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कर्मकाण्ड

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कालिका पुराण अध्याय १२

कालिका पुराण अध्याय १२     

कालिका पुराण अध्याय १२ में सृष्टि का विस्तार से वर्णन किया गया है (श्लोक ११- ३७)। इसमें भी देवत्रय के एकत्व का विधान है। काल तथा माया का वर्णन (श्लोक ६०-६६)। उपनिषद् की यह प्रख्यात् अद्वैतभावना यहाँ भी उल्लिखित है- एकमेवाद्वयं ब्रह्म नेह नानाऽस्ति किञ्चन (श्लोक ६०) और इसी भावना के फलस्वरूप तीन देवों में अभेद है।

कालिका पुराण अध्याय १२

कालिका पुराण अध्याय १२    

Kalika puran chapter 12

कालिकापुराणम् द्वादशोऽध्यायः त्रिदेवानामनन्यत्वप्रतिपादनम्

कालिकापुराण बारहवाँ अध्याय - तीनो देवों का अनन्यत्व

अथ कालिका पुराण अध्याय १२  

।। ऋषय ऊचुः ।।

अनन्यत्वं त्रिदेवानां यज्जगाद जनार्दनः ।

शम्भवे तद्वयं श्रोतुमिच्छामो द्विजसत्तम ।।१।।

एकत्वं दर्शयामास कथं वा गरुडध्वजः ।

तत् समाचक्ष्व विप्रेन्द्र परं कौतूहलं हि नः ॥२॥

ऋषिगण बोले- हे द्विजसत्तम! भगवान शङ्कर से विष्णु ने त्रिदेवों की जिस अनन्यता का वर्णन किया था, उसे हम सब सुनना चाहते हैं अथवा गरुड़ध्वज विष्णु ने कैसे एकता दर्शायी ? हे विप्रेन्द्र ! वह सब बताइये, क्योंकि इस सम्बन्ध में हमें महान कौतुहल (उत्सुकता ) है ॥ १-२ ॥

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

शृणुध्वं मुनयो गुह्यं परमं प्रयतं परम् ।

त्रिदेवानामनन्यत्वं तथैवैकत्वदर्शनम् ।।३।।

मार्कण्डेय बोले- हे मुनिगण (ब्रह्मा-विष्णु-महेश) त्रिदेवों की अनन्यता और एकता दर्शाने वाले इस परमगुप्त तथा परमपवित्र प्रसङ्ग को आप सब सुनिये ॥ ३ ॥

हरेण पृष्टो गोविन्दस्तं समाभाष्य सादरम् ।

इदमाह मुनिश्रेष्ठा अभिन्नप्रतिपादकम् ॥४॥

मुनिश्रेष्ठों! शिव द्वारा पूछे जाने पर इस अभिन्नता का प्रतिपादन करने वाले, वृतान्त को गोविन्द ने उनसे आदरपूर्वक कहा था ॥४॥

।। श्रीभगवानुवाच ।।

इदं तमोमयं सर्वमासीद्भुवनवर्जितम् ।

अप्रज्ञातमलक्ष्यञ्च प्रसुप्तमिव सर्वतः ॥५॥

श्रीभगवान् बोले- प्रारम्भ में यह सब कुछ तमोमय था । भुवनों का कहीं चिह्न भी नहीं था । सब ओर से अनदेखा और अनजाना प्रसुप्त की भाँति प्रतीत हो रहा था ॥ ५ ॥

न दिवारात्रिभागोऽत्र नाकाशं न च काश्यपी ।

न ज्योतिर्न जलं वायुर्नान्यत् किञ्चन संस्थितम् ।।६।।

वहाँ न तो दिन-रात्रि का अन्तर था, न आकाश था, न पृथ्वी थी, न अग्नि था, न जल, न वायु, न अन्य ही कुछ स्थित था ॥६॥

एकमासीत् परंब्रह्म सूक्ष्मं नित्यमतीन्द्रियम् ।

अव्यक्तं ज्ञानरूपेण द्वैतहीनविशेषणम् ।।७।।

एकमात्र सूक्ष्म, इन्द्रियों की पहुँच से परे, शाश्वत, अव्यक्त, शोक हर्षादि द्वन्द्वरहित परब्रह्म परमात्मा ही ज्ञानरूप से स्थित था ॥ ७ ॥

प्रकृतिः पुरुषश्चैव नित्यौ द्वौ सर्वसंहितौ ।

स्थितः कालोऽपि भूतेश जगत्कारणमेककम् ।।८।।

हे भूतेश! उस समय प्रकृति और पुरुष दो तत्त्व जो शाश्वत और सब कुछ मिले हुए स्थित थे। जगत का एकमात्र कारण काल भी उपस्थित था ॥८॥

यदेकं परमं ब्रह्म तत्स्वरूपात् परं हर ।

रुपत्रयमिदं नित्यं तस्यैव जगत: पतेः ।।९।।

हे हर! जो एक परब्रह्म था, उस जगत् के स्वामी के उस मूलभूत स्वरूप से ही उत्पन्न यह तीन रूपों वाला जगत् भी श्रेष्ठ एवं नित्य है ॥ ९ ॥

कालो नामापरं रूपमनाद्यं तत्तु कारणम् ।

सर्वेषामेव भूतानामवच्छेदेन संगतः ।। १० ।।

काल नामक एक दूसरा रूप भी है, जो अनादि, प्रथम है वही सभी प्राणियों के विनाश से सम्बद्ध कारण भी है ॥ १० ॥

ततस्तत् स्वप्रकाशेन भास्वद्रूपं प्रकाशते ।

पुरा सृष्ट्यर्थमतुलं क्षोभयन् प्रकृतिं स्वयम् ।। ११ ।।

प्राचीनकाल में सृष्टि हेतु तब वह अपने ही प्रकाश से प्रकाशरूप में प्रकाशित, स्वयं प्रकृति को अत्यधिक क्षुब्ध कर दिया ॥ ११॥

संक्षुब्धायान्तु प्रकृतौ महत्तत्त्वमजायत ।

महत्तत्त्वात्ततः पश्चादहङ्कारस्त्रिधाभवत् ।।१२।।

प्रकृति के संक्षुब्ध हो जाने पर महत् तत्त्व की उत्पत्ति हुई। उसके बाद महत् तत्त्व से तीन प्रकार का अहङ्कार उत्पन्न हुआ ॥ १२ ॥

अहङ्कारे तु संजाते शब्दतन्मात्रतस्ततः ।

आकाशमसृजद्विष्णुरनन्तं मूर्तिवर्जितम् ॥१३॥

अहङ्कार के उत्पन्न होने पर उससे शब्द तन्मात्रा की और उस शब्द तन्मात्रा से निराकार अनन्त आकाश की विष्णु ने सृष्टि की ॥ १३॥

ततस्तु रसतन्मात्रादपः सृष्ट्वा महेश्वरः ।

निराधार: स्वयं दध्रे तास्तदा निजमायया ।।१४।।

तब रसतन्मात्रा से शिव ने निराधार जलतत्त्व की सृष्टि की तब स्वयं निराधार होते हुए भी उस अप्तत्त्व को अपनी माया से धारण किया ॥ १४ ॥

ततस्त्रिगुणसाम्येन संस्थितां प्रकृतिं प्रभुः ।

पुनः संक्षोभयामास सृष्ट्यर्थं परमेश्वरः ।। १५ ।।

तब सत्व-रज-तम नाम त्रिगुणों के साम्य से भलीभाँति स्थिर प्रकृति को सृष्टि हेतु परमेश्वर परब्रह्म ने क्षुब्ध किया।।१५।।

ततः सा प्रकृतिस्तासु बीजं त्रिगुणभागवत् ।

अप्सु संसर्जयामास जगद्वीजं निराकुलम् ।।१६।।

तब उस प्रकृति ने त्रिगुणात्मक रूप से बीज का विभाग कर संसार के आदिबीज रूप जगत्बीज की जल में सृष्टि की जो स्वयं में चेतनारहित था ॥ १६ ॥

तद्धि वृद्धं क्रमेणैव हैममण्डमभून्महत् ।

जग्राहापः समस्तास्ता गर्भ एव तदण्डकम् ।।१७।।

वही क्रमश: बढ़ते हुए बहुत बड़ा सोने का अण्डा बन गया। उसी अण्डे में जल ने गर्भ धारण किया ॥१७॥

अप्सु स्थितासु हैमाण्डगर्भे विष्णुस्तदण्डकम् ।

त्वयैव मायया दध्रे ब्रह्माण्डमतुलं पुनः ।। १८ ।।

जल में स्थित उस स्वर्ण अण्ड के गर्भ में विष्णु ने उस अतुलनीय अण्ड को, जिसे ब्रह्माण्ड कहते हैं, आपकी ही माया से पुनः धारण किया ॥१८ ॥

वारिणा वह्निभिश्चैव वायुभिर्नभसा तथा ।

बहिस्तदण्डकं छन्नं सर्वपार्श्वे समन्ततः ।। १९ ।।

उस अण्डे को जल, अग्नि, वायु तथा आकाश तत्त्व से बाहर तथा सब ओर से सम्पूर्ण रूप से घेर दिया ॥१९॥

सप्तसागरमानेन तथा नद्यादि मानतः।

ब्रह्माण्डाभ्यन्तरे तोयं तदन्यत्तु बहिर्गतम् ।।२०।।

सात समुद्रों तथा नदी आदि के मान (आवश्यकता) के अनुसार जल ब्रह्माण्ड के भीतर धारणकर शेष अतिरिक्त जल बाहर कर दिया ॥२०॥

तदन्तः स्वयमेवासौ विष्णुर्ब्रह्मस्वरूपधृक् ।

दैवं वर्षमूषित्वैव प्रविभेद तदण्डकम् ।। २१ ।।

उसके बाद वह (परब्रह्म) स्वयं विष्णु, ब्रह्मा का रूप धारण ९ दिव्यवर्ष (३६० मानव वर्षों के बराबर समय) तक उसमें रहकर, उस अण्डे में छिद्र कर दिया ॥२१॥

तस्मात् समभवन्मेरुरुत्पन्नोऽस्मिन् महेश्वर ।

जरायुः पर्वता जाता समुद्राः सप्त तज्जलात् ।।२२।।

हे महेश्वर ! उससे मेरुपर्वत उत्पन्न हुआ। उस अण्डे की जरायु (भ्रूण का ऊपरी आवरण) से पर्वत तथा उसके जल से सप्तसमुद्र उत्पन्न हुए ॥२२॥

तन्मध्ये गन्धतन्मात्रात् पृथिवी समजायत ।

ईश्वरेण प्रकृत्या च योजिता त्रिगुणात्मिका ।। २३ ।।

उसके मध्यभाग में गन्धतन्मात्रा से पृथ्वी उत्पन्न हुई । ईश्वर ने इसे त्रिगुणात्मिका प्रकृति से जोड़ दिया ॥२३॥

प्रागेव पर्वतादिभ्यः समुत्पन्ना वसुन्धरा ।

ब्रह्माण्डखण्डसंयोगादृढा भूता तु सा भृशम् ।। २४ ।।।

पर्वत आदि से पहले ही वसुन्धरा (पृथ्वी) उत्पन्न हुई, ब्रह्माण्ड के अधोखण्ड के संयोग से वह अत्यधिक दृढ़ हो गई ॥२४॥

तस्यामेव स्थितो ब्रह्मा सर्वलोकगुरुः स्वयम् ।

यदा ब्रह्माण्डमध्यस्थो ब्रह्मा व्यक्तो न चाभवत् ।

तदैव रूपतन्मात्रात्तेजः सम्यगजायत ।।२५।।

उसमें समस्त लोकों के गुरु (पूर्व पुरुष) ब्रह्मा स्थित हुए। किन्तु ब्रह्माण्ड मध्य में स्थित होते हुए भी वे जब प्रकट नहीं हुए तभी रूपतन्मात्रा से तेज तत्त्व भलीभाँति उत्पन्न हुआ ॥२५॥

वायुस्तु स्पर्शतन्मात्रात् प्रकृत्या विनियोजितात् ।

बभूव सर्वभूतानां प्राणभूतः समन्ततः ।। २६ ।।

सभी प्राणियों का प्राणभूत वायु तत्त्व स्पर्श तन्मात्रा के प्रकृति के साथ विनियोजन से सब ओर व्याप्त हो गया ।। २६॥

अद्भिस्तेजोभिरतुलैर्वायुभिर्नभसा तथा ।

अन्तर्बहिस्तदण्डस्य व्याप्तमन्यत्तु गर्भगम् ।। २७ ।।

जल, अतुलनीय अग्नि, वायु और आकाश उस गर्भस्थ अण्डे के अन्दर तथा बाहर व्याप्त हो गया। उसके अतिरिक्त भी शेष रहा ॥२७॥

ततो ब्रह्मशरीरन्तु त्रिधा चक्रे महेश्वरः ।

प्रधानेच्छावशाच्छम्भो त्रिगुणत्रिगुणीकृतम् ।।२८।।

हे शिव! तब महेश्वर (परब्रह्म) ने ब्रह्मा के शरीर को तीन रूपों में तथा प्रधान की इच्छानुसार उन तीनों को भी तीन-तीन भागों में बाँटा ॥२८॥

तदर्द्धभागः संज्ञातश्चतुर्वक्त्रश्चतुर्भुजः ।

पद्मकेशरगौराङ्ग कायो ब्राह्मो महेश्वरः ।।२९।।

उसका ऊपरी भाग महेश्वर के चार भुजा, चार मुख, कमल के केशर के समान गोरी शरीर वाले ब्रह्मरूप में प्रकट हुआ ।। २९ ।।

तन्मध्यभागो नीलाङ्ग एकवक्त्रश्वतुर्भुजः ।

शङ्खचक्रगदापद्मपाणि: कायः स वैष्णवः ॥३०॥

उसके मध्य भाग ने श्यामवर्ण, चतुर्भुज, एक मुख, शङ्ख, चक्र, गदा, पद्म धारण किया वह विष्णु स्वरूप हुआ ॥३०॥

अभवत्तदधोभागः पञ्चवक्त्रश्चतुर्भुजः ।

स्फटिकाभ्रसमः शुक्लः स कायश्चन्द्रशेखरः ।। ३१ ।।

उसका निचला भाग पाँच मुख, चार भुजा, स्फटिक की आभा के समान श्वेत शरीर वाला चन्द्रशेखर शिव स्वरूप हो गया ॥३१॥

इतस्ततो ब्राह्मकाये सृष्टिशक्तिं न्ययोजयत् ।

स्वयमेवाभवत् स्रष्टा ब्रह्मरूपेण लोकभृत् ।।३२।।

इधर उधर विखरी हुई अपनी सृष्टिशक्ति को परमात्मा ने उस ब्राह्मी काया में नियोजित किया तथा स्वयं ब्रह्मा रूप में सृष्टिकर्ता और लोकों के धारण कर्ता हुए ॥३२॥

स्थितिशक्तिं निजां मायां प्रकृत्याख्यां न्ययोजयत् ।

महेशो वैष्णवे काये ज्ञानशक्तिं निजां तथा ॥३३॥

स्थितिकर्ताभवद्विष्णुरहमेव महेश्वर ।

सर्वशक्तिनियोगेन सदा तद्रूपता मम ।।३४।।

महेश्वर ने स्थितिशक्ति रूपी अपनी माया को जो प्रकृति कही जाती है उसे तथा अपनी ज्ञानशक्ति को वैष्णवीकाया में नियोजित किया । हे महेश्वर ! मैं ही विष्णु रूप में स्थिति (पालन) कर्ता हुआ। सभी शक्तियों के नियोग के कारण सदैव मेरी एकरूपता बनी रहती है ।।३३-३४॥

अन्तः शक्तिं तथाकाये शाम्भवे च न्ययोजयत् ।

अन्तकर्ता भवच्छम्भुः स एव परमेश्वरः ।।३५।।

अन्त शक्ति का शाम्भवकाया में नियोजन किया और वही परमेश्वर स्वयं अन्तकर्ता शिवस्वरूप हो गये ॥ ३५ ॥

ततस्त्रिषु शरीरेषु स्वयमेव प्रकाशते ।

ज्ञानरूपं परं ज्योतिरनादिर्भगवान् प्रभुः ।। ३६।।

तबसे ज्ञानस्वरूप, परंज्योतिरूप,अनादि जो प्रभु है वही स्वयं ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर तीनों रूपों में प्रकाशित होते हैं॥६॥

सृष्टिस्थित्यन्तकरणादेक एव महेश्वरः।

ब्रह्माविष्णुः शिवश्चेति संज्ञामाप पृथक् पृथक् ।। ३७ ।।

अतस्त्वञ्च विधाता च तथाहमपि न पृथक् ।

एवं शरीरं रूपञ्च ज्ञानमस्माकमन्तरम् ॥३८॥

सृष्टि-स्थिति-विनाश के कारणभूत होने से उसी महेश्वर परमात्मा ने ब्रह्मा, विष्णु, और शिव इन अलग-अलग नामरूपों को धारण कर रखा है। इसीलिए शरीर, रूप और ज्ञान में भिन्नता होते हुए भी आप ब्रह्मा और मैं भिन्न नहीं है३७-३८॥

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

एतच्छ्रुत्वा वचस्तस्य विष्णोरमिततेजसः ।

हर्षोत्फुल्लमुखः प्रोचे पुनरेव जनार्दनम् ॥३९॥

मार्कण्डेय बोले- अमित तेजस्वी भगवान् विष्णु के इन वचनों को सुनकर प्रसन्न मुख हो शिव पुनः जनार्दन से इस प्रकार बोले ।। ३९॥

।। ईश्वर उवाच ।।

एक एव महेशश्चेत् ज्योतीरूपो निरञ्जनः ।

का वा मायाथ कः कालः का वा प्रकृतिरुच्यते ।।४०।।

ईश्वर ने कहा- यदि महेश, निरञ्जन, ज्योति स्वरूप परब्रह्म परमात्मा एक ही है तो यह माया कौन है? काल कौन है? या किसे प्रकृति कहते हैं? ॥४०॥

के पुमांसस्ततोभिन्नाभिन्नाश्चेत् कथमेकता ।

तन्मे वदस्व गोविन्द तत्प्रभावं यथागतम् ।।४१।।

हे गोविन्द ! ये पुरुष कौन हैं? क्या ये उससे अभिन्न हैं? यदि भिन्न हैं तो इनमें एकता कैसे है? उसके विषय में आप बताइये जिससे उस परमात्मा का प्रभाव मैं जान सकूँ ॥४१॥

।। श्रीभगवानुवाच ॥

त्वमेव पश्यसि सदा ध्यानस्थः परमेश्वरम् ।

आत्मन्यात्मस्वरूपं तज्ज्योतीरूपं सदक्षरम् ।।४२।।

श्रीभगवान् बोले- आप भी सदैव ध्यानस्थ होकर अपने में ही उस आत्मस्वरूप, ज्योतिरूप, अविनाशी परमेश्वर को देखते रहते हैं ॥४२॥

मायाञ्च प्रकृतिं कालं पुरुषञ्च स्वयं विभो ।

ज्ञाता त्वं ध्यानयोगेन यस्माद्ध्यानपरो भव ॥४३॥

हे विभु! माया, प्रकृति, काल और पुरुष आप स्वयं ही हैं । इनके विषय में आप स्वयं ध्यान योग द्वारा जान सकते हैं। अतः आप ध्यान धारण कर स्वयं जान लें ॥ ४३ ॥

मायया मोहितो यस्मादधुना त्वम्मदीयया ।

ततो विस्मृत्य परमं ज्योतिर्हि वनितारतः ।। ४४ ।।

अधुना कोपयुक्तस्त्वं विस्मृत्यात्मानमात्मनि ।

यां पृच्छसि प्रकृत्यादिरूपाणि प्रमथाधिप ।। ४५ ।।

हे प्रमथों के स्वामी! इस समय आप जिस प्रकृति आदि रूपों वाली माया के सम्बन्ध में पूछ रहे हो, उसी मेरी माया से मोहित हो, जिससे आप अपने परम ज्योतिस्वरूप आत्म तत्व को भूलकर स्त्री प्रेमवश क्रोधाविष्ट हो गये हो ।।४४-४५ ।।

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

ततस्तत्र महादेवः श्रुत्वा वाक्यं सुनिश्चितम् ।

मुनीनां पश्यतां योगयुक्तो ध्यानपरोऽभवत् ।। ४६ ।।

मार्कण्डेय उवाच- तब महादेव शिव विष्णु के उन निश्चयात्मक वचनों को सुनकर वहाँ मुनियों के देखते ही देखते योग का आश्रय ले ध्यान-स्थित हो गये ॥४६॥

आसाद्य बन्धं पर्यकं निर्निमीलितलोचनः ।

आत्मानञ्चिन्तयामास तदात्मनि महेश्वरः ।।४७।।

तब महेश्वर शिव बन्धरूपी पलङ्ग का आश्रय ले अपलक नेत्रों से अपने आत्मस्वरूप का चिन्तन करने लगे ॥४७॥

परं चिन्तयतस्तस्य शरीरं विवभौ शुभम् ।

तेजोभिरुज्ज्वलं द्रष्टुं नशेकुर्मुनयस्तदा ।। ४८ ।।

उस समय परंतत्व का चिन्तन करते हुये उनका शरीर उज्ज्वल तेज से भलीभाँति चमक उठा। मुनिजन भी उसे देखने में समर्थ नहीं थे ॥४८॥

तत्क्षणात् ध्यानयुक्तश्च शम्भुः स विष्णुमायया ।

परित्यक्तोऽति विवभौ तपस्तेजोभिरुज्ज्वलः ।। ४९ ।।

उसी क्षण तपस्या के तेज से उज्ज्वल और ध्यानस्थ शिव विष्णु माया से मुक्त हो विभूषित हुये ।। ४९ ।।

ये ये गणास्तदा तस्थुः सेवया शङ्करान्तिके ।

न तेऽपि वीक्षितुं शेकुः शङ्करं वा दिवाकरम् ।।५० ।।

उस समय जो-जो गण शङ्कर के समीप थे वे भी उस तेजस्वी शङ्कर अथवा (सूर्य की तरह प्रकाशित होने के कारण) उस शिव रूपी सूर्य को देखने का साहस नहीं जुटा सके ॥५०॥

स्वयमेव तदा विष्णुः समाधिमनसो भृशम् ।

प्रविवेश शरीरान्तर्ज्योतीरूपेण धूर्जटेः ।। ५१ ।।

तब स्वयं विष्णु भगवान् ने ज्योति रूप से अत्यधिक समाधि में मन लगाये हुए धूर्जटी शिव के शरीर में प्रवेश किया ॥ ५१ ॥

प्रविश्य तस्य जठरे यथा सृष्टिक्रमः पुरा ।

तथैव दर्शयामास स्वयं नारायणोऽव्ययः ।।५२।।

तब स्वयं नारायण ने जो अविनाशी हैं, उन शिव के जठर में प्रवेश कर प्राचीनकाल में जैसा सृष्टि क्रम चला था वैसा ही उन्हें दिखाया ।। ५२ ।।

न स्थूलं न च सूक्ष्मञ्च न विशेषणगोचरम् ।

नित्यानन्दं निरानन्दमेकं शुद्धमतीन्द्रियम् ।। ५३ ।।

अदृश्यं सर्वद्रष्टारं निर्गुणं परमं पदम् ।

परमात्मगमानन्दं जगत्कारणकारणम् ।।५४।।

प्रथमं ददृशे शम्भुरात्मानं तत्स्वरूपिणम् ।

तत्र प्रविष्टमनसा बहिर्ज्ञानविवर्जितः ।। ५५ ।।

वहाँ प्रवेश कर बाह्य ज्ञान से रहित हो पहले भगवान् शङ्कर को अपना वह स्वरूप दिखाया -- जो न स्थूल था न सूक्ष्म और न इन्द्रिय विशेष द्वारा जाना ही जा सकता था । जो नित्य आनन्दमय था । जो आनन्दरहित, एकमात्र, शुद्ध, इन्द्रियातीत, स्वयं अदृश्य होते हुए भी सबको देखने वाला, निर्गुण, श्रेष्ठ स्थान, परमात्मतत्त्व का ज्ञाता समस्त संसार के कारण का भी कारण था ।।५३-५५ ।।

तस्यैव रूपं प्रकृतिं सृष्ट्यर्थे भिन्नतां गताम् ।

ददर्श तस्यैवाभ्यासे पृथग्भूताविवैकिकाम् ।।५६।।

प्रकृति जो उन्हीं का रूप थी, किन्तु सृष्टि कार्य हेतु भिन्नता को प्राप्त की थी, उसे ध्यानाभ्यास में अलग हुई एकाकिनी रूप में देखा ॥ ५६ ॥

पुरुषांश्च ददर्शासौ यथैव वसतस्ततः ।

अग्नेरिव कणात् स्थूलादजस्त्रं द्विजसत्तमाः ।। ५७ ।।

हे द्विजसत्तमों! उनमें निवास करते पुरुषों को उसी प्रकार देखा जैसे स्थूल अग्नि के बीच उसके अनेक सूक्ष्मकण निरन्तर विचरते रहते हैं ॥५७॥

तदेव कालरूपेण भासते च मुहुर्मुहुः ।

सृष्टिस्थित्यन्तयोगानामवच्छेदेन कारणम् ॥५८।।

उसे ही बार-बार सृष्टि, स्थिति, अन्त के कारण और भेद से, कालरूप से आभाषित होते देखा ॥५८॥

प्रकृतिः पुरुषश्चैव कालोऽपि च मुहुर्मुहुः ।

अभिन्नान् भाषमानांश्च सर्गार्थे भिन्नतां गताम् ।। ५९ ।।

उपर्युक्त प्रकृति-पुरुष तथा काल भी बारम्बार अभिन्न प्रतीत होते हुए भी सृष्टि के लिए भिन्नता को प्राप्त किये थे ॥ ५९ ॥

पृथग्भूतानभिन्नांश्च ददृशे चन्द्रशेखरः ।

एकमेवाद्वयं ब्रह्म नेह नानास्ति किञ्चन ।। ६० ।।

सप्रधानस्वरूपेण कालरूपेण भासते ।

तथापुरुषरूपेण संसारार्थं प्रवर्तते ।। ६१ ।।

चन्द्रशेखर ने अभिन्न और भिन्न दोनों ही रूपों में प्रकृति-पुरुष कालादि को देखा । एक मात्र अद्वितीय ब्रह्म जो है यहाँ उसके अतिरिक्त कुछ भी नाना नहीं था । वह संसार (सृष्टिकर्म) हेतु प्रधान तथा कालरूप में भाषित होता है तथा पुरुष रूप में कार्य करता है ॥६०-६१।।

भोगार्थं प्राणिनां शश्वच्छरीरे च प्रवर्तते ।

सैव माया या प्रकृतिः सा मोहयति शङ्करम् ।।६२।।

वही शाश्वत होते हुए भी भोग हेतु प्राणियों के शरीर में संचरण करता है। वही माया, जो प्रकृति है, वही शङ्कर, विष्णु ब्रह्मा तथा अन्य जन्म लेने वालों को मोहित करती है ॥ ६२ ॥

हरिं तथा विरिञ्चिञ्च तथैवान्यजनुर्भवान् ।

मायाख्या प्रकृतिर्जात जन्तुं सन्मोहयत्यपि ।। ६३ ।।

सा स्त्री रूपेण च सदा लक्ष्मीभूता हरेः प्रिया ।

सा सावित्री रतिः सन्ध्या सा सती सैव वीरिणी ।। ६४ ।।

माया नाम की जो प्रकृति है वही प्राणि मात्र को मोहित करती है। वही स्त्री रूप से लक्ष्मी हो विष्णु की पत्नी है। वही (ब्रह्मा की पत्नी) सावित्री (कामदेव की पत्नी) रति, सन्ध्या, (शिवपत्नी) सती, (दक्षपत्नी) वीरिणी है ।। ६३-६४॥

बुद्धिरूपा स्वयं देवी चण्डिकेति च गीयते ।

इति स्वयं ददर्शाशु ध्यानमार्गगतो हरः ।। ६५ ।।

महदादि प्रभेदेन तथा सृष्टिक्रमं स्वयम् ।।६६।।

वही स्वयं बुद्धिरूपा है तथा कार्यवश चण्डिका के रूप में गाई जाती है। यह सब कुछ स्वयं शङ्कर ने ध्यानावस्थित हो स्वयं देखा तथा महदादि भेद से सृष्टि क्रम का भी दर्शन किया ॥६५-६६ ॥

दर्शयित्वा हरिः कालं प्रकृतिं पुरुषांस्तथा ।

तथान्यद्दर्शयामास तच्छरीरं द्विजोत्तमाः ।। ६७ ।।

हे द्विजोत्तमों! विष्णु ने काल प्रकृति तथा पुरुष का दर्शन कराकर अलग से शिव को उनके रूप का दर्शन कराया ॥ ६७ ॥

॥ श्रीकालिकापुराणे त्रिदेवानामनन्यत्वप्रतिपादनं नाम द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥

कालिका पुराण अध्याय १० संक्षिप्त कथानक

ऋषिगणों ने कहा- भगवान् जनार्दन ने तीनों देवों की जो अनन्यता को कहा था । हे द्विजोत्तम! शम्भु के लिए सदा अद्वय के श्रवण करने की इच्छा रखते हैं अथवा गरुड़ध्वज ने कैसे एकत्व को दिखाया था ? हे विपेन्द्र ! उसको बतलाइए । हमको बहुत ही अधिक कौतूहल है ।

मार्कण्डेय मुनि ने कहा- हे मुनिगणों! आप लोग श्रवण करिए। यह तीनों देवों की अनन्यता अर्थात् उनके एकत्व का दर्शन परम गोपनीय है । भगवान् हर ने भगवान् गोविन्द से पूछा था और बहुत ही आदर के साथ सम्भाषण करके ही पूछा था । हे मुनिश्रष्ठों ! इन्होंने इनकी अभिन्नता का प्रतिपादन करने वाला यहीं कहा था ।

श्री भगवान् ने कहा- यह जब भुवन वर्जिततमोमय अर्थात् तम से परिपूर्ण था । यह अप्रज्ञात, अलक्ष्य और सभी ओर से प्रसुप्त के ही तुल्य था । यहाँ पर दिन रात्रि का भाग नहीं है, न आकाश है और न काश्यपी ही है, न ज्योति है, न जल है और न वायु है अन्य किञ्चित् संस्थित नहीं है । परमब्रह्म एक ही था जो सूक्ष्म, नित्य और इन्द्रियों की पहुँच से परे हैं, यह अव्यक्त और ज्ञानरूप से द्वैत से ही परिपूर्ण है ।

प्रकृति और पुरुष ये दोनों सर्व सहित नित्य हैं । हे भूतेश ! काल भी स्थित हैं जो एक ही जगत् का कारण है । हे हर ! जो एक परमब्रह्म है वह स्वरूप से परे है उसी जगत के पति के यह तीनों रूप नित्य हैं । काल नाम वाला दूसरा रूप है जो अनाद्य है और वह तो कारण है वह सब भूतों का अवच्छेद से संगत होता है । फिर वह अपने प्रकाश से भास्वद्रुप वाला प्रकाशित होता है। पहले सृष्टि की रचना करने के लिए अतुल रूप से स्वयं प्रकृति से क्षोभयुत करता हुआ था । प्रकृति के संक्षुब्ध हो जाने पर महत्तत्व की उत्पत्ति हुई थी। पीछे महत्तत्व से तीन प्रकार का अहंकार समुत्पन्न हुआ था । अहंकार के समुत्पन्न होने पर शब्द तन्मात्रा से विष्णु ने आकाश का सृजन किया था जो आकाश अनन्त है और मूर्ति से रहित है अर्थात् आकाश की कोई भी मूर्ति नहीं है । इसके उपरान्त महेश्वर ने रस तन्मात्र से जल का सृजन किया था । उस समय वह अपनी माया से निराधार ने स्वयं ही धारण किया था ।

इसके अनन्तर प्रभु ने तीनों गुणों की अर्थात् सत्व, रज, तम इनकी समता ने संस्थित प्रकृति को परमेश्वर ने पुनः सृष्टि की रचना के लिए संक्षप्त किया था । इसके पश्चात् उस प्रकृति ने उस जल में त्रिगुण के भाग वाले निराकुल जगत् के बीच स्वरूप बीज को भली-भाँति सृजन किया था । वही निश्चत रूप से क्रम से ही वृद्ध महान् सुवर्ण अण्ड हुआ था । उस अण्ड ने गर्भ में ही उस सम्पूर्ण जल को ग्रहण कर लिया था और अण्ड के गर्भ में जल के स्थित हो जाने पर भगवान् विष्णु ने उस अण्ड को आपकी ही माया से इस अतुल ब्रह्माण्ड को धारण कर लिया था । जल, अग्नि, वायु तथा नभ से वह अण्डक बाहिर सब पार्श्व में और सभी ओर आछन्न हो गया था । सात सागरों के मान से जैसे नदी आदि के मान से ब्रह्माण्ड के अन्दर जल है उसी तरह से उसके अन्दर यह भगवान् विष्णु स्वयं ही ब्रह्मा के रूप के धारण करने वाले हैं । एक वर्ष तक निवास करके ही मैंने उस अण्ड का भेदन किया था ।

हे महेश्वर ! उससे इसमें मेरु हुआ था । उस जल से जरायु पर्वत हुए और सात समुद्र हुए था। उसके मध्य में गन्ध की तन्मात्रा से पृथ्वी समुत्पन्न हुई थी । ईश्वर द्वारा और प्रवृत्ति से वह त्रिगुणात्मिका ज्योति की थी। पहले ही पर्वत आदि से वसुन्धरा समुत्पन्न हुई थी । ब्रह्माण्ड के खण्ड के संयोग से वह अत्यन्त दृढ़ हो गई थी । उसमें ही सब लोकों के गुरु ब्रह्माजी स्वयं संस्थित हैं । तब ही से सब लोकों के गुरु ब्रह्माजी स्वयं संस्थित हैं । जब ब्रह्माजी ब्रह्माण्ड के मध्य में स्थित थे तो वह व्यक्त नहीं हुए । उसी समय में रूप की तन्मात्रा से भली-भाँति तेज उत्पन्न हुआ था । प्रकृति के द्वारा विनियोतिज स्पर्श तन्मात्रा से वायु उत्पन्न हुआ था जो वायु सभी ओर से समस्त प्राणियों का प्राणभूत हुआ था । अतुल जलों से, तेजों से, वायुओं से तथा नभ से उस अण्ड के अन्दर और बाहर व्याप्त था और गर्भ में गमन करने वाला था। इसके अनन्तर महेश्वर ने ब्रह्मा के शरीर को तीन भागों में विभक्त कर दिया था । हे शम्भो ! स्वभाव की इच्छा के वश से त्रिगुण त्रिगुणीकृत हो गया ।

उसका जो उर्ध्वभाग था चतुर्मुख और चतुर्भुज हो गया था । पद्म केशर के समान और रंग काया वाला ब्रह्म महेश्वर था । उसका जो मध्य भाग था वह नीले अंगों वाला, एक मुख से युक्त चार भुजाओं वाला था । शंख, चक्र, गदा और पद्म हाथों में लिए हुए वह काम वैष्णव था। उसका अधोभाग पाँच मुखों से समन्वित, चार भुजाओं वाला था । वह स्फटिक के तुल्य शुक्ल था और वह काम चन्द्रशेखर था । इधर-उधर ब्रह्म के कार्य में सृष्टि की शक्ति नियोजित किया था और वह लोकभूत ब्रह्म के रूप से सृष्टा हो गया था। महेश ने वैष्णव काम में अपनी ज्ञान की शक्ति को महेश्वर में ही स्थिति अर्थात् पालन का करने वाला विष्णु हो गया था । सर्वशक्तियों के नियोग से मेरा सदा ही तद्रूपता है ।

वही परमेश्वर संहार करने वाले शम्भु हो गये थे । इनका वे फिर तीनों शरीरों में अर्थात् ब्रह्मा, विष्णु, शिव इन तीनों में वह स्वयं ही प्रकाश किया करते हैं । ज्ञानरूप परमात्मा भगवान् प्रभु अनादि हैं। सृजन, पालन और संहार के करने से एक ही हैं। वही ब्रह्मा, विष्णु और महेश पृथक्-पृथक् नहीं हैं । इस प्रकार शरीर, रूप और ज्ञान हमारा अन्तर होता है।

मार्कण्डेय महर्षि ने कहा- इस प्रकार से शिव भगवान् ने उन अमित तेज वाले भगवान् विष्णु के वचन का श्रवण करके अतिरेक से विकसित मुख वाले होकर पुनः जनार्दन प्रभु बोले- यदि ज्योति स्वरूप वाला और निरञ्जन महेश ही है, कौन सी माया है अथवा कौन काल है अथवा कौन प्रकृति कही जाया करती है ? कौन से पुरुष उनसे भिन्न अभिन्न हैं यदि ऐसा है तो फिर एकता किस रीति से होती हैं? हे गोविन्द ! उनके प्रभाव को मुझे बतलाइए।

श्री भगवान् ने कहा-आप ही सदा ध्यान में समवस्थित होकर परमेश्वर को देखा करते हैं जो आत्मा में आत्मस्वरूप हैं और वह ज्योति के रूप वाला सहक्षर है। हे विभो ! माया को, प्रकृति को, काल को और पुरुष को आप स्वयं जानने वाले हैं जब आप ध्यान का भोग करते हैं तो उसी के द्वारा ज्ञाता हैं । इसीलिए आप ध्यान में तत्पर हो जाइए क्योंकि इस समय में आप हमारी माया से मोहित हो रहे हैं । इसी कारण से आप निश्चय ही परम ज्योति का विस्मरण करके वनिता में निरत हो रहे हैं । अब आप कोप से युक्त हैं अतएव कोप को भूलकर हे प्रथमों के स्वामिन् ! प्रकृति के आदिरूप जिसको आप पूछ रहे हैं ।

मार्कण्डेय महर्षि ने कहा-फिर तो वहाँ पर महादेवजी ने इस परम सुनिश्चित वाक्य का श्रवण करके समस्त मुनियों के देखते हुए ये योग से युक्त होकर ध्यान में परायण हो गये थे । इस समय में बन्ध का आसाद न करके विर्निमीलित लोचनों वाले महेश्वर ने सब आत्मा का चिन्तन किया था । परमपुरुष का चिन्तन करते हुए उनका शरीर बहुत अधिक कान्तियुक्त होकर चमक रहा था। तेज से उज्ज्वल उनको देखने के लिए उस समय में मुनिगण भी समर्थ नहीं हुए थे। उसी क्षण में जब ये शम्भु ध्यान से मुक्त हो गये तो भगवान् विष्णु की माया ने भी उनका परित्याग कर दिया था उस समय वे तप के तेज से अतीव उज्जवल एवं कान्तिमान् होकर चमक रहे थे ।

जो-जो भी गण उस अवसर पर सेवा करने के लिए शंकर के समीप में स्थित रहते थे वे सब भी उन शंकर अथवा दिवाकर के देखने में समर्थ नहीं थे अर्थात् उन्हें देख नहीं सकते थे। उस काल में स्वयं ही भगवान विष्णु समाधि में मन लगाने वाले शिव के शरीर के अन्दर ज्योति के स्वरूप से प्रविष्ट हुए थे। उन शंकर ने जठर में प्रवेश करके जैसे पहले सृष्टि का क्रम था ठीक उसी भाँति स्वयं अव्यय नारायण ने दिखा दिया था । वह न तो स्थूल है और न सूक्ष्म ही हैं, न विशेषण के गोचर हैं, वह नित्य आनन्दरूप हैं, निरानन्दन हैं, एक हैं, शुद्ध हैं और इन्द्रियों की पहुँच के बाहर हैं वह अस्पृश्य हैं और सब का दृष्टा अर्थात् देखने वाला है, वह निर्गुण है, परमपद हैं, परमात्मा में गमन करने वाला आनन्द हैं और जगत् के कारण का भी कारण हैं । सबसे प्रथम शम्भु ने तत्स्वरूपी आत्मा को देखा था। वह पर प्रविष्ट हुए मन में बाहर के ज्ञान से विवर्जित उसी के रूप प्रकृति को जो सृष्टि की रचना के लिए भिन्नता को प्राप्त हुई थी । उसी के समीप एक उसको पृथक् भूत हुई की भांति देखा था ।

फिर इनमें जिस रीति से वास कर रहे पुरुषों को देखा था । हे द्विजसत्तमों! जैसे स्थूल अग्नि के कण से निरन्तर होवें । वह ही काल के रूप से बारम्बार भासित होता है। सृष्टि, पालन और अहंकार के योगों का अवच्छेद से कारण है। प्रकृति और पुरुष ही काल भी जो अभिन्न थे और सर्ग के लिए भिन्नता को प्राप्त हुए भी समान थे । इन सबको पृथक भूत और अभिन्न चन्द्रशेखर प्रभु ने देखा था । एक ही ब्रह्म है जो द्वैत से रहित और यहाँ पर कुछ भी नानारूप वाला नहीं है । वह ही प्रधान रूप से और काल के स्वरूप से भासमान होता है तथा पुरुष के रूप में संसार के लिए प्रवृत्त हुआ करता है ।

भोग करने के लिए निरन्तर वह प्राणधारियों के शरीर में प्रवत्तित होता है । वह ही माया या प्रकृति हैं जो शंकर भगवान् को मोहित करती है । वह ही हरि को और ब्रह्माजी को मोहयुक्त करती हैं। ठीक उसी भाँति से आप अन्य जन्म वाले हैं । माया के नाम वाली प्रकृति जात हुई और जन्तु को सम्मोहित भी किया करती है । वह सदा स्त्री के स्वरूप से लक्ष्मीभूता हुई हरि भगवान् की प्रिया है । वह ही सावित्री, रति, सन्ध्या, सती और वारिणी है। वह देवी स्वयं बुद्धि के रूप वाली है जो चण्डिका इन नाम गायन की जाया करती है । यह ध्यान के मार्ग में गमन किए हुए भगवान् हर ने शीघ्र स्वयं ही देखा था । महत्तत्व आदि के भेद से फिर सृष्टि के क्रम को स्वयं देखा था । भगवान् ने काल-प्रकृति तथा पुरुषों को दिखलाकर हे द्विजोत्तमों! उसी प्रकार से उनके शरीर को अन्य दिखलाया था ।

॥ श्रीकालिकापुराण में त्रिदेवों के अनन्यत्वप्रतिपादन नामक बारहवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ १२ ॥

आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 13 

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