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अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
योगनिद्रा स्तुति
ब्रह्माजी ने प्रसन्न होकर योगनिद्रा
का माहात्म्य और स्तुति कामदेव से कहा ।
योगनिद्रा स्तुति
Yoganidra stuti
॥ ब्रह्मोवाच ॥
अव्यक्तव्यक्तरूपेण रजः
सत्त्वतमोगुणैः ॥
विभज्य यार्थङ्कुरुते विष्णुमायेति
सोच्यते ॥ ६१॥
ब्रह्माजी ने कहा - रजोगुण,
सत्वगुण और तमोगुणों के द्वारा जो अव्यक्त और व्यक्त रूप से सविभाजन
करके अर्थ को किया करती है वही विष्णुमाया इस नाम से ही कही जाया करती है।
यानिम्नान्तस्थलाम्भःस्था
जगदण्डकपालतः ॥
विभज्य पुरुषय्याँति योगनिद्रेति
सोच्यते ॥ ६२ ॥
जो निम्न स्थान वाले जल में स्थित
होती हुई जगदण्ड कपाल से विभाजन करके पुरुष के समीप गमन किया करती है वह योगनिद्रा
इस नाम से पुकारी जाया करती है ।
मन्त्रान्तर्भावनपरा परमानन्द
रूपिणी ॥
योगिनां सत्वविद्यान्तः सा निगद्या
जगन्मयी ॥ ६३ ॥
मन्त्रों के अन्तर्भावन में परायण
और परमाधिक आनन्द के स्वरूप वाली जो योगियों की सत्वविद्या का अन्त है वही जगन्मयी
इस नाम से कहने के योग्य होती है।
गर्भान्तज्ञार्न सम्पन्नम्प्रेरितं
सूतिमारुतैः ॥
उत्पन्नज्ज्ञानरहितङ्कुरुते या
निरन्तरम् ॥ ६४ ॥
गर्भ के अन्दर रहने वाले को ज्ञान
से सम्पन्न (तात्पर्य यह है कि जब तक यह यह जीवात्मा माता के गर्भ के रहता है तब
तक अपने आपको पूर्ण ज्ञान रहा करता है) और प्रसव की वायु से प्रेरित होता हुआ जब
यह जन्म धारण कर लेता है तो वही सभी ज्ञान को भूलकर ज्ञान रहित हो जाया करता है
ऐसा जो निरन्तर ही किया करती है ।
पूर्व्वातिपूर्व्वं सन्धातुं
संस्कारेण नियोज्य च ॥
आहारादौ ततो मोहं ममत्व ज्ञानसंशयम्
॥ ६५ ॥
क्रोधोपरोधलोभेषु क्षिप्त्वाक्षिप्त्वा
पुनःपुनः ॥
पश्चात्कामे नियोज्याशु
चिन्तायुक्तमहर्न्निशम् ॥६६॥
आ मोदयुक्त व्यसनासक्तञ्जन्तुङ्करोति
या ॥
महामायेति सा प्रोक्ता तेन सा
जगदीश्वरी ॥ ६७॥
पूर्व से भी पूर्व का सन्धान करने
के लिए संस्कार से नियोजन करके आहार आदि में फिर मोह,
ममत्वभाव और ज्ञान में संशय को करती है तथा क्रोध, उपरोध और लोभ में बार-बार क्षिप्त कर-करके पीछे काम में नियोजित करके आहार
आदि में फिर मोह, ममत्वभाव और ज्ञान में संशय को करती है तथा
क्रोध, उपरोध और लोभ बार-बार क्षिप्त कर-करके पीछे काम में
नियोजित शीघ्र ही चिन्ता से युक्त करती है, जो चिन्ता रात
दिन रहा करती है, जो इस जन्तु को आमोद से युक्त और व्यसनों
में आसक्त किया करती है, वही महामाया इस नाम से कही गई है,
इसी से वह जगत् की स्वामिनी हैं।
अहङ्कारादिसंसक्त सृष्टिप्रभव
भाविनी ॥
उत्पत्तिरितिलोकैः सा
कथ्यतेऽनन्तरूपिणी ॥ ६८ ॥
अहंकार आदि से संसक्त सृष्टि के
प्रभाव को करने वाली उत्पत्ति से यही लोकों के द्वारा वह अनन्त स्वरूप वाली कही
जाया करती है ।
उत्पन्नमङ्कुरम्बीजाद्यथापो
मेघसम्भवाः ॥
प्ररोह यति सा
जन्तूस्तथोत्पन्नान्प्ररोहयेत् ॥ ६९ ॥
बीज से समुत्पन्न हुए अंकुर को
मेघों से समुद्भुत जल जिस प्रकार से प्ररोहित किया करता है ठीक उसी भाँति वह भी
जन्तुओं को जो उत्पन्न हो गये हैं उनको प्ररोहित किया करती है ।
सा शक्तिः सृष्टिरूपा च सर्वेषां
ख्यातिरीश्वरी ॥
क्षमा क्षमावतान्नित्यङ्करुणा सा
दयावताम् ॥ ७० ॥
वह शक्ति सृष्टि के स्वरूप वाली हैं
और सबकी ईश्वरी ख्याति है । वह जो क्षमाधारी हैं उनकी क्षमा है तथा जो दया वाले
हैं उनकी (करुणा) दया है।
नित्या सा नित्यरूपेण जगद्गर्भे
प्रकाशते ॥
ज्योतिःस्वरूपेण परा
व्यक्ताव्यक्तप्रकाशिनी ॥ ७१ ॥
वह नित्यस्वरूप से नित्या हैं और इस
जगत् के गर्भ में प्रकाशित हुआ करती हैं । वह ज्योति के स्वरूप से व्यक्त और
अव्यक्त का प्रकाश करने वाली परा है ।
सा योगि नाम्मुक्तिहेतुर्व्विद्यारूपेण
वैष्णवी ॥
सांसारिकाणां संसारबन्धहेतुर्व्विपर्य्यया
॥ ७२॥
वह योगाभ्यासियों की मुक्ति का हेतु
हैं और विद्या के रूप वाली वैष्णवी है । जो सांसारिक पुरुष हैं उनको संसार के बंधन
हेतु विपर्य्यया है ।
लक्ष्मीरूपेण कृष्णस्य द्वितीया
सुमनोहरा ॥
त्रयीरूपेण कण्ठस्था सदा मम मनो भव
॥ ७३॥
लक्ष्मी के रूप से वह भगवान् कृष्ण
की द्वितीया अर्द्धांगिनी परममनोहरा है । हे कामदेव ! त्रयी अर्थात् वेदत्रयी के
रूप से सदा मेरे कंठ में संस्थिता है ।
सर्व्वत्रस्था सर्व्वगा दिव्य
मूर्तिर्नित्या देवी सर्व्वरूपा पराख्या ॥
कृष्णा दीनां सर्व्वदा मोहयित्री सा
स्त्रीरूपैः सर्व्वजन्तोः समन्तात् ॥७४॥
वह सभी जगह पर स्थित रहने वाली और
सब जगह गमन करने वाली है। वह दिव्यमूर्ति से समन्विता हैं । नित्या देवी सबके
स्वरूप वाली और परा-इस नाम वाली है । वह कृष्ण आदि का सर्वदा सम्मोहन कहने वाली है
और स्त्री के स्वरूप से सभी ओर सभी जन्तुओं को मोहन करने वाली हैं ।
इति श्रीकालिकापुराणे षष्ठोऽध्यायान्तर्गता योगनिद्रा स्तुति: समाप्ता ।
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