिर की पूजा करे । 'हूं शिखायै वषट्' बोलकर शिखा की, 'हैं कवचाय हुम्।' कहकर कवच की तथा 'हः अस्त्राय फट्।' बोलकर अस्त्र की पूजा करे। इसके बाद परिवारसहित भगवान् शिव को क्रमशः पाद्य, आचमन, अर्घ्य, गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, आचमनीय, करोद्वर्तन, ताम्बूल, मुखवास (इलायची आदि) तथा दर्पण अर्पण करे। तदनन्तर देवाधिदेव के मस्तक पर दूर्वा, अक्षत और पवित्रक चढ़ाकर हृदय (नमः) - से अभिमन्त्रित मूलमन्त्र का एक सौ आठ बार जप करे। तत्पश्चात् कवच से आवेष्टित एवं अस्त्र के द्वारा सुरक्षित अक्षत कुश, पुष्प तथा उद्भव नामक मुद्रा से भगवान् शिव से इस प्रकार प्रार्थना करे ॥७४७७ अ ॥

गुह्यातिगुह्यगुप्तयर्थं गृहाणास्मत्कृतं जपम् ॥७८॥

सिद्धिर्भवतु मे येन त्वत्प्रसादात्त्वयि स्थिते ।

'प्रभो! गुह्य से भी अति गुह्य वस्तु की आप रक्षा करनेवाले हैं। आप मेरे किये हुए इस जप को ग्रहण करें, जिससे आपके रहते हुए आपकी कृपा से मुझे सिद्धि प्राप्त हो ॥ ७८ अ ॥

भोगी श्लोकं पठित्वाद्यं दक्षहस्तेन शम्भवे ॥७९॥

मूलाणुनार्घ्यतोयेन वरहस्ते निवेदयेत्

यत्किञ्चित् कुर्महे देव सदा सुकृतदुष्कृतम् ॥८०॥

तन्मे शिवपदस्थस्य हूं क्षः क्षेपय शङ्कर

शिवो दाता शिवो भोक्ता शिवः सर्वमिदं जगत् ॥८१॥

शिवो जयति सर्वत्र यः शिवः सोऽहमेव च ।

भोग की इच्छा रखनेवाला उपासक उपर्युक्त श्लोक पढ़कर, मूल मन्त्र के उच्चारणपूर्वक दाहिने हाथ से अर्घ्य - जल ले भगवान्‌ के वर की मुद्रा से युक्त हाथ में अर्घ्य निवेदन करे। फिर इस प्रकार प्रार्थना करे– 'देव! शंकर! हम कल्याणस्वरूप आपके चरणों की शरण में आये हैं। अतः सदा हम जो कुछ भी शुभाशुभ कर्म करते आ रहे हैं, उन सबको आप नष्ट कर दीजिये -निकाल फेंकिये। हूँ क्षः । शिव ही दाता हैं, शिव ही भोक्ता हैं, शिव ही यह सम्पूर्ण जगत् हैं, शिव की सर्वत्र जय हो । जो शिव हैं, वही मैं हूँ ॥ ७९-८१ अ ॥

श्लोकद्वयमधीत्यैवं जपं देवाय चार्पयेत् ॥८२॥

शिवाङ्गानां दशांशञ्च दत्त्वार्घ्यं स्तुतिमाचरेत् ।

प्रदक्षिणीकृत्य नमेच्चाष्टाङ्गञ्चाष्टमूर्तये ॥८३॥।

नत्वा ध्यानादिभिश्चैव यजेच्चित्रेऽनलादिषु ॥८४॥

इन दो श्लोकों को पढ़कर अपना किया हुआ जप आराध्यदेव को समर्पित कर दे। तत्पश्चात् जपे हुए शिव-मन्त्र का दशांश भी जपे (यह हवन की पूर्ति के लिये आवश्यक है।) फिर अर्घ्य देकर भगवान्की स्तुति करे । अन्त में अष्टमूर्तिधारी आराध्यदेव शिव को परिक्रमा करके उन्हें साष्टाङ्ग प्रणाम करे। नमस्कार और शिव-ध्यान करके चित्र में अथवा अग्नि आदि में भगवान् शिव के उद्देश्य से यजन-पूजन करना चाहिये ॥ ८२-८४ ॥

इत्यादिमहापुराणे आग्नेये शिवपूजा नाम चतुःसप्ततितमोऽध्यायः॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'शिव पूजा की विधि का वर्णन' नामक चौहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥७४॥

आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 75

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