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कालिका पुराण अध्याय २
कालिका पुराण अध्याय २ में ब्रह्मा के पुत्र कामदेव के नामकरण, उसके द्वारा ब्रह्मा और उनकी संततियों का मोहन, ब्रह्मा की सन्ध्या के प्रति आकृष्टि तथा ब्रह्मा से अग्निष्वात्त और बर्हिषद नामक पितरों, दक्ष से रति, क्रतु, वशिष्ठ, पुलस्त्य अङ्गिरा से क्रमशः सोमपा, आज्यपा, सुकालिन, हविष्मत् पितरों की उत्पत्ति तथा शिव द्वारा ब्रह्मा की भर्त्सना का वर्णन ५९ श्लोकों में हुआ है।
कालिकापुराणम् द्वितीयोऽध्यायः ब्रह्मामोहवर्णनम्
कालिका पुराण
अध्याय २
Kalika puran chapter 2
कालिकापुराण दूसरा
अध्याय – ॥ब्रह्मा मोह वर्णन॥
अथ कालिका
पुराण अध्याय २
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
ततस्ते मुनयः
सर्वे तदभिप्रायवेदिनः ।
चक्रुस्तदुचितं
नाम मरीच्यत्रिमुखास्तथा ।। १ ।।
मार्कण्डेय
बोले- उसके बाद उन मरीचि, अत्रि आदि मुनियों ने जो उन ब्रह्मा जी के देखने का
अभिप्राय जानते थे, उस पुरुष का उचित नामकरण किया ।।१।।
मुखावलोकनादेव
ज्ञात्वा वृत्तान्तमन्यतः ।
दक्षादयस्तु
स्रष्टारः स्थानं पत्नीञ्च ते ददुः ।।२।।
ब्रह्माजी का
मुख देखने मात्र से ही दक्षादि प्रजापतियों ने सब वृत्तान्त जानकर उस पुरुष को
वासस्थान तथा पत्नी भी प्रदान किया ॥ २ ॥
ततो निश्चित्य
नामानि मरीचिप्रमुखाद्विजाः ।
ऊचुः
सङ्गतमेतस्मै पुरुषाय द्विजोत्तमाः ।।३।।
हे
द्विजोत्तमों! तब मरीचि आदि ब्रह्मपुत्रों ने उस पुरुष के नामों का निश्चय करके
उसके लिये उचित नाम कहा ।। ३ ।।
कालिका पुराण अध्याय २- काम नामकरण
।। ऋषय ऊचुः
।।
यस्मात्
प्रमथ्य चेतस्त्वं जातोऽस्माकं तथा विधेः ।
तस्मान्मन्मथनाम्ना
त्वं लोके ख्यातो भविष्यसि ।।४।।
ऋषि बोले-
चूँकि तुम हमारे तथा विधाता के चित्त को मथकर उत्पन्न हुये हो,
इसलिये तुम संसार में मन्मथ नाम से प्रसिद्ध होओगे ।।४।।
जगत्सु
कामरूपस्त्वं त्वत्समो नहि विद्यते ।
अतस्त्वं काम
नाम्नापि ख्यातो भव मनोभव ॥५॥
हे मन से
उत्पन्न मनोभव! संसार में तुम कामरूप हो, तुम्हारे समान सुन्दर कोई नहीं है । इसलिए तुम काम नाम से
भी प्रसिद्ध होओ ।।५।।
मदनान्मदनाख्यस्त्वं
शम्भोदर्पाच्च दर्पकः ।
तथा कन्दर्प-
नाम्नापि लोके ख्यातो भविष्यसि ॥६ ॥
उल्लासमय होने
से तुम मदन प्रसिद्ध होगे, शम्भु के विक्षोभ कारक होने से दर्पक तथा कन्दर्प नाम से भी
तुम लोक में प्रसिद्ध होगे ॥६॥
त्वदाशुगानां
यद्वीर्यं तद्वीर्यं न भविष्यति ।
वैष्णवानाञ्च
रौद्राणां ब्रह्मास्त्राणाञ्च तादृशम् ।।७।।
तुम्हारे
बाणों का जैसा बल (प्रभाव) होगा वैसा पराक्रम विष्णु,
रुद्र और ब्रह्मा के अस्त्रों का भी नहीं होगा ॥७॥
स्वर्गे
मत्यें च पाताले ब्रह्मलोके सनातनः ।
तव स्थानानि
सर्वाणि सर्वव्यापी भवान् यतः ।
किं
वाचातिविशेषेण सामान्ये नास्ति ते समः ॥८॥
तुम
सर्वव्यापी हो, इसलिए स्वर्ग, मर्त्य, पाताल, ब्रह्मलोक सभी स्थानों पर तुम्हारा शाश्वत स्थान होगा |
अधिक बोलने से क्या ? सामान्य रूप में कौन तुम्हारे समान हो सकता है ?
॥८॥
यत्र यत्र
भवेत्प्राणी शाद्वलास्तरवोऽथवा ।
तत्र तत्र तव
स्थानमस्त्वाब्रह्मस भोदयम् ।।९।।
जहाँ-जहाँ भी
कोई प्राणी, वनस्पति या वृक्ष होंगे वहाँ-वहाँ ब्रह्मसभा आदि तक तुम्हारा स्थान होवे ॥ ९ ॥
दक्षोऽयं भवतः
पत्नीं स्वयं दास्यति शोभनाम् ।
आद्यः
प्रजापतियों हि यथेष्टं पुरुषोत्तम ।।१०।।
हे
पुरुषोत्तम! ये जो प्रथम प्रजापति दक्ष हैं, येही स्वयं तुम्हें इच्छित सुन्दरी पत्नी प्रदान करेंगे ॥
१० ॥
एषा च कन्यका
चारुरूपा ब्रह्ममनोभवा ।
सन्ध्यानामेति
विख्याता सर्वलोके भविष्यति ।। ११ ।।
यह जो ब्रह्मा
के मन से उत्पन्न, सुन्दर रूपवाली कन्या है, यह सब लोकों में सन्ध्या नाम से प्रसिद्ध होगी ॥ ११ ॥
ब्रह्मणो
ध्यायतो यस्मात् सम्यग्जाता वराङ्गना ।
अतः सन्ध्येति
लोकेऽस्मिन्नाम्ना ख्यातिर्भविष्यति ।।१२।।
चूँकि यह
सुन्दरी ब्रह्मा के ध्यान करते समय उत्पन्न हुई है; इसलिए यह इस संसार में 'सन्ध्या' इस नाम से प्रसिद्ध होगी ॥१२॥
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
इत्युक्त्वा
मुनयः सर्वे तूष्णीं तस्थुर्द्विजोत्तमाः ।
अवेक्ष्य
ब्रह्मवदनं विनयावनताः पुरः ।।१३।।
मार्कण्डेय
बोले- हे द्विजोत्तमों ! ऐसा कहकर सब मुनि नम्रतापूर्वक सामने झुककर,
ब्रह्मा का मुख देखते हुये चुप हो गये ॥ १३॥
ततः कामोऽपि
कोदंडमादाय कुसुमोद्भवम् ।
उन्मादनेति
विख्यातं कान्ताभ्रूतुल्य- वेल्लिताम् ।।१४।।
कौसुमानि
तथास्त्राणि पञ्चादाय द्विजोत्तमाः ।
हर्षणं
रोचनाख्यञ्च मोहनं शोषणं तथा ।। १५ ।।
मारणञ्चेति
संज्ञाभिर्मुनिमोहकराण्यपि ।
प्रच्छन्नरूपी
तत्रैव चिन्तयामास निश्चयम् ।। १६ ।।
हे
द्विजोत्तम! तब कामदेव भी उन्मादन नाम से प्रसिद्ध, स्त्री की भौंह के समान कम्पायमान,
पुष्पों का बना हुआ अपना धनुष तथा पुष्पनिर्मित हर्षण,
रोचन, मोहन, शोषण और मारण नामक पाँच आयुधों को,
जो मुनियों का मन मोहने वाले थे,
गुप्तरूप से लेकर वहीं निश्चय पर विचार करने लगा ॥१४- १६ ॥
ब्रह्मणा मम
यत्कार्यं समुद्दिष्टं सनातनम् ।
तदिहैव
करिष्यामि मुनीनां सन्निधौ विधेः ।। १७ ।।
ब्रह्मा जी ने
मेरे लिए जो शाश्वतकार्य निर्दिष्ट किया है, उसे मैं यहीं ब्रह्मा एवं मुनियों के सम्मुख सम्पन्न करूँगा
॥१७॥
तिष्ठन्ति
मुनयश्चात्र स्वयञ्चापि प्रजापतिः ।
एषा सन्ध्या
वरस्त्री च दक्षोऽप्यत्र प्रजापतिः ।। १८ ।।
यहाँ मुनिगण
उपस्थित हैं। स्वयं प्रजापति ब्रह्मा भी उपस्थित हैं। श्रेष्ठ स्त्री यह सन्ध्या
और प्रजापति दक्ष भी उपस्थित हैं ॥ १८ ॥
एते शरव्यभूता
मे भविष्यन्त्यद्य निश्चयम् ।
सन्ध्यापि
ब्रह्मणा प्रोक्तमिदानीमेव तद्वचः ।।१९।।
अहं
विष्णुर्हरश्चापि तवास्त्रवशवर्तिनः ।
किमन्यैर्जन्तुभिरिति
तत्सार्थं करवाण्यहम् ।।२०।।
निश्चय ही ये
सब और सन्ध्या भी आज मेरे बाणों का लक्ष्य बनेगी। अभी ब्रह्मा जो वचन कहा है कि
मैं,
विष्णु और शङ्कर भी तुम्हारे अस्त्र के वशीभूत रहेंगे,
अन्य जन्तुओं की क्या बात है? उस कथन को मैं सार्थक करूंगा ॥१९-२० ॥
॥ मार्कण्डेय
उवाच ।।
इति
सञ्चित्यमनसा निश्चित्य च मनोभवः ।
पुष्पज्यां
पुष्पचापस्य योजयामास मार्गणैः ।। २१ ।।
मार्कण्डेय
बोले- मनोभव कामदेव ने ऐसा मन में निश्चय कर अपने बाणों से अपने पुष्प-धनुष और
पुष्पनिर्मित ज्या (धनुष की डोरी) को सन्नद्ध किया ॥२१॥
आलीढस्थानमासाद्य
धनुराकृष्य यत्नतः ।
चकार वलयाकारं
कामो धन्विवरस्तदा ।। २२।।
तब श्रेष्ठ
धनुर्धर कामदेव ने लक्ष्यवेध की मुद्रा में स्थानग्रहण किया तथा प्रयत्नपूर्वक
धनुष को वलयाकार बनाया ॥२२॥
संहिते तेन
कोदण्डे मारुताश्च सुगन्धयः ।
ववुस्तत्र
मुनिश्रेष्ठाः सम्यगाह्लादकारिणः ।। २३ ।।
हे
मुनिश्रेष्ठों ! उसके द्वारा धनुष को सुसज्जित करते ही अच्छी प्रकार मन को
आह्लादित,
उन्मत्त करने वाली सुगन्धित वायु बहने लगी ॥२३॥
ततस्तानथ
धात्रादीन् सर्वानेव च मानसान् ।
पृथक् पृथक्
पुष्पशरैर्मोहयामास मोहनः ।। २४ ।।
तब उस मोहन
कामदेव ने उन सभी ब्रह्मादि को तथा उनके मानसपुत्रों को अपने पुष्प वाणों से
अलग-अलग मोहित कर दिया ॥ २४॥
ततस्ते मुनयः
सर्वे मोहिताश्चतुराननः ।
मोहितो मनसा
किञ्चिद्विकारं प्रापुरादितः ।।२५।।
तब वे सभी
मुनिगण और स्वयं चतुरानन ब्रह्मा ने भी मोहित होकर कुछ मानसिक विकार को प्राप्त
किया ॥२५॥
सन्ध्यां
सर्वे निरीक्षन्तः सविकाराः मुहुर्मुहुः ।
आसन्प्रवृद्धमदनाः
स्त्रीयस्मान्मदवर्द्धिनी ।।२६।।
विकारग्रस्त
होकर काम से व्यथित होकर वे बार-बार सन्ध्या नामक स्त्री को,
जो मद बढ़ाने वाली थी, देखने लगे॥२६॥
ततः सर्वान् स
मदनो मोहयित्वा पुनः पुनः ।
यथेन्द्रियविकारांस्ते
प्रापुस्तानकरोत्तथा ।। २७।।
तब (मानसिक
विकार* से ग्रस्त हो जाने पर) कामदेव ने उन
सब को बार-बार मोहित करके ऐसा उत्तेजित कर दिया कि उनमें इन्द्रिय विकार भी
उत्पन्न हो गये ॥२७॥
*
यहाँ विकार पहले मन में उत्पन्न होता है, फिर क्रिया में आता है। इस मनोवैज्ञानिक तथ्य का
प्रतिपादन किया गया है।
उदीरितेन्द्रियो
धाता वीक्षाञ्चक्रे यदाप्य ताम् ।
तदैव
ह्यूनपञ्चाशद्भावा जाताः शरीरतः ॥२८॥
विव्वोकाद्यास्तथा
हावाश्चतुःषष्टिकलास्तथा ।
कन्दर्पशरविद्वायाः
सन्ध्याया अभवन् द्विजाः ।। २९ ।।
हे द्विजों !
जब ब्रह्मा उत्थितेन्द्रिय होकर उस मदवर्धिनी सन्ध्या को पाने की इच्छा किये तभी
उनचास भाव, विव्वोकादि हाव तथा ६४ कलायें भी कामबाण से बिंधी हुई सन्ध्या के शरीर से
उत्पन्न हो गयीं ।। २८-२९ ॥
सापि चक्रे
तैर्वीक्ष्यमाणाथ कन्दर्पशरपातजान् ।
मुहुर्मुहुर्भावान्
कटाक्षावरणादिकान् ।। ३० ।।
वह भी कामबाण
से विद्ध उन प्रजापतियों को बार-बार देखती हुई कटाक्षप्रहारादि भावों को प्रकट
करने लगी ॥३०॥
निसर्गसुन्दरी
सन्ध्या तान् भावान् मदनोद्भवान् ।
कुर्वन्त्यतितरां
रेजे स्वर्नदीव तनूर्मिभिः ।। ३१ ।।
वह स्वाभाविक
रूप से सुन्दरी सन्ध्या काम के प्रभाव से उत्पन्न भावों के कारण,
अपनी पतली लहरों से युक्त हो स्वर्ग के सौन्दर्य का भी
तिरस्कार करती हुई शोभायमान हो रही थी ॥ ३१ ॥
अथ भावयुतां
सन्ध्यां वीक्षमाणः प्रजापतिः ।
धर्म्माम्भपूरिततनुः
अभिलाषमथाकरोत् ।।३२।।
इसके बाद
उपर्युक्त भावों से युक्त सन्ध्या को देखकर प्रजापति ब्रह्मा पसीने से भरकर उसकी
अभिलाषा करने लगे ॥३२॥
ततस्ते मुनयः
सर्वे मरीच्यत्रिमुखा अपि ।
दक्षाद्याश्च
द्विजश्रेष्ठाः प्रापुर्वैकारिकेन्द्रियम् ।।३३।।
तब वे सभी
मरीचि,
अत्रि आदि मुनिगण तथा दक्षादि श्रेष्ठ द्विज भी इन्द्रिय
विकार का अनुभव करने लगे ॥३३॥
दृष्ट्वा
तथाविधान् दक्षमरीचिप्रमुखान् विधम् ।
सन्ध्याञ्च
कर्मणि निजे श्रद्दधे मदनस्तदा ॥३४॥
यदिदं
ब्रह्मणा कर्म ममोद्दिष्टं मयापि तत् ।
कर्तुं
शक्यमिति श्रद्धा भावितात्मा भवत्तदा ।। ३५ ।।
तब उस प्रकार
ब्रह्मा,
दक्ष तथा मरीचि आदि एवं सन्ध्या को भी उद्वेलित देखकर
कामदेव ने अपने कर्म की सराहना की कि यदि मेरे द्वारा ब्रह्मा भी इस कर्म में
प्रवृत्त किये जा सकते हैं तब तो मैं कुछ भी कर सकता हूँ । इस आत्मप्रशंसा से वह
भर गया ॥ ३४-३५॥
ततो वियद्गतः
शम्भुर्विधिं दृष्ट्वा तथाविधम् ।
सदक्षान्मानसाञ्चापि
जहासोपजहास च ।। ३६।।
ससाधुवादं
तान् सर्वान् विहस्य च पुनः पुनः ।
उवाचेदं
द्विजश्रेष्ठा लज्जयंस्तान् वृषध्वजः ।। ३७।।
हे
द्विजश्रेष्ठों! तब भगवान् शङ्कर ने दक्षादि मानस पुत्रों सहित ब्रह्मा को उस
प्रकार से लज्जाविहीन अवस्था में देखकर उपहास किया और उन सबको व्यंग्यात्मक
धन्यवाद देते हुये हँसकर, बार-बार लज्जित करते हुये यों बोले- ॥ ३६-३७॥
।। ईश्वर उवाच
।।
अहो ब्रह्मन्
अत्र कथं कामभावाः समुद्गताः ।
दृष्ट्वा
स्वतन्यां नैतद्योग्यं वेदानुसारिणाम् ॥३८॥
भगवान् शिव
बोले- हे ब्रह्मदेव ! आप में अपनी कन्या को देखकर ये काम - भाव कैसे उत्पन्न हो
गये ?
यह आप जैसे वेदविद् के लिए उचित नहीं है ॥ ३८॥
यथा माता तथा
जामिर्यथा जामिस्तथा सुता ।
एष वै
वेदमार्गस्य निश्चयस्त्वन्मुखोत्थितः ।
कथन्तु
काममात्रेण तत्ते विस्मारितं विधे ।। ३९ ।।
हे विधाता!
जैसी माता होती है, वैसी ही जामि (बहन, पुत्रवधू आदि निकट सम्बन्धी स्त्रियाँ) होती हैं। जैसी जामि
होती है वैसी ही पुत्री होती है। यही आपके द्वारा निर्धारित वेदमार्ग है। आपने
अपने ही द्वारा बताये गये इस वेदविधान को काम के प्रभाव से कैसे भुला दिया ? ॥ ३९ ॥
धैर्ये
जागरितं ब्रह्मन् समस्तं चतुरानन ।
कथं क्षुद्रेण
कामेन तत्ते विघटितं विधे ॥४०॥
हे विधाता! हे
चतुरानन! हे ब्रह्मदेव ! जो समस्त जागृत धैर्य था, उसे आपने क्षुद्र काम प्रभाव से क्यों नष्ट कर दिया ?
॥४०॥
एकान्तयोगिनः
कस्मात् सर्वज्ञा दिव्यदर्शनाः ।
कथं
दक्षमरीच्याद्या लोलुपाः स्त्रीषु मानसाः ।।४१।।
सब जानने वाले,
दिव्य-दर्शन वाले, एकान्त योगी, दक्ष, मरीचि आदि, स्त्री के प्रति लोलुपचित्त क्यों हो गये ?
॥ ४१ ॥
कथं कामोऽपि
मन्दात्मा प्राप्तकर्माधुनैव तु ।
युष्मान्
शरव्यान् कृतवानकालज्ञोऽल्पचेतसः ।।४२।।
अभी-अभी अपने
कार्य का निर्धारण होते ही समय का ज्ञान न रखने के कारण इस मन्दबुद्धि काम ने भी
कैसे तुम सबको अपना लक्ष्य बना लिया ? ॥ ४२ ॥
धिगस्तु तं
मुनिश्रेष्ठं यस्य कान्ताजनो हठाद् ।
धैर्यमाकृष्य
लौल्येषु मज्जयत्यपि तन्मनः ॥४३॥
उस मुनिवर को
धिक्कार है, जिसके धैर्य को स्त्रियाँ बलपूर्वक आकर्षित करके,
उसका मन लोलुपता में डुबा देती हैं ॥४३॥
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
इति तस्य वचः
श्रुत्वा लोकेशो गिरिशस्य च ।
व्रीडया
द्विगुणीभूतस्वेदार्द्रा ह्यभवत् क्षणात् ।। ४४ ।।
मार्कण्डेय
बोले- लोकेश (ब्रह्मा) उस गिरीश (शङ्कर) के इस प्रकार के वचन को सुनकर क्षणभर में
लज्जा से दूना पसीने-पसीने हो गये ॥४४॥
ततो
निगृह्यैन्द्रियकं विकारं चतुराननः ।
जिघृक्षुरपि
तत्याज तां सन्ध्यां कामरूपिणीम् ।।४५ ।।
तब ब्रह्मा ने
अपने इन्द्रिय विकार को नियन्त्रित कर, कामरूपिणी सन्ध्या को, उसको ग्रहण करने की इच्छा रखते हुए भी,
छोड़ दिया ॥ ४५ ॥
कालिका पुराण अध्याय २- पितृगणों की उत्पत्ति
तच्छरीरात्तु
धर्माम्भो यत्पपात द्विजोत्तमाः ।
अग्निष्वात्ता
वर्हिषदो जाताः पितृगणास्तथाः ।। ४६ ।।
हे
द्विजोत्तम! उस समय उनके शरीर से जो पसीने की बूँदे गिरीं,
उनसे अग्निष्वात्त तथा बर्हिषद् नामक पितृगण उत्पन्न हुये ॥
४६ ॥
भिन्नाञ्जननिभाः
सर्वे फुल्लराजीवलोचनाः ।
नितान्त यतयः
पुण्याः संसारविमुखाः पराः ।।४७।।
वे सभी अञ्जन
के समान काले वर्ण के, खिले हुए कमल के समान नेत्र वाले,
अत्यन्त नियन्त्रित चित्त, पवित्र, संसार से विमुख एवं श्रेष्ठ थे ॥४७॥
सहस्राणां
चतुः षष्टिरग्निष्वात्ताः प्रकीर्तिताः ।
षडशीतिसहस्राणि
तथा वर्हिषदो द्विजाः ।।४८ ।।
हे द्विजों !
अग्निष्वात्त पितृगण चौसठ हजार तथा बर्हिषद् पितृगण छियासी हजार बताये गये हैं ॥४८
॥
कालिका पुराण
अध्याय २- रति जन्म
घर्माम्भः
पतितं भूमौ यद्दक्षस्य शरीरतः ।
समस्तगुणसम्पन्ना
तस्माज्जाता वराङ्गना ।। ४९ ।।
दक्ष प्रजापति
के शरीर से जो पसीने की बूँदें पृथ्वी पर गिरीं, उनसे समस्त गुणों से युक्त श्रेष्ठ अङ्गों वाली एक सुन्दरी
उत्पन्न हुई ॥ ४९ ॥
तन्वङ्गी
तनुमध्या च तनुमावली शुभा ।
मृदङ्गी
चारुदशना तप्तकाञ्चनसुप्रभा ।।५०।।
वह पतले
अङ्गों,
पतली कटि तथा हल्की रोमावली जैसे शुभ लक्षणों से युक्त,
कोमल अङ्गों वाली, सुन्दर दाँत तथा तपे हुए सोने की आभा वाली थी ॥५०॥
मरीचिप्रमुखैः
षड्भिर्निगृहीतेन्द्रियक्रिया ।
ऋते क्रतुं
वशिष्ठञ्च पुलस्त्याङ्गिरसौ तदा ।। ५१ ।।
तब क्रतु,
वशिष्ठ, पुलस्त्य, अङ्गिरा के अतिरिक्त मरीचि आदि छः प्रजापतियों ने
इन्द्रियनिग्रह का आश्रय लिया ॥५१॥
क्रत्वादीनां
चतुर्णाञ्च यो भूमौ निपपात ह ।
तेभ्यः
पितृगणा जाता अपरे द्विजसत्तमाः ।। ५२ ।।
सोमपा आज्यपा
नाम्ना तथैवान्ये सुकालिनः ।
हविर्भुजस्तु
ते सर्वे कव्यवाहाः प्रकीर्तिताः ।।५३ ।।
हे
द्विजवर्यो! क्रतु आदि चार प्रजापतियों के शरीर से जो स्वेद - विन्दु भूमि पर गिरे
उनसे (अग्निष्वात्त और बर्हिषद्गणों के अतिरिक्त) अन्य पितृगण उत्पन्न हुये। वे
सोमपा,
आज्यपा, सुकालिन् तथा हविर्भुक् नाम के थे,
वे सभी कव्यवाह कहे गये हैं ।। ५२-५३॥
क्रतोस्तु
सोमपाः पुत्रा वसिष्ठस्य सुकालिनः ।
आज्यपाख्याः
पुलस्त्यस्य हविष्मन्तोऽङ्गिरः सुताः ।। ५४ ।।
क्रतु के
सोमपा (सोमरस का पान करने वाले) वशिष्ठ के सुकालिन्, पुलस्त्य आज्यपा (घी पीने वाले ) तथा अङ्गिरा के हविष्मत्त
(हविष्य भुक्) पितृगण, पुत्ररूप में उत्पन्न हुये ॥ ५४ ॥
जातेषु तेषु
विप्रेन्द्रा अग्निष्वात्तादिकेष्वथ ।
लोकानां
पितृवर्गेषु कव्यवाहाः समन्ततः ।। ५५।।
सर्वेषामेव
भूतानां ब्रह्माभूतः पितामहः ।
सन्ध्या
पितृप्रसूर्भूता तदुद्देशाद्यतोऽभवत् ।। ५६ ।।
हे
विप्रश्रेष्ठों! पितृगणों में कव्यवाह (सोमपा, आज्यपा, सुकालिन् और हविर्भुक्) तथा अग्निष्वात्तादि पितरों की
उत्पत्ति के पश्चात् ब्रह्मा संसार के सभी प्राणियों के उत्पन्नकर्ता,
पितामह (दादा) हुये। ये पितृगण उसी को उद्देश्य कर उत्पन्न
स्वेद के विन्दु से जन्म लिये थे; इसलिए सन्ध्या पितृगणों की जननी (माता) हुई ।। ५५-५६ ॥
अथ
शङ्करवाक्येन लज्जित: स पितामहः ।
कन्दर्पाय
चुकोपाशु भ्रुकुटीकुटिलाननः ।। ५७ ।।
इसके बाद शङ्कर
के वचनों से लज्जित ब्रह्मा ने कामदेव के प्रति क्रोध प्रकट किया,
जिससे उनकी भौंहे एवं मुखमण्डल टेढ़े पड़ गये ॥ ५७ ॥
पुरैव
तदभिप्रायं विदित्वा सोऽपि मन्मथः ।
स्वबाणान्
सञ्जहाराशु भीतः पशुपतेर्विधेः ।। ५८ ।।
उस मन्मथ
कामदेव ने ब्रह्मा के उस अभिप्राय को पहले ही जानकर भयवश अपने बाणों को शीघ्र ही
भगवान् शङ्कर एवं ब्रह्मा पर छोड़ दिया ॥ ५८ ॥
ततः
क्रोधसमाविष्टो ब्रह्मा लोक- पितामहः ।
यच्चकार
द्विजेन्द्रास्तच्छृणुध्वं सुसमाहिताः ।। ५९ ।।
हे द्विजवरों!
तब लोक पितामह ब्रह्मा ने क्रोध से भरकर जो कुछ किया,
उसे भलीभाँति समाहितचित्त से तन्मयतापूर्वक आप सब सुनिये
॥५९॥
॥
श्रीकालिकापुराणे ब्रह्मामोहनो नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥
कालिका पुराण
अध्याय २- संक्षिप्त कथानक
मार्कण्डेय
मुनि ने कहा- इसके अनन्तर उनके अभिप्राय के ज्ञान रखने वाले सब मुनिगण उस समय में
उचित मरीच अत्रि प्रमुखों में नाम रखा था। सृष्टि के सृजन करने वाले दक्ष प्रभृति
ने मुख के अवलोकन से ही अन्य सारे वृत्तान्त का ज्ञान प्राप्त करके उन्होंने स्थान
और पत्नियों को दे दिया था ।
ऋषियों ने
कहा- तुम हमारे विधाता के चित्त का प्रमथन करके समुत्पन्न हुए हो अतएव तुम मन्थन
नाम से ही लोक में विख्यात होओगे । जगती में तुम कामरूप हो और ऐसा तुम्हारे समान
अन्य कोई भी नहीं है । अतएव हे मनोभव ! तुम काम नाम से भी जाने जाओ । मदन करने से
तुम मदन नाम वाले भी हो और दर्प से शम्भू भगवान् के कंदर्प हो इसलिए तुम लोक में
कन्दर्प नाम भी प्रसिद्ध होओगे । तुम्हारे बाणों का जो पराक्रम है,
ब्रह्मास्त्रों का भी उस प्रकार का नहीं होगा।
स्वर्ग में,
मृत्युलोक में, पाताल में और सनातन ब्रह्मलोक में तुम्हारे सभी स्थान हैं
क्योंकि आप सर्वव्यापी हैं । यह दक्ष आपको पत्नी को स्वयं ही देगा जो कि परम शोभना
है । हे पुरुषोत्तम! जो यह आदि में होने वाला यथेष्ट प्रजापति है और यह कन्या
ब्रह्माजी के मन से समुत्पन्न शमरूपा है जो सन्ध्या नाम से सभी लोक में विख्यात
होगी । क्योंकि ध्यान करते हुए ब्रह्मा जी से भली-भाँति यह वरांगना समुत्पन्न हुई
है इसलिए इस लोक में ‘सन्ध्या‘ इस नाम से इसकी ख्याति होगी।
मार्कण्डेय
मुनि ने कहा- हे द्विजोत्तमो ! यह कहकर सब मुनिगण चुप होकर संस्थित हो गये थे ।
उन्होंने ब्रह्माजी मुख का अवेक्षण किया और उनके ही समक्ष में विनय से अवनत होकर
स्थित हो गए थे । इसके अनन्तर कामदेव भी कुसुमों से उद्भूत अपने दण्ड (धनुष) को
ग्रहण करके कान्ता के भुवों के सदृश वेल्लित वह धनुष था तथा वह उन्मादन,
इस नाम से विख्यात हो गया था ।
हे
द्विजोत्तमो ! उसने उसी भाँति पाँचों कुसुमों से विनिर्मित अस्त्रों को ग्रहण किया
था जिनके निम्नांकित नाम हैं-हर्षण, रोचन, मोहन, शोषण और मरण । इन संज्ञा वाले वे बाण या अस्त्र हैं जो
मुनियों के भी मन में मोह उत्पन्न कर देने वाले हैं । उस कामदेव ने जो कि
प्रच्छन्न स्वरूप से संयुत था वहीं पर निश्चय के विषय में सोचने लगा था। यहां पर
मुनिगण संस्थित हैं तथा स्वयं प्रजापति भी हैं । वे सब आज मेरे शरव्य भूत होंगे,
यह निश्चित है। मैं भगवान् विष्णु और योगिराज भगवान् शम्भु
भी तुम्हारे अस्त्रों के वशवर्ती होंगे । अन्य साधारण जन्तुओं की तो बात ही क्या
है,
ऐसा जो कहा था मैं सार्थक करूँ ।
मार्कण्डेय
मुनि ने कहा- कामदेव ने यह मन से सोचकर और निश्चय करके पुष्पों के धनुष की पुष्पों
की ज्या (धनुष की डोरी) कणों के द्वारा योजित किया था। उस समय में आलीढ़ स्थान को
प्राप्त करके तथा अपने धनुष को खींचकर धनुषधारियों में परमनिपुण कामदेव ने
यत्नपूर्वक उसे वलय के आकार वाला कर लिया था । हे मुनिश्रेष्ठों ! उस कामदेव के
द्वारा कोदण्ड ( धनुष को ) सहित करने पर भली-भाँति आह्लाद के उत्पन्न करने वाली
सुगन्धित वायु बहने लगी थी। इसके अनन्तर मोह कर देने वाले कामदेव ने उन घात आदि को
और सभी मनुष्यों को पृथक् पृथक् पुष्पों के शरों से मोहित हो गए और मन के द्वारा
कुछ विकार को प्राप्त हो गए थे। सभी सन्ध्या को निरीक्षण करते हुए बारम्बार
विकारयुक्त मन वाले हो गये थे क्योंकि स्त्री तो मद के वर्द्धन करने वाली होती ही
है अतः सब बढ़े हुए मदन वाले अर्थात् अधिक सकाम हो गए थे। फिर उस मदन अर्थात् कामदेव
ने पुनः सबको मोहित कराके तथा उन सबको ऐसा कर दिया था कि वे सब इन्द्रियों के
विकारों को प्राप्त हो गए थे। जिस समय में उदीरित इन्द्रियों वाले विधाता ने उसको
दीक्षा दी थी उसी समय में उनचास भाव शरीर से समुत्पन्न हो गए थे ।
हे द्विजो !
विव्वोक आदि हाव-भाव तथा चौंसठ कलायें कन्दर्प (कामदेव ) के शिरों से विंधी हुई
सन्ध्या के हो गये थे । उन सबके द्वारा देखी गई वह भी कन्दर्प के शरों के पात से
समुत्पन्न कटाक्ष आवरण आदि भावों को बारम्बार करने लगी थी । स्वाभाविक रूप से परम
सौन्दर्यशालिनी सन्ध्या मदन के द्वारा उद्भूत उन भावों को करती हुई तनु ऊर्भियों
के द्वारा स्वर्ग की नदी (गंगा) की भाँति अत्यधिक शोभायमान हो रही थी। इसके अनन्तर
भावों में समन्वित उस सन्ध्या को देखते हुई प्रजापति धर्माम्म अर्थात् पसीने से
परिपूर्ण शरीर वाले होकर उन्होंने भी अभिलाषा की थी। तात्पर्य यह है उनके शरीर में
पसीना आ गया और उनकी भी इच्छा हुई थी।
ईश्वर ने कहा-
-हे ब्राह्मण ! बड़े आश्चर्य की बात है आपको यह कामभाव कैसे उत्पन्न हो गया जो कि
अपनी पुत्री को ही देखकर काम के वशीभूत हो गये हैं । यह तो वेदों के अनुसरण करने
वालों के लिए योग्य नहीं है । आपके ही मुख से कहा हुआ वेदों के मार्ग का निश्चय है
कि जैसी माता होती है वैसी ही जामि होती है और जैसी जामि होती है वैसी ही सुता हुआ
करती है । हे विधे ! हे ब्राह्मण ! हे चतुरानन ! यह समस्त जगत् धर्म में ही है और
कैसे इस क्षुद्रकाम के द्वारा यह सब विघटित कर दिया है ?
एकान्त योगी
सर्वदा दिव्य दर्शन वाले, किस कारण से और कैसे दक्ष मरीचि आदि मानस पुत्र स्त्रियों
में लोलुप हो गये थे ? मन्द आत्मा वाला और अभी कर्म को प्राप्त करने को उद्यत हुआ
कामदेव भी कैसा अल्प बुद्धि वाला है और समय को नहीं जानता है कि उसने आप लोगों को
ही अपने शरों का लक्ष्य बना डाला है। हे मुनिश्रेष्ठ ! उसके लिए धिक्कार है जिसकी
कान्तागण हठपूर्वक धैर्य का आकर्षण करके चंचलताओं में उसके मन को मज्जित कर दिया
करती है।
मार्कण्डेय
मुनि ने कहा- उन गिरीश भगवान् के इस वचन को श्रवण करके लोकों के ईश लज्जा से एक ही
क्षण में दुगुने पसीने से भीगे हुए हो गए थे । इसके उपरान्त चतुरानन ब्रह्माजी ने
इन्द्रियसम्बन्धी विकार को निगृहीत करके ग्रहण करने की इच्छा समन्वित होते हुए भी
उस कामरूप वाली सन्ध्या का परित्याग कर दिया था ।
हे
द्विजश्रेष्ठो ! उसके शरीर से जो पसीना गिरा था उससे अग्निष्वात वर्हिषद पितृगण
समुत्पन्न हुए थे। ये सब भिन्न हुए अंजन के सदृश थे और विकसित कमल के समान इनके
नेत्र थे । ये अत्यन्त अधिक यति, परमपवित्र तथा संसार से परमाधिक विमुख हुए थे ।
अग्निष्वात
चौसठ सहस्र कीर्त्तित किए गए हैं । हे द्विजगणों ! छियासी हजार वर्हिषद बताए गए
हैं । दक्ष के शरीर से जो पसीना भूमि पर गिरा था उससे सम्पूर्ण गुणों से सुसम्पन्न
वरांगनायें उत्पन्न हुई थीं। वे वरांगनायें तन्वंगी, क्षीण मध्यभाग वाली और परम शुभ शरीर की रोमावली संयुत थीं
जिनका अंग अत्यधिक कोमल था तथा परम सुन्दर दर्शन पंक्तियाँ थीं और तपे हुए सुवर्ण
के ही तुत्य उनके शरीर की रोमावली संयुत थीं और तपे हुए स्वर्ण के ही तुल्य ही
उनके शरीर की कान्ति थी ।
मरीचि उनमें
प्रधान थे ऐसे छः मुनियों ने अपनी इन्द्रियों की क्रिया को निगृहीत कर लिया था ।
उस समय क्रतु, वशिष्ठ, पुलस्त्य और अंगिरस के आदि चारों का जो प्रस्वेद भूमि पर गिरा था उससे हे
द्विजश्रेष्ठो ! दूसरे पितृगण समुत्पन्न हुए थे। वह सीमय,
आज्पय नाम से तथा अन्य सुकाती थी । वे सभी हविर्भुक् थे जो
कव्य वाह प्रकीर्त्तित हुए थे । सोमष जो थे वे ऋतु पुत्र थे,
सुकालिन वशिष्ठ मुनि के पुत्र हुए थे । जो आडप नामक थे,
वे पुलस्त्य मुनि के पुत्र थे और हविष्मन्त अंगिरा मुनि के
सुत हुए थे।
हे
विपेन्द्रों ! उन अग्निष्वातादिक के उत्पन्न हो जाने पर इसके अनन्तर लोकों के पितृ
वर्गों में सब ओर कव्यवाह थे । समस्त प्राणियों के ब्रह्माजी ही पितामह हुए थे और
सन्ध्या ही पितृ प्रसूता हुई थी क्योंकि सब उसके ही उद्देश्य से हुआ था । इसके
अनन्तर भगवान् शंकर के वचन से वह पितामह बहुत लज्जित हुए थे और शीघ्र ही कुंठित
किए हुए मुख से संयुत ब्रह्माजी कामदेव के ऊपर अत्यन्त कुपित हो गए थे । वह कामदेव
भी पहले ही उनके अभिप्राय का ज्ञान प्राप्त करके उसने पशुपति विधि से डरे हुए ने
शीघ्र ही अपने बाण को समेट लिया था । हे द्विजेन्द्रो ! इसके अनन्तर लोगों के
पितामह ब्रह्माजी ने अत्यन्त क्रोध में आवष्टि होकर जो कुछ भी किया था उसका आप लोग
परम सावधान होकर अब श्रवण कीजिए ।
॥
श्रीकालिकापुराण में ब्रह्मामोह नामक दूसरा अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ २ ॥
आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 3
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