कालिका पुराण अध्याय ४

कालिका पुराण अध्याय ४   

कालिका पुराण अध्याय ४ में ब्रह्मा के निःश्वास से वसन्त की कामदेव के सहचर रूप में उत्तपत्ति एवं उसका सौन्दर्य का वर्णन है। 

कालिका पुराण अध्याय ४

कालिकापुराणम् चतुर्थोऽध्यायः वसन्तोत्पत्तिः

कालिका पुराण अध्याय ४

Kalika puran chapter 4

कालिका पुराण चौथा अध्याय

अथ कालिका पुराण अध्याय ४   

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

ततः प्रभृति धातापि यदैवान्तर्हितः पुरा ।

चिन्तयामास सततं शम्भुवाक्यविनिंदितः ।। १ ।।

मार्कण्डेय बोले- तब ब्रह्मा जी जो पहले ही शङ्कर के वाक्य से निन्दित हो अन्तर्हित हो गये थे, सोचने लगे॥१॥

कान्ताभिलाषमात्रं मे दृष्ट्वा शम्भुरगर्हयत् ।

मुनीनां पुरतः कस्मात् स दारान् संग्रहीष्यति ।।२।।

मेरे द्वारा पत्नीप्राप्ति की इच्छा मात्र ही देखकर ऋषियों के सम्मुख जिस शङ्कर ने मुझे अपमानित किया था, अब वह स्वयं दारग्रहण (विवाह) कैसे करेंगे? ॥२॥

का वा भवित्री तंज्जाया का च तन्मनसि स्थिता ।

योगमार्गमवज्ञाप्य तस्य मोहं करिष्यति ।।३।।

उनकी पत्नी कौन होगी? कौन उनके मन में स्थित हो योगमार्ग की अवज्ञा कर उनको मोहित करेगी ? ॥३॥

मन्मथोऽपि समर्थो नो भविष्यत्यस्य मोहने ।

नितान्तयोगी वामानां नामापि सहते न सः ॥४॥

कामदेव भी उनको मोहित करने में समर्थ नहीं होगा । वे अत्यन्त योगी हैं, उन्हें स्त्रियों का नाम भी सहन नहीं होता॥४॥

अगृहीतेषु दारेषु हरेषु कथमादितः ।

मध्येऽन्ते च भवेत् सृष्टिस्तद्वधो न न्यकारितः ॥५॥

यदि भगवान् शङ्कर दारपरिग्रहण (विवाह) नहीं करेंगे और सृष्टि का नाश नहीं करेंगे तो आदि-मध्य-अन्त्य क्रम से सृष्टि कैसे होगी ? ॥ ५ ॥

केचिद्भविष्यन्ति भुवि मया बध्या महाबलाः ।

केचिद्विष्णोबाधनीयाः केचिच्छम्भोरुपायतः ॥ ६ ॥

पृथ्वी पर कुछ महाबली मेरे द्वारा मारे जायेंगे, कुछ विष्णु द्वारा रोके जायेंगे तथा कुछ को भगवान् शङ्कर अपने उपायों से नियंत्रित करेंगे ॥६॥

संसारविमुखे शम्भौ तद्विकारविरागिणो ।

अस्मादृते न कर्मान्यत् करिष्यति न संशयः ।।७।।

शम्भु के संसार और उसके विकार से अत्यन्त विमुख तथा विरागी हो जाने पर हम लोगों के अतिरिक्त कोई भी इन कर्मों को नहीं कर सकता। इसमें कोई संशय नहीं है ॥७॥

चिन्तयिन्निति लोकेशो ब्रह्मा लोकपितामहः ।

पुनर्द्ददर्श भूमिस्थान् दक्षादीन् वियति स्थितः ।।८।।

ऐसा सोचकर स्वयं अन्तरिक्ष में स्थित हुये, लोकों के स्वामी, संसार के पितामह ब्रह्मा ने पुनः दक्ष आदि भूमिस्थित प्रजापतियों को देखा ॥८॥

रतिद्वितीयं मदनं मोदयुक्तं निरीक्ष्य च ।

पुनस्तत्र गतःप्राह सान्त्वयन् पुष्पसायकम् ।।९।।

और रति सहित प्रसन्नचित्त कामदेव को देखकर पुनः उसके समीप जाकर उस पुष्पसायक (कामदेव) को सान्त्वना देते हुये बोले ॥९॥

।। ब्रह्मोवाच ।।

अनया सहचारिण्या शोभसे त्वं मनोभव ।

एषा च भवता पत्या युक्ता संशोभते भृशम् ।।१०।।

ब्रह्मा बोले - हे कामदेव ! तुम इस सहचारिणी के साथ शोभायमान हो रहे हो तथा यह भी तुम्हारे जैसे पति को प्राप्त कर अत्यधिक शोभा को प्राप्त कर रही है ॥ १०॥

यथा श्रिया हृषीकेशो यथा तेन हरिप्रिया ।

क्षणदा विधुना युक्ता तया युक्तो यथा विधुः ।।११।।

तथैव युवयोः शोभा दाम्पत्यञ्च पुरस्कृतम् ।

अतस्त्वं जगतः केतुर्विश्वकेतुर्भविष्यसि ।।१२।।

जैसे लक्ष्मी के साथ विष्णु और उनके साथ लक्ष्मी एवं जैसे चन्द्रमा के साथ रात्रि तथा रात्रि के साथ चन्द्रमा की शोभा होती है, वैसी ही तुम दोनों, दम्पति की शोभा होगी और संसार के प्रधान तुम, सबके प्रधान होओगे ॥११-१२ ॥

जगद्धिताय वत्स त्वं मोहयस्व पिनाकिनम् ।

यथा सुखमनाः शम्भुः कुर्य्याद्दारपरिग्रहम् ।।१३।।

हे वत्स ! तुम संसार के कल्याण के लिए शङ्कर को मोहित करो जिससे वे सुखी मन से दारपरिग्रहण करें ॥१३॥

विजनेऽस्मिन् वनोद्देशे पर्वतेषु सरित्सु च ।

यत्र यत्र प्रयातीशस्तत्रतत्रानयासह ।। १४ ।।

मोहयस्व यतात्मानं वनिताविमुखं हरम् ।

त्वदृते विद्यते नान्यः कश्चिदस्य विमोहकः ।। १५ ।।

भगवान् शङ्कर निर्जन वन प्रदेश में, पर्वतों पर, नदी-तटों पर जहाँ-जहाँ जाँय, वहाँ-वहाँ तुम इस रति के साथ जाकर स्त्रीविमुख, नियतात्मा भगवान् शङ्कर को मोहित करो। तुम्हारे अतिरिक्त कोई अन्य नहीं है जो इन शिव को मोहित कर सके ॥१५॥

भूते हरे सानुरागे भवतोऽपि मनोभव ।

शापोपशान्तिर्भविता तस्मादात्महितं कुरु ।।१६।।

हे कामदेव ! शङ्कर के सानुराग हो जाने पर तुम्हारे भी शाप की शान्ति हो जायेगी । इस प्रकार तुम अपना ही कल्याण करो ॥१६॥

सानुरागो वरारोहां यदीच्छति मनोभव ।

तदा तवोपभोगाय स त्वां सम्भावयिष्यति ।।१७।।

हे कामदेव! अनुराग से भरकर जब वे पत्नी की इच्छा करेंगे, तब तुम्हारे( काम के) उपभोग के लिए वे तुम्हें भी उत्पन्न करेंगे ॥१७॥

तस्माज्जगद्धिताय त्वं यतस्व हरमोहने ।

विश्वस्य भव केतुस्त्वं मोहयित्वा महेश्वरम् ।। १८ ।।

इसलिए संसार के कल्याण के लिए तुम शङ्कर को मोहित करने के लिए प्रयत्नशील होओ। उन महादेव को मोहित कर तुम विश्व के लिए विशिष्ट व्यक्ति बनो ॥ १८॥

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

इति श्रुत्वा वचस्तस्य ब्रह्मणः परमात्मनः ।

उवाच मन्मथस्तथ्यं ब्रह्माणं जगतो हितम् ।। १९ ।।

मार्कण्डेय बोले- परमात्मा ब्रह्मा के इन वचनों को सुनकर संसार के हित में कामदेव ने ब्रह्मा से यह तथ्य कहा ॥ १९ ॥

।। मन्मथ उवाच ।।

करिष्येऽहं तव विभो वचनाच्छम्भुमोहनम् ।

किन्तु योषिन्महास्त्रं मे तत्र कान्तां प्रभो सृज ।। २० ।।

मन्मथ कामदेव बोले- हे विभो ! मैं आपके वचनों के अनुसार भगवान् शङ्कर को मोहित करूँगा, किन्तु इस दृष्टि से स्त्रियाँ मेरा महान् अस्त्र हैं । अतः हे प्रभो! आप पहले उनके लिए किसी स्त्री की सृष्टि कीजिए ॥२०॥

मया सम्मोहिते शम्भौ यया तस्यानुमोहनम् ।

कार्यं मनोरमां रामां तां निदेशय लोकभृत् ।। २१ ।।

हे लोकभृत्! मेरे द्वारा सम्मोहित किये गये शङ्कर जिसके द्वारा अनुमोहित (आकर्षित) किये जायेंगे, उनके लिए ऐसी सुन्दरी का निर्माण कर उसे निर्देशित करें ॥ २१॥

तामहं नहि पश्यामि यया तस्यानुमोहनम् ।

कर्तव्यमधुना धातस्तत्रोपायं तथा कुरु ।।२२।।

जिसके साथ उनका आकर्षण हो, ऐसी किसी स्त्री को मैं नहीं देख पा रहा हूँ । हे धाता! आपको इस समय जो करने योग्य उपाय हो, वह कीजिये ॥ २२॥

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

एवं वादिनि कन्दर्पे धाता लोकपितामहः ।

कुर्यां सन्मोहनीं योषामिति चिन्तां जगाम ह ।। २३ ।।

मार्कण्डेय बोले- इस प्रकार कामदेव द्वारा कहे जाने पर, धाता, संसार के पितामह ब्रह्मा, सम्मोहिनी स्त्री की सृष्टि करनी चाहिए, ऐसी चिन्ता करने लगे ॥२३॥

चिन्ताविष्टस्य तस्याथ निःश्वासो यो विनिःसृतः ।

तस्माद्वसन्तः संजातः पुष्पव्रातविभूषितः ।। २४ ।।

उस समय चिन्तित ब्रह्मा का जो निःश्वास निकला, उससे पुष्पसमूह से सुशोभित वसन्त उत्पन्न हुआ ॥२४॥

कालिका पुराण चौथा अध्याय - वसन्तरूप वर्णन

चूताङ्कुरान् मुकुलितान् विभ्रद्भ्रमरसंहतिम् ।

किंशुकान् सारसान् रेजे प्रफुल्ल इव पादपाः ।। २५ ।।

वह भौरों के समूह से सुशोभित खिली हुई आम की मञ्जरियों तथा सरस कोपलों से खिले हुये वृक्ष की भाँति शोभायमान हो रहा था ।। २५ ।।

शोणराजीवसंकाशः फुल्लतामरसेक्षणः ।

सन्ध्योदिताखण्डशशिप्रतिमास्यः सुनासिकः ।। २६ ।।

उसके नेत्र खिले हुये लालकमल के समान रसमय, तथा उसकी सन्ध्याकालीन उदीयमान चन्द्रमा के टुकड़े की भाँति सुन्दर थी ॥ २६ ॥

शङ्खवच्छ्रवणावर्तः श्यामकुञ्चितमूर्द्धजः ।

सन्ध्यांशुमालिसदृश-कुण्डलद्वयमण्डितः ।। २७ ।।

उसके कान शङ्ख की भाँति थे । वे काले घुंघराले बालों से युक्त तथा सन्ध्याकालीन सूर्य के समान चमकते हुये दो कुण्डलों से सुशोभित थे ॥२७॥

प्रमत्तमातङ्गगतिर्विस्तीर्णहृदयस्थलः।

पीनस्थूलायतभुजः कठोरकरयुग्मकः ।।२८।।

उसकी गति मतवाले हाथी के समान थी तथा उसका हृदयस्थल विशाल था। उसकी भुजायें मोटी, पुष्ट और विस्तृत थीं। उसके दोनों हाथ कठोर थे ॥ २८॥

सुवृत्तोरुकटीजङ्घः कम्बुग्रीवोन्नतांशकः ।

गूढजत्रुःपीनवक्षाः सम्पूर्णः सर्वलक्षणैः ।। २९ ।।

उसके ऊरु, कमर और जङ्घे सुन्दर गोल (सुडौल) थे। गला शङ्ख के समान सुन्दर तथा कन्धा ऊँचा था । उसकी हँसली ढकी हुई थी, वक्ष स्थल मोटा था एवं वह सभी लक्षणों से परिपूर्ण था ।। २९ ।।

तादृशेऽथ समुत्पन्ने सम्पूर्णे कुसुमाकरे ।

ववौ वायुः स सुरभिः पादपा अपि पुष्पिताः ।। ३० ।।

इस प्रकार से परिपूर्ण बसन्त के उत्पन्न होने पर सुगन्धित वायु बहने लगी तथा वृक्ष भी पुष्पित हो उठे ॥३०॥

पिकाश्च नेदुः शतश: पञ्चमं मधुरस्वनाः ।

प्रफुल्लपद्मा अभवन् सरस्यः पुष्टपुष्कराः ।। ३१ ।।

सैकड़ों कोयलें मधुर पञ्चम स्वर में कूकने लगी तथा सरोवर विकसित कमलों से युक्त हो, खिले हुये कमलों वाले हो गये ॥ ३१ ॥

तमुत्पन्नमवेक्ष्याथ तथा तादृसमुत्तमम् ।

हिरण्यगर्भो मदनं जगाद मधुरं वचः ।। ३२ ।।

उसे उस प्रकार से उत्तम रूप में उत्पन्न हुआ देख, ब्रह्मा जी ने मधुर वाणी में कामदेव से कहा ॥३२॥

।। ब्रह्मोवाच ।।

एष मन्मथ ते मित्रं सदा सहचरो भवन् ।

आनुकूल्यं तव कृते सर्वदैव करिष्यति ॥३३॥

ब्रह्मा बोले- हे कामदेव ! यह तुम्हारा मित्र सदा तुम्हारा सहचर होगा और सदैव तुम्हारे अनुकूल कार्य करेगा ॥३३॥

यथाग्नेः श्वसनो मित्रं सर्वत्रोपकरोति च ।

तथायं भवतो मित्रं सदा त्वामनुयास्यति ।। ३४ ।।

जैसे अग्नि का मित्र वायु सर्वत्र उसका उपकार करता है, उसी प्रकार तुम्हारा यह मित्र सदैव तुम्हारा अनुगमन करेगा॥३४॥

तवानुगमनं कर्म तथा लोकानुरञ्जनम् ।।३५।।

वसतेरन्तहेतुत्वाद्वसन्ताख्यो भवत्वयम् ।

अन्तः में वसने के कारण यह वसन्त नाम को प्राप्त होवेगा तथा यह तुम्हारा अनुगमन एवं लोकों को प्रसन्न करने का कार्य करेगा ॥३५॥

असौ वसन्तः शृङ्गारो वसन्ते मलयानिलः ।

भवन्तु सुहृदो भावाः सदा त्वद्वशवर्तिनः ।। ३६ ।।

यह वसन्त, शृङ्गार रस का साधक होगा तथा वसन्त में मलयाचल की सुगन्धित वायु और इसके भाव, तुम्हारे वशीभूत होने के कारण सदैव तुम्हारे मित्रवत् होंगे ॥ ३६ ॥

विव्वोकाद्यास्तथा हावाश्चतुःषष्टिकलास्तथा ।

कुर्वन्तु रत्याः सौहृद्यं सुहृदस्ते यथा तव ।। ३७।।

उसके विव्वोकादि हाव तथा चौसठ कलायें तुम्हारा सुहृद् होने के कारण रति सुहृदता को भी प्राप्त करायें ॥ ३७॥

एभिः सहचरैः काम वसन्तप्रमुखैर्भवान् ।

अनया सहचारिण्या त्वद्युक्तपरिवारया ।। ३८ ।।

मोहयस्व महादेवं कुरु सृष्टिं सनातनीम् ।

यथेष्टदेशं गच्छ त्वं सर्वैः सहचरैर्वृतः ।

अहं तां भावयिष्यामि यो हरं मोहयिष्यति ।। ३९ ।।

हे कामदेव ! आप अपने वसन्त, शृङ्गार, मलयानिल वायु आदि सहचरों तथा रति जैसी सहचरी से युक्त परिवार के साथ महादेव को मोहित करो। इस प्रकार सनातनी सृष्टि का प्रवर्तन कर अपने सहयोगियों के साथ जहाँ इच्छा हो वहाँ तुम चले जाओ। मैं भी उसे उत्पन्न कराऊँगा जो भगवान् शङ्कर को मोह सके ।। ३८-३९ ।।

एवमुक्तोऽथ मदनः सुरज्येष्ठेन हर्षितः ।

जगाम सगणस्तत्र सपन्यनुचरस्तदा ।। ४० ।।

दक्षं प्रणम्य तान् सर्वान् मानसानभिवाद्य च ।

यत्रास्ति शम्भुर्गतवांस्तत्स्थानं मन्मथस्तदा ।। ४१ ।।

देवताओं के पूज्य ब्रह्मा द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर कामदेव प्रसन्न हुआ, तब अपनी पत्नी, सेवक तथा गणों के सहित वहाँ उपस्थित दक्षादि सभी ब्रह्मा के मानसपुत्रों को प्रणाम कर, जहाँ भगवान् शङ्कर विद्यमान थे, वहीं वह कामदेव भी चला गया ।४०-४१ ॥

तस्मिन् गते सानुचरेऽथ मन्मथे शृङ्गारभावादियुते द्विजोत्तमाः ।

प्रोवाच दक्षं मधुरं पितामहः सार्द्ध मरीच्यत्रिमुखैर्मुनीश्वरैः ।।४२।।

हे द्विजोत्तम! शृङ्गार भावादि से युक्त अपने अनुचरों सहित कामदेव के वहाँ से चले जाने पर पितामह ब्रह्मा ने मरीचि, अत्रि आदि ऋषियों के सहित दक्ष से मधुरवाणी में कहा ॥ ४२ ॥

॥ श्रीकालिकापुराणे वसन्तोत्पत्तिर्नाम चतुर्थोध्यायः ॥४॥

कालिका पुराण अध्याय ४ - संक्षिप्त कथानक

॥ बसन्त आगमन वर्णन ॥

महर्षि मार्कण्डेय ने कहा-तभी से लेकर ब्रह्माजी भी समय-समय में ही परिपीडित होकर चिन्तन किया करते थे कि भगवान् शम्भु ने मेरी केवल कान्ता के प्रति अभिलाषा को ही देखकर मुझे बुरा कह दिया था वही शम्भु अब मुनिगणों के ही समक्ष में दाराओं को किस तरह से ग्रहण करेंगे अथवा कौन सी नारी उन शम्भु की पत्नी होगी और कौन सी नारी है जो उनके मन में स्थान बनाकर अवस्थित हो रही है, जो योग के मार्ग से भ्रष्ट करके उनको मोहित करेगी। उनका मोह न करने में कामदेव भी समर्थ नहीं हो सकेगा । वे तो नितान्त योगी हैं, वे वीरांगनाओं के नाम को भी सहन नहीं किया करते हैं। मध्य और अन्त में सृष्टि होती है उनका वध अन्य कारित नहीं है अर्थात् अन्य किसी के भी द्वारा नहीं किया जा सकता है। इस भूमण्डल में कोई ऐसे होंगे जो महान् बलवान् मेरे द्वारा बाध्य होंवे । कुछ भगवान् विष्णु के वारणीय हैं और उपाय से कुछ शम्भु के हैं। उस सांसारिक भोगों के सुखों से विमुख तथा एकांत विरागी भगवान् शम्भु के विषय में इससे अन्य कोई भी कर्म नहीं करेगा, इसमें संशय नहीं है ।

लोकों के पितामह लोकेश ब्रह्माजी यही चिन्तन् करते हुए ने आकाश में स्थित होते हुए उन्होंने भूमि में स्थित दक्ष आदि को देखा था । रति के साथ मोह से समन्वित कामदेव को देखकर ब्रह्माजी फिर वहाँ पर गए और कामदेव को सन्त्वना देते हुए उससे बोले हे मनोभव अर्थात् कामदेव ! आप इस अपनी सहचारिणी पत्नी रति के साथ में शोभायमान हो रहे हैं और यह भी आपके साथ संयुक्त होकर अत्यधिक शोभित हो रही है। जिस रीति से लक्ष्मी देवी से भगवान् होती है । जैसे चन्द्रमा से रात्रि और निशा से चन्द्र शोभायमान होता है ठीक उसी भाँति आप दोनों की शोभा होती है और आपका दाम्पत्य पुरस्कृत होता है । अतएव आप जगत् के केतु हैं और विश्वकेतु हो जायेंगे । हे वत्स ! अब तुम इस समस्त जगत् के हित सम्पादित करने के लिए पिनाकधारी भगवान् शम्भु को मोहित कर दो जिससे सुख के मन वाले भगवान् शम्भु द्वारा का परिग्रह कर लेवें। किसी भी विजन देश में, स्निग्ध प्रदेश में, पर्वतों पर और सरिताओं में जहाँ-जहाँ पर ईश गमन करें वहाँ-वहाँ पर ही इसके साथ उनको मोहयुक्त कर दो ।

इस वनिता से विमुख भगवान् हर को जो कि पूर्णतया संयत आत्मा वाले हैं मोहित कर दो। तुम्हारे बिना अर्थात् केवल तुमको छोड़कर अन्य कोई भी इन भगवान् शम्भु को विमोहित करनेवाला त्रिभुवन में नहीं है । हे मनोभव! भगवान् हर के सानुराग हो जाने पर अर्थात् दाम्पत्य जीवन के सुखभोगों के अभिलाषी होने पर आपके शाप की भी उपशान्ति हो जायेगी। इस कारण आप इस समय अपना ही हित करो। हे कामदेव ! अनुराग से युक्त होकर जब शम्भु वरारोह की इच्छा करें तो उस अवसर पर तुम्हारे उपभोग के लिए ये तुमको सम्भावित अवश्य ही करेंगे। इसलिए जगत् की भलाई करने के लिए तुम भगवान् हर के मोहन करने के कर्म में पूर्ण यत्न करो । महेश्वर को मोहित करके आप शिव के केतु हो जाओ । ब्रह्माजी के इस वचन का श्रवण करके कामदेव ने ब्रह्माजी से जगत् का हितकारी जो तथ्य था वह कहा था ।

कामदेव ने कहा- हे विभो ! मैं आपकी आज्ञा से अवश्य ही शम्भु का मोहन करूंगा किन्तु हे प्रभो ! पोषित रूपी महान् अस्त्र जो हैं उस कान्ता को मेरे लिए आप सृजित कर दीजिए । मेरे द्वारा शम्भु के सम्मोहित करने पर जिसके द्वारा उसका अनुमोहन करना चाहिए, हे लोकभृत् ! उस परम रमणीय रामा का आप निदेशन कीजिए। उस प्रकार की रामा को मैं नहीं देख रहा हूँ जिसके द्वारा उनका अनुमोहन होवे । अब हे धाता ! कर्तव्य यही है कि अब कुछ उसी तरह का उपाय करें ।

मार्कण्डेय मुनि ने कहा- कामदेव के इस प्रकार से कहने पर लोकों के पितामह ब्रह्माजी ने यही चिन्ता की थी कि मुझे ऐसी सम्मोहनी पोषा (नारी) उत्पन्न करनी चाहिए। इस चिन्ता में समाविष्ट उन ब्रह्माजी को जो इसके अनन्तर निःश्वास विनिःसृत हुआ था उसी से बसन्त ने जन्म धारण किया था जो कि पुष्पों के समुदाय से विभूषित था । भ्रमरों की संहति (समूह) को धारण करने वाले मुकुलित आम्र के अंकुरों को सरस किंशुकों (ढाक के पुष्प ) को साथ लिए हुए प्रफुल्लित पादप (वृक्ष) की भाँति शोभित हुआ था ।

उसी बसन्त की स्वरूप शोभा का वर्णन करते हुए कहा जाता है कि वह रक्त कमल के सदृश था तथा विकसित ताम्ररस के समान उसके नेत्र थे, सन्ध्या की बेला में उदीयमान अखण्ड चन्द्रमा के समान उसका मुख था और उसकी पर सुन्दर नासिका थी । शंख के सदृश श्रवणों के आवर्त्त वाला था तथा श्याम वर्ण के कुञ्चित (घुंघराले) केशों से शोभित था, सन्ध्या के समय में अंशुमाली के तुल्य दोनों कुण्डलों से विभूषित था । उसकी गति मदमस्त हाथी के समान थी और उसका वक्षःस्थल विस्तीर्ण था तथा पानी स्थूल और आयत भुजाओं से संयुत था एवं उसके दोनों करों का जोड़ा अतीव कठोर था ।उसके उरु, कटि और जंघायें सुवृत्त अर्थात् सुडौल थे, उसकी ग्रीवा कम्बु के तुल्य थी एवं उसकी नासिका उन्नत थी, वह गूढ़ शत्रुओं वाला, स्थूल वक्षःस्थल से युक्त था । इस रीति से समस्त लक्षणों से वह सर्वाङ्ग सम्पूर्ण था।

उसके अनन्तर उस प्रकार के सम्पूर्ण कुसुमाकर (बसन्त) के समुत्पन्न हो जाने पर सुगन्ध से संयुत वायु वहन करने लगी और सभी वृक्ष पुष्पित हो गये थे । कोयलें मधुर स्वरों से समन्वित होती हुई सैकड़ों बार पञ्चम स्वर में बोलने लगी थीं, विकसित कमलों वाली सरोवरें पुष्करों से युक्त हो गयी थीं।

इसके अनन्तर हिरण्यगर्भ अर्थात् ब्रह्माजी उस प्रकार के अतीव उत्तम उसको समुत्पन्न हुआ देखकर कामदेव से मधुर वचन बोले- हे कामदेव ! यह आपका मित्र उत्पन्न होकर समुपस्थित है जो कि सर्वदा ही अनुकूलता का व्यवहार करेगा । जिस रीति से अग्नि का मित्र वायु है जो उसका सभी जगह पर उपकार किया करता है उसी भाँति यह आपका मित्र है जो सदा ही आपका ही अनुगमन करेगा। वसति के अन्त का हेतु होने से ही यह बसन्त नाम वाला होवेगा । इसका कर्म यही है कि सदा आपका अनुगमन करे तथा लोकों का अनुरञ्जन किया करे ।

यह बसन्त श्रृंगार है और बसन्त में मलयानिल वहन किया करता है। आपके वश में ही कीर्तन करने वाले भाव सदा सुहृद होवें । विव्वोक आदि हाथ तथा चौंसठ कलायें जिस प्रकार से आपके सुहृद हैं वैसे ही रति देवी के भी सौहार्द भाव को करेंगे।

हे कामदेव ! अब आप इन सहचरों के साथ जिनमें बसन्त प्रधान है और तुम्हारे ही उपयुक्त परिवार स्वरूपा इस सहचारिणी रति के साथ मिलकर अब महादेव को मोहित करो और सनातनी सृष्टि की रचना कर डालो । इन समस्त सहचरों के साथ जो भी इष्ट हो उसी देश में चले जाओ मैं उसको भावित करूँगा जो हरि को मोहित कर देगी। इस रीति से सुरों में सबसे बड़े ब्रह्माजी के द्वारा कहे गए वचनों से कामदेव परम हर्षित होकर अपने गणों के सहित तथा पत्नी और अनुचरों के साथ उस समय में वहाँ पर चला गया था । प्रजापति दक्ष को साथ समस्त मानस पुत्रों को अभिवादन करके उस समय कामदेव वहीं पर चला गया था जहाँ हर भगवान् शम्भु हैं । उस अनुचरों के सहित कामदेव के चले जाने पर जो कि शृंगार भाव आदि से संयुत था, हे द्विजोत्तमो ! पितामह ने दक्ष प्रजापति से मरीचि, अत्री प्रमुख मुनीश्वरों के साथ में कहा था ।

॥ श्रीकालिकापुराण में वसन्त की उत्पत्ति नामक चौथा अध्याय सम्पन्न हुआ ॥४॥

आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 5 

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