कालिका पुराण अध्याय १
कालिका पुराण अध्याय १
Kalika puran chapter 1
कालिकापुराणम् प्रथमोऽध्यायः कामप्रादुर्भाववर्णनम्
अथ श्रीकालिका
पुराण अध्याय १
श्रीकालिका
पुराण
॥
श्रीगणेशायनमः ॥
॥
श्रीकालिकायैनमः ॥
॥ कालिकायै
विद्महे श्मशानवासिन्यै धीमहि तन्नो घोरे प्रचोदयात् ॥
॥ क्रीं
कालिकायै नमः ॥
॥ ॐभं
भद्रकालिकायै नमः ॥
मङ्गलाचरण
यद्योगिभिर्भवभयार्ति
विनाशयोग्य-
मासाद्य
वन्दितमतीव विविक्तचित्तैः ।
तद् वः पुनातु
हरिपादसरोजयुग्म-
माविर्भवत्
क्रमविलङ्घित-भूर्भुवः स्वः ॥ १ ॥
अत्यन्त
विवेकशील चित्तवाले योगिजन, भूः भुवः स्वः नामक तीनों लोकों के क्रम को पार कर...संसार
(जन्म-मरण) के भय का नाश करने में समर्थ भगवान् विष्णु के जिन युगल चरणकमलों की
वन्दना करते हैं; वे ही आपलोगों को पवित्र करने वाले होवें ॥ १ ॥
सा पातु वः
सकलयोगिजनस्य चित्ते-
ऽविद्यातमिस्त्रतरणिर्मतिमुक्ति
हेतुः।
या चास्य
जन्तुनिवहस्य विमोहिनीति
माया
विभोर्जनुषि शुद्ध- कुबुद्धिहन्त्री ॥२॥
जो सभी
योगिजनों के चित्त में फैले हुये अविद्यारूपी अन्धकार को दूर करने के लिए सूर्य
हैं,
जो बुद्धियों को मुक्ति प्रदान करने वाली हैं,
जो इस प्राणी-समूह को मोहित करने वाली हैं,
जो शुद्ध बुद्धि की जन्मदात्री तथा कुबुद्धि का नाश करने
वाली हैं,
वे परमात्मा की माया (परमेश्वरी) आप लोगों की रक्षा करें
॥२॥
ईश्वरं
जगतामाद्यं प्रणम्य पुरुषोत्तमम् ।
नित्यज्ञानमयं
वक्ष्ये पुराणं कालिकाह्वयम् ॥३॥
संसार के
आदिभूत (जन्मदाता ब्रह्मा), पुरुषोत्तम (भगवान् विष्णु), ईश्वर (भगवान् शङ्कर) को प्रणाम कर मैं नित्यज्ञानमय कालिका
(पुराण) नामक इस पुराण को कहता हूँ ॥ ३ ॥
मार्कण्डेयं
मुनिश्रेष्ठं स्थितं हिमधरान्तिके ।
मुनयः
परिपप्रच्छुः प्रणम्य कमठादयः ॥४॥
हिमालय पर्वत
के निकट स्थित मुनिवर मार्कण्डेय को प्रणाम करके कमठादि मुनियों ने उनसे पूछा --
॥४॥
।। मुनयः ऊचुः
।।
भगवन् सम्यगाख्यातं
सर्वशास्त्राणि तत्त्वतः ।
वेदान्
सर्वांस्तथा सांगान् सारभूतं प्रमथ्य च ॥ ५ ॥
मुनिगण बोले-
हे भगवन् ! आपने (व्याकरणादि) अङ्गों सहित सभी वेदों का मन्थन कर साररूप में सभी
शास्त्रों के तत्त्वों का भलीभाँति वर्णन किया है ॥५॥
सर्ववेदेषु
शास्त्रेषु यो यो नः संशयोऽभवत् ।
स स
छिन्नस्त्वया ब्रह्मन् सवितेव तमश्चयः ।।६।।
हे ब्रह्मन् !
सभी वेदों और शास्त्रों में हमें जो संशय हुआ, उन-उन का आपके द्वारा वैसे ही नाश किया गया है जैसे सूर्य
के द्वारा अन्धकारसमूह का नाश किया जाता है ॥६॥
जैवातृकाग्र्य
भवतः प्रसादाद्द्द्विजसत्तम ।
निःसंशया वयं
जाता वेदे शास्त्रे च सर्वशः ॥७॥
दीर्घजीवियों
में अग्रणी, हे द्विजसत्तम ! आपकी कृपा से हम वेद और शास्त्रों में सब प्रकार से संशयरहित
हो गये हैं ॥७॥
कृतकृत्या वयं
ब्रह्मन्त्वत्तोऽधीत्य समन्ततः ।
सरहस्य
धर्मशास्त्रं यदवादि स्वयम्भुवा ॥८॥
स्वयम्भू
ब्रह्मा ने जिस धर्मशास्त्र को रहस्य सहित कहा था, उसे हे ब्रह्मन् ! आपसे ही पढ़कर हम पूरी तरह से कृतकृत्य
हो गये हैं ॥ ८ ॥
भूयस्तच्छ्रोतुमिच्छामो
हरं काली पुरा कथम् ।
मोहयामास
पतिनं सतीरूपेण चेश्वरम् ।।९।।
सर्वदा
ध्याननिलयं यतिनं पतिनां वरम् ।
कथं
संक्षोभयामास संसारविमुखं हरम् ।।१०।।
सती वा
कथमुत्पन्ना दक्षदारासु शोभना ।
कथं हरी
मनश्चक्रे दारग्रहणकर्मणि ।। ११॥
कथं वा
दक्षकोपेन त्यक्तदेहा सती पुरा ।
हिमवत्तनया
जाता भूयो वा कथमागता ।।१२।।
हम पुनः आपसे
सुनना चाहते हैं कि-प्राचीन काल में भगवती काली ने सतीरूप धारण करके किस प्रकार
ईश्वर,
भगवान् शङ्कर को पतिरूप में मोहित किया?
सदैव ध्यानस्थित, यमी, रक्षकों में श्रेष्ठ, संसार से विमुख (विरक्त) भगवान् शङ्कर को उन्होंने कैसे
संक्षुब्ध किया? अथवा सुन्दरी सती दक्षपत्नी के गर्भ से कैसे: उत्पन्न हुई ?
भगवान् शङ्कर ने दारग्रहण (विवाह) का मन कैसे बनाया?
प्राचीन काल में दक्ष पर क्रोध करके सती ने अपने शरीर का
त्याग कैसे कर दिया? वह हिमालय की पुत्री (पार्वती) के रूप में कैसे पुनः
उत्पन्न हुई ? ॥९-१२ ॥
कथमर्द्धशरीरं
साहरत् स्मररिपोः पुनः ।
एतत् सर्वं
समाचक्ष्व विस्तरेण द्विजोत्तमः ।।१३।।
नान्योऽस्ति
संशयच्छेत्ता त्वत्समो न भविष्यति ।
यथा जानीम
विप्रेन्द्र तत् कुरुष्वैतदात्मवित् ।।१४।।
हे
द्विजोत्तम! उन्होंने कामदेव के शत्रु भगवान् शङ्कर के अर्द्धाङ्ग (पत्नीत्व) को
कैसे पुनः प्राप्त किया? यह सब (उपर्युक्त रहस्य) आप हमें विस्तार से बताइये क्योंकि
आप के समान संशयों का नाश करने वाला अन्य कोई दूसरा नहीं है और न कोई होगा । हे
आत्मविद्! हे विप्रेन्द्र ! जिस प्रकार यह हम जान सकें,
ऐसा उपाय कीजिये ।।१३-१४ ॥
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
शृण्वंतु
मुनयः सर्वे गुह्याद् गुह्यतरं परम् ।
पुण्यं शुभकरं
सम्यग् ज्ञानदं कामदं परम् ।।१५।।
मार्कण्डेय
बोले- आप सभी मुनिगण, मेरे ( द्वारा कथित) अत्यन्त गोपनीय से भी गोपनीय,
पवित्र, शुभकर्त्ता, सम्यक् ज्ञान प्रदान करने तथा कामना की पूर्ति करने वाले,
श्रेष्ठ, इस (कालिका पुराण) को सभी सुनें ॥ १५ ॥
कालिका पुराण
अध्याय १ - कालिका पुराण परम्परा
एतद् ब्रह्मा
पुरोवाच नारदाय महात्मने ।
पृष्टस्तेन
ततः सोऽपि बालखिल्येषु चोक्तवान् ।। १६ ।।
बालखिल्या
महात्मानस्तत आचक्षिरे पुनः ।
यवक्रीताय
मुनये स प्रोवाचासिताय च ।
असितो मे
समाचक्ष्व एतद्विस्तरतो द्विजाः ।।१७।।
हे द्विजों !
इसे पहले ब्रह्माजी ने महात्मा नारद को बताया । उन्होंने बालखिल्यों के द्वारा
पूछे जाने पर उन्हें बताया । महात्मा बालखिल्यों ने पुनः यवक्रीत मुनि को सुनाया
और उन ( यवक्रीत) ने असित से कहा। इस पुराण को विस्तारपूर्वक असित ने मुझसे कहा ॥
१६-१७॥ ·
अहं वः
कथयिष्यामि कथामेतां पुरातनीम् ।
प्रणम्य
परमात्मानं चक्रपाणिं जगत्पतिम् ।।१८।।
मैं संसार के
स्वामी,
चक्रधर परमात्मा (विष्णु) को प्रणाम कर आप लोगों से इस
पुरानी कथा को कहूँगा ।।१८।।
व्यक्ताव्यक्तस्वरूपाय
सदसद्व्यक्तरूपिणे ।
स्थूलाय
सूक्ष्मरूपाय विश्वरूपाय वेधसे ।। १९ ।।
नित्याय
नित्यज्ञानाय निर्विकाराय चेतसे ।
विद्याऽविद्यास्वरूपाय
कलारूपाय वै नमः ।।२०।।
व्यक्त और
अव्यक्त स्वरूप, सत् और असत् रूप में प्रकट, स्थूल और सूक्ष्म सभी रूपों में व्यक्त,
विधाता, शाश्वत्, नित्य-ज्ञानरूप, निर्विकार, चैतन्य, विद्या तथा अविद्या स्वरूप, कलारूप आप (परमात्मा) को नमस्कार है ।।१९-२० ।।
निर्मलायोर्मिषट्कादिरहिताय
विरागिणे ।
व्यापिने
विश्वरूपाय सृष्टिस्थित्यन्तकारिणे ।। २१ ।।
योगिभिश्चिन्त्यते
योऽसौ वेदान्तानान्तचिन्तकैः ।
अन्तर्वन्तः
परं ज्योतिः स्वरूपं प्रणमामि तम् ।। २२ ।।
उस निर्मल,
उर्मि षटकादि भेदों से रहित, विरागी, व्यापी, विश्वरूप जगत् की सृष्टि, स्थिति और अन्त करने वाले; जिनका वेदान्त के अन्त को जानने वाले चिन्तनशील योगीजन
चिन्तन किया करते हैं, प्रत्येक अन्त:करण में परम ज्योति रूप में जो विद्यमान हैं,
उन परमात्मा को मैं प्रणाम करता हूँ ।। २१-२२ ॥
कालिका पुराण
अध्याय १ - सन्ध्या उत्पत्ति
तमेवाराध्य
भगवान्, ब्रह्मा लोकपितामहः ।
प्रजाः सर्ज
सकलाः सुरासुरनरादिकाः ।
सृष्ट्वा
प्रजापतीन् दक्षप्रमुखान् स यथाविधि ।। २३ ।।
उसी की आराधना
कर,
लोक के पितामह ब्रह्मा ने, दक्ष आदि दश प्रजापतियों की विधिपूर्वक सृष्टि करके,
देवता, दैत्य, मनुष्यादि समस्त प्रजा की सृष्टि की ।। २३ ॥
मरीचिमत्रिं
पुलहं तथैवाङ्गिरसं क्रतुम् ।
पुलस्त्यञ्च
वशिष्ठञ्च नारदञ्च प्रचेतसम् ।।२४।।
भृगुञ्च
मानसान् पुत्रान् यदा दश ससर्ज सः ।
तदा तन्मनसो
जाता चारुरूपा वरांगना ।
नाम्ना
सन्ध्येतिविख्याता सायं सन्ध्यां बरान्तिकाम् ।।२५।।
जब मरीचि,
अत्रि, पुलह, अङ्गिरा, क्रतु, पुलस्त्य, वशिष्ठ, नारद, प्रचेता के पुत्र दक्ष, भृगु आदि दश मानस पुत्रों की उन्होंने सृष्टि कर लिया,
तब उनके मन से सन्ध्या नाम से प्रसिद्ध एक सुन्दर रूपवाली,
श्रेष्ठ अङ्गों वाली सायं सन्ध्या रूपा नारी उत्पन्न हुई ।।
२४-२५।।
कालिका पुराण
अध्याय १ - सन्ध्यासौन्दर्य वर्णन
न तादृशी
देवलोके न मर्त्ये न रसातले ।
कालत्रयेऽपि
भविता सम्पूर्णगुणशालिनी ।। २६ ।।
उसके समान
सम्पूर्ण गुणवाली, तीनों काल में देवलोक, मर्त्य-लोक या रसातल में भी कोई नहीं है ।।२६।।
निसर्गचारुनीलेन
कचभारेण राजते ।
मयूरीव
विचित्रेण वर्षासु द्विजसत्तमाः ।। २७ ।।
हे
द्विजसत्तमों ! वह अपने विचित्र किन्तु स्वाभाविक रूप से सुन्दर काले बालों से
युक्त वर्षा ऋतु में मोरनी की भाँति शोभायमान हो रही थी ।।२७।।
आरक्तगौरपलकमाकर्णान्तं
तथालकैः ।
रेजे
सुराधिपधनुश्चारुबालेन्दुसन्निभम् ।।२८।।
उसके लालिमा
लिये गौर कानों तक फैली उसकी पलकें, उसके घुँघराले केश, इन्द्रधनुष के समान सुन्दर और बाल-चन्द्रमा के समान
आभायुक्त हो रहे थे ।।२८।।
प्रफुल्लनीलनलिनश्यामलं
नयनद्वयम् ।
चकाशे
चकितायास्तु कुरङ्ग्याः सदृशं चलम् ।।२९।।
उसके दोनों
नेत्र खिले हुए नीलकमल के समान नीले थे और चकितावस्था में हरिणी के समान चञ्चल
दिखाई दे रहे थे ॥ २९ ॥
निसर्ग चञ्चलं
चारु भ्रूयुग्मं श्रवणायतम् ।
मीनाङ्ककोदण्डसमं
नीलं तस्याः द्विजोत्तमाः ।। ३० ।।
हे
द्विजोत्तमों! उसकी दोनों भौहें स्वाभाविक रूप से सुन्दर और चञ्चल तथा कानों तक
फैली हुई थीं । वे मीनाङ्क (कामदेव) के धनुष के समान प्रभावशाली तथा नीलवर्ण (काले
रङ्ग ) की थीं ॥ ३० ॥
भ्रूमध्याधोनिम्न
भागादायत प्रांशु नासिका ।
लावण्यानि
द्रवन्तीव ललाटात्तिलपुष्पवत् ।।३१।।
उसके भ्रूमध्य
के निचले भाग के ललाट से तिल के पुष्प के समान, सौन्दर्य को प्रवाहित करती हुई लम्बी किन्तु नुकीली नासिका
शोभायमान हो रही थी ।।३१।।
तद्वक्त्रं
शोणपद्माभ पूर्णचन्द्रसमप्रभम् ।
बिम्बाधरारुणिम्नातिरेजे
रागि मनोहरम् ।।३२।।
उसका मुख लाल
कमल के समान आभायुक्त एवं पूर्णचन्द्र के समान प्रभा से युक्त था। उसके अधर अपनी
सुन्दर लालिमा से बिम्बाफल की लालिमा को भी फीका कर रहे थे ।।३२।।
सौन्दर्यलावण्यगुणैरापूर्णं
वदनं पुनः ।
अभितश्चिवुकं
यातुमुद्यताविव तत्कुचौ ।।३३।।
राजीवकुड्मलाकारी
पीनोत्तुंगी निरन्तरौ ।
श्यामास्यौ
तत्कुचौ विप्रा मुनीनामपि मोहनौ ।।३४।।
ठुड्डी के
चारों ओर उसका मुख सुन्दरता और मनोहरता जैसे गुणों से पूर्ण था । उसके दोनों स्तन
कमल के कोश के आकार में उठे हुये थे । वे मोटे, पुष्ट और निरन्तर ऊपर उठते हुये जान पड़ते थे । हे
ब्राह्मणों ! उसके दोनों स्तनों के मुखमण्डल (कुचाग्र) श्यामवर्ण के थे,
जो मुनियों का भी मन मोह लेते थे ।। ३३-३४ ।।
वलिभाजि
क्षीणमध्यं मुष्टिग्राह्यमिवांशुगम् ।
तन्मध्यं
ददृशुः सर्वे शक्तितुल्यं मनोभुवम् ।। ३५ ।।
उसका मध्यभाग
(कटि प्रदेश) रेशमी वस्त्र की भाँति वलि (त्रिवली, मोड़)युक्त एवं मुट्ठी में आने योग्य पतला था। उसके मध्य
सबने शक्तिस्वरूप मनोभुव* (मदनमन्दिर) का दर्शन
किया ।। ३५ ।।
* यहाँ मनोभुव की शक्ति समता शाक्तनिष्ठा दर्शाती
है ।
तस्य चोरुयुगं
रेजे स्थूलोर्द्ध करभायतम् ।
आनमद्वारणकरप्रतिमं
मृदुमन्थरम् ।। ३६ ।।
उसकी दोनों
जङ्घायें हाथी के बच्चे के समान स्थूल और उठी हुईं तथा हाथी के सूड़ के समान लटकती
हुईं,
कोमल एवं मन्थर गति से शोभायमान हो रही थीं ।। ३६ ।।
स्थलाम्बुजरुणं
पादयुग्मं सत्पाणिराजितम् ।
अङ्गुलीदलसंकीर्णं
कुसुमायुधबाणवत् ।।३७।।
उसके दोनों
चरण सुन्दर, पार्ष्णि (एड़ियों) से सुशोभित, धरती पर उगे कमल के की भाँति लाल रङ्ग के थे,
जिनकी परस्पर सटी हुई अङ्गुलियों के समूह कामदेव के बाण की
भाँति मनोहर थे ।।३७।।
तां
चारुदर्शनां तन्वीं तनुरोमावलीं शुभाम् ।
सस्वेदवदनां
दीर्घनयनां चारुहासिनीम् ।।३८।।
चारुकर्णयुगां
कान्तां त्रिगम्भीरां षडुन्नताम् ।
दृष्ट्वा धाता
समुत्थाय चिन्तयामास गतम् ।। ३९ ।।
उस सुन्दर
दाँतोंवाली, पतली-पतली रोमावली से घिरी हुई, पसीने से युक्त मुखमण्डल वाली,
लम्बे नेत्रों वाली, सुन्दर हँसी वाली, सुन्दर कानों से युक्त सुन्दरी,
जिसके चिबुक (ढुड्डी), नाभि, योनि तीन अङ्ग गहरे तथा कपोल-स्तन-नितम्बों के युगल छः अङ्ग
उठे हुये थे, को देखकर ब्रह्मा उठ गये और हृदय में चिन्तन करने लगे ।।३८-३९॥
दक्षादयस्ते
स्रष्टारो मरीच्याद्यास्तु मानसाः ।
दध्युः
समुत्सुकाः सर्वे तां दृष्ट्वा वरवर्णिनीम् ।।४० ।।
उस कुमारी को
देखकर वे सब दक्ष इत्यादि और मरीचि आदि ब्रह्मा के मानस पुत्रों ने समान रूप से
उत्सुकता को धारण किया ॥४०॥
किं कर्मास्या
भवेत् सृष्टौ कस्य वा वरवर्णिनी ।
भविष्यतीति ते
सर्वे चिन्तयामासुरुत्सुकाः ।।४१।।
वे
उत्सुकतापूर्वक विचार करने लगे कि सृष्टि में इसका क्या कार्य है ?
तथा यह किसको वरण करेगी ॥ ४१ ॥
कालिका पुराण
अध्याय १- काम प्रादुर्भाव
एवं
चिन्तयतस्तस्य ब्रह्मणो मुनिसत्तमाः ।
मनसः पुरुषो
वल्गुराविर्भूतो विनिसृतः ।। ४२ ।।
हे
मुनिसत्तमों ! जब ब्रह्माजी इस प्रकार से सोच रहे थे,तब उनके मन से निकल कर एक मनोहर पुरुष उत्पन्न हुआ।।४२॥
कालिका पुराण
अध्याय १- कामसौन्दर्य वर्णन
काञ्चनीचूर्णपीताभः
पीनोरस्कः सुनासिकः।
सुवृत्तोरुकटीजङ्घ
नीलवेष्टितकेशरः ।
लग्नभ्रूयुगलो
लोलः पूर्णचन्द्रनिभाननः ।।४३।।
उसके शरीर से
सोने के चूर्ण की तरह पीली आभा निकल रही थी, उसके कन्धे भरे हुए (पुष्ट) तथा उसकी नासिका सुन्दर थी,
उसके ऊरु, कमर एवं जङ्घ सुन्दर गोलाकार थे,
उसके बाल नीले और घुंघराले थे,
उसकी दोनों भौहें मिली हुईं, चञ्चल थीं तथा मुख पूर्णचन्द्र के समान था ॥४३॥
कपाटविस्तीर्णहृदि
रोमराजिविराजितः ।
शुभ्रमातङ्गकरवत्
पीननिस्तलबाहुकः ।
आरक्तपाणिनयनमुखपादकरोद्भवः
।। ४४ ।।
उसका हृदय,
कपाट की भाँति विशाल, रोमावलियों से सुशोभित था । उसकी भुजायें श्वेत मातङ्ग
(ऐरावत) की सूँड़ की भाँति गोल और मोटी थीं। उसके हाथ,
पैर, नेत्र, मुख, हाथ की अंगुलियाँ लाल रङ्ग की थीं ॥४४॥
क्षीणमध्यश्चारुदन्तः
प्रमत्तगजबन्धनः ।
प्रफुल्लपद्मपत्राक्षः
केशरप्राणतर्पणः ।
कम्बुग्रीवो
मीनकेतुः प्रांशुर्मकरवाहनः ।।४५।।
उसका मध्य भाग
(कटि-प्रदेश) पतला था, उसके दन्त सुन्दर थे, कन्धे मतवाले हाथी के कन्धे के समान पुष्ट थे,
नेत्र खिले हुए उन कमल के दलों के समान थे,
जिनके पराग सुगन्धयुक्त थे । गला शङ्ख के समान था,
ध्वजा पर मछली का निशान था, जो दीर्घकाय और मकर वाहन पर सवार था ॥ ४५ ॥
पञ्चपुष्पायुधो* वेगी पुष्पकोदण्डमण्डितः ।
कान्तः
कटाक्षपातेन भ्रामयन्नयनद्वयम् ।।४६ ।।
सुगन्धमारुतभ्रान्तं
श्रृंगाररससेवितम् ।
तं वीक्ष्य
तादृशं दक्षप्रमुखा मानसाश्च ये ।। ४७ ।।
मरीच्याद्या
दश ततो विस्मयाविष्टचेतसः ।
औत्सुक्यं
परमं जग्मुरापुर्वैकारिकं मनः ।। ४८ ।।
वह पाँच
प्रकार के पुष्पों के अस्त्र धारण किये वेगवान् था, पुष्प के धनुष से सुशोभित था, सुन्दर कटाक्षपात से अपने दोनों नेत्रों को घुमा रहा था ।
उस सुगन्धित वायु से भ्रमित (मस्त) तथा शृङ्गाररस-सेवित,
उपर्युक्त रूप के पुरुष को देखकर वे (ब्रह्मा के दक्ष एवं
मरीचि आदि दश मानस पुत्र) तब विस्मय से भर गये, उनमें परम उत्सुकता उत्पन्न हो गई। उनके मन में तरह-तरह के
विकार उठने लगे ॥४६-४८॥
*
काम के पञ्चायुध
अरविन्दमशोकं
च चूतं च नवमल्लिका
नीलोत्पलं च
पञ्चैते पञ्चबाणस्य सायकाः ।।
स चापि वेधसं
वीक्ष्य स्रष्टारं जगतां पतिम् ।
प्रणम्य
पुरुष: प्राह विनयानतकन्धरः ।। ४९ ।।
उस पुरुष ने
भी जगत्पति, सृष्टिकर्ता, ब्रह्मा को देखकर, उन्हें प्रणाम किया और नम्रतापूर्वक मस्तक को झुका कर बोला –
॥ ४९ ॥
।। पुरुष उवाच
॥
किं
करिष्याम्यहं कर्म ब्रह्मंस्तत्र नियोजय ।
मां न्याय्ये
पुरुषो यस्मादुचिते शोभने विधे ।। ५० ।।
पुरुष बोला-
हे ब्रह्मन् ! हे विधाता ! मैं कौन सा कर्म करूँ? मेरे जैसे पुरुष के लिए जो सुन्दर,
उचित और न्यायपूर्ण हो, उसमें मुझे नियुक्त कीजिये ॥ ५० ॥
अभिधानं च
यद्योग्यं स्थानं पत्नी च या मम ।
तन्मे कुरुष्व
लोकेश त्वं स्रष्टा जगतां यतः ।। ५१ ।।
हे लोकेश्वर!
आप संसार के स्रष्टा हैं, इसलिए मेरा नाम, मेरे योग्य स्थान,तथा मेरी पत्नी का भी मेरे लिए आप ही निर्धारण कीजिये ॥ ५१
॥
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
एवं तस्य वचः
श्रुत्वा पुरुषस्य महात्मनः I
क्षणं न
किञ्चित् प्रोवाच स्वसृष्टावपि विस्मितः ।।५२।।
ततो मनः
सुसंयम्य सम्यगुत्सृज्य विस्मयम् ।
उवाच पुरुषं
ब्रह्मा तत्कार्योद्देशमावहन् ।।५३।।
मार्कण्डेय
बोले- इस प्रकार की उस पुरुष की वाणी को सुनकर, अपनी सृष्टि पर ही विस्मित हो,
ब्रह्मा क्षणभर कुछ नहीं बोले । तब वे आश्चर्य को भलीभाँति
छोड़कर,
मन को संयमित करके, उस पुरुष के कार्यादि का निर्देश करते हुये,
उससे बोले - ॥५२-५३॥
।। ब्रह्मोवाच
।।
अनेन
चारुरूपेण पुष्पबाणैश्च पञ्चभिः ।
मोहयन्
पुरुषांस्त्रींश्च कुरु सृष्टिं सनातनीम् ।।५४।।
ब्रह्मा ने
कहा- इस सुन्दर रूप और पाँच पुष्प बाणों से तुम स्त्री-पुरुषों को मोहित करते हुये
सनातनी,
पारम्परिक सृष्टि करो। (अब तक ब्रह्मा ने मानसी सृष्टि की
थी) ।। ५४ ।।
न देवो न च
गन्धर्वो न किन्नर - महोरगाः ।
नासुरो न च
दैत्यो वा न विद्याधर - राक्षसाः ।। ५५ ।।
न यक्षा न
पिशाचाश्च न भूता न विनायकाः ।
न गुह्यका न
वा सिद्धा न मनुष्या न पक्षिणः ।। ५६ ।।
पशवो न मृगाः
कीटपतङ्गाजलजाश्च ये ।
न ते सर्वे
भविष्यन्ति न लक्षा ये शरस्य ते ।। ५७ ।।
जो भी देवता,
गन्धर्व, किन्नर, महान् सर्प, असुर, दैत्य, विद्याधर, राक्षस, यक्ष, पिशाच, भूत, विनायक, गुह्यक, सिद्ध, मनुष्य, पशु-पक्षी, जन्तु, कीट, पतङ्ग,जलचर होंगे, उनमें कोई भी ऐसा नहीं होगा जो तुम्हारे बाणों का लक्ष न
बने अर्थात् सभी तुम्हारे बाणों से व्यथित होंगे ।।५५-५७।।
अहं वा
वासुदेवो वा स्थाणुर्वा पुरुषोत्तमः ।
भविष्यामस्तव
वशे किमन्यैः प्राणधारिभिः ।। ५८ ।।
मैं या
वासुदेव (विष्णु) या स्थाणु (शिव) जैसे श्रेष्ठ पुरुष भी तुम्हारे वशीभूत रहेंगे,
फिर अन्य प्राणियों की क्या बात है?
वे तो रहेंगे ही ॥ ५८ ॥
प्रच्छन्नरूपी
जन्तूनां प्रविशन् हृदये सदा ।
सुखहेतुः
स्वयं भूत्वा कुरु सृष्टिं सनातनीम् ।। ५९ ।।
तुम गुप्त रूप
से जन्तुओं के हृदय में सदैव प्रवेश कर, स्वयं उनके सुख कारण होकर सनातनी सृष्टि करो ।। ५९ ।।
त्वत्
पुष्पबाणस्य सदा मुख्यं लक्षं मनोऽस्तु तत् ।
सर्वेषां
प्राणिनां नित्यं मदमोदकरो भवान् ।।६० ।।
उन
(प्राणियों) का मन तुम्हारे बाणों का सदैव मुख्य लक्ष्य होगा। तुम सभी प्राणियों
में नित्य मद (मस्ती) और आनन्द उत्पन्न करने वाले होगे ।। ६० ।।
इति ते कर्म
कथितं सृष्टि प्रावर्तकं पुनः ।
नामानि च
गदिष्यामि यत्ते योग्यं भविष्यति ।। ६१ ।।
यह मैंने
सृष्टि-प्रवर्तन सम्बन्धी तुम्हारे कर्मों का निर्देश किया। अब मैं पुनःजो
तुम्हारे योग्य नाम होंगे उन्हें भी बताऊँगा ।। ६१ ।।
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
इत्युक्त्वाथ
च सुरश्रेष्ठो मानसानां मुखानि च ।
आलोक्य चासने
पद्मे सूपविष्टोऽभवत् क्षणात् ।।६२।।
मार्कण्डेय
बोले- सुरश्रेष्ठ ब्रह्मा यह कहकर तथा अपने मानस पुत्रों के सुखों को देखते हुए
क्षणभर में अपने पद्मासन पर भलीभाँति बैठ गये ॥६२ ॥
॥ इति
श्रीकालिकापुराणे कामप्रादुर्भाव वर्णनम् नाम प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥
कालिका पुराण अध्याय १ संक्षिप्त कथानक
पूर्ण रूप से
एक ही निष्ठा में रहने वाले हृदय से समन्वित योगियों के द्वारा सांसारिक भय और
पीड़ा के विनाश करने के अनेकों उपाय किए गये हैं । ऐसे भगवान् हरि के दोनों चरण
कमल सर्वदा आप सबकी रक्षा करें जो समस्त योगीजनों के चित्त में अविद्या के अन्धकार
को दूर हटाने के लिए सूर्य के समान हैं तथा यतिगणों की मुक्ति का कारण स्वरूप हैं
। विभु के जन्म में शुद्धि-कुबुद्धि के हनन करने वाली है और इन जन्तुओं के समुदाय
को विमोहित कर देने वाली है; वह माया आपकी रक्षा करे। समस्त जगती के आदिकाल में विराजमान
पुरुषोत्तम ईश्वर को(जो नित्य ही ज्ञान से परिपूर्ण हैं उनको) प्रणाम करके मैं
कालिका पुराण का कथन करूँगा ।
हिमालय के
समीप में विराजमान मुनियों ने परमाधिक श्रेष्ठ मार्कण्डेय मुनि के चरणों में
प्रणिपात करके उनसे कर्मठ प्रभृति मुनिगण ने पूछा था कि हे भगवान् ! आपने तात्विक
रूप से समस्त शास्त्रों और अंगों के सहित सभी वेदों को सब भली-भाँति मन्थन करके जो
कुछ भी साररूप था वह सभी भाँति से वर्णन कर दिया है । हे ब्रह्मन्! समस्त वेदों
में और सभी शास्त्रों में जो-जो हमको संशय हुआ था वही आपने ज्ञानसूर्य के द्वारा
अन्धकार के ही समान विनिष्ट कर दिया है । हे द्विजों में सर्वश्रेष्ठ ! आपके
प्रसाद अर्थात् अनुग्रह से हम सब प्रकार से वेदों और शास्त्रों में संशय से रहित
हो गये हैं अर्थात् अब हमको किसी में कुछ भी संशय नहीं रहा है ।
हे ब्राह्मण !
जो ब्रह्माजी ने कहा था वह रहस्य के सहित धर्मशास्त्र आपसे सब ओर से अध्ययन करके
हम सब कृतकृत्य अर्थात् सफल हो गए हैं। अब हम लोग पुनः यह श्रवण करने की इच्छा
करते हैं कि पुराने समय में काली देवी ने हरि प्रभु का जो परमयति और ईश्वर थे,
उन्हें किस प्रकार से सती के स्वरूप से मोहित कर दिया था।
जो भगवान् हरि सदा ही ध्यान में मग्न रहा करते थे, यम वाले और यतियों में परम श्रेष्ठ थे तथा संसार से
पूर्णतया विमुख रहा करते थे, उनको संक्षोभित कर दिया था अथवा प्रजापति दक्ष की पत्नियों
में परम शोभना सती किस रीति से समुत्पन्न थी तथा पत्नी के पाणिग्रहण करने में
भगवान शम्भु ने कैसे अपना मन बना लिया था ? प्राचीन समय में किस कारण से तथा किस रीति से दक्ष प्रजापति
के कोप से सती ने अपनी देह का त्याग किया था अथवा फिर वही सती गिरिवर हिमवान् की
पुत्री के रूप में कैसे समुत्पन्न हुई ? फिर उस देवी ने भगवान् कामदेव के शत्रु श्री शिव का आधा
शरीर कैसे आहृत कर लिया था ? हे द्विजश्रेष्ठ ! यह सभी कथा आप हमारे समक्ष विस्तार के
साथ वर्णित कीजिए । हे विपेन्द्र ! हम यह जानते हैं कि आपके समान अन्य कोई भी
संशयों का छेदन करने वाला नहीं है और भविष्य में भी न होगा सो अब आप यह समस्त
वृतान्त बताने की कृपा कीजिए ।
मार्कण्डेय जी
कहा-आप समस्त मुनिगण अब श्रवण वह करिये जो कि मेरा गोपनीय से भी अधिक गोपनीय है
तथा परम पुण्य – शुभ करने वाला, अच्छा ज्ञान प्रदान करने वाला तथा परम कामनाओं को पूर्ण
करने वाला है।
इसे प्राचीन
समय में ब्रह्माजी ने महान् आत्मा वाले नारद जी से कहा था। इसके पश्चात् नारद जी
ने भी बालखिल्यों के लिए बताया था । उन महात्मा बालखिल्यों ने यवक्रीत मुनि से कहा
था और यवक्रीत मुनि ने असित नामक मुनि को यही बताया था । हे द्विजगणों ! उन असित
मुनि ने विस्तारपूर्वक मुझको बताया था और मैं अब पुरातन कथा को आप सब लोगों को
श्रवण कराऊँगा ।
इसके पूर्व
मैं इस जगत् के प्रति परमात्मा चक्रपाणि प्रभु को प्रणिपात करता हूँ । वे परमात्मा
व्यक्त और अव्यक्त सत् स्वरूप वाले हैं-वहीं व्यक्ति के रूप से समन्वित हैं । उनका
स्वरूप स्थूल है और सूक्ष्म रूप वाला भी है, वे विश्व के स्वरूप वाले वेधा हैं,
परमेश नित्य हैं और उनका स्वरूप नित्य है तथा उनका ज्ञान भी
नित्य है । उनका तेज निर्विकार है । विद्या और अविद्या के स्वरूप वाले हैं,
ऐसे कालरूप उन परमात्मा के लिए नमस्कार है।
परमेश्वर
निर्मल हैं, विरागी हैं, व्यापी और विश्वरूप वाले हैं तथा सृष्टि (सृजन) स्थिति ( पालन) और अन्त
(संहार) के करने वाले हैं, उनके लिए प्रणाम है । जिसका योगियों के द्वारा चिन्तन किया
जाता है,
योगीजन वेदान्त पर्यन्त चिन्तन करने वाले हैं,
जो अन्तर में परम ज्योति के स्वरूप हैं उन परमेश प्रभु के
लिए प्रणाम करता हूँ ।
लोकों के
पितामह भगवान् ब्रह्माजी ने उनकी आराधना करके समस्त सुर-असुर और नर आदि की प्रजा
का सृजन किया था । उन ब्रह्माजी से दक्ष जिनमें प्रमुख थे ऐसे प्रजापतियों का सृजन
करके मरीचि, अत्रि, पुलह,
अंगिरस, ऋतु, पुलस्त्य, वशिष्ठ, नारद, प्रचेतस, भृगु-इन सब दश मानस पुत्रों का उन्होंने सृजन किया था। उसी
समय में उनके मानस से सुन्दर रूप वाली वरांगनाओं की समुत्पत्ति हुई थी।
वह नाम से
सन्ध्या विख्यात हुई थी, उसका सायं सन्ध्या का यजन किया करते हैं । उस जैसी अन्य कोई
भी दूसरी वरांगना देवलोक, मर्त्यलोक और रसातल में भी नहीं हुई थी । ऐसी समस्त गुण –
गणों की शोभा से सम्पन्न तीनों कालों में भी नहीं हुई है और
न होगी । वह स्वाभाविक सुन्दर और नीले केशों के भार से शोभित होती है । हे द्विज
श्रेष्ठों ! वह वर्षा ऋतु में मोरनी की भाँति विचित्र केशों के भार से शोभाशालिनी
थी। आरक्त और मलिक तथा कर्णो पर्यन्त अलकों से इन्द्र के धनुष और बाल चन्द्र के
सदृश शोभायमान थी ।
विकसित नीलकमल
के समान श्याम वर्ण से संयुक्त दोनों नेत्र चकित हिरनी के समान चंचल और शोभित हो
रहे थे । हे द्विज श्रेष्ठों ! कानों तक फैली हुई स्वाभाविक चंचलता से संयुक्त परम
सुन्दर दोनों भौहें थीं जो कामदेव के धनुष के सदृश नील थीं। दोनों भौहों के मध्य
भाग से नीचे और निम्न भाग से विस्तृत और उन्नत नासिका थी जो मानों ललाट से तिल के
पुण्य के ही समान लावण्य को द्रवित कर रही थी। उनका मुख रक्तकमल की आभा वाला और
पूर्ण चन्द्र के तुल्य प्रभा से समन्वित था जो बिम्ब फल के सदृश अधरों की
अरुणिमाओं और मनोहर शोभित हो रहा था । सौ सूर्य के समान और लावण्य के गुणों से
परिपूर्ण मुख था । दोनों ओर से चिबुक (ठोड़ी) के समीप पहुँचने के लिए उसके दोनों
कुच मानों समुद्यत हो रहे थे । हे विप्रगणों ! उस सन्ध्या देवी के दोनों स्तवन
राजीव (कमल) की कालिका के समान आकार वाले थे, पीन और उत्तुङ्ग निरन्तर रहने वाले थे । उन कुचों के मुख
श्याम वर्ण के थे जो कि मुनियों के हृदय को भी मोहित करने वाले थे। सभी लोगों ने
कामदेव की शक्ति के तुल्य ही उस सन्ध्या के मध्यभाग को देखा था जिसमें बलियाँ पड़
रही थीं तथा मध्य भाग ऐसा क्षीण था जैसे मुट्ठी में ग्रहण करने के योग्य रेशमी
वस्त्र था ।
उनके दोनों
ऊरुओं का जोड़ा ऐसा शोभायमान हो रहा था जो ऊर्ध्वभाग में स्थूल था और करभ के सदृश
विस्तृत था और थोड़ा झुका हुआ हाथी की सूँड़ के समान था । जो अँगुलियों के दल से
संकुल कुसुमायुध अर्थात् कामदेव के तुल्य ही दिखलाई दे रहा था । उस सुन्दर दर्शन
वाली,
शरीर की रोमावली से आवृत मुख पर जिसके पसीने की बूँदें झलक
रही थीं,
जो दीर्घ नयनों वाली, चारुहास से समन्वित, तन्वी अर्थात् कृश मध्य भाग वाली जिसके दोनों कान परम
सुन्दर थे, तीन स्थलों में गम्भीरता से युक्त तथा छः स्थानों से उन्नत उसको देखकर विधाता
उठकर हृद्गत को चिन्तन करने लगे थे।
वे सृजन करने
वाले दक्ष प्रजापति मानस पुत्र मरीचि आदि सब उस परवर्णिनी को देखकर समत्सुक होकर
चिन्तन करने लगे थे । इस सृष्टि में इसका क्या कर्म होगा अथवा यह किसकी वर-वर्णिनी
होगी। यही वे सभी बड़ी ही उत्सुकता से सोचने लगे थे । हे मुनि सत्तमो ! इस तरह से
चिन्तन करते हुए उन ब्रह्माजी के मन से वल्गु पुरुष आविर्भूत होकर विनिःसृत हो गया
था।
वह पुरुष
सुवर्ण के चूर्ण के समान पीली आभा से संयुक्त था, परिपुष्ट उसका वक्ष स्थल था, सुन्दर नासिका थी, सुन्दर सुडौल ऊरु जंघाओं वाला था,
नील वेष्टित केशर वाला था, उसकी दोनों भौंहें जुड़ी हुई थीं,
चंचल और पूर्ण चन्द्र के सदृश मुख से समन्वित था । कपाट के
तुल्य विशाल हृदय पर रोमावली से शोभित था शुभ्र मातंग की सूँड़ के समान पीन तथा
विस्तृत बाहुओं से संयुक्त था, रक्त हाथ, लोचन, मुख, पाद और करों से उपद्रव वाला था । उस पुरुष का मध्य भाग
क्षीण अर्थात् कृश था, सुन्दर दन्तावली थी वह हाथी के सदृश कन्धरा से समन्वित था ।
विकसित कमल के दलों के समान उनके नेत्र थे तथा केशर घ्राण से तर्पण था,
कम्बू के समान ग्रीवा से युक्त,
मीन के केतु वाला प्राँश और मकर वाहन था । पाँच पुरुषों के
आयुधों वाला, वेगयुक्त और पुष्पों के धनुष से विभूषित था । कटाक्षों के पात के द्वारा दोनों
नेत्रों को भ्रमित करता हुआ परम कान्त था । सुगन्धित वायु से भ्रान्त और श्रृंगार
रस से सेवित इस प्रकार के उस पुरुष को देखकर वे सब मानस पुत्र जिनमें दक्ष
प्रजापति प्रमुख थे, विस्मय से आविष्ट मन वाले होते हुए अत्यधिक उत्सुकता को
प्राप्त हुए थे और मन विकार को प्राप्त हो गया था। वह पुरुष भी जगतों के प्रति और
सृष्टि की रचना करने वाले ब्रह्माजी का अवलोकन करने को विनम्रता से नीचे की ओर
अपनी कन्धरा को झुकाकर प्रणिपात करते हुए बोला।
पुरुष ने कहा-
हे ब्रह्मण ! मैं अब क्या करूँ ? जो भी आप कराना चाहते हो उसी कर्म से मुझे नियोजित कीजिए।
हे विधे ! वह कर्म न्यायोचित होवे जिसके करने से शोभा होती है । हे लोकों के ईश !
क्योंकि आप तो जगतों के सृजन करने वाले हैं। अतएव जो भी योग्य अभिधाम हो,
स्थान हो और जो मेरी स्त्री हो,
वही मेरे लिए दीजिए ।
मार्कण्डेय
मुनि ने कहा- उस महान् आत्मा वाले पुरुष के इस रीति वाले वचन का श्रवण करके अपनी
ही सृष्टि से अत्यन्त विस्मित होकर एक क्षण तक कुछ भी ब्रह्माजी ने नहीं कहा था।
इसके अनन्तर ब्रह्माजी ने अपने मन को सुसंयमित करके और विस्मय का परित्याग करके
उसके कर्म के उद्देश्य को आवाहन करते हुए उस पुरुष से कहा था ।
ब्रह्माजी ने
कहा- इस सुन्दर रूप और पाँच पुष्पों के बाणों द्वारा पुरुषों तथा स्त्रियों को
मोहित करते हुए तुम सनातनी सृष्टि का सृजन करो । न तो देव,
न गन्धर्व, न किन्नर और महोरग, न असुर, न दैत्य, न विद्याधर और न राक्षस, न यक्ष, न पिशाच, न भूत, न विनायक, न गुह्यक अथवा न सिद्ध, न मनुष्य तथा पक्षीगण ये सब तेरे शर के लक्ष्य नहीं होंगे।
जो भी पशु, मृग,
कीट, पतंग और जल में उत्पन्न होने वाले जीव हैं वे सभी जो कि
तेरे शर के लक्ष्य होते हैं वे लक्ष्य नहीं होंगे। मैं अथवा वासुदेव स्थाणु अथवा
पुरुषोत्तम ये सभी तेरे वश में हो जायेंगे। अन्य प्राणीधारियों की तो बात ही क्या
है। तुम प्रच्छन्न रूप वाला होकर सदा जन्तुओं के हृदय में प्रवेश करते हुए स्वयं
सुख को हेतु बनकर सनातनी सृष्टि की रचना करो। सदा ही तेरे पुष्पों के बाण का वह मन
मुख्य लक्ष्य होगा। आप सभी प्राणियों के लिए नित्य ही मद और मोद के करने वाले बनो
। यही तुम्हारे लिए कर्म मैंने कर दिया है जो कि पुनः सृष्टि करने का प्रवर्त्तक
है । अब मैं आपका नाम भी बतलाऊँगा जो कि आपके योग्य ही होगा।
मार्कण्डेय
मुनि ने कहा- इसके अनन्तर यही कहकर सुरश्रेष्ठ मानसों के मुखों का अवलोकन करके
क्षण भर में ही अपने पद्मासन पर उपविष्ट हो गये ।
॥
श्रीकालिकापुराण में कामप्रादुर्भाव वर्णन नामक पहला अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ १ ॥
आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 2
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