कालिका पुराण अध्याय ३

कालिका पुराण अध्याय ३ 

कालिका पुराण अध्याय ३ में कामदेव को ब्रह्मा द्वारा शाप तथा रतिउत्पत्ति, दक्षप्रजापति से रति की पत्नीरूप में प्राप्ति का वर्णन है।

कालिका पुराण अध्याय ३

कालिकापुराणम् तृतीयोऽध्यायः रतिउत्पत्तिवर्णनम्

कालिका पुराण अध्याय ३

Kalika puran chapter 3

कालिकापुराण तीसरा अध्याय – मदन दहन वर्णन

अथ कालिका पुराण अध्याय ३   

॥ मार्कण्डेय उवाच ।।

ततः कोपसमाविष्टः पद्मयोनिर्जगत्पतिः ।

प्रजज्वालातिबलवद्दिधक्षुरिवं पावकः ।। १ ।।

उवाच चेश्वरं कामो भवतः पुरतो यतः ।

पुष्पेषुभिर्मामभजत् तत्फलस्याप्नुयाद्धर ॥२॥

तव नेत्राग्निनिर्दग्धः कन्दर्पो दर्पमोहितः ।

भविष्यति महादेव कृत्वा कर्मातिदुष्करम् ।।३॥

मार्कण्डेय बोले- तब पद्म से उत्पन्न, संसार के स्वामी, क्रोध से भरे हुये ब्रह्मा, जलाने को उद्यत अग्नि की भाँति जल उठे और भगवान् शङ्कर से बोले हे हर! चूँकि कामदेव ने आपके सम्मुख ही मुझ पर अपने पुष्पबाणों का प्रहार किया है, इसलिए यह उसका फल प्राप्त करे। हे महादेव! अत्यन्त दुष्ककर्म करके यह घमण्ड से भरा हुआ कामदेव आपके नेत्र की अग्नि से दग्ध होवे ॥१-३॥

इति वेधाः स्वयं कामं शशाप द्विजसत्तमाः ।

समक्षं व्योमकेशस्य मुनीनाञ्च यतात्मनाम् ।।४।।

हे द्विजसत्तम! इस प्रकार से ब्रह्मा ने यतात्मा मुनियों तथा भगवान् शङ्कर के सामने कामदेव को स्वयं शाप दिया ॥ ४ ॥

अथ भीतो रतिपतिस्तत्क्षणात् त्यक्तमार्गणः ।

प्रादुर्बभूव प्रत्यक्षं शापं श्रुत्वातिदारुणम् ॥५॥

उवाच चेदं ब्रह्माणं सदक्षं समरीचिकम् ।

तथ्यञ्च गद्गदं भीत्या भीतिर्हि गुणहानिकृत्* ।। ६ ।।

इसके बाद उसी समय कामदेव उस अत्यन्त भयानक शाप को सुनकर भयभीत हो गया और बाण को छोड़कर शीघ्र प्रत्यक्ष रूप से प्रकट हुआ, तथा दक्ष एवं मरीचि के सहित ब्रह्मा जी से भयवश गद्गद् वाणी से यह कहा यह वास्तविकता है कि भय गुणों को हानि पहुँचाने वाला होता है ।।५-६ ।।

* भीतिर्हि गुणहानिकृत् यह सूक्ति वाक्य है।

।। मन्मथ उवाच ।।

ब्रह्मन् किमर्थं भवता शप्तोऽहमतिदारुणम् ।

अनागस्तव लोकेश न्यायमार्गानुसारिणा ।।७।।

मन्मथ कामदेव बोले- हे ब्रह्मन् ! हे लोकेश ! न्याय पथ का अनुसरण करने वाले, निरपराध मैं आपके द्वारा अत्यन्त भयानक शाप से क्यों शापित हुआ? ॥७॥

त्वयैवोक्तन्तु तत् कर्म यत्तु कुर्यामहं विभो ।

तत्र योग्यो न शापो मे यतो नान्यन्मयाकृतम् ।।८।।

हे विभो ! जो मैंने किया है वह तो आपके द्वारा मेरे लिए निर्धारित कर्म था । मैंने उस नियत कर्म से विपरीत कुछ भी नहीं किया है। अतः आपका मुझे उस हेतु शाप देना उचित नहीं लगता ॥८॥

अहं विष्णुस्तथा शम्भुः सर्वे त्वच्छरगोचराः ।

इति यद्भवताप्रोक्तं तन्मयापि परीक्षितम् ।।९।।

"मैं, विष्णु तथा भगवान् शङ्कर सभी तुम्हारे बाण के लक्ष्य होंगे।" ऐसा जो आपने कहा था। मैंने उस कथन की परीक्षा ही ली ॥ ९ ॥

नापराधो ममास्त्यत्र ब्रह्मन् मयि निरागसि ।

दारुणं शमयस्वैनं शापं मम जगत्पते ।। १० ।।

हे ब्रह्मन्! इसमें मेरा कोई अपराध नहीं है। हे जगत्पते! मेरे जैसे निरपराध को, मुझे दिये गये भयानक शाप का आप शमन कीजिये ॥ १० ॥

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

इति तस्य वचः श्रुत्वा विधाता जगतां पतिः ।

प्रत्युवाच यतात्मानं मदनं सदयं द्रुतः ।। ११ ।।

मार्कण्डेय बोले- उस (कामदेव) के इस वचन को सुनकर जगत्पति ब्रह्मा ने दया के पात्र, नियतात्मा, कामदेव से शीघ्र प्रत्युत्तर में कहा-

।। ब्रह्मोवाच ।।

आत्मजा मम सन्ध्येयं यस्मादेतत्सकामतः ।

लक्ष्यीकृतोऽहं भवता ततः शापो मया कृतः ।। १२ ।।

ब्रह्मा बोले- यह सन्ध्या मेरी पुत्री है। तुमने मुझे इसके कामवश लक्ष बनाया । इसीलिए मैंने तुम्हें शाप दिया है ॥१२॥

अधुना शान्तरोषोऽहं त्वां वदामि मनोभव ।

भवतः शापशमनं भविष्यति यथा तथा ।।१३।।

हे मनोभव! अब मेरा क्रोध शान्त हो गया है। इसीलिए तुम से यह बता रहा हूँ, जिससे तुम्हारा शापमोचन हो ॥ १३ ॥

त्वं भस्मभूतो मदन भर्गलोचनवह्निना ।

तस्यैवानुग्रहात् पश्चाच्छरीरं समवाप्स्यसि ।।१४।।

यदा हरो महादेवः कुर्याद्दारपरिग्रहम् ।

तदा स एव भवतः शरीरं प्रापयिष्यति ।। १५ ।।

हे मदन (कामदेव) ! तुम भगवान् शङ्कर के नेत्र से उत्पन्न अग्नि से भस्म हो पुन: उन्हीं की कृपा से शरीर धारण करोगे । जब भगवान् शङ्कर अपनी पत्नी का वरण करेंगे तब वे ही तुम्हें पुनः शरीर प्राप्त करायेंगे ॥ १४-१५।।

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

एवमुक्तवाथ मदनं ब्रह्मा लोकपितामहः ।

अन्तर्दधे मुनीन्द्राणां मानसानाञ्च पश्यताम् ।।१६ ॥

मार्कण्डेय बोले- लोक के पितामह ब्रह्मा जी कामदेव से ऐसा कहकर मानसपुत्रों और मुनिवरों के देखते-देखते अन्तर्धान हो गये ॥ १६ ॥

तस्मिन्नन्तर्हिते शम्भुः सर्वेषाञ्च विधातरि ।

यथेष्टदेशं गतवान् ब्रह्मा मारुतरंहसा ।। १७ ।।

सब के निर्माता उस ब्रह्मा के अन्तर्हित हो जाने पर भगवान् शङ्कर भी वायुवेग से अपने इच्छित स्थान को चले गये ॥१७॥

वेधस्यन्तर्हिते तस्मिन् शम्भौ निजास्पदे गतः ।

दक्षः प्राहाथ कन्दर्पं पत्नीं तस्य निदर्शयन् ।।१८।।

ब्रह्मा के अन्तर्हित होने तथा शिव के अपने स्थान चले जाने के पश्चात् दक्ष प्रजापति ने कामदेव को उसकी पत्नी को दिखाते हुए कहा - ॥१८॥

।। दक्ष उवाच ॥

मद्देहजेयं कन्दर्प मद्रूप गुणसंयुता ।

एनां गृह्णीष्व भार्यार्थे भवतः सदृशीं गुणैः ।। १९ ।।

दक्ष बोले- हे कन्दर्प ! यह मेरे शरीर से उत्पन्न, मेरे समान रूप गुण युक्त, आप के समान गुणों वाली है, इसे अपनी पत्नीरूप में स्वीकार कीजिए ॥१९॥

एषा तव महातेजाः सर्वदा सहचारिणी ।

भविष्यति यथाकामं धर्मतो वशवर्तिनी ॥२०॥

यह अत्यन्त तेजस्वी, सदैव सहचरण करने वाली, तुम्हारी कामनाओं के अनुरूप, धर्मानुसार वश में रहने वाली होगी ॥ २०॥

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

इत्युक्त्वा प्रददौ दक्षः देहस्वेदम्बुसम्भवाम् ।

कन्दर्पायाप्रतः कृत्वा नाम कृत्वा रतीति ताम् ।। २१ ।।

मार्कण्डेय बोले- यह कह कर दक्ष प्रजापति ने अपने शरीर के पसीने से उत्पन्न उस देवी को 'रति' ऐसा नामकरण करके कामदेव को पत्नीरूप में दे दिया । । २१ ॥

तां वीक्ष्य मदनो वामां रत्याख्यां सुमनोहराम् ।

आत्माशुगेन विद्धोऽसौ मुमोह रतिरञ्जितः ।।२२।।

कामदेव, रति नामक उस सुन्दर, मन का हरण करने वाली स्त्री को देखकर, अपने ही बाणों से घायल हो, रतिभाव से सुशोभित हो, मोहित हो गया ॥ २२ ॥

क्षणप्रभावदेकान्तगौरी मृगदृशी सदा ।

लोलापांग्यथ तस्यैव मृगीव सदृशी वभौ ।। २३ ।।

इसके बाद उसके ही क्षणिक प्रभाव से वह अत्यन्त गोरी, सदैव मृग के समान चञ्चल दृष्टि वाली रति, अपने चञ्चल कटाक्षों के कारण मृगी की भाँति हो गई ॥ २३ ॥

कालिका पुराण अध्याय ३ रतिरूप वर्णन

तस्या भ्रूयुगलं वीक्ष्य संशयं मदनोऽकरोत् ।

उन्मादकृन्मे कोदण्डं किं वा अस्यां निवेशितम् ।। २४ ।।

उसकी दोनों भौहों को देखकर कामदेव ने यह सन्देह किया, क्या मुझे उन्मत्त करने के लिए इसे धनुष धारण कराया गया है? ॥२४॥

कटाक्षाणामाशुगतिं दृष्ट्वा तस्या द्विजोत्तमाः ।

आशुगत्वं निजात्राणां श्रद्दधे न च चारुताम् ।।२५।।

हे द्विजवरों ! उसे उस रति के कटाक्षों की तीव्रता देखकर अपने अस्त्रों की तीव्रता भी अच्छी नहीं लगी ॥ २५ ॥

तस्याः स्वभावसुरभि धीरं श्वासानिलं तथा ।

आघ्राय मदनः श्रद्धां त्यक्तवान् मलयानिले ।। २६ ।।

उसके स्वभावतः सुरभित, धीर श्वास वायु को सूंघकर कामदेव की मलयाचल की वायु के प्रति भी श्रद्धा नहीं रही॥२६॥

पूर्णेन्दुसदृशं वक्त्रं दृष्ट्वा भ्रूलक्ष्मलक्षितम् ।

न निश्चिकाय मदनो भेदत्वन्मुखचन्द्रयोः ।। २७ ।।

भौहों की शोभा से सुशोभित, पूर्ण चन्द्रमा के समान उसके सुन्दर मुख को देखकर कामदेव उसके मुख तथा चन्द्रमा में अन्तर निश्चित न कर सका ॥२७॥

सुवर्णपद्मकलिकातुल्यं तस्याः कुचद्वयम् ।

रेजे चुचुकयुग्मेन भ्रमरेणैव सेवितम् ।। २८ ।।

उसके चूचुकद्वय से सुशोभित स्तनद्वय भौरों से सेवित स्वर्णकमल की कलियों के समान सुशोभित हो रहे थे ॥ २८ ॥

दृढपीनोन्नतघन स्तनमध्याद्विलम्बिनीम् ।

आनाभितो रोमराजिं तन्वीं चार्वायतां शुभाम् ।।२९।।

ज्यां पुष्पधनुषः कामः षट्पदावलिसम्भृताम् ।

विसस्मार च यस्मात्तां विगृह्यैनां निरीक्षते ॥३०॥

तब पुष्पधनुष धारण करने वाला कामदेव भौरों के कतार से युक्त अपने धनुष की ज्या (डोरी) को भूल गया और उसे छोड़कर रति की रोमावली को देखने लगा । जो उसकी नाभि से उठकर उसके उठे हुए पुष्ट, विशाल स्तनों तक पहुँचती थी । वह पतली किन्तु फैली हुई सुन्दर और शोभन थी ।। २९-३०।।

गम्भीरनाभिरन्ध्रान्तश्चतुष्पार्श्वत्वगावृताम् ।

आननाब्जे क्षणद्वन्द्वमारक्तकमलं यथा ।। ३१ ।।

उसकी नाभि भीतर की ओर गहरी तथा चारों ओर चमड़े से ढकी हुई थी और उसके मुख एवं दोनों नेत्र, कमल के समान लाल थे ॥३१॥

क्षीणामध्येन वपुषा निसर्गाष्टपदप्रभा ।

रत्नवेदीव ददृशे कामेन द्विजसत्तमाः ।। ३२ ।।

हे द्विजश्रेष्ठों ! शरभ के समान स्वाभाविक रूप से अपने शरीर के मध्यभाग, कटि प्रदेश के क्षीण पतले होने के कारण वह कामदेव को रत्नवेदी के समान दिखी ॥ ३२ ॥

रम्भास्तम्भायतं स्निग्धं तदुरुयुगलं मृदु ।

निजशक्तिसमं कामो वीक्षाञ्चक्रे मनोहरम् ॥३३॥

उसके दोनों जङ्घे विशाल केले के खम्भे के समान चिकने, विस्तृत और कोमल थे । अतः कामदेव ने उन्हें अपनी शक्ति के समान सुन्दर समझा ।। ३३ ।।

आरक्तपाणिपादाग्रप्रान्तभागं पदद्वयम् ।

अनुरागम मे स्थितं तस्यां मनोभवः ।। ३४ ।।

उसके दोनों पैर एड़ियों से अङ्गुलियों के अन्तिम छोर तक लाल थे । कामदेव ने उसे अपने प्रति प्रेमपूर्ण माना ॥ ३४ ॥

तस्याः करयुगं रक्तनखरैः किंशुकोपमैः ।

वृत्ताभिरङ्गुलिभिश्च सूक्ष्माग्रभिर्मनोहरैः ।। ३५।।

उसके दोनों हाथ, लाल नखों, पतले अग्रभाग वाली अङ्गुलियों से घिरे हुए, किंशुक के समान मनोहर लग रहे थे ॥३५॥

इति दृष्ट्वा स्मरो मेने ममास्त्रैर्द्विगुणीकृतैः ।

मां मोहयितुमुद्युक्ता किमेषा द्विजसत्तमाः ।। ३६ ।।

हे द्विजवरों! यह देखकर कामदेव ने समझा कि मेरे अस्त्रों को दूना प्रभावशाली करके मुझे ही मोहित करने के लिए यह कौन उद्यत हो गई है ?

तद्वाहुयुगलं कान्तं मृणालयुगलायतम् ।

मृदुस्त्रिग्धं रराजातिकान्ति - तोयप्रवाहवत् ।। ३७ ।।

कमलनाल के जोड़े की भाँति कोमल, चिकनी, सुन्दर और पुष्ट उसकी दोनों भुजायें शोभा के जल-प्रवाह की भाँति अत्यधिक सुशोभित हो रही थीं ॥३७॥

नीलनीरदसङ्काशः केशपाशो मनोहरः ।

चमरीबालभारवद्विभातिस्म स्मरप्रियः ॥३८॥

उसके केशपाश नीले बादल के समान सुन्दर थे और बाल कामदेव को प्रिय लगते हुये चमरी के भार के समान शोभा दे रहे थे ॥३८॥

तां वीक्ष्य मदनो देवीं रतिमतिमनोहराम् ।

कान्तितोयौघसम्पूर्णां कुचवक्त्राब्जकुड्मलाम् ।। ३९ ।।

वक्त्रपद्मां चारुवाहु मृणालीशकलान्विताम् ।

भ्रूयुग्मविभ्रमद्वात तनूर्मिपरिराजिताम् ॥४०॥

अपूर्णकचवक्त्रौघ नेत्रनीलोत्पलान्विताम् ।

तनुलोमानिशैवालां मनोद्रुमविशातिनीम् ।।४१।।

निम्ननाभिहृदां दक्षप्रालेयाद्रिसमुद्भवाम् ।

गङ्गामिव महादेवो जग्राहोत्फुल्ललोचनः ।।४२।।

जो कान्ति, शोभा के जल से परिपूर्ण थी, जिसके स्तनों के मुख, कमल की कली के समान थे। जिसके मुख कमल के समान सुन्दर, भुजायें कमलनाल- खण्डवत् थीं। जिसकी भौहें पतली लहरों के समूह का भ्रम पैदा कर रही थीं, जिसके दृष्टिपात भौरों के समूह का बोध करा रहे थे, जिसके नेत्र नीले कमल के समान नीले थे, जिसकी रोमावली शैवाल के समान पतली थी, जो मनरूपी वृक्षों को उखाड़ फेंकने में समर्थ थी, जिसकी नाभि, हृद के समान गहरी थी, जो दक्षरूपी हिमालय से उत्पन्न गङ्गा के समान थी, उस अतीव सुन्दरी रति को जैसे महादेव ने गङ्गा देवी को प्रसन्न नेत्रों से ग्रहण कर लिया था, उसी प्रकार कामदेव ने भी ग्रहण कर लिया ।। ३९-४२ ।।

उवाच च तदा दक्षं कामो मोदभरान्वितः ।

विस्मृत्य शापञ्च तदा विधिदत्तं सुदारुणम् ।।४३।।

तब प्रसन्नता से भरकर कामदेव ने ब्रह्मा के दिये हुये भयानक शाप को भी उस समय भूलकर, दक्ष प्रजापति से कहा- ॥४३॥

।। मदन उवाच ।।

अनया सहचारिण्या सम्यक्सुन्दररूपया ।

समर्थो मोहितुं शम्भुं किमन्यैर्जन्तुभिर्विभो ।। ४४ ।।

मदन बोले- हे विभो ! इस भलीभाँति सुन्दरी सहचारिणी के साथ मैं भगवान् शङ्कर को भी मोहित कर सकता हूँ। फिर अन्य प्राणियों से क्या ? ॥ ४४ ॥

यत्र यत्र मया लक्ष्यं क्रियते धनुषोऽनघ ।

तत्रानयापि चेष्टव्यं मायया परमाह्वया ॥४५ ।।

हे निष्पाप ! जहाँ-जहाँ मैं अपने धनुष का लक्ष्य बनाऊँ, वहीं-वहीं यह भी परमा नामक माया से चेष्टा करे॥४५॥

यदा देवालयं यामि पृथिवीं वा रसातलम् ।

तदैषाप्यस्तु सध्रीची सर्वदा चारुहसिनी ॥४६ ।।

जब मैं देवलोक, पृथ्वीलोक या रसातल में जाऊँ, तब भी यह सुन्दर हँसीवाली सदा मेरी सहचरी रहे ॥४६ ॥

यथा पद्मालया विष्णोर्जलदानां यथा तडित् ।

तथा ममैषा भविता प्रजाध्यक्षसहायिनी ।। ४७ ।।

हे प्रजापति! जैसे लक्ष्मी विष्णु की तथा विद्युत् बादलों की सहायिका होती है, वैसे ही यह भी मेरी सहायिका होवे॥४७॥

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

इत्युक्त्वा मदनो देवीं रतिं जग्राह सोत्सुकः ।

सागरादुत्थितां लक्ष्मीं हृषीकेश इवोत्तमाम् ।।४८।।

मार्कण्डेय बोले- ऐसा कहकर उत्सुक कामदेव ने उत्तम देवी रति को उसी प्रकार ग्रहण कर लिया, जिस प्रकार सागर से उत्पन्न लक्ष्मी को भगवान् विष्णु ने ग्रहण कर लिया था ॥४८॥

रराज स तया सार्द्धं भिन्नपीतप्रभः स्मरः ।

जीमूत इव सन्ध्यायां सौदामिन्या मनोज्ञया ।। ४९ ।।

पीत प्रभा से रहित कामदेव उसके साथ सन्ध्या समय सुन्दर बिजली से युक्त बादल के समान शोभायमान हुआ ॥ ४९ ॥

इति रतिपतिरुच्चैर्मोदयुक्तो रतिं तां

हृदि परिजगृहे यां योगदर्शीव विद्याम् ।

रतिरपि पतिमग्रयं प्राप्य तोषञ्च लेभे

हरिमिव कमलोत्था पूर्णचन्द्रोपमास्या ।। ५० ।।

इस प्रकार से रति पति कामदेव ने अत्यधिक प्रसन्नता से भरकर, जिस प्रकार योगीजन विद्या को हृदय से लगा लेते हैं, उसी प्रकार उस रति को हृदय से लगा लिया । पूर्णचन्द्रमा के समान मुखवाली रति ने भी श्रेष्ठ पति कामदेव को पाकर विष्णु - को प्राप्त लक्ष्मी की भाँति सन्तोष का अनुभव किया ॥ ५० ॥

॥ श्रीकालिकापुराणे रत्युत्पत्तिवर्णनं नामतृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥

कालिका पुराण अध्याय ३ - संक्षिप्त कथानक

मार्कण्डेय महर्षि ने कहा- इसके उपरान्त समस्त जगतों के पति पद्मयोनि ब्रह्माजी अत्यन्त बलवान् दाह करने वाले पावक (अग्नि) के ही समान कोष्ठ में समाविष्ट होकर प्रज्जवलित हो गये थे और उन्होंने ईश्वर से कहा था कि जिस कारण से आपके ही समझ कामदेव ने पुष्पों के बाणों से मुझे सेवित किया है अर्थात् मुझे अपने कुसुम बाणों का लक्ष्य बनाया है अतः हे हर ! उसका फल अब आप प्राप्त करिए। यह दर्प से विमोहित कामदेव आपके नेत्रों की अग्नि से निर्दग्ध होगा । हे महादेव ! क्योंकि इसने अत्यन्त दुष्कर कर्म किया था । हे द्विजों में परम श्रेष्ठों ! इस रीति से ब्रह्माजी ने भगवान् व्योमकेश (शम्भू) के और महात्मा मुनियों के समक्ष में स्वयं ही कामदेव को शाप दिया था। इसके अनन्तर डरे हुए रति के पति कामदेव ने उसी क्षण में अपने बाणों को छोड़ना परित्यक्त कर दिया था और इस परम दारुण शाप का श्रवण करके प्रत्यक्ष ही प्रादुर्भूत अर्थात् प्रकट हो गया था वह कामदेव डर से अति गद्गद् होकर तथ्य वचन कहने लगा था ।

कामदेव ने कहा- हे ब्रह्माजी ! आपने किसलिए मुझे अत्यन्त दारुण शाप दिया है। मैंने आपका कोई भी अपराध नहीं किया है। हे लोकों के स्वामिन्! आप तो न्याय मार्ग का अनुसरण करने वाले हैं। हे विभो ! मैं जो करता हूँ वह सभी आपके ही द्वारा कहा हुआ करता हूँ । यहाँ पर मुझे शाप देना उचित नहीं है क्योंकि मैंने अन्य कुछ भी कार्य नहीं किया है। आपने स्वयं ही मुझ से कहा था कि मैं तथा भगवान् विष्णु और भगवान् शम्भू ये सभी तेरे शरों के गोचर हैं अर्थात् तेरे बाणों के लक्ष्य होंगे। यह जो कुछ भी आपने ही मुझ से कहा था उसी आपके कथन की परीक्षा मैंने की थी अर्थात् मैंने जाँच की थी कि आपका वचन कहाँ तक सत्य है । हे ब्रह्माजी इसमें मेरा कोई भी अपराध नहीं है । हे जगत् के स्वामिन् ! निरपराध मुझको जो यह परम दारुण शाप दे दिया है अब इस शाप का आप शमन कीजिए ।

मार्कण्डेय मुनि ने कहा-समस्त जगतों के पति ब्रह्माजी ने उस कामदेव के इस वचन को सुनकर उस हुतात्मा कामदेव से पुनः दया से युक्त होकर यह प्रत्युत्तर दिया था।

ब्रह्माजी ने कहा- यह सन्ध्या तो मेरी बेटी है क्योंकि इसके प्रकाश से ही तुमने मुझको अपने बाणों का लक्ष्य बना लिया था । इसी कारण से मैंने तुमको शाप दिया था। इस समय में अब मेरा क्रोध शान्त हो गया है । हे मनोभव अर्थात् कामदेव ! अब मैं तुझसे कहता हूँ कि आपको जो मैंने दिया था वह किसी भी तरह से शमन हो जायेगा। तू भगवान् शंकर के तीसरे नेत्र की अग्नि से भस्मीभूत होकर भी फिर उनकी ही कृपा से पुनः अपने शरीर की प्राप्ति कर लेगा । जिस समय भगवान् हर कामदेव अपनी पत्नी का परिग्रह करेंगे उस समय में वे ही स्वयं तुम्हारे शरीर को प्राप्त करा देंगे ।

मार्कण्डेय मुनि ने कहा- लोकों के पितामह ब्रह्माजी ने कामदेव से इतने ही वचन कहकर मानस पुत्र समस्त मुनीन्द्रों के देखते हुए वे अन्तर्हित हो गए थे। सबके विधाता उन ब्रह्माजी के अन्तर्धान हो जाने पर भगवान शम्भु भी वायु के समान वेग से अपने अभीष्ट देश को चले गए थे । उन ब्रह्माजी के अन्तर्हित हो जाने पर भगवान् शम्भु के भी अपने स्थान पर चले जाने के पश्चात् प्रजापति दक्ष उसकी पत्नी को निदर्शित करते हुए कामदेव से बोले-

हे कामदेव ! यह मेरे देह से समुत्पन्न हुई मेरे ही रूप और गुणों से समन्वित है यह आपके ही सदृश गुणों से युक्त है सो अब तुम इसको अपनी भार्या बनाने के लिए ग्रहण कर लो । यह महान् तेज से युक्त सर्वदा आपके ही साथ चरण चलने वाली और इच्छानुसार धर्म से वश में वर्त्तन करने वाली होगी ।

मार्कण्डेय महर्षि ने कहा- दक्ष प्रजापति ने यह कहकर अपनी देह के पसीने से उत्पन्न हुई पुत्री को कामदेव के लिए उसके आगे करके दे दिया था और उसका नाम रतियह कहकर ही प्रदान किया था । कामदेव भी उस परम सुन्दरी रति नाम वाली वराँगना को देखकर उस रति में अत्यधिक अनुरक्त होकर अपने ही बाण के द्वारा विद्ध होकर मोह को प्राप्त हो गया था । क्षणमात्र में होने वाली प्रभा के ही समान वह एकान्न गौरी और मृगी के समान लोचनों वाली तथा चंचल उपांगों से समन्वित मृगी की भाँति उसके ही तुल्य परम शोभित हुई थी। उस रति की दोनों भौंहों को देखकर कामदेव ने संशय किया था कि क्या विधाता ने मुझे उन्माद वाला बनाने के लिए यह कोदण्ड ( धनुष ) निवेषित किया है।

हे द्विजोत्तमो ! उस रति के कटाक्षों की शीघ्र गमन करने वाली गति को देखकर अर्थात् शीघ्र ही हृदय को बिद्ध कर देने वाली चाल को देखते हुए उसे अपने अस्त्रों की शीघ्रगामिता और सुरन्दरता पर श्रद्धा नहीं रह गयी थी। तात्पर्य यही है कि उसके (रति के) कटाक्षों की गति के सामने अपने बाणों की गति कामदेव को तुच्छ प्रतीत होने लग गयी थी। उस रति की स्वाभाविक रूप से सुगन्धित धीर श्वासों की वायु का आघ्राण करके कामदेव ने मलय पर्वत की गन्ध को लाने वाली वायु में श्रद्धा का त्याग कर दिया था । कथन का अभिप्राय यह है कि मलय मारुत भी उसके श्वासानिल के समाने हेय प्रतीत हो रही थी । पूर्णचन्द्र के समान भौंहों के चिह्न से लक्षित उसके मुख को देखकर कामदेव ने उसके मुख और चन्द्र में किसी प्रकार के भेद का निश्चय नहीं किया था। उस रति के दोनों स्तनों का जोड़ा सुनहरी कमल की कलिका के जोड़े के ही समान था । उन स्तनों के ऊपर जो कृष्ण वर्ण से युक्त चूचक थे (काली घुडियाँ ) वे ऐसी प्रतीत हो रही थीं मानों कमल की कलिकाओं पर भ्रमर बैठे हुए रसपान कर रहे हों ।

अत्यन्त दृढ़ (कठोर ) पीन (स्थूल) और उन्नत स्तनों के मध्य भाग से नीचे की ओर जाती हुई नाभि पर्यन्त रहने वाली, तन्वी सुन्दर, आयत और शुभ रसों की पंक्ति को कामदेव ने भ्रमरों की पंक्ति से संम्भृत (सयुत) पुष्प धनुष की ज्या (डोरी) को भी विस्मृत कर दिया था क्योंकि उसका ग्रहण करके इसको ही देखता है । पुनः उसके ही सुन्दर स्वरूप का वर्णन करते हुए कहते हैं कि उसकी गम्भीर नाभि के रन्ध्र ( छिद्र) के अन्दर चारों ओर त्वचा से वह आवृत थी । उसके मुख कमल पर जो दो नेत्रों को जोड़ा था वह ऐसी प्रतीत होता था मानों थोड़ी लालिमा से युक्त कमल हो ।

हे द्विज श्रेष्ठों ! जिसका मध्य भाग क्षीण था ऐसे शरीर से वह रति निसर्ग अष्टपद की प्रभा वाली थी । उसको कामदेव ने रत्नों द्वारा विरचित वेदी के ही समान देखा था । उसके उरुओं का युगल अत्यन्त कोमल और कदली के स्तम्भ के समान आयत एवं स्निग्ध (चिकना) था । कामदेव ने उसको अपनी शक्ति के ही तुल्य मनोहर देखा था। थोड़ी रक्तिमा से युक्त पाणि पादाग्र प्रान्त भाग से संयुक्त दोनों पदों के जोड़े को कामदेव ने उसमें स्थित अनुराग से परिपूर्ण चित्र देखा था। उस रति के दोनों हाथों को जो ढाक के पुष्पों के समान लाल नाखूनों से युक्त थे और परम सूक्ष्म सुवृत्त अंगुलियों को परम मनोहर देखा था ।

हे द्विजसत्तमो ! यह देखकर कामदेव ने यह मान लिया था कि मेरे अस्त्रों से द्विगुणित हुए अस्त्रों के द्वारा क्या यह मुझको मोहित करने के लिए उद्यत हो रही है ? उसकी दोनों बाहुओं का जोड़ा मृणाल के जोड़े के समान अधिक सुन्दर था । वह अत्यन्त कान्ति संयुत जल के प्रवाह के समान मृदु और स्निग्ध शोभित हो रहा था। उसका केशों का पाश अत्यधिक मनोहर नील वर्ण वाले मेघ के सदृश था और कामदेव का प्रिय वह चमरी गौ के पूँछ के बालों के भार के समान प्रतीत होता है । उस अत्यधिक मनोहर रति देवी का काम अवलोकन करके विकसित लोचनों वाला हो गया था । उसी रति की विशेष स्वरूप शोभा का वर्णन करते हुए कहते हैं कि वह रति देवी उपकी कान्ति रूपी जल ओघ (समूह) से सम्पूर्ण थी, वह अपने कुचों के मुख कमल की कालिका वाली थी, पद्म के सदृश मुख से समन्वित थी, सुन्दर बाहुरूपी मृगालीश (चन्द्र) की कला से संयुत थी, यह रति देवी दोनों भौंहों के युग्म के विभ्रमों के समूह से तनूर्मियों से परिराजित थी, वह कटाक्ष पातरूपी भ्रमरों को समुदाय वाली थी, वह नेत्ररूपी नील कमलों से समन्वित थी, वह शरीर की रोमावलि के शैवाल से युक्त थी, वह मनरूपी द्रुमों के विशातन करने वाली थी, वह रति गम्भीर नाभिरूपी हृद से युक्त थी, वह दक्षरूपी हिमालय गिरि से सुमुत्पन्न हुई गंगा की भाँति महादेव की तरह उत्फुल्ल लोचन थी । उस समय में मोद के भार से युत आनन वाले कामदेव ने विधाता के द्वारा दिए हुए सुदारुण शाप को भूलकर प्रजापति दक्ष से कहा था ।

कामदेव ने कहा- हे विभो ! भली-भाँति परमाधिक स्वरूप लावण्य से समन्वित इस सहचारणी के द्वारा मैं भगवान् शम्भु को मोहित करने की क्रिया में समर्थ हो सकूँगा फिर अन्य जन्तुओं से क्या प्रयोजन है । हे अनघ अर्थात् पिष्पाप ! जहाँ-जहाँ पर मेरे द्वारा धनुष का लक्ष्य किया जाता है वहीं वहीं पर इसके द्वारा भी रमण नामक माया से चेष्टा की जायेगी । जिस समय में मैं देवों के आलय अर्थात् स्वर्ग में जाता हूँ अथवा पृथ्वी या रसातल में गमन किया करता हूँ उसी समय में यह भी सर्वदा चारुहास वाली हो जाया करेगी। जिस प्रकार लक्ष्मी साथ गमन करने वाली होती है और मेघों के साथ विद्युत रहा करती है उसी भाँति मेरी प्रजाध्यक्ष सहायिनी होगी ।

मार्कण्डेय मुनि ने कहा- कामदेव ने इस रीति से यह कहकर रति देवी को बहुत ही उत्सुकता के सहित होकर ग्रहण किया था जिस प्रकार से सागर से समुत्थित उत्तमा लक्ष्मी को भगवान् हृषीकेश ने ग्रहण कर लिया था । भिन्न पीतप्रभा वाला कामदेव उस रति के साथ शोभित हुआ था जिस प्रकार से सन्ध्या के समय में मनोहर सौदामिनी के साथ मेघ की शोभा हुआ करती है । इस रीति से बहुत ही अधिक मोद से युक्त रति के पति कामदेव ने उस रति को अपने हृदय में विद्या को योगदर्शी के ही समान परिग्रहण किया था । रति ने भी परम श्रेष्ठ पति को प्राप्त करके परमाधिक सन्तोष को प्राप्त किया था अर्थात् अत्यन्त सन्तुष्ट हो गई थी। जैसे कमल समुत्पन्ना पूर्ण चन्द्र के समान मुख वाली लक्ष्मी भगवान् हरि को प्राप्त करके सन्तुष्ट हो गयी थी ।

।। श्रीकालिकापुराण में रतिउत्पत्तिवर्णन नामक तीसरा अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ ३ ॥

आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 4

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