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अध्याय ७६ में चण्ड की पूजा का वर्णन है।
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अग्निपुराणम् अध्यायः ७६ चण्डपूजाकथनम्
अथ
षट्सप्ततितमोऽध्यायः
॥ ईश्वर उवाच ॥
ततः
शिवान्तिकङ्गत्वा पूजाहोमादिकं मम ।
गृहाण भगवन्
पुण्यफलमित्यभिधाय च ॥१॥
अर्थ्योदकेन
देवाय मुद्रयोद्भवसञ्ज्ञया ।
हृद्वीजपूर्वमूलेन
स्थिरचित्तो निवेदयेत् ॥२॥
ततः
पूर्ववदभ्यर्च्य स्तुत्वा स्तोत्रैः प्रणम्य च
।
अर्घ्यं पराङ्गखं
दत्त्वा क्षमस्वेत्यभिधाय च ॥३॥
नाराचमुद्रयास्त्रेण
फडन्तेनात्मसञ्चयम् ।
संहृत्य
दिव्यया लिङ्गं मूर्तिमन्त्रेण योजयेत् ॥४॥
स्थण्डिले
त्वर्चिते देवे मन्त्रसङ्घातमात्मनि ।
नियोज्य
विधिनोक्तेन विदध्याच्चण्डपूजनम् ॥५॥
महादेवजी कहते
हैं- स्कन्द ! तदनन्तर शिवविग्रह के निकट जाकर साधक इस प्रकार प्रार्थना करे- 'भगवन्! मेरे द्वारा जो पूजन और होम आदि कार्य सम्पन्न हुआ
है,
उसे तथा उसके पुण्यफल को आप ग्रहण करें।'
ऐसा कहकर, स्थिरचित्त हो 'उद्भव' नामक मुद्रा दिखाकर अर्घ्यजल से 'नमः'
सहित पूर्वोक्त मूल मन्त्र पढ़ते
हुए इष्टदेव को अर्घ्य निवेदन करे। तत्पश्चात् पूर्ववत्
पूजन तथा स्तोत्रों द्वारा स्तवन करके प्रणाम
करे तथा पराङ्मुख अर्घ्य देकर कहे- 'प्रभो! मेरे अपराधों को क्षमा करें।'
ऐसा कहकर दिव्य नाराचमुद्रा दिखा 'अस्त्राय फट्'
का उच्चारण करके समस्त संग्रह का अपने-आप में उपसंहार करने के
पश्चात् शिवलिङ्ग को मूर्ति सम्बन्धी मन्त्र से अभिमन्त्रित करे। तदनन्तर वेदी पर
इष्टदेवता की पूजा कर लेने पर मन्त्र का अपने-आप में उपसंहार करके पूर्वोक्त विधि से
चण्ड का पूजन करे ॥ १-५ ॥
ॐ चण्डेशानाय
नमो मध्यतश्चण्डमूर्तये ।
ॐ
धूलिचण्डेश्वराय हूं फट् स्वाहा तमाह्वयेत् ॥६॥
चण्डहृदयाय
हूं फट् ॐ चण्डशिरसे तथा ।
ॐ चण्डशिखायै
हूं फट् चण्डायुः कवचाय च ॥७॥
'ॐ चण्डेशानाय नमः'
से चण्डदेवता को नमस्कार करे। फिर मण्डल के मध्यभाग में ॐ
चण्डमूर्तये नमः।'
से चण्ड की पूजा करे। उस मूर्ति में 'ॐ धूलिचण्डेश्वराय हूं फट् स्वाहा।'
बोलकर चण्डेश्वर का आवाहन करे। इसके बाद अङ्ग-पूजा करे। यथा
- ॐ चण्ड हृदयाय हूं फट्।' इस मन्त्र से हृदय की, 'ॐ चण्ड शिरसे हूं फट् ।'
इस मन्त्र से सिर की, 'ॐ चण्ड शिखायै हूं फट् ।'
इस मन्त्र से शिखा की, 'ॐ चण्डायुष्कवचाय हूं फट्।'
से कवच की तथा 'ॐ चण्डास्त्राय हूं फट्'
से अस्त्र की पूजा करे।
इसके बाद रुद्राग्नि से उत्पन्न हुए चण्ड देवता का इस प्रकार ध्यान करे ॥ ६-७ ॥
चण्डस्त्राय
तथा हूं फट् चण्डं रुद्राग्निजं स्मरेत् ।
शूलटङ्कधरं
कृष्णं साक्षसूत्रकमण्डलुम् ॥८॥
टङ्काकारेऽर्धचन्द्रे
वा चतुर्वक्त्रं प्रपूजयेत् ।
यथाशक्ति जपं
कुर्यादङ्गानान्तु दशांशतः ॥९॥
गोभूहिरण्यवस्त्रादिमणिहेमादिभूषणम्
।
विहाय
शेषनिर्माल्यं चण्डेशाय निवेदयेत् ॥१०॥
लेह्यचोष्याद्यनुवरं
ताम्बूलं स्रग्विलेपनम् ।
निर्माल्यं
भोजनं तुभ्यं प्रदत्तन्तु शिवाज्ञया ॥११॥
सर्वमेतत्
क्रियाकाण्डं मया चण्ड तवाज्ञया ।
न्यूनाधिकं
कृतं मोहात् परिपूर्णं सदास्तु मे ॥१२॥
'चण्डदेव अपने दो हाथों में शूल और टङ्क धारण करते हैं। उनका रंग साँवला है।
उनके तीसरे हाथ में अक्षसूत्र और चौथे में कमण्डलु है। वे टङ्क की-सी आकृतिवाले या
अर्धचन्द्राकार मण्डल में स्थित हैं। उनके चार मुख हैं।'
इस प्रकार ध्यान करके उनका पूजन करना चाहिये। इसके बाद
यथाशक्ति जप करे। हवन की अङ्गभूत सामग्री का संचय करके उसके द्वारा जप का दशांश
होम करे। भगवान्पर चढ़े हुए या उन्हें अर्पित किये हुए गो,
भूमि, सुवर्ण, वस्त्र आदि तथा मणि- सुवर्ण आदि के आभूषण को छोड़कर शेष
सारा निर्माल्य चण्डेश्वर को समर्पित कर दे। उस समय इस प्रकार कहे- 'हे चण्डेश्वर ! भगवान् शिव की आज्ञा से यह लेह्य,
चोष्य आदि उत्तम अन्न, ताम्बूल, पुष्पमाला एवं अनुलेपन आदि निर्माल्य स्वरूप भोजन तुम्हें
समर्पित है। चण्ड ! यह सारा पूजन सम्बन्धी कर्मकाण्ड मैंने तुम्हारी आज्ञा से किया
है। इसमें मोहवश जो न्यूनता या अधिकता कर दी गयी हो, वह सदा मेरे लिये पूर्ण हो जाय –
न्यूनातिरिक्तता का दोष मिट जाय ॥ ८-१२ ॥
इति विज्ञाप्य
देवेशं दत्त्वार्यं तस्य संस्मरन् ।
संहारमूर्तिमन्त्रेण
शनैः संहारमुद्रया ॥१३॥
पूरकान्वितमूलेन
मन्त्रानात्मनि योजयेत् ।
निर्माल्यापनयस्थानं
लिम्पेद्गोमयवारिणा ॥१४॥
प्रोक्ष्यार्घ्यादि
विसृज्याथ प्राचान्तोऽन्यत्समाचरेत् ॥१५॥
इस तरह निवेदन
करके,
उन देवेश्वर का स्मरण करते हुए उन्हें अर्घ्य देकर संहार
मूर्ति मन्त्र को पढ़कर संहारमुद्रा दिखाकर धीरे-धीरे पूरक प्राणायाम- पूर्वक मूल
मन्त्र का उच्चारण करके सब मन्त्रों का अपने-आप में उपसंहार कर ले। निर्माल्य जहाँ
से हटाया गया हो, उस स्थान को गोबर और जल से लीप दे। फिर अर्घ्य आदि का
प्रोक्षण करके देवता का विसर्जन करने के पश्चात् आचमन करके अन्य आवश्यक कार्य करे
॥ १३ - १५ ॥
इत्यादिमहापुराणे
आग्नेये चण्डपूजाकथनं नाम षट्सप्ततितमोऽध्यायः॥७६॥
इस प्रकार आदि
आग्नेय महापुराण में 'चण्ड की पूजा का वर्णन' नामक छिहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ७६ ॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 77
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