कालिका पुराण अध्याय ९

कालिका पुराण अध्याय ९     

कालिका पुराण अध्याय ९ में में सती द्वारा नन्दाव्रत के रूप में शिव को पतिरूप में प्राप्ति के लिये प्रतिमास शिव की क्रमशः आराधना, ब्रह्मा द्वारा सती से विवाह हेतु शिव की प्रार्थना उल्लिखित है।

कालिका पुराण अध्याय ९

कालिका पुराण अध्याय ९    

Kalika puran chapter 9

कालिकापुराणम् नवमोऽध्यायः हरानुनयनम्

अथ कालिका पुराण अध्याय ९        

(हर-प्रसादने पार्वती- तपवर्णनम् )

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

बाल्यं व्यतीत्य सा प्राप यौवनं शोभनं ततः ।

अतीव रूपेणांगेन सर्वाङ्गसुमनोहरा ।।१।।

मार्कण्डेय बोले- अपनी बाल्यावस्था को बिताकर देवी ने अतीव सुन्दर युवावस्था को प्राप्त किया तब अतीव रूप और सुन्दर अङ्गों से वे सर्वाङ्गतः सुन्दर तथा मनोहारिणी हो गईं ॥ १ ॥

तां वीक्ष्य दक्षो लोकेशः प्रोद्भिन्नान्तर्वयः स्थिताम् ।

चिन्तयामास भर्गाय कथं दास्य इमां सुताम् ।।२।।

वयसन्धि की अवस्था में स्थित उसे देखकर दक्ष प्रजापति विचार करने लगे मैं कैसे अपनी इस पुत्री को भगवान् शङ्कर को प्रदान करूँ ॥२॥

कालिका पुराण अध्याय ९- नन्दाव्रत-वर्णन

अथ सापि स्वयं भर्गं प्राप्तुमैच्छत्तदान्वहम् ।

आराधयामास च तं गृहे मातुरनुज्ञया ।। ३॥

वे स्वयं भी दिनोदिन शिव को पति के रूप में प्राप्त करने की इच्छा करने लगीं। तथा माता की आज्ञा ले, घर में ही शिवाराधन प्रारम्भ कीं ॥३॥

आश्विने नन्दकाख्यायां लवणैः सगुडोदनैः ।

पूजयित्वा हरं पश्चाद्ववन्दे सा निनाय तत् ।।४।।

आश्विनमास की नन्दा (प्रतिपद्) तिथि को नमक तथा गुड़ोदन ( रसिया ) से उन्होंने भगवान् शङ्कर की पूजा की तथा उनकी वन्दना कर अनुष्ठान सम्पन्न किया ॥४॥

कार्तिकस्य चतुर्दश्यां सापूपैः पायसैर्हरम् ।

समाकीर्णै: समाराध्य सस्मार परमेश्वरम् ॥५॥

कार्तिक की चतुर्दशी (शिवरात्रि) को पूआ तथा खीर से भगवान् शङ्कर की पूजा की और परमेश्वर का स्मरण किया॥५॥

कृष्णाष्टम्यां मार्गशीर्षे सतिलैः सयवोदनैः ।

पूजयित्वा हरं नीलैर्निनाय दिवसं पुनः ॥६॥

मार्गशीर्षमास के कृष्णपक्ष की अष्टमी को तिल, यवोदन (जौ की दलिया) नीलमणी से शिव का पूजन कर दिवस पर्यन्त अनुष्ठान किया ॥६॥

पौषे तु कृष्णसप्तम्यां कृत्वा जागरणं निशि ।

अपूजयच्छिवं प्रातः कृसरान्नेव सा सती ।।७।।

पूसमास के कृष्णपक्ष की सप्तमी तिथि को रात्रि जागरण कर प्रात: काल सती देवी ने खिचड़ी से भगवान् शिव का पूजन किया ॥७॥

माघस्य पौर्णमास्यान्तु कृत्वा जागरणं निशि ।

आर्द्रवस्त्रा नदीतीरे ह्यकरोद्धरपूजनम् ।।८।

माघ की पूर्णिमा को रात्रि जागरण कर गीले वस्त्रों में ही नदी किनारे उन्होंने भगवान् शिव का पूजन किया ॥८॥

नानाविधैः फलैः पुष्पैः सम्यक् तत्कालसम्भवैः ।

चकार नियताहारं तं मासं हरमानसा ।।९।।

अनके प्रकार के सामयिक फलों और पुष्पों से संयत आहार करती हुई, शिव का मानसिक चिन्तन करते हुए उन्होंने वह मास व्यतीत कर दिया ॥९॥

चतुर्दश्यां कृष्णपक्षे तपस्यस्य विशेषतः ।

कृत्वा जागरणं देवं विल्वपत्रैरपूजयत् ।।१०।।

विशेषतः तपस्य (फाल्गुन) मास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी (महाशिवरात्रि) को उन्होंने जागरण किया तथा बिल्वपत्रों से भगवान् देवाधिदेव शिव की पूजा की ॥१०॥

चैत्रे शुक्लचतुर्दश्यां पलाशैः कुसुमैः शिवम् |

अपूजयद्दिवारात्रौ तं स्मरन्ती निनाय तम् ।।११।।

चैत्र के शुक्लपक्ष की चतुर्दशीतिथि को पलाश के फूलों से शिव की रात-दिन पूजा और स्मरण करते हुए अनुष्ठान सम्पन्न किया ॥११॥

वैशाखस्य तृतीयायां शुक्लायां सयवोदनैः ।

पूजयित्वा हरं देवं हव्यैर्मासं चरन्त्यनु ।

निनाय सा निराहारा स्मरन्ती वृषवाहनम् ।। १२ ।।

वैशाख के शुक्लपक्ष की तृतीया तिथि को यवोदन (जौ की दलिया) तथा हव्यों से शिव का पूजन कर निराहार रहकर महीने भर भगवान् वृषवाहन शिव का स्मरण करते हुए अनुष्ठान किया ॥ १२ ॥

ज्येष्ठस्य पूर्णिमारात्रौ सम्पूज्य वृषवाहनम् ।

वसनैर्वृहतीपुष्पैर्निराहारा निनाय ताम् ।।१३।।

ज्येष्ठमास की पूर्णिमा की रात्रि को वस्त्रों तथा बृहती के पुष्पों से वृषवाहन की पूजाकर अपना अनुष्ठान सम्पन्न किया ॥ १३॥

आषाढस्य चतुर्दश्यां शुक्लायां कृत्तिवाससः ।

वृहतीकुसुमैः पूजा देवस्याकारि वै तया ।। १४ ।।

आषाढ़ के शुक्लपक्ष की चतुर्दशी तिथि को कृत्तिवास शिव की उनके द्वारा बृहती के फूलों से पूजा की गई ॥१४॥

श्रावणस्य सिताष्टम्यां चतुर्दश्याञ्च सा शिवम् ।

यज्ञोपवीतैर्वासोभिः पवित्रैरप्यपूजयत् ।।१५।।

श्रावण के शुक्लपक्ष की अष्टमी तथा चतुर्दशी को उन्होंने वस्त्र यज्ञोपवीत और पवित्र वस्त्र द्वारा भगवान् शिव की पूजा की ॥ १५ ॥

भाद्रे कृष्णत्रयोदश्यां पुष्पैर्नानाविधैः फलैः ।

सम्पूज्याथ चतुर्दश्यां चकार जलभोजनम् ।। १६ ।।

भाद्रपदमास के कृष्णपक्ष की त्रयोदशी को अनेक प्रकार फलों तथा पुष्पों से शिव-पूजन कर चतुर्दशी को जलाहार किया ॥ १६ ॥

इति व्रतं यदारब्धं पुरा सत्या तदैव तु ।

सावित्रीसहितो ब्रह्मा जगामाथ हरान्तिकम् ।।१७।।

प्राचीनकाल में जब सती ने इस प्रकार व्रत प्रारम्भ किया तभी सावित्री के सहित ब्रह्मा शिव के समीप पहुँच गये ॥१७॥

वासुदेवोऽपि भगवान् सह लक्ष्म्या तदन्तिकम् ।

प्रस्थं हिमवतः शम्भुः स्थितो यत्र गणैः सह ।। १८ ।।

भगवान् वासुदेव (विष्णु) भी लक्ष्मी के साथ हिमालय के उस शिखर पर पहुँच गये, जहाँ शिव अपने गणों के साथ उपस्थित थे ॥१८ ॥

तौ तु दृष्ट्वा ब्रह्मकृष्णौ सस्त्रीकौ संगतौ हरः ।

यथोचितं समाभाष्य पप्रच्छागमनं तयोः ।। १९ ।।

तथाविधांस्तु तान् दृष्ट्वा दाम्पत्यभावसंयुतान् ।

काञ्चिदीहाञ्च मनसा चक्रे दारपरिग्रहे ॥२०॥

भगवान् शङ्कर उन दोनों ब्रह्मा और कृष्ण (विष्णु) को सपत्नीक साथ-साथ आया देख, यथोचित व्यवहार कर उनके आने का कारण पूछे और दाम्पत्यभाव से युक्त उन दोनों को उस अवस्था में देखकर स्वयं भी स्त्री ग्रहण करने की कुछ इच्छा मन में करने लगे ॥ १९-२० ॥

अथागमनहेतुं नः कथयध्वञ्च तत्त्वतः ।

किमर्थमागता यूयं किं कार्यं वोऽत्र विद्यते ।।२१।।

आप लोग साररूप से अपने आने का कारण बताइए। आप किस हेतु पधारे हो, यहाँ आपका क्या कार्य है ? ॥२१॥

इति पृष्टो त्र्यम्बकेण ब्रह्मा लोकपितामहः ।

उवाच च महादेवं विष्णुना परिचोदितः ।। २२ ।।

त्र्यम्बक शिव द्वारा उपर्युक्त रीति से पूछे जाने पर लोकपितामह ब्रह्मा ने विष्णु की प्रेरणा से महादेव शिव के प्रति कहा ॥२२॥

।। ब्रह्मोवाच ।।

यदर्थमागतावावां तच्छृणुस्व त्रिलोचन ।

विशेषतश्च देवार्थं विश्वार्थञ्च वृषध्वज ॥२३॥

ब्रह्मा बोले- हे तीन नेत्रों वाले शिव ! हम लोग जिस हेतु आये हैं उसे सुनिये। हे वृषवाहन! हम सम्पूर्ण विश्व के लिए और मुख्य रूप से देवताओं के कल्याण हेतु आये हैं ॥२३॥

कालिका पुराण अध्याय ९- त्रिदेवों की एकता 

अहं सृष्टिरतः शम्भो स्थितिहेतुस्तथा हरिः ।

अन्तहेतुर्भवानस्य जगत: प्रतिसर्गकम् ।। २४ ।।

हे शम्भो! मैं इस जगत् की सृष्टि में लगा रहता हूँ तथा विष्णु स्थिति के कारण हैं । प्रलय के समय आप इस संसार के अन्त के कारण हैं ॥२४॥

तत्कर्मणि सदैवाहं भवद्भ्यां सहितो ह्यलम् ।

हरिः स्थितावपि तथा मयालं भवता सह ।

त्वमन्तकरणे शक्तो विना नावां भविष्यसि ।। २५ ।।

उस कर्म में मैं सदैव आप दोनों के सहयोग से ही सक्षम हूँ। विष्णु भी पालन कर्म में मेरे और आपके सहयोग से ही सक्षम हैं। आप अन्त (विनाश) के कार्य में हमदोनों के बिना समर्थ नहीं होंगे ॥ २५ ॥

तस्मादन्योन्यकृत्येषु सर्वेषां वृषभध्वज ।

साहाय्यं नः सदा योग्यमन्यथा न जगद्भवेत् ।। २६ ।।

वृषध्वज ! एक दूसरे के सभी कार्यों में सहायक होना उचित है अन्यथा संसार की व्यवस्था नहीं चल सकती  ॥२६ ॥

केचिद्भविष्यन्त्यसुरा मम वध्या महेश्वर ।

अपरे तु हरेर्वध्या भवतोऽपि तथापरे ।। २७ ।।

केचित्तद्वीर्यजातस्य केचिन्मेंऽशभवस्य वै ।

मायायाः केचिदपरे वध्याः स्युर्देववैरिणः ।। २८ ।।

हे महेश्वर ! कुछ राक्षस मेरे द्वारा मारे जाने योग्य होंगे, दूसरे श्री विष्णु द्वारा तथा अन्य आपके द्वारा भी। कुछ देवशत्रु आपके वीर्य से उत्पन्नों के द्वारा वध के योग्य होंगे तो कुछ मेरे अंशावतारों द्वारा, कुछ दूसरे माया (भगवती) द्वारा मारे जाने योग्य होंगे ।। २७-२८।।

योगयुक्ते त्वयि सदा रागद्वेषादिवर्जिते ।

दयामात्रैकनिरते न वध्या असुरास्तव ।। २९ ।।

रागद्वेषादि से मुक्त हो आपके सदैव भोगयुक्त रह दयामात्र में निरन्तर लगे रहने से आप द्वारा मारे जाने वाले असुर मारे नहीं जा रहे हैं ।। २९ ।।

अबाधितेषु तेष्वीश कथं सृष्टिस्तथा स्थितिः ।

अन्तश्च भविता युक्तं नित्यं नित्यं वृषध्वज ।। ३० ।।

हे ईश! हे वृषध्वज ! उनके न मारे जाने से नित्य उचित रूप से सृष्टि, स्थिति और संहार का कार्य कैसे हो सकेगा ? ॥३०॥

सृष्टिस्थित्यन्तकर्माणि न कार्याणि यदा हर ।

शरीरभेदमस्माकं मायायाश्च न युज्यते ।। ३१ ।।

एकस्वरूपा हि वयं भिन्ना कार्यस्य भेदतः ।

कार्यभेदो न सिद्धश्चेद्रूपभेदोऽप्रयोजनः ।। ३२ ।।

हे हर ! जब हम सृष्टि स्थिति और संहार का कार्यक्रम नहीं करेंगे तो हमारे एवं भगवती के शारीरिक भेद का क्या औचित्य रहेगा ? क्योंकि हम सब कार्यों की भिन्नता के कारण भिन्न होते हुए भी तत्त्वतः एक रूप हैं। यदि कार्यभेद सम्पन्न न हो तो रूपभेद तो प्रयोजनरहित (व्यर्थ ही ) है ।। ३१-३२।।

एक एव त्रिधा भूत्वा वयं भिन्नस्वरूपिणः ।

भूता महेश्वर इति तत्त्वं विद्धि सनातनम् ।।३३।।

हे महेश्वर! हम सब एक होते हुए भी तीन रूप धारण कर भिन्न-भिन्न स्वरूप हैं। इस सनातन तत्त्व को जान लीजिये ॥३३॥

मायापि भिन्नरूपेण कमलाख्या सरस्वती ।

सावित्री चाथ सन्ध्या च भूता कार्यस्य भेदतः ।। ३४ ।।

माया (भगवती) भी कार्यभेद से ही कमला, सरस्वती, सावित्री तथा सन्ध्या होती हैं ॥३४॥

प्रवृत्तेरनुरागस्य नारी मूलं महेश्वर ।

रामापरिग्रहात् पश्चात् कामक्रोधादिकोद्भवः ।।३५।।

हे महेश्वर ! अनुराग की प्रवृत्ति का मूल नारी ही है। पत्नी ग्रहण के पश्चात् ही काम, क्रोधादि की उत्पत्ति होती है ॥ ३५ ॥

अनुरागे तु सञ्जाते कामक्रोधादिकारणे ।

विरागहेतुं यत्नेन सान्त्वयन्तीह जन्तवः ।। ३६ ।

अनुराग में काम-क्रोधादि के उत्पन्न हो जाने पर प्राणी विराग के लिए यत्न द्वारा इस लोक में सान्त्वना प्राप्त करते हैं ॥ ३६॥

संग: प्रथम एव स्याद्रागवृक्षात् फलं महत् ।

तस्मात् संजायते कामः कामात् क्रोधस्ततो भवेत् ।। ३७ ।।

सङ्ग अर्थात् आसक्ति ही रागरूप वृक्ष का पहला और महान् फल है। उस सङ्ग से ही काम उत्पन्न होता है और काम से क्रोध होता है ॥३७॥

वैराग्यञ्च निवृत्तिश्च शोकात् स्वाभाविकादपि ।

संसारविमुखे हेतुरसंगश्च सदातनः ।। ३८ ।।

वैराग्य, स्वाभाविक शोक से निवृत्ति और असङ्ग (अनाशक्ति) संसार से विमुखता का स्थायी कारण है ॥३८॥

दया तत्र भवेन्नित्यं शान्तिश्चापि महेश्वर ।

अहिंसा च तपः शान्तिर्ज्ञानमार्गानुसाधनम् ।। ३९ ।।

हे महेश्वर ! वहाँ (जहाँ वैराग्य होता है) नित्य शान्ति होती है । शान्ति तथा ज्ञान मार्ग के साधक शान्ति, अहिंसा और तपस्या भी वहीं होती है ॥ ३९ ॥

त्वयि तावत्तपोनिष्ठे विसंगिनि दयायुते ।

अहिंसा च तथा शान्तिः सदा तव भविष्यति ।। ४० ।।

आपके तपस्यारत, सङ्गति रहित, दयालु रहने पर अहिंसा और शान्ति आपके लिए सदैव रहेगी ॥४०॥

ततो सुखविधौ यत्नस्तव कस्माद्भविष्यति ।

अकृते दूषणं यद्यत्तत् सर्वं कथितं तव ।।४१ ।।

तब (सुख) हेतु आपका प्रयत्न कैसे हो सकेगा? इस प्रकार का प्रयत्न न करने से जो-जो दोष हैं, वे सब मैंने आपसे कह दिया है ॥४१॥

तस्माद्विश्वहिताय त्वं देवानाञ्च जगत्पते ।

परिगृह्णीष्व भार्यार्थे वामामेकां सुशोभनाम् ।।४२।।

यथा पद्मालया विष्णोः सावित्री च यथा मम ।

तथा सहचरी शम्भोर्या स्यात्त्वं गृह्ण सम्प्रति ।। ४३ ।।

इसलिए हे जगत्पति! तुम देवताओं तथा विश्व के कल्याण हेतु एक सुन्दरी स्त्री को पत्नी के निमित्त ग्रहण करो। जिस प्रकार लक्ष्मी विष्णु की तथा सावित्री मेरी सहचरी हैं, उसी प्रकार जो तुम्हारी सहचरी होवे, उसे तुम इस समय ग्रहण करो ॥४२-४३॥

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

इति श्रुत्वा वचस्तस्य ब्रह्मणः पुरतो हरेः ।

तदा जगाद लोकेशं स्मितार्द्दितमुखो हरः ।।४४।।

मार्कण्डेय बोले- विष्णु के सम्मुख ब्रह्मा के इस प्रकार के वचनों को सुनकर, मुस्कुराते हुए भगवान् शङ्कर ने ब्रह्मा से कहा॥४४॥

।। ईश्वर उवाच ।।

एवमेव यथात्थ त्वं ब्रह्मन् विश्वनिमित्ततः ।

न स्वार्थतः प्रवृत्तिर्मे सम्यग् ब्रह्मविचिन्तनात् ।। ४५ ।।

ईश्वर (शिव) बोले- हे ब्रह्मन् ! विश्व कल्याण हेतु तुमने यथार्थ ही कहा है । भलीभाँति ब्रह्म का चिन्तन करने से स्वार्थ में मेरी प्रवृत्ति नहीं है ॥ ४५ ॥

तथापि यत्करिष्यामि तत्ते वक्ष्ये जगद्धितम् ।

तच्छृणुष्व महाभाग युक्तमेव वचो मम ।। ४६ ।।

तो भी संसार के कल्याण के लिए मैं जो कुछ करूँगा वह मैं तुमसे कहता हूँ। हे महाभाग ! मेरे उन उचित वचनों को सुनें ॥ ४६ ॥

या मे तेजः समर्था स्याद् ग्रहीतुमिह भागशः ।

तां निदेशय भार्यार्थे योगिनीं कामरूपिणीम् ।।४७।।

इस संसार में जो मेरे अंशभूत तेज को धारण करने में समर्थ हों ऐसी योगिनी किन्तु इच्छानुसार रूप धारण करने वाली स्त्री को मेरी पत्नी के निमित्त बताओ ॥४७॥

योगयुक्ते मयि तथा योगिन्येव भविष्यति ।

कामासक्ते मयि पुनर्मोहिन्येव भविष्यति ।

तां मे निदेशय ब्रह्मन् भार्यार्थे वरवर्णिनीम् ।।४८ ।।

हे ब्रह्मन् ! ऐसी कुमारी को मेरी पत्नी के निमित्त बताओ जो मेरे योगयुक्त होने पर योगिनी होवे तथा मेरे कामासक्त होने पर वही पुनः मोहिनी हो जावे ॥ ४८ ॥

यदक्षरं वेदविदो निगदन्ति मनीषिणः ।

ज्योतिः स्वरूपं परमं चिन्तयिष्ये सनातनम् ।। ४९ ।।

जिसे वेद को जानने वाले मनीषीगण अक्षर अविनाशी कहते हैं। मैं उसी ज्योतिस्वरूप, सनातन, श्रेष्ठ तत्त्व का चिन्तन करूँगा ॥४९॥

तच्चिन्तायां सदा शक्तो ब्रह्मन् गच्छामि भावनाम् ।

तत्र या विघ्नजननी न भवित्रीह सास्तु मे ।।५०।।

हे ब्रह्मन् ! उसके चिन्ता अनुरक्त हो जब ब्रह्मभाव को प्राप्त करूँ, उस समय जो विघ्न को जन्म देने वाली न होवे, वह मेरे लिए ऐसी स्त्री होवे ॥५०॥

त्वं वा विष्णुरहं वापि परब्रह्मस्वरूपिणः ।

अङ्गभूता महाभाग योग्यं तदनुचिन्तनम् ।। ५१ ।।

तुम, मैं या विष्णु परब्रह्मस्वरूप ही हैं, जिसके अङ्गभूत हम सब हैं, उस परब्रह्म का हमें चिन्तन करना ही उचित है ॥५१॥

तच्चिन्तया विना नाहं स्थास्यामि कमलासन ।

तस्माज्जायां प्रादिशस्व मत्कर्मानुगतां सदा ।। ५२ ।।

हे कमलासन! उसके चिन्तन के बिना मैं नहीं रह सकता, अतः सदैव मेरे कर्मों का अनुगमन करने वाली पत्नी मुझे निर्दिष्ट करो ॥५२॥

।। मार्कण्डेय उवाच ॥

इति तस्य वचः श्रुत्वा ब्रह्मा सर्वजगत्पतिः ।

सस्मितं मोदितमना इदं वचनमब्रवीत् ।। ५३ ।।

मार्कण्डेय बोले- उन महादेव के ऐसे वचनों को सुनकर सम्पूर्ण जगत् के स्वामी ब्रह्मा, मुसकान सहित, प्रसन्नमन से यह वचन बोले ॥ ५३ ॥

।। ब्रह्मोवाच ।।

अस्तीदृशी महादेव मार्गिता यादृशी त्वया ।।५४।।

ब्रह्मा बाले - हे महादेव ! जैसा आपने निर्देश दिया है। वैसी कुमारी (उपलब्ध) है ॥५४॥

दक्षस्य तनया याभूत् सती नाम्नी सुशोभना ।

सैवेदृशी भवद्भार्या भविष्यति सुधीमती ।। ५५ ।।

दक्ष की जो सती नामक सुन्दरी कन्या उत्पन्न हुई है वही बुद्धिमती उपर्युक्त प्रकार की आपकी पत्नी होगी ॥५५॥

तां त्वदर्थे तपस्यन्तीं तत्प्राप्तिं प्रतिकामिनीम् ।

विद्धि त्वं देवदेवेश सर्वेष्वात्मसु वर्तसे ।।५६।।

हे देवों के भी देव महादेव! तुम सब की आत्मा में निवास करने वाले हो। उसे अपने लिए तपस्या करने वाली, अपने प्रति बदले में आपसे अपेक्षा करने वाली समझो ॥५६ ॥

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

अथ ब्रह्मवच: शेषे भगवान् मधुसूदनः ।

यदुक्तं ब्रह्मणा सर्वं तत् कुरुष्वेत्युवाच सः ।।५७।।

मार्कण्डेय बोले- इस प्रकार ब्रह्मा के वचनों के शेष (समाप्त) हो जाने पर भगवान् मधुसूदन (विष्णु) ने कहा कि जो ब्रह्मा ने कहा है वह सब आप सम्पादित करिये ॥ ५७॥

करिष्ये इति तेनोक्ते स्वेष्टं देशं प्रजग्मतुः ।

हरिब्रह्मा च मुदितौ सावित्री कमला- युतौ ।।५८।।

उन भगवान् शिव के द्वारा ऐसा ही करूंगा कहे जाने पर विष्णु और ब्रह्मा, लक्ष्मी तथा सावित्री के सहित प्रसन्नता पूर्वक अपने इच्छित स्थान को चले गये ॥ ५८॥

कामोऽपि वाक्यानि हरस्य श्रुत्वा चामोदयुक्तो रतिना समित्रः ।

शम्भुं समासाद्य विविक्तरूपी तस्थौ वसन्तं विनियोज्य शश्वत् ।। ५९ ।।

कामदेव भी शिव के वाक्यों को सुनकर, पत्नी रति तथा मित्र मारगणों सहित, पुत्र वसन्त को प्रसन्नतापूर्वक समुचित रूप से नियुक्त कर, स्वयं एकाकी भगवान् के सम्मुख उपस्थित हुआ ।। ५९ ।।

॥ श्रीकालिकापुराणे हरानुनयनो नाम नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥

कालिका पुराण अध्याय ९ संक्षिप्त कथानक

मार्कण्डेय महर्षि ने कहा-सती देवी अपना बचपन व्यतीत करके फिर परमाधिक शोभन यौवन को प्राप्त हो गई थी और अत्यधिक रूप लावण्य से सुसम्पन्न वह समस्त अंगों के द्वारा सुमनोहर अर्थात् बहुत ही अधिक मन को हरण करने वाली सुन्दरी थी । दक्ष प्रजापति ने जो लोकों का ईश था उस सती को देखा कि वह यौवन से सुसम्पन्न पूर्ण युवती हो गई हैं । तब उसने यह चिन्ता की थी कि इस सती भी प्रतिदिन स्वयं ही भगवान् शम्भु को प्राप्त करने की इच्छा रखने वाली हो गयी थी । उस सती ने अपनी माता की आज्ञा से भगवान् शम्भु की आराधना की थी जो अपने घर में स्थित होकर की गयी थी। आश्विन मास में नन्दाकाख्या में गुड़ और ओदन से सहित लवणों से हर का योजन करके इसके पश्चात् उसने वन्दना की थी। कार्तिक मास की चतुर्दशी तिथि में पुओं के सति प्रपायसों (खीर) से जो समाकीर्ण थे भगवान् हर समाराधना करके फिर परमेश्वर प्रभु शम्भु का स्मरण किया था। मार्गशीर्ष मास में कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि में तिलों के सहित यव और ओदनों से भगवान् हर का पूजन करके फिर नीलों के द्वारा दिवस को व्यतीत करती । पौष मास में कृष्ण पक्ष की सप्तमी तिथि के दिन में रात्रि में जागरण करके प्रातः काल में शिव का उस सती ने कृसरान्न द्वारा यजन किया था ।

माघ मास की पूर्णमासी में रात्रि में जागरण करके गीले वस्त्र धारण करती हुई नदी के तट पर भगवान् हर का पूजन करती थी । उस पूरे मास में भगवान् शम्भु में नियत मन वाली ने नियत आहार किया था जो अनेक प्रकार के फलों और पुष्पों से ही किया गया था जो भी उस काल में समुत्पन्न होने वाले थे। माघ मास में विशेष रूप से कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी में रात्रि जागरण करके देव का विल्व पत्रों के द्वारा यजन किया करती थी । चैत्र मास में शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी में पलाश के पुष्पों से भगवान् शिव की पूजा की थी और दिन तथा रात में उनका स्मरण करते हुए समय को व्यतीत किया था । वैशाख मास में शुक्ल पक्ष की तृतीया के दिन में यवों के सहित ओदनों के द्वारा देव शम्भु का यजन करके द्रव्यों पूरे मास अनचरण किया करती थी । वृषवाहन प्रभु का स्मरण करती हुई उस सती ने निराहार रहकर ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा तिथि में वृषवाहन देव का यजन करके वसनों से और पुष्पों के द्वारा उसको पूर्ण किया था । आषाढमास की चतुर्दशी तिथि में जो कि शुक्ल पक्ष की थी कृतिवासा देव का वृहती के पुष्पों के द्वारा यजन करके उसने उसी भाँति पूजन किया था ।

श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि के दिन और चतुर्दशी में उसने पवित्र यज्ञोपवीतों तथा वस्त्रों के द्वारा देव का पूजन किया था । भाद्रपद मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी में नाना भाँति के फल तथा पुष्पों के द्वारा भली-भाँति देव का भजन करके चतुर्दशी में जल का ही भोजन किया था।

इस प्रकार से जो पूर्व में व्रत सती ने आरम्भ किया था उसी समय में सावित्री के सहित ब्रह्माजी भगवान् शम्भु के समीप हुए थे । भगवान् वासुदेव भी अपनी लक्ष्मी देवी के सहित उनके सन्निधि में गए थे। जहाँ पर भगवान् शम्भु हिमालय गिरि के प्रस्थ पर अपने गणों के सहित विराजमान थे । भगवान् शम्भु के उन दोनों ब्राह्मणों की ओर भगवान् कृष्ण को देखकर जो अपनी पत्नियों के साथ संगत हुए वहाँ पर प्राप्त हुए थे जैसा भी समुचित शिष्टाचार था उसी के अनुसार उनसे सम्भाषण करके उनके यहाँ पर समागमन का कारण शंकर प्रभु ने पूछा था। इस प्रकार से उन दोनों का दर्शन करके जो दाम्पत्य भाव से संगत थे, शम्भु ने भी दारा से परिग्रहण करने की इच्छा मन में की थी। इसके उपरान्त तात्विक रूप से अपने आगमन का कारण पूछा कि आप लोग यहाँ पर किस प्रयोजन को सुसम्पादित किए जाने के लिए समागत हुए हैं और आपका यहाँ पर क्या कार्य हैं ? इसी रीति से भगवान् शम्भु के द्वारा पूछे गए वे दोनों में से लोकों के पितामह ब्रह्माजी ने भगवान् विष्णु के द्वारा प्रेरित होकर महादेव जी से कहा था ।

ब्रह्माजी ने कहा- हे त्रिलोचन ! जिस कार्य के सम्पादन कराने के लिए यहाँ पर हम दोनों ही आये हैं उसका अब आप श्रवण कीजिए । हे वृषभध्वज ! विशेष रूप से तो हम दोनों का आगमन देव अर्थात् आपके ही लिए है और सम्पूर्ण विश्व के लिए भी है । हे शम्भो ! मैं तो केवल सृजन करने के ही कार्य में निरत रहता हूँ और यह भगवान् हरि उस सृष्टि के पालन करने के कार्य संलग्न में रहा करते हैं और आप इस सृष्टि का संहार करने में रत हुआ करते हैं यही प्रतिसर्ग में जगत् का कार्य होता रहता है । उस कर्म में सदैव मैं आप दोनों के सहित समर्थ हूँ। यह हरि मेरे और आपके सहयोग के बिना समर्थन नहीं होते हैं । आप संहार करने में हम दोनों के सहयोग के बिना समर्थ नहीं होते हैं । इस कारण हे वृषभध्वज ! परस्पर के कृत्यों में सभी की सहायता आवश्यक है । हमारी सहायता सदा योग्य ही है अन्यथा यह जगत् नहीं होता है। कुछ ऐसे हैं आपके वीर्य से समुत्पन्न होने वाले के द्वारा वध के योग्य हैं और मेरे अंश से समुत्पन्न के द्वारा वध के लायक होते हैं। दूसरे ऐसे हैं जो माया के द्वारा देवों के बैरी असुर वध के योग्य होते हैं ।

आप तो जब योग से मुक्त होते हैं और राग-द्वेष से मुक्त हैं तथा केवल प्राणियों पर ही दया करने में निरत रहा करते हैं तो आपके द्वारा असुर वध करने के योग्य नहीं हो सकते हैं । हे ईश ! उनके अबाधित रहने पर यह सृष्टि और स्थिति कैसे संभव हो सकते हैं ? हे हर ! जब सृजन, पालन और संहार के कर्म न करने योग्य होंगे तब हमारा शरीर भेद और माया का भी युक्त नहीं होता है। वैसे हम सब एक ही स्वरूप वाले हैं अर्थात् तात्पर्य यह है कि ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर इन तीनों का एक ही शक्ति स्वरूप हैं। हम सब कार्यों के विभिन्न होने ही से भिन्न रूप वाले होते हैं । यदि कार्यों का भेद सिद्ध नहीं होता है तो यह रूपों का भेद भी प्रयोजन से रहित ही है। वैसे एक ही तीनों रूपों में होकर हम विभिन्न स्वरूप वाले होते हे महेश्वर ! यह सनातन अर्थात् सदा से चला आया तत्व है इसको जान लीजिए। यह माया भी भिन्न रूपों से कमला नाम वाली अर्थात् महालक्ष्मी, सरस्वती और सावित्री तथा सन्ध्या कार्यों के भेद से ही भिन्न हुई हैं। हे महेश्वर ! अनुराग की प्रवृति का मूल नारी ही है। रामा के परिग्रह से ही पीछे काम, क्रोध आदि का उद्भव (जन्म) होता है ।

काम क्रोध आदि के कारणस्वरूप अनुराग के होने पर यहाँ पर जन्तुगण विराग के हेतु का यत्नपूर्वक सान्त्वन किया करते हैं । अनुराग के वृक्ष से संग ही सर्वप्रथम महान् फल होता है । उसी संग से काम की समुत्पत्ति हुआ करती है । काम से क्रोध उत्पन्न होता है । स्वाभाविक ज्ञान से ही वैराग्य और निवृत्ति होती है । संसार की विमुखता से सनातन हेतु असंग ही होती है। हे महेश्वर ! यहाँ पर दया नित्य ही हुआ करती हैं अर्थात् जो संसार से विमुख हैं उसमें नित्य ही दया का होना आवश्यक है और दया के साथ-साथ शान्ति भी होती है। अहिंसा और तप, शान्ति ज्ञानमार्ग का अनुसाधन है । आपके तपोनिष्ठ, विसंगी अर्थात् संगरहित तथा दया से संयुत होने पर अहिंसा तथा शान्ति आपको सदा ही होगी। इसके न करने पर जो-जो दोष हैं वे सभी आपको बतला दिए गए हैं। हे जगत्पते! इस कारण से आप विश्व के और देवों के हित के लिए भार्यार्थ में एक परमशोभना वामा का परिग्रहण करें । जिस प्रकार से लक्ष्मी भगवान् विष्णु की पत्नी है और सावित्री मेरी पत्नी है उसी भाँति शम्भु की जो सहचारिणी होवे उसका ही आप परिग्रहण कीजिए ।

मार्कण्डेय मुनि ने कहा- इस तरह से हर के आगे ब्रह्माजी के वचन का श्रवण कर मन्द मुस्कराहट के सहित मुख वाले हरि ने उस समय में लोकों के ईश ब्रह्माजी से कहा ।

ईश्वर ने कहा- जो आपने कहा है वह इसी प्रकार से तथ्य है । ब्रह्माजी ! यह विश्व के ही निमित्त से होना ही चाहिए किन्तु स्वार्थ से भली-भाँति ब्रह्मा के चिन्तन करने मेरी प्रवृत्ति नहीं होती है । तो भी वह मैं करूंगा जो जगत् की भलाई के लिए आप कहेंगे । सो हे महाभाग ! आप श्रवण कीजिए। जो मेरे तेज को सहन करने में भागशः समर्थ हो यहाँ पर भार्या के ग्रहण करने में उसी को आप बतलाइये जो योगिनी और कामरूपिणी दोनों ही होवे । जब मैं योग में युक्त होऊँ उस अवसर पर उसी भाँति वह भी योगिनी हो जावेगी और जिस समय में कामवासना में आसक्त होऊँ तो उस अवसर पर वह मोहिनी ही होवेगी । हे ब्रह्माजी ! भार्या के लिए उसी को आप बतलाइए जो वरवर्णिनी होवे । वेदों के ज्ञाता महामनीषीगण जो अक्षर को जानते हैं अर्थात् जिस अक्षर का ज्ञान रखते हैं उसी परमज्योति के स्वरूप वाले को जो सनातन है मैं चिन्तन करूँगा ।

हे ब्रह्माजी ! मैं उसी की चिन्ता में सदा आसक्त होता हुआ भावना को गमन किया करता हूँ अर्थात् भावना में निमग्न हो जाता हूँ । उस भावना में जो विघ्न डालने वाली हो वह मेरी होने वाली वाम न होवे । हे महाभाग ! आप अथवा विष्णु भगवान् या मैं भी सब पर ब्रह्मा के रूप वाले हैं और एक दूसरे के अंगभूत हैं । जो योग्य हो उसका ही अनुचिन्तन करो। हे कमलासन ! उसकी चिन्ता के बिना मैं स्थित नहीं रहूँगा उस कारण से ऐसी ही जाया को बतलाइए जो सदा मेरे कर्म के ही अनुगत रहने वाली होवे ।

मार्कण्डेय मुनि ने कहा- सम्पूर्ण जगतों के स्वामी ब्रह्माजी ने यह उनके वचन का श्रवण कर स्थिति के सहित प्रसन्न मन वाले ने यह वचन कहा था।

ब्रह्माजी ने कहा- हे महादेव ! जैसी आपने वर्णित की है वैसी ही एक है जो प्रजापति दक्ष की तनया (पुत्री) हुई है जिसका नाम 'सती' है और वह परम शोभना है । वह ऐसी सुधीमती आपकी भार्या होगी। उसी को जो आपको पति के रूप में प्राप्त करने के लिए कामिनी है । उसको आप जान लीजिए। हे देवेश्वर! आप तो सभी आत्माओं में वर्तमान रहने वाले हैं ।

मार्कण्डेय मुनि ने कहा - इनके अनन्तर ब्रह्माजी के वचन के उपरान्त भगवान् मधुसूदन ने कहा कि जो कुछ भी ब्रह्माजी ने कहा है वह सब आप करिए। उन शंकर प्रभु के द्वारा मैं वही करूंगा', ऐसा कहने पर वे दोनों (ब्रह्मा और विष्णु ) अपने-अपने आश्रमों को चले गए थे। ब्रह्माजी और हरि भगवान् बहुत ही प्रसन्न हुए जो कि सावित्री और कमला से संयुत थे । कामदेव भी महादेव जी के वचन का श्रवण करके अपने मित्र (बसन्त) के सहित और पत्नी रति के साथ आमोद से युक्त हो गया था । उसने विविक्त रूप वाला होकर शम्भु को प्राप्त कर निरन्तर बसन्त को विनियोजित कर वहीं पर स्थित हो गया ।

॥ श्रीकालिकापुराण का हरानुनयन नामक नौवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥९॥

आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 10 

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