मनुस्मृति अध्याय १
मनुस्मृति अध्याय
१ - मनुस्मृति हिन्दू धर्म व मानवजाति का एक प्राचीन धर्मशास्त्र व प्रथम
संविधान (स्मृति) है। यह 1776 में अंग्रेजी में अनुवाद करने वाले पहले संस्कृत
ग्रंथों में से एक था, ब्रिटिश फिलॉजिस्ट सर विलियम जोंस द्वारा और ब्रिटिश
औपनिवेशिक सरकार के लाभ के लिए हिंदू कानून का निर्माण करने के लिए इस्तेमाल किया
गया था। मनुस्मृति में कुल 12 अध्याय हैं जिनमें 2684 श्लोक हैं। कुछ संस्करणों
में श्लोकों की संख्या 2964 है।
मनुस्मृति पहला अध्याय
Manu smriti chapter 1
मनुस्मृति अध्याय
१
॥ श्री हरि ॥
॥ मनुस्मृति ॥
मनुस्मृति प्रथमोऽध्यायः
॥ अथ
प्रथमोऽध्यायः पहला अध्याय ॥
मनुमेकाग्रमासीनमभिगम्य
महर्षयः ।
प्रतिपूज्य
यथान्यायमिदं वचनमब्रुवन् ॥१॥
भगवन्
सर्ववर्णानां यथावदनुपूर्वशः ।
अन्तरप्रभवानां
च धर्मान्नो वक्तुमर्हसि ॥२॥
त्वमेको
ह्यस्य सर्वस्य विधानस्य स्वयंभुवः ।
अचिन्त्यस्याप्रमेयस्य
कार्यतत्त्वार्थवित् प्रभो ॥३॥
महर्षियों ने
एकाग्रचित्त बैठे हुए मनु महाराज के पास जाकर और उनका पूजन करके,
विधिपूर्वक यह प्रश्न किया - हे भगवन्! आप सभी ब्राह्मण आदि
वर्गों के और सङ्कीर्ण जातियों के वर्णाश्रम धर्म क्रम से कहने में समर्थ हैं,
अतः हमें आप उपदेश कीजिये क्योंकि केवल आप समस्त वैदिक,
श्रौतस्मार्त कर्मों के अगाध और अनन्त विषय को जानने वाले
हैं । ॥१-३॥
स तैः
पृष्टस्तथा सम्यगमितोजा महात्मभिः ।
प्रत्युवाचार्च्य
तान् सर्वान् महर्षीश्रूयतामिति ॥४॥
इस प्रकार
महर्षियों के विनयपूर्वक प्रश्नों को सुनकर, महात्मा मनु ने, सबका आदर करके कहा - अच्छा सुनो। ॥४॥
मनुस्मृति अध्याय १- जगत् की सृष्टि का विषय
आसीदिदं
तमोभूतमप्रज्ञातमलक्षणम् ।
अप्रतर्क्यमविज्ञेयं
प्रसुप्तमिव सर्वतः ॥ ॥५॥
ततः
स्वयंभूर्भगवानव्यक्तो व्यञ्जयन्निदम् ।
महाभूतादि
वृत्तोजाः प्रादुरासीत् तमोनुदः ॥ ॥६॥
योऽसावतीन्द्रियग्राह्यः
सूक्ष्मोऽव्यक्तः सनातनः ।
सर्वभूतमयोऽचिन्त्यः
स एव स्वयमुद्बभौ ॥ ॥७॥
सोऽभिध्याय
शरीरात् स्वात् सिसृक्षुर्विविधाः प्रजाः ।
अप एव
ससर्जादौ तासु वीर्यमवासृजत् ॥ ॥८॥
यह संसार अपनी
उत्पत्ति के पूर्व अन्धकारमय था, अज्ञात था, इसका कोई लक्षण नहीं था। किसी भी अनुमान से यह जानने योग्य
नहीं था। चारों ओर से मानो सोया हुआ था। इस महाप्रलय स्थिति के अनन्तर,
सृष्टि के प्रारम्भ में, पृथिवी, जल, तेज, वायु, आकाश आदि विश्व को सूक्ष्म एवं स्थूल रूप में प्रकट करने की
इच्छा से अतीन्द्रिय, महासूक्ष्म, नित्य, विश्वव्यापक, अचिन्त्य परमात्मा ने अपने आप को प्रकट किया अर्थात्
महत्तत्त्व आदि की उत्पत्ति द्वारा अपनी शक्ति को संसार में प्रकट किया। उसके
पाश्चात्य अनेक प्रकार की प्रजा सृष्टि की इच्छा से जल वृष्टि करके उसमें अपना
शक्ति रूप बीज स्थापित किया । ॥ ५८॥
तदण्डमभवद्धैमं
सहस्रांशुसमप्रभम् ।
तस्मिञ्जज्ञे
स्वयं ब्रह्मा सर्वलोकपितामहः ॥ ॥९॥
वह बीज ईश्वर
की इच्छा से सूर्य के समान चमकीला स्वर्ण के रंग का गोला बन गया। उसमें से संपूर्ण
विश्व के पितामह स्वयं ब्रह्माजी का प्रादुर्भाव हुआ ॥९॥
आपो नारा इति
प्रोक्ता आपो वै नरसूनवः ।
ता यदस्यायनं
पूर्वं तेन नारायणः स्मृतः ॥ ॥ १० ॥
यत् तत्
कारणमव्यक्तं नित्यं सदसदात्मकम् ।
तद्विसृष्टः स
पुरुषो लोके ब्रह्मेति कीर्त्यते ॥ ॥११॥
तस्मिन्नण्डे
स भगवानुषित्वा परिवत्सरम् ।
स्वयमेवात्मनो
ध्यानात् तदण्डमकरोद् द्विधा ॥ ॥१२॥
ताभ्यां स
शकलाभ्यां च दिवं भूमिं च निर्ममे ।
मध्ये व्योम
दिशश्चाष्टावपां स्थानं च शाश्वतम् ॥ ॥ १३ ॥
जल को नार
कहते हैं क्योंकि जल की उत्पत्ति नर नामक परमात्मा से हुई है। जल में ही परमात्मा
ने ब्रह्मरूप से पहले स्थिति की है। इसलिये परमात्मा को नारायण कहते हैं। जो सारे
जगत् की उत्पात्ति का कारण है, अप्रकट है, सनातन है, सत्-असत् पदार्थों का प्रकृतिभूत है,
उसी से उत्पन्न वह पुरुष संसार में ब्रह्मा नाम से जाना
जाता है। ब्रह्मा ने उस अंड में एक वर्ष ब्राह्ममान रहकर,
अपनी इच्छा से उसके दो टुकड़े कर दिए। उस अंड के ऊपरी भाग
से स्वर्गलोक, नीचे के भाग से भूलोक और दोनों के बीच आकाश बनाकर आठों दिशाओं और जल के स्थिर
स्थान - समुद्र का निर्माण किया ॥ १०-१३ ॥
मनुस्मृति अध्याय
१- मनुस्मृति सृष्टि की उत्पत्ति
उद्वबर्हात्मनश्चैव
मनः सदसदात्मकम् ।
मनसश्चाप्यहङ्कारमभिमन्तारमीश्वरम्
॥ ॥१४॥
महान्तमेव
चात्मानं सर्वाणि त्रिगुणानि च ।
विषयाणां
ग्रहीतृणि शनैः पञ्चैन्द्रियाणि च ॥ ॥१५॥
तेषां
त्ववयवान् सूक्ष्मान् षण्णामप्यमितौजसाम् ।
संनिवेश्यात्ममात्रासु
सर्वभूतानि निर्ममे ॥ ॥ १६ ॥
यन्
मूर्त्यवयवाः सूक्ष्मास्तानीमान्याश्रयन्ति षट् ।
तस्माच्छरीरमित्याहुस्तस्य
मूर्तिं मनीषिणः ॥ ॥ १७ ॥
ब्रह्मा ने उस
परमात्मा रूप प्रकृति से मन उत्पन्न किया, फिर मन से अहंकार, अहंकार से महत्तत्व, सत्त्व, रज, तम, तीनों गुण और शब्द, स्पर्श, रूप आदि विषयों के विषय रूप पांच ज्ञानेन्द्रिय और अहंङ्कार
इन छ के सूक्ष्म अवयवों को अपनी अपनी मात्राओं में अर्थात् शब्द, स्पर्शादि में मिलाकर समस्त चल अचल रूप
विश्व की रचना की। शरीर के सूक्ष्म, छह हिस्सों अर्थात् अहंङ्कार और पञ्च महाभूत आदि समस्त
कार्यों के आश्रय होने से उस ब्रह्मा की मूर्ति को शरीर कहते हैं ॥१४- १७ ॥
तदाविशन्ति
भूतानि महान्ति सह कर्मभिः ।
मनश्चावयवैः
सूक्ष्मैः सर्वभूतकृदव्ययम् ॥ ॥ १८ ॥
तेषामिदं तु
सप्तानां पुरुषाणां महौजसाम् ।
सूक्ष्माभ्यो
मूर्तिमात्राभ्यः संभवत्यव्ययाद् व्ययम् ॥ ॥ १६ ॥
आद्याद्यस्य
गुणं त्वेषामवाप्नोति परः परः ।
यो यो
यावतिथश्चैषां स स तावद् गुणः स्मृतः ॥ ॥ २० ॥
सर्वेषां तु स
नामानि कर्माणि च पृथक् पृथक् ।
वेदशब्देभ्य
एवादौ पृथक् संस्थाश्च निर्ममे ॥ २१ ॥
पञ्चमहाभूत और
मन अपने कार्यों और सूक्ष्म अंगों के द्वारा समस्त प्राणियों की उत्पत्ति के लिये
अविनाश ब्रह्म अर्थात शरीर में प्रविष्ट होते हैं। उन सात प्रकृतियों अर्थात्
महत्तत्व,
अहङ्कार और पञ्चमहाभूत की सूक्ष्म मात्रा से,
पञ्चतन्मात्रा से, अविनाशी परमात्मा नाशवान् जगत् को उत्पन्न करते हैं। इन
पञ्चमहाभूतों में पहले का गुण अगला पाता है। जैसे आकाश का गुण शब्द आगे के वायु
में व्याप्त हुआ। वायु का गुण स्पर्श अग्नि में, अग्नि का रूप जल में स्थापित हुआ इत्यादि। इनमें से जिसमें
जितने गुण हैं वह उतने गुणों वाला गुणवाला है। जैसे आकाश में एक गुण शब्द है। वायु
में शब्द और स्पर्श दो गुण हैं, इसलिये आकाश एक गुण वाला और वायु दो गुणवाला कहलाया । इसी
प्रकार अन्य गुणों के विषय में भी जानना चाहिए। परमात्मा ने वेदानुसार ही सबके नाम
और कर्म अलग अलग बांट दिये हैं, जैसा गौ जाति का नाम गो, अश्वजाति का अश्व और कर्म जैसे ब्राह्मणों का वेदाध्ययन आदि,
क्षत्रियों को प्रजारक्षा आदि जैसा पूर्वकल्प में था वैसा
ही रचा गया है ॥ १८-२१ ॥
कर्मात्मनां च
देवानां सोऽसृजत् प्राणिनां प्रभुः ।
साध्यानां च
गणं सूक्ष्मं यज्ञं चैव सनातनम् ॥ ॥ २२ ॥
अग्निवायुरविभ्यस्तु
त्रयं ब्रह्म सनातनम् ।
दुदोह
यज्ञसिद्ध्यर्थं ऋच् । यजुस् । सामलक्षणम् ॥ ॥ २३ ॥
कालं
कालविभक्तीश्च नक्षत्राणि ग्रहांस्तथा ।
सरितः सागरान्
शैलान् समानि विषमानि च ॥ ॥२४॥
फिर परमात्मा
ने,
यज्ञादि में जिनको भाग दिया जाता है ऐसे प्राणवाले इन्द्रादि
देवता;
वनस्पति आदि के स्वामी देवता, साध्य नामक सूक्ष्म देवगण और यज्ञों की रचना की। अग्नि,
वायु और सूर्य इन तीनों में क्रम से यज्ञ,
कर्म, संपादन के लिये, ऋक, यजु, साम इस त्रयी विद्या* को उत्पन्न किया। काल और काल का विभाग वर्ष,
मास, पक्ष, तिथि, प्रहर, घटिका, पल, विपल आदि नक्षत्र, ग्रह, नदी, समुद्र, पर्वत और ऊंचीं, नीची भूमि की सृष्टि हुई। ॥ २२-२४ ॥
* अग्नि, वायु और सूर्य से वेदों की उत्पत्ति होने के कारण
ही ऋग्वेद का पहला मन्त्र अग्नि स्तुति का, यजुर्वेद का पहला मन्त्र वायु स्तुति का तथा
सामवेद का पहला मन्त्र सूर्य स्तुति का है।
तपो वाचं रतिं
चैव कामं च क्रोधमेव च ।
सृष्टिं ससर्ज
चैवेमां स्रष्टुमिच्छन्निमाः प्रजाः ॥ ॥ २५ ॥
कर्मणां च
विवेकार्थं धर्माधर्मौ व्यवेचयत् ।
द्वन्द्वैरयोजयच्चैमाः
सुखदुःखादिभिः प्रजाः ॥ ॥ २६ ॥
अण्व्यो
मात्रा विनाशिन्यो दशार्धानां तु याः स्मृताः ।
ताभिः
सार्धमिदं सर्वं संभवत्यनुपूर्वशः ॥ ॥ २७ ॥
यं तु कर्मणि
यस्मिन् स न्ययुङ्क्त प्रथमं प्रभुः ।
स तदेव स्वयं
भेजे सृज्यमानः पुनः पुनः ॥ ॥ २८ ॥
हिंस्राहिंस्रे
मृदुक्रूरे धर्माधर्मावृतानृते ।
यद् यस्य
सोऽदधात् सर्गे तत् तस्य स्वयमाविशत् ॥ ॥ २९ ॥
सृष्टि की
रचना करने की इच्छा से ब्रह्मा ने तप, वाणी, रति, काम और क्रोध को उत्पन्न किया। भले और बुरे कर्मों के विचार
के लिये धर्म और अधर्म का निर्णय किया। सुख, दुःख, काम, क्रोध आदि द्वन्द्व धर्मों के अधीन संसार के प्राणियों को
उत्पन्न किया । पञ्चमहाभूतों की सूक्ष्स मात्रा, पञ्चतन्मात्राओं के साथ यह सारी सृष्टि क्रम से उत्पन्न हुई।
सृष्टि के आदि में इस प्रभु ने, जिस स्वाभाविक कर्म में जिसकी उत्पत्ति की,
उसी कर्म को उसने ग्रहण किया। हिंसक कर्म- अहिंसक कर्म,
मृदु-दया, क्रूर-कठोरता, धर्म-ब्रह्मचर्य, गुरुसेवा, अधर्म- झूठ बोलना आदि जो पूर्वकल्प में जिसका था वही सृष्टि
के समय उसमें प्रविष्ट हो गया । ॥ २५-२९ ॥
यथर्तुलिङ्गान्यर्तवः
स्वयमेवर्तुपर्यये ।
स्वानि
स्वान्यभिपद्यन्ते तथा कर्माणि देहिनः ॥३०॥
लोकानां तु
विवृद्ध्यर्थं मुखबाहूरुपादतः ।
ब्राह्मणं
क्षत्रियं वैश्यं शूद्रं च निरवर्तयत् ॥ ॥३१॥
द्विधा
कृत्वाऽत्मनो देहमर्धेन पुरुषोऽभवत् ।
अर्धेन नारी तस्यां
स विराजमसृजत् प्रभुः ॥ ॥३२॥
तपस्तप्त्वाऽसृजद्
यं तु स स्वयं पुरुषो विराट् ।
तं मां
वित्तास्य सर्वस्य स्रष्टारं द्विजसत्तमाः ॥३३ ॥
अहं प्रजाः
सिसृक्षुस्तु तपस्तप्त्वा सुदुश्चरम् ।
पतीन्
प्रजानामसृजं महर्षीनादितो दश ॥ ॥३४॥
मरीचिमत्र्यङ्गिरसौ
पुलस्त्यं पुलहं क्रतुम् ।
प्रचेतसं
वसिष्ठं च भृगुं नारदमेव च ॥ ॥३५॥
जिस प्रकार
वसन्त आदि ऋतु अपने स्वाभाविक चिह्न को धारण करते हैं,
उसी प्रकार मनुष्य अपने अपने पूर्व कर्मों को प्राप्त होते
हैं। परमात्मा ने लोक की वृद्धि के लिये, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों को पैदा किया। इनमें विराट
रूप परमात्मा के मुख से ब्राह्मण, भुजा से क्षत्रिय, ऊरु से वैश्य और पैर से शूद्र उत्पन्न हुए । परमात्मा ने इस
संसार को दो भागों में विभक्त करके एक को पुरुष तथा दूसरे को स्त्री बनाया और
स्त्रीभाग से विराट पुरुष को उत्पन्न किया। उस विराटपुरुष रूप प्रजापति ने तप करके
जिस पुरुष को उत्पन्न किया वही मैं, सारे विश्व को उत्पन्न करने वाला हूँ – ऐसा आपलोग जानिये।
मैंने प्रजा सृष्टि की इच्छा से कठिन तप करके पहले दस महाऋषियों को उत्पन्न किया।
उनके नाम इस प्रकार हैं-
मरीचि,
अत्रि, अङ्गिरस, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, प्रचेतस, वशिष्ठ, भृगु और नारद ॥ ३०-३५ ॥
एते मनूंस्तु
सप्तान् यानसृजन् भूरितेजसः।
देवान्
देवनिकायांश्च महर्षीश्चामितोजसः ॥३६॥
यक्षरक्षः
पिशाचांश्च गन्धर्वाप्सरसोऽसुरान् ।
नागान्
सर्पान् सुपर्णांश्च पितृणांश्च पृथग्गणम् ॥ ॥३७॥
विद्युतोऽशनिमेघांश्च
रोहितैन्द्रधनूंषि च ।
उल्कानिर्घातकेतूंश्च
ज्योतींष्युच्चावचानि च ॥ ॥३८॥
किन्नरान्
वानरान् मत्स्यान् विविधांश्च विहङ्गमान् ।
पशून् मृगान्
मनुष्यांश्च व्यालांश्चोभयतोदतः ॥ ॥ ३९ ॥
कृमिकीटपतङ्गांश्च
यूकामक्षिकमत्कुणम् ।
सर्वं च
दंशमशकं स्थावरं च पृथग्विधम् ॥ ॥४०॥
एवमेतैरिदं
सर्वं मन्नियोगान् महात्मभिः।
यथाकर्म
तपोयोगात् सृष्टं स्थावरजङ्गमम् ॥ ॥४१॥
इन दस प्रजापतियों
ने दूसरे प्रकाशमान सात मनुओं को, देवता और उनके निवास स्थानों को,
ब्रह्मऋषियों को उत्पन्न किया और यक्ष,
राक्षस, पिशाच, गन्धर्व, अप्सरा, असुर, नाग, सर्प, सुपर्ण गरुडादि, और पितरों को उत्पन्न किया । विद्युत्-बिजली,
अशनि*,
मेघ, रोहित*,
इन्द्रधनुष, उल्का*,
निर्घात*,
केतु*,
और अनेकों प्रकार की ज्योति, ध्रुव अगस्त्य आदि को उत्पन्न किया। किन्नर,
अश्वमुख, नरदेह, वानर, मत्स्य, तरह तरह के पक्षिगण, पशु, मृग, मनुष्य, सर्प, ऊपर-नीचे दांतवाले जीव, कृमि, कीट, पतङ्ग, जूं मक्खी, खटमल और संपूर्ण काटनेवाले छोटे जीव मच्छर आदि,
मेरी आज्ञा और अपनी तपस्या से मरीचि आदि महात्माओं ने इस
स्थावर,
जङ्गम विश्व को कर्मानुसार रचा है ॥३६-४१॥
*1 एक तरह की बिजली
* 2 एक विचित्र वर्ण दण्डाकार आकाश का चिह्न
*3 जो
आकाश से रेखाकार ज्योति गिरती है।
*4 उत्पात शब्द
*5 पूंछदार
तारा
येषां तु
यादृशं कर्म भूतानामिह कीर्तितम् ।
तत् तथा
वोऽभिधास्यामि क्रमयोगं च जन्मनि ॥ ॥४२॥
पशवश्च
मृगाश्चैव व्यालाश्चोभयतोदतः ।
रक्षांसि च
पिशाचाश्च मनुष्याश्च जरायुजाः ॥ ॥४३॥
अण्डजाः
पक्षिणः सर्पा नक्रा मत्स्याश्च कच्छपाः ।
यानि चैवं ।
प्रकाराणि स्थलजान्यौदकानि च ॥ ॥४४॥
स्वेदजं
दंशमशकं यूकामक्षिकमत्कुणम् ।
ऊष्मणश्चोपजायन्ते
यच्चान्यत् किं चिदीदृशम् ॥ ॥४५॥
उद्भिज्जाः
स्थावराः सर्वे बीजकाण्डप्ररोहिणः ।
ओषध्यः
फलपाकान्ता बहुपुष्पफलोपगाः ॥ ॥४६॥
अपुष्पाः
फलवन्तो ये ते वनस्पतयः स्मृताः ।
पुष्पिणः
फलिनश्चैव वृक्षास्तूभयतः स्मृताः ॥ ॥४७॥
गुच्छ गुल्मं
तु विविधं तथैव तृणजातयः ।
काण्डरुहाण्येव
प्रताना वल्ल्य एव च ॥ ॥४८॥
इस जगत् में
जिन प्राणियों का जो कर्म कहा है वैसा ही हम कहेंगे और उनके जन्म के क्रम का भी
वर्णन करेंगे। सृष्टि चार प्रकार की है, उनको क्रम से कहते हैं- पशु, सिंह, ऊपर नीचे दाँतवाले, सभी राक्षस, पिशाच और मनुष्य यह सभी 'जरायुज' कहलाते हैं। पक्षी, साँप, नाक, मछली, कछुआ और जो भी इसी प्रकार भूमि या जल में पैदा होनेवाले जीव
हैं वह सभी 'अण्डज' कहलाते हैं। मच्छर, दंश, जूँ मक्खी, खटमल आदि पसीने की गर्मी से पैदा होनेवाले 'स्वदेज'
होते हैं । वृक्ष आदि को 'उद्भिज्ज'
कहते हैं। यह दो तरह के हैं, बीज से पैदा होनेवाले और शाखा से पैदा होनेवालें । जो वृक्ष
फलों के पक जाने पर सूख जाते हैं और जो बहुत फल, फूलवाले होते हैं उनको 'औषधि' कहते हैं। जिनमें फल आतें हैं परन्तु फूल नहीं आते उनको 'वनस्पति' कहते हैं। और जो फल, फूलवाले हैं वह 'वृक्ष'
कहे जाते हैं। जिनमें जड़ से ही लता का मूल हो,
शाखा न हो उसको 'गुच्छ' कहते हैं । गुल्म-ईख वगैरह, तृणजाति कई भांति के बीज और शाखा से पैदा होनेवाले,
प्रतान- जिस में सूत सा निकले और वल्ली गुर्च आदि सब 'उद्भिज्ज'
हैं। ॥४२-४८॥
तमसा बहुरूपेण
वेष्टिताः कर्महेतुना ।
अन्तस्संज्ञा
भवन्त्येते सुखदुःखसमन्विताः ॥ ॥४९॥
एतदन्तास्तु
गतयो ब्रह्माद्याः समुदाहृताः ।
घोरेऽस्मिन्
भूतसंसारे नित्यं सततयायिनि ॥ ॥५०॥
एवं सर्वं
ससृष्द्वैदं मां चाचिन्त्यपराक्रमः ।
आत्मन्यन्तर्दधे
भूयः कालं कालेन पीडयन् ॥ ॥५१॥
यदा स देवो
जागर्ति तदेवं चेष्टते जगत् ।
यदा स्वपिति
शान्तात्मा तदा सर्वं निमीलति ॥ ॥५२॥
तस्मिन्
स्वपिति तु स्वस्थे कर्मात्मानः शरीरिणः ।
स्वकर्मभ्यो
निवर्तन्ते मनश्च ग्लानिमृच्छति ॥ ॥५३॥
युगपत् तु
प्रलीयन्ते यदा तस्मिन् महात्मनि ।
तदाऽयं
सर्वभूतात्मा सुखं स्वपिति निर्वृतः ॥ ॥५४॥
यह सभी वृक्ष
अज्ञानवश अपने पूर्व जन्म के बुरे कर्मों से घिरे हुए हैं। इनके भीतर छिपा हुआ
ज्ञान है और इनको सुख-दुःख भी होता हैं। इस नाशवान् संसार में ब्रह्मा से लेकर
स्थावर तक यही उत्पत्ति का नियम कहा गया है। उस अचिन्त्य प्रभावशाली परमात्मा ने
यह विश्व और मुझे उत्पन्न करके सृष्टिकाल को प्रलयकाल में मिलाकर अपने में लीन कर
लिया। अर्थात् प्राणियों के कर्मवश बार बार सृष्टि और प्रलय किया करता है । जब
परमात्मा जागता हैं अर्थात् सृष्टि की इच्छा करता है उस समय यह सारा जगत् चेष्टा
युक्त हो जाता है और जब सोता है यानि प्रलय की इच्छा करता है,
तब विश्व का अंत हो जाता है । यही परमात्मा का जागना और
सोना है। जब वह सोता है, निर्व्यापार रहता है तब कर्मात्मा प्राण अपने अपने कर्मों
से निवृत्त हो जाते हैं और मन भी सभी इन्द्रियों सहित शान्त भाव को प्राप्त कर
लेता है। एक ही काल में, जब समस्त प्राणी परमात्मा में लय को प्राप्त कर लेते हैं,
तब यह सुख से शयन करता हुआ कहा जाता है ॥४६-५४॥
तमोऽयं तु
समाश्रित्य चिरं तिष्ठति सैन्द्रियः ।
न च स्वं
कुरुते कर्म तदोत्क्रामति मूर्तितः ॥ ॥५५॥
मात्रिको
भूत्वा बीजं स्थाणु चरिष्णु च ।
समाविशति
संसृष्टस्तदा मूर्ति विमुञ्चति ॥ ॥ ५६ ॥
एवं स
जाग्रत्स्वप्नाभ्यामिदं सर्वं चराचरम् ।
सञ्जीवयति
चाजस्रं प्रमापयति चाव्ययः ॥ ॥ ५७ ॥
उस दशा में यह जीव इन्द्रियों के साथ बहुत समय तक तम (सुषुप्ति अवस्था) का आश्रय करके रहता हैं। और अपना कर्म नहीं करता, किंतु पूर्व देह से जुड़ा रहता है । फिर पहले अणुमात्रिक* चर और अचर के हेतुभूत बीज में प्रविष्ट होकर पुर्यष्टक को मिलकर शरीर को धारण करता हैं। इस प्रकार अविनाशी परमात्मा जागरण और शयन से, इस चराचर जगत् को उत्पन्न और नष्ट किया करता है। ॥ ५५-५७ ॥
* शरीर बनने की आठ सामग्री हैं-जीव, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, वासना, कर्म, वायु, अविद्या-इन
को शास्त्र में 'पुर्यष्टक' कहते हैं।
इदं शास्त्रं
तु कृत्वाऽसौ मामेव स्वयमादितः ।
विधिवद्
ग्राहयामास मरीच्यादींस्त्वहं मुनीन् ॥ ॥ ५८ ॥
एतद् वोऽयं
भृगुः शास्त्रं श्रावयिष्यत्यशेषतः ।
एतद् हि
मत्तोऽधिजगे सर्वमेषोऽखिलं मुनिः ॥ ॥ ५९ ॥
ततस्तथा
सतेनोक्तो महर्षिमनुना भृगुः ।
तानब्रवीद्
ऋषीन् सर्वान् प्रीतात्मा श्रूयतामिति ॥ ॥६०॥
मनु जी कहते
हैं- प्रजापति ने सृष्टि के पूर्व इस धर्मशास्त्र को बनाकर मुझे उपदेश दिया। फिर
इसका उपदेश मैंने मरीचि आदि अन्य ऋषियों को दिया। इस समस्त शास्त्र का उपदेश भृगु
आपको करेंगे, जो कि मुझसे सम्पूर्ण प्राप्त किया गया है। उसके बाद मनु की आज्ञा पाकर महर्षि
भृगु ने सब ऋषियों को कहा कि सुनो ॥ ५८-६० ॥
स्वायंभुवस्यास्य
मनोः षड्वंश्या मनवोऽपरे ।
सृष्टवन्तः
प्रजाः स्वा स्वा महात्मानो महौजसः ॥ ॥६१ ॥
स्वारोचिषश्चोत्तमश्च
तामसो रैवतस्तथा ।
चाक्षुषश्च
महातेजा विवस्वत्सुत एव च ॥ ॥ ६२ ॥
स्वायम्भुव
मनु के वंश में, छः मनु और हैं। उन्होंने अपने अपने काल में प्रजा की सृष्टि,
पालन आदि किया है। उनका नाम- स्वारोचिष,
औत्तम, तामस, रैवत, चाक्षुष और वैवस्वत है | ॥६१-६२॥
मनुस्मृति अध्याय
१- मन्वन्तर आदि काल का मान
स्वायंभुवाद्याः
सप्तैते मनवो भूरितेजसः ।
स्वे
स्वेऽन्तरे सर्वमिदमुत्पाद्यापुश्चराचरम् ॥ ॥६३॥
निमेषा दश
चाष्टौ च काष्ठा त्रिंशत् तु ताः कला ।
त्रिंशत् कला
मुहूर्तः स्यादहोरात्रं तु तावतः ॥ ॥६४॥
अहोरात्रे
विभजते सूर्यो मानुषदैविके ।
रात्रिः
स्वप्राय भूतानां चेष्टायै कर्मणामहः ॥ ॥६५॥
पित्र्ये
रात्र्यहनी मासः प्रविभागस्तु पक्षयोः ।
कर्मचेष्टास्वहः
कृष्णः शुक्लः स्वप्नाय शर्वरी ॥ ॥६६॥
अब मन्वन्तर
आदि काल का मान कहते हैं- आँख की पलक गिरने का समय निमेष कहलाता हैं,
१८ निमेष की एक काष्ठा नामक काल होता है,
३० काष्ठा की एक कला, ३० कला का एक मुहूर्त, ३० मुहूर्त का एक अहोरात्र होता है।
मनुष्य और देव
अहोरात्र - दिन, रात का विभाग सूर्य करता है । उसमें प्राणियों के सोने के लिए रात और कर्म
करने के लिए दिन होता है। मनुष्यों के एक मास का पितरों का एक अहोरात्र होता है। उसमें
कृष्णपक्ष का दिन कर्म करने और शुक्लपक्ष की रात्रि शयन करने के लिए होता है ।।
६३-६६।
दैवे
रात्र्यहनी वर्षं प्रविभागस्तयोः पुनः ।
अहस्तत्रोदगयनं
रात्रिः स्याद् दक्षिणायनम् ॥ ॥६७॥
ब्राह्मस्य तु
क्षपाहस्य यत् प्रमाणं समासतः ।
एकैकशो
युगानां तु क्रमशस्तन्निबोधत ॥ ॥६८॥
चत्वार्याहुः
सहस्राणि वर्षाणां तत् कृतं युगम् ।
तस्य तावत्शती
संध्या संध्यांशश्च तथाविधः ॥ ॥ ६९ ॥
इतरेषु
ससंध्येषु ससंध्यांशेषु च त्रिषु ।
एकापायेन
वर्तन्ते सहस्राणि शतानि च ॥ ॥७०॥
यदेतत्
परिसङ्ख्यातमादावेव चतुर्युगम् ।
एतद्
द्वादशसाहस्रं देवानां युगमुच्यते ॥ ॥ ७१ ॥
दैविकानां
युगानां तु सहस्रं परिसङ्ख्यया ।
ब्राह्ममेकमहर्ज्ञेयं
तावतीं रात्रिमेव च ॥ ॥७२॥
मनुष्य के एक
वर्ष में देवताओं का अहोरात्र होता है। उसमें उत्तरायण दिन और दक्षिणायन रात है ।
ब्राह्म अहोरात्र और चारों युगों का प्रमाण इस प्रकार है - मनुष्यों के तीन सौ साठ
(३६०) वर्ष का एक (१) दैव वर्ष होता है। ऐसे चार हजार (४०००) वर्षों को कृतयुग
कहते हैं और उसकी संध्या (युग का आरम्भकाल) और सन्ध्यांश (युग का अन्तकाल ) दोनों
चार सौं (४००) वर्ष का है। इस तरह सन्ध्या और सन्ध्यांश मिलकर चार हजार दो सौ
(४२००) दैववर्ष का कृतयुग होता है अर्थात् ४०० x ३६० = १७२८००० (सत्रह लाख अट्ठाइस हजार) वर्ष उसका मान है।
बाकी त्रेता, द्वापर और कलि इन तीनों के सन्ध्या और सन्ध्यांश के साथ जो संख्या होती है,
उस में हजार में सैकड़े की और सैकड़े में की एक एक संख्या
घटाने से तीनों की संख्या पूरी होती हैं। इस प्रकार त्रेतायुग ३६०० = १२६६०००
(बारह लाख छियासठ हजार) । द्वापर २४०० = ६६३००० (छियासठ लाख तीन हज़ार) और कलि
१२०० = ४३२००० (तिरालिस लाख दो हज़ार ) मान होते हैं। यह जो पहले चारों युगों की
बारह हजार १२००० दैववर्ष संख्या कही है, यह एक, दैवयुग का मान है। ऐसे हजार दैवयुगों का ब्रह्मा का १ दिन
और उतनी ही रात होती है। अर्थात् दो हजार दैववर्षों का ब्रह्मा का अहोरात्र होता
है । १२००० दैववर्ष का एक १ युग, इसको १००० गुणा करने से १,२०,००,००० (एक करोड़ बीस लाख) देव वर्षों का ब्राह्मदिन और इतनी
ही रात्रि हुई। इसे ३६० से गुणा करने से ४,३२,००,००,००० (चार करोड़ बत्तीस लाख) मनुष्य वर्षों का ब्राह्मदिन और
उतनी ही रात्रि होती है ॥६७-७२ ॥
तद्वै
युगसहस्रान्तं ब्राह्मं पुण्यमहर्विदुः ।
रात्रिं च
तावतीमेव तेऽहोरात्रविदो जनाः ॥ ॥ ७३ ॥
तस्य
सोऽहर्निशस्यान्ते प्रसुप्तः प्रतिबुध्यते ।
प्रतिबुद्धश्च
सृजति मनः सदसदात्मकम् ॥ ॥७४॥
मनः सृष्टिं
विकुरुते चोद्यमानं सिसृक्षया ।
आकाशं जायते
तस्मात् तस्य शब्दं गुणं विदुः ॥ ॥७५॥
आकाशात् तु
विकुर्वाणात् सर्वगन्धवहः शुचिः ।
बलवाञ्जायते
वायुः स वै स्पर्शगुणो मतः ॥ ॥७६॥
वायोरपि
विकुर्वाणाद् विरोचिष्णु तमोनुदम् ।
ज्योतिरुत्पद्यते
भास्वत् तद् रूपगुणमुच्यते ॥ ॥७७॥
ज्योतिषश्च
विकुर्वाणादापो रसगुणाः स्मृताः ।
गन्धगुणा
भूमिरित्येषा सृष्टिरादितः ॥ ॥७८॥
एक हजार युग
का ब्रह्मा का पुण्यदिन और उतनी ही रात्रि है। उस रात्रि के अन्त में ब्रह्मा सोकर
जागता है और अपने मन को सृष्टि में प्रेरित करता है। परमात्मा की इच्छा से प्रेरित
मन सृष्टि को विकृत करता है । मनसतत्व से आकाश पैदा होता हैं जिस का गुण शब्द है ।
आकाश के विकार से, गन्ध को धारण करनेवाला, पवित्र वायु उत्पन्न हुआ है, उसका स्पर्शगुण है। वायु के विकार से,
अन्धकार नष्ट करनेवाला, प्रकाशमान अग्नि पैदा हुआ है, उसका गुण रूप है। अग्नि से जल उत्पन्न होता है,
जिसका गुण रस है और जल से पृथिवी उत्पन्न होती है,
जिसका गुण गन्ध है। यही आदि से सृष्टि की उत्पत्ति का क्रम
है ॥ ७३-७८॥
यद् प्राग्
द्वादशसाहस्रमुदितं दैविकं युगम् ।
तदेकसप्ततिगुणं
मन्वन्तरमिहोच्यते ॥ ॥ ७९ ॥
मन्वन्तराण्यसङ्ख्यानि
सर्गः संहार एव च ।
क्रीडन्निवैतत्
कुरुते परमेष्ठी पुनः पुनः ॥ ॥ ८० ॥
चतुष्पात्
सकलो धर्मः सत्यं चैव कृते युगे ।
नाधर्मेणागमः
कश्चिन् मनुष्यान् प्रति वर्तते ॥ ॥८१॥
इतरेष्वागमाद्
धर्मः पादशस्त्ववरोपितः
चौरिकानृतमायाभिर्धर्मश्चापैति
पादशः ॥ ॥८२॥
अरोगाः
सर्वसिद्धार्थाश्चतुर्वर्षशतायुषः ।
कृते
त्रेतादिषु ह्येषामायुर्हसति पादशः ॥ ॥ ८३ ॥
वेदोक्तमायुर्मर्त्यानामाशिषश्चैव
कर्मणाम् ।
फलन्त्यनुयुगं
लोके प्रभावश्च शरीरिणाम् ॥ ॥ ८४ ॥
अन्ये कृतयुगे
धर्मास्त्रेतायां द्वापरेऽपरे ।
अन्ये कलियुगे
नृणां युगहासानुरूपतः ॥ ॥८५॥
पूर्व जो बारह
हजार वर्ष का एक दैवयुग कहा है, ऐसे ७१ युग का एक मन्वन्तरकाल होता है। मन्वन्तर असंख्य हैं,
सृष्टि और संहार भी असंख्य हैं। परमात्मा यह सब क्रीडाव्रत
अर्थात बिना श्रम के खेल खेल में ही किया करते हैं कृतयुग में धर्म पूरा,
चार पैर का और सत्यमय होता है क्योंकि उस समय में अधर्म से
मनुष्यों की कोई कार्य नहीं बनता था। दूसरे युगों में धर्म क्रम से चोरी,
झूठ, माया इन सभी से चौथाई-चौथाई घटता है। सत्ययुग में सब रोग
रहित होते हैं। सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं। ४०० वर्ष की आयु होती है। आगे त्रेता
आदि में चतुर्थांश घटती जाती है । मनुष्यों को, वेदानुसार आयु, कर्मों के फल और देह का प्रभाव,
सब युगानुसार फल देते हैं युगों के अनुसार धर्म का स्वरुप
बदलता रहता है, सतयुग में धर्म का स्वरुप कुछ और होता है, त्रेता में कुछ और, द्वापर में उससे अलग, कलि में कुछ दूसरे ही प्रकार का बन जाता है,
इस तरह चारों युगों में धर्म का स्वरूप आपस में विलक्षण
होता हैं ॥ ७९-८५ ॥
तपः परं
कृतयुगे त्रेतायां ज्ञानमुच्यते ।
द्वापरे
यज्ञमेवाहुर्दानमेकं कलौ युगे ॥ ॥८६॥
सर्वस्यास्य
तु सर्गस्य गुप्त्यर्थं स महाद्युतिः।
मुखबाहूरुपज्जानां
पृथक्कर्माण्यकल्पयत् ॥ ॥ ८७ ॥
अध्यापनमध्ययनं
यजनं याजनं तथा ।
दानं
प्रतिग्रहं चैव ब्राह्मणानामकल्पयत् ॥ ॥८८॥
प्रजानां
रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च ।
विषयेष्वप्रसक्तिश्च
क्षत्रियस्य समासतः ॥ ॥ ८९ ॥
पशूनां रक्षणं
दानमिज्याऽध्ययनमेव च ।
वणिक्पथं
कुसीदं च वैश्यस्य कृषिमेव च ॥ ॥ ९० ॥
एकमेव तु
शूद्रस्य प्रभुः कर्म समादिशत् ।
एतेषामेव
वर्णानां शुश्रूषामनसूयया ॥ ॥ ९१ ॥
सतयुग में तप
मुख्य धर्म है, त्रेतायुग में ज्ञान, द्वापर में यज्ञ और कलियुग में एक मात्र दान देना मुख्य
धर्म है। परमात्मा ने, संसार की रक्षा के लिये ब्राह्मण आदि चारों वर्णों के काम,
अलग अलग नियत किये। पढ़ना, पढ़ाना, यज्ञ करना, यज्ञ कराना, दान देना, दान लेना, यह छः कर्म ब्राह्मणों के हैं। प्रजा की रक्षा करना,
दान देना, यज्ञ करना, पढ़ना और इन्द्रियों के विषयों में न फंसना,
यह क्षत्रियों के कर्म हैं। पशुओं को पालना,
दान देना, यज्ञ कराना, व्यापार करना, ब्याज लेना और खेती करना, यह सभी कर्म वैश्यों के हैं। परमात्मा ने शूद्रों का एक ही
काम बतलाया है भक्ति से इन सभी वर्णों की सेवा कार्य में संलग्न होना ॥ ८६- ९१ ।।
ऊर्ध्वं
नाभेर्मेध्यतरः पुरुषः परिकीर्तितः ।
तस्मान्
मेध्यतमं त्वस्य मुखमुक्तं स्वयंभुवा ॥ ॥९२॥
उत्तमाङ्गोद्भवाज्
ज्येष्ठयाद् ब्रह्मणश्चैव धारणात् ।
सर्वस्यैवास्य
सर्गस्य धर्मतो ब्राह्मणः प्रभुः ॥ ॥ ९३ ॥
पुरुष नाभि के
ऊपर पवित्र माना गया है। उससे भी उस का मुख अतिपवित्र है । परमात्मा के मुखतुल्य
होने से,
चारों वर्णों में बड़ा होने से,
और वेद पढ़ाने से, ब्राह्मण सारे जगत् का प्रभु है ॥९२-९३ ॥
तं हि
स्वयंभूः स्वादास्यात् तपस्तप्त्वाऽदितोऽसृजत् ।
हव्यकव्याभिवाह्याय
सर्वस्यास्य च गुप्तये ॥ ॥ ९४ ॥
यस्यास्येन
सदाऽश्नन्ति हव्यानि त्रिदिवौकसः ।
कव्यानि चैव
पितरः किं भूतमधिकं ततः ॥ ॥ ९५ ॥
भूतानां
प्राणिनः श्रेष्ठाः प्राणिनां बुद्धिजीविनः ।
बुद्धिमत्सु
नराः श्रेष्ठा नरेषु ब्राह्मणाः स्मृताः ॥ ॥९६॥
ब्राह्मणेषु च
विद्वांसो विद्वत्सु कृतबुद्धयः ।
कृतबुद्धिषु
कर्तारः कर्तृषु ब्रह्मवेदिनः ॥ ॥९७॥
उत्पत्तिरेव
विप्रस्य मूर्तिर्धर्मस्य शाश्वती ।
स हि
धर्मार्थमुत्पन्नो ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ ॥९८ ॥
ब्रह्मा ने
अपने मुख से दैव और पितृकार्य संपादनार्थ और लोक की भलाई के लिए,
ब्राह्मण को उत्पन्न किया है। जिसके मुख द्वारा देवगण हव्य
और पितृगण कव्य (श्राद्धादि में) को ग्रहण करते हैं उससे श्रेष्ठ कौन है?
भूत (स्थावर, जङ्गम) में प्राणी (कीटदि ) श्रेष्ठ हैं। इनमें भी
बुद्धिजीवी (पशु आदि) इनसे भी मनुष्य श्रेष्ठ है उनमें भी ब्राह्मण अधिक श्रेष्ठ
है। और ब्राह्मणों में विद्वान्, विद्वानों में कर्म जाननेवाले,
उनमें कर्म करनेवाले और उनमें से भी ब्रह्मज्ञानी श्रेष्ठ होता
है। ब्राह्मण का शरीर ही धर्म की अविनाशी मूर्ति है। क्योंकि,
वह धर्म द्वारा मोक्ष को प्राप्त होता है ।। ९४-९८ ॥
ब्राह्मणो
जायमानो हि पृथिव्यामधिजायते ।
ईश्वरः
सर्वभूतानां धर्मकोशस्य गुप्तये ॥ ॥ ९९ ॥
सर्वं स्वं
ब्राह्मणस्येदं यत् किं चित्जगतीगतम् ।
श्रेष्ठ्येनाभिजनेनेदं
सर्वं वै ब्राह्मणोऽर्हति ॥ ॥ १०० ॥
ब्राह्मण का
उत्पन्न होना पृथिवीं में सबसे उत्तम है। क्योंकि सब जीवों के धर्मरूपी संचित
धनराशि की रक्षार्थ वह समर्थ है अर्थात ब्राह्मण ही धर्म की रक्षा के लिए उपदेश
देने में समर्थ है। जो कुछ जगत् के पदार्थ हैं वह सभी ब्राह्मणों के हैं।
ब्रह्ममुख से उत्पन्न होने के कारण ब्राह्मण, सब ग्रहण करने योग्य है ॥ ९९-१००॥
स्वमेव
ब्राह्मणो भुङ्क्ते स्वं वस्ते स्वं ददाति च ।
आनृशंस्याद्
ब्राह्मणस्य भुञ्जते हीतरे जनाः ॥ ॥१०१॥
तस्य
कर्मविवेकार्थं शेषाणामनुपूर्वशः ।
स्वायंभुवो
मनुर्धीमानिदं शास्त्रमकल्पयत् ॥ ॥ १०२ ॥
विदुषा
ब्राह्मणेनैदमध्येतव्यं प्रयत्नतः ।
शिश्येभ्यश्च
प्रवक्तव्यं सम्यग् नान्येन केन चित् ॥ ॥ १०३ ॥
इदं
शास्त्रमधीयानो ब्राह्मणः शंसितव्रतः ।
मनोवाक्देहजैर्नित्यं
कर्मदोषैर्न लिप्यते ॥ ॥ १०४ ॥
पुनाति पङ्क्तिं
वंश्यांश्च सप्तसप्त परावरान् ।
पृथिवीमपि
चैवेमां कृत्स्नामेकोऽपि सोऽर्हति ॥ ॥ १०५ ॥
ब्राह्मण,
यदि दूसरे का दिया अन्न भोजन करे,
या वस्त्र पहने, या दान दे, तब भी वह सब ब्राह्मण का अपना ही है। अन्य सभी तो
ब्राह्मणों की कृपा से भोजन पाते हैं। ब्राह्मण और क्षत्रियों के कर्म विवेक के
लिये स्वायम्भुव मनु ने यह धर्मशास्त्र बनाया है। विद्वान् ब्राह्मण को यह
धर्मशास्त्र पढ़ना और शिष्यों को पढ़ाना चाहिये और शिष्यों के अतिरिक्त अन्य किसी
को इसका उपदेश नहीं करना चाहिये । नियमनिष्ठ ब्राह्मण जो इस शास्त्र का अध्ययन
करता है वह मन, वाणी,
देह के पापों से लिप्त नहीं होता। धर्मशास्त्रविशारद
ब्राह्मण अपने अपवित्र स्वजनों को पवित्र कर देता है और अपने वंश के सात पिता,
पितामह आदि और पुत्र, पौत्र आदि को पवित्र कर देता है और समस्त पृथिवी को भी वह
प्राप्त करने योग्य है ॥ १०१-१०५ ॥
इदं
स्वस्त्ययनं श्रेष्ठमिदं बुद्धिविवर्धनम् ।
इदं
यशस्यमायुष्यं इदं निःश्रेयसं परम् ॥ ॥ १०६ ॥
अस्मिन्
धर्मेऽखिलेनोक्तौ गुणदोषौ च कर्मणाम् ।
चतुर्णामपि
वर्णानामाचारश्चैव शाश्वतः ॥ ॥ १०७॥
आचारः परमो
धर्मः श्रुत्योक्तः स्मार्त एव च ।
तस्मादस्मिन्
सदा युक्तो नित्यं स्यादात्मवान् द्विजः ॥ ॥ १०८ ॥
यह शास्त्र,
कल्याणदायक, बुद्धिवर्धक, यशदायक, आयुवर्धक और मोक्ष का सहायक है। इस स्मृति में सारे धर्म
कहे कहे हैं। कर्मों के गुणदोष भी कहे हैं और चारों वर्णों का शाश्वत अर्थात
परंपरा से प्राप्त आचार कथन भी किया गया है। श्रुति और स्मृति में कहा आधार परधर्म
है,
इसलिए इसमें ब्राह्मणों को सदा तत्पर रहना चाहिए ॥१०६ - १०८
॥
आचाराद्
विच्युतो विप्रो न वेदफलमश्रुते ।
आचारेण तु
संयुक्तः सम्पूर्णफलभाग्भवेत् ॥ ॥ १०९ ॥
एवमाचारतो
दृष्ट्वा धर्मस्य मुनयो गतिम् ।
सर्वस्य तपसो
मूलमाचारं जगृहुः परम् ॥ ॥११०॥
अपने आचार से
हीन ब्राह्मण वेदफल को नहीं पाता और जो आचार युक्त है वह फलभागी होता है। इस
प्रकार मुनियों ने, आचार से धर्म प्राप्ति देखकर, धर्म के परममूल आचार को ग्रहण किया है ॥ १०६- ११० ॥
जगतश्च
समुत्पत्तिं संस्कारविधिमेव च ।
व्रतचर्योपचारं
च स्नानस्य च परं विधिम् ॥ ॥ १११ ॥
दाराधिगमनं
चैव विवाहानां च लक्षणम् ।
महायज्ञविधानं
च श्राद्धकल्पं च शाश्वतम् ॥ ॥ ११२ ॥
वृत्तीनां
लक्षणं चैव स्नातकस्य व्रतानि च ।
भक्ष्याभक्ष्यं
च शौचं च द्रव्याणां शुद्धिमेव च ॥ ॥ ११३ ॥
स्त्रीधर्मयोगं
तापस्य मोक्षं संन्यासमेव च ।
राज्ञश्च
धर्ममखिलं कार्याणां च विनिर्णयम् ॥ ॥ ११४ ॥
साक्षिप्रश्नविधानं
च धर्मं स्त्रीपुंसयोरपि ।
विभागधर्मं
द्यूतं च कण्टकानां च शोधनम् ॥ ॥ ११५ ॥
अब इस
धर्मशास्त्र में मनु ने, किन किन विषयों को कहे हैं, उसकी संख्या बतलाते हैं-जगत् की उत्पत्ति,
संस्कारों की विधि, ब्रह्मचारियों के व्रताचरण, गुरुवन्दन, उपासना आदि स्नानविधि, स्त्रीगमन, विवाहों की लक्षण, महायज्ञ - वैश्वदेवादि श्राद्धाविधि,
जीवनोपाय, गृहस्थ के व्रतनियम, भक्ष्य - अभक्ष्य का विचार, आशौचनिर्णय, द्रव्यशुद्धि, स्त्रियों के धर्मोपाय, वानप्रस्थ आदि तपों के धर्म, मोक्ष और संन्यासधर्म, राजाओं के संपूर्ण धर्म, कार्यों का निर्णय-साखी - गवाहियों से प्रश्नविधि,
स्त्री-पुरुषों के धर्म, हिस्सा-बाँट और जुआरी, चोरों का शुद्धिकरण कहा गया है ॥१११-११५ ॥
वैश्यशूद्रोपचारं
च सङ्कीर्णानां च संभवम् ।
आपद्धर्मं च
वर्णानां प्रायश्चित्तविधिं तथा ॥ ॥ ११६ ॥
संसारगमनं चैव
त्रिविधं कर्मसंभवम् ।
निःश्रेयसं
कर्मणां च गुणदोषपरीक्षणम् ॥ ॥ ११७ ॥
देशधर्मान्जातिधर्मान्
कुलधर्मांश्च शाश्वतान् ।
पाषण्डगणधर्मांश्च
शास्त्रेऽस्मिन्नुक्तवान् मनुः ॥ ॥ ११८ ॥
वैश्य और
शूद्रों के धर्मानुष्ठान का प्रकार, वर्णसङ्करों की उत्पत्ति, वर्णों का आपद्धर्म और प्रायश्चित्तविधि,
उत्तम, मध्यम, अधम इन तीन प्रकार के कर्मों से देहगति का निर्णय,
मोक्ष का स्वरूप, और कर्मों के गुण दोष की परीक्षा,
देश धर्म, जाति का धर्म, कुल का धर्म जो परंपरा से चला आता हैं। पाखण्डियों के कर्म,
गण-वैश्य आदि धर्म इस शास्त्र में भगवान् मनु ने कहा है |
११६-१८ ।।
यथैदमुक्तवांशास्त्रं
पुरा पृष्टो मनुर्मया ।
तथैदं
यूयमप्यद्य मत्सकाशान्निबोधत ॥ ॥ ११९ ॥
जिस प्रकार,
मनु से पूर्वकाल में मैंने पूछा,
तब उन्होंने इस शास्त्र उपदेश किया था। उसी प्रकार अब आप
मुझसे सुनिये ॥११९ ॥
॥ इति मानवे
धर्मशास्त्रे भृगुप्रोक्तायां स्मृतौ प्रथमोऽध्यायः समाप्तः॥१॥
॥ महर्षि भृगु
द्वारा प्रवचित मानव धर्म शास्त्र स्मृति का पहला अध्याय समाप्त ॥
आगे जारी..........मनुस्मृति अध्याय 2
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