काली स्तुति
ब्रह्माजी ने माँ काली से
भगवान् शिव की पत्नी बनने के लिए मन्दराचल के समीप जाकर जगत जननी माँ की इस
प्रकार स्तुति किया था ।
ब्रह्मप्रोक्ता कालीस्तुतिः
ब्रह्मोवाच -
विद्याविद्यात्मिकां शुद्धां
निरालम्बां निराकुलाम् ।
स्तौमि देवीं जगद्धात्रीं स्थूलाणीयःस्वरूपिणीम्
॥ १५॥
ब्रह्माजी ने कहा- विद्या और
अविद्या के स्वरूप वाली, शुद्धा, बिना अवलम्ब वाली, निराकुला जगत् की धात्री और स्थूल
और अवर्णनीय स्वरूप से समन्विता देवी का स्तवन करता हूँ।
यस्या उदेति च जगत्प्रधानाख्यं
जगत्परम् ।
यस्यास्तदंशभूतां त्वां स्तौमि
निद्रां सनातनीम् ॥ १६॥
जिससे यह जगत् उदित होता है जो
प्रधान नामक है और जगत् से परे है। जिससे उसी के अंशभूता सनातनी निद्रा आप हैं ऐसा
आपका मैं स्तवन करता हूँ ।
त्वं चितिः परमानन्दा
परमात्मस्वरूपिणी ।
शक्तिस्त्वं सर्वभूतानां त्वं
सर्वेषां च पावनी ॥ १७॥
आप परमानन्द स्वरूपा चिति हैं,
आप परमात्मा के स्वरूप वाली हैं, आप समस्त
प्राणियों की शक्ति हैं और आप सबको पावन करने वाली हैं।
त्वं सावित्री जगद्धात्री त्वं
सन्ध्या त्वं रतिर्धृतिः ।
त्वं हि ज्योतिस्वरूपेण संसारस्य
प्रकाशिनी ॥ १८॥
आप सावित्री हैं,
आप इस जगत् की धात्री हैं, आप ही सन्ध्या,
रति और धृति हैं और आप ही ज्योति के स्वरूप के द्वारा इस संसार में
प्रकाश करने वाली हैं।
तथा तमःस्वरूपेण छादयन्ती सदा जगत्
।
त्वमेव सृष्टिरूपेण संसारपरिपूरणी ॥
१९॥
यथा आप अपने तम के स्वरूप से सदा ही
इस जगत् को आच्छादन करती हुई स्थित रहा करती हैं । आप ही सृष्टि के सृजन स्वरूप से
इस संसार को परिपूर्ण करने वाली हैं ।
स्थितिरूपेण च हरेर्जगतां च
हितैषिणी ।
तथैवान्तस्वरूपेण जगतामन्तकारिणी ॥ २०॥
त्वं मेधा त्वं महामाया त्वं स्वधा
पितृमोदिनी ।
त्वं स्वाहा त्वं नमस्कारवषट्कारौ
तथा स्मृतिः ॥ २१॥
आप मेधा हैं,
आप महामाया हैं, आप पितृगणों को मोह देने वाली
स्वधा हैं, आप स्वाहा हैं तथा समस्कार और वषट्कार एवं स्मृति
हैं ।
त्वं पुष्टिस्त्वं धृतिर्मैत्री
करुणा मुदिता तथा ।
त्वमेव लज्जा त्वं शान्तिस्त्वं
कान्तिर्जगदीश्वरी ॥ २२॥
आप पुष्टि तथा धृति,
मैत्री करुणा तथा मुदिता हैं । आप ही लज्जा, शान्ति,
कान्ति और जगत् की ईश्वरी हैं।
महामाया त्वं च स्वाहा स्वधा च पितृदेवता ।
या सृष्टिशक्तिरस्माकं
स्थितिशक्तिश्च या हरेः ॥ २३॥
आप महामाया स्वाहा और पितृ देवता
स्वधा हैं । जो हमारी सृष्टि की शक्ति हैं और जो हरि की स्थिति की शक्ति हैं ।
अन्तश्शक्तिस्तथेशानी सा त्वं शक्तिः
सनातनि ।
एका त्वं द्विविधा भूत्वा
मोक्षसंसारकारिणी ॥ २४॥
हे सनातनी ! आप ही शक्ति हैं। आप एक
ही दश प्रकार की होकर मोक्ष और संहार करने वाली हैं।
विद्याविद्यास्वरूपेण
स्वप्रकाशाप्रकाशतः ।
त्वं लक्ष्मीः सर्वभूतानां त्वं
छाया त्वं सरस्वती ॥ २५॥
विद्या और अविद्या के स्वरूप से आप
स्वप्रकाशा और अप्रकाश हैं। आप ही समस्त प्राणधारियों की लक्ष्मी हैं,
आप ही छाया और सरस्वती हैं ।
त्रयीमयी त्रिमात्रा त्वं
सर्वभूतस्वरूपिणी ।
उद्गीतिः सामवेदस्य या पितृगणरञ्जनी
॥ २६॥
आप त्रयीमयी अर्थात् वेदों से
परिपूर्ण हैं तथा आप त्रिमाता हैं, आप
सब भूतों के स्वरूप वाली हैं। जो पितृगणों के रञ्जन करने से सामवेद की उद्गीति है
वह आप ही हैं ।
त्वं वेदिः सर्वयज्ञानां सामिधेनी
तथा हविः ।
यदव्यक्तमनिर्देश्यं निष्कलं
परमात्मनः ॥ २७॥
रूपं तथैव तन्मात्रं सकलञ्च
जगन्मयम् ॥ २८॥
सब यज्ञों की देवी आप हैं तथा आप
सामिधेनी और हवि हैं। जो परमात्मा को अव्यक्त, अनिर्देश्य,
निष्कल रूप हैं तथा तन्मात्र, सफल और जगन्मय
हैं, वह आप ही हैं।
या मूर्त्तिर्विरता सर्वधरित्री
बिभ्रती क्षितिम् ।
सा त्वं विश्वम्भरे लोके
शक्तिभूतिप्रदा सदा ॥ २९॥
जो मूर्ति वितता सर्वधारित्री और
क्षिति का धारण करती हुई है । हे विश्वाम्भरे ! लोक में सदा शक्ति और भूति को
प्रदान करने वाली आप ही हैं ।
त्वं लक्ष्मीश्चेतना कान्तिस्त्वं
पुष्टिस्त्वं सनातनी ।
त्वं कालरात्रिस्त्वं मुक्तिः
शान्तिः प्रज्ञा तथा स्मृतिः ॥ ३०॥
आप लक्ष्मी - चेतना,
कान्ति और सनातनी पुष्टि हैं। आप कालरात्रि हैं, आप मुक्ति हैं, आप शान्ति प्रज्ञा और स्मृति हैं ।
संसारसागरोत्तारतरणिः सुखमोक्षदे ।
प्रसीद सर्वजगतां त्वं गतिस्त्वं
मतिः सदा ॥ ३१॥
हे सुख और मोक्ष के प्रदान करने
वाली ! आप इस संसाररूपी महान् सागर से पार करने के लिए तारणी अर्थात् नौका स्वरूप
हैं। आप प्रसन्न होइए ! आप समस्त जगतों की गति एवं मति हैं जो सदा ही रहा करती
हैं।
त्वं नित्या त्वमनित्या च त्वं
चराचरमोहिनी ।
त्वं सन्धिनी
सर्वयोगसाङ्गोपाङ्गविभाविनी ॥ ३२॥
आप नित्या हैं और आप चराचर को मोहित
करने वाली अनित्या भी हैं। आप सब योगों के साङ्गोपांग विभावन करने वाली सन्धिनी
हैं।
चिन्ता कीर्तिर्यतीनां त्वं त्वं
तदष्टाङ्गसंयुता ।
त्वं खड्गिनी शूलिनी च चक्रिणी
घोररूपिणी ॥ ३३॥
आप यतियों की चिन्ता और कीर्ति हैं
और आप ही उनके आठ अंगों से समन्वित हैं । आप खगिंनी, शूलिनी, चक्रिणी और घोर रूप वाली हैं।
त्वमीश्वरी जनानां त्वं सर्वानुग्रहकारिणी
।
विश्वादिस्त्वमनादिस्त्वं विश्वयोनिरयोनिजा
।
अनन्ता सर्वजगतस्त्वमेवैकान्तकारिणी ॥ ३४॥
आप समस्त जनों की ईश्वरी हैं,
आप सब पर अनुग्रह करने वाली हैं। आप इस विश्व की आदि हैं, आप अनादि हैं अर्थात् आप ऐसी हैं जिसका कोई आदि है ही नहीं । आप इस विश्व
की योनि हैं अर्थात् विश्व के उत्पन्न करने वाली हैं और आप स्वयं अयोनिजा हैं
अर्थात् आपके समुत्पन्न करने वाला कोई नहीं है । आप अनन्ता हैं अर्थात् ऐसी हैं
जिनका कोई अन्त ही नहीं है । आप सब जगतों की एकान्तकारिणी हैं अर्थात् समाप्त
जगतों की रचना करने वाली हैं।
नितान्तनिर्मला त्वं हि तामसीति च
गीयसे ।
त्वं हिंसा त्वमहिंसा च त्वं काली
चतुरानना ॥ ३५॥
आप नितान्त निर्मला हैं और आपको
तामसी कहकर गाया जाता है। आप हिंसा और अहिंसा हैं तथा आप चार मुखों से संयुत काली
हैं ।
त्वं परा सर्वजननी दमनी दामिनी तथा
।
त्वय्येव लीयते विश्वं भाति तत्त्वं
बिभर्षि च ॥ ३६॥
आप सबसे परा जननी हैं तथा आप दामिनी
हैं। आप ही में यह विश्व लय होता है । आप तत्व स्वरूपा हैं तथा सबको विभरण किया
करती हैं ।
त्वं सृष्टिहीना त्वं
सृष्टिस्त्वमकर्णापि सश्रुतिः ।
तपस्विनी पाणिपादहीना त्वं नितरां
ग्रहा ॥ ३७॥
आप सृष्टि से हीन हैं,
आप सृष्टि हैं। आप कण रहित होती हुई भी श्रुति सम्पना हैं। आप
तपस्विनी हैं तथा कर चरणों से रहित हैं, आप महान् हैं।
त्वं द्यौस्त्वमापस्त्वं
ज्योतिर्वायुस्त्वं च नभो मनः ।
अहङ्कारोऽपि जगतामष्टधा प्रकृतिः
कृतिः ॥ ३८॥
आप द्यौ हैं,
आप चल हैं, आप ही ज्योति तथा वायु हैं। आप नभ,
मन और अहंकार भी हैं। आप जगतों की आठ प्रकार की प्रकृति तथा कृति
हैं ।
जगन्नाभिर्मेरुरूपधारिणी नालिकापरा
।
परापरात्मिका शुद्धा माया
मोहातिकारिणी ॥ ३९॥
आप जगत् की नाभि और परा मेरुरूप
धारिणी हैं । आप परानिकट हैं। आप परायणात्मिका अर्थात् पर और अपर स्वरूप वाली हैं।
आप शुद्धा माया और अति मोह के करने वाले हैं।
कारणं कार्यभूतञ्च सत्यं शान्तं
शिवाशिवे ।
रूपाणि तव विश्वार्थे रागवृक्षफलानि
च ॥ ४०॥
आप कारण और कार्यभूत हैं । हे
शिवाशिवे ! आप सत्य और शान्त हैं । आपके रूप विश्व के अर्थ में राग,
वृक्ष और फल हैं।
नितान्तह्रस्वा दीर्घा च
नितान्ताणुबृहत्तनुः ।
सूक्ष्माप्यखिललोकस्य व्यापिनी त्वं
जगन्मयी ॥ ४१॥
आप नितान्त छोटी और दीर्घ हैं। आपका
स्वरूप नितान्त अणु और वृहत् हैं । आप सूक्ष्मा होती हुई भी सम्पूर्ण लोक में
व्याप्त रहने वाली हैं, आप जगत् से
परिपूर्ण हैं ।
मानहीना विमानातिविमानोन्मानसम्भवा ।
यदष्टिव्यष्टिसम्भोगरागादिगलिताशया
।
तत्ते महिम्नि तद्रूपं तव भ्रान्त्यादिकं च
यत् ॥ ४२॥
आप मात्र से हीन,
विमाना, अति विमाना और उन्मान और समुद्भूता
हैं । आप ऐसी हैं जो अष्टि-व्यष्टि, सम्भोग और राग आदि से
गलित आशय वाली रहती हैं। वह आपकी महिमा में आपको जो भ्रान्ति आदिक है वह आपका ही
स्वरूप है।
इष्टानिष्टविपाकज्ञा
यथेष्टानिष्टकारणम् ।
सर्गादिमध्यान्तमयं निम्नं रूपं
तथैव च ॥ ४३॥
आप इष्ट और अनिष्ट के विपाक के
ज्ञान रखने वाली हैं और यथेष्ट तथा अनिष्ट का कारण हैं। आप सर्गादि,
मध्य तथा अन्त से परिपूर्ण हैं और उसी भाँति आपका रूप है।
विचाराष्टाङ्गयोगेन सम्पाद्यैवं
मुहुर्मुहुः ।
यत् स्थिरीक्रियते तत्त्वं तत्ते
रूपं सनातनम् ॥ ४४॥
आठ अंगों वाले योग से बारम्बार इस
प्रकार से सम्पादन करके जो तत्व स्थित किया जाता है वह ही आपका सनातन रूप है ।
बाह्याबाह्ये सुखं दुःखं
ज्ञानाज्ञाने लयालयौ ।
उपतापस्तथा शान्तिर्भूतिस्त्वं जगतः
पतेः ॥ ४५॥
बाह्य और अबाह्य में सुख तथा दुःख,
ज्ञान और अज्ञान, लय और अलय, उपताप और शान्ति आप ही जगत् की स्वामिनी हैं।
यस्याः प्रभावं नो वक्तुं शक्नोति
भुवनत्रये ।
तयैव सम्मोहकरी सा त्वं किं स्तूयसे
मया ॥ ४६॥
जिसके प्रभाव को तीनों लोकों में
कोई भी कहने की शक्ति नहीं रखता है अर्थात् किसी के द्वारा भी प्रभाव नहीं कहा जा
सकता है वह आप उनका भी सम्मोहन करने वाली हैं। ऐसा आपको मेरे द्वारा क्या स्तवन किया
जा सकता है।
योगनिद्रा महानिद्रा मोहनिद्रा
जगन्मयी ।
विष्णुमाया च प्रकृतिः कस्त्वां
स्तुत्या विभावयेत् ॥ ४७॥
मम विष्णोः शङ्करस्य या
वपुर्वहनात्मिका ।
तस्याः प्रभावं को वक्तुं गुणान्
वेत्तुं च कः क्षमः ॥ ४८॥
आप योगनिद्रा,
महानिद्रा, मोहनिद्रा, जगन्मयी,
विष्णुमाया और प्रकृति हैं ऐसी आपको कौन स्तुति के द्वारा विभाजित
करें जो मेरे विष्णु भगवान् और शंकर भगवान् के वपु के वहन करने की स्वरूप वाली
हैं। उसके प्रभाव का कथन करने को और गुणगण का ज्ञान प्राप्त करने के लिए कौन समर्थ
हो सकता है अर्थात् कोई भी ऐसी क्षमता नहीं रखता है ।
प्रकाशकरणज्योतिःस्वरूपान्तरगोचरा ।
त्वमेव जङ्गमस्थेयरूपैका बाह्यगोचरा
॥ ४९॥
प्रकाशकारण,
ज्योति स्वरूप के अन्तर में गोचर होने वाली आप ही जंगम में
स्थेयरूपा एक वाह्य गोचर हैं ।
प्रसीद सर्वजगतां जननि
स्त्रीस्वरूपिणि ।
विश्वरूपिणि विश्वेशे प्रसीद त्वं
सनातनि ॥ ५०॥
समस्त जगतों की जननी स्त्रीरूप वाली
आप प्रसन्न होइए । हे विश्व रुपिणी! हे विश्वेशे! हे सनातनि! आप मुझ पर प्रसन्न हो
जाइए ।
इति कालिकापुराणे पञ्चमाध्यायान्तर्गता ब्रह्मप्रोक्ता कालीस्तुतिः समाप्ता ।
0 Comments