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कालिका पुराण अध्याय ६
कालिका पुराण अध्याय ६
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अथ कालिका
पुराण अध्याय ६
।। देव्युवाच
।।
यदुक्तं भवता
ब्रह्मन् समस्तं सत्यमेव तत् ।
मोहयित्रीह
शङ्करस्य न विद्यते ॥ १ ॥
देवी बोलीं-
हे ब्रह्मदेव! आपने जो कहा वह सत्य ही है; क्योंकि मेरे अतिरिक्त इस संसार में शङ्कर को मोहित करने
वाली कोई दूसरी नहीं है ॥ १॥
हरे गृहीतदारे
तु सृष्टिषा सनातनी ।
भविष्यतीति
तत् सत्यं भवता प्रतिपादितम् ।।२।।
शिव के द्वारा
दारग्रहण न करने पर यह सनातनी सृष्टि नहीं हो सकेगी, यह भी आपके द्वारा सत्य ही प्रतिपादित किया गया है ॥२॥
मयापि च महान्
यत्नो विद्यतेऽस्य जगत्पतेः ।
त्वद्वाक्याद्विगुणो
मेऽद्य प्रयत्नोऽभूत् सुनिर्भरः ।। ३।।
मेरे द्वारा
भी जगत्पति शिव के मोहन के लिए महान् यत्न किया गया था,
किन्तु आज आपके वाक्यों के कारण मेरा यह प्रयत्न दुगुना
सुनिश्चित हो गया है ॥३॥
अहं तथा
यतिष्यामि यथा दारपरिग्रहम् ।
हर:
करिष्यत्यवशः स्वयमेव विमोहितः ।।४।।
मैं भी ऐसा ही
उपाय करूंगी जिससे स्वयं ही मोहित होकर विवश भगवान् शङ्कर दारपरिग्रहण करेंगे॥४॥
चावीं
मूर्तिमहं धृत्वा तस्यैव वशवर्तिनी ।
भविष्यामि
महाभाग यथा विष्णोर्हरिप्रिया ॥५॥
हे महाभाग !
मैं सुन्दर रूप धारण कर उनकी वशीभूत होकर उसी प्रकार रहूँगी,
जिस प्रकार लक्ष्मी विष्णु के साथ रहती हैं ॥५॥
यथा सोऽपि
ममैवेह वशवर्ती सदा भवेत् ।
तथा चाहं करिष्यामि
यथेतरजनं हरम् ॥६॥
मैं वैसा ही
प्रयत्न करूँगी, जिससे वे शिव भी सदैव सामान्य मनुष्यों की भाँति मेरे ही वश में रहें ॥६ ॥
प्रतिसर्गादि
मध्यं तमहं शम्भुं निराकुलम् ।
स्त्रीरूपेणानुयास्यामि
विशेषेणान्यतो विधे ॥७॥
हे विधाता!
प्रति सर्गादि कार्यों के बीच मैं उन शान्तचित्त भगवान् शङ्कर का स्त्रीरूप से
अनुगमन करूँगी । अन्यों की अपेक्षा मैं उनकी विशेष सहायिका होऊँगी ॥७॥
उत्पन्ना
दक्षजायायां चारुरूपेण शङ्करम् ।
अहं सभाजयिष्यामि
प्रतिसर्ग पितामह ॥८॥
हे पितामह!
मैं अपने सुन्दर रूप में दक्षपत्नी के गर्भ से उत्पन्न होकर शङ्कर के प्रतिसर्ग
(प्रलय) कार्य में सहभागिनी बनूँगी ॥८॥
ततस्तु
योगनिद्रां मां विष्णुमायां जगन्मयीम् ।
शङ्कत
वदिष्यन्ति रुद्राणीति दिवौकसः ।।९।।
तब देवतागण
मुझे योगनिद्रा, विष्णुमाया, जगन्मयी, शङ्करी, रुद्राणी, ऐसा सम्बोधित करेंगे ॥९॥
उत्पन्नमात्रं
सततं मोहये प्राणिनं यथा ।
तथा
सन्मोहयिष्यामि शङ्करं प्रमथाधिपम् ।। १० ।।
जिस प्रकार से
निरन्तर प्राणियों को उत्पन्न होते ही मोह लेती हूँ, उसी प्रकार प्रमथगणों के स्वामी भगवान् शङ्कर को भी मोहित
कर लूँगी ॥ १० ॥
यथान्यजन्तुरवनौ वर्तते वनितावशे ।
ततोऽप्यति हरो वामावशवर्ती भविष्यति ।। ११ ।।
जिस प्रकार
पृथ्वी पर अन्य प्राणी पत्नी के वशीभूत रहते हैं, उससे भी अधिक शङ्कर अपनी पत्नी के वशवर्ती होंगे॥११॥
विभिद्य भुवनाधीनां लीनां स्वहृदयान्तरे ।
यां विद्याञ्च महादेवो मोहात् प्रतिग्रहीष्यति ।।१२।।
जिसने प्रवेश
कर भुवन को अधीन कर लिया है, जो उनके हृदय में ही लीन रहती है,
महादेव मुझ उसी विद्या (काली) का मोहवश प्रतिग्रह करेंगे ॥
१२॥
।। मार्कण्डेय उवाच । ।
इति तस्मै समाभाष्य ब्रह्मणे द्विजसत्तमाः ।
वीक्ष्यमाणा जगत्स्रष्ट्रा तत्रैवान्तर्दधे ततः ।। १३ ।।
मार्कण्डेय
बोले- हे द्विजसत्तमों! ऐसा उन ब्रह्मा जी से कहकर जगत्स्रष्टा ब्रह्मा के देखते
ही देखते देवी वहीं अन्तर्हित हो गईं ॥ १३ ॥
तस्यामन्तर्हितायान्तु
धाता लोक - पितामहः ।
जगाम तत्र भगवान्
स्थितो यत्र मनोभवः ।। १४ ।।
उनके
अन्तर्हित हो जाने पर लोक पितामह ब्रह्मा, जहाँ भगवान् कामदेव स्थित थे, वहाँ गये ॥१४॥
मुदितोऽत्यर्थमभवन्महामायावचः
स्मरन् ।
कृतकृत्यं
तदात्मानं मेने च मुनिपुङ्गवाः ।। १५ ।।
हे
मुनिपुङ्गवों ! महामाया के वचनों का स्मरण करते हुये वे बहुत प्रसन्न और उन्होंने
उस समय अपने को कृतकृत्य समझा ।। १५ ।।
अथ दृष्ट्वा
महात्मानं विरञ्चि मदनस्तथा ।
गच्छन्तं
हंसयानेन चाभ्युत्तस्थौ त्वरान्वितः ।।१६।।
इसके बाद
कामदेव हंसयान से महात्मा ब्रह्मा को आते देखकर शीघ्रता से उठ खड़ा हुआ ॥ १६॥
आसनं
तमथासाद्य हर्षोत्फुल्लविलोचनः ।
ववन्दे सर्वलोकेशं
मोदयुक्तं मनोभवः ।।१७।।
उनके निकट
पहुँचकर कामदेव ने प्रसन्न होकर हर्षोत्फुल्ल नेत्र से सभी लोकों के स्वामी
ब्रह्मा को प्रणाम किया ॥ १७ ॥
अथाह भगवान्
धाता प्रीत्या मधुरगद्गदम् ।
मदनं मोदयन्
सूक्तं यद् देव्या विष्णुमायया ।। १८ ।।
इसके बाद
भगवान् ब्रह्मा ने प्रसन्नतापूर्वक मधुर एवं गद्गद् वाणी में देवी विष्णुमाया
द्वारा जो सुन्दर वचन कहे गये थे, उन्हें कामदेव को प्रसन्न करते हुए सुनाया॥१८॥
।। ब्रह्मोवाच
।।
यदाह वत्स
शर्वस्य मोहने त्वं पुरा वचः ।
अनुमोहनकर्त्री
या तां सृजेति मनोभव ।।१९।।
ब्रह्मा बोले-
हे वत्स कामदेव ! तुमने शङ्कर को मोहित करने के लिए पहले जो कहा था कि उनका
अनुमोहन आकर्षण जो कर सके ऐसी स्त्री की सृष्टि कीजिए ॥ १९ ॥
तदर्थं
संस्तुता देवी योगनिद्रा जगन्मयी ।
एकतातेन मनसा मया
मन्दरकन्दरे ।। २० ।।
उस निमित्त
मेरे द्वारा मन्दराचल की कन्दरा में रहकर नितान्त ध्यानपूर्वक मानसिकरूप से
जगन्मयी योगनिद्रा देवी का स्तवन किया गया ॥
२० ॥
स्वयमेव तया
वत्स प्रत्यक्षीभूतया मम ।
तुष्टयाङ्गीकृतं
शम्भुर्मोनीयो मयेति वै ।। २१ ।।
हे वत्स!
स्वयं ही मेरे सामने प्रत्यक्ष रूप से उपस्थित हो, संस्तुष्ट हो उसके द्वारा यह स्वीकार किया गया है कि शङ्कर
मेरे (उसके) द्वारा ही मोहित किये जा सकते हैं ॥ २१ ॥
तया च
दक्षभवने स समुत्पन्नया हरः ।
मोहनीयस्तु न
चिरादिति सत्यं मनोभव ।। २२ ।।
हे कामदेव !
उसके द्वारा दक्ष गृह में उत्पन्न होकर शङ्कर के सम्मोहन का शीघ्र प्रयत्न किया
जायेगा। यह सत्य समझो ॥ २२ ॥
।। मदन उवाच
।।
ब्रह्मन् का
योगनिद्रेति विख्याता या जगन्मयी ।
कथं तस्या हरो
वश्यः कार्यस्तपसि संस्थितः ।। २३ ।।
कामदेव बोले-
हे ब्रह्मदेव ! जो जगन्मयी योगनिद्रा नाम से प्रसिद्ध हैं वे कौन हैं?
तपस्या कार्य में भलीभाँति लगे हुए शिव कैसे उनके वशीभूत हो
सकते हैं ? ॥२४॥
किम्प्रभावाथ
सा देवी का वा सा कुत्र संस्थिता ।
तदहं श्रोतुमिच्छामि
त्वत्तो लोकपितामह ।। २४ ।।
वह देवी कैसी
प्रभाव वाली हैं? वह कौन हैं? कहाँ रहती हैं? हे लोक के पितामह! वह सब आपसे जानना चाहता हूँ॥२४॥
यस्य
त्यक्तसमाधेस्तु न क्षणं दृष्टिगोचरे ।
शक्नुमोऽपि
वयं स्थातुं तं कस्मात् सा विमोहयेत् ।। २५ ।।
जिस शिव के
समाधि छोड़ने पर हम सब क्षण भर भी उनके दृष्टिपथ में स्थिर नहीं रह सकते,
उन्हें वे कैसे विमोहित करेंगी ?
॥२५॥
ज्वलदग्निप्रकाशाक्षं
जटाराजिकरालितम् ।
शूलिनं
वीक्ष्य कः स्थातुं ब्रह्मन् शक्नोति तत्पुरः ।। २६ ।।
हे ब्रह्मन् !
जलती हुई अग्नि के समान प्रकाशित नेत्रों वाले, जटाओं से भयानक, शूलधारी शङ्कर को देखकर, उनके सन्मुख कौन टिक सकता है ?
॥२६॥
तस्य
तादृक्स्वरूपस्य सम्यङ्मोहनवाञ्छया ।
मयाभ्युपेतं
तां श्रोतुमहमिच्छामि तत्त्वतः ।। २७ ।।
मेरे द्वारा
स्वीकृत कार्य और उनके उस स्वरूप को मोहित करने की इच्छा रखने वाली,
उस देवी के विषय में मैं तात्त्विक रूप से जानना चाहता हूँ
॥ २७ ॥
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
मनोभवस्य वचनं
श्रुत्वाथ चतुराननः ।
विवक्षुरपि
तद्वाक्यं श्रुत्वानुत्साहकारणम् ।। २८ ।।
शर्वस्य मोहने
ब्रह्मा चिन्ताविष्टोऽभवन्नहि ।
समर्थो
मोहयितुमिति निशश्वास मुहुर्मुहुः ।। २९ ।।
मार्कण्डेय बोले-
कामदेव के उन अनुत्साहकारी वचनों को सुनकर बोलेने की इच्छा रखते हुए चतुर्मुख
ब्रह्मा,
शिव के मोहित करने के सम्बन्ध में चिन्तातुर नहीं हुये।
मोहित करने में समर्थ है ऐसा कहकर वे बारबार लम्बी साँस,
निःस्वास लेने लगे ।।२८-२९ ॥
कालिका पुराण अध्याय ६-मारगणों की उत्पत्ति
निःश्वासमारुतात्तस्य
नानारूपा: महाबलाः ।
जाता गणा
लोलजिह्वा लोलाश्चाति भयङ्कराः ॥३० ॥
उनके निःश्वास
की वायु से अनेक रूपों वाले, महान् बलशाली, चञ्चल-जिह्वा वाले तथा चञ्चल स्वभाव वाले,
अत्यन्त भयानक गण उत्पन्न हुये ॥ ३० ॥
तुरङ्गवदनाः केचित्
केचिद्गजमुखास्तथा ।
सिंहव्याघ्रमुखाश्चान्ये
श्ववराहखराननाः ।। ३१ ।।
ऋक्षमार्जारवदनाः
शरभास्याः शुकाननाः ।
प्लवगोमायु -
वक्त्राश्च सरीसृपमुखाः परे ।।३२।।
उनमें से कोई
घोड़े,
तो कोई हाथी, अन्य सिंह, बाघ, कुत्ता, सुअर तथा समान मुख वाले थे। दूसरे भालू,
बिल्ली, शरभ, तोता, प्लव (भेंड़), गीदड़ और सरीसृप के समान मुखों वाले थे ।। ३१-३२।।
गोरूपा
गोमुखाः केचित्तथा पक्षिमुखाः परे ।
महादीर्घा
महाह्रस्वा महास्थूला महाकृशाः ।।३३।
पिंगाक्षा
विडालाक्षाश्च त्र्यक्षैकाक्षा महोदराः ।
एककर्णास्त्रिकर्णाश्च
चतुष्कर्णास्तथा परे ।। ३४ ।।
स्थूलकर्णा
महाकर्णा बहुकर्णा विकर्णकाः ।
दीर्घाक्षाः
स्थूलनेत्राश्च सूक्ष्मनेत्रा विदृष्टयः ।।३५।।
साथ ही उनमें
से कुछ गाय के रूप एवं मुख वाले थे तो दूसरे पक्षियों के रूप वाले थे । उनमें से
कोई बहुत लम्बे थे तो कोई बहुत छोटे, कोई बहुत मोटे थे तो कोई बहुत दुबले । किन्हीं के नेत्र
पीले थे,
किन्हीं के बिल्ले के समान। किन्हीं के तीन नेत्र थे तो
किन्हीं के एक ही । उनके पेट विशाल थे। वे एक कान, तीन कान, चार कान वाले, अन्य मोटे कान, बड़े कान, बहुत से कान या बिना कान वाले भी थे । उनमें से किन्हीं के
लम्बे नेत्र थे, किन्हीं के विशाल नेत्र थे, तो किन्हीं के छोटे, तो कोई नेत्रहीन ही था ।। ३३-३५।।
चतुष्पादाः
पञ्चपादास्त्रिपादैकपदास्तथा ।
ह्रस्वपादा दीर्घपादाः
स्थूलपादा महापदाः ।। ३६ ।।
एकहस्ताश्चतुर्हस्ता
द्विहस्तास्त्रिशयास्तथा ।
विहस्ताश्च विरूपाक्षा
गोधिकाकृतयः परे ।। ३७।।
किन्हीं के
चार पैर थे, किन्हीं के पाँच, तीन या एक पैर ही थे। कोई छोटे पैर वाले थे,
कोई लम्बे पैर, कोई मोटे पैर वाले थे, कोई बड़े पैर वाले। इसी प्रकार कोई एक हाथ वाले,
कोई चार, दो या तीन हाथ वाले थे। उनमें कोई बिना हाथ वाले थे,
तो कोई भद्दी आँखों वाले थे। दूसरे गोह के आकार वाले थे ।।
३६-३७॥
मनुष्याकृतयः
केचिच्छिशुमारमुखास्तथा ।
क्रौञ्चाकारा
वकाकारा हंससारसरूपिणः ।
तथैव
मद्गुकुरर- कंककाकमुखास्तथा ।। ३८ ।।
कोई मनुष्य की
आकृति वाले थे, कोई सूइँस के मुख वाले । कोई क्रौंच, बगुला, हंस, सारस आदि की मुखाकृति वाले थे तथा कोई मुद्गु (जलकाक ),
कुररी, कंक और कौवे के समान मुख वाले भी थे ।। ३८ ।।
अर्द्धनीला
अर्द्धरक्ताः कपिलाः पिङ्गलास्तथा ।
नीलाः
शुक्लास्तथा पीता हरिताश्चित्ररूपिणः ।। ३९ ।।
कोई आधे नीले,
आधे लाल, कोई भूरे, कोई लालिमायुक्त पीले तथा कोई नीले,
सफेद, पीले, हरे रंग के थे, तो कोई रंग-बिरंगे रूप वाले थे ॥ ३९॥
अवादयन्त ते
शङ्खान् पटहान् परिवादिनः ।
मृदङ्गान्
डिडिमांश्चैव गोमुखान् पणवांस्तथा ।। ४० ।।
वे शङ्ख,
नगाड़े, मृदङ्ग, डिंडिम, पटह तथा पणव आदि बजा रहे थे ॥४०॥
सर्वे जटाभिः
पिङ्गाभिस्तुङ्गाभिश्च करालिताः ।
निरन्तराभिर्विप्रेन्द्रा
गणाः स्यन्दनगामिनः । । ४१ ।।
शूलहस्ताः
पाशहस्ता: खड्गहस्ताः धनुर्द्धराः ।
शक्त्यंकुशगदावाण-पट्टिशप्रासपाणयः
।। ४२ ।।
हे
विप्रेन्द्रों! वे सभी निरन्तर ऊँचीं, भूरी, जटाओं से भयानक लग रहे थे । वे गण रथारूढ़ थे। वे शूल,
पाश, खड्ग हाथ में लिये या धनुष धारण किये थे । वे शक्ति, अङ्कुश, गदा, बाण, पट्टिश, प्राश आदि आयुध हाथ में लिये हुए थे ।४१-४२॥
नानायुधा
महानादं कुर्वन्तस्ते महाबलाः ।
मारय
च्छेदयेत्यूचुर्ब्रह्मणः पुरतो गताः ।।४३॥
वे महाबली गण
अनेक अस्त्रों को धारण किये मारो- काटो ऐसा कहते हुए महान् गर्जन के साथ ब्रह्मा
के सम्मुख पहुँचे ॥४३॥
तेषान्तु
वदतां यत्र मारय छेदयेत्युत ।
योगनिद्रा प्रभावात्
स विधिर्वक्तुं प्रचक्रमे ।।४४ ।।
अथ
ब्रह्माणमाभाष्य तान् दृष्ट्वा मदनो गणान् ।
उवाच वारयन्
वक्तुं गणानामग्रतः स्मरः ।।४५ ।
जहाँ वे
मारो-काटो बोल रहे थे, योगनिद्रा के प्रभाव से ब्रह्मा कुछ बोलें,
इसी बीच ब्रह्मा से बोलते हुये गणों को देखकर कामदेव उन्हें
रोककर स्वयं पहले बोले - ॥४४-४५॥
।। मदन उवाच ॥
किं कर्म ते
करिष्यन्ति कुत्र स्थास्यन्ति वा विधे ।
किन्नामधेया
एते वा तत्रैतान् विनियोजय ॥४६॥
नियोज्यैतान्निजे
कृत्ये स्थानं दत्त्वा नाम च ।
कृत्वा
पश्चात् महामायाप्रभावं कथयस्व मे ।। ४७ ।।
कामदेव बोले-
हे विधि! ये आपका क्या कार्य करेंगे? या कहाँ रहेंगे? ये किस नाम से जाने जायेंगे ? वहाँ उनको लगाइये। इनको इनके कामों में लगाकर,
इनको स्थान एवं नाम प्रदान कर मुझसे महामाया जगदम्बा के
प्रभाव का वर्णन करें ।।४६-४७॥
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
अथ
तद्वाक्यमाकर्ण्य सर्वलोकपितामहः ।
गणान्
समदनानाह तेषां कर्मादिकं दिशन् ।।४८ ।।
मार्कण्डेय
बोले- इसके बाद सभी लोक के पितामह, कामदेव के उसवचन को सुनकर कामदेव के सहित उन गणों से उनके
कर्मादि का निर्देश करते हुये बोले—॥४८॥
।। ब्रह्मोवाच
।।
एते उत्पन्नमात्रा
हि मारयेत्यवदंस्तराम् ।
मुहुर्मुहुरतोऽमीषां
नाम मारेति जायताम् ।।४९ ।।
ब्रह्मा
बोले-ये पैदा होते ही बार-बार 'मारो' ऐसा बोल रहे थे। इसलिए इनका मार यह नामकरण होवे ॥ ४९ ॥
मारात्मकत्वादप्येते
माराः सन्तु च नामतः ।
सदा विघ्नं
करिष्यन्ति जन्तूनाञ्च विनार्चनम् ॥५० ।।
मारने वाले
होने के कारण भी ये मार नाम से प्रसिद्ध होंगे। बिना आराधना ये प्राणियों के लिए
सदैव विघ्न करते रहेंगे ॥५०॥
तवानुगमनं कर्म
मुख्यमेषां मनोभव ।
यत्र यत्र
भवान् याता स्वकर्मार्थं यदा यदा ।
गन्तारस्तत्र तत्रैते
साहाय्याय तदा तदा ।। ५१ ।।
हे कामदेव !
इनका मुख्य कार्य तुम्हारा अनुगमन करना होगा। आप अपने कार्य हेतु जब-जब और जहाँ-जहाँ
जायेंगे तब-तब ये सहायतार्थ वहाँ-वहाँ जायेंगे ।।५१।।
चित्तोद्भ्रान्तिं
करिष्यन्ति त्वदस्त्रवशवर्तिनाम् ।
ज्ञानिनां
ज्ञानमार्गञ्च विघ्नयिष्यन्ति सर्वदा ।। ५२ ।।
तुम्हारे
अस्त्रों के वशीभूत लोगों के चित्त को सदैव विभ्रमित करेंगे,
ज्ञानियों के ज्ञानमार्ग में विघ्न उपस्थित करेंगे ॥ ५२ ॥
यथा सांसारिकं
कर्म सर्वे कुर्वन्ति जन्तवः ।
तथा चैते
करिष्यन्ति सविघ्नमपि सर्वतः ।।५३॥
जिस प्रकार
सभी प्राणी सांसारिक कर्म करते रहें, वैसा ही ये सब ओर से विघ्नों सहित करते रहेंगे ॥५३॥
इमे स्थास्यन्ति
सर्वत्र वेगिनः कामरूपिणः ।
त्वमेवैषां गणाध्यक्षः
पञ्चयज्ञांशभोगिनः ।
नित्यक्रियावतां
तोय-भोगिनो वै भवन्त्विति ।।५४।।
ये वेगवान,
इच्छानुसार रूप धारण करने में समर्थ 'मारगण' सब जगह स्थित रहेंगे। इन्हें पञ्चयज्ञों के अंशभोग का
अधिकार रहेगा और तुम इनके गणाध्यक्ष होगे । ये नित्यक्रियासम्पन्न पुरुषों के जल,
अर्घ्यादि के भी पुण्यफल के ग्रहणकर्ता होवेंगे ॥ ५४ ॥
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
इति श्रुत्वा
तु ते सर्वे मदनं सविधिं ततः ।
परिवार्य
यथाकामं तस्थुः श्रुत्वा निजां गतिम् ।।५५।।
मार्कण्डेय
बोले- ऐसा सुनकर वे सभी ब्रह्मा के सहित कामदेव की परिक्रमा कर तथा अपनी गति को
सुनकर इच्छित स्थानों को चले गये ।। ५५ ।।
तेषां
वर्णयितुं शक्यो भुवि किं मुनिसत्तमाः ।
माहात्म्यञ्च
प्रभावञ्च ते तपः शालिनो यतः ।।५६ ।।
हे मुनिसत्तम!
उनका वर्णन करने में पृथ्वी पर कोई समर्थ नहीं है; उनके माहात्म्य एवं प्रभाव का भी वर्णन सम्भव नहीं है,
क्योंकि वे तपस्वी थे॥५६॥
नैषां जाया न
तनया निःसमीहाः सदैव हि ।
न्यासिनोऽपि
महात्मानः सर्वे त ऊर्द्धरतसः ॥५७।।
इनकी न कोई
स्त्री है और न पुत्री । ये सदैव इच्छारहित रहते हैं । ये सभी सन्यासी वृत्ति के
ऊर्द्धरेता महात्मा हैं ॥५७॥
ततो ब्रह्मा
प्रसन्नः स माहात्म्यं मदनाय च ।
गदितुं
योगनिद्रायाः सम्यक् समुपचक्रमे ।। ५८ ।।
तब ब्रह्मा ने
प्रसन्न हो कामदेव से योगनिद्रा का माहात्म्य भलीभाँति कहना प्रारम्भ किया ॥५८॥
कालिका पुराण
अध्याय ६
अब इससे आगे
श्लोक ५९ से ७२ में भगवती काली के योगनिद्रा का स्तवन को दिया गया है इसे पढ़ने के
लिए क्लिक करें-
॥
श्रीकालिकापुराणे योगनिद्रामाहात्म्यं नाम षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥
॥
श्रीकालिकापुराण में योगनिद्रामाहात्म्य नामक छठा अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥६ ॥
आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 7
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