कालिका पुराण अध्याय १३
कालिका पुराण अध्याय १३ में ब्रह्मा से क्रुद्ध होने वाले शङ्कर को विष्णु ने त्रिदेवों का एकत्व प्रतिपादित कर शान्त किया। एकत्वप्रतिपादक श्लोक बड़े ही भावसम्पन्न हैं।(श्लोक ४८-५०)। का वर्णन है।
कालिका पुराण अध्याय १३
Kalika puran chapter 13
कालिकापुराणम् त्रयोदशोऽध्यायः हरकोपोपशमनम्
कालिकापुराण तेरहवाँ
अध्याय -हर कोप शमन
अथ कालिका
पुराण अध्याय १३
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
ततो
ब्रह्माण्डसंस्थानं दर्शयामास शम्भवे ।
ववृधे तोयराशिस्थं
ब्रह्माण्डञ्च यथापुरा ।। १ ।।
मार्कण्डेय बोले-
तब विष्णु ने शिव को ब्रह्माण्ड संस्थान दिखाया । जिससे प्राचीन काल में जलराशि के
मध्यस्थित ब्रह्माण्ड ने विकास को प्राप्त किया था ॥ १ ॥
तन्मध्ये पद्मगर्भाभं
ब्रह्माणञ्च जगत्पतिम् ।
ज्योतिरूपं प्रकाशार्थं
सृष्ट्यर्थञ्च पृथग्गतम् ।।२।।
उसके मध्य में
ज्योतिरूप से प्रकाशित किन्तु सृष्टि हेतु पृथक रूप से कमलगर्भ के समान भासमान
जगत्पति ब्रह्मा को दिखाया ॥ २ ॥
शरीरिणञ्च ददृशे
ब्रह्माण्डान्तर्गतं मुहुः ।
चतुर्भुजं
प्रकाशान्तं ज्योतिर्भिः कमलासनम् ॥३॥
जो ब्रह्माण्ड
के अन्तर्गत पुनः शरीरधारी चार भुजाओं से युक्त अनेक ज्योतियों से प्रकाशित, कमलासन पर विराजमान थे ॥३॥
तत्रैव च
त्रिधाभूतं वपुर्ब्राह्मयं ददर्श सः ।
ऊर्ध्वमध्यान्तभागैश्च
ब्रह्मविष्णुशिवात्मकम् ।।४।।
उस ब्रह्म शरीर
में ऊपरी, मध्य एवं अन्त भागानुसार ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव को तीन रूपों में देखा ॥ ४ ॥
थोर्धभागो वपुषो
ब्रह्मत्वमगमत्तदा ।
मध्यं यथा
विष्णुभूतं ददर्शान्तस्य शम्भुताम् ।।५।।
जिस प्रकार से
शरीर का ऊपरी भाग ब्रह्मा के स्वरूप को, मध्यभाग विष्णु के रूप को तथा अन्तिम शिव के स्वरूप को
प्राप्त था, ऐसा देखा ॥ ५ ॥
एकमेव शरीरन्तु
त्रिधाभूतं मुहुर्मुहुः ।
हरो ददर्श
स्वे गर्भे तथा सर्वमिदं जगत् ॥ ६ ॥
अपने ही
अन्तर्गत इस सम्पूर्ण जगत को एक ही शरीर को बार बार तीन भागों में बँटते शिव ने
देखा ॥ ६ ॥
कदाचिद्वैष्णवं
कायं ब्राह्ये काये लयं व्रजेत् ।
ब्राह्यं तथा
वैष्णवे च शाम्भवे वैष्णवं तथा ।।७।।
शाम्भवं
वैष्णवे काये ब्राह्मं वाप्यथ शाम्भवे ।
गच्छन्तं लीनतां
शम्भुरेकताञ्च मुहुर्मुहुः ॥८॥
उन्होंने
(भगवान् शिव ने) कभी विष्णु के शरीर को ब्रह्मा के शरीर में तथा कभी ब्रह्मा के
शरीर को, विष्णु के शरीर में, कभी
विष्णु के शरीर को शिव के शरीर में, कभी शिव के शरीर को
विष्णु के शरीर में अथवा ब्रह्मा के शरीर को शिव के शरीर में प्रवेश करते, लीन होते और एकात्मक होते, बार बार देखा ॥ ७-८ ।।
ददर्श वामदेवोऽपि
भिन्नञ्चाप्यपृथग्गतम् ।
परमात्मनि गच्छन्तं
लीनतां तद्वपुः स्वयम् ।।९।।
वामदेव ने भी
स्वयं भिन्न और अलग होते हुए भी परमात्मा में अपने शरीर को लीन होते देखा ॥ ९ ॥
तन्मध्ये पृथिवीं
शम्भुर्ददर्श विततां जले ।
महापर्वतसङ्घातैर्विरलं
स्थगितन्ततः ।। १० ॥
भगवान् शिव ने
उस ब्रह्माण्ड के मध्य में जल पर फैली हुई, बड़े-बड़े पर्वत समूहों से, स्थिर की गई
पृथ्वी को देखा॥१०॥
पुनर्ददर्श
ब्रह्माणं कुर्वन्तं स्वर्गमादितः ।
आत्मानञ्च पृथग्भूतं
विष्णुञ्च गरुडासनम् ।।११।।
पुनः ब्रह्मा
को प्रारम्भ से स्वर्गादि का निर्माण करते, गरुड़ासन पर विराजमान विष्णु को तथा स्वयं को भी अलग से देखा ॥११॥
दक्षं
प्रजापतिं तत्र तथैव च निजान् गणान् ।
मरीच्यादीन्
दश तथा वीरिणीञ्च तथा सतीम् ।।१२।।
वहाँ उसी रूप
में उन्होंने दक्षप्रजापति, अपने गणों, मरीचि आदि दश मानसपुत्रों, वीरिणी तथा देवी सती को भी देखा ॥ १२॥
सन्ध्यां रतिं
च कन्दर्पं शृङ्गारं सवसन्तकम् ।
हावान्
भावांस्तथा मारान् ऋषीन् देवान् मरुद्गणान् ।।१३।।
उन्होंने देवी
सन्ध्या, रति तथा शृङ्गार एवं वसन्त के सहित कामदेव
को, हाव-भाव तथा मारगणों, ऋषियों,
देवताओं और मरुद्गणों को भी देखा ॥१३॥
मेघाँश्च
चन्द्रं सूर्यञ्च वृक्षान् वल्लीस्तृणानि च ।
सिद्धान्
विद्याधरान् यक्षान् राक्षसान् किन्नरांस्तथा ।।१४।।
मानुषांश्च
भुजंगांश्च ग्राहान्मत्स्यांश्च कच्छपान् ।
उल्कानिर्घातकेतूंश्च
कृमिकीटपतङ्गकान् ।। १५ ।।
उन्होंने
मेघों, चन्द्रमा, सूर्य,
वृक्षों, लताओं, तृणों
तथा सिद्धों विद्याधरों, यक्षों, राक्षसों
और किन्नरों, मनुष्यों, सर्पों,
ग्रहों, मत्स्यों, कच्छपों,
उल्काओं, पतनकारी धूमकेतुओं एवं कृमि
कीट-पतङ्गों को भी देखा ॥ १४-१५।।
काञ्चिद्ददर्श
वनितां द्वन्द्वभावं प्रकुर्वतीम् ।
उत्पन्नमुत्पद्यन्तंच
विपद्यन्तञ्च कञ्चन ।।१६।
उन्होंने किसी
स्त्री को द्वन्द्वभाव प्रकट करते हुये देखा । किसी को उत्पन्न तथा किसी को
उत्पन्न होते और किसी को नष्ट होते देखा ॥ १६ ॥
हसतो रमतः
कांश्चित् कांश्चिद्विलपतस्तथा ।
धावतश्चापराञ्छम्भोर्ददर्श
परमेश्वरः ।।१७।।
किसी को हँसते, किसी को रमण करते, किसी
को विलाप करते तो दूसरी को दौड़ते हुए परमेश्वर शिव ने देखा ॥१७॥
दिव्यालङ्कारसंछन्ना
माला चन्दनचच्चिताः ।
वीक्षाञ्च
चक्रिरे केचिच्छम्भुना क्रीडिता मुहुः ।। १८ ।।
पुनः कोई
दिव्य अलङ्कारों से ढकी हुई, कोई माला चन्दनादि धारण किये थी, तो कोई खेलती हुई
शिव के द्वारा देखी गई ॥१८॥
स्तुवन्तः
प्रस्तुवन्तश्च शम्भुं विष्णुं तथा विधिम् ।
केचिद्ददृशिरे
तेन मुनयश्च तपोधनाः ।। १९ ।।
तपांसि चरतः केचिन्नदीतीरे
तपोवने ।
स्वाध्यायवेदनिरताः
पाठ्यन्तश्चैव केचन ॥२०॥
उनके द्वारा
कुछ तपस्वी और मुनिगण शिव, विष्णु तथा ब्रह्मा की स्तुति करते हुए कुछ उनकी विशिष्ट स्तुति करते देखे
गये। कोई नदी तट पर या तपोवनों में तपस्या करते दिखाई दिये तो कोई वेद के
स्वाध्याय में निरत थे, तो कोई पढ़ाते हुए देखे गये । १९-२०
॥
तथैव सागराः
सप्त नद्यो देवसरांसि च ।
तथैव पर्वतस्थोऽसौ
ददृशे शम्भुना स्वयम् ।। २१ ।।
उसी प्रकार
सात समुद्र, नदियाँ
तथा देवताओं के सरोवरों तथा पर्वत पर स्थित स्वयं को भी शिव द्वारा देखा गया ॥२१॥
मायालक्ष्मीस्वरूपेण
हरिं सन्मोहयत्यलम् ।
सतीरूपां तथात्मानं
मोहयन्तीति शङ्करः ।।२२।।
माया को
लक्ष्मी रूप से हरि को, सतीरूप से स्वयं को सम्मोहित करते शङ्कर ने देखा ॥२२॥
सत्या सार्धं
स्वयं रेमे कैलासे मेरुपर्वते ।
मन्दरे देवविपिने
शृङ्गाररससेविते ।। २३ ।।
स्वयं को सती
के साथ कैलाश, मेरुपर्वत,
मन्दराचल तथा नन्दनादि देववनों में शृङ्गार रसयुक्त हो रमण करते
देखा ॥२३॥
सतीदेहं तथा त्यक्त्वा
जाता हिमवतः सुता ।
यथा प्राप
पुनस्तान्तु यथा चैवान्धको हतः ।। २४ ।।
कार्तिकेयः समुत्पन्नो
यथाहंस्तारकाह्वयम् ।
तत्सर्वं
विस्तरात् सम्यग् ददर्श वृषभध्वजः ।। २५ ।।
जिस प्रकार
सती ने अपनी सतीदेह छोड़कर हिमालय की पुत्री के रूप में उत्पन्न हो पुनः शिव को
पति रूप में प्राप्त किया और जिस प्रकार अन्धकासुर का वध हुआ । कार्तिकेय जिस
प्रकार उत्पन्न हुए और जिस प्रकार उन्होंने तारकासुर का वध किया । वह सब वृषभध्वज
शिव ने भलीभाँति विस्तार से देखा ।। २४-२५॥
हिरण्यकशिपुर्जघ्ने
नरसिंहस्वरूपिणा ।
यथा हतः
कालनेमिहिरण्याक्षो यथा हतः ।। २६ ।।
विष्णुना
यादृशं युद्धं दानवौघैः पुराकृतम् ।
यथा ये ये च
निहतास्तत्सर्वं दृष्टवान् हरः ।। २७ ।।
नरसिंह
स्वरूपधारी विष्णु द्वारा हिरण्यकशिपु जैसे मारा गया, जिस प्रकार कालनेमि और हिरण्याक्ष मारे
गये। प्राचीनकाल में दानव वीरों के साथ विष्णु द्वारा जिस प्रकार के युद्ध किये
गये और जो-जो राक्षस मारे गये उन सबको शिव ने देखा ॥ २६-२७।।
जगत्प्रपञ्चान्
ब्रह्मादीनक्षत्रग्रहमानुषान् ।
सिद्धविद्याधरादींश्च
दृष्ट्वा दृष्ट्वा पृथक् पृथक् ॥२८॥
आत्मानं तान्
संहरन्तं ददृशे शम्भुरीश्वरः ।
संहारान्ते
ददर्शासौ ब्रह्मविष्णुमहेश्वरान् ।। २९ ।।
ब्रह्मादि तथा
नक्षत्र, ग्रह, मनुष्य,
सिद्धविद्याधरादि जगत्प्रपञ्चों को अलग- अलग देखकर स्वयं को उनका
संहार करते हुए शिव ने देखा तथा संहार के अन्त में उन्होंने ब्रह्मा, विष्णु और शिव को देखा ।। २८-२९ ।।
शून्यं समभवत्सर्वं
जगदेतच्चराचरम् ।। ३० ।।
तब यह
सम्पूर्ण चराचर जगत् शून्य सम हो गया ॥३०॥
शून्ये जगति
सर्वस्मिन् ब्रह्मा विष्णुशरीरगः ।
लीनः शम्भुश्च
तस्यैव शरीरं प्रविवेश ह ।। ३१ ।।
सम्पूर्ण जगत्
के शून्य में लीन हो जाने पर ब्रह्मा, विष्णु के शरीर में लीन हो गये । तथा शिव भी उसी शरीर में
प्रवेश कर गये ॥३१॥
एकमेवं ददर्शासौ
विष्णुमव्यक्तरूपिणम् ।
नान्यत्किंचिद्ददर्शासौ
तदा विष्णुमृते हरः ।।३२।।
उन्होंने
अव्यक्त रूप में एकमात्र विष्णु को ही देखा तब शिव को विष्णु के अतिरिक्त कुछ भी
नहीं दिखाई दिया ॥ ३२॥
अथ विष्णुश्च
ददृशे लयं तं परमात्मनि ।
भासमानं परं
तत्त्वे ज्योतीरूपे सनातने ।। ३३ ।।
इसके बाद
विष्णु प्रकाशित, ज्योतिरूप, सनातन, परब्रह्म =
तत्त्व उन परमात्मा में लीन होते दिखाई दिये ॥३३॥
ततो ज्ञानमयं नित्यमानन्दं
ब्रह्मणः परम् ।
केवलं
ज्ञानगम्यञ्च ददर्शान्यन्न किञ्चन ।। ३४ ।।
तब केवल ज्ञान
से जानने योग्य, ज्ञानमय,
नित्य, आनन्दस्वरूप परब्रह्म दिखाई दिया अन्य
कुछ नहीं दिखा ॥३४॥
एकत्वञ्च पृथक्त्वञ्च
जगतः परमात्मनि ।
ददर्श
स्वशरीरान्तः सर्गस्थित्यन्तसंयमान् ।। ३५ ।।
संसार की
परमात्मा से एकता और पृथकता को देखा तथा अपने शरीर में ही सृष्टि, स्थिति और अन्त्य की व्यवस्थाओं को देखा ।।
३५ ।।
प्रकाशं
परमात्मानं शान्तं नित्यमतीन्द्रियम् ।
एकमेवाद्वयं ब्रह्म
ददर्शान्यन्न किञ्चन ॥३६॥
उन्होंने
एकमात्र प्रकाशस्वरूप, अद्वितीय, शान्त, नित्य,
अतीन्द्रिय, परमात्मरूप ब्रह्म को देखा,
अन्य कुछ नहीं ॥ ३६ ॥
को वा
विष्णुर्हरः को वा को ब्रह्मा किमिदं जगत् ।
इति भेदो न
जगृहे शम्भुना परमात्मनः ।। ३७।।
कौन विष्णु है? या कौन शिव है? या
कौन ब्रह्मा है ? यह जगत् क्या है ? परमात्मा
के इन भेदों को शिव ने ग्रहण नहीं किया ॥३७॥
एवं
सम्पश्यतस्तस्य शरीराभ्यन्तराद्वहिः ।
निः ससाराथ मायादि
प्रविवेश वृषध्वजम् ॥३८॥
इस प्रकार जब
शिव देख रहे थे तभी मायादि ने उन्हीं के शरीर से बाहर निकलकर वृषभध्वज (शिव) में
ही प्रवेश किया ॥ ३८ ॥
अनन्यत्वं
पृथक्त्वञ्च दर्शयित्वा जनार्दनः ।
शम्भवे
तच्छरीरात्तु बहिर्भूतस्ततो द्रुतम् ।। ३९ ।।
तब विष्णु शिव
को त्रिदेवों की एकता और अनेकता दिखाकर शीघ्र ही उनके शरीर से बाहर निकल गये ॥३९॥
अथ
त्यक्तसमाधेस्तु हरस्य चलितात्मनः ।
सतीं मनो
जगामाशु मोहितस्य च मायया ।। ४० ।।
तब समाधि
छोड़कर शिव की आत्मा विचलित हो उठी। माया से मोहित हो उनका मन शीघ्र ही सती की ओर
आकर्षित हो गया ॥४०॥
ततो मुहुर्हरो
वक्त्रं दाक्षायण्या मनोहरम् ।
प्रबुद्धकमलाकारं
वीक्षांचक्रे द्विजोत्तमाः ।। ४१ ।।
हे
द्विजोत्तम! तब शिव बारम्बार दाक्षायणी के खिले हुए कमल के आकार वाले, मनोहर मुख को देखने लगे॥४१॥
ततो
दक्षमरीच्यादीन् स्वगणान् कमलासनम् ।
विष्णुञ्च
तत्र संवीक्ष्य शङ्करो विस्मितोऽभवत् ।।४२।।
तब दक्ष-
मरीचि आदि को, अपने गणों
को, ब्रह्मा और विष्णु को वहाँ देखकर शिव विस्मित हो गये ॥४२॥
अथ तं
विस्मयाविष्टं महादेवं वृषभध्वजम् ।
स्मितप्रफुल्लवदनं
हरमाह जनार्दनः ।।४३।
इसके बाद उन
विस्मय में पड़े हुए, मुस्कान से खिले हुए मुख मण्डल वाले वृषभध्वज महादेव शिव से जनार्दन बोले ॥४३॥
।।
श्रीभगवानुवाच ।।
यद्यत् पृष्टं
त्वयैकत्वे भिन्नतायाञ्च शङ्कर ।
त्रयाणामथ देवानां
तज्ज्ञातमधुना त्वया ॥४४॥
श्रीभगवान्
बोले- आपके द्वारा ब्रह्मा, विष्णु, महेश इन तीनों देवताओं की एकता और अनेकता के
सम्बन्ध में जो-जो पूछा गया, वह सब अब आपके द्वारा जान लिया
गया है ।।४४।।
प्रकृतिः
पुरुषश्चैव कालो माया निजान्तरे ।
त्वया ज्ञाता
महादेव कीदृशास्ते च के पुनः ।। ४५ ।।
हे महादेव!
अपने अन्तर में ही, प्रकृति पुरुष, काल तथा माया आपसे जान ली गई हैं।
पुनः ये कैसे हैं? इसको भी जाना जा चुका है ॥४५॥
एकं ब्रह्म
सदा शान्तं नित्यञ्च परमं महत् ।
तत् कथं
भिन्नतां जातं दृष्टं तत् कीदृशं त्वया ।। ४६ ।।
सदैव शान्त, नित्य, महान् प्रकार
से ब्रह्म कैसे भिन्नता को प्राप्त करता है, यह आपने देखा वह
कैसा था ? ॥४६॥
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
इति पृष्टो
भगवता भगवान् वृषभध्वजः ।
जगाद हरये तथ्यमेतद्वाक्यं
द्विजोत्तमाः ।। ४७ ।।
मार्कण्डेय
बोले- हे द्विजोत्तमों! भगवान् विष्णु द्वारा ऐसा पूछे जाने पर भगवान् शिव ने ये
तथ्यपूर्ण वाक्य कहे ॥ ४७ ॥
।। ईश्वर उवाच
।।
एकं शिवं
शान्तमनन्तमच्युतं ब्रह्मास्ति तस्मान्नहि किञ्चिदीदृशम् ।
तस्मादभिन्नं सकलं
जगद्धरे: कालादिरूपाणि च सृष्टिहेतुः ।।४८।।
ईश्वर बोले-
हे हरि ! एक कल्याणकारी, शान्त, अन्तहीन, अच्युत ब्रह्म
है, उससे भिन्न कुछ भी उसके जैसा नहीं है। यह सारा संसार
उससे अभिन्न है । वही सृष्टि के लिए कालादि रूप धारण करता है ॥४८॥
समस्त
भूतप्रभवं निरञ्जनं वयञ्च तस्यैव सदांशरूपिणः ।
सृष्टिस्थितिं
संयमनं तदीरितं रूपत्रयं तस्य विभाति भेदतः ।। ४९ ।।
वह समस्त
प्राणियों का जन्मदाता है, निरञ्जन है। हम उसके ही शाश्वत- अंशरूप हैं । सृष्टि स्थिति अन्त आदि के
प्रेरक हमारे तीनों रूप उसी भेद से प्रकट होते हैं ॥४९ ॥
नाहं न च त्वं
न हिरण्यगर्भो न कालरूपं प्रकृतिं न चान्यत् ।
तत् प्रेरणां कर्तुमलं
च किञ्चिद्विनापि रूपं सदपीह तस्य ।। ५० ।।
न मैं, न आप, न हिरण्यगर्भ,
न काल, न प्रकृति या और कोई भी उसकी प्रेरणा
के बिना कुछ नहीं कर सकता । यहाँ सभी उसी का रूप है ॥५०॥
।।
श्रीभगवानुवाच ।।
इति तत्त्वं
त्वया प्रोक्तं ज्ञातञ्च वृषभध्वज ।
तदंशभूतास्तु वयं
ब्रह्मविष्णुपिनाकिनः ।। ५१ ।।
श्रीभगवान
विष्णु बोले- हे वृषभध्वज ! यह जो तत्त्व आपके द्वारा जाना और बताया गया है। हम
ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव उसी के अंशभूत हैं ॥ ५१ ॥
तस्मात् त्वया
न वध्योऽयं विरिञ्चिस्तव चेद्भवेत् ।
एकता विदिता
शम्भो ब्रह्मविष्णुपिनाकिनाम् ।। ५२ ।।
शम्भु !
ब्रह्मा-विष्णु और शिव की एकता यदि आपको ज्ञात हो गई है तो यह ब्रह्मा आपके द्वारा
मारे जाने योग्य नहीं रहे ॥५२॥
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
इति तस्य वचः श्रुत्वा
विष्णोरमिततेजसः ।
न जघान
महादेवो विधिं दृष्ट्वाथ चैकताम् ।।५३ ।।
अमित तेजस्वी
विष्णु के इस वचन को सुनकर और पारस्परिक एकता को देखकर महादेव ने विधाता को नहीं
मारा ॥५३॥
इति वः कथितं
विष्णुर्यथानन्यत्वमादिशत् ।
शम्भवे
प्रस्तुतं तद्वः कथयामि पुनर्द्विजाः ।।५४।।
हे द्विजों!
वह जैसे विष्णु ने शिव को अनन्यता का दिग्दर्शन कराया आप लोगों से मैंने कहा अब
मैं आगे का प्रसङ्ग पुनः कहता हूँ ॥ ५४ ॥
॥ इति
श्रीकालिकापुराणे हरकोपोपशमनं नाम त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥
कालिका पुराण अध्याय १३ संक्षिप्त कथानक
मार्कण्डेय
मुनि ने कहा- इसके अनन्तर भगवान् ने शम्भु ब्रह्माण्ड का संस्थान दिखलाया था जिस
प्रकार से पहले ब्रह्माण्ड जो जल की राशि में स्थित होता हुआ बढ़ा था । उसके मध्य
में पद्मगर्भ की आभा वाले जगत् के पति ब्रह्मा को जो ज्योति के रूप वाला प्रकाश के
लिए और सृष्टि की रचना करने के लिए पृथक्गत है और शरीरधारी को देखा था । फिर
ब्रह्माण्ड के अन्तर्गत चार भुजाओं से समन्वित ज्योतियों से प्रकाशित कमल पर आसन
वाले को देखा था और वहीं पर उन्होंने तीन भागों में स्थित वपु वाले ब्रह्मा को
देखा था । जो ऊर्ध्व, मध्य और अन्त भागों के द्वारा ब्रह्मा,
विष्णु और शिव के स्वरूप वाला था। जिस रीति से वायु का
ऊर्ध्व भाग उस समय ब्रह्मत्व को प्राप्त हो गया था जो मध्य भाग था। वह एक ही शरीर
तीन भागों में बार-बार हर भगवान् ने अपने गर्भ में इस सम्पूर्ण जगत् को उसी भाँति
देखा था । कदाचित् वैष्णवकाय अर्थात् विष्णु का शरीर ब्रह्मकाय में अर्थात्
ब्रह्मा के शरीर में लय हो जाता है। किसी समय में ब्रह्म वैष्णव में तथा शाम्भव
वैष्णवकाय लीन हो जाता है। तात्पर्य यह है कि कभी ब्रह्मा का शरीर विष्णु के शरीर
में और शम्भु के शरीर में विष्णु का शरीर लय को प्राप्त हो जाया करता है ।
शम्भु का शरीर
विष्णु के वपु में अथवा ब्रह्मा का वपु शम्भु शरीर में लीनता को प्राप्त होता हुआ
तथा बार-बार एकता को प्राप्त होने वाला शम्भु भगवान् ने देखा था । वामदेव की
भिन्नता को अप्राप्त पृथक्गत परमात्मा में गमन करते हुए अर्थात् लीनता को प्राप्त
होते हुए उसके वपु को स्वयं देखा था । शम्भु ने उसके मध्य में जल में वितत अर्थात्
विस्तृत पृथ्वी को देखा था । जो महान् पर्वतों के संघातों से विरल हैं । फिर
उन्होंने आदि से सर्ग की रचना करते हुए ब्रह्माजी को देखा था तथा अपने आपको
पृथक्भूत और गरुड़ पर आसन वाले विष्णु को देखा था । वहाँ पर ही प्रजापति दक्ष को
और उसी भाँति अपने गणों को, प्ररीचि आदि दशों को, वैरिणी को, सती, सन्ध्या, रति, कन्दर्प, वसन्त के सहित शृंगार, हावों को, भावों को, मारों को, ऋषियों को, देवों को, गरुड़ गणों को देखा था । मेघों को,
चन्द्र, सूर्य, वृक्षगण, वल्ली और तृण,
सिद्ध, विद्याधर, यक्ष, राक्षस और किन्नरों को देखा था ।
मनुष्यों को,
भुजंगों को, ग्राह, मत्स्य, कच्छप, उल्का, निर्घात, केतुकों को, कृमि, कीट और पतंगों को देखा था । वहाँ पर किसी वनिता को देखा था
जो द्वन्द्व भाव को कर रही थी। किसी को उत्पन्न, उत्पत्ति को प्राप्त होते हुए विपद्ग्रस्त को देखा था । कुछ
लोगों को हास-विलास करते हुए और कुछ को विलाप करते हुए तथा कुछ दौड़ लगाते हुओं को
परमेश्वर ने देखा था जो कि शम्भु की ओर ही भाग रहे थे । कुछ लोग दिव्य अंलकारों से
युक्त थे,
कुछ माला और चन्दन से चर्चित हुए थे,
कुछ लोग वीक्षा करते थे और कुछ पुनः शम्भु के साथ क्रीड़ित
थे । कुछ लोग स्तुति कर रहे थे, कुछ शम्भु का स्तवन करते हुए –
विष्णु और ब्रह्मा का स्तवन करने वाले थे। उनके द्वारा कुछ
मुनि और तपस्वी गण भी देखे गये थे । कुछ लोग नदी के तट पर तपोवन में तपस्या करते
हुए देखे गये थे । कुछ लोग स्वाध्याय तथा वेदों में रत देखे गये थे और कुछ पढ़ाते
हुए देखे गये थे। वहीं पर सात सागर, नदियाँ और देव सरोवर देखे गए थे । वही पर यह पर्वत पर स्थित
थे,
ऐसा स्वयं शम्भु के द्वारा देखा गया था ।
यह महालक्ष्मी
के रूप से भगवान् हरि को पर्याप्त रूप से मोहित किया करती है । सती के स्वरूप वाली
उसी भाँति आत्मा को अर्थात् अपने आप को मोहित करती हुई को शंकर ने देखा था। वे
स्वयं सती के साथ मेरु पर्वत कैलाश में रमण करते थे तथा मन्दिर में देव विपिन में
जो शृंगार रस से सेवित था। वह देवी सती के रूप का परित्याग करके हिमवान् की सुता
होकर समुत्पन्न हुई थी। जिस प्रकार से पुनः उसने उन सती को प्राप्त किया था और
जैसे अन्धक मारा गया था। जैसे कार्तिकेय समुत्पन्न हुए और जिस तरह से तारक नाम
वाले का हनन किया था यह सब विस्तारपूर्वक भली-भाँति वृषभध्वज ने देखा था । जिस रीति
से नरसिंह के स्वरूप धारण करने वाले के द्वारा हिरण्यकशिपु मारा गया था और जिस
प्रकार से हिरण्याक्ष और कालनेमि नष्ट हुआ था तथा जैसे पहले किया हुआ दानवों के
समुदाय के साथ विष्णु भगवान् के द्वारा युद्ध हुआ था तथा जो-जो भी वहाँ पर निहित
हुए थे यह सभी कुछ भगवान् हर ने देखा था। जगत् के प्रपञ्चरूप ब्रह्मा आदि नक्षत्र
ग्रह और मनुष्य, सिद्ध और विद्याधर आदि को पृथक-पृथक देख-देखकर ईश्वर शम्भु ने उन सबका संहार
करते अपने आप को देखा था । इन्होंने फिर संहार के अन्त में ब्रह्मा,
विष्णु, महेश्वरी को देखा था । यह सम्पूर्ण चर और अचरों से समन्वित
जगत् शून्य हो गया था । इस समस्त शून्य जगत् में ब्रह्मा,
विष्णु के शरीर में गमन करने वाले तथा शम्भु लीन होते हुए
उसी के शरीर में प्रवेश कर गये थे । इन्होंने एक ही अव्यक्त रूप वाले विष्णु को
देखा था और इन्होंने अन्य कुछ भी नहीं देखा था जो उस समय में विष्णु के बिना होवें
। इसके अनन्तर विष्णु भगवान् को देखा गया था । परमात्मा में लय को प्राप्त,
भासमान पर तत्व, सनातन ज्योति के रूप वाले परमतत्व देखे गये थे । इसके
अनन्तर ज्ञान से परिपूर्ण, नित्य, आनन्दमय, ब्रह्म से पर, केवल ज्ञान के द्वारा ही जानने के योग्य को देखा था और अन्य
कुछ भी नहीं देखा था । परमात्मा में उस जगत् का एकत्व और पृथक्त्व अपने शरीर के
अन्दर मर्ग, स्थित और संयमों को देखा था ।
प्रकाशरूप,
शान्त, नित्य और इन्द्रियों की पहुँच से परे परमात्मा को देखा था
कि ब्रह्मा एक ही पर है। जो अद्वय द्वैत से रहित है। इससे अतिरिक्त अन्य कुछ भी
नहीं देखा था । कौन भगवान् विष्णु है, कौन ब्रह्मा है अथवा क्या यह जगत् है ?
शम्भु के द्वारा परमात्मा का यह भेद ग्रहण नहीं किया गया था
। इस प्रकार से देखते हुए उनके शरीर के सुन्दर से बाहर माया आदि निर्गत हुए थे और
वृषभध्वज (शिव) में प्रवेश कर गए थे। जनार्दन प्रभु ने अनन्यत्व और पृथक्त्व
दिखलाकर शम्भु के लिए उनके शरीर से शीघ्र ही फिर बाहर हो गये थे । इसके उपरान्त
समाधि से परित्याग करने वाले चलित आत्मा से युक्त शिव का मन सती की ओर गया था जो
शिवमाया से मोहित हो गये थे । हे द्विजोत्तमों ! फिर भगवान् हर ने दाक्षायणी के
मनोहर और विकसित कमल के आकार वाले मुख को देखा था । इसके आगे दक्ष,
मारीचि आदि मुनियों को, अपने गणों को, कमलासन (ब्रह्मा) को और भगवान् विष्णु को वहाँ पर देखकर
भगवान् शंकर अत्यन्त विस्मित हो गये थे । इसके अनन्तर विस्मय में स्मित ( मन्द
मुस्कराहट ) से प्रफुल्लित मुख से संयुत वृषभध्वज महादेव से भगवान् जनार्दन ने कहा
।
श्री भगवान्
ने कहा- हे शंकर! जो-जो भी आपने एकत्व में और भिन्नता में देखा और आपने तीनों
देवों को स्वरूप जान लिया है । आपने अपने अन्तर में प्रकृति,
पुरुष, काल और माया को अच्छी तरह से जान लिया है। हे महादेव ! वे
फिर किस प्रकार वाले हैं ? ब्रह्म एक ही हैं और वह शान्त,
नित्य, परम महत् हैं। वह किस तरह से भिन्नता को प्राप्त हुआ और
कैसा है यह आपने देख लिया है।
मार्कण्डेय
मुनि ने कहा- इस रीति से भगवान् वृषभध्वज जब भगवान् विष्णु के द्वारा पूजे गये थे
हे द्विजोतमों! हर ने हरि के लिए यह तथ्य वचन कहा था ।
ईश्वर ने कहा-
एक शिव परमशान्त, अनन्त, अच्युत ब्रह्म हैं और उनसे अन्य ऐसा कुछ भी नहीं है उनसे
अभिन्न सम्पूर्ण जगत् हरि के कला आदि रूप से सृष्टि की रचना का हेतु होता है । वह
समस्त प्राणियों को प्रभव है और निरञ्जन है और हम सब उसके ही सदा अंश स्वरूप वाले
हैं । सृष्टि, स्थिति (पालन ) और संयमन (संहार) उसके द्वारा कथित भेद से तीनों रूप शोभित
होते हैं। न तो मैं, न आप और न हिरण्यगर्भ, न कालरूप, न प्रकृति और उसकी प्रेरणा करने के लिए समर्थ है । यहाँ पर
कुछ रूप के बिना भी उसका सत् भी है ।
श्री भगवान्
ने कहा- हे वृषभध्वज ! यह तत्व आपने कहा और जान लिया है। हम ब्रह्मा,
विष्णु और पिनाकी (शिव) उसके अंशभूत ही हैं । इस कारण आपके
द्वारा ब्रह्मा वध के योग्य नहीं हैं। यदि आपको एकता विदित है जो कि हे शम्भो !
ब्रह्मा,
विष्णु और पिनाकधारी शिव की होती है ।
मार्कण्डेय
मुनि ने कहा- अपरिमित तेज के धारण करने वाले भगवान् विष्णु के इस वचन का श्रवण
करके महादेव जी ने सबकी एक स्वरूपता को देखकर ब्रह्मा का हनन नहीं किया । भगवान्
विष्णु ने जिस रीति से एकता को आदिष्ट किया था वह सब मैंने आपको बतला दिया है।
॥
श्रीकालिकापुराण में हरकोपोपशमन नामक तेरहवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥१३॥
आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 14
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