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कालिका पुराण अध्याय १०
कालिका पुराण अध्याय १० में कामप्रभाव से व्यथित भगवान् शंकर की प्रार्थना पर ब्रह्मा द्वारा दक्षगृह जाकर शिव की ओर से दक्ष से कन्यादान हेतु प्रस्ताव का वर्णन हुआ है ।
कालिका पुराण अध्याय १०
Kalika puran chapter 10
कालिकापुराणम् दशमोऽध्यायः सती याचनं
कालिकापुराणम्
दशमोऽध्यायः
॥ सती से
विवाह प्रस्ताव ॥
अथ कालिका
पुराण अध्याय १०
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
अथ सत्या पुनः
शुक्लपक्षेऽष्टम्यामुपोषितम् ।
आश्विने मासि
देवेशं पूजयामास भक्तितः ।। १।।
इसके बाद पुनः
आश्विन के शुक्लपक्ष की अष्टमी तिथि को सती द्वारा उपवास पूर्वक देवेश शिव की
भक्तिपूर्वक पूजा की गई ॥ १ ॥
इति नन्दाव्रते
पूर्णे नवम्यां दिनमागतः ।
तस्यास्तु भक्तिनम्रायाः
प्रत्यक्षमभवद्धरः ।।२।।
इस प्रकार से
आश्विन के शुक्ल पक्ष के नवमी के दिन नन्दा व्रत के पूर्ण हो जाने पर उस भक्ति से
विनम्र हुई सती के सम्मुख शिव स्वयं प्रत्यक्षरूप से प्रकट हो गये ।।
२ ।।
प्रत्यक्षतो हरं
वीक्ष्य समोदहृदया सती ।
ववन्दे चरणौ तस्य
लज्जयावनता नता ।।३।।
शिव को
प्रत्यक्ष देखकर वे प्रसन्नहृदया सती देवी लज्जा से विनम्र हो गईं और उन्होंने
झुककर उन शिव के चरणों की वन्दना की ।।३।।
अथ प्राह
महादेवः सतीं तद् व्रतधारिणीम् ।
तामिच्छन्नपि
भार्यार्थे तस्याश्चर्यफलप्रदः ।।४।।
इसके बाद उन
व्रत धारण करने वाली सती से पत्नी के रूप में उनकी इच्छा करते हुए,
उन्हें आश्चर्यजनक फल प्रदानकर्ता महादेव ने कहा ।।४।।
।। ईश्वर उवाच
।।
अनेन त्वद्व्रतेनाहं
प्रीतोऽस्मि दक्षनन्दिनि ।
वरं वरय
दास्यामि यस्तवाभिमतो भवेत् ।।५।।
भगवान् बोले-
हे दक्षनन्दिनि सती! मैं तुम्हारे इस व्रत से प्रसन्न हूँ,
जो तुम्हारा इच्छित वर हो मांग लो। मैं तुम्हें वह प्रदान
करूँगा ।।५।।
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
जानन्नपीह
तद्भावं महादेवो जगत्पतिः ।
ऊचेऽथ
वरयस्वेति तद्वाक्यश्रवणेच्छया ।।६।।
मार्कण्डेय
बोले- संसार के स्वामी महादेव ने उन (सती) के भावों को जानते हुये उनके वाक्यों को
सुनने की इच्छा से "तुम वर माँगो" ऐसा कहा ॥६॥
सापि
त्रपासमाविष्टा नो वक्तुं हृदये स्थितम् ।
शशाक
बालाभीष्टं यल्लज्जयाच्छादितं यत: ।।७।।
वह कुमारी भी
लज्जा से भरकर हृदय में जो अभीष्ट था और लज्जा से ढँका स्थित था,
उसे कह न सकीं ॥ ७ ॥
एतस्मिन्नन्तरे
कामः साभिप्रायं हरं तदा ।
वामापरिग्रहे
नेत्रवक्त्रव्यापारलिंगितम् ।।८।।
सम्प्राप्य विवरञ्चापं
सन्दधे पुष्पहेतिना ।
हर्षणेनाथ
बाणेन विव्याध हृदये हरम् ।।९।।
तब इसी बीच
कामदेव ने नेत्र और मुख की चेष्टाओं से प्रकट होते, स्त्री परिग्रहण के अभिप्राय युक्त शिव पर छिद्र (दुर्बलता)
पाकर अपने पुष्पधनु से सन्धान किया तथा हर्षण नामक बाण से शिव के हृदय को वेध
दिया॥८- ९।।
ततोऽसौ
हर्षितः शम्भुर्वीक्षाञ्चक्रे सतीं मुहुः ।
विस्मृत्य च
परं ब्रह्मचिन्तनं परमेश्वरः ।।१० ॥
तब परमेश्वर
शिव जो ब्रह्म चिन्तन में लगे रहते थे, उस ब्रह्म चिन्तन को भूलकर हर्षित (आकर्षित ) हो बारम्बार
सती को देखने लगे ॥ १० ॥
ततः
पुनर्मोहनेन बाणेनैनं मनोभवः ।
विव्याध
हर्षितः शम्भुर्मोहितश्च तदा भृशम् ।।११।।
तब अपने हर्षण
नामक बाण का प्रभाव देखकर, मनोभव कामदेव ने अपने मोहन नामक बाण से उन्हें वेध दिया। तब
हर्षण के प्रभाव से हर्षित शिव अत्यधिक मोहित हो गये ॥ ११॥
ततो यदासौ
मोहस्य हर्षस्य च द्विजोत्तमाः ।
भावं
व्यक्तीचकारैष माययापि विमोहितः ।। १२ ।।
हे
द्विजोत्तमों ! जब वे काम के प्रभाव तथा माया भगवती से मोहित कर हर्ष और मोह के इस
प्रकार के भावों को व्यक्त करने लगे ॥ १२ ॥
अथ त्रपां
स्वां संस्तभ्य यदा प्राह हरं सती ।
ममेष्टं देहि
वरद वरमित्यर्थकारकम् ।।१३।।
तदा
वाक्यस्यावसानमनपेक्ष्य वृषध्वजः ।
भवस्व मम
भार्येति प्राह दाक्षायणीं मुहुः ।।१४।।
इसके बाद जब
सती ने अपनी लज्जा को छोड़कर शिव से " हे वरदायक! मुझे मनोरथ पूरा करने वाला
अभीष्ट वर दीजिए" ऐसा कहा । तब वृषध्वजशिव उनके कथन की समाप्ति की अपेक्षा
किये बिना ही तुम "मेरी पत्नी होओ” ऐसा बार-बार दाक्षायणी सती से कहने लगे ।। १३-१४।।
एतच्घ्रूत्वा
वचस्तस्य साभीष्टफलभावनम् ।
तूष्णीं तस्थौ
प्रमुदिता वरं प्राप्य मनोगतम् ।। १५ ।।
अपने अभीष्ट
फलदायक (शिव की) वाणी को सुन तथा मनोभिलषित वर को प्राप्त कर,
सती प्रसन्नता पूर्वक मौन खड़ी रहीं ॥ १५ ॥
सकामस्य हरस्याग्रे
तत्र सा चारुहासिनी ।
अकरोन्निजभावांश्च
हावानपि द्विजोत्तमाः ।। १६ ।।
वहाँ काम सहित
शिव के आगे सुन्दर हँसीवाली उस सती ने अपने हाव-भावों को भी प्रकट किया ।।
१६।।
स्वस्य भावान्
समादाय शृङ्गाराख्यो रसस्तदा ।
तयोर्विवेश
विप्रेन्द्राः कलहो वा यथोचितम् ।।१७।।
हे
विप्रेन्दों ! तब अपने भावों को लेकर शृङ्गार नामक रस के कलह ने भी उन के बीच
यथोचित रूप से प्रवेश किया ॥ १७॥
हरस्य पुरतो रेजे
स्निग्धभिन्नाञ्जनप्रभा ।
चन्द्राभ्यासेऽङ्कलेखेवस्फटिकोज्जवलवर्ष्मणः।।
१८ ।।
उस समय स्फटिक
के समान उज्ज्वल शिव के सामने स्निग्ध अञ्जन के समान प्रभा वाली पार्वती
चन्द्रबिम्ब में धब्बों की भाँति सुशोभित हो रही थीं ॥ १८ ॥
अथ सा
तमुवाचेदं हरं दाक्षायणी मुहुः ।
पितुर्मे
गोचरीकृत्य मां गृह्णीष्व जगत्पते ।।१९।।
एवं स्मितं
वचो देवी यदोवाच सती तदा ।
मम भार्या
भवेत्यूचे पुनः कामेन मोहितः ।।२०।।
"हे
जगत्पति ! मुझे मेरे पिता के देखते-देखते ग्रहण कीजिए।" ऐसा उस दक्षपुत्री सती
ने शिव से बार-बार और जब सती ने इस प्रकार का वचन मुस्कुराते हुये बार-बार कहा तो
काम से मोहित हो शिव "तुम मेरी पत्नी होओ” ऐसा पुनः कहने लगे ।।१९-२०।
अथैतद्वीक्ष्य
मदनः सरति: ससखो मुदा ।
युक्तो वभूव
शश्वच्च आत्मानञ्चाभ्यनन्दयन् ।। २१ ।।
इसके बाद इसे
देख अपने मित्र वसन्त तथा पत्नी रति के सहित, कामदेव प्रसन्न हो गया और स्वयं ही अभिनन्दित होता हुआ,
शाश्वत्रूप मोहन अर्थ में, अपने उपर्युक्त हो गया ॥ २१ ॥
अथ दाक्षायणी
शम्भुं समाश्वास्य द्विजोत्तमाः ।
जगाम मातुरभ्यासं
हर्षमोहसमन्विता ।। २२ ।।
तब हे
द्विजोत्तमों ! शिव को पिता से मांगने का परामर्श और स्वयं उनकी पत्नी बनने का
आश्वासन दे, हर्ष तथा मोह से युक्त हो दक्षतनया सती अपनी माता वीरिणी के समीप गईं ॥ २२ ॥
हरोऽपि
हिमवत्प्रस्थं प्रविश्य च निजाश्रमम् ।
दाक्षायणीविप्रलम्भदुःखाद्
ध्यानपरोऽभवत् ।।२३।।
शिव भी हिमालय
के शिखर पर स्थित अपने आश्रम में प्रवेश कर दाक्षायणी के वियोगजन्य दुःख से
ध्यानपरायण हो गये ।।२३।।
विप्रलब्धोऽपि
भूतेशो ब्रह्मावाक्यमथास्मरत् ।
जायापरिग्रहस्यार्थे
यदुक्तं पद्मयोनिना ।। २४ ।।
भूतों के
स्वामी शिव ने वियुक्त होते हुए स्त्री परिग्रहण के सम्बन्ध में कहे गये कमलयोनि ब्रह्मा
के वचनों का स्मरण किया ।।२४।।
स्मृत्यैव
ब्रह्मवाक्यस्य पुरा विश्वासतः परम् ।
चिन्तयामास
मनसा ब्रह्माणं वृषभध्वजः ।। २५ ।।
प्राचीनकाल
में अध्यधिक विश्वासपूर्वक कहे गये ब्रह्मा के वचनों का स्मरण करते ही वृषभध्वज
शिव ने मन ही मन ब्रह्मा का चिन्तन किया ।। २५ ॥
अथ
संचिन्त्यमानोऽसौ परमेष्ठी त्रिशूलिना ।
पुरस्तात् प्राविशत्तूर्णमिष्टसिद्धिप्रचोदितः
।। २६ ।।
यत्रायं
हिमवत्प्रस्थे विप्रलब्धो हरः स्थितः ।
सावित्री
सहितो ब्रह्मा तत्रैव समुपस्थितः ।। २७।।
त्रिशूलधारी
शिव के इस प्रकार चिन्तन किये जाते हुए परमेष्ठी ब्रह्मा अभीष्ट सिद्धि से प्रेरित
हो शीघ्र ही उनके सम्मुख हुए। जहाँ हिमालय के शिखर पर विरही शिव उपस्थित थे वहीं
सावित्री सहित वे भी पहुँच गये ।। २६-२७।।
अथ तं वीक्ष्य
धातारं सावित्रीसहितं हरः ।
सोत्सुको
विप्रलब्धश्च सत्यर्थे तमुवाच ह ।। २८ ।।
तब सावित्री
सहित उस ब्रह्मा को देखकर शिव ने सती के लिए उत्सुक और विरही हो उनसे कहा- ॥२८॥
।। ईश्वर उवाच
।।
ब्रह्मन्
विश्वार्थतो दारपरिग्रहकृत च यत् ।
त्वमात्थ
तत्सार्थमिव प्रतिभाति ममाधुना ।। २९ ।।
ईश्वर (शिव)
बोले- हे ब्रह्मदेव ! विश्व कल्याण हेतु आपने जो मुझे दारपरिग्रहण के लिए कहा था,
वह तुम्हारा वचन अब मुझे यथार्थ ही प्रतीत हो रहा है ॥ २९ ॥
अहमाराधितो
भक्त्या दाक्षायण्यातिभक्तितः ।
तस्या वरमहं
दातुं यदायातः प्रपूजितः ।। ३० ।।
तत्सकाशे तदा
कामो मां विव्याध महेषुभिः ।
मायया
मोहितश्चाहं तत्प्रतीकारमञ्जसा ।
न शक्तः
कर्तुमभितः पुराहं कमलासन ।।३१।।
हे कमलासन
ब्रह्मा ! दाक्षायणी द्वारा भक्ति के प्रकृष्टरूप से पूजित तथा आराधित हो,
मैं जब उसे वर देने उसके पास गया तब कामदेव ने अपने महान
(प्रभावशाली ) बाणों से मुझें बींध दिया। पहले मैं उससे प्रभावित नहीं हुआ था,
किन्तु उस समय माया भगवती सती से मोहित होने के कारण मैं
उसका प्रतीकार न कर सका ।। ३०-३१॥
तस्याश्च वाञ्छितं
ब्रह्मन्नेतदेव मयेक्षितम् ।
यदहं स्यां
विभो भर्ता व्रतभक्तिमुदायुतः ।।३२।।
हे ब्रह्मन्!
उसका वांछित और मेरे द्वारा जो चाहा हुआ था, उसका यह था कि उसकी व्रतभक्ति से प्रसन्न हो विभुस्वरूप मैं
उसका पति होऊँ ॥ ३२ ॥
तस्मात्त्वं
कुरु विश्वार्थे मदर्थे च प्रजापते ।
दक्षो यथा
मामामन्त्र्य सुतां दाता तथाद्भुतम् ।।३३।।
इसलिए हे
प्रजापति! तुम मेरे तथा विश्व के कल्याण के लिए शीघ्र ही कुछ ऐसा उपाय करो,
जिससे कन्यादाता दक्ष मुझे आमन्त्रित कर दान करें ।।३३।।
गच्छ त्वं
दक्षभवनं कथयस्व वचो मम ।
यथा
सतीवियोगस्य भंग: स्यात् त्वं तथा कुरु ।। ३४ ।।
तुम दक्ष के
घर जाओ और उनसे मेरा वचन कहो। ऐसा उपाय करो जिससे मेरा सती वियोग दूर होवे ।।३४।।
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
इत्युदीर्य महादेव:
सकाशेऽस्य प्रजापतेः ।
सावित्रीं
वीक्ष्य सत्यास्तु विप्रयोगो व्यवर्द्धत ।। ३५ ।।
मार्कण्डेय
बोले- महादेव ने ऐसा कहा और प्रजापति ब्रह्मा के समीप सावित्री को देखकर,
सती के प्रति उनका वियोग अधिक बढ़ गया ।।३५।।
तं समाभाष्य
लोकेशः कृतकृत्यो मुदान्वितः ।
इदं जगाद
जगतां हितं पथ्यं च धूर्जटेः ।। ३६ ।।
उनके प्रति
लोकेश ब्रह्मा ने प्रसन्नतापूर्वक संसार के हित के लिए शिव के पथ्यभूत यह कहा-
॥३६॥
।। ब्रह्मोवाच
।।
यदात्थ भगवच्छम्भो
तद्विश्वार्यं सुनिश्चितम् ।
नास्त्येव भवतः
स्वार्थो ममापि वृषभध्वज ।। ३७।।
ब्रह्मा बोले-
हे वृषभध्वज ! हे भगवान् शम्भु! आप ने जो कहा है निश्चित रूप से वह केवल आपके
स्वार्थ के लिए नहीं है, वह विश्व के कल्याण के लिए तथा मेरे कल्याण के लिए भी है ।।३७।।
सुताञ्च
तुभ्यं दक्षस्तु स्वयमेव प्रदास्यति ।
अहञ्चापि
वदिष्यामि त्वद्वाक्यं तत्समक्षतः ।। ३८।।
स्वयं दक्ष ही
आपको अपनी कन्या प्रदान करेंगे। मैं भी आपके वाक्यों को उनके समक्ष कहूँगा ।।३८।।
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
इत्युदीर्य
महादेवं ब्रह्मा लोकपितामहः ।
जगाम दक्षनिलयं
स्यन्दनेनातिवेगिना ।। ३९ ।।
मार्कण्डेय
बोले- महादेव से ऐसा कहकर लोक पितामह ब्रह्मा तेजगति वाले रथ से दक्ष के भवन को
गये ।।३९ ॥
अथ दक्षोऽपि
वृत्तान्तं सर्वं श्रुत्वा सतीमुखात् ।
चिन्तयामास
देयेयं मत्सुता शम्भवे कथम् ।।४०।।
उधर दक्ष भी
सती के मुख से सम्पूर्ण वृत्तान्त सुनकर चिन्ता करने लगे,
मैं इस अपनी पुत्री को शम्भु को कैसे प्रदान करूँ ॥ ४० ॥
आगतोऽपि
महादेवः प्रसन्नः सञ्जगाम ह ।
पुनरेव कथं
सोऽपि सुतार्थेऽत्यर्थमीप्सितः ।।४१।।
महादेव
प्रसन्नतापूर्वक आये तथा चले भी गये । वही पुनः मेरी कन्या हेतु अत्यधिक उत्सुक
कैसे हो सकते हैं? ।।४१।।
प्रस्थाप्यो
वा मया तस्य दूतो निकटमञ्जसा ।
नैतद्योग्यं न
गृह्णीयाद् यद्येनां विभुरात्मने ।।४२।।
या उनके समीप
मुझे उचित रूप से एतदर्थ अपना दूत भेजना चाहिये । यदि उस विभु आत्मा ने इस कन्या
को ग्रहण नहीं किया तो यह दूत भेजना उचित नहीं होगा ॥ ४२ ॥
अथवा
पूजयिष्यामि तमेव वृषभध्वजम् ।
मदीयतनयाभर्ता
स्वयमेव यथा भवेत् ।।४३।।
अथवा मैं उन
वृषभध्वज शिव का पूजन करूँगा, जिससे वे स्वयम् ही मेरी कन्या के पति हो जायें ।।४३।।
तथैव पूजित:
सोऽपि वाञ्छन्त्यातिप्रयत्नतः ।
शम्भुर्भवतु मद्भर्तेत्येवं
दत्तञ्च तेन तत् ।। ४४ ।।
अत्यन्त
यत्नपूर्वक "शम्भु मेरे पति होवें" इस भाव से पहले भी वे मेरी कन्या
द्वारा पूजे गये हैं। ऐसा होने का उनके द्वारा वर भी दिया गया है ।।
४४ ॥
इति चिन्तयतस्तस्य
दक्षस्य पुरतो विधिः ।
उपस्थितो हंसरथः
सावित्रीसहितस्तदा ।। ४५ ।।
तभी इस प्रकार
से चिन्तन करते दक्षप्रजापति के सम्मुख हंसरथ पर आसीन ब्रह्मा सावित्री के सहित
उपस्थित हो गये ।।४५ ॥
तं दृष्ट्वा
वेधसं दक्षः प्रणम्यावनतः स्थितः ।
आसनञ्च ददौ
तस्मै समाभाष्य यथोचितम् ।।४६ ।।
उन ब्रह्मा को
आया देख दक्ष प्रणाम करते हुए नम्रतापूर्वक खड़े हुये तथा यथोचित सम्भाषण के साथ
उन्हें आसन प्रदान किया ।।४६ ॥
ततस्तं
सर्वलोकेशं तत्रागमनकारणम् ।
दक्षः पप्रच्छ
विप्रेन्द्राश्चिन्ताविष्टोऽपि हर्षितः ।। ४७ ।।
तब उन
सर्वलोकेश ब्रह्मा से चिन्तित होते हुए भी प्रसन्न दक्ष प्रजापति ने वहाँ आने का
कारण पूछा ॥४७॥
।। दक्ष उवाच
॥
तवात्रागमने हेतुं
कथयस्व जगद्गुरो ।
पुत्रस्नेहात्
कार्यवशादथवाश्रममागतः ।।४८ ॥
दक्ष बोले- हे
जगत् गुरु ! आप यहाँ पधारने का कारण बताइये।
आप पुत्र- प्रेमवश या किसी अन्य प्रयोजन हेतु मेरे आवास पर
पधारे हैं ।।४८ ।।
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
इति पृष्ट:
सुरश्रेष्ठो दक्षेण सुमहात्मना ।
प्रहसन्नब्रवीद्वाक्यं
मोदयंस्तं प्रजापतिम् ।।४९।।
मार्कण्डेय
बोले- महात्मा दक्ष के द्वारा इस प्रकार पूछे जाने पर सुरश्रेष्ठ ब्रह्मा हँसते
हुये तथा उन प्रजापतिदक्ष को प्रसन्न करते हुए बोले ।।४९ ॥
।। ब्रह्मोवाच
।।
शृणु दक्ष
यदर्थं ते समीपमहमागतः ।
तल्लोकस्य
हितं पथ्यं भवतोऽपि तदीप्सितम् ॥५०॥
ब्रह्मा बोले-
हे दक्ष ! मैं जिस हेतु तुम्हारे पास आया हूँ वह सके । वह प्रयोजन लोक के लिए
हितकारी और उचित तो है ही, वह तुम्हारा भी अभीष्ट है ॥५०॥
तव पुत्र्या
समाराध्य महादेवं जगत्पतिम् ।
यो वरः
प्रार्थितः सोऽद्य स्वयमेवागतो गृहम् ।। ५१ ।।
शम्भुना तव
पुत्र्यर्थे त्वत्सकाशमहं पुनः ।
प्रस्थापितोऽस्मि
यत् कृत्यं श्रेयस्तदवधारय ।।५२।।
तुम्हारी
पुत्री द्वारा जगत् के स्वामी महादेव की आराधना कर जिसे वर रूप में माँगा गया था,
वह आज स्वयं तुम्हारे घर में आया था। मैं पुनः तुम्हारी
पुत्री के लिए शिव द्वारा तुम्हारे पास भेजा गया हूँ। अब जो श्रेयस्कर हो वह करो
।। ५१-५२ ॥
वरं दातुं
यदायातस्तावत्प्रभृति शङ्करः ।
तत्सुताविप्रयोगेण
न शर्म लभतेऽञ्जसा ।। ५३ ।।
जब शङ्कर वर
देने के लिए आये थे तब से उन्हें तुम्हारी कन्या के वियोग में,
उचित रूप से शान्ति नहीं मिल रही है ॥५३॥
लब्धच्छिद्रोऽपि
मदनो निचखान तदा भृशम् ।
सर्वैः
पुष्पकरैर्बाणैरेकदैव जगत्प्रभुम् ।।५४।।
उस समय छिद्र
(अवसर) देखकर कामदेव ने अपने सभी पुष्प बाणों का एक साथ ही उन जगदीश पर प्रहार
किया था ।। ५४ ।।
स बाणविद्वः
कामेन परित्यज्यात्मचिन्तनम् ।
सतीं
विचिन्तयन्नास्ते व्याकुलः प्राकृतो यथा ।। ५५ ।।
विस्मृत्य
प्रस्तुतां वाणीं गणाग्रे विप्रयोगतः ।
क्व सतीत्येव
गिरिशो भाषतेऽन्यकृतावपि ।। ५६ ।।
वे शिव कामदेव
के बाण से घायल तथा व्याकुल हो आत्मचिन्तन छोड़कर सामान्य मनुष्यों की भाँति (आपकी
पुत्री) सती का चिंतन करते रहते हैं। वियोग के कारण अवसरानुकूल बात को भूलकर गणों
के आगे गिरीश, अन्यों की भाँति सती कहाँ है? ऐसा कहते रहते हैं ।। ५५-५६ ।।
मया यद्वाञ्छितं
पूर्वं त्वया च मदनेन च ।
मरीच्याद्यैर्मुनिवरैस्तत्
सिद्धमधुना सुत ।।५७।।
हे पुत्र !
मेरे,
तुम्हारे, कामदेव और मरीचि आदि ऋषियों से जो चाहा गया था वह इस समय
सिद्ध (पूर्ण) हो गया है ॥५७॥
त्वत्पुत्र्याराधितः
शम्भुः सोऽपि तस्या विचिन्तनात् ।
अनुमोदयितुं
प्रेप्सुर्वर्तते हिमवद्गतौ ।।५८।।
आपकी पुत्री
द्वारा आराधित हो वह शम्भु भी उसके चिन्तन से आपके अनुमोदन प्राप्ति की इच्छा से
हिमालय पर्वत पर स्थित हैं ॥ ५८ ॥
यथा
नानाविधैर्भावैः सत्या नन्दाव्रतेन च ।
शम्भुराराधितस्तेन
तथैवाराध्यते सती ।। ५९ ।।
जिस प्रकार
अनेक प्रकार के भावों तथा नन्दाव्रत के द्वारा सती ने भगवान् शङ्कर की आराधना की,
उसी प्रकार उनके द्वारा सती की आराधना की जाती है ॥ ५९ ॥
तस्मात्त्वं
दक्ष तनयां शम्भ्वर्थे परिकल्पिताम् ।
तस्मै
देह्यविलम्बेन तेन कृतकृत्यता ।। ६० ।।
इसलिए तुम
दक्षपुत्री को जो शम्भु के लिए ही परिकल्पित है, शीघ्र उन्हें प्रदान कर दो। उसी से तुम्हारी सार्थकता है ।।
६० ॥
अहं
तमानयिष्यामि नारदेन त्वदालयम् ।
तस्मै
त्वमेनां संयच्छ तदर्थे परिकल्पिताम् ।।६१ ।।
मैं नारद के
द्वारा उन्हें तुम्हारे घर लाऊँगा, उन्हें तुम इसे जो उन्हीं के लिए परिकल्पित है,
भलीभाँति दे देना ।।६१।।
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
एवमेवेति
दक्षस्तमुवाच परमेष्ठिनम् ।
विधिश्च
गतवांस्तत्र गिरिशो यत्र संस्थितः ।।६२।।
मार्कण्डेय
बोले- तब दक्ष ने परमेष्ठी ब्रह्मा से कहा कि ऐसा ही होगा और ब्रह्मा भी वहाँ चले
गये,
जहाँ गिरीश स्थित थे ॥ ६२ ॥
गते ब्रह्मणि
दक्षोऽपि सदारतनयो मुदा ।
अभवत् पूर्णदेहस्तु
पीयूषैरिव पूरितः ।।६३।।
ब्रह्मा के
चले जाने पर दक्ष भी पत्नी और पुत्री के साथ प्रसन्न हो गये मानो उन सबका शरीर
अमृत से भर गया हो॥६३॥
अथ ब्रह्मापि
मोदेन प्रसन्नः कमलासनः ।
आससाद महादेवं
हिमवद्गिरिसंस्थितम् ।। ६४ ।।
कमलासन
ब्रह्मा भी प्रसन्नतापूर्वक आनन्द से हिमालय पर्वत पर जहाँ महादेव स्थित थे पहुँच
गये ।। ६४।।
तं वीक्ष्य
लोकस्रष्टारमायान्तं वृषभध्वजः ।
मनसा संशयं चक्रे
सतीप्राप्तौ मुहुर्मुहुः ।।६५ ।।
उन लोकस्रष्टा
ब्रह्मा को (लौटकर आया हुआ देखकर वृषभध्वज, प्राप्ति के सन्दर्भ में बार-बार मन में शङ्का करने लगे ।।६५।।
अथ दूरान्महादेवो
लोकेशं सामसंयुतम् ।
उवाच मदनोन्माथः
विधिं स स्मरमानसः ।। ६६ ।।
मदन से
उन्मादित,
व्यथित, कामासक्त मन से, शान्त मन लोकेश ब्रह्मा से उनके दूर रहते ही वे महादेव बोले
।।६६ ॥
।। ईश्वर उवाच
।।
किमवोचत्
सुरश्रेष्ठ सत्यर्थे त्वत्सुतः स्वयम् ।
कथयस्व
यथास्वान्तं मन्मथेन न दीर्यते ।। ६७ ।।
ईश्वर बोले-
सती (को देने) के लिए तुम्हारे पुत्र दक्ष ने स्वयं क्या कहा ?
बताओ जिस से मन्मथ मेरे अन्तःकरण को विदीर्ण न कर दे ।।६७॥
बाधमानो
विप्रयोगो मामेव च सतीमृते ।
अभिहन्ति
सुरश्रेष्ठ त्यक्त्वान्यान् प्राणधारिणः ।।६८।।
हे
सुरश्रेष्ठ! अन्य प्राणियों को छोड़, सती के अभाव में विरह से बाधित मुझे ही वह सब भाँति मार रहा
है ॥६८॥
सतीति सततं
वेद्मि ब्रह्मन् कार्यान्तरेऽप्यहम् ।
सा यथा हि मया
प्राप्या तद्विधत्स्व तथा द्रुतम् ।।६९।।
हे ब्रह्मदेव
! अन्य कार्यों में व्यस्त रहते हुए भी मैं निरन्तर सती को ही जाना करता हूँ। जिस
प्रकार से वह मुझे शीघ्र प्राप्त हो जाय वैसा ही आप करें ।।६९।।
।। ब्रह्मोवाच
।।
सत्यर्थे यन्ममसुतो
वदति स्म वृषध्वज ।
तच्छृणुष्व निजं
साध्यं सिद्धमित्यवधारय ।।७० ।।
ब्रह्मा बोले-
हे वृषभध्वज ! सती हेतु मेरे पुत्र ने जो कहा है, उसे आप सुनें तथा अपना साध्य सिद्ध हुआ ही समझें ॥७०॥
देया तस्मै
मया पुत्री तदर्थे परिकल्पिता ।
ममापीष्टमिदं
कर्म त्वद्वाक्यादधिकं पुनः ।।७१।।
मत्पुत्त्र्याराधितः
शम्भुरेतदर्थे स्वयं पुनः ।
सोऽप्यन्विच्छति
तां यस्मात्तस्माद्देया मया हरे ।।७२।।
"मैं
अपनी कन्या उन्हीं शिव को दूँगा; क्योंकि वह उन्हीं के लिए बनाई गई है । यही मेरा भी इच्छित
कार्य है । पुनः आपके कहने से तो इसका महत्त्व और बढ़ जाता है । फिर मेरी पुत्री
ने भी स्वयं इसी हेतु भगवान् शिव की आराधना की है तथा वे भी उसे चाहते हैं । इसलिए
मेरे द्वारा वह शिव को ही दी जायेगी ।।७१-७२ ।।
शुभे लग्ने
मुहूर्ते च समागच्छतु मेऽन्तिकम् ।
तदा दास्यामि
तनयां भिक्षार्थे शम्भवे विधे ।।७३ ।।
हे ब्रह्माजी
! वे शुभलग्न और शुभमुहुर्त में कन्या माँगने हेतु मेरे समीप आवें तो मैं
विधिपूर्वक अपनी पुत्री शिव को प्रदान करूंगा” ॥७३॥
इत्यवोचन्मुदा
दक्षस्तस्मात्त्वं वृषभध्वज ।
शुभे मुहूर्ते
तद्वेश्म गच्छ तामनुयाचितुम् ।।७४ ।।
हे वृषभध्वज !
ऐसा दक्ष ने प्रसन्नतापूर्वक कहा है इसलिए आप शुभमुहुर्त में उस (सती) को माँगने,
उनके घर जाइये ॥७४॥
।। ईश्वर उवाच
।।
गमिष्ये भवता
सार्द्ध नारदेन महात्मना ।
द्रुतमेव
जगत्पूज्य तस्मात्त्वन्नारदं स्मर ।।७५।।
मरीच्यादीन्
दश तथा मानसानपि संस्मर ।
तैः सार्द्ध
दक्षनिलयं गमिष्येऽहं गणैः सह ।।७६ ।।
ईश्वर बोले-
आपके और महात्मा नारद के साथ वहाँ जाऊँगा इसलिए हे जगत्पूज्य ! आप शीघ्र ही नारद
का स्मरण कीजिये तथा मरीचि आदि अपने दश मानस पुत्रों का भी भलीभाँति स्मरण कीजिए।
मैं उनके और अपने गणों के साथ दक्ष के घर जाऊँगा ।।७५-७६॥
ततः
स्मृतास्ते कमलासनेन सनारदा ब्रह्मसुता मनोजवाः ।
समागता यत्र
हरो विधिश्च तत्रागताः काममवेत्य चिन्ताम् ।।७७।।
तब कमलासन
ब्रह्मा द्वारा स्मरण करते ही मन के समान वेग वाले, ब्रह्मा के मानसपुत्र नारद के सहित,
जहाँ शिव और ब्रह्मा स्थित थे,
काम के रक्षा की चिन्ता सहित वे सब वहाँ आये ॥७७॥
॥
श्रीकालिकापुराणे सतीयाचनं नाम दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥
कालिका पुराण अध्याय १० सती से विवाह प्रस्ताव संक्षिप्त कथानक
मार्कण्डेय
महर्षि ने कहा- इसके अनन्तर सती ने पुनः शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि में उपवास किया
था और आश्विन मास में देवेश्वर का भक्ति भाव से पूजन किया था। इस तरह से इस नन्दा
व्रत के पूर्ण हो जाने पर नवमी तिथि में दिन के भाग में भक्तिभाव से परमाधिक
विनम्र उस सती को भगवान् हर प्रत्यक्ष हो गये थे अर्थात् सती के समक्ष में
प्रत्यक्ष रूप से उपस्थित हो गए थे । प्रत्यक्ष रूप से हर का अवलोकन करके सती
आनन्द युक्त हृदय वाली हो गयी थी। फिर उस सती ने लज्जा से अवनत होते हुए विनम्र
होकर उनके चरणों में प्रणाम किया था । इसके अनन्तर महादेवजी ने उस व्रत के धारण
करने वाली सती से कहा था । शिव स्वयं भार्या के लिए उसकी इच्छा करने वाले होते हुए
भी उसके आश्चर्य के फल के प्रदान कराने वाले हुए थे।
ईश्वर ने कहा-
हे दक्ष की पुत्री ! आपके इस व्रत से मैं परम प्रसन्न हो गया हूँ। अब आप वरदान का
वरण कर लो जो भी आपको अभिमत होवे ।
मार्कण्डेय
मुनि ने कहा- जगत् के स्वामी महादेव उसके भाव को जानते हुए उस सती के वचनों के
श्रवण करने की इच्छा से 'वरदान माँग लो' यह बोले थे । वह सती भी लज्जा से समाविष्टा होती हुई जो कुछ
भी हृदय में स्थित था उसके कहने में समर्थ न हो सकी थी क्योंकि बाला को जो भी
मनोरथ अभीष्ट था वह लज्जा से समाच्छादित हो गया था अर्थात् लज्जावश उस अभीप्सित को
मन में ही रखकर कुछ भी न बोल सकी थीं ।
इसी बीच में
कामदेव उस समय में अभिप्राय के सहित हर की नेत्र मुख और व्यापार से चिन्हित
प्राप्त करके विवर चाप का पुष्पहेति के द्वारा सन्धान करने वाला हो गया था। इसके
अनन्तर हर्षण बाण के द्वारा उसने (कामदेव ने ) हर के हृदय बेधन किया था। इसक
उपरान्त हर्षित शम्भु ने फिर एक बार सती को देखा था । उस समय में परमेश्वर शिव ने
परब्रह्म के चिन्तन को एकदम भुला ही दिया था । फिर इस कामदेव ने मोहनबाण के द्वारा
भगवान् हर को बेधित किया था । तब हर्षित होकर शम्भु उस अवसर पर बहुत ही अधिक मोहित
हो गये थे । हे द्विजोत्तमों ! जब इन्होंने मोह और हर्ष को व्यक्त कर दिया था तो
वह माया के द्वारा भी विमोहित हो गये थे। इसके अनन्तर सती ने अपनी लज्जा को
स्तम्भित करके जिस समय में हर से वह बोली थी- हे वरद ! मेरे अभीष्ट वर इस अर्थ को
करने वाले को प्रदान करिए। उस समय में सती के वाक्य के अवसान की प्रतीक्षा न करके
ही वृषभध्वज ने दाक्षायणी से पुनः 'मेरी भार्या हो जाओ' कहला दिया था ।
हर के यह वचन
सुनकर जो अभीष्ट के फल का भावना से युक्त था वह सती मनोगत वर की प्राप्ति करके परम
प्रमुदित होती हुई मौन होकर स्थित हो गयी थी । हे द्विजोत्तमो ! कामवासना से
समन्वित महादेवजी आगे वहाँ पर ब्रह्म चारुहास वाली सती ने अपने हावों और भावों से
किया था । उस समय में अपने भावों का आदान-प्रदान करके शृंगार नामक रस ने उन दोनों
में प्रवेश किया था । वे विप्रेन्द्रों ! भगवान् हर के आगे स्निग्ध भिन्न अंजन की
प्रभा से समान प्रभा वाली, स्फटिक के समान उज्ज्वल कान्ति वाले हर के सामने चन्द्रमा
के समीप में अंकलेख की तरह राजित हुई थी।
इसके अनन्तर
दाक्षायणी पुनः उन महादेवजी से बोली थी- हे जगत्पते! मेरे पिता के सामने गोचर होकर
मुझे ग्रहण कीजिए। उस समय में देवी सती ने इस प्रकार से जो स्मितयुक्त वचन कहा था
कि 'मेरी भार्यां हो जाओ' यह महादेव जी ने कहा था। इसके अनन्तर कामदेव यह देखकर रति
और अपने मित्र वसन्त के साथ प्रसन्नता से युक्त हो गया था और निरन्तर अपने आपको
अभिनन्दित किया था ।
हे
द्विजोत्तमों! इसके अनन्तर दाक्षायणी ने शम्भु को समाश्वसि करके हर्ष और मोह से
समन्विता होती हुई वह सती माता के समीप गयी थी । भगवान् हर भी हिमालय के प्रस्थ से
प्रवेश करके जो कि उनका आश्रम था दाक्षायणी के विप्रलम्भ (वियोग ) के दुःख से
ध्यान में परायण हो गए थे । इसके उपरान्त विप्रलब्ध भी अर्थात् वियोग से युक्त
होते हुए भी उन्होंने ब्रह्माजी के वाक्य का स्मरण किया था जो कि जाया के परिग्रहण
के अर्थ में पद्मयोनि ने ( ब्रह्माजी ने ) कहा था। पहले विश्वास से ब्रह्मवाक्य के
पर का स्मरण करके ही वृषभध्वज मन से ब्रह्माजी का चिन्तन करने लगे थे । इसके
अनन्तर चिन्तन किए हुए यह परमेष्ठी (ब्रह्मा) त्रिशूली के आगे शीघ्र ही इष्ट की
सिद्धि से प्रेरित हुए प्रविष्ट हुए थे जहाँ पर हिमालय के प्रस्थ में यह विप्रलब्ध
भगवान् शम्भु विराजमान थे । सावित्री के सहित ब्रह्माजी वहाँ पर ही उपस्थित हो गए
थे। इसके उपरान्त भगवान् हर ने सावित्री के सहित धाता को देखकर बड़ी ही उत्सुकता
के साथ विप्रलब्ध शम्भु सती से बोले ।
ईश्वर ने कहा-
हे ब्रह्माजी, विश्व के अर्थ जो दारा के परिग्रहण की कृति में आपने जो कहा था वह अब मुझे उस
सार्थक की ही भाँति प्रतीत होता है । अत्यन्त भक्ति से दाक्षायणी के द्वारा मेरी
आराधना की गयी है । जिस समय में उसके द्वारा प्रपूजित मैं उसको वरदान देने के लिए
गया था तब उसके समीप कामदेव ने विशाल बाणों से वेध दिया था और मैं माया से मोहित
हो गया था कि मैं उसका प्रतिकार शीघ्र ही करने में असमर्थ हो गया हूँ देवी का
वाँच्छित मैंने यह भी देखा था। हे विभो ! व्रत की भक्ति से प्रसन्नता से समन्वित
मैं उसका भर्त्ता हो जाऊँ। इससे हे प्रजापते ! अब आप विश्व के लिए और मेरे लिए ऐसा
करें कि दक्ष प्रजापति मुझे आमन्त्रित करके अपनी पुत्री को मुझे शीघ्र ही प्रदान
कर देवे । आप दक्ष भवन में गमन कीजिए और मेरा वचन उनसे कहिए कि जिस प्रकार से सती
का वियोग भस्म हो जावे वैसा ही पुनः आप करें ।
मार्कण्डेय
मुनि ने कहा- इस प्रजापति के सकाश में महादेव जी ने यह इतना कहकर उन्होंने
सावित्री का अवलोकन किया था तो उनको सती का विप्रयोग विशेष बढ़ गया था । लोकों के
ईश ब्रह्माजी ने उनसे सम्भाषण करके वे आनन्द से संयुत कृत-कृत्य अर्थात् सफल हो
गये थे और उन्होंने जगतों का हित तथा शिव का हित कर यह वचन कहा था ।
ब्रह्माजी ने
कहा- हे वृषभध्वज ! हे भगवान्! हे शम्भो ! जो आप कहते हैं उसमें विश्व का अर्थ तो
सुनिश्चित ही है। इसमें आपका स्वार्थ नहीं है और न कोई मेरा स्वार्थ है । दक्ष तो
अपनी पुत्री को आपके लिए स्वयं ही दे देगा और मैं भी आपके वाक्य को उसके ही समक्ष
कह दूँगा ।
मार्कण्डेय
मुनि ने कहा - लोक पितामह ब्रह्माजी ने यह महादेवजी से कहकर अतीव वेग वाले स्पन्दन
द्वारा वे दक्ष प्रजापति के निवास स्थान पर गये थे। इसके अनन्तर उधर दक्ष भी
सम्पूर्ण वृतान्त सती के मुख से सुनकर यह चिंता कर रहा था कि यह मेरी पुत्री शम्भु
को कैसे दे दी जावे । आये हुए भी महादेव परम प्रसन्न होकर चले गए थे वह भी पुनः ही
सुता के लिए कैसे इक्षित हैं अथवा मुझे उनके निकट शीघ्र ही कोई दूत भेजना चाहिए ।
यह योग्य नहीं है कि यदि विभु अपने लिए इसको न ग्रहण करें तो एक अनुचित ही बात
होगी ।
मैं उन्हीं
वृषभध्वज की पूजा करूँगा कि जिस तरह से वह स्वयं ही मेरी पुत्री के स्वामी हो
जावें । वे भी इसी के द्वारा अत्यन्त प्रयत्न के साथ अतीव वांच्छा करती हुई से
पूजित हुए हैं। शम्भु मेरे भर्ता होवे और इस प्रकार से उन्होंने उसे वर भी दिया ।
इस रीति से दक्ष चिन्तन कर रहे थे कि उसी समय में ब्रह्माजी उसके आगे समुपस्थित हो
गये । वे हंसों के रथ में सावित्री के साथ ही विराजमान थे । प्रजापति दक्ष ने
ब्रह्माजी को देखकर उनका प्रणिपात किया था और वह विनम्र होकर स्थित हो गया था।
उसने उनको आसन दिया था और यथोचित रीति से सम्भाषण किया था। इसके अनन्तर उन सब
लोकों के ईश से वहाँ पर आगमन का कारण दक्ष ने पूछा था । हे विपेन्द्रों ! वह दक्ष
चिन्ता से आविष्ट भी था किन्तु हर्षित हो रहा था ।
दक्ष कहा- हे
जगतों के गुरुवर ! यहाँ पर आपके आगमन का कारण बतलाइए ?
आप पुत्र के स्नेह से अथवा किसी कार्य के वश में इस आश्रम
में समागत हुए हैं ।
मार्कण्डेय
मुनि ने कहा- इस प्रकार से महात्मा दक्ष के द्वारा पूछे गये सुरश्रेष्ठ (ब्रह्माजी
) ने उस प्रजापति दक्ष को आनन्दित करते हुए हँसकर यह वाक्य कहा था ।
ब्रह्माजी ने
कहा- हे दक्ष ! सुनिए, मैं तुम्हारे जिस कार्य के लिए यहाँ पर समागत हुआ हूँ वह
कार्य लोकों का हितकर है तथा पथ्य है और आपका भी अभीप्सित है। तेरी पुत्री ने जगत्
के पति महादेव की समाराधना करके जो वर प्राप्त करने की उनसे प्रार्थना की थी वह आज
स्वयं ही गृह में समागत हुए है । शम्भु ने आपकी पुत्री के लिए आपके समीप में मुझे
पुनः प्रस्थापित किया है जो कृत्य परम श्रेय है उसका अवधारण करिए। जिस समय वरदान
देने को वे आए थे तभी से लेकर आपकी पुत्री के वियोग से शीघ्र ही कल्याण की
प्राप्ति नहीं कर रहे हैं, कामदेव ने भी उस समय अत्यधिक बेधन किया था उसे जगत् के
प्रभु का बेधन सभी पुष्कर बाणों से एक ही साथ किया था । वह कामदेव के द्वारा बाणों
बिद्ध होकर आत्मा का परिचन्तन त्याग कर जैसे कोई सामान्य जन हो उसी भाँति अतीव
व्याकुल वाणी को भुलाकर विप्रयोग से गणों आगे अन्य कृति में भी 'सती कहाँ है' यह बोला करते हैं ।
मैंने जो
पूर्व में चाहा था और आपने तथा कामदेव ने इच्छा की थी एवं मरीचि आदि मुनिवरों ने
जिसकी इच्छा की थी। हे पुत्र ! वह कार्य अब सिद्ध हो गया है । आपकी पुत्री के
द्वारा शम्भु की आराधना की गई थी और वे भी उस तुम्हारी पुत्री विचिन्तन से
हिमवगिरि में अनुमोदन करने के लिए इच्छुक हैं। जिस प्रकार से अनेक प्रकार के भावों
के द्वारा सती ने नन्दा के व्रत से शम्भु की आराधना की थी ठीक उसी भाँति उनके
द्वारा सती की आराधना की जा रही है । इसलिए हे दक्ष ! शम्भु के लिए परिकल्पित अपनी
पुत्री सती को बिना विलम्ब किए हुए उनको दे दो उसी से आपकी कृतकृत्यता अर्थात्
सफलता है मैं उनको नारद द्वारा आपके आलय में ले आऊँगा । उसके लिए आप भी इस सती को
जो कि उन्हीं के लिए परिकल्पित है उन्हें दे दो ।
मार्कण्डेय
मुनि ने कहा- दक्ष ने 'ऐसा ही होगा', यह दक्ष ब्रह्माजी से कहा था और ब्रह्माजी भी वहाँ से उसी
स्थान पर चले गए थे जहाँ पर भगवान् शम्भु विराजमान थे। ब्रह्माजी के चले जाने पर
दक्ष प्रजापति भी अपनी दारा और तनया के साथ आनन्दयुक्त हो गया था और पीयूष से
परिपूरित की ही भाँति पूर्ण देह वाला हो गया था ।
इसके अनन्तर
कमलासन ब्रह्माजी भी मोद से प्रसन्न होकर महादेवजी के समीप प्राप्त हो गये थे जो
कि हिमालय पर्वत पर संस्थित थे। वृषभध्वज ने उन आते हुए लोकों के स्रष्टा को देखकर
वे सती की प्राप्ति में बारम्बार मन में संशय कर रहे थे । इसके अनन्तर दूर ही ही
से साम से समन्वित ब्रह्माजी को महादेवजी ने जो कामवासना को भस्म में धारण किए थे
और कामदेव के द्वारा उन्मादित हो गये थे, कहा था ।
ईश्वर ने कहा-
हे ब्रह्माजी ! आपके पुत्र (दक्ष) ने सती के अर्थ में स्वयं क्या कहा था ?
आप मुझे बतलाइए जिससे कामदेव के द्वारा मेरा हृदय विदीर्ण न
किया जावे। बाधमान विप्रयोग सती के बिना मुझको हनन कर रहा है । हे सुरश्रेष्ठ! यह
कामदेव अन्य सब प्राणियों का त्याग कर मेरे ही पीछे पड़ा हुआ है। हे ब्रह्माजी !
वह सती जिस तरह से भी मुझे प्राप्त हो जावे वही आप शीघ्र ही करिए ।
ब्रह्माजी ने
कहा- हे वृषभध्वज ! सती के अर्थ में जो मेरे पुत्र (दक्ष ) ने कह दिया था उसको आप
सुनिए और अपना साध्य सिद्ध हो गया, यही अवधारित कर लीजिए ।
उसने कहा था
कि मुझे मेरी पुत्री उन्हीं के लिए देने के योग्य है और उनके लिए ही वह परिकल्पिता
है । यह कर्म तो मुझे भी अभीष्ट था ही किन्तु अब आपके वाक्य से पुनः अधिक अभीप्सित
हो गया है । मेरी पुत्री के द्वारा शिव समाराधित किए गए हैं और इसी के लिए उसने
स्वयं ही ऐसा किया है और वे शिव भी उनकी इच्छा करते हैं अर्थात् सती को भार्या के
रूप में पाना चाहते हैं। इसी कारण से मुझे इसको हर के ही लिए देना चाहिए । अर्थात्
मैं उन्हीं को दूँगा । वे शिव किसी शुभ मुहूर्त और शुभ लग्न में मेरे समीप में आ
जावें । हे ब्रह्माजी, उसी समय में मैं भिक्षार्थ में शम्भु के लिए अपनी पुत्री
सती को दे दूँगा ।
वृषभध्वज !
दक्ष ने यही प्रसन्नता के साथ कहा था । इसलिए आप किसी परम शुभ मुहूर्त में उस सती
की अनुयाचना करने के लिए उन (दक्ष) के समीप में गमन कीजिए।
ईश्वर ने कहा-
मैं आपके साथ तथा महात्मा नारद जी के साथ ही यहाँ से गमन करूँगा । हे जगतों के
द्वारा पूज्य ! इस कारण से आप शीघ्रताशीघ्र ही नारद जी का स्मरण करिए । मरीचि आदि
दस मानस पुत्रों को भी स्मरण करिए । उन सबके ही साथ मैं अपने गणों सहित दक्ष के
निवास स्थान पर जाऊँगा । इसके अनन्तर कमलासन प्रभु द्वारा वे सब स्मरण किए गए थे
जो मन के समान वेग वाले ब्रह्माजी के पुत्र नारद के ही सहित थे ।
॥
श्रीकालिकापुराण में सतीयाचना नामक दशवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ।।
१०।।
आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 11
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