काली स्तवन
विरञ्चि (ब्रह्मा) के द्वारा की गई काली स्तवन से वह योगनिद्रा परमात्मा ब्रह्मा के सामने आविर्भूत ( प्रकट) हो गयी थी ।
उस प्रकट हुई देवी योगनिद्रा का स्वरूप का अब वर्णन किया जाता है ।
काली स्तवन
स्निग्धाञ्जनद्युतिश्चारुरूपोत्तुङ्गा चतुर्भुजा
।
सिंहस्था खड्गनिलाब्जहस्ता
मुक्तकचोत्करा ॥ ५२ ॥
वह स्निग्ध अञ्जन की कान्ति के समान
द्युति वाली थी, उसका स्वरूप परम सुन्दर था,
वह उन्नत थीं और उनकी चार भुजायें थीं। वह सिंह के ऊपर सवार थीं,
उनके हाथों में खड्ग और नीलकमल था, उसके केश
पाश खुले हुए थे ।
समक्षमथ तावीक्ष्य स्रष्टा
सर्वजगद्गुरु: ।
भक्तया विनम्रतुङ्गांसस्तुष्टाव च
ननाम च ॥ ५३ ॥
सृष्टि के सृजन करने वाले जगत् गुरु
ब्रह्माजी ने अपने समक्ष समुपस्थित उस देवी का अवलोकन करके उन्होंने अपने उन्नत
कन्धों को विनम्र करके बड़े ही भक्ति के भाव से उन देवी को स्तवन किया और प्रणिपात
किया था।
ब्रह्मप्रोक्ता योगनिद्रा काली स्तव:
ब्रह्मोवाच -
नमो नमस्ते जगतः
प्रवृत्तिनिवृत्तिरूपे स्थितिसर्गरूपे ।
चराचराणां भवती च शक्तिः सनातनी
सर्वविमोहनीति ॥ ५४॥
ब्रह्माजी ने कहा- हे जगत् की
प्रवृत्ति और निवृत्ति के रूप वाली ! हे स्थिति और सर्ग ( रचना) के स्वरूप से
समन्विते! आपके चरणारविन्दों में मेरा बारम्बार नमस्कार है । चर और अचरों की आप
शक्ति हैं, आप सनातनी और सबका विमोहन करने
वाली हैं ।
या श्रीः सदा केशवमूर्तिमाया
विश्वम्भरा या सकलं बिभर्ति ।
ह्रीर्योगिनी या महिता मनोज्ञा सा त्वं
नमस्ते परमात्मसारे ॥ ५५॥
जो श्री सदा ही भगवान् शंकर की
मूर्ति की माया है, जो विश्वम्भरा हैं
और सबका विभरण किया करती हैं, जो ह्रीं, योगिनी, महिता औ मनोज्ञा हैं वह आप ऐसी हैं । हे
परमात्मसारे ! आपको मेरा नमस्कार है ।
यामादिपूर्वे हृदि योगिनो यां विभावयन्ति
प्रमितिप्रतीताम् ।
प्रकाशशुद्धादियुतां विराणां सा
त्वं हि विद्या विविधावलम्बा ॥ ५६॥
हे यामादि पूर्वे ! जिसका योगीजन
अपने हृदय में प्रमिति के द्वारा प्रती का विभावन किया करते हैं वह आप प्रकाश
शुद्ध,
आदि से संयुता हैं, वह आप राग रहिता हैं । आप
निश्चित रूप से विविध (अनेक ) अवलम्बों वाली विद्या हैं।
कूटस्थमव्यक्तमचिन्त्यरूपं त्वं
बिभ्रती कालमयं जगन्ति ।
विकारबीजं प्रकरोषि नित्यं
प्रत्नानि न्यूत्नान्यथ मध्यमानि ॥ ५७॥
आप कूटस्थ,
अव्यक्त, अचिन्त्य रूप कालमय को धारण करने
वाली हैं अर्थात् मरण करती हुई हैं। तात्पर्य यह है जगतों को विभरण करने वाली हैं
। आप नित्य विकार बीज को करती हैं जो प्रयत्न है, न्यून है
और मध्य है।
सत्त्वं रजोऽथो तम इत्यमीषां
विकारहीना समवस्थितिर्या ।
सा त्वं गुणानां
जगदेकहेतुर्बाह्यान्तरालं भवतीव याति ॥ ५८॥
सत्व, रज और तमोगुण इनके विकारों से आप हीन हैं और जो साम्बस्थिति रूपा हैं । वह
आप गुणों की हेतु हैं, बाहर और अन्तराल में भवती की भाँति
गमन किया करती हैं।
अशेषजगतां बीजे ज्ञेयज्ञानस्वरूपिणि
।
जगद्धिताय जगतां विष्णुमाये
नमोऽस्तुते ॥ ५९॥
हे अशेष जगतों की बीज! हे ज्ञेय (
जानने के योग्य) और ज्ञान के स्वरूप वाली ! हे जगतों की विष्णु माये! जगत् की हित
स्वरूपा आपके लिए नमस्कार है।
इति कालिकापुराणे पञ्चमाध्यायान्तर्गता ब्रह्मप्रोक्ता कालीस्तव: समाप्ता ।
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