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- कालिका पुराण अध्याय ८
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- काली स्तुति
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- काली स्तुति
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कालिका पुराण अध्याय ५
कालिका पुराण अध्याय ५
Kalika puran chapter 5
कालिकापुराणम्
पञ्चमोऽध्यायः कालीस्तुतिः
अथ कालिका
पुराण अध्याय ५
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
अथ ब्रह्मा तदोवाच
दक्षाय सुमहात्मने ।
मरीचिप्रमुखेभ्यश्च
वचनञ्चेदमञ्जसा ।।१।।
मार्कण्डेय
बोले- इसके बाद तब ब्रह्माजी ने महात्मा दक्ष और मरीचि आदि ऋषियों से यह वचन शीघ्र
कहा ॥१॥
।। ब्रह्मोवाच
।।
भवित्री
शम्भुपत्नी का का तं सन्मोहयिष्यति ।
इति
सञ्चिन्तयन् कान्तां न स्थिरीकर्तुमुत्सहे ।। २ ।।
कौन शिव की
पत्नी होवेगी? कौन उन्हें मोहित कर सकेगी? ऐसा सोचते हुये मैं किसी स्त्री का निश्चय नहीं कर पा रहा
हूँ ।। २ ।।
विष्णुमायामृते
दक्ष महामायां जगन्मयीम् ।
नान्या
तन्मोहकर्त्री स्यात् सन्ध्यासावित्र्युमामृते ।।३।।
हे दक्ष!
महामाया,
जगत्स्वरूपा, सन्ध्या, सावित्री, उमा, विष्णुमाया के अतिरिक्त अन्य कोई स्त्री उन्हें मोहित नहीं
कर सकती ।।३।।
तस्मादहं
विष्णुमायां योगनिद्रां जगत्प्रसूम् ।
स्तौमि सा
चारुरूपेण शङ्करं मोहयिष्यति ।।४।।
इसलिए मैं
विष्णुमाया जगत्जननी योगनिद्रा की स्तुति करता हूँ । वही अपने सुन्दर रूप से शङ्कर
को मोहित कर सकेंगी ॥४॥
भवांस्तु दक्ष
तामेव यजतां विश्वरूपिणीम् ।
यथा तव सुता
भूत्वा हरजाया भविष्यति ॥५॥
हे दक्ष तुम
भी विश्वरूपधारिणी उनका ही यजन करो, जिससे वे तुम्हारी पुत्री होकर शिव पत्नी होवें ॥५॥
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
एवं वचनमाकर्ण्य
ब्रह्मण: परमात्मनः ।
उवाच दक्षः स्रष्टारं
मरीच्यादिभिरीरितः ।।६।।
मार्कण्डेय
बोले- मरीचि आदि परमात्मा ब्रह्मदेव के कहे गये वचनों को सुनकर दक्ष ने
सृष्टिकर्ता ब्रह्मा से कहा- ॥ ६ ॥
।। दक्ष उवाच
।।
यथात्थ
भगवंस्तथ्यं त्वं लोकेश जगद्धितम् ।
तत्
करिष्यामहे सम्यग् यथा स्यात्तन्मनोहरा ।।७।।
दक्ष बोले- हे
लोकेश ! आपने संसार के हित के लिए यथोचित कहा है । मैं भलीभाँति वैसा ही करूंगा
जिससे वे मनोहारिणी उत्पन्न होवें ॥७॥
तथा तथा
भविष्यामि यथा मम सुता स्वयम् ।
विष्णुमाया
भवेत् पत्नी भूत्वा शम्भोर्महात्मनः ॥८॥
वैसा-वैसा ही
होऊँगा,
जिससे विष्णुमाया महात्मा शङ्कर की पत्नी होकर स्वयं मेरी
पुत्री होवें ॥८॥
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
एवमेवेति तैरुक्तं
मरीचिप्रमुखैस्तदा ।
यष्टुं दक्षः
समारेभे महामायां जगन्मयीम् ।।९।।
क्षीरोदोत्तरतीरस्थस्तां
कृत्वा हृदयस्थिताम् ।
तपस्तप्तुं
समारेभे द्रष्टुं प्रत्यक्षतोऽम्बिकाम् ॥१०॥
मार्कण्डेय
बोले- मरीचि आदि उन ऋषियों के द्वारा इसी प्रकार कहे जाने पर दक्ष ने जगन्मयी
महामाया का यजन करना प्रारम्भ किया, तथा क्षीर-सिन्धु के उत्तरी तट पर स्थित हो,
उन्हें हृदय में स्थित कर, उन अम्बिका देवी के प्रत्यक्ष दर्शन हेतु तपस्या करना
प्रारम्भ किया ॥९-१० ॥
दीव्यवर्षेण
दक्षोऽपि सहस्राणां त्रयः समाः ।
तपश्चचार नियतः
संयतात्मा दृढव्रतः ।। ११ ।।
दृढ़वती दक्ष
ने भी नियत और संयतात्मा होकर दिव्य तीन हजार वर्षों (१०८०००० मानव वर्षों) तक
तपस्या किया ॥ ११॥
मारुताशी
निराहारो जलाहारी च पर्णभुक् ।
एवं निनाय
तत्कालं चिन्तयंस्तां जगन्मयीम् ।।१२।।
उस समय (अवधि)
को उन्होंने वायु भोजन कर (हवा पीकर ), निराहार रहकर, जलाहार कर (पानी पीकर), पत्तों को खाकर, जगन्मयी, अम्बिका का चिन्तन करते हुए बिता दिया ॥ १२ ॥
गते दक्षे तपः
कर्तुं ब्रह्मा सर्वजगत्पतिः ।
जगाम मन्दराभ्यासं
पुण्यात्पुण्यतरं वरम् ।।१३।।
दक्षप्रजापति
के तपस्या हेतु चले जाने पर, सारे संसार के स्वामी ब्रह्मा भी पवित्रतम और श्रेष्ठ स्थान
मन्दराचल पर चले गये ॥१३॥
तत्र गत्वा
जगद्धात्रीं विष्णुमायां जगन्मयीम् ।
तुष्टाव
वाग्भिरर्थ्याभिरेकतानं शतं समाः ।। १४ ।।
वहाँ जाकर सौ
वर्षों तक नितान्त ध्यान मग्न हो उन्होंने जगन्मयी, संसार का पालन करने वाली, विष्णुमाया की अर्थभरी वाणी से स्तुति की ॥१४॥
कालिका पुराण अध्याय ५
अब इससे आगे
श्लोक १५ से ५० में ब्रह्मप्रोक्ता कालीस्तुति को दिया गया है इसे पढ़ने के लिए
क्लिक करें-
अब इससे आगे
कालिका पुराण अध्याय ५
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
एवं
संस्तूयमाना सा योगनिद्रा विरिञ्चिना ।
आविर्बभूव प्रत्यक्षं
ब्रह्मण: परमात्मनः ।।५१॥
मार्कण्डेय
बोले- इस प्रकार से ब्रह्मा द्वारा स्तुति किये जाने पर वह योगनिद्रा देवी
परमात्मा ब्रह्मा के सम्मुख प्रत्यक्षरूप में आविर्भूत हुईं ॥ ५१ ॥
स्त्रिग्धाञ्जनद्युतिश्चारुरूपोत्तुङगा
चतुर्भुजा ।
सिंहस्था
खड्गनीलाब्जहस्ता मुक्तकचोत्करा ।। ५२ ।।
उनकी चिकने
अञ्जन के समान कांति थी, वे सुन्दररूप वाली, ऊँची, चार भुजाओं से युक्त, सिंह पर सवार थीं। उन्होंने हाथ में खड्ग और नीलकमल ले रखा था
तथा उनके केश खुले हुये थे ॥५२॥
समक्षमथ तां वीक्ष्य
स्रष्टा सर्वजगद्गुरुः ।
भक्त्या
विनम्रतुङ्गा सस्तुष्टाव च ननाम च ।।५३।।
इस प्रकार उसे
सामने उपस्थित देखकर समस्त संसार के पूजनीय सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने भक्तिपूर्वक
अपने ऊँचे कंधे को झुकाकर भगवती को प्रणाम किया तथा उनकी स्तुति की ॥ ५३ ॥
कालिका पुराण अध्याय ५
अब इससे आगे
श्लोक ५४ से ५९ में ब्रह्मकृत काली स्तवन को दिया गया है इसे पढ़ने के लिए क्लिक
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अब इससे आगे
कालिका पुराण
अध्याय ५
।। मार्कण्डेय उवाच ।।
इत्याकर्ण्य
वचस्तस्य काली लोकविमोहिनी ।
ब्रह्माणमूचे जगतां
स्रष्टारं घनशब्दवत् ।। ६० ।।
मार्कण्डेय
बोले- उनके इस वचन को सुनकर लोक को मोहने वाली काली ने मेघ की तरह गम्भीर वाणी में
जगत्स्रष्टा ब्रह्मा से कहा- ॥६०॥
।। देव्युवाच
।।
ब्रह्मन् किमर्थं
भवता स्तुताहमवधारय ।
उच्यतां
यदधृष्योऽस्ति तच्छीघ्रं पुरतो मम ।। ६१ ।।
देवी बोलीं-
हे ब्रह्मदेव! आपके द्वारा किसलिए मेरी स्तुति की गई है,
बताइये। जो कुछ आपका अभीष्ट हो,
उसे शीघ्र ही मेरे सम्मुख कहिये ॥६१॥
प्रत्यक्षं
मयि जातायां सिद्धिः कार्यस्य निश्चिता ।
तस्मात्ते
वाञ्छितं ब्रूहि यत् करिष्यामि भाविता ।। ६२ ।।
मेरे
प्रत्यक्ष हो जाने पर कार्यसिद्धि निश्चित होती है। इसलिए आप अपना वांछित बताइये
जो मैं आपके अनुकूल करूंगी ॥ ६२ ॥
।। ब्रह्मोवाच
।।
एकश्चरति भूतेशो
न द्वितीयां समीहते ।
तं मोहय यथा
दारान् स्वयं स च जिघृक्षति ।। ६३ ।।
भूतों के
स्वामी भगवान् शङ्कर अकेले ही विचरते हैं। वे किसी अन्य जीवन- सङ्गिनी की इच्छा
नहीं रखते, आप उन्हें मोहित कीजिए, जिससे वे स्त्री की इच्छा करने लगें ॥६३॥
त्वदृते तस्य
नो काचिद् भविष्यति मनोहरा ।
तस्मात्त्वमेकरूपेण
भवस्य भव मोहनी ।। ६४ ।।
आपके अतिरिक्त
कोई भी उनके मन को मोहने वाली नहीं हो सकती । अतएव आप अपने एक रूप से भगवान् शङ्कर
का मन मोहने वाली होओ ॥ ६४ ॥
यथा धृतशरीरा
त्वं लक्ष्मीरूपेण केशवम् ।
आमोदयसि
विश्वस्य हितायैतं तथा कुरु ।। ६५ ।।
आप जिस प्रकार
लक्ष्मीरूप में शरीर धारण कर विष्णु को प्रसन्न करती हो,
उसी प्रकार विश्व के कल्याण हेतु इन (शिव) के साथ भी करो ॥६५
॥
कान्ताभिलाषमात्रं
मे निनिन्द वृषभध्वजः ।
कथं पुनः स
वनितां स्वेच्छया संग्रहीष्यति ।। ६६ ।।
मेरे द्वारा
स्त्री की अभिलाषा मात्र किये जाने पर जिन वृषभध्वज शङ्कर ने मेरी निन्दा की थी,
अब वे अपनी इच्छा से स्वयं स्त्री- ग्रहण कैसे करेंगे ?
।। ६६ ।।
हरेऽगृहीतकान्ते
तु कथं सृष्टिः प्रवर्तते ।
आद्यन्तमध्यहेतौ
च तस्मिञ्छम्भौ विरागिणि ।।६७ ।।
शिव द्वारा
पत्नी ग्रहण के बिना सृष्टि कैसे चलेगी? यदि आदि, मध्य और अन्त के कारणभूत शिव ही विरागी हो जायेंगे ॥
६७ ॥
इति चिन्तापरो
नाहं त्वदन्यं शरणन्त्विह ।
लव्धवांस्तेन
विश्वस्य हितायैतत् कुरुस्व मे ।। ६८ ।।
इसी चिन्ता से
मैं किसी और की शरण में न जाकर आपकी शरण में आया हूँ । अत: विश्व के कल्याण के लिए
आप ऐसा ही कीजिए ॥६८॥
न विष्णुरस्य
मोहाय न लक्ष्मीर्न मनोभवः ।
न चाप्यहं
जगन्मातस्तस्मात् त्वं मोहयेश्वरम् ।।६९।।
हे जगन्माता!
न विष्णु इनको मोहित करने में समर्थ हैं, न लक्ष्मी, न कामदेव, न मैं अतः आप ही शिव को मोहित कीजिये ॥ ६९ ॥
कीर्तिस्त्वं
सर्वभूतानां यथा त्वं ह्रीर्यतात्मनाम् ।
यथा विष्णोः
प्रियैका त्वं तथा सन्मोहयेश्वरम् ।।७० ।।
सभी प्राणियों
में जिस प्रकार कीर्तिरूप से, योगियों की (ह्रीं) लज्जा रूप से,
विष्णु का उनकी पत्नी लक्ष्मी रूप से मोहन करती हो,
उसी प्रकार पत्नीत्वेन शिव को भी आप मोहित करो ॥७०॥
।। मार्कण्डेय
उवाच ।।
अथ ब्रह्माणमाभाष्य
काली योगमयी पुनः।
यदुवाच
महाभागास्तच्छृण्वन्तु द्विजोत्तमाः ।।७१ ।।
मार्कण्डेय
बोले- हे द्विजोतमों! इसके बाद योगमयी काली ने पुनः ब्रह्मा से जो कहा - हे
महानुभावों आप उसे सुनिये ॥ ७१ ॥
॥
श्रीकालिकापुराणे कालीस्तुतिर्नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥
॥
श्रीकालिकापुराण में कालस्तुति नामक पाँचवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ ५ ॥
आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 6
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