कालिका पुराण अध्याय ७

कालिका पुराण अध्याय ७     

कालिका पुराण अध्याय ७ में कामदेव, योगमाया के सहयोग के अभाव में शिव-सम्मोहन में अपनी असमर्थता व्यक्त करता है।

कालिका पुराण अध्याय ७

कालिकापुराणम् सप्तमोऽध्यायः मदनकथनम्

कालिका पुराण अध्याय ७  

Kalika puran chapter 7

कालिकापुराण सातवाँ अध्याय - मदन वाक्य वर्णन

अथ कालिका पुराण अध्याय ७      

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

अथ ब्रह्मा महामाया - स्वरूपं प्रतिपाद्य च ।

मदनाय पुनः प्राह युक्तासौ हरमोहने ।।१।।

मार्कण्डेय बोले- इसके बाद ब्रह्मा ने महामाया के स्वरूप का प्रतिपादन कर कामदेव से भगवान् शङ्कर को मोहित करने के लिए आगे कहा ॥ १ ॥

।। ब्रह्मोवाच ।।

विष्णुमाया महादेवो यथा दारपरिग्रहम् ।

करिष्यति तथा कर्तुमङ्गीकारं पुराकरोत् ।।२।।

ब्रह्मा बोले- भगवती विष्णुमाया ने महादेव जिससे दारपरिग्रहण (विवाह) करें वैसा करना पहले ही स्वीकार कर लिया है ॥२॥

सावश्यं दक्षतनया भूत्वा शम्भोर्महात्मनः ।

भविष्यति द्वितीयेति स्वयमेवावदत् स्मर ॥३॥

हे कामदेव! वह अवश्य ही दक्ष की पुत्री होकर महात्मा शङ्कर की द्वितीया (पत्नी) बनेंगी ऐसा उन्होंने स्वयं ही कहा था ॥ ३ ॥

त्वमेभिः स्वगणैः सार्द्धं रत्या च मधुना सह ।

यथेच्छति तथा दारान् ग्रहीतुं कुरु शङ्करः ।।४।।

तुम अपने इन गणों, रति तथा वसन्त के साथ शङ्कर को दारपरिग्रहण हेतु प्रेरित करने के लिए जो उचित समझो करो ॥४॥

शम्भौ गृहीतदारे तु कृतकृत्या वयं स्मर ।

अविच्छिन्ना सृष्टिरियं भविष्यति न संशयः ॥५॥

हे कामदेव ! शिव द्वारा विवाह के पश्चात् हम सभी कृतार्थ हो जायेंगे तथा यह सृष्टि अविच्छिन्न हो जायेगी, इसमें कोई संशय नहीं है ॥५॥

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

तथाब्रवीद्विजश्रेष्ठा लोकेशाय मनोभवः ।

मधुरं यत् कृतं तेन महादेवस्य मोहने ।।६।।

मार्कण्डेय बोले- हे द्विजश्रेष्ठों ! तब कामदेव ने ब्रह्मा से जो कहा और शिव को मोहने के लिए जो उत्तम किया, उसे सुनो ॥६॥

।। मदन उवाच ।।

शृणु ब्रह्मन् यथास्माभिः क्रियते हरमोहने ।

प्रत्यक्षे वा परोक्षे वा तस्य तद्गदतो मम ॥७॥

कामदेव बोले- हे ब्रह्मदेव ! शिव को मोहित करने के लिए हम लोगों द्वारा जो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से किया गया उसे बताता हूँ आप सुनिये ॥७॥

यदा समाधिमाश्रित्य स्थितः शम्भुर्जितेन्द्रियः ।

तदा सुगन्धिवातेन शीतलेन विवेगिना ।

तं बीजयामि लोकेश नित्यं मोहनकारिणा ॥८॥

हे लोकेश ! जब अपनी इन्द्रियों को जीतने वाले शिव समाधि का आश्रय ले स्थित थे, उस समय मैंने सुगन्धित, शीतल और वेगरहित, मन्त्र मुग्ध करने वाली वायु से नित्य उनके लिए हवा का संचरण किया ॥८॥

स्वसायकांस्तथा पञ्च समादाय शरासनम् ।

भ्रमामि तस्य सविधे मोहयंस्तद्गणानहम् ।।९।।

तथा मैंने अपने पञ्चबाणों सहित अपने धनुष को लेकर उन्हें तथा उनके गणों को मोहित करने के लिए विधिपूर्वक भ्रमण किया ॥९॥

सिद्धद्वन्द्वानहं तत्र रमयामि दिवानिशम् ।

भावा हावाश्च ते सर्वे प्रविशन्ति च तेषु वै ।। १० ।।

मैंने रात-दिन सिद्धगणों को, दम्पत्तियों को, जिनमें सभी हाव-भाव प्रविष्ट रहे थे, वहाँ रमण कराया ॥ १० ॥

यदि प्रविष्टे सविधे शम्भोः प्राणी पितामह ।

को वा न कुरुते द्वन्द्व भावं तत्र मुहुर्मुहुः ।।११।।

हे पितामह! यदि ये विधिपूर्वक प्रवेश कर जायँ तो शम्भु को छोड़कर कौन ऐसा प्राणी है जो बार-बार द्वन्द्वभाव को न प्राप्त करें ॥ ११ ॥

मम प्रवेशमात्रेण तथा स्युः सर्वजन्तवः ।

न शम्भुर्न वृषस्तस्य मानसीं विक्रियां गतौ ।। १२ ।।

मेरे प्रवेशमात्र से ही सभी जन्तु उस द्वन्द्वभाव के हो जाते हैं, किन्तु उस समय न भगवान् शङ्कर और न उनका वृष ही इस मानसिक विकृति को प्राप्त हुये ॥ १२ ॥

यदा हिमवतः प्रस्थं स याति प्रमथाधिपः ।

तत्र गन्ता तदैवाहं सरतिः समधुर्विधे ।।१३।।

हे विधे! जब वे प्रमथ गणों के स्वामी हिमालय के शिखर पर गये तभी मैं भी वहाँ रति और वसन्त के सहित पहुँच गया ॥ १३ ॥

यदा मेरुं प्रयात्येष यदा वा नाटकेश्वरम् ।

कैलासं वा यदा याति तत्र गच्छाम्यहं तदा ।।१४।।

जब वे मेरु पर्वत पर या नाटकेश्वर अथवा कैलास गये तब मैं वहाँ भी गया ॥१४॥

यदा त्यक्तसमाधिस्तु हरस्तिष्ठति वै क्षणम् ।

ततस्तस्य पुरश्चक्रमिथुनं योजयाम्यहम् ।।१५।।

जिस क्षण भगवान् शङ्कर समाधि से विमुख हुये उसी क्षण उनके सम्मुख मैंने चक्र-पक्षी (चकवा-चकवी) के जोड़े को प्रस्तुत किया ॥१५॥

तच्चक्रयुगलं ब्रह्मन् हावभावयुतं मुहुः ।

नानाभावेन कुरुते दाम्पत्य - क्रममुत्तमम् ।।१६।।

हे ब्रह्मन् ! वह चकवा-चकवी का जोड़ा बारम्बार हाव-भाव से युक्त होकर अनेक प्रकार के दाम्पत्य-कर्म प्रस्तुत कर रहा था ।। १६ ।।

नीलकण्ठानपि मुहुः सजायानपि तत्पुरः ।

सन्मोहयामि सविधे मृगानन्याश्च पक्षिणः ।।१७।।

पुनः मैंने उनके सम्मुख स्त्रियों के सहित नील कण्ठों को उपस्थित किया तथा विधिपूर्वक अन्य पशु-पक्षियों को भी मोहित किया ॥१७॥

विचित्रभावमासाद्य यदा प्रकुरुते रतिम् ।

मयूरमिथुनं वीक्ष्य तत्तदा को न चोत्सुकः ।।१८।।

विचित्र भावों का आश्रय ले जब मोरों का जोड़ा रमण करता है, तब कौन उत्सुक नहीं हो जाता ? ।। १८ ।।

मृगाश्च तत् पुरस्थाश्च स्वजायाभिस्तु सोत्सुकाः ।

अकुर्वन् रुचिरं भावं तस्य पार्श्वे पुरस्तदा ।। १९ ।।

उनके सम्मुख स्थित मृगों ने भी अपनी मृगियों के सहित उत्सुकता पूर्वक उनके समीप तथा सामने सुन्दर भावों को दर्शाया ॥ १९॥

अपश्यन् विवरं नास्य कदाचिदपि मच्छरः ।

निपात्यः स यदा देहे यन्मया सर्वलोकधृत् ॥२०॥

बहुधा निश्चितं ज्ञातं रामासङ्गादृते हरम् ।

अलं च सन्मोहयितुं ससहायोऽपि निष्कलम् ।।२१।।

हे सब लोकों को धारण करने वाले! जब उनके शरीर में कभी भी उनका कोई छिद्र (दोष) न देखकर मेरे द्वारा बाण छोड़ा गया । बहुधा निश्चित जानिये भगवान् शङ्कर को छोड़कर पत्नी और सम्पूर्ण सहायकों सहित सबको मोहित करने के लिए वह पर्याप्त था ।। २९-२१॥

मधुश्च कुरुते कर्म यद्यत्तस्य विमोहने ।

तच्छृणुष्व महाभाग नित्यं तस्योचितं पुनः ।।२२।।

हे महाभाग ! वसन्त ने भी उन्हें मोहित करने के लिए जो-जो कर्म किया उसे सुनिये। ये उसके अनुरूप कर्म हैं ॥ २२ ॥

चम्पकान् केशरानाम्रान् करुणान् पाटलास्तथा ।

नागकेशरपुन्नागान् किंशुकान् केतकान् घवान् ।।२३।।

माधवीर्मल्लिकाः पर्णधारान् कुरुवकांस्तथा ।

उत्फुल्लयति तत्तस्य यत्र तिष्ठति वै हरः ।। २४ ।।

जहाँ-जहाँ भगवान् शङ्कर स्थित रहे वह वहाँ-वहाँ चम्पक, केशर, अशोक, आम्र, करुण, पाटल, नागकेशर, पुन्नाग, किंशुक, केतकी, धव, माधवी, मल्लिका,चमेली, पर्णधार तथा कुरुवकों को प्रफुल्लित किया ।।२३-२४।।

सरांस्युत्फुल्लपद्मानि बीजयन् मलयानिलैः ।

सुगन्धीकृतवान् यत्नादतीव शङ्कराश्रमम् ।। २५ ।।

शिव आश्रम में स्थित सरोवरों में खिले हुये, मलयाचल की वायु से संचालित तथा सुगन्धित किये हुये कमल के फूल सुशोभित हो गये ॥२५॥

लता: सर्वाः सुमनसः फुल्लपादपसञ्चयान् ।

वृक्षान् रुचिरभावेन वेष्टयन्ति स्म तत्र वै ।। २६ ।।

वहाँ फूले हुये पुष्पों से युक्त लतायें, फूले हुये पुष्पों से युक्त वृक्षों को सुन्दर भाव से आलिङ्गन करने लगीं ॥२६॥

तान् वृक्षांश्चारुपुष्पौघास्तैः सुगन्धिसमीरणैः ।

दृष्ट्वा कामवशं यातो न तत्र मुनिरप्युत ।। २७ ।।

वहाँ कौन ऐसा मुनि था, जो सुन्दर पुष्प से ढके हुये, सुगन्धित वायु से कंपित, उन वृक्षों को देखकर काम के वशीभूत न हो गया हो ॥ २७ ॥

तद्गणा अपि लोकेश नानाभावैः सुशोभनैः ।

वसन्तिस्म सुराः सिद्धा ये ये चाति तपोधनाः ।। २८ ।।

हे लोकेश! वहाँ निवास करने वाले देवता, सिद्ध, अत्यन्त तपस्वी साधक, उन शिव के गण भी अनेक सुशोभित भावों से युक्त हो गये ॥ २८ ॥

न तस्य पुनरस्माभिर्दृष्टं मोहस्य कारणम् ।

भावमात्रं न कुरुते कामोत्थमपि शङ्करः ।। २९ ।।

उनको मोहने का हम लोगों को अब कोई उपाय नहीं दिखता था । शङ्कर कामोत्पन्न भाव मात्र भी नहीं कर रहे थे ॥ २९ ॥

इति सर्वमहं दृष्ट्वा ज्ञात्वा च हरभावनाम् ।

विमुखोऽहं शम्भुमोहान्नियतं मायया विना ॥३०॥

यह सब देखकर तथा शङ्कर की भावनाओं को जानकर मैं शिव के मोहित करने के काम से, जो माया के विना नियत नहीं था, विमुख हो गया ॥३०॥

इदानीं त्वद्वचः श्रुत्वा योगनिद्रोदितं पुनः ।

तस्याः प्रभावं श्रुत्वाथ गणान् दृष्ट्वा सहायकान् ।।३१।।

मया शम्भोर्विमोहाय क्रियते मुहुरुद्यमः ।

भवानपि त्रिलोकेश योगनिद्रा द्रुतं पुनः ।

भवेद् यथा शम्भुजाया तथैव विदधात्वियम् ।।३२।।

इस समय योगनिद्रा द्वारा कहे हुये आपके वचनों तथा उनके प्रभाव को सुनकर और अपने सहयोगी इन मारगणों को देखकर, मेरे द्वारा पुनः शिव को मोहित करने का प्रयत्न किया जायेगा । हे त्रिलोकेश ! शीघ्र ही योगनिद्रा जिस प्रकार से शिव की पत्नी बनें वैसी ही आप भी व्यवस्था कीजिए ॥ ३१-३२।।

यमानां नियमानाञ्च प्राणायामस्य नित्यशः ।

आसनस्य महेशस्य प्रत्याहारस्य गोचरे ॥३३॥

ध्यानस्य धारणायाश्च समाधेर्विघ्नसम्भवम् ।

मन्ये कर्तुं न शक्यं स्यादपि मारशतैरपि ।। ३४ ।।

मेरी समझ से सैकड़ों मारगण भी शङ्कर के यमों, नियमों, नित्य प्रति के प्राणायाम, आसन, इन्द्रियों के प्रत्याहार, ध्यान, धारणा, समाधि जैसे अष्टाङ्गयोग में विघ्न नहीं कर सकते ।।३३-३४।।

तथाप्ययं मारगणः करोतु हरस्य योगाङ्गविकारविघ्नम् ।

यदेव शक्यं किमु वा समर्थ: समक्षमन्यस्य न कर्तुमोजः ।। ३५ ।।

तो भी ये मारगण भगवान् शङ्कर के योगाङ्गों में विघ्न उत्पन्न करें। जो शक्य हैं अथवा जिसके सम्पादन में सक्षम हैं अन्य के सम्मुख बल प्रयोग नहीं करना चाहिए ॥ ३५ ॥

॥ श्रीकालिकापुराणे मदनकथनं नाम सप्तमोऽध्यायः ॥ ७॥

कालिका पुराण अध्याय ७ - संक्षिप्त कथानक

मार्कण्डेय मुनि ने कहा इसके अनन्तर ब्रह्माजी ने महामाया के स्वरूप का प्रतिपादन करके महादेव से फिर कहा था कि वह भगवान् शंकर के सम्मोहन करने में युक्ता हैं।

ब्रह्माजी ने कहा- विष्णुमाया ने पहले ही यह स्वीकार कर लिया है जैसे महादेव दारा का परिग्रहण करेंगे। वह ऐसा करना अंगीकार कर चुकी हैं । हे कामदेव ! उन्होंने स्वयं ही ऐसा कहा था कि वह अवश्य ही प्रजापति दक्ष की पुत्री के रूप में जन्म धारण करके महात्मा शम्भु की द्वितीया अर्थात् पत्नी रति और अपने सखा बसन्त के साथ मिलकर वैसा ही कर्म करो जिससे भगवान् शम्भु दारा को ग्रहण करने की इच्छा कर लेवें । भगवान् शंकर के द्वारा दारा के ग्रहण किए जाने पर हम कृत-कृत्य अर्थात् सफल हो जायेंगे और फिर यह सृष्टि अविच्छिन्न अर्थात् बीच में न टूटने वाली हो जायेगी।

श्री मार्कण्डेय मुनि ने कहा- हे द्विजश्रेष्ठो! कामदेव ने लोकों के ईश ब्रह्माजी से उसी भाँति मधुरतापूर्वक कहा जो भी कुछ महादेवजी को मोहित करने के लिए उसने किया था ।

कामदेव ने कहा- हे ब्रह्माजी ! आप अब श्रवण कीजिए जो भी कुछ हमारे द्वारा महादेव जी के मोहन करने में किया जा रहा है उनके परोक्ष में अथवा प्रत्यक्ष में जो भी किया जा रहा है उसे बतलाते हुए मुझसे आप श्रवण कीजिए। इन्द्रियों को जीत लेने वाले भगवान् शम्भु ज्योंही जिस समय समाधि का समाश्रय ग्रहण करके स्थित हुए थे उसी समय विशुद्ध वेग वाले अर्थात् सुमन्द और सुगन्धित तथा शीतल वायु के द्वारा हे लोकेश ! जो कि नित्य ही मोहन के करने वाली हैं उनसे उन शम्भु को विजित करूँगा कि अपने शरासन का ग्रहण करके अपने बाणों का मैं उनके गणों को मोहित करते हुए उनके समीप में भ्रमित करूंगा। मैं वहाँ पर सिद्धों के द्वन्द्वों को अहर्निश रमण कराता हूँ और निश्चय ही हाव और भाव सब प्रवेश किया करते हैं । हे पितामह ! यदि शम्भु के समीप में प्रविष्ट होने पर कौन सा प्राणी बारम्बार वहाँ पर भाव को नहीं किया करता है। मेरे केवल प्रवेश के होने ही से सभी जीव-जन्तु उस प्रकार का गमन करते हैं तो उसी समय में मैं वहीं पर हे ब्रह्माजी ! अपनी पत्नी रति और मित्र वसन्त के साथ चला जाऊँगा । यदि यह मेरु पर चले जाते हैं अथवा जिस समय तारकेश्वर में पहुँच जाते हैं या कैलाश गिरि पर गमन करते हैं तो उस समय में मैं भी वहीं पर चला जाऊँगा।

जिस अवसर पर भगवान् हर अपनी समाधि का परित्याग करके एक क्षण को भी स्थित होते हैं तो फिर मैं उनके ही आगे चक्रवाक के दम्पत्ति को योजित कर दूँगा । हे ब्रह्माजी ! वह चक्रवाक का जोड़ा बार-बार हाव-भाव से संयुत अनेक प्रकार के भाव से उत्तम दाम्पत्य के क्रम को करेगा। उनके आगे फिर जाया के सहित नीलकण्ठों को भी समीप ही में हैं सम्मोहित करूंगा और समीप ही मृगों तथा अन्य पक्षियों को भी मोहयुक्त कर डालूँगा । यह सब जिस समय में एक अति अद्भुत भाव को देखकर कौन-सा प्राणी है जो उस समय में उत्सुकता से रहित बना रहे अर्थात् कोई भी चेतना ऐसा नहीं है जिसे उत्सुकता न हो और उनके ही आगे मृग अपनी प्रणयिनियों के साथ उत्सुकता वाले हो जाते हैं! और उनके पार्श्व में तथा समीप में अतीव रुचिर भाव कहते हैं तो मेरा शर कदाचित् भी इसके विवर को नहीं देखता है । जिस मय में वह देह से गिराया जाता है जो कि मेरे ही द्वारा फेंका जाया करता है। आप तो सभी लोकों के धारण करने वाले हैं अर्थात् यह सभी कुछ का ज्ञान रखते हैं । प्रायः यह निश्चित ही ज्ञात होना चाहिए कि रामा के संग के बिना हर का मैं सहसाय भी निष्फल सम्मोहित करने के लिए समर्थ एवं पर्याप्त हूँ और यह सफल ही है ।

मेरा मित्र मधु अर्थात् बसन्त तो जो-जो भी उसके विमोहन की क्रिया करने में कर्म होंगे वह किया ही करता है । हे महाभाग ! जो नित्य ही उसके लिए उचित है उसका पुनः आप श्रवण कीजिए । जहाँ पर भी भगवान् शंकर स्थित होकर रहेंगे वहीं पर मेरा मित्र वह वसन्त चम्पकों, केशरों, आम्रों, वरुणों, पाटलों, नाग, केसर, मुन्नागों, किंशुकों, धनों, माधवी, मल्लिका, पर्णधारों, कुवरकों इन सबको वह विकसित कर दिया करता है । समस्त सरोवर ऐसे कर देता है कि उसमें कमल पूर्ण विकसित हो जाया करते हैं और वह मलय की ओर से आवाहन करने वाली परमाधिक सुगन्धित वायु में वीक्षन करते हुए यत्नपूर्वक भगवान् शंकर आश्रम को सुगन्धित कर दे। समस्त वृक्षों का समुदाय विकसित हो जायेगा। वे लतायें परम रुचिर भाव से दाम्पत्य को प्रकट करती हुई वहाँ पदमेक्षों को विष्टित करेंगे अर्थात् वृक्षों से लिपट जायेंगे । पुष्पों वाले उन वृक्षों को उन सुगन्धित समीरणों से संयुत देखकर वहाँ पर मुनि भी कामकला के वश में हो जाया करते हैं जो अपनी इन्द्रियों का दमन किए हुए हैं । हे लोकों के स्वामिन् अनेक परम शोभन भावों के द्वारा अनेक गण, सुर और सिद्ध तथा परम तपस्वी गण भी जो-जो दमनशील हैं वे सभी वश में आ जाया करते हैं ।

उनके आगे हमने मोह का कोई भी कारण नहीं देखा है । भगवान् शंकर तो काम से उत्थित भाव को भी नहीं किया करते हैं । यह सभी कुछ मैंने देखकर और भगवान् शंकर की भावना का ज्ञान प्राप्त करके मैं तो शम्भु को मोहित करने की क्रिया से विमुख हो गया हूँ । यह नियत ही है कि बिना माया के यह कार्य कभी भी नहीं हो सकता है । इतना तो मैं सब कुछ कर चुका हूँ किन्तु शम्भु के मोहन के कार्य में मैं विफल ही रहा हूँ किन्तु पुनः आपके वचनादेश को श्रवण करके जो योगनिद्रा के द्वारा उदित है । उस योगनिद्रा का प्रभाव सुनकर तथा गणों सहित देखकर मेरे द्वारा शंकर के विमोहन करने के लिए फिर एक बार उद्यम किया जाता है। कृपा करके हे त्रिलोकेश ! योगनिद्रा को पुनः शीघ्र ही जिस प्रकार से शम्भु की जाया (पत्नी) हो जावें वैसा ही कीजिए । शम्भु के यम-नियम और नित्य ही होने वाले प्राणायाम तथा महेश के आसन और गोचर में प्रत्याहार, ध्यान, धारणा और समाधि में विघ्नों को सम्भव होना मैं तो यह मानता हूँ कि मैं तो क्या मुझ जैसे सैकड़ों के द्वारा भी नहीं किया जा सकता है । तो भी यह कामदेव के गण भगवान् शंकर के यम नियमादि उपर्युक्त अंगों के विकाररूपी विघ्न करे ।

मार्कण्डेय मुनि ने कहा- इसके अनन्तर ब्रह्माजी ने भी पुनः कामदेव से यह वचन कहा था । हे तपोधने ! ब्रह्माजी ने योगनिद्रा के वाक्य का स्मरण करके और निश्चय करके ही यह कहा था ।

॥ श्रीकालिकापुराण में मदनकथन नामक सातवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥७॥

आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 8   

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