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कालिका पुराण अध्याय १४

कालिका पुराण अध्याय १     

कालिका पुराण अध्याय १४ में संती का शिव के साथ विहार वर्णित है।

कालिका पुराण अध्याय १४

कालिका पुराण अध्याय १    

Kalika puran chapter 14

कालिकापुराणम् चतुर्दशोऽध्यायः शिवसतीविहारवर्णनम्

कालिकापुराण चौदहवाँ अध्याय -शिव सती विहार

अथ कालिका पुराण अध्याय १ 

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

जलदेष्वथ गर्जत्सु महादेवः सतीपतिः ।

विसृज्य विष्णुप्रभृतिं जगाम हिमवद्गिरिम् ॥१॥

मार्कण्डेय बोले- सतीपति महादेव गर्जते हुए बादलों के बीच ही विष्णु आदि आगतों को विदा कर हिमालय के लिए चल पड़े ॥ १ ॥

आरोप्य वृषभे तुङ्गे सतीमामोदशालिनीम् ।

जगाम हिमवत्प्रस्थं रम्यं कुञ्जसमन्वितम् ॥२॥

वे आमोद से युक्त सती को ऊँचे वृषभवाहन पर आरूढ़ करा, कुञ्ज से सुशोभित हिमालय के सुन्दर शिखर को चल पड़े ॥२॥

अथ सा शङ्कराभ्यासे सुदती चारुहासिनी ।

विरेजे वृषभस्थाति चन्द्रान्ते कालिकोपमा ॥३॥

शङ्कर के सानिध्य में वह सुन्दर दन्तपंक्ति तथा सुन्दर हँसी वाली, वृषभ पर स्थित सती, चन्द्रकान्त पर्वत पर कालिका की भाँति सुशोभित हो रही थीं ॥३॥

ब्रह्मादयश्च ते सर्वे मरीच्याद्याश्च मानसाः ।

दक्षोऽपि सर्वे मुदिता अभवन् ससुरासुराः ।।४।।

उस समय देवताओं तथा असुरों के सहित वे सब ब्रह्मा आदि देवगण तथा मरीचि आदि मानसपुत्र एवं स्वयं दक्ष प्रजापति भी प्रसन्न हो उठे ॥४॥

केचिच्छंखान् वादयन्तं केचित्तालान् सुमङ्गलाः ।

केचिद्धास्यं प्रकुर्वन्तो अनुजग्मुर्वृषध्वजम् ॥५॥

कोई शङ्ख बजाते, तो कोई मङ्गलमय ताल बजाते, कोई हँसी करते हुये शिव के पीछे चल पड़े ॥५॥

विसृष्टा अपि ब्रह्माद्याः शम्भुना पुनरेव ते ।

अनुजग्मुः कियद्दूरं मुदा परमया युताः ।।६।।

शिव के द्वारा विदा किये जाने पर भी ब्रह्मा आदि ने पुनः परमानंद से भर कर कुछ दूर तक शङ्कर का अनुगमन किया ॥ ६ ॥

ततः शम्भुं समाभाष्य ब्रह्माद्या मानसाश्च ते ।

स्वं स्वं स्थानं तदा जग्मुः स्यन्दनैराशुगामिभिः ॥७॥

तब शिव से वार्ता कर वे ब्रह्मादि देवगण तथा मरीचि आदि मानसपुत्र तीव्रगामी रथों द्वारा अपने अपने स्थानों को चले गये ॥७॥

देवाश्च सर्वे सिद्धाश्च तथैवाप्सरसां गणाः I

यक्षविद्याधराद्याश्च ये ये तत्र समागताः ॥८॥

ते हरेण विसृष्टास्तु गतवन्तो निजास्पदम् ।

वभूवुरामोदयुताः कृतदारे वृषध्वजे ।।९।।

सभी देवता, सिद्ध, अप्सराओं के समूह, यक्ष-विद्याधर जो-जो वहाँ आये थे, शिव के दारग्रहण के पश्चात् उनसे विदा हो, आनन्दपूर्वक अपने स्थान को चले गये ।।८-९ ॥

ततो हरः सस्वगण: संस्थानं प्राप्य मोदनम् ।

कैलासं तत्र वृषभादवतारयति प्रियाम् ।।१०।।

तब शिव ने अपने गणों के सहित कैलाश नामक आनन्ददायक स्थान पर पहुँच कर प्रिय पत्नी को वृषभ से उतारा ॥१०॥

ततो विरूपाक्ष इमां प्राप्य दाक्षायणी गणान् ।

स्वीयान् विसर्जयामास नन्द्यादीन् गिरिकन्दरात् ।।११।।

तब विरूपाक्ष शिव ने इस दाक्षायणी को पाकर अपने नन्दी आदि गणों को पर्वत की उस गुफा से विदा कर दिया ॥११॥

उवाच शम्भुस्तान् सर्वान् नन्द्यादीनतिसुनृतम् ।

यदाहं वः स्मराम्यत्र स्मरणाच्चलमानसाः ।

समागमिष्यथ तदा मत्पार्श्वं भोस्तदा तदा ।। १२ ।।

शिव ने उन सभी नन्दी आदि अत्यन्त सत्यनिष्ठ गणों से कहा- जब मैं यहाँ तुम लोगों को स्मरण करूँगा तब-तब स्मरण मात्र से ही तुम सब मेरे पास आ जाना ॥१२॥

इत्युक्ते वामदेवेन ते नन्दिभैरवादयः ।

महाकौषी प्रपाताय जग्मुस्ते हिमवगिरौ ।।१३।।

वामदेव शिव के द्वारा ऐसा कहे जाने पर वे नन्दी-भैरव आदि गण हिमालय के महाकौषी नामक प्रपात पर चले गये ॥१३॥

ईश्वरोऽपि तया सार्धं तेषु यातेषु मोहितः ।

दाक्षायण्या चिरं रेमे रहस्यनुदिनं भृशम् ।। १४ ।।

उनके चले जाने पर शिव ने मोहित हो दाक्षायणी के साथ एकान्त में निरन्तर बहुत अधिक रमण किया ।। १४ ।।

कदाचिद् वन्यपुष्पाणि समाहृत्य मनोहराम् ।

मालां विधाय सत्यास्तु हारस्थाने न्ययोजयत् ।।१५।।

कभी जङ्गली फूलों को लाकर उनकी सुन्दर माला बनाकर वे सती के हार के स्थान पर सजाते थे ॥१५॥

कदाचिद्दर्पणे वक्त्रं वीक्षन्तीमात्मनः सतीम् ।

अनुगम्य हरो वक्त्रं स्वीयमप्यवलोकयत् ।। १६ ।।

कभी जब सती दर्पण में अपना मुख देखती होतीं तो शिव पीछे से आकर अपना मुख भी उसी दर्पण में देखने लगते ॥१६॥

कदाचित् कुन्तलांस्तस्या उल्लास्योल्लासमागतः ।

बध्नाति मोचयत्येवं शश्वत्सन्मार्जयत्यपि ।।१७।।

कभी उल्लास से भरकर उनके केशों को बाँधते, कभी खोलते। इस तरह निरन्तर झाड़ते रहते ॥ १७॥

सरागौ चरणावस्या यावकेनोज्वलेन च ।

निसर्गरक्तौ कुरुते सरागो वृषभध्वजः ।। १८ ।।

वृषभध्वज शिव प्रेम से भरकर उसके स्वभाविक रूप से लाल चरणों को यावक (महावर) से और अधिक राग-मय करते थे ॥ १८ ॥

उच्चैरपि यदाख्येयमन्येषां पुरतो मुहुः ।

तत् कर्णे कथयत्यस्या हरो स्प्रष्टुं तदाननम् ।।१९।।

दूसरों के सामने जो बात उच्च स्वर में कही गई होती पुनः उसे ही शिव उसके मुख के स्पर्शन की इच्छा से सती के कानों में कहते ॥१९॥

न दूरमपि गत्वासौ समागम्य प्रयत्नतः ।

अनुबध्नाति तामक्ष्णि पृष्ठदेशेऽन्यमानसाम् ।।२०।।

बिना दूर गये ही वे प्रयत्नपूर्वक वापस आकर कुछ सोचती और देखती हुई सती को पीछे से बाँध लेते थे ॥ २० ॥

अन्तर्हितस्तु तत्रैव मायया वृषभध्वजः ।

तामालिलिङ्ग भीत्या सा चकिता व्याकुलाभवत् ।। २१ ।।

वहीं शिव माया से अन्तर्हित होकर पुनः उसका आलिङ्गन करते थे, जिससे वे सती चकित और व्याकुल हो जाती थीं ॥ २१ ॥

सौवर्णपद्मकलिकातुल्ये तस्याः कुचद्वये ।

चकार भ्रमराकारं मृगनाभिविशेषकम् ।।२२।।

वे सोने के कमल की कलि के समान उनके दोनों स्तनों पर मृगनाभि से उत्पन्न विशेष पदार्थ (कस्तूरी) से भ्रमर का आकार बनाते थे ॥२२॥

हारमस्याः कुचयुगाद्वियोज्य सहसा हरः ।

नियोजयति तत्रैव सकरस्पर्शनं मुहुः ।।२३।।

शिव अचानक उनके हार को स्तनद्वयों से हटाकर पुनः हाथ से स्पर्श की इच्छा से वहाँ ही पहुँचा देते थे ॥ २३ ॥

अङ्गदान् वलयान् वर्मीं विश्लेष्य च पुनः पुनः ।

तत्स्थानात् पुनरेवासौ तत्स्थाने प्रयुयोज च ।। २४ ।।

बाजूबन्द, कङ्गन, वर्मि (कुण्डल) आदि को उनके स्थानों से बार-बार हटाते तथा पुनः उन्हीं स्थानों पर पहनाते थे ॥२४॥

कालिकेयं समायाति सवर्णा ते सखीति ताम् ।

पश्येत् यस्यास्तथेच्छन्त्याः प्रोक्त्वा जग्राह तत्कुचौ ।। २५ ।।

हे कालिके! ये देखो तुम्हारी तरह तुम्हारी सखी आ रही है, कहकर सती द्वारा देखे जाने पर वे उनके स्तन को पकड़ लेते थे ॥२५॥

कदाचिन्मदनोन्मादचेतनः प्रमथाधिपः ।

चकार नर्मकर्माणि तया हृत्प्रियया मुदा ।। २६ ।।

कदाचिद् कामोन्मत्त चित्त हो प्रमथों के स्वामी शिव उस हृदयहारिणी पत्नी से प्रसन्नतापूर्वक केलिकर्म करते ॥२६॥

आहृत्य पद्मपुष्पाणि वन्यपुष्पाणि शङ्करः ।

पुष्पाभरणसर्वाङ्गीं कुरुते स्म कदाचन ।। २७ ।।

कभी शङ्कर कमल के फूलों तथा जङ्गली फूलों को लाकर उन्हें पुष्प के आभूषणों से सर्वाङ्गरूप में सजाते थे ॥२७॥

गिरिकुंजेषु रम्येषु तया सह सतीपतिः ।

विजहार समस्तेषु वनेषु मुदितो हरः ।।२८।।

सतीपति शिव प्रसन्नतापूर्वक उस सती के साथ समस्त वनों में, पर्वतों पर स्थित सुन्दर कुञ्जों में विहार करते ॥ २८ ॥

न याने नोपवेशे च न स्थितौ नापि चेष्टिते ।

तया विना क्षणमपि शर्म लेभे वृषध्वजः ।।२९।।

उस समय शिव को, न चलने में, न बैठने में, न खड़े होने में, न कार्य करने में किसी भी अवस्था में उस सती के बिना चैन नहीं मिलता था ।। २९ ।।

विहृत्य सुचिरं कालं कैलासगिरिकन्दरे ।

महाकौषीप्रपाताय जगाम हिमवद्विरौ ।।३० ॥

कैलाशपर्वत की कन्दराओं में बहुत समय तक विहार कर वे हिमालय पर्वत के महाकौषी प्रपात पर पहुँचे ॥३०॥

तस्मिन् प्रविष्टे हिमवत् पर्वते वृषभध्वजे ।

कामोऽपि सह मित्रेण रत्या च प्रजगाम ह ।।३१।।

उस हिमालय के उस प्रपात पर शिव के प्रवेश कर जाने पर कामदेव भी अपने मित्र (वसन्त) एवं पत्नी रति के साथ वहाँ आ पहुँचा ॥३१॥

तस्मिन् प्रविष्टे कामे तु वसन्तः शङ्करान्तिके ।

विततान निजाः श्रीश्च वृक्षे तोये तथा भुवि ।।३२।।

वहाँ कामदेव एवं वसन्त ने शिव के समीप प्रविष्ट होकर वृक्ष, जल और पृथ्वी पर अपनी शोभा का प्रसार किया ॥३२॥

सर्वे सुपुष्पिता वृक्षा लताश्चान्याः सुपुष्पिताः ।

अम्भांसि फुल्लपद्मानि पद्मेषु भ्रमरास्तथा ।।३३।।

सभी वृक्ष तथा लतायें सुन्दर पुष्पों से भर उठीं। जल में खिले हुए कमलों पर भौरें गुञ्जार करने लगे ॥३३॥

प्रविष्टे तत्र सुरतौ प्रववुर्मलयानिलाः ।

सुगन्धिपुष्पगन्धेन मोहिताश्च पुरन्ध्रयः ।। ३४ ।।

मुनीनामपि चेतांसि प्रमथ्य सुरभिस्तदा ।

स्मरः सारं समुद्धध्रे तक्रौघादाज्यवत्कृती ।। ३५ ।।

उनके सुरति भोग-विलास में प्रवेश करते ही मलयाचल की सुगन्धित वायु बहने लगी । सुगन्धित फूलों की गन्ध से विवाहित स्त्रियाँ विशेष मोहित हो गईं तथा उस सुगन्ध ने मुनियों के चित्त को मथ कर स्मर=सार (कामभाव) उत्पन्न कर दिया जैसेकोई प्राणी मट्ठे से घी निकाल देता है ।। ३४-३५।।

सन्ध्यार्द्धचन्द्रसंकाशाः पलाशाश्च विरेजिरे ।

कामास्त्रवत्सुमनसः प्रमोदायाभवन् सदा ।। ३६ ।

सन्ध्याकालीन अर्धचन्द्र के समान पलाश सुशोभित हो रहे थे। जिनके पुष्प कामदेव के अस्त्रों के समान सदैव आनन्ददायक प्रतीत हो रहे थे ॥३६॥

वभुः पङ्कजपुष्पाणि सरःसु सकलं जनान् ।

सम्मोहयितुमुद्युक्ता सुमुखीवाम्बुदेवता ।। ३७।।

जलदेवता की प्रसन्न मुख आनन्दित सुन्दरियों की भाँति सरोवरों में खिले हुये कमल के फूल सभी लोगों के मन को मोहित करने लगें ॥३७॥

नागकेशरवृक्षाश्च स्वर्णवर्णप्रसूनकैः ।

वभुर्मदनकेत्वाभा मनोज्ञाः शङ्करान्तिके ।। ३८ ।।

सुनहरे रङ्ग के फूलों वाले नागकेशर के वृक्ष शिव के समीप कामदेव की पताका के समान सुन्दर लगने लगे ॥ ३८ ॥

चम्पकास्तरवो हैमपुष्पत्वं प्रकटं मुहुः ।

कुर्वन्तः प्रचुरैः पुष्पैः सम्यग्रेजुस्तथास्फुटैः ।। ३९ ।।

चम्पक के वृक्ष पुनः अपने खिले हुए बहुत अधिक सुनहरे पुष्पों से स्वर्णिम पुष्प होने की सार्थकता सिद्ध करते हुए शोभायमान होने लगे ।। ३९ ।।

प्रफुल्लपाटलापुष्पैर्दिशः स्युः पाटलांशवः ।

यथा तथा पुष्पितास्ते पाटलाख्या महीरुहाः ।।४०।।

जब पाटल के वृक्षों पर पुष्प खिले तो उन खिले हुए पाटल के पुष्पों से दिशायें पाटल किरणों की आभा वाली हो गईं ॥ ४० ॥

लवंगवल्लीसुरभिर्गन्धेनोद्वास्य मारुतम् ।

सम्मोहयति चेतांसि भृशं कामिजने पुरा ।। ४१ ।।

लवङ्ग की लताओं के गन्ध से सुगन्धित हो वायु पहले ही कामीजनों के चित्त को अत्यधिक मोहित कर रहा था ।।४१।

वासन्तीवासितास्तत्र वल्वजाः किल रेजिरे ।

तद्गन्धलुब्ध भ्रमरा रतिमिश्रा मनोहराः ।।४२।।

वासन्ती वायु से सुशोभित वल्वज (एक प्रकार की घास) और उसके गन्ध के लोभी भ्रमर रतियुक्त, सुन्दर और शोभायमान हो रहे थे ॥४२॥

चारु जावकवर्च्चस्वि शिखराश्चूतशाखिनः ।

वभुर्मदनवाणौघ पर्यंकवदनावृताः ।।४३।।

अग्नि की लौ के समान दिखाई देने वाले आम के वृक्ष, कामदेव के बाण, पुष्पसमूह से बने, खुले पलङ्ग के सामन सुशोभित हो उठे ॥४३॥

अम्भांसि मलहीनानि रेजु; फुल्लकुशेशयैः ।

मुनीनामिव चेतांसि प्रव्यक्तज्योतिरुद्गमात् ।। ४४ ।।

प्रव्यक्त ज्योति आत्मबोध के उत्पन्न हो जाने पर जैसे मुनियों के चित्त निर्मल हो शोभायमान होते हैं, उसी प्रकार खिले कमलों से भरे निर्मल सरोवर भी शोभायमान होने लगे ॥४४॥

तुषारा: सूर्यरश्मीनां सङ्गमादगमन् क्षयम् ।

ममत्वानीव विज्ञानशालिनां हृदयात्तदा ।। ४५ ।।

तब सूर्य की किरणों के संयोग से ओस-कण, विज्ञानी जनों के हृदय से ममत्व की तरह क्षय को प्राप्त होने लगे ॥४५॥

निःशङ्काः कोकिलाः शब्दं तन्वते स्म तदान्वहम् ।

प्राणिव्यधनपुष्पेषु पुष्पज्याशब्दवत् भृशम् ।। ४६ ।।

उस समय कोयले निःशङ्क हो इस प्रकार से निरन्तर शब्द कर रहीं थी मानों बारंबार प्राणियों के बींध देने वाले काम के पुष्प-धनुष की पुष्पों से बनी प्रत्यञ्चा के शब्द (टङ्कार) हो ॥४६॥

चुकूजुर्भ्रमरास्तत्र वनान्तर्गतपुष्पगाः ।

कान्तालीलावुभुक्षोस्तु स्मरव्याघ्रस्य शब्दवत् ।।४७।।

वहाँ वन में पुष्पों पर गूँजते हुये भौरें, पत्नी-लीला (काम-क्रीड़ा) से भूखे कामीजन की भाँति शब्द कर रहे थे ॥४७॥

चन्द्रस्तुषारवद्भानुर्नचैताः सकलाः कलाः ।

कम्राद्वभार मोहाय जनानां कुशलं भुवि ।। ४८ ।।

चन्द्रमा और तुषार ओस युक्त सूर्य की किरणें और चन्द्रमा की समस्त कलायें क्रमशः पृथ्वी पर लोगों को मोहित करने के लिए चातुरी को धारण कर रहीं थीं ॥ ४८ ॥

प्रसन्ना: सह चन्द्रेण निस्तुषारास्तदाभवन् ।

विभावर्यः प्रियेणैव कामिन्यः सुमनोहराः ।। ४९ ।।

जिस प्रकार सुन्दरी स्त्रियाँ अपने प्रिय के साथ प्रसन्न होती हैं, उसी प्रकार रात्रि भी चन्द्रमा के साथ ओसों से विमुक्त हो सुशोभित हो गई ।। ४९ ।।

तस्मिन् काले महादेवः सह सत्या भूधरोत्तमे ।

रेमे च सुचिरं छन्नो निकुञ्जेषु दरीषु च ।।५०।।

ऐसे समय में महादेव सती के साथ हिमालय पर्वत पर झाड़ियों और गुफाओं में गुप्त रूप से बहुत समय तक रमण किये ॥ ५० ॥

सापि तेन समं रेमे तथा दाक्षायणी शुभा ।

यथा हरः क्षणमपि शान्तिं नावाप तां विना ।।५१।।

उस सुन्दरी दाक्षायणी ने भी उसी तरह उन शिव के साथ रमण किया, जिससे शिव उसके बिना क्षण भर भी शान्ति नहीं पाते थे ॥ ५१ ॥

संभोगविषये देवी सती तस्य मनः प्रिया ।

विशतीव हरस्याङ्गे पाययन्तीव तद्रसम् ।।५२।।

उनके मन को प्रिय लगने वाली देवी सती संभोग प्रसङ्ग में शिव के अङ्गों में प्रवेश करती हुई अपने आनन्द का पान करा रही थीं ॥ ५२ ॥

तस्याः कुसुममालाभिर्भूषयन् सकलां तनुम् ।

स्वहस्तरचिताभिश्च वरं नर्म चकार सः ।।५३॥

उन शिव ने भी अपने हाथ से बनाई गई फूल मालाओं से भली प्रकार उनके सम्पूर्ण शरीर को सजाते हुए केलि किया ॥५३॥

आलापैर्वीक्षणैर्हासैस्तथा सम्भाषणैर्हरः ।

तस्यां विवेश गिरिशः संयमीवात्मसंविदम् ।।५४।।

गिरीश शिव ने शब्दों से, देखने से, हँसी से, वार्तालाप से जैसे संयमी आत्मज्ञान में प्रवेश करता है उसी भाँति उनमें प्रवेश किया, अनुरक्त हुए ।।५४।।

तद्वक्त्रचन्द्रपीयूषपानस्थिरतनुर्हर: ।

नावाप शैषिकीं तन्वीमवस्थां स कदाचन ।।५५।।

तद्वक्त्राम्बुजवासेन तत्सौन्दर्यस्य नर्मभिः ।

गुणैरिव महादन्ती बद्धो नान्यद्विचेष्टते ।। ५६ ।।

उनके मुख चन्द्र के अमृत का स्थिर तन से पान करने वाले शिव ने कभी की समाप्तप्राय थकी हुई शारीरिक अवस्था को प्राप्त नहीं किया। उनके मुख कमल की सुगन्ध से उनके सौन्दर्य के आकर्षण वश, रस्सी में बँधे हुए विशाल गजराज की भाँति उनका मन अन्यत्र चेष्टा नहीं करता था ।। ५५-५६ ।।

इति हिमगिरिकुंजे प्रस्थभागे दरीषु प्रतिदिनमधिरेमे दक्षपुत्र्या महेशः ।

क्रतुभुज परिमाणैः क्रीडतस्तस्य जाता नव दश च मुनीन्द्रा वत्सराः पञ्च चान्ये ।। ५७ ।।

मुनीन्द्रों ! इस प्रकार शिव ने हिमालय पर्वत की गुफाओं में, कुञ्जों में, मैदानों में प्रतिदिन दक्ष पुत्री के साथ अभिरमण किया। इस प्रकार काम-क्रीड़ा करते हुए उनके देवताओं के परिणाम से चौबीस वर्ष (८६०० मानव वर्ष) बीत गये ॥५७॥

॥ इति श्रीकालिकापुराणे शिवसतीविहारवर्णननाम चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥  

कालिका पुराण अध्याय १४ संक्षिप्त कथानक

मार्कण्डेय मुनि ने कहा- इसके अनन्तर मेघों के गर्जन करने पर श्री महादेवजी सती के पति के विष्णु भगवान् प्रभृति सबको विदा करके अथवा त्याग करके वे हिमवान पर्वतराज पर चले गए । उस परमाधिक आमोद की शोभा वाली सती को अपने अत्युन्नत वृषभ पर समारोपित कराके हिमालय के प्रस्थ को गमन किया था जिसमें परम रम्य कुञ्जों का समुदाय था । इसके उपरान्त वह सुन्दर दन्त- पंक्ति वाली चारुहार से समन्वित सती भगवान् शंकर के समीप शोभायमान हुई थी। वृषभ पर स्थित भी वह चन्द्र के मध्य में कलिका के समान ही थी। वे सब ब्रह्मा आदिक और मरीचि आदि मानस पुत्र, दक्ष प्रजापति भी सभी सुर और असुर परम प्रसन्न हुए थे अर्थात् उस अवसर पर सभी को अत्यन्त हर्ष हुआ था । जो सब भगवान् शंकर के साथ में गमन कर रहे थे। उनमें कुछ तो शंखों को बजा रहे थे और कुछ सुमंगल करने वाले तालों का वादन कर रहे थे । कुछ हास्य ही कर रहे थे। इसी रीति से सबने वृषभध्वज का अनुगमन किया था अर्थात् शिव के पीछे-पीछे गये थे फिर ब्रह्मा आदि भी सब शम्भु द्वारा विदा कर दिए गए थे। वे सब परमाधिक आनन्द से कुछ दूर तक शिव की पीछे-पीछे गये थे । इसके उपरान्त ब्रह्मा आदि और मानस पुत्रों ने शम्भु के साथ सम्भाषण करके आशुगमन करने वाले रथों के द्वारा अपने-अपने आश्रमों को चले गये थे । समस्त देवगण, सिद्ध और उसी भाँति अप्सराओं के समुदाय और जो-जो भी वहाँ पर यक्ष, विद्याधर आदि समागत हुए थे वे सभी भगवान् हर के द्वारा बिना किए हुए अपने निवास स्थानों को चले गए थे तथा वृषभध्वज के द्वारा ग्रहण करने पर सभी आमोद से समन्वित हुए थे। इसके अनन्तर भगवान् शिव अपने गणों के सहित आनन्द देने वाले संस्थान पर पहुँचकर जो कि कैलाश गिरि के नाम वाला था । वहाँ पर शिव ने अपनी प्रिया को वृषभ से नीचे उतार लिया था । फिर विरुपाक्ष प्रभु ने इस दाक्षायणी सती की प्राप्ति करके अपने गणों को जो नन्दी आदिक थे उस गिरि की कन्दरा से विदा कर दिया था। भगवान् शम्भु ने नन्दी आदि से बहुत ही मधुर वाणी में उन सबसे कहा था कि यहाँ पर जिस समय में भी मैं आप सबका स्मरण करूँ उसी समय में स्मरण से चलमानस वाले आप लोग मेरे समीप में तब-तब ही आगमन करेंगे। इस प्रकार से वामदेव के द्वारा कथन करने पर वे नन्दी भैरव आदिक सब हिमवान् गिरि पर चल रहे थे । उन सबके जाने पर भगवान् ईश्वर भी उस सती के साथ मोहित हो गये थे । हर भी एकान्त में प्रतिदिन उस दाक्षायणी के साथ चिरकाल पर्यन्त बहुत ही अधिक रमण करने वाले हो गये थे ।

किसी समय में वन में स्वाभाविक रूप से समुत्पन्न हुए पुरुषों का समाहरण करके उनकी एक अतीव मन को हरण करने वाली सुन्दर माला की रचना करके उन्होंने सती के हार के स्थान में नियोजित किया था। किसी समय दर्पण में अपने मुख का अवलोकन करने वाली सती का अनुगमन करके भगवान् शम्भु भी अपने मुख को देखा करते थे । किसी समय उस सती के कुन्तलों को उल्लसित करके उल्लास में आए हुए शिव बाँधा करते थे तथा किसी प्रकार मोचन किया करते थे और बराबर उन केशों को काढ़ा भी करते थे अर्थात् कंघी भी काढ़ते थे । अनुराग में निमग्न हर इस सती के स्वाभाविक लालिमा लिए हुए दोनों चरणों को उज्ज्वल पावक के द्वारा निसर्ग रक्त किया करते थे । जो दूसरों के आगे भी बार-बार ऊँचे स्वर के कथन करने के योग्य बात होती थी उसको भी भगवान् हर सती के मुख को स्पर्श करने के विचार में उनके कान में कहा करते थे। विशेष दूर भी न जाकर यह शम्भु किसी समय में प्रयत्नपूर्वक समागत होकर पीछे के भाग में आकर अन्य मन वाली इस सती की आँखों को बन्द कर दिया करते थे। वृषभध्वज अपनी माया से वहाँ पर ही अन्तर्धान होकर उस सती का आलिंगन किया करते थे। तब वह भय से चकित होकर अधिक व्याकुल हो जाया करती थी ।

उन हिमालय पर्वत में वृषभध्वज के प्रवेश किए जाने पर कामदेव भी अपने मित्र वसन्त के तथा अपनी पत्नी रति के साथ वहाँ पर चला गया था। उस कामदेव के प्रविष्ट हो जाने पर वसन्त ने भगवान् शंकर के समीप में अपनी शोभा का वृक्षों में, जल में और भूमि में विस्तार कर दिया था । वहाँ पर सभी वृक्ष फूलों से संयुत होकर पुष्पित हो गए थे और अन्य लतायें भी पुष्पित हो गई थीं सब सरोवरों के जल खिले हुए कमलों से युक्त हो गये थे तथा उन कमलों पर भ्रमर गुञ्जार कर रहे थे। वहाँ पर सुरति के प्रविष्ट हो जाने पर मलय की ओर से आने वाली वायु वहन कर रही थी। सुगन्धित पुष्पों के सहित योग को जाने से सुरभियाँ मोहित हो गई थीं। उस समय में उस सुरभि ने मुनियों के भी मन का प्रमथन कर दिया था । चक्र के समूह के ही घृत के समान कृति कामदेव ने सार का समुद्धरण किया था । पलाश सन्ध्या काल में आधे चन्द्रमा के सदृश शोभित हुए थें । पुष्प कामदेव के अस्त्र के ही समान सदा प्रमोद के लिए हो गये थे । सरोवरों में कमल के पुष्प शोभित हो रहे थे ।

नागकेशर के वृक्ष स्वर्ण वर्ण वाले पुष्पों के शंकर से समीप में मदन (कामदेव) के केतु की आभा वाले परम सुन्दर शोभित हो रहे थे । चम्पक के वृक्ष बार-बार हेम पुष्पत्व को अर्थात् सुनहले पुष्पों को प्रकट करते हुए विकसित प्रचुर पुष्पों से भली-भाँति शोभायमान हुए थे । विकसित हुए अर्थात् खिले हुए पाटला के पुष्पों से दिशायें पाटलांशु हो गई थीं। जिस किसी तरह से वे पाटलनाभ वाले वृक्ष पुष्पित हो रहे थे । अवंग वल्ली की सुरभि गन्ध के द्वारा वायु को सुरभित करके कामीजनों में पूर्व चित्तों को बहुत ही अधिक सम्मोहित करती है । वासन्ती से वासित वल्वज शोभित हो रहे थे उसकी गन्ध के लालची भ्रमर मनोहर रति मित्र थे । सुन्दर पावक के वर्चस्व वाले आम्र वृक्षों के शिखर कामदेव के वाणों के समूह से वंदनावृत होते हुए शोभायुक्त थे। सरोवर तथा जलाशयों का जल फूले हुए कमलों के द्वारा शोभित हुए थे जो अव्यक्त ज्योति के उद्गम से मुनिगणों के चित्तों के ही तुल्य थे।

सूर्य की किरणों के संगम से तुषार क्षय को प्राप्त हो गये थे । उस समय में उन तुषारों का क्षय विज्ञानशाली पुरुषों के हृदय से ममत्व की ही भाँति हुआ था । उस समय में प्रतिदिन कोयल निःशंक होकर अपनी मधुर ध्वनि का विचार कर रही थी । जो पुष्पों में बहुत ही अधिक पुष्पों की ज्या (धनुष की डोरी ) के शब्द की ही भाँति था । वहाँ पर भ्रमर वनों के अन्तर्गत पुष्पों में गमन करने वाले भ्रमरकान्ता की लीला को भूख वाले कामदेव रूपी व्याघ्र की ध्वनि की ही भाँति गुँजन कर रहे थे । चन्द्र तुषार की भाँति था और भानु सकल कलाओं वाला नहीं था। यह क्रम से स्वजनों के मोह के लिए कुशलतापूर्वक इन कलाओं को धारण करता था । उस समय में चन्द्रमा के साथ प्रसन्न और तुषार से रहित विभावरी सुमनोहर कामिनियाँ प्रिय के साथ की भाँति की हो गयी थीं। उस समय महादेव उत्तम धरा में उत्तम सती के साथ बहुत समय तक होकर रमण करते रहे ।

।। श्रीकालिकापुराण में शिव-सतीविहारवर्णननामक चौदहवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥१४॥

आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 15  

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