कालिका पुराण अध्याय ९०
कालिका पुराण
अध्याय ९० में वेताल संततियों का वर्णन एवं उपसंहार रूप में कालिकापुराण के
माहात्म्य का वर्णन है।
कालिका पुराण अध्याय ९०
Kalika puran chapter 90
कालिकापुराणम् नवतितमोऽध्यायः वेतालवंशवर्णनम्
कालिकापुराणम्
॥ नवतितमोऽध्यायः
॥
अथ श्रीकालिका
पुराण अध्याय ९०
॥ मार्कण्डेय उवाच ।।
वेतालस्य च
सन्तानं शृण्वन्तु मुनिसत्तमाः ।
यच्छ्रुत्वा
सर्वपापेभ्यस्तत्क्षणादेव हीयते ।। १ ।।
मार्कण्डेय
बोले- हे मुनियों में श्रेष्ठजनों ! अब आप सब वेताल की उन सन्तानों के विषय में
सुनें। जिसे सुनकर मनुष्य, उसी क्षण सभी पापों से मुक्त हो जाता है ॥ १ ॥
दक्षस्य तनया
चाभूत् सुरभिर्नाम नामतः ।
गवां माता
महाभागा सर्वलोकोपकारिणी ॥ २ ॥
तस्यां तु
तनया जज्ञे कश्यपात् तु प्रजापतेः ।
नाम्ना सा
रोहिणी शुभ्रा सर्वकामदुघा नृणाम् ।। ३।।
दक्ष प्रजापति
की सुरभि नाम की एक कन्या थी जो महाभागा गौवों की माता तथा समस्त लोकों का उपकार
करने वाली थी। उसकी प्रजापति कश्यप से रोहिणी नाम की,
मनुष्यों की सब प्रकार की, सभी कामनाओं को प्रदान करने वाली,
एक श्वेतपुत्री उत्पन्न हुई ।। २-३॥
तस्यां जज्ञे
शुनःशेपान्मुनेरतितपोधनात् ।
कामधेनुरिति ख्याता
सर्वलक्षणसंयुता ।।४।।
सा सिताभ्रप्रतीकाशा
चतुर्वेदचतुष्पदा ।
स्तनैश्चतुर्भिर्धर्मार्थकामप्रसवकारिणी ।। ५ ।।
उसमें अति
तपस्वी शुनःशेप मुनि से सभी लक्षणों से युक्त, श्वेत बादल के समान आभावाली, चारों पैरों के रूप में चारों वेदों को धारण करने तथा अपने
चारो स्तनों से धर्म, अर्थ, काम प्रस्रवित करने (बहाने वाली कामधेनु नाम की कन्या उत्पन्न
हुई ।।४-५ ।।
सा
सुवर्णशरीरा तु कालेन महतासती ।
निर्मलं यौवनं
प्राप कामधेनुर्मनोहरम् ॥६॥
उस कामधेनु
नाम की महान् सती ने समय आने पर, स्वर्णिम शरीर से युक्त हो, सुन्दर, स्वच्छ, युवावस्था को प्राप्त किया ॥६॥
तां चरन्तीं
मेरुपृष्ठे चारुरूपां सुलक्षणाम् ।
ददर्श स तु
वेताल: कामुक श्चाभ्यपद्यत ॥७॥
एक समय जब वह
सुन्दर रूपवाली, सुन्दर लक्षणों से युक्त, कामधेनु, मेरुपृष्ठ पर चर रही थी, उस समय वेताल ने उसे देखा और वह कामासक्त हो गया ॥ ७॥
तं कामुकं च
वेतालं विदित्वा कामधेनुका ।
पशुधर्मात्
स्वयं भेजे तं पुत्रं शशभृद्भृतः ॥८॥
उस वेताल को
कामुक जानकर कामधेनु ने स्वयं शिव के उस पुत्र के साथ पशुधर्म से सम्पर्क किया॥ ८
॥
सोऽवाप तस्यां
परममामोदं शङ्करात्मजः ।
सा चापि परमां
तस्मिन् मुदमापातिहर्षिता ।। ९ ।।
शङ्कर के उस
पुत्र ने भी उसके साथ परम प्रसन्नता को प्राप्त किया तथा वह कामधेनु भी उसके
सम्पर्क में परम प्रसन्नता को प्राप्त कर, अत्यन्त हर्षित हुई ॥९॥
तयोः
प्रवृत्ते सुरते तस्यां गर्भोऽभवत् तदा ।
काले प्राप्ते
तु सुषुवे कामधेनुर्महावृषम् ।। १० ।।
तब उन दोनों
के सुरति में प्रवृत्त होने से, उस कामधेनु को गर्भ रह गया और उसने समय आने पर एक महान्
वृषभ को जन्म दिया ॥ १० ॥
सोऽचिरेणैव
कालेन सुमहान् वृषभोऽभवत् ।
महाककुदसंयुक्तश्चारुशृङ्गसमन्वितः
।। ११ ।।
कुछ समय
पश्चात् शीघ्र ही वह एक महान वृषभ हो गया जो महान् ककुद (डील) और सुन्दर सींग से युक्त था ॥ ११ ॥
उत्क्षिप्य
विचलत् - कर्णयुगलो दीर्घबालधिः ।
ककुदेन च
शृङ्गाभ्यां कर्णाभ्यां स सिताभ्रवत् ।। १२ ।।
विचलन् ददृशे
देवैः शृङ्गैरिव सिताचलः ।
वेतालस्त्वकरोत्
तस्य नाम शृङ्ग इति द्विजाः ।।१३।।
हे द्विजों !
चञ्चल,
दोनों कानों को उठाकर, अपनी बालवाली लम्बी पूँछ, अपने ककुद, सींग और दोनों कानों से युक्त हो चलते हुये,
श्वेत बादल की भाँति वह देवताओं द्वारा शृंगों से युक्त
श्वेतपर्वत की भाँति देखा गया । जिससे वेताल ने उसका नाम श्रृंग रखा ॥ १२-१३ ।।
स तु शृङ्गो
ज्ञानशाली समाराधयदीश्वरम् ।
सोऽपि तुष्टो
वरं तस्मै ददाविष्टं हरः प्रभुः ।।१४।।
वह शृङ्ग
ज्ञानवान था । उसने ईश्वर, शिव की आराधना की। वे भगवान् शिव भी उसकी तपस्या से प्रसन्न
हो उसे,
अभीष्ट वरदान दिये ॥१४ ॥
तमेव वाहनं
चक्रे कृत्वा देवतनुं वृषम् ।
सुचिरायुश्च
बलवान् पृथिवीधारणे क्षमः ।। १५ ।।
उस वृषभ को
देव शरीर प्रदान कर, उन्होंने उसे सुन्दर, दीर्घायु, बलवान्, पृथ्वी को धारण करने में समर्थ बनाकर,
उसे ही अपना वाहन बना लिया ।। १५ ।।
शृङ्गो नाम
महातेजाः केतुः सोऽप्यभवत् प्रभोः ।
शृङ्गो भूत्वा
मतो यस्माच्छङ्करस्य महात्मनः ।
अतः शृङ्ग इति
ख्यातिमथ प्राह महेश्वरः ।। १६ ।।
वह महान्
तेजस्वी शृङ्ग नामक वृषभ, महात्मा शङ्कर का शृङ्ग (शिखर) होकर प्रभु शिव की ध्वजा में
विराजमान हुआ। इसलिए भगवान् शिव ने भी उसे शृङ्ग नाम से प्रसिद्धि दी ।। १६ ॥
स तु शृङ्गो
महादेवे ध्यानासक्ते क्वचित् क्वचित् ।। १७ ।।
वरुणस्य गृहं
गत्वा सुरभेस्तनयास्तु याः ।
रूपयौवनसम्पन्ना
भेजेऽलं सुरतेन ताः ।। १८ ।।
वह शृङ्ग
अधिकतर महादेव शिव के ध्यान में ही निमग्न रहता था किन्तु कभी-कभी वरुण के घर जाकर
सुरभी की,
जो रूप और यौवन से सम्पन्न कन्यायें थीं । उनके साथ सुरतिभाव
से रमण किया करता था ।। १७-१८ ॥
वरुणस्य गृहे
गाव: सर्वलक्षणसंयुताः ।
तिष्ठन्ति
सततं विप्रास्तासु तासु सुताः पुनः ।। १९ ।।
वह्वयस्तु च
समुत्पन्नास्तेषां सूतिप्रसूतिभिः ।
सर्वं जगदिदं
व्याप्तं तेभ्यो यज्ञं प्रवर्तते ।।२०।।
हे ब्राह्मणों
! वरुण के घर में सभी लक्षणों से युक्त बहुत सी गायें,
निरन्तर निवास करती हैं, उनसे उसकी बहुत सी कन्यायें उत्पन्न हुई। उसकी सन्तानों और
सन्तानों की सन्तानों से यह संसार व्याप्त है तथा उन्हीं के कारण यज्ञ भी सम्पादित
होते हैं । १९-२० ॥
आज्येन
देवास्तुष्यन्ति यज्ञा आज्ये प्रतिष्ठिताः ।
यज्ञाधीनमिदं सर्वं
जगत् स्थावरजङ्गमम् ।। २१ ।।
तदाज्यं तु
गवाधीनं ततः सर्वं गवि स्थितम् ।
तदिदं सकलं
विश्वं गवाधीनं द्विजोत्तमाः ।। २२।।
हे उत्तम
द्विजों ! घी से देवता सन्तुष्ट होते हैं। घी में ही यज्ञ,
प्रतिष्ठित हैं। यह समस्त स्थावर और जङ्गम संसार,
यज्ञ के ही अधीन है । उस यज्ञ का आधार घी,
गायों के अधीन है, इसीलिये सब कुछ गायों में ही स्थित है । अतएव सकल विश्व ही
गायों के आधीन है ।। २१-२२॥
वेतालस्य च ता
गावो वंश्याः सर्वप्रियाः सदा ।
य इदं
शृणुयान्नित्यं वेतालस्य महात्मनः ।। २३।।
वंशानां जन्म
विप्रेन्द्राः स सुखी बलवान् भवेत् ।
न गावो नापि
विभवास्तस्य नश्यन्ति वै क्वचित् ।। २४ ।।
हे इन्द्र के
समान श्रेष्ठ ब्राह्मणों ! वे गायें वेताल की वंशज हैं तथा सदैव सबको प्रिय हैं ।
जो महात्मा वेताल के वंश में जन्म लेने वालों के इस वृत्तान्त को नित्य सुनता है
वह सुखी और बलवान् होता है। उसकी न तो गौवें कभी नष्ट होती है और न उसका वैभव ही
नष्ट होता है ।। २३-२४॥
न च
भूतपिशाचाद्यास्तं पश्यन्ति कदाचन ।
वेतालः सततं
तस्य रक्षामाचरति स्वयम् ।। २५ ।।
उसे कभी
भूत-पिशाच आदि भी नहीं देखते। स्वयं वेताल उसकी रक्षा करते हैं ॥२५॥
इति वः कथितं
विप्रा यथा वेतालभैरवौ ।
जनयामासतुः
पुत्रान् विच्छिन्नाः संशयाश्च वः ।। २६ ।।
हे ब्राह्मणों
! यह मेरे द्वारा तुम लोगों से कहा गया कि, किस प्रकार से वेताल और भैरव ने अपने पुत्रों को जन्म दिया।
इस सम्बन्ध में तुम्हारे संशयों को भी नष्ट कर दिया गया है ॥
२६ ॥
यथा च कालिका
देवी मोहयामास शंकरम् ।
यथोत्पन्ना
शरीरार्धं कृतं शम्भोर्यथा तथा ।। २७ ।।
जिस प्रकार
कालिका देवी ने भगवान् शङ्कर को मोहित किया, जैसे वे उत्पन्न हुईं, जैसे उन्होंने शिव के शरीरार्ध को प्राप्त किया,
वह सब भी तुम लोगों से कहा गया है ।। २७॥
कालिकायै
नमस्तुभ्यमिति यो भाषते स्वयम् ।
तस्य हस्ते
स्थिता मुक्तिस्त्रिवर्गस्तु वशानुगः ।। २८ ।।
"कालिकायै
नमस्तुभ्यम्”
कालिका देवी को नमस्कार है" ऐसा जो स्वयं कहता है उसके
हाथ में मुक्ति, स्थित रहती है तथा अर्थ, धर्म व काम का त्रिवर्ग सदैव उसके वश में रहता है॥ २८ ॥
कालिका पुराण अध्याय ९०- माहात्म्य कथन
।। माहात्म्य कथन ।।
इति वः कथितं
पुण्यं पुराणं कालिकाह्वयम् ।
मन्त्रयन्त्रमयं
शुद्धं ज्ञानदं कामदं परम् ।। २९ ।।
यह कालिका
नामक अत्यन्त पवित्र पुराण, जो मन्त्रों और यन्त्रों से युक्त,
शुद्ध, ज्ञान प्रदान करने एवं कामनाओं को देने की दृष्टि से
सर्वश्रेष्ठ है, आप लोगों से कहा गया ।। २९ ॥
इति गुह्यतमं
लोके वेदेषु च तथा द्विजाः ।
देवगन्धर्वसिद्धाद्यैः
स्पृहणीयमिदं सदा ।। ३० ।।
हे द्विजों !
यह लोक और वेद में अत्यन्त गोपनीय है तथा देवता, गन्धर्व, सिद्ध आदि श्रेष्ठजन भी सदैव इसके श्रवण की स्पृहा (ललक)
रखते हैं॥३०॥
अधीतं च
श्रुतं मत्तो वसिष्ठेन महात्मना ।
इदं
पुराणममृतं कालिकाह्वयमुत्तमम् ।। ३१ ।।
यह कालिका
नामक उत्तम, अमृत तुल्य पुराण, मुझसे महात्मा वशिष्ठ द्वारा पढ़ा और सुना गया।।३१॥
तेन गुप्तमिदं
सर्वं कामरूपेसुरालये ।
तमिदानीं
समाख्यातं व्यक्तीकृत्यमहर्षयः ॥३२॥
हे महर्षियों
! उन वशिष्ठ मुनि द्वारा यह सब देवताओं के निवास, कामरूप में छिपा दिया गया था। इस समय उसी को प्रकट करके
मैंने आप सबसे कहा है ॥ ३२ ॥
युस्माभिरपि
नो देयं गोप्यं लोकेषु सर्वदा ।
शठाय
चलचित्ताय नास्तिकायाजितात्मने ।
भक्तिश्रद्धाविहीनाय
न दातव्यं कदाचन ॥३३॥
आप लोगों
द्वारा भी इस गोपनीय पुराण को संसार में सर्वदा किसी शठ,
चञ्चलचित्त, नास्तिक, जिसने अपने आपको न जीता किया (नियन्त्रित) हो,
जो श्रद्धा-भक्ति से हीन हो ऐसे व्यक्ति को,
कभी भी नहीं दिया जाना चाहिये ॥ ३३ ॥
इदं सकृत्
पठेद्यस्तु पुराणं कालिकाह्वयम् ।
स कामानखिलान्
प्राप्य शेषेऽमृतमाप्नुयात् ।। ३४।।
इस कालिका
नामक पुराण को जो एक बार भी पढ़ता है, वह अपनी समस्त कामनाओं को प्राप्त कर,
मरने पर अमृत (देवत्व) को प्राप्त करता है ॥ ३४ ॥
मन्दिरे
लिखितं यस्य पुराणमिदमुत्तमम् ।
सदा तिष्ठति
नो तस्य विघ्नः संजायते द्विजाः ।। ३५ ।।
हे द्विजों !
जिसके घर में यह उत्तम पुराण सदैव लिखितरूप में स्थित रहा है,
उसे कोई विघ्न नहीं होते ॥ ३५ ॥
योऽधीतेऽहन्यहन्येतद्
गुह्यं तन्त्रमिदं परम् ।
अधीताः सकला
वेदास्तेनेह द्विजसत्तमाः ।। ३६ ।।
हे श्रेष्ठ द्विजों
! जो इस सर्वश्रेष्ठ, गोपनीय तन्त्र को प्रतिदिन पढ़ता है,
मानो उसके द्वारा सभी वेदों का अध्ययन कर लिया गया है ॥ ३६
॥
तस्मान्नैवाधिकोऽन्योऽस्ति
कृतकृत्यो विचक्षणः ।। ३७।।
स सुखी
बल्लवाँल्लोके दीर्घायुरपि जायते ।। ३८ ।।
उससे अधिक
अन्य कृतकृत्य नहीं होता है और विचक्षण बुद्धिमान्, वह संसार में बलवान्, सुखी तथा दीर्घायु भी होता है ।। ३७-३८।।
यो लोकमीशः सततं
बिभर्ति यः पालयत्यन्तकरस्तथान्ते ।
इदं समस्तं भ्रममभ्रमं
वा यदीयरूपं च नमोऽस्तु तस्मै ।। ३९ ।।
जो ईश्वर,
लोक को सदैव धारण करता है, जो पालन करता है, जो अन्त में नाश करने वाला है,
यह समस्त जगत् जो भ्रम (अयथार्थ) या अभ्रम (यथार्थ) रूप में,
जिसका रूप है, उस परमात्मा को नमस्कार है ।। ३९ ।।
प्रधानपुरुषो
यस्य प्रपञ्चो योगिनां हृदि ।
यः पुराणाधिपो
विष्णुः प्रसीदतु स वः शिवः ।। ४० ।।
जो प्रधान
पुरुष हैं, जिसका प्रपञ्च योगियों के हृदय में स्थित रहता है,
जो पुराणों के अधिपति हैं वे विष्णु आप लोगों पर प्रसन्न हो,
कल्याणकारी होंवें॥ ४० ॥
यो हेतुरुग्रः
पुरुष: पुराण: सनातनः शाश्वत ईश्वरः परः ।
पुराणकृद् वेदपुराणवेद्यः
प्रस्तौमि तन्नौमि पुराणशेषे ।।४१।।
जो सबके हेतु,
उग्र, पुराणपुरुष, सनातन, निरन्तर, स्थायी (अविनाशी), सबके स्वामी, सर्वश्रेष्ठ, पुराणों के कर्ता तथा वेद-पुराणों द्वारा जानने योग्य हैं।
पुराण की समाप्ति पर मैं उनकी स्तुति करता हूँ, उन्हें नमस्कार करता हूँ। ४१ ॥
इति सकलजगद् बिभर्ति
यासां मधुरिपुमोहकरी रमास्वरूपा ।
रमयति च हरं
शिवास्वरूपा वितरतु वो विभवं शुभानि माया ।। ४२ ।।
इस प्रकार से
जो समस्त जगत् को अपने में धारण करती हैं। जो लक्ष्मी रूप से मधु नामक दैत्य के
शत्रु,
भगवान् विष्णु को भी मोहने वाली हैं। जो शिवा (काली) के स्वरूप में शिव के साथ रमण करती हैं,
वे माया (योगमाया) आप सबको वैभव एवं शुभ प्रदान करें । ४२ ॥
॥ इति
श्रीकालिकापुराणे वेतालवंशवर्णननाम नवतितमोऽध्यायः ॥ ९० ॥
श्रीकालिकापुराण
में वेतालवशवर्णननामक नब्बेवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ॥९०॥
॥ इति
श्रीकालिकापुराणे सम्पूर्णम् ।।
इस प्रकार हिन्दीटीका
सहित यह कालिकापुराण सम्पूर्ण हुआ ।।
।।
कालिकायै नमस्तुभ्यम् ।।
।।ॐ भं
भद्रकलिकायै आगच्छ-आगच्छ भं ॐ नमः स्वाहा।।
।। इति श्रीकालिकापुराणं समाप्तम् ।।
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