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- कालिका पुराण अध्याय ११
- कालिका पुराण अध्याय १०
- कालिका पुराण अध्याय ९
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- कालिका पुराण अध्याय ८
- कालिका पुराण अध्याय ७
- काली स्तुति
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- काली स्तुति
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- कालिका पुराण अध्याय १
- कालिका पुराण
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- गीतगोविन्द द्वितीय सर्ग अक्लेश केशव
- रुद्रयामल तंत्र पटल ३५
- अष्ट पदि ४ भ्रमर पद
- रुद्रयामल तंत्र पटल ३४
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Kalika puran chapter 8
कालिकापुराणम् अष्टमोऽध्यायः सती-उत्पत्तिः
अथ कालिका
पुराण अध्याय ८
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
ततो ब्रह्मापि
मदनमुवाचेदं वचः पुनः ।
निश्चित्य
योगनिद्रायाः स्मृत्वा वाक्यं तपोधनाः ।। १ ।।
मार्कण्डेय
बोले- हे तपोधनों ! तब ब्रह्मा जी ने कामदेव से योगनिद्रा के वाक्यों का स्मरण कर
निश्चयपूर्वक यह बात कही ॥१॥
।। ब्रह्मोवाच
।।
अवश्यं
शम्भुपत्नी सा योगनिद्रा भविष्यति ।
यथाशक्ति
भवांस्तत्र करोत्वस्याः सहायताम् ॥२॥
ब्रह्मा बोले-
वह योगनिद्रा अवश्य ही शिव की पत्नी होगी। आप वहाँ यथाशक्ति उनकी सहायता करें ॥२॥
गच्छ त्वं
स्वगणैः सद्धिं यत्र तिष्ठति शङ्करः ।
द्रुतं मनोभव
त्वं च तत् स्थानं मधुना सह ।। ३ ।।
हे कामदेव !
जहाँ शङ्कर स्थित हैं, वहीं तुम अपने गणों और वसन्त के साथ शीघ्र ही जाओ ॥३॥
रात्रिन्दिवस्य
तुर्याशं जगन्मोहय नित्यशः ।
भागत्रयं
शम्भुपार्श्वे तिष्ठ सार्द्धं गणैः सदा ॥४॥
रात और दिन के
चौथे भाग अर्थात् दोनों सन्ध्याओं के समय नित्य सभी को मोहित करो। शेष तीन भागों
में गणों के साथ सदैव शिव के पास स्थित रहो ॥४॥
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
इत्युक्त्वा
सर्वलोकेशस्तत्रैवान्तरधीयत ।
शम्भोः सकाशं मदनो
गतवान् सगणस्तदा ॥५॥
मार्कण्डेय
बोले- ऐसा कहकर सभी लोकों के स्वामी ब्रह्मा वहीं अन्तर्धान हो गये । तब कामदेव भी
अपने गणों के सहित भगवान् शङ्कर के समीप पहुँचा ॥५॥
एतस्मिन्नन्तरे
दक्षश्चिरं कालं तपोरतः ।
नियमैर्बहुभिर्देवीमाराधयत
सुव्रतः ।।६।।
इस बीच
दक्षप्रजापति चिरकाल तक तपस्या में रत रहे । सुन्दर व्रत धारण करने वाले उन्होंने
बहुत से नियमों के द्वारा देवी की आराधना की ।।६।।
ततो
नियमयुक्तस्य दक्षस्य मुनिसत्तमाः ।
योगनिद्रां पूजयत:
प्रत्यक्षमभवच्छिवा ।।७।।
हे मुनि
सत्तमों! तब नियमपूर्वक योगनिद्रा की पूजा करने वाले प्रजापति दक्ष के सम्मुख शिवा
(भगवती काली) प्रकट हुईं ॥७॥
ततः
प्रत्यक्षतो दृष्ट्वा विष्णुमायां जगन्मयीम् ।
कृतकृत्यमथात्मानं
मेने दक्षः प्रजापतिः ॥८॥
तब उस
विष्णुमाया जगत्स्वरूपा देवी को प्रत्यक्ष देखकर प्रजापति दक्ष ने अपने को
कृतकृत्य माना ॥८॥
कालिका पुराण
अध्याय ८ काली का स्वरूप
सिंहस्थां
कालिकां कृष्णां पीनोत्तुंगपयोधराम् ।
चतुर्भुजां
चारुवक्त्रां नीलोत्पलधरां शुभाम् ।।९।।
वरदाभयदां
खड्गहस्तां सर्वगुणान्विताम् ।
आरक्तनयनां
चारुमुक्तकेशीं मनोहराम् ।।१०।।
दृष्ट्वा
दक्षोऽथ तुष्टाव महामायां प्रजापतिः ।
प्रीत्या
परमया युक्तो विनयानतकन्धरः ।। ११ ।।
उन सिंह पर
स्थित,
कृष्णवर्ण की, पुष्ट और उन्नत स्तनों वाली, चार भुजाओं से सुशोभित, सुन्दर मुखवाली, सुन्दर नीलकमल धारण करने वाली,
शुभदात्री, वर और अभय देने वाली, हाथों में खड्ग लिए हुये, सभी गणों से युक्त, लाल नेत्रों वाली, सुन्दर खुले हुए केशों वाली किन्तु मनोहर मूर्ति कालिकाम्बा
को देखकर,
प्रजापति दक्ष ने अत्यधिक प्रेमपूर्वक नम्रता से अपने कंधों
को झुकाकर महामाया की स्तुति की ॥ ९-११॥
अब इससे आगे
श्लोक १२ से २६ में भगवती काली की दक्ष द्वारा स्तवन को दिया गया है इसे पढ़ने के
लिए क्लिक करें-
अब इससे आगे
कालिका पुराण
अध्याय ८
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
इति स्तुता महामाया
दक्षेण प्रयतात्मना ।
उवाच दक्षं
ज्ञात्वापि स्वयं तस्येप्सितं द्विजाः ।। २७ ।।
मार्कण्डेय
बोले- हे द्विजों! विशेष रूप से संयतात्मा दक्ष के द्वारा इस प्रकार से स्तुति
किये जाने पर महामाया भगवती ने दक्ष के अभीष्ट को जानकर उनसे कहा –॥२७॥
।। भगवत्युवाच
।।
तुष्टाहं दक्ष
भवतो मद्भक्त्या ह्यनया भृशम् ।
वरं वृणीष्व
चाभीष्टं तत्ते दास्यामि तत् स्वयम् ।।२८।।
भगवती बोलीं-
हे दक्ष प्रजापति! वर माँगो और मैं स्वयं तुम्हें तुम्हारा अभीष्ट प्रदान करूंगी; क्योंकि मैं तुम्हारी इस अपनी भक्ति से
बहुत सन्तुष्ट हूँ ॥ २८ ॥
नियमेन
तपोभिश्च स्तुतिभिस्ते प्रजापते ।
अतीव तुष्टा
दास्येऽहं वरं वरय वाञ्छितम् ।। २९ ।।
हे प्रजापति !
मैं तुम्हारे नियम तपस्या एवं स्तुतियों से अत्यंत सन्तुष्ट होकर तुम्हें वर
प्रदान करूँगी । इसलिए वांछित (मनचाहा वरदान माँगो ॥ २९ ॥
।। दक्ष उवाच
॥
जगन्मयि महामाये
यदि त्वं वरदा मम ।
तदा मम सुता
भूत्वा हरजाया भवाधुना ।। ३० ।।
दक्ष बोले- हे
जगन्मयि! हे महामाया ! यदि आप मुझे वर देने को तत्पर हैं तो आप इसी समय मेरी
पुत्री होकर भगवान् शङ्कर की पत्नी होवें ।।३०।।
ममैष न वरो
देवि केवलं जगतामपि ।
लोकेशस्य तथा
विष्णोः शिवस्यापि प्रजेश्वरि ।। ३१ ।।
हे देवि! यह न
केवल मेरे लिए वरदान होगा, अपितु संसार के लिए भी वरदान होगा । हे प्रजा (भक्त) जनों की स्वामिनी !
यह लोकेश (ब्रह्मा), विष्णु और शिव के लिए भी वरदान होगा ॥३१॥
।। देव्युवाच
।।
अहं तव सुता
भूत्वा त्वज्जायायां समुद्भवा ।
हरजाया
भविष्यामि न चिरात्तु प्रजापते ।। ३२।।
देवी बोलीं-
हे प्रजापति ! मैं शीघ्र ही तुम्हारी पत्नी से उत्पन्न हो, तुम्हारी पुत्री होऊँगी तत्पश्चात् शिव की
पत्नी होऊँगी ॥३२॥
यदा भवान्मयि पुनर्भवेन्मन्दादरस्तदा
।
देहं
त्यक्ष्यामि सपदि सुखिन्यप्यथवेतरा ॥३३॥
जब तुम पुनः
मेरे प्रति मन्द आदरभाव वाले हो जाओगे तब मैं शीघ्र ही देह का त्याग कर दूँगी ।
अन्यथा मैं सुख से रहूँगी ॥३३॥
एष दत्तस्तव
वरः प्रतिसर्गं प्रजापते ।
अहं तव सुता
भूत्वा भविष्यामि हरप्रिया ॥३४।।
हे प्रजापति !
इस प्रकार से तुम्हें वरदान देकर मैं प्रतिसर्ग के समय तुम्हारी पुत्री होकर
शिवपत्नी बनूँगी ॥३४॥
तथा सन्मोहयिष्यामि
महादेवं प्रजापते ।
प्रतिसंर्ग
तथा मोहं सम्प्राप्स्यति निराकुलम् ॥३५ ।।
उस प्रतिसर्ग
काल में महादेव को मैं इस प्रकार सम्मोहित करूँगी, जिससे स्थिरचित्त होते हुए भी वे मोह को प्राप्त होंगे ॥ ३५ ॥
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
एवमुक्त्वा
महामाया दक्षं मुख्यं प्रजापतिम् ।
अन्तर्दधे ततो
देवी सम्यग् दक्षस्य पश्यतः ॥ ३६ ॥
मार्कण्डेय
बोले- तब प्रजापतियों में श्रेष्ठ दक्ष से इस प्रकार कहकर उनके देखते-देखते
महामाया देवी पूर्णरूप से अन्तर्धान हो गईं ॥ ३६ ॥
अन्तर्हितायां
मायायां दक्षोऽपि निजमाश्रमम् ।
जगाम लेभे च
मुदं भविष्यति सुतेति सा ॥३७॥
माया भगवती के
अन्तर्हित हो जाने पर दक्ष भी अपने आश्रम पर लौट गये तथा वह (देवी) मेरी पुत्री
होगी, इस विचार से प्रसन्न हो उठे ॥३७॥
अथ चक्रे
प्रजोत्पादं विना स्त्रीसङ्गमेन च ।
सङ्कल्पाविर्भवाश्यान्तु
मनसा चिन्तनेन च ।। ३८ ।।
तत्पश्चात्
सङ्कल्पशक्ति से तथा मानसिक चिन्तन द्वारा स्त्री संसर्ग के बिना ही उन्होंने
प्रजा का उत्पादन किया ॥३८॥
तत्र ये तनया जाता
बहुशो द्विजसत्तमाः ।
ते
नारदोपदेशेन भ्रमन्ति पृथिवीमिमाम् ।। ३९ ।।
हे
द्विजसत्तमों! उस समय जो बहुत से पुत्र उत्पन्न हुये वे सभी नारद के उपदेश से इस
पृथ्वी पर भ्रमण कर रहे हैं ।।३९।।
पुनः पुनः
सुता ये ये तस्य जाता सहस्रशः ।
ते सर्वे
भ्रातृपदवीं ययुर्नारदवाक्यतः ।। ४० ।।
बार-बार उनके
जो हजारों पुत्र उत्पन्न हुए वे सभी नारद के वचनों के अनुसार अपने बड़े भाइयों के
ही पद को प्राप्त किये ॥ ४० ॥
पृथिव्यां
सृष्टिकर्तारः सर्वे यूयं द्विजोत्तमाः ।
पश्यध्वं पृथिवीं
कृत्स्नामुपान्तप्रान्तमायताम् ।।४१।।
इति नारदवाक्येन
नोदिता दक्षपुत्रकाः ।
अद्यापि न
निवर्तन्ते भ्रमन्तः पृथिवीमिमाम् ।।४२।।
हे
द्विजोत्तमों ! "आप सब पृथ्वी पर सृष्टिकर्ता के रूप में उत्पन्न हुये हैं।
अतः एक छोर से दूसरे छोर तक फैली हुई सम्पूर्ण पृथ्वी का आप निरीक्षण करें।"
नारद के इस प्रकार के वाक्य से प्रेरित हो वे दक्षपुत्र आज भी नहीं लौटते और
पृथ्वी पर भ्रमण कर रहे हैं ।४१-४२ ।।
कालिका पुराण
अध्याय ८ सतीजन्म
ततः
समुत्पादयितुं प्रजा: मैथुनसम्भवाः ।
उपयेमे वीरणस्य
तनयां दक्ष ईप्सिताम् ।
वीरिणी नाम
तस्यास्तु असक्नीत्यपि सत्तमाः ।।४३।।
तब मैथुन (स्त्री-प्रसङ्ग)
से उत्पन्न इच्छित सन्तान की प्राप्ति हेतु वीरण की पुत्री, जिसका नाम वीरिणी था, तथा जिसे असनी भी कहते हैं, का उन्होंने वरण किया ॥४३
॥
तस्यां प्रथम
सङ्कल्पो यदा भूतः प्रजापतेः ।
सद्योजाता
महामाया तदा तस्यां द्विजोत्तमाः ।। ४४ ।।
हे द्विजोत्तमों
! दक्ष प्रजापति का वीरिणी के साथ प्रथम सङ्कल्प जब हुआ तब उससे शीघ्र ही महामाया
उत्पन्न हो गई ॥४४॥
तस्यां तु
जातमात्रायां सुप्रीतोऽभूत् प्रजापतिः ।
सैवैषेति तदा
मेने तां दृष्ट्वा तेजसोज्ज्वलाम् ।।४५ ।।
उस देवी के
उत्पन्न होने मात्र से दक्ष प्रजापति प्रसन्न हो उठे। उस स्वकीय तेज से प्रकाशित
महामाया को देखकर यह वही है, जिसने पूर्व में वर दिया था। ऐसा उन्होंने अनुभव किया ।। ४५ ।।
बभूव
पुष्प्रवृष्टिश्च मेघाश्च ववृषुर्ज्जलम् ।
दिशः शान्तास्तदा
तस्यां जातायाञ्च समुद्गताः ।।४६।।
उसके उत्पन्न
होते ही (आकाश से) फूलों की वर्षा होने लगी, बादल जल बरसाने लगे तथा दिशायें शान्त एवं प्रमुदित हो गईं ॥
४६ ॥
अवादयन्तस्त्रिदशाः
शुभवाद्यं वियद्गताः ।
जज्वलुश्चाग्नयः
शान्तास्तस्यां सत्यां नरोत्तमाः ।।४७ ।।
हे नरोत्तमों
! उस सती के उत्पन्न होने पर आकाश में स्थित देवगण मङ्गलवाद्य बजाने लगे तथा
अग्नियाँ शान्त हो जलने लगीं ॥४७॥
वीरिण्या
लक्षितो दक्षस्तां दृष्ट्वा जगदीश्वरीम् ।
विष्णुमायां
महामायां तोषयामास भक्तितः ।। ४८ ।।
वीरिण के
देखते-देखते, उस
जगदीश्वरी, विष्णुमाया, महामाया को
देखकर भक्तिपूर्वक दक्ष ने उस देवी को सन्तुष्ट किया। उनकी स्तुति प्रारम्भ
की ॥ ४८ ॥
कालिका पुराण
अध्याय ८
अब इससे आगे
श्लोक ४९ से ५५ में भगवती काली की वीरणी और दक्ष द्वारा स्तवन को दिया गया है इसे
पढ़ने के लिए क्लिक करें-
अब इससे आगे
कालिका पुराण
अध्याय ८
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
इति स्तुता
जगन्माता दक्षेण सुमहात्मना ।
तथोवाच तदा
दक्षं यथा माता शृणोति न ।। ५६ ।।
मार्कण्डेय
बोले- महात्मा दक्ष के द्वारा जगन्माता की इस प्रकार स्तुति की गई । तब माता
वीरिणी जिस प्रकार न सुन सकें, ऐसा देवी ने दक्ष से कहा ॥ ५६ ॥
सम्मोह्य
सर्वं तत्रस्थं यथा दक्षः शृणोति तत् ।
नान्यः शृणोति
च तथा माययाह तदाम्बिका ॥५७ ।।
तब वहाँ
उपस्थित सबको अपनी माया से सम्मोहित कर इस प्रकार कहा, जिससे केवल दक्षप्रजापति ही सुन सकें,
अन्य न सुने ॥ ५७ ॥
।। देव्युवाच
।।
अहमाराधिता पूर्वं
यदर्थं मुनिसत्तम ।
ईप्सितं तव
सिद्धं तदवधारय साम्प्रतम् ।।५८।।
देवी बोलीं-
हे मुनिसत्तम! पूर्व में जिस निमित्त मैं आपके द्वारा पूजित हुई थी, वह तुम्हारा मनोरथ सिद्ध हो गया है। अब
उसका ध्यान करो ॥ ५८ ॥
कालिका पुराण
अध्याय ८- सती बाललीला वर्णन
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
एवमुक्त्वा तदा
देवी दक्षञ्च निजमायया ।
आस्थाय शैशवं
भावं जनन्यन्ते रुरोद सा ।। ५९ ।।
मार्कण्डेय
बोले- तब देवी ने दक्ष से ऐसा कहा और अपनी माया से शिशुत्व भाव का आश्रय ले, माता (वीरिणी) के निकट वे रोने लगीं ।। ५९
।।
ततस्थां
वीरिणी यत्नात् सुसंस्कृत्य यथोचितम् ।
शिशुपालेन
विधिना तस्यै स्तन्यादिकं ददौ ।। ६० ।।
तब वीरिणी ने
प्रयत्नपूर्वक एवं उचित रूप से शिशुपालन की विधि से उनका संस्कार कर उसे दूध आदि
प्रदान किया ॥६०॥
पालिता साथ
वीरिण्या दक्षेण सुमहात्मना ।
ववृधे शुक्लपक्षस्य
निशानाथो यथान्वहम् ।।६१।।
महात्मादक्ष
तथा वीरिणी के द्वारा पालन की जाती हुई वे दिनों-दिन शुक्लपक्ष के चन्द्रमा के
समान बढ़ने लगीं ॥ ६१ ॥
तस्यान्तु
सद्गुणाः सर्वे विविशुर्द्विजसत्तमाः ।
शैशवेऽपि यथा
चन्द्रे कलाः सर्वा मनोहराः ।।६२।।
हे द्विजसत्तमों
! बचपन में ही उनमें सभी गुणों ने उसी प्रकार समावेश कर लिया, जिस प्रकार सभी मन को हरने वाली कलायें
चन्द्रमा में प्रविष्ट हो जाती हैं ॥६२॥
रेमे सा
निजभावेन सखीमध्यगता यदा ।
तदा लिखति
भर्गस्य प्रतिमामन्वहं मुहुः ।। ६३ ॥
वे जब सखियों
के बीच आत्मविभोर हो रमण करती थीं (खेल खेलती थीं) तब भी वे प्रतिदिन बार-बार
भगवान् शिव की ही प्रतिमा अथवा चित्रादि बनाती थीं ।। ६३ ॥
यदा गायति
गीतानि तदा बाल्योचितानि सा ।
उग्रं स्थाणुं
हरं रुद्रं सस्मार स्मरमानसा ।।६४।।
जब वे
बाल्योचित गीत गातीं तब कामासक्त मन से उग्र, स्थाणु, हर, रुद्रादि
नामों का ही स्मरण करतीं ॥ ६४ ॥
तस्याश्चक्रे
नाम दक्षः सतीति द्विजसत्तमाः ।
प्रशस्तायाः सर्वगुणैः
सत्त्वादपि नयादपि ।। ६५ ।।
हे
द्विजसत्तमों ! उसके प्रशस्त गुणों तथा सत्व और नय के कारण दक्ष ने उन देवी का नाम
'सती' रखा ॥ ६५ ॥
ववृधे
दक्षवीरिण्योः प्रत्यहं करुणातुला ।
तस्यां
बाल्येऽपि भक्तायां तयोर्नित्यं मुहुर्मुहुः ।। ६६ ।।
बाल्यावस्था
में ही उनकी (शिव) भक्ति को देखकर दक्ष और वीरिणी की अतुलनीय करुणा प्रतिदिन बढ़ने
लगी ॥६६॥
सर्वकान्त-गुणाक्रान्ता
सदा सा नयशालिनी ।
तोषयामास पितरौ
नित्यं नित्यं नरोत्तमाः ।। ६७ ।।
हे नरोत्तमों
! नययुक्त, सभी को
प्रिय एवं सभी गुणों से परिपूर्ण उन देवी ने भी नये-नये रूपों में माता-पिता को
सन्तुष्ट किया ॥६७॥
अथैकदा पितुः
पार्श्वे तिष्ठन्तीं तां सतीं विधिः ।
नारदश्च
ददर्शाथ रत्नभूत्तां क्षितौ शुभाम् ।। ६८ ।।
एक बार अपने
पिता के समीप स्थित पृथ्वी की रत्न-रूप, शुभस्वरूपा उन सती देवी को ब्रह्मा और नारद ने देखा ॥६८॥
सापि तौ
वीक्ष्य मुदिता विनयावनता तदा ।
प्रणनाम सती
देवं ब्रह्माणमथ नारदम् ।।६९।।
तब उन सती ने
भी उन दोनों को देखकर, प्रसन्नता पूर्वक, नम्रता से अपने कन्धों को झुकाकर
ब्रह्मदेव और नारद को प्रणाम किया ।। ६९ ।।
प्रणामान्ते
सतीं वीक्ष्य विनयावनतां विधिः ।
नारदश्च तथैवाशीर्वादमेतमुवाच
ह ।।७० ।।
प्रणाम के
अन्त में विनय से अवनत हुई सती को देखकर ब्रह्मा और नारद ने उसी प्रकार से यह
आशीर्वाद दिया ॥ ७० ॥
त्वामेव यः
कामयते त्वं त्वं कामयसे पतिम् ।
तमाप्नुहि पतिं
देवं सर्वज्ञं जगदीश्वरम् ।। ७१ ।।
, जो
तुम्हारी ही कामना करता है तथा तुम जिस पति की कामना करती हो, तुम उस सबकुछ जानने वाले, जगत् के स्वामी महादेव को
पति के रूप में प्राप्त करो ॥ ७१ ॥
यो नान्यां
जगृहे नापि गृह्णाति न ग्रहीष्यति ।
जायां स ते पतिर्भूयादनन्यसदृशः
शुभे ।।७२।।
हे शुभे !
जिसने अन्य किसी पत्नी को न ग्रहण किया है, न करता है, न करेगा वही (शिव) तुम्हारा
पति होगा, जिसके सदृश्य अन्य कोई नहीं है ॥ ७२ ॥
इत्युक्त्वा सुचिरं
तौ तु स्थित्वा दक्षाश्रये पुनः ।
विसृष्टौ तेन संयातौ
स्वस्थानं द्विजसत्तमाः ।।७३।।
हे
द्विजसत्तमों ! ऐसा कहकर वे दोनों दक्ष के समीप बहुत समय तक रहे, तत्पश्चात् उसके द्वारा विदा किये जाने पर
अपने स्थान को चले गये ॥७३॥
॥
श्रीकालिकापुराणे सत्युत्पत्तिर्नाम अष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥
कालिका पुराण अध्याय ८ संक्षिप्त कथानक
मार्कण्डेय
मुनि ने कहा- इसके अनन्तर ब्रह्माजी ने भी पुनः कामदेव से यह वचन कहा था । हे
तपोधने ! ब्रह्माजी ने योगनिद्रा के वाक्य का स्मरण करके और निश्चय करके ही यह कहा
था ।
ब्रह्माजी ने
कहा- यह योगनिद्रा अवश्य ही भगवान् शम्भु की पत्नी होगी । जितनी भी आपकी शक्ति है
उसी के अनुसार आप भी इन योगनिद्र की सहायता करिए। आप अब अपने गणों के साथ ही वहीं
पर चले जाइए जहां पर भगवान् शंकर समवस्थित हैं । हे कामदेव ! आप भी अपने सखा वसन्त
के साथ वहाँ पर शीघ्र ही गमन करिए जिस स्थान पर शम्भु विराजमान हैं और अहर्निश के
चतुर्थ भाग में नित्य ही जगत् का मोहन करो और शेष तीन भाग में गणों के साथ सदा
भगवान् शम्भु के समीप संस्थित रहो ।
मार्कण्डेय
मुनि ने कहा- इतना कहकर लोकों के स्वामी ब्रह्माजी वहीं पर अन्तर्धान हो गये थे और
कामदेव अपने गणों के सहित उसी समय में भगवान् शम्भु के समीप चला गया था । इसी बीच
में प्रजापति दक्ष चिरकाल तक तपस्या में रत होता हुआ बहुत प्रकार के नियमों से
सुन्दर व्रतधारी होकर देवी की समाराधना में निरत गया था।
हे मुनि
सत्तमों! फिर नियमों से युक्त और योगनिद्रा देवी का यजन करने वाले दक्ष प्रजापति
के समक्ष में चण्डिका देवी प्रत्यक्ष हुई थी। इसके अनन्तर प्रजापति दक्ष प्रत्यक्ष
रूप से जगन्मयी विष्णुमाया का दर्शन प्राप्त करके अपने आपको कृतकृत्य अर्थात्
पूर्णतया सफल मानने लगा था ।
अब भगवती के
रूप का वर्णन किया जाता है कि- वह देवी बालिका परम स्त्रिग्ध,
कृष्ण वर्ण के संयुत, पीन (स्थूल) और उन्नत स्तनों वाली थी। उसकी चार भुजायें थीं
तथा परमाधिक सुन्दर उसका मुख था और नीलकमल को धारण करने वाली परमशुभ थी । वरदान
तथा अभयदान देने वाली, हाथ में खड्ग धारण करती हुई सभी गुणों से समन्विता थी ।
उसके नयन थोड़ी रक्तिमा लिए हुए थे और सुन्दर और खुले हुए केशों वाली थीं एवं परम
मनोहर थीं ।
प्रजापति दक्ष
ने उनका दर्शन प्राप्त करके परम प्रीति से युक्त होकर विनम्रता उस देवी की स्तुति
की थी।
मार्कण्डेय
मुनि ने कहा - इस रीति से प्रयत आत्मा वाले दक्ष के द्वारा स्तुति की गई महामाया
दक्ष से बोली, यद्यपि उस दक्ष के अभीष्ट को स्वयं जानती हुई भी थी तथापि देवी ने उससे पूछा
था ।
भगवती ने कहा-
हे दक्ष! आपके द्वारा अत्यधिक की गई इस मेरी भक्ति से मैं आपसे परम प्रसन्न हूँ ।
अब तुम वरदान का वरण कर लो जो भी आपका अभीप्सित हो वह मैं स्वयं ही तुझे दे दूंगी।
हे प्रजापते ! आपके नियम से, तपों से और आपकी स्तुतियों से मैं बहुत अधिक प्रसन्न हो गयी
हूँ । आप वरदान का वरण करो मैं उसी वर को दे दूँगी ।
दक्ष ने कहा-
हे जगन्मयि ! हे महामाये ! यदि आप मुझे वरदान देने वाली हैं तो आप ही स्वयं मेरी
पुत्री होकर भगवान् शंकर की पत्नी बन जाइए । हे देवि! यह वर केवल मेरा ही नहीं है
अपितु समस्त जगती का है। हे प्रजेश्वरि ! यह वर लोकों के ईश ब्रह्माजी का है तथा
भगवान् विष्णु का है और भगवान् शिव का भी है।
देवी ने कहा-
हे प्रजापते ! मैं आपकी पुत्री होकर आपकी जाया (पत्नी) में जन्म धारण करने वाली
होऊँगी तथा भगवान् शंकर की पत्नी हो जाऊँगी और इसमें विलम्ब नहीं होगा । जिस समय
से आप फिर मेरे विषय में मन्द आदर वाले हो जाओगे तब मैं सुखिनी भी अथवा तुरन्त ही
अपने देह का त्याग कर दूँगी । हे प्रजापते ! यह वर प्रतिसर्ग में आपको दे दिया है
कि मैं आपकी सुता होकर भगवान् हर की प्रिया होऊँगा । हे प्रजापते ! मैं महादेव को
उस प्रकार से सम्मोहित करूँगी कि वे प्रतिसर्ग में निराकुल मोह को समाप्त करेंगे ।
मार्कण्डेय
मुनि ने कहा- इस प्रकार से प्रजापति दक्ष से महामाया ने कहा और इसके उपरान्त वह
देवी भली-भाँति दक्ष के देखते-देखते ही वहीं पर अन्तर्हित हो गई थीं। उस महामाया
के अन्तर्धान हो जाने पर प्रजापति दक्ष की अपने आश्रम को चले गए और उन्होंने परम
आनन्द प्राप्त किया था कि महामाया उनकी पुत्री होकर जन्म धारण करेगी। इसके अनन्तर
बिना ही स्त्री के संगम के उन्होंने प्रजा का उत्पादन किया था । संकल्प,
अविर्भावों के द्वारा तथा मन से और चिन्तन के द्वारा ही
प्रजोत्पादन किया था । हे द्विज श्रेष्ठों ! वहाँ पर उनके बहुत से पुत्र समुत्पन्न
हुए और वे सब देवर्षि नारदजी के उपदेश से इस पृथ्वी पर भ्रमण किया करते हैं। उनके
बार-बार जो पुत्र उत्पन्न हुए थे वे सभी अपने भाइयों के ही मार्ग पर नारद जी के
वचन से चले गये थे ।
हे
द्विजोत्तमों! आप लोग सभी पृथ्वी मण्डल में सृष्टि के करने वाले हैं । यही देवर्षि
नारद का वाक्य था जिसके द्वारा दक्ष पुत्र प्रेरित किए गए थे । वे आज तक भी इस
पृथ्वी पर भ्रमण करते हुए वहीं वापिस हुए हैं।
इसके अनन्तर
मैथुन से समुत्पन्न होने वाली प्रजा का सम्पादन करने के लिए प्रजापति दक्ष ने वीरण
की पुत्री के साथ विवाह किया था जो कि परम सुन्दर कन्या थी । हे द्विजसत्तमो !
उसका नाम वीरणी था और अस्किनी यह भी था । उसमें सब प्रजापति का प्रथम संकल्प हुआ ।
हे द्विजोत्तमो ! उस समय में उसमें सद्योजाता महामाया हुई। उसके जन्म होते ही
प्रजापति अत्यन्त प्रसन्न हुआ था । उसको तेज से उज्जवला देखकर उस समय में उसने
(दक्ष ) यह वही है, ऐसा मान लिया था । जिस समय में वह समुत्पन्न हुई थी,
पुष्पों की वर्षा आकाश से हुई थी और मेघों जल वृष्टि की थी।
उस अवसर पर सभी दिशाऐं उसके जन्म धारण करने पर परम शान्त समुद्गत हो गयी थीं। आकाश
में गमन करके देवगणों ने परमशुभ वाद्यों को बजाया था । हे नरोत्तमो ! उस सती के
समुत्पन्न होने पर शान्त अग्नियाँ भी प्रज्ज्वलित हो गयी थीं । वीरणी के द्वारा
लक्षित दक्ष प्रजापति ने उस जगदीश्वरी का दर्शन प्राप्त करके महामाया को परमार्थिक
भक्ति की भावना से तोषित किया था ।
मार्कण्डेय
मुनि ने कहा- महान् आत्मा वाले दक्ष के द्वारा इस रीति से स्तुति की गयी ।
जगन्माता उस अवसर पर उसी भाँति दक्ष प्रजापति से बोली जैसे माता सुनती ही नहीं हो
। वहाँ पर स्थित सबको सम्मोहित करके जिस तरह से दक्ष वह सुनता है उस प्रकार अन्य
माया से नहीं श्रवण करता है उस समय में अम्बिका ने कहा । हे मुनिसत्तम! जिसके लिए
पूर्व भी मेरी आराधना की थी वह आपका अभिष्ट कार्य सिद्ध हो गया है।
मार्कण्डेय
मुनि ने कहा- इस प्रकार से कहकर उस समय में देवी ने अपनी माया से दक्ष को समझाया
था और फिर वह शैशव भाव में समास्थित होकर जननी के समीप रोदन करने लगी थी। इसके
अनन्तर वीरणी ने बड़े ही यत्न से यथोचित रूप से सुसंस्कार करके शिशु के पालन की
विधि से उनको स्तन दिया था अर्थात् शगुन का दुग्ध पिलाया था । इसके अनन्तर वीरणी
के द्वारा पालित की गयी थी तथा महात्मा दक्ष के द्वारा शुक्ल पक्ष का चन्द्रमा जिस
तरह से प्रतिदिन वृद्धि वाला हुआ करता है उसी भाँति वह बड़ी हो गयी थी । हे द्विज
श्रेष्ठों ! उस देवी में सब सद्गुणों ने प्रवेश कर लिया था जिस तरह से चन्द्रमा
में शैशव में भी समस्त मनोहर कलायें प्रवेश किया करती हैं।
वह निज भाव से
जिस समय में सखियों के मध्य गमन करके रमण करती थी । वह जिस समय में गीतों का गान
करती है जो कि बचपन के लिए समुचित थे उस समय से स्मरमानसा वह उग्रस्थाणु,
हर और रुद्र इन नामों का स्मरण किया करती थी । हे द्विज
सत्तमों! दक्ष प्रजापति ने उस बालिका स्वरूप में स्थित देवी का 'सती' यह नाम रखा था। जो कि समस्त गुणों के द्वारा सत्व से भी और
तप से भी परम प्रशस्ता थी । दक्ष और वीरणी दोनों की प्रतिदिन अनुपम करुणा बढ़ रही
थी । उन दोनों दक्ष और वीरणी की करुणा की वृद्धि का कारण यही था कि वह सती बचपन
में ही परमभक्ता थी अतएव उन दोनों की बारम्बार नित्य करुणा की वृद्धि हो रही थी ।
हे नरोत्तमों! वह समस्त परमसुन्दर गुणों से समाक्रान्त थी और सदा ही नवशालिनी थी
अतएव उसने (सती ने अपने माता-पिता को परमाधिक सन्तोष दिया था अर्थात् वे अतीव
सन्तुष्ट थे । इसके अनन्तर एक बार ऐसी घटना घटित हुई थी कि उस सती को अपने पिता
दक्ष के पार्श्व में समय स्थित हुई को ब्रह्मा, नारद इन दोनों ने देखा था जो कि इस भूमण्डल में परम शुभा और
रत्न भूता थी ।
वह सती भी उन
दोनों का दर्शन प्राप्त करके समुत्पन्न हुई थी और उस समय विनम्रता से अवनत हो गयी
थी। इसके अनन्तर उस सती ने देव ब्रह्माजी और देवर्षि ने उसी सती को प्रणाम किया था
। प्रणाम करने के अन्त में ब्रह्माजी ने उस सती को विनय से अवनत स्वरूप का दर्शन
किया था । तब नारदजी ने उस सती को यह आशीर्वाद कहा था कि जो तुम्हारी प्राप्ति की
कामना करता है और जिसको तुम अपना पति बनाने की कामना किया करती हो उन सर्वज्ञ
जगदीश्वर देव को अपने पति के स्वरूप में प्राप्त करो। जो अन्य किसी भी नारी को
ग्रहण करने वाले नहीं हुए थे और न ग्रहण करते हैं तथा अन्य जाया को ग्रहण करेंगे
भी नहीं । हे शुभे ! वही आपके पति होवें, जो अनन्य सदृश हैं अर्थात् जिनके सरीखा अन्य कोई भी नहीं है
। इतना कहकर वे दोनों (ब्रह्मा और नारद) फिर दक्ष प्रजापति के आश्रय में स्थित
होकर हे द्विजसत्तमो ! उस दक्ष के द्वारा पूजित किए गए थे और वे दोनों अपने स्थान
पर चले गए थे ।
॥
श्रीकालिकापुराण में सतीउत्पत्ति नामक आठवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥८॥
आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 9
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