recent

Slide show

[people][slideshow]

Ad Code

Responsive Advertisement

JSON Variables

Total Pageviews

Blog Archive

Search This Blog

Fashion

3/Fashion/grid-small

Text Widget

Bonjour & Welcome

Tags

Contact Form






Contact Form

Name

Email *

Message *

Followers

Ticker

6/recent/ticker-posts

Slider

5/random/slider

Labels Cloud

Translate

Lorem Ipsum is simply dummy text of the printing and typesetting industry. Lorem Ipsum has been the industry's.

Pages

कर्मकाण्ड

Popular Posts

कालिका पुराण अध्याय ११

कालिका पुराण अध्याय ११     

कालिका पुराण अध्याय ११ में मुख्यतः शिव की वरयात्रा एवं सती विवाह से संबंधित है। इसमें सती और शिव के विवाह का वर्णन करते हुये ब्रह्मा के विचलन से शिव के ब्रह्मा पर क्रुद्ध होने, विष्णु द्वारा उन्हें मनाने का वर्णन किया गया है।

कालिका पुराण अध्याय ११

कालिका पुराण अध्याय ११    

Kalika puran chapter 11

कालिकापुराणम् एकादशोऽध्यायः त्रिदेवानामेकत्वप्रतिपादनम्

कालिकापुराण ग्यारहवाँ अध्याय- ॥ तीनों देवों का एकत्व प्रतिपादन ॥

अथ कालिका पुराण अध्याय ११         

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

ततः समागताः सर्वे मानसाश्च सनारदाः ।

विधेः स्मरणमात्रेण वातेनैव विनोदिताः ।।१।।

मार्कण्डेय बोले- तब ब्रह्मा के स्मरण मात्र से नारद के साथ ब्रह्मा के सभी मानसपुत्र, आनन्दपूर्वक और वायुवेग से वहाँ पहुँच गये ॥ १॥

तैः सार्धं ब्रह्मणा शम्भुः सगणो दक्षमन्दिरम् ।

जगाम मोदयुक्तोऽथ काले तत्कर्मयोगिनि ॥२॥

 भगवान् शङ्कर उन सब तथा ब्रह्मा और अपने गणों के सहित प्रसन्नतापूर्वक उस कर्म - योगिनी सती के लिए निश्चित समय पर दक्ष के घर गये ॥ २ ॥

गणाः शङ्खाश्च पटहान् डिण्डिमांस्तूर्यवंशकान् ।

वादयन्तो मुदायुक्ता अनुगच्छन्ति शङ्करम् ॥३॥

उस समय वे गण शङ्ख, नगाड़े, ढोल और बाँस की बनी हुई तुरही आदि वाद्य, प्रसन्नतापूर्वक बजाते हुए शिव का अनुगमन कर रहे थे ॥ ३ ॥

केचित्तालं करतलैः कुर्वन्तोंऽघ्रितलस्वनम् ।

विमानैरतिवेगैः स्वैरनुयान्ति वृषध्वजम् ।।४।।

कोलाहलं प्रकुर्वन्तस्तथा नानाविधान् रवान् ।

गणा अनेकाकृतयः शब्दयोगेन निर्ययुः ।।५।।

कोई हथेलियों से ताल बजा रहे थे तो कोई पैरों (तलवों) से नाचते समय ध्वनि कर रहे थे । अनेक अपने वेगमान विमानों द्वारा वृषभध्वज का अनुगमन कर रहे थे तथा वे गण अपनी अनेक प्रकार की आकृतियों तथा शब्दों से विविध भाँति कोलाहल करते हुए निकले ॥४-५॥

ततो देवा मुदा युक्ता गन्धर्वाप्सरसो गणाः ।

वाद्यैर्मोदैस्तथा नृत्यैरन्वीयुर्वृषभध्वजम् ।।६।।

उस समय प्रसन्नतापूर्वक देवगण, आनन्द से गाते-बजाते गन्धर्वगण एवं नृत्य करती अप्सराओं के समूह ने भी वृषभध्वज शिव का अनुगमन किया ॥ ६ ॥

तेषां शब्देन विप्रेन्द्रा गन्धर्वाणां गरीयसाम् ।

गणानाञ्च दिशः सर्वाः पूरिता च वसुन्धरा ॥७॥

उन गरिमामय गन्धर्वों तथा गणों के शब्दों से सभी दिशायें एवं पृथ्वी भर गई ॥७॥

कामोऽपि सगणः शम्भुं सशृङ्गाररसादिभिः ।

मोदयन् मोहयन् कायमन्वियात् स समन्वतः ॥८॥

कामदेव भी शृङ्गार रस आदि तथा मारगणों के सहित शिव को प्रसन्न करता, मोहित करता, काम-विह्वल करता, आगे आगे चल पड़ा ॥८॥

हरौ गच्छति भार्यार्थे तदानीं सकलाः सुराः ।

ब्रह्माद्या: स्वयमेवाशु वाद्यं चक्रुर्मनोहरम् ।।९।।

जब शिव पत्नी हेतु जा रहे थे, उस समय ब्रह्मादि सभी देवताओं ने शीघ्रता से अपने-अपने सुन्दर बाजे बजाये ॥९॥

दिशः सर्वाः सुप्रसन्ना बभूवुर्द्विजसत्तमाः ।

जज्वलुश्चाग्नयः शान्ता: पुष्पवृष्टिरजायत ।। १० ।।

हे द्विजसत्तमों! उस समय सभी दिशायें प्रसन्न हो गईं, अग्नियाँ शान्तिपूर्वक जल उठीं तथा फूलों की वर्षा होने लगी॥१०॥

ववुर्वाताः सुरभयो वृक्षाश्चापि सुपुष्पिताः ।

बभूवुः प्राणिनः स्वस्था अस्वस्था येऽपि केचन ।। ११ ।।

सुगन्धित वायु बहने लगी, वृक्ष भी सुन्दर ढंग से फूलों से भर गये, जो कोई प्राणी अस्वस्थ थे, वे भी स्वस्थ हो गये॥११॥

हंससारसकादम्बा नीलकम्बुश्च चातकाः ।

चुक्रुशुर्मधुरान् शब्दान् प्रेरयन्त इवेश्वरम् ।।१२।।

हंस, सारस, कलहंस, मोर और चातकों* ने मानो शिव को प्रेरित करते हुए मधुर शब्द किये ॥ १२ ॥

* इन पक्षियों के स्वर रति के प्रेरक हैं।

भुजगो व्याघ्रकृत्तिश्च जटा चन्द्रकला तथा ।

जगाम भूषणत्वञ्च तेनापि परिदीपितः ।। १३ ।।

ततः क्षणेन बलिना बलीवर्देन वेगिना ।

सब्रह्मनारदाद्यैश्च प्राप दक्षालयं हरः ।।१४।।

उस समय उनके शरीर पर स्थित सर्प, व्याघ्र चर्म, गज-चर्म, जटा तथा चन्द्रकलाओं ने आभूषणत्व धारण कर लिया इनसे उदीप्त होते हुए क्षण भर में वेगवान् और बलवान् बलीवर्द (बैल) के द्वारा वे शिव, ब्रह्मा तथा नारद आदि के सहित दक्ष के भवन पर पहुँच गये ।। १३-१४ ।।

ततो दक्षो महातेजा अभ्युत्थाय स्वयं हरम् ।

ब्रह्मादीञ्चाददौ तेषामासनानि यथोचितम् ।। १५ ।।

तब महातेजस्वी दक्ष प्रजापति ने स्वयं उठकर शिव तथा ब्रह्मादि को उचित आसन प्रदान किया ॥ १५ ॥

कृत्वा यथोचितां तेषां पूजां पाद्यादिभिस्तथा ।

चकार संविदं दक्षो मुनिभिर्मानसैः पुनः ।। १६ ।।

उनकी पाद्य, अर्घ्य आदि के द्वारा यथोचित रूप से पूजा करके दक्ष प्रजापति ने मानसरूप उत्पन्न मुनियों के साथ विचार-विमर्श किया ॥१६॥

ततः शुभे मुहूर्ते तु लग्ने च द्विजसत्तमाः ।

सतीं निजसुतां दक्षो ददौ हर्षेण शम्भवे ।। १७ ।।

हे द्विजसत्तमों! तब शुभलग्न एवं शुभ मुहूर्त में दक्ष ने प्रसन्नतापूर्वक अपनी कन्या सती, शिव को प्रदान किया ॥१७॥

उद्वाहविधिना सोऽपि पाणिं जग्राह हर्षितः ।

दाक्षायण्या वरतनोस्तदानीं वृषभध्वजः ।। १८ ।।

तब उन वृषभध्वज शिव ने भी दाक्षायाणि के श्रेष्ठ पाणि का प्रसन्नतापूर्वक विवाह विधि से ग्रहण किया ।। १८ ।।

ब्रह्माश्च नारदाद्याश्च मुनयः सामगीतिभिः ।

ऋचा यजुर्भिः सुश्राव्यैस्तोषयामासुरीश्वरम् ।।१९।।

वाद्यं चक्रुर्गणाः सर्वे ननृतुश्चाप्सरोगणाः ।

पुष्पवृष्टिञ्च ससृजुर्मेघा गगनसङ्गताः ।।२०।।

ब्रह्मा और नारदादि मुनियों ने सुनने में सुन्दर लगने वाले, सामगीत, ऋचा, यजुस् आदि द्वारा ईश्वर (शिव) को संतुष्ट किया। सभी गणों ने बाजे बजाये, अप्सरा समूहों ने नर्तन और आकाश में स्थित बादलों ने फूलों की वर्षा की ।।१९-२०।

अथ शम्भुमुपागत्य गरुडेनातिवेगिना ।

सार्धं कमलया चेदमुवाच गरुड़ध्वजः ।। २१ ।।

इसके बाद वेगवान गरुड़ पर सवार हो लक्ष्मी के सहित गरुड़ध्वज विष्णु शम्भु के निकट आकर यह वचन बोले- ॥ २१ ॥

।। श्रीभगवानुवाच ।।

स्निग्धनीलाञ्जनश्याम शोभया शोभसे हर ।

दाक्षायण्या यथा चाहं प्रातिलोम्येन पद्मया ।। २२ ।।

श्रीभगवान् विष्णु बोले- हे शिव! इस चिकने नीले अञ्जन के श्यामवर्णी दाक्षायणी की शोभा से आप वैसे ही सुशोभित हो रहे हैं, जैसा कि मैं इसके विपरीत क्रम में लक्ष्मी के साथ सुशोभित होता हूँ ॥ २२॥

कुरु त्वमनया सार्धं रक्षा देवस्य वा नृणाम् ।।२३।।

आप इस देवी के साथ देवताओं व मनुष्यों की रक्षा करें ॥२३॥

अनया सह संसारसारिणां मंगलं सदा ।

कुरु दस्यून् यथायोग्यं हनिष्यसि च शङ्कर ।। २४ ।।

इसके साथ सांसारिकजनों का सदा मङ्गल करें और हे शङ्कर! यथोचित रूप से दस्युजनों का आप वध करेंगे ॥२४॥

य एवैनां साभिलाषो दृष्ट्वा श्रुत्वाथवा भवेत् ।

तं हनिष्यसि भूतेश नात्र कार्या विचारणा ।। २५ ।।

जो भी इसे देख अथवा सुनकर इच्छायुक्त (कामासक्त) होगा । हे भूतेश ! उसे तुम मार दोगे । इसमें कोई तर्क-वितर्क नहीं है ।। २५ ॥

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

एवमस्त्विति सर्वज्ञः प्रोवाच परमेश्वरम् ।

प्रहृष्टमानसं प्रीत्या प्रसन्नवदनो द्विजाः ।।२६।।

मार्कण्डेय बोले- ऐसा ही हो, यह प्रसन्नमुख सर्वज्ञ विष्णु ने प्रसन्न मन परमेश्वर शिव से प्रेमपूर्वक कहा ॥२६॥

अथ ब्रह्मा तदा दृष्ट्वा दक्षजां चारुहासिनीम् ।

स्मराविष्टमना वक्तं वीक्षांचक्रे तदीयकम् ।। २७।।

तब ब्रह्मा ने सुन्दर हँसी वाली दक्षपुत्री के मुख को देखकर उसके प्रति कामासक्त हो गये और उसकी इच्छा करने लगे ॥२७॥

मुहुर्मुहुस्तदा ब्रह्मा पश्यति स्म सतीमुखम् ।

तदेन्द्रियविकारञ्च प्राप्तवानवश: पुनः ।।२८।।

उस समय ब्रह्मा बारम्बार सती का मुख देखने लगे। उसी समय उन्हें पुनः (सन्ध्या-प्रसङ्ग के बाद) इन्द्रियविकार उत्पन्न हो गया ॥ २८ ॥

अथ तस्य पपाताशु तेजो भूमौ द्विजोत्तमाः ।

तज्जलद्दहनाभासं मुनीनां पुरतस्तदा ।। २९ ।।

हे द्विजोत्तमों! शीघ्र प्रज्ज्वलित अग्नि की आभावाला उनका तेज (वीर्य) मुनियों के देखते देखते भूमि पर आ गिरा।।२९।।

ततस्तस्मात् समभवंस्तोयदाः शब्दसंयुताः ।

सम्बर्तश्च तथावर्तः पुष्करो द्रोण एव च ।

गर्जन्तश्चाथ मुञ्चन्तस्तोयानि द्विजसत्तमाः ।।३०॥

हे द्विजसत्तमों! तब उस भूमि पर गिरे हुए तेज से आवाज करते, गरजते और जलों की वर्षा करते आवर्त, संवर्त, द्रोण और पुष्कर जैसे जलद (बादल) उत्पन्न हो गये ॥ ३० ॥

तैस्तु सञ्छादिते व्योम्नि तेषु गर्जत्सु शङ्करः ।

पश्यन् दाक्षायणीं देवीं भृशं कामेन मोहितः ।। ३१ ।।

मोहितोऽप्यथ कामेन तदा विष्णुवचः स्मरन् ।

इयेष हन्तुं ब्रह्माणं शूलमुद्यम्य शङ्करः ।।३२।।

आकाश में छाये हुए तथा गरजते बादलों को देखते हुए शङ्कर दाक्षायणी सती के प्रति मोहित हो गये और यह जान लिया कि ब्रह्मा भी मोहित हो गये हैं । तब इसके कामासक्त अभिलाषा करने वालों का तुम वध करोगे" विष्णु के इन वचनों का स्मरण कर वे त्रिशूल उठाकर ब्रह्मा को मारने की इच्छा से उद्यत हो गये ।। ३१-३२॥

शम्भुनोद्यमिते शूले विधिं हन्तुं द्विजोत्तमाः ।

मरीचिनारदाद्यास्ते चक्रुर्हाहाकृतिं तदा ।।३३॥

तब हे द्विजोत्तमों! शम्भु को त्रिशूल उठाए ब्रह्मा के वध हेतु उद्यत देख नारद- मरीचि आदि उपस्थित सभी हाहाकार करने लगे ॥३३॥

दक्षो मैवं मैवमिति पाणिमुद्यम्य शङ्कितः ।

वारयामास भूतेशं क्षिप्रमेत्य पुरोगतः ।।३४।।

दक्षप्रजापति भी शङ्कित मन से, ऐसा मत करें, ऐसा मत करें कहते हुए शिव को रोकने हेतु शीघ्र ही सामने आ गये ॥३४॥

अथाग्रे मीलितं वीक्ष्य तदा दक्षं महेश्वरः ।

प्रत्युवाचाप्रियमिदं स्मारयन् वैष्णवीं गिरम् ।।३५।।

तब आगे मिले दक्ष को देखकर महेश्वर ने भगवान् विष्णु की वाणी का स्मरण हुए यह अप्रिय बात कही ॥३५॥

।। ईश्वर उवाच ।।

नारायणेन विप्रेन्द्र यदिदानीमुदीरितम् ।

मयाप्यंगीकृतं कर्तुं तदिहैव प्रजापते ॥३६॥

एनां यः साभिलाषः सन् वीक्षते तं हनिष्यसि ।

इति वाचन्तु सफलमेनं हत्वा करोम्यहम् ।। ३७।।

ईश्वर बोले- हे विप्रेन्द्र दक्षप्रजापति ! नारायण ने जो अभी कहा है, उसे करने का मैंने विचार किया है। "इसे जो अभिलाषा (प्राप्ति कामना) से देखे, उसे आप मार डालोगे ।" इस कथन की सफलता, मैं ब्रह्मा को मार कर सिद्ध करूँगा ।। ३६-३७॥

साभिलाषः कथं ब्रह्मा सतीं समवलोकयत् ।

अभवत्यक्ततेजास्तु ततो हन्मि कृतागसम् ।। ३८ ।।

ब्रह्मा ने सती को अभिलाषा युक्त हो क्यों देखा ? फलतः ये तेजरहित हो गये हैं, इसलिए मैं ऐसे पापकर्मी का वध करूँगा ॥३८॥

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

तमेवं वादिनं विष्णुः क्षिप्रं भूत्वा पुरःसरः ।

इदमूचे वारयंस्तं हन्तुं सर्वजगत्प्रभुः ।।३९।।

मार्कण्डेय बोले- तब सम्पूर्ण जगत् के स्वामी विष्णु शीघ्र ही सामने आकर इस प्रकार से बोलने वाले शिव को उन ब्रह्मा के वध से रोकते हुए यह बोले ॥३९॥

।। श्रीभगवानुवाच ।।

हनिष्यसि भूतेश स्रष्ट्रारं जगतां वरम् ।

अनेनैव सती भार्या भवदर्थे प्रकल्पिता ।।४०।।

श्रीभगवान् बोले- हे भूतेश ! जगत्श्रेष्ठ, सृष्टिकर्ता, ब्रह्मा का आप वध करेंगे। जबकि इन्होंने ही आपके लिए सती जैसी उत्तम पत्नी की योजना की है ॥४०॥

प्रजाः स्रष्टुमयं शम्भो प्रादुर्भूतश्चतुर्मुखः ।

अस्मिन् हते जगत्स्रष्टा नास्त्यन्यः प्राकृतोऽधुना ।।४१।।

हे शम्भु ! प्रजा की सृष्टि हेतु यह चुतर्मुख (ब्रह्मा) उत्पन्न हुए हैं। इनका वध करने पर इस समय कोई जगत् का सृष्टिकर्ता नहीं दीखता है ॥ ४१ ॥

सृष्टिस्थित्यन्तकर्माणि करिष्यामः कथं पुनः ।

अनेनापि मया चैव भवता च समञ्जसम् ॥४२ ।।

इनके, मेरे और आपके सामञ्जस्य से जो जगत् की सृष्टि, पालन और विनाश का कर्म है, वह हम कैसे करेंगे ? ॥४२॥

एकस्मिन्निहतेऽमीषु कस्तत्कर्म करिष्यति ।

तस्मान्न वध्यो भवता विधाता वृषभध्वज ।। ४३ ।।

हे वृषभध्वज ! हममें से एक के भी मारे जाने पर उसका कर्म कौन करेगा? इसलिए आपके द्वारा ये ब्रह्मा मारे जाने योग्य नहीं हैं ॥४३॥

।। ईश्वर उवाच ।।

प्रतिज्ञां पूरयिष्यामि हत्वैनं चतुराननम् ।

अहमेव प्रजाः स्रक्ष्ये स्थावराणि चराणि च ।। ४४ ।।

अन्यं स्रक्ष्ये विधातारमथवाहं स्वतेजसा ।

स एव सृष्टिकर्ता स्यात् सर्वदा मदनुज्ञया ॥४५ ।।

ईश्वर (शिव) बोले- मैं इस चतुरानन ब्रह्मा को मारकर अपनी प्रतिज्ञा पूरी करूँगा । तत्पश्चात् मैं स्वयं ही स्थावर (स्थिर) तथा चर (गतिशील) प्रजा की सृष्टि करूँगा अथवा मैं अपने तेज से दूसरे ब्रह्मा की सृष्टि करूँगा । वही ब्रह्मा सदैव मेरी आज्ञा से सृष्टिकर्ता होंगे ।।४४-४५।।

हत्वैनं विधिमेवाहं प्रतिज्ञां पालयन् विभो ।

स्रष्टारमेकं स्त्रक्ष्यामि न वारय चतुर्भुज ।।४६।।

हे विभु! इस प्रकार मैं इस ब्रह्मा का वध कर अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण करूँगा तथा एक सृष्टिकर्ता की सृष्टि भी करूँगा । हे चतुर्भुज विष्णु ! अतः आप मुझे न रोको।।४६॥

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

इति तस्य वचः श्रुत्वा गिरिशस्य चतुर्भुजः ।

स्मितप्रसन्नवदनः पुनरैरेवमितीरयन् ।।४७।।

प्रतिज्ञापूरणं कर्तुं योग्यमात्मनि नो भवेत् ।

इत्युवाचाभिवदनमीश्वरस्य द्विजोत्तमाः ।।४८ ।।

मार्कण्डेय बोले- हे द्विजोत्तमों ! उन गिरीश के वचनों को सुनकर मुस्कान् सहित प्रसन्न मुख विष्णु ने पुनः ऐसा मत करो इस प्रकार कहते हुए अपनी आत्मा पर प्रतिज्ञा पूर्ति करना उचित नहीं है। ऐसा ईश्वर से कहा ।।४७-४८।।

ततः पुनः शम्भुरूचे कथमात्मा विधिर्मम ।

लक्ष्यते भिन्न एवायं प्रत्यक्षेणाग्रतः स्थितः ।। ४९ ।।

तब पुनः शम्भु ने पूछा- ब्रह्मा कैसे मेरी आत्मा हैं। यह तो प्रत्यक्ष ही भिन्न रूप में सामने स्थित हैं ॥ ४९ ॥

अथ ग्रहस्य भगवान् मुनीनां पुरतस्तदा ।

इदमूचे महादेवं तोषयन् गरुड़ध्वजः ।।५०॥

तब हँसते हुए भगवान् विष्णु ने शिव को संतुष्ट करते हुए मुनियों के सम्मुख यह कहा ॥५०॥

।। श्रीभगवानुवाच ।।

न ब्रह्मा भवतो भिन्नो न शम्भुर्ब्रह्मणस्तथा ।

न चाहं युवयोर्भिन्नोऽभिन्नत्वं सदातनम् ।।५१।।

श्रीभगवान् बोले- न ब्रह्मा आप शिव से भिन्न हैं, न शिव ब्रह्मा से भिन्न हैं और न मैं आप दोनों से भिन्न हूँ । हम लोगों का अभिन्नत्व तो सदा से ही है ॥ ५१ ॥

प्रधानस्याप्रधानस्य भागाभागस्वरूपिणः ।

ज्योतिर्मयस्य भागो मे युवामेकोऽहमंशकः ।। ५२ ।।

आप दोनों प्रधान और अप्रधान, अंश एवं अंशी स्वरूप ज्योतिर्मय,मेरे ही भाग हैं तथा मैं आप ही जैसा एक अंश हूँ५२

कस्त्वं कोऽहञ्च को ब्रह्मा ममैव परमात्मनः ।

अंशत्रयमिदं भिन्नं सृष्टिस्थित्यन्तकारणम् ।। ५३ ।।

आप कौन हैं? मैं कौन हूँ? ब्रह्मा कौन हैं? ये जगत की सृष्टि, पालन, तथा संहार के कारण रूप मुझ परमात्मा के ही तीन अंश हैं ॥ ५३ ॥

चिन्तयस्वात्मनात्मानं संस्तवं कुरु चात्मनि ।

एकत्र ब्रह्मवैकुण्ठशम्भूनां हृद्गतं कुरु ।।५४।।

स्वयं अपना चिन्तन कीजिए और स्वयं अपनी ही स्तुति करें तथा ब्रह्मा, विष्णु, शङ्कर की एकता को हृदयङ्गम कीजिए ॥ ५४ ॥

शिरोग्रीवादिभेदेन यथैकस्यैव धर्मिणः ।

अङ्गानि मे तथैकस्य भागत्रयमिदं हर ।। ५५ ।।

हे हर ! जैसे शिर, गला आदि एक ही शरीर के विभिन्न अङ्ग होते हैं । उसी प्रकार यह (हम लोगों का नाम भेद भी) एक मात्र मेरा ही अलग अलग तीन भाग है ॥ ५५ ॥

यज्योतिरग्र्यं स्वपरप्रकाशंकूटस्थमव्यक्तमनन्तरूपम् ।

नित्यञ्च दीर्घादिविशेषणाद्यैर्हीनं परं तच्च वयं न भिन्नाः ॥५६ ॥

जो ज्योतियों में अग्रगण्य है, जो स्वयं ही श्रेष्ठ प्रकाशरूप है, जो कूटस्थ और अव्यक्त है, जो अनन्त रूप है, जो नित्य शाश्वत है, जो दीर्घ हस्वादि द्वंद्वात्मक विशेषणों से रहित है, उस पर ब्रह्म तत्त्व से हम भिन्न नहीं है ॥५६॥

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

एतच्छ्रुत्वा वचस्तस्य महादेवो विमोहितः ।

जानन् स चाप्यभिन्नत्वं सद्विस्मृत्यान्यचिन्तनात् ।।५७।।

पुनः प्रपच्छ गोविन्दमनन्यत्वं त्रिभेदिनाम् ।

ब्रह्मविष्णुत्र्यम्बकानामेकस्य च विशेषकम् ।।५८ ।।

मार्कण्डेय बोले- विष्णु के उक्त वचन को सुनकर मोहग्रस्त शिव, उन ब्रह्मा के प्रति एकता को जानकर, उनके प्रति पराये की भावना को भूलकर विष्णु से विशेषकर ब्रह्मा, विष्णु और शिव तीन रूप वालों की आपसी एकता, अन्योन्याश्रय सम्बन्ध के विषय में पूछने लगे ।।५७-५८ ।।

ततो नारायणः पृष्टः कथयामास शम्भवे ।

अनन्यत्वं त्रिदेवानामेकत्वञ्च व्यदर्शयत् ।। ५९ ।।

तब शिव द्वारा पूछे जाने पर नारायण भगवान् विष्णु ने तीनों देवों की एकता और अनन्यता का विशिष्ट वर्णन किया५९॥

श्रुत्वा ततो विष्णुमुखाब्जकोशा-दनन्यतां विष्णुविधशतत्त्वे ।

दृष्ट्वां स्वरूपं च जघान नैनं विधिं मृड: पुष्पमधुप्रकाशकम् ।।६०।।

विष्णु के मुखकमल कोश से विष्णु ब्रह्मा तथा शिव की तात्त्विक अनन्यता को सुनकर पुष्प, मधु, प्रकाशक उन ब्रह्मा को आत्मरूप जानकर शिव ने उनका वध नहीं किया ॥ ६० ॥

॥ श्रीकालिकापुराणे त्रिदेवानामेकत्वप्रतिपादन नामैकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥

कालिका पुराण अध्याय ११ संक्षिप्त कथानक

मार्कण्डेय मुनि ने कहा- फिर वहाँ पर देवर्षि नारद जी के सहित सभी मानस पुत्र समागत हो गये थे । ये सब ब्रह्माजी के द्वारा किए हुए केवल स्मरण से ही बात के द्वारा विशेष प्रेरित जैसे होवें वैसे ही सब वहाँ उपस्थित हो गए थे । उनके साथ और ब्रह्माजी के साथ में अपने गणों के साथ में लेकर भगवान् शम्भु मोह से संगत होते हुए दक्ष के निवास मन्दिर में गये थे । इसके अनन्तर उनके कर्म के योगी काल के आने पर गणों ने शंख, पट्टह, डिण्डिम, सूर्यवंशी को वादित किया था और आनन्द से युक्त हुए वे सब शंकर का अनुगमन करते हैं । कुछ ताल बजा रहे थे और कोई करतलों के द्वारा अम्रितल की ध्वनि कर रहे थे । वे सब अपने अति वेग वाले विमानों के द्वारा वृषभध्वज का अनुगमन करते हैं। अनेक तरह की आकृतियों वाले गण भारी कोलाहल करते हुए तथा बुरी तरह की ध्वनि को करने वाले शब्दों के योग से ही वहाँ से अर्थात् शिव के आश्रम से निर्गत हुए थे । इसके उपरान्त आनन्द से युक्त देव, गन्धर्व और अप्सराओं के गण वाद्यों के द्वारा मोह को करते हुए तथा नृत्यों से समन्वित हुए वृषभध्वज का अनुगमन कर रहे थे । हे विपेन्द्रों ! गन्धर्वों तथा गणों के उस शब्द से सब दिशायें तथा समस्त वसुन्धरा परिपूरति हो गए थे अर्थात् वह ध्वनि सर्वत्र फैलकर भर गई थी ।

कामदेव भी अपने गणों के सहित श्रृंगार रस आदि के साथ काम को मोहित करता हुआ अनुगत हुआ था । भार्या के लिए भगवान् हर गमन करने पर उस समय में समस्त सुर ब्रह्मा आदि स्वयं ही मनोहर शब्द कर रहे थे । हे द्विजश्रेष्ठों! सभी दिशायें सुप्रसन्न हुई थीं । परम शान्त अग्नियाँ प्रज्वलित हो गयी थीं और आकाश से पुष्पों से समन्वित हो गए थे । जो कोई अस्वस्थ भी थे वे भी सभी प्राणी स्वस्थ हो गये थे । हंस और सारसों के समुदाय नील कम्बु और चकोर ईश्वर की प्रेरणा करते हुए के ही समान परम मधुर शब्दों को कर रहे थे । शिवजी को भुजंग (सर्प), बाघम्बर, जटाजूट, चन्द्रकला भूषणता को प्राप्त हुए थे वह इन भूषणों से भी अधिक दीप्त हो रहे थे। इसके अनन्तर एक क्षण में बलवान् और वेग वाले बलीवर्द (बैल) के द्वारा ब्रह्मा और नारद आदि के सहित शिव दक्ष के निवास स्थान पर पहुँच गए थे ।

इसके उपरान्त महान तेजस्वी प्रजापति दक्ष ने स्वयं शिव का स्वागत करके ब्रह्मा आदिक के लिए उनके लिए जैसे भी उचित थे, आसन दिए थे। उसी भाँति अर्घ्य, पाद्य आदि से उन सबकी समुचित पूजा करके जैसी भी योग्य थी फिर दक्ष मानस मुनियों के साथ संविद किया था । हे द्विजसत्तमों! इसके उपरान्त शुभमुहूर्त्त और लग्न में प्रजापति दक्ष ने बड़े ही हर्ष से अपनी पुत्री सती को शम्भु भगवान् के लिए प्रदान किया था । शम्भु ने भी सभी विधि से हर्षित होकर सती का परिग्रहण किया था। वृषभध्वज ने परम श्रेष्ठ तनु वाली दाक्षायणी से उस समय में पाणि का ग्रहण किया । ब्रह्मा और नारद आदि मुनियों ने सामवेद की गीतियों से ऋचाओं से तथा सुश्राव्य यजुर्वेद के मन्त्रों से ईश्वर को तोषित किया था । सब गणों ने वाद्यों का वादन किया था और अप्सराओं के गणों ने नृत्य किया था । आकाश में संगत मेघ ने पुष्पों की वृष्टि की थी। इसके अनन्तर भगवान् गरुड़ध्वज कमला (लक्ष्मी) के साथ में अत्यन्त वेग वाले गरुड़ द्वारा भगवान् शम्भु के समीप उपस्थित होकर यह वचन बोले थे ।

श्री भगवान् ने कहा- हे हर ! जिस प्रकार से लक्ष्मी के साथ से मैं शोभायमान होता हूँ ठीक उसी भाँति स्त्रिग्ध नील अंजन के समान श्वास शोभा से समन्वित दाक्षायणी के साथ आप शोभा को प्राप्त हो रहे हैं । आप इसी सती के साथ में विराजमान होकर देवों की अथवा मानवों की रक्षा करो। इस सती के साथ संसार वालों का सदा मंगल करो । हे शंकर! यथायोग्य दस्युओं का हनन करेगा। अभिलाषा के सहित जो भी इसको देखकर अथवा श्रवण करेगा । हे भूतेश ! उसका हनन करोगे इसमें कुछ भी विचारणा नहीं है अर्थात् इसमें कुछ भी संशय नहीं है।

मार्कण्डेय मुनि ने कहा- हे द्विजो ! प्रीति से प्रसन्न मुख वाले सर्वज्ञ प्रभु ने प्रसन्न मन वाले परमेश्वर से 'ऐसा ही होवे' यह कहा था । इसके अनन्तर उस समय से ब्रह्माजी ने चारु (सुन्दर ) हास वाली दक्ष की पुत्री सती का दर्शन करके कामदेव से आविष्टा मन वाले होते हुए उसके मुख को देखने लगे थे। उस समय ब्रह्माजी ने बारम्बार सती के मुख का अवलोकन किया था और फिर अवश होते हुए उस समय में इन्द्रियों के विकार को प्राप्त हुए थे ।

हे द्विजोत्तम! इसके अनन्तर उनका तेज शीघ्र ही भूमि पर गिर गया था जो कि मुनि के आगे उस समय में वह जल दहन की आभा वाला था। हे द्विजसत्तमों! इसके उपरान्त उससे मेघ शब्द से संयुत हो गए थे।

अब उन सुसज्जित मेघों के नाम बतलाए जाते हैं- सम्वर्त्त, अव, पुष्कर और द्रोण । वे गर्जना करते हुए और जलों को मोचित करने वाले थे । उन मेघों के द्वारा आकाश के संच्छादित हो जाने पर अर्थात् सर्व आकाश मेघों के द्वारा घिरा हुआ हो जाने पर भगवान् शंकर कामवासना से मोहित होते हुए दाक्षायणी देवी को अतीव देखते हुए कामदेव के द्वारा मोहित हुए । इसके उपरान्त उस समय में भगवान् विष्णु के वचन का स्मरण करते हुए शंकर ने शूल को उठाकर ब्रह्माजी का हनन करने की इच्छा की थी । हे द्विजोत्तमों ! शम्भु के द्वारा ब्रह्माजी को मारने के लिए त्रिशूल के उद्यमित करने पर अर्थात् उठाये जाने पर मरीचि और नारद आदि सब उस समय में हाहाकार करने लगे थे । प्रजापति दक्ष ऐसा मत करो, ऐसा मत करो, कह कहते हुए शंकित होते हाथ को उठाकर शीघ्र ही आगे समागत होकर भूतेश्वर प्रभु को निवारित किया था । इसके उपरान्त उस समय में महेश्वर ने दक्ष को मलिन देखकर भगवान् विष्णु की वाणी को स्मरण कराते हुए यह प्रिय वचन बोला था ।

ईश्वर ने कहा- हे विपेन्द्र ! नारायण ने जो इस समय में कहा था, हे प्रजापते ! वह यहाँ पर ही मैंने भी अंगीकार किया था। जो भी इस सती को कामवासना की अभिलाषा से युक्त होते हुए देखता है उसको आप मार डालेंगे। मैं इस वचन को इसका हनन करे सफल करता हूँ । ब्रह्माजी ने अभिलाषा अर्थात् कामवासना की इच्छा से समन्वित होकर क्यों सती का अवलोकन किया था। वह तेज के त्याग करने वाले हो गये थे इसी से उसका हनन मैं करता हूँ क्योंकि वे अपराध (पाप) करने वाले हैं ।

मार्कण्डेय मुनि ने कहा-इस रीति से बोलने वाले उनके आगे स्थित होकर भगवान् विष्णु ने बड़ी शीघ्रता की थी। समस्त जगत के प्रभु ने उनको मारने का निवारण करते हुए यह वचन कहा था।

श्री भगवान् ने कहा- हे भूतेश्वर ! जगतों के सृजन करने वाले और परमश्रेष्ठ ब्रह्माजी का हनन नहीं करोगे क्योंकि इन्होंने ही आपको भार्या के लिए सती को परिकल्पित किया था । हे शम्भो ! यह चतुर्मुख ( ब्रह्माजी ) प्रजाओं के सृजन करने के लिए प्रादुर्भूत हुए थे । इनके मारे जाने पर जगत का सृजन करने वाला अन्य कोई अब प्राकृत नहीं है । फिर हम किस तरह से सृजन, पालन और संहार के कर्मों को करेंगे क्योंकि इनके द्वारा वह मेरे आपके द्वारा ही सामञ्जस्य से ये कर्म हुआ करते हैं। एक के निहित हो जाने पर इनमें कौन हैं जो उस कर्म को करेगा । हे वृषभध्वज ! इस कारण से आपके द्वारा विधाता वध करने के योग्य नहीं है।

ईश्वर ने कहा- मैं इन चतुरानन ब्रह्मा को मारकर अपनी प्रतिज्ञा को पूर्ण करूँगा । बाकी रही प्रजा सृजन की बात सो मैं अकेला ही प्रजाओं का जो भी स्थावर और जंगम हैं सृजन कर दूँगा। मैं अन्य विधाता का सृजन कर दूँगा अथवा मैं ही अपने तेज से कर दूँगा और मेरे द्वारा निर्मित एवं सृजित विधाता सृष्टि के करने वाले होंगे जो सर्वदा मेरी अनुज्ञा से ही करेगा। वे विभो ! मैं ही उसको मारकर अर्थात् ब्रह्मा का वध करके अपनी प्रतिज्ञा का पालन करते हुए हे चतुर्भुज ! एक सृजन करने वाले का सृजन करूँगा । आप मुझे वारित न करिए ।

मार्कण्डेय मुनि ने कहा- भगवान् चतुर्भुज ने गिरीश के इस वचन का श्रवण करके मन्द मुस्कान से युक्त प्रसन्न मुख वाले होते हुए फिर भी 'ऐसा मत करो' - यह कहते हुए बोले की प्रतिज्ञा की पूर्ति आत्मा में करना योग्य नहीं होता है। हे द्विजोत्तमों! ईश्वर के मुख के सामने ही विष्णु ने कहा था । इसके उपरान्त शिव ने कहा था कि मेरे शम्भु रूप से ब्रह्मा मेरी आत्मा किस तरह से हैं । यह तो प्रत्यक्ष रूप से आगे स्थित होते हुए भिन्न ही दिखलाई दे रहे हैं। इसके अनन्तर उस समय मुनियों के सामने भगवान् ने हँसकर गरुड़ध्वज ने महादेव को दोष देते हुए कहा था ।

श्री भगवान् ने कहा-ब्रह्माजी आपसे भिन्न नहीं हैं और न शम्भु ही ब्रह्माजी से भिन्न हैं और दोनों से मैं भी भिन्न नहीं हूँ। यह हम तीनों की अभिन्नता तो सनातन अर्थात् सदा से ही चली आने वाली है। भाग अभाग स्वरूप वाले प्रधान और अप्रधान का ज्योतिर्मय का मेरा भाग आप दोनों हैं और मैं अशंक हूँ। कौन तो आप हैं, कौन मैं हूँ, कौन ब्रह्मा हैं वे तीनों ही परमात्मा मेरे ही अंश हैं । सृजन, पालन और संहार के कारण ये भिन्न होते हैं। आप अपनी आत्मा में ही संस्तव करो । ब्रह्मा, विष्णु और शम्भु को एकत्रित हुए हृदयत करो। जिस तरह एक ही धर्मी के शिर, ग्रीवा आदि के भेद से अंग होते हैं। हे हर ! ठीक उसी भाँति मेरे एक के ही ये तीनों भाग हैं। जो ज्योति सबसे उत्तम है, जो अपने और पराये प्रकाश रूप हैं, कूटस्थ, अव्यक्त और अनन्त रूप से युक्त हैं और नित्य हैं तथा दीर्घ आदि विशेषणों से हीन तथा वह पर है उसी रीति से हम तीनों अभिन्न हैं ।

मार्कण्डेय मुनि ने कहा- उन भगवान् के इस वचन को श्रवण करके महादेव विमोहित हो गये थे । वह अभिन्नता का ज्ञान रखते हुए भी अन्य चिन्तन से सदा ही विस्मृति होने से ही उनको अभिन्नता का ज्ञान नहीं हो रहा था । उन्होंने फिर भी गोविन्द से त्रिभेदियों की अभिन्नता को पूछा था। ब्रह्मा, विष्णु और त्र्यम्बकों का और एक का विशेषक को पूछा। इसके अनन्तर पूछे गए नारायण ने शम्भु से कहा था और तीनों देवों का अनन्यता और एकता को प्रदर्शित किया था । इसके उपरान्त विष्णु भगवान् के मुख कमल से कोश से अनन्यता का श्रवण करके तथा विष्णु-विधि और ईश के तत्व में स्वरूप को देखकर मृड (शिव) ने पुष्प, मधु से प्रकाश विधाता इसको नहीं मारा था ।

॥ श्रीकालिकापुराण में त्रिदेवानामेकत्वप्रतिपादन नामक ग्यारहवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ।। ११ ।।

आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 12  

No comments:

vehicles

[cars][stack]

business

[business][grids]

health

[health][btop]