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कालिका पुराण अध्याय ८८
Kalika puran chapter 88
कालिकापुराणम् अष्टाशीतितमोऽध्यायः विष्णुपूजनविधिः
कालिकापुराणम्
॥ अष्टाशीतितमोऽध्यायः
॥
अथ श्रीकालिका पुराण अध्याय ८८
।। और्व उवाच ॥
ज्येष्ठ
दशहरायां तु विष्णोरिष्टिं नृप शृणु ।
येन वा विधिना
कुर्यादिष्टिं विष्णोर्नृपः सदाः ॥ १॥
और्व बोले- हे
राजन् ! अब ज्येष्ठ मास की दशमी तिथि को होने वाले विष्णुयज्ञ के विषय में सुनो।
राजा को सदैव जिस विधि से उस विष्णुयज्ञ को करना चाहिये,
वह मैं तुमसे कहता हूँ ॥ १ ॥
प्रत्यब्दं
पार्थिवः कुर्यात् प्रतिमां काञ्चनी हरेः ।
अन्यतेजोमयी
वापि दारवीं वा शिलामयीम् ।।२।।
राजा
प्रतिवर्ष भगवान् विष्णु की सोना या अन्य धातु की, लकड़ी या पत्थर की मूर्ति बनवाये ॥२॥
तां
प्रतिष्ठाप्य विधिना मानोन्मानैस्तु शिल्पिभिः ।
प्रतिष्ठां
विधिवत् तस्याः कुर्याद् विप्रैः पुरोहितैः ।।३।।
उसकी
शिल्पियों के मान और माप के अनुसार प्रतिष्ठा (स्थापना) करके ब्राह्मण एवं
पुरोहितों द्वारा विधिवत् उसकी प्राणप्रतिष्ठा करे॥ ३ ॥
तां संस्थाप्य
सुरागारे स्वयं वा यत्नतः कृते ।
वासुदेवस्य
बीजेन पूर्वोक्तविधिना तथा ।
सर्वोपचारैर्भक्त्या
तु वासुदेवं प्रपूजयेत् ॥४॥
उसे देवालय
में स्वयं प्रयत्नपूर्वक, वासुदेव के बीजमन्त्र से पहले बताई गई विधि के अनुसार,
सभी उपचारों से, भक्तिपूर्वक, भगवान् विष्णु का पूजन करे॥४॥
पूजान्ते
संस्कृते वह्नौ कुण्डमध्ये स्थितो द्विजः ।
आज्यैः सहस्रं
जुहुयादाहुतीनां हरेः प्रियम् ।।५।।
ब्राह्मण पूजा के पश्चात्, कुण्ड के मध्य में स्थित, संस्कारित अग्नि में घी से भगवान् विष्णु को प्रिय लगने
वाली हजार आहुतियाँ, हवन करे ॥ ५ ॥
संपूज्य
वासुदेवं तु होमं कृत्वा ततो द्विजः ।
नृपस्यानुमते
तां तु प्रतिमां मण्डलं नयेत् ।। ६ ।।
तब द्विज
वासुदेव की पूजा और होम करके राजा की अनुमति से उस प्रतिमा को मण्डल में स्थापित
करे ॥ ६ ॥
प्रतिमायाः
कपोलौ द्वौ स्पृष्ट्वा दक्षिणपाणिना ।
प्राणप्रतिष्ठां
कुर्वीत तस्यां देवस्यवै हरेः ॥७॥
प्रतिमा के
दोनों गालों का दाहिने हाथ से स्पर्श करके, उसमें भगवान् विष्णु की प्राणप्रतिष्ठा करे ॥७॥
कृतायां तु
प्रतिष्ठायां प्राणानां नृपसत्तम ॥८॥
विष्णुप्राणास्तां
प्रतिमामायान्ति नियतं स्वयम् ।
प्राणेष्वथागतेष्वस्यां
देवत्वं नियतं भवेत् ।। ९ ।।
हे राजाओं में
श्रेष्ठ ! प्राणों की प्रतिष्ठा करने से विष्णु के प्राण,
उस प्रतिमा में स्वयं आकर स्थित हो जाते हैं। प्राणों के आ
जाने पर देवत्व भी उसमें स्थायी हो जाता है ।।८-९ ॥
अकृतायां
प्रतिष्ठायां प्राणानां प्रतिमासु च ।
यथापूर्वं तथा
भावः स्वर्णादीनां न विष्णुता ।। १० ।।
प्रतिमाओं में
प्राणों की प्रतिष्ठा न किये जाने से इन प्रतिमाओं में पहले की भाँति,
स्वर्णादि मूल धातुओं का ही भाव रहता है,
उसमें भगवान् विष्णु का भाव नहीं आ पाता ॥ १० ॥
अन्येषामपि
देवानां प्रतिमास्वपि पार्थिव ।
प्राणप्रतिष्ठा
कर्तव्या तस्या देवत्वसिद्धये ।। ११ ।।
हे राजन् !
अन्य प्रतिमाओं में भी देवत्व सिद्धि के लिए देवताओं की प्राणप्रतिष्ठा करनी
चाहिये ॥ ११ ॥
सुवर्णं तु
सुवर्णः स्याच्छिला दारु तथा शिला ।
अन्यच्च
स्वस्वरूपं स्यात् प्राणस्थानमृते सदा ।।१२।।
प्राण स्थापन
के बिना प्रतिमा का स्वर्ण, स्वर्ण, लकड़ी, लकड़ी और शिला, शिला, मूर्तिनिर्माण के अन्य पदार्थ,
अपने मूलरूप में सदैव रहते हैं ।। १२ ।।
वासुदेवस्य
बीजेन तद् विष्णोरित्यनेन च ।
तथैवाङ्गाङ्गिमन्त्राभ्यां
प्रतिष्ठामाचरेद्धरेः ।। १३ ।।
वासुदेव के
बीज मन्त्र या तद् विष्णोः - इस मन्त्र से या उसी प्रकार विष्णु अङ्ग और
अङ्गि मन्त्रों से भगवान् विष्णु की प्राणप्रतिष्ठा सम्पन्न करे ।। १३ ।।
तथैव
हृदयेऽङ्गुष्ठं दत्त्वा शश्वच्च मन्त्रवित् ।
एभिर्मन्त्रैः
प्रतिष्ठाप्य हृदयेऽपि समाचरेत् ।। १४ ।।
उसी प्रकार
हृदय पर अँगूठा रखकर मन्त्रवेत्ता निरन्तर इस मन्त्र से प्रतिमा के हृदय में
प्राणप्रतिष्ठा सम्पन्न करे ॥ १४ ॥
अस्यै प्राणाः
प्रतिष्ठन्तु अस्यैः प्राणाः क्षरन्तु यत् ।
असौ
देवत्वसंख्यायै स्वाहेति यजुरुच्चरन् ।। १५ ।।
अङ्गमन्त्रैरङ्गिमन्त्रैर्वेदिकैरित्यनेन
च ।
प्राणप्रतिष्ठां
सर्वत्र प्रतिमासु समाचरेत् ।। १६ ।।
मन्त्रार्थ -
इसके प्राण प्रतिष्ठित एवं सञ्चारित होवें, वे देवत्व संख्यान के निमित्त होवें । देवत्व की
प्रतिष्ठार्थ अस्यैः प्राणाः स्वाहा इस यजुष का उच्चारण करके अङ्ग और अङ्गि
मन्त्रों तथा वैदिक मन्त्रों से प्रयत्नपूर्वक सभी प्रतिमाओं में प्राण- प्रतिष्ठा
सम्पन्न करे ।। १५-१६ ।।
प्रतिमापूजने
कुर्यादात्मन्यपि च मन्त्रवित् ।
प्राणप्रतिष्ठां
प्रथमं पूजा भागविशुद्धये ।। १७ ।।
मन्त्रवेत्ता
प्रतिमा पूजन के अवसर पर पहले अपने में ही पूजा भाग की शुद्धि के लिए
प्राणप्रतिष्ठा करे ॥ १७ ॥
अस्मिन्
प्राणप्रतिष्ठा तु प्रतिमापूजनादृते ।
न कश्चित् तु
बुधः कुर्यात् कृत्वा मृत्युमवाप्नुयात् ।। १८ ।।
किन्तु अस्मिन्
प्राणप्रतिष्ठामन्त्र का प्रतिमा पूजन के अतिरिक्त अन्यत्र प्रयोग न करे,
करने से मृत्यु को प्राप्त होता है॥१८॥
विष्णोरिष्टिमिमां
कृत्वा दशम्यां पार्थिवोत्तमः ।
तस्यामेव तू
पूर्णायां प्रतिमां स्थापयेत् ततः ।। १९ ।।
श्रेष्ठ राजा
दशमी तिथि को विष्णु की इस इष्टि को करके, उसी पूर्णिमा के दिन प्रतिमा की स्थापना करे ।। १९ ।।
एवं दशहरायां
तु कृत्वेष्टिं पार्थिवो हरेः ।
सर्वान्
कामानवाप्नोति निर्विघ्नोऽपि स जायते ।। २० ।।
इस प्रकार से
दशमी को भगवान् विष्णु का पूजन करके राजा, सभी कामनाओं को प्राप्त करता है तथा वह विघ्नरहित हो जाता
है ।। २० ॥
श्रीपंचम्यां
श्रियं देवीं कुन्दैः संपूजयेत्सदा ।
वासवं गजराजस्थमुपहारैस्तथोत्तमैः
।। २१ ।।
श्रीपञ्चमी को
सदैव कुन्द से श्री (लक्ष्मी) की पूजा तथा गजराज ऐरावत पर स्थित इन्द्र की पूजा,
उत्तम उपहारों से करनी चाहिये ॥ २१ ॥
लक्ष्म्यास्तन्त्रं
महामन्त्रं वासवस्य पुरोदितम् ।
अत्रापि पूजने
ग्राह्यं मण्डलादि यथाक्रमम् ।। २२ ।।
लक्ष्मी का पूजन विधान,
महामन्त्र और इन्द्र का पूजन विधानादि जो पहले ही कहा गया
है,
यहाँ पूजन में क्रमानुसार उन्हीं मण्डल आदि को ग्रहण करना
चाहिये ॥ २२ ॥ !
एवं कृते
पूजने तु श्रीपंचम्यां विशेषतः ।
श्रीयुतो
नृपतिर्भूयान्न श्रीहानिमवाप्नुयात् ।। २३ ।।
इस प्रकार
पूजन करने, विशेष कर श्रीपञ्चमी के दिन पूजन करने से, राजा श्री से युक्त होता है, वह श्री की हानि को प्राप्त नहीं होता है ।। २३॥
सदाचारविशेषोऽयं
कथितस्तव पार्थिव ।
निषेधे तु
विशेषांश्च शृणु येन श्रियेष्यते ।। २४ ।।
हे राजन् ! यह
विशेष सदाचार तुमसे कहा गया। अब उन न करने योग्य विशेषों को सुनो,
जिनके पालन से लक्ष्मी की प्राप्ति होती है ॥२४॥
असंपूज्य तथा
विष्णुं शिवमग्निं पुरन्दरम् ।
अदत्त्वा च
तथा दानं न भुञ्जीत नृपः क्वचित् ।। २५ ।।
राजा कभी भी
शिव,
अग्नि, विष्णु और इन्द्र की पूजा किये तथा दान बिना भोजन न करे ॥
२५ ॥
हावयेदग्निहोत्रं
तु नित्यमेव पुरोहितैः ।
अकृत्वा
चाग्निहोत्रं तु भुञ्जन्नरकमाप्नुयात् ।। २६ ।।
वह नित्य ही
पुरोहितों द्वारा अग्निहोत्र कराये। बिना अग्निहोत्र किये जो भोजन करता है,
वह नरक को प्राप्त करता है॥ २६ ॥
नारक्षिते गृहे
राजा रत्नदीपविवर्जिते ।
स्वपेत् तथा
स्त्रिया सार्धं न कदाचन संविशेत् ।। २७ ।।
राजा कभी भी
रक्षा से हीन, रत्नदीप से हीन, घर में न सोये और न तो वह अकेले स्त्रियों के साथ ही रहे
।।२७।।
भुक्त्वान्नं
श्रीफलं नाद्यात् तथा धात्रीफलं नृपः ।
बुद्धिक्षयकरा
ह्येता माष आसवमृत्तिकाः ।। २८ ।।
अन्न खाकर
राजा नारीयल और आँवला न खाये। ऊर्द, आसव तथा मिट्टी, बुद्धि का नाश करने वाली होती हैं ।। २८ ।।
निम्बाटरूपच्युताश्च
बुद्धिवृद्धिकरा मताः ।
बुद्धिक्षयकरां
नित्यं त्यजेद्राजा च भोजने ।। २९ ।।
नीम,
अरुष (अडूस), च्युत (आम) ये बुद्धि को बढ़ाने वाले बताये गये हैं। राजा
को अपने भोजन में बुद्धिनाश करने वाले पदार्थों का त्याग करना चाहिये ॥ २९ ॥
भक्षयेदन्वहं
बुद्धिवृद्धिहेतुं नृपोत्तमः ।
न
पर्यायविहीनं तु प्रारोहेदासनं नृपः ।। ३० ।।
उत्तम राजा,
प्रतिदिन बुद्धि वृद्धि कारक पदार्थों का सेवन करे। वह कभी
भी जाँचे-परखे बिना आसन पर न चढ़े ॥ ३० ॥
न यानं न गजं
नाश्वमारोहेद्धींनमासनैः ।
नैकस्तु
विचरेद्राजा कदाचिदपि निर्जने ॥ ३१ ॥
राजा आसन से
रहित वाहन, हाथी,
घोड़े आदि पर न चढ़े, वह कभी भी निर्जन स्थान में अकेले विचरण न करे ॥ ३१ ॥
मदहेतुं न
भुंजीयात् कदाचिदपि भोजने ।
कदाचिन्नापि
सेवेत ह्यष्टम्यां मांसमैथुने ।। ३२ ।।
भोजन में मद
बढ़ाने वाला पदार्थ वह कभी भी न खाये तथा अष्टमी को मधु और मांस का भोजन वह कभी भी
न करे ॥ ३२ ॥
दर्शश्राद्धं गया
श्राद्धं तिलैस्तर्पणमेव च ।
न जीवत्पितृको
भूप कुर्यात् कृत्वाघमाप्नुयात् ।। ३३ ।।
राजा अपने
पिता के जीवित रहते, अमावस्या श्राद्ध, गया श्राद्ध, तिल से तर्पण न करे। ऐसा करने पर वह पाप को प्राप्त करता है
॥३३॥
न
क्षेत्रजादींस्तनयान् राज्ये राजाभिषेचयेत् ।
पितॄणां
शुद्धये नित्यमौरसे तनये सति ।। ३४।।
औरसपुत्र के
रहते पितरों की शुद्धि के लिए क्षेत्रज आदि अन्य पुत्रों को राज्य में वह
राज्याभिषिक्त न करे॥३४॥
औरसः
क्षेत्रजश्चैव दत्तः कृत्रिम एव च ।
गूढोत्पन्नोऽपविद्धश्च
भागार्हास्तनया इमे ।। ३५ ।।
औरस,
क्षेत्रज, दत्त, कृत्रिम, गूढ़ोत्पन्न, अपविद्ध, ये छः पुत्र भाग ग्रहण करने वाले कहे गये हैं । ३५ ॥
कानीनश्च
सहोढश्च क्रीतः पौनर्भवस्तथा ।
स्वयंदत्तश्च
दासश्च षडेते पुत्रपांसुलाः ।। ३६।।
कानीन,
सओढ़, क्रीत, पौनर्भव, स्वयंदत्त, दास ये छ: पांसुलपुत्र कहे गये हैं॥ ३६ ॥
अभावे
पूर्वपूर्वेषां परान् समभिषेचयेत् ।
पौनर्भवं
स्वयंदत्तं दासं राज्ये न योजयेत् ।। ३७ ।।
पहले वालों के
अभाव में बाद वाले का अभिषेक करे । किन्तु पुनर्भूपत्नी से उत्पन्न पुत्र,
स्वयंदत्त, तथा दासपुत्र को राज्य में नियोजित न करे ।। ३७।।
दत्ताद्याश्चापि
तनया निजगोत्रेण संस्कृताः ।
आयान्ति
पुत्रतां सम्यगन्यबीजसमुद्भवाः ।। ३८ ।।
दत्त आदि
पुत्र भी अन्य के गर्भ से उत्पन्न होने के बाद भी भली भाँति अपने गोत्र से संस्कृत
होकर,
पुत्रत्व को प्राप्त करते हैं॥३८॥
पितुर्गोत्रेण
यः पुत्रः संस्कृतः पृथिवीपतेः ।
आचूडान्तं न
पुत्रः स पुत्रता याति चान्यतः ।। ३९।।
पिता के गोत्र
से जो पुत्र राजा के संस्कारों से युक्त हो, वही पुत्रता को प्राप्त करता है व चूडान्त (मुण्डन) संस्कार
तक वह पुत्र नहीं होते जो अन्य से पुत्रता को प्राप्त करते हैं ।। ३९ ।।
चूडान्ता यदि
संस्कारा निजगोत्रेण संस्थिताः ।
दत्ताद्यास्तनयास्ते
स्युरन्यथा दास उच्यते ॥४०॥
यदि चूडान्त संस्कार
अपने गोत्र में स्थित होकर हो तो वे दत्त आदि पुत्र भी पुत्रत्व को प्राप्त करते
हैं अन्यथा वे दास कहे जाते हैं । ४० ॥
ऊर्ध्व तु
पंचमाद् वर्षाद् दत्ताद्यांश्च सुतान्नृप ।
गृहीत्वा
पंचवर्षीयं पुत्रेष्टिं प्रथमं चरेत् ॥। ४१ ।।
हे राजन् !
दत्त आदि पुत्र यदि पाँच वर्ष के ऊपर की अवस्था के हों तो पहले पाँच वर्ष की
अवस्था होने पर ही उन्हें ग्रहण कर पुत्रेष्टियज्ञ करना चाहिये ॥ ४१ ॥
पौनर्भवं तु
तनयं जातमात्रं समानयेत् ।
कृत्वा
पौनर्भवष्टोमं जातमात्रस्य तस्य वै ।। ४२ ।।
एकोद्दिष्टं
पितुः कुर्यान्न श्राद्धं पार्वणादिकम् ।
सर्वांस्तु
कुर्यात् संस्कारान् जातकर्मादिकान्नरः ।
कृतेपौनर्भवष्टोमे
सुतः पौनर्भवः स्मृतः ।। ४३ ।।
पुनर्भू से
उत्पन्न पुत्र के उत्पन्न होते ही, व्यक्ति उसे अपने घर ले आवे तथा उत्पन्न होते ही उसके लिए
पौनर्भव नामक ष्टोमयज्ञ करे। तत्पश्चात् उस बालक के जातकर्म आदि सभी संस्कारों को
करे। पौनर्भवष्टोम किये जाने पर ही वह पुत्र पौनर्भव कहा गया है। ऐसा पुत्र,
पिता का एकोदिष्ट श्राद्ध करे,
वह पार्वण आदि श्राद्ध न करे ॥ ४२-४३ ॥
क्रीता या
वनिता मूल्यैः सा दासीति निगद्यते ।
तस्यां तस्यां
यो जायते पुत्रो दासः पुत्रस्तु स स्मृतः ।। ४४ ।।
जो स्त्री
मूल्य देकर खरीदी जाती है उसे दासी कहते हैं। उससे जो पुत्र उत्पन्न होता है,
वह दासपुत्र कहा गया है ।। ४४ ।।
न राज्ञो
राज्यभाक् स स्याद् विप्राणां नापि श्राद्धकृत् ।
अधमः
सर्वपुत्रेभ्यस्तं तस्मात् परिवर्जयेत् ।। ४५ ।।
राजाओं के
राज्य का न तो वह अधिकारी होता है और न ब्राह्मणों के श्राद्ध का ही उसे अधिकार
होता है । वह सब प्रकार के पुत्रों में अधमश्रेणी का पुत्र है। अतः उसे छोड़ ही दे
॥४५॥
पुराणं
धर्मशास्त्राणि संहिताश्च मुनीरिताः ।
नाध्यापयेन्नृपः
शूद्रैर्विहितानि यदृच्छया ।। ४६ ।
यस्य राज्ये
सदा शूद्राः पुराणं संहिता तथा ।
पठन्ति स्यात्
स हीनायुः राजा राष्ट्रेण सान्वयः ।।४७।।
राजा मुनियों
द्वारा कहे गये धर्मशास्त्र और संहिता ग्रन्थों को शूद्रों (अयोग्यजनों) द्वारा
मनमाने ढंग से न पढ़वाये क्योंकि जिस राजा के राज्य में शूद्र सदा पुराण व संहिता
पढ़ते हैं, वह अपने राष्ट्र तथा राज्याङ्गों सहित हीन- आयु वाला होता है ॥४६-४७।।
मोहाद् वा
कामतः शूद्रः पुराणं संहिता स्मृतिम् ।
पठन्नरकमाप्नोति
पितृभिः सह पापकृत् ।। ४८ ।।
मोहवश या
इच्छानुसार जो शूद्र, पुराण, संहिता और स्मृति ग्रन्थों को पढ़ता है,
वह पापकर्ता होता है तथा पिता के सहित,
नरक को प्राप्त करता है॥४८॥
शूद्रेभ्यो
विहितं यत् तु यश्च मन्त्र उदाहृतः ।
तद्विप्रवचनाद्
ग्राह्यं द्वयं शूद्रैः सदैव हि ।। ४९ ।।
शूद्रों
द्वारा जो मन्त्र (परामर्श) दिया जाय उसे शूद्रों के साथ ही दो ब्राह्मणों के
वचनों से अनुमोदित कराकर ग्रहण करना (उपयोग में लाना) चाहिये ।। ४९ ।।
न योजयेनृपः
शूद्रं व्यवहारस्य दर्शन ।। ५० ।।
नियोज्य तत्र
तं भूपस्तामिस्त्रे तेन पच्यते ।
हीनायुश्च
भवेल्लोको राजा वापि सहायजः ।। ५१ ।।
राजा शूद्रों
को व्यवहार के दर्शन (न्याय-व्यवस्था) में न नियुक्त करे । उनको उसमें नियुक्त कर
राजा तामिस्र नरक भोगता है या अपने सहायकों के सहित वह राजा लोक में हीन आयु को
प्राप्त करता है ।। ५०-५१ ॥
काणं
व्यङ्गमपुत्रं वा नाभिज्ञमजितेन्द्रियम् ।
न ह्रस्वं
व्याधितं वापि नृपः कुर्यात् पुरोहितम् ।। ५२ ।।
काने,
विकलाङ्ग, पुत्रहीन, अज्ञानी, अजितेन्द्रिय, बहुत छोटे या दीर्घरोगी व्यक्ति को राजा,
अपना पुरोहित न नियुक्त करे ॥ ५२ ॥
कृपणस्य धनं
राजा न गृह्णीयात् कदाचन ।
न द्विजानां
तथा दद्याद् धनानि विपुलान्यपि ।। ५३ ।।
राजा न तो कभी
कृपण का धन ही ग्रहण करे और न द्विजों को (ब्राह्मणों या याचकों को) बहुत अधिक दान
ही करे ॥ ५३ ॥
नारोहेत्
कामुकोन्मत्तगजं राजा कदाचन ।
आरुह्य
कामुकस्तं तु परत्रेह विषीदति ।।५४।।
राजा कभी भी
कामुक या उन्मत्त हाथी (या घोड़े) पर सवार न हो, यदि वह कामुक वाहन पर आरोहण करता है तो वह इस लोक और परलोक
दोनों ही स्थानों पर कष्ट पाता है ॥५४॥
अनायुष्यं न
कुर्यात् तु कर्म भूपः कदाचन ।
यततं चायुषो
वृद्ध्यै यतेत सकलैर्धनैः ।। ५५ ।।
राजा कभी भी
आयु कम करने वाले कार्य न करे। उसे अपने समस्त धन के सहित,
आयुवृद्धि के लिए प्रयत्न करते रहना चाहिये ॥
५५ ॥
न क्रूरवारे
नाष्टम्यां न षष्ठयां च नृपोत्तमः ।
अञ्जनाभ्यञ्जने
कुर्यात् ताम्बूलस्यापि भोजनम् ।। ५६ ।।
उत्तम राजा को
रवि-शनि-भौम आदि क्रूरवार, अष्टमी षष्ठी आदि तिथियों में अञ्जन लगाने और पान खाने का
कार्य नहीं करना चाहिये ॥ ५६ ॥
अतिसूक्ष्मं
तथा पूर्णग्रहणं चन्द्रसूर्ययोः ।
नालोकयेत्
स्वयं राजा रक्तं सूर्य तथैव च ।। ५७ ।।
राजा चन्द्रमा
और सूर्य के बहुत सूक्ष्म या पूर्णग्रहण को स्वयं न देखे। उसी प्रकार वह लालसूर्य
(उगते या डूबते सूर्य) को भी न देखे ॥ ५७ ॥
उत्पातं जायते
यत्तु दिव्यं भौमं च नाभसम् ।
नेक्षेत
यत्नान्नृपतिर्दृष्ट्वा नाद्यात् त्र्यहं पुनः ।।५८।।
जो दैवी,
पृथ्वी सम्बन्धी और आकाशीय उत्पात होते हैं,
राजा उन्हें प्रयत्न पूर्वक न देखे। यदि किसी प्रकार से देख
ले तो वह प्रायश्चित स्वरूप तीन दिन भोजन न करे ।। ५८ ।।
सर्वदा मङ्गलं
रत्नं धारयेत् सह दूर्वया ।
अवस्त्राच्छदितं
गात्रं न विप्रेभ्यः प्रदर्शयेत् ।। ५९ ।।
वह दूर्वा के
सहित सदैव मङ्गलमय रत्नों को धारण करे तथा ब्राह्मणों को कभी भी वस्त्रसे नढका
(नङ्गा) शरीर न दिखाये।। ५९ ।।
न तोयेषु मुखं
पश्येन्नाद्यान्मांसानि पर्वसु ।
नारोहयेत् खरं
चोष्ट्रं न वामामपि गुर्विणीम् ।। ६० ।।
वह न कभी जल
में अपना मुख देखे, न पर्वों पर मांस भक्षण करे, न गदहा, ऊँट पर चढ़े, या गर्भिणी स्त्री का ही सेवन करे ॥ ६० ॥
एवं नययुतो
राजा चतुरङ्गं विवर्धयन् ।
आत्मानं सततं
रक्षन् सदा वीर्यं विवर्धयेत् ।। ६१ ।।
इस प्रकार से
नीतियों से युक्त हो राजा, अपने चारो अङ्गों की वृद्धि करे,
वह निरन्तर अपनी रक्षा करे तथा अपनी शक्ति को बढ़ाता रहे ॥६१॥
वीजक्षयकरन्नित्यं
भक्ष्यं भोज्यं च पानकम् ।
वर्जयेत्
क्षारशाकाद्यान् बह्वमलं बहुतिक्तकम् ।।६२।।
वह बीज
(वीर्य) नाश करने वाले भक्ष्य, भोज्य और पेय पदार्थों, क्षार, शाक, बहुत खट्टे या बहुत तीते खाद्य पदार्थों को छोड़ दे।। ६२॥
कांस्य -
राजतपात्रस्थं तोयं नद्याश्च वर्धनम् ।
मूत्रवृद्धिकरं
वीर्यक्षयकारि विवर्जयेत् ।। ६३ ।।
कांसे और
चाँदी के पात्रों में स्थित जल, नदियों की बाढ़ का जल, मूत्र बढ़ाने वाले तथा वीर्यनाश करने वाले पदार्थों को छोड़
दे।। ६३ ।।
ताम्रायः
स्वर्णशीसानां पात्रस्थं फलचर्मणोः ।
शुक्रवृद्धिकरं
तोयं तदुपासीत यत्नतः ।।६४।।
ताम्बा,
लोहा, सुवर्ण, राँगा, फल (नारियल), चमड़े के पात्र में रखा जल, शुक्रवृद्धि करने वाला होता है अतः उसका प्रयत्नपूर्वक सेवन
करे ।। ६४ ।।
सर्वमूलेषु
कृत्येषु सदाचारेषु तिष्ठतः ।
भुक्त्वेह
विविधान् भोगानैन्द्रं स्थानं व्रजेत् परम् ।। ६५।।
सभी मौलिक कार्यों
तथा सदाचार में रहते हुये, इस लोक के विविध भोगों को भोग कर राजा,
इन्द्रलोक के परम स्थान को प्राप्त करता है ॥६५॥
।। मार्कण्डेय
उवाच ॥
एवमौर्वस्तु
सगरं शशास मुनिपुङ्गवः ।
शास्त्राणि
चैव सर्वाणि सदाचारांश्च गृह्यकान् ।। ६६ ।।
बहुश: कथयामास
सराय महात्मने ।
तन्नास्ति यत्
पुरौर्वेण कथितं सगराय न ।।६७।।
मार्कण्डेय
बोले- मुनियों में श्रेष्ठ, और्व मुनि ने राजा सगर को सदाचारों शिक्षा दे इस प्रकार से
अनुशासित किया। उन्होंने सभी शास्त्रों, ग्रहण करने योग्य सदाचारों को महात्मा सगर से बहुत प्रकार
से कहा। पहले का ऐसा कुछ भी नहीं बचा जो और्व मुनि द्वारा सगर से न कहा गया हो।।
६६-६७।।
राजनीतिः सतां
नीतिर्यच्चान्यच्छास्त्रसम्भवम् ।
संहितासु
पुराणेषु यच्चागमचये स्थितम् ।
सर्वं शुश्राव
सगरो मुखादौर्वस्य धीमतः ।। ६८ ।।
राजनीति,
सज्जनों की नीति और जो कुछ भी अन्यशास्त्रों,
संहिताग्रन्थों, पुराणों, आगमसमूहों में स्थित था, सगर ने बुद्धिमान् और्व मुनि से,
वह सब कुछ भली-भाँति सुनो।।६८।।
तेषां तु
कथितं किंचिदुद्धृत्य द्विजसत्तमाः ।। ६९ ।।
विष्णुधर्मोत्तरे
पूर्वं मया रहसि भाषितम् ।
राजनीतिं सदाचारं
वेदवेदाङ्गसङ्गतम् ।।७० ।।
हे द्विजों
में श्रेष्ठ जनों ! उसमें से कुछ लेकर मेरे द्वारा पहले ही विष्णुधर्मोत्तर-पुराण
में वेदवेदाङ्ग सम्मत राजनीति और सदाचार के विषय में रहस्यरूप से कहा गया है ।।
६९-७० ।।
रहस्यं सततं
विष्णोर्वीक्षध्वं द्विजसत्तमाः ।
यच्चानुदितमन्यत्र
गदितं वा ससंशयम् ।
संशयच्छेदनं
तेषु युष्मभ्यं कथितं द्विजाः ।। ७१ ।।
हे द्विजों !
इन विषयों में यदि कोई सन्देह हो या जो अन्यत्र न कहा गया हो,
उस संशय को दूर करने के लिए, उस विष्णु (धर्मोत्तर) के रहस्य को,
आप लोग इस पुराण में विशेषरूप से दर्शन करें। जिसे आपसे कहा
गया है ॥ ७१ ॥
अनुक्तसंशयच्छेदि
पुराणं कालिकाह्वयम् ।
योऽभ्यसेत्
सततं विप्रः स वेदानां फलं लभेत् ।। ७२ ।।
यह कालिका
नामक पुराण बिना बताये संशय का भी नाश करने वाला है जो विप्र,
निरन्तर इसका अभ्यास करता है, वह वेदों के अभ्यास का फल प्राप्त करता है ।। ७२ ।।
॥ इति
श्रीकालिकापुराणे विष्णुपूजनविधिनाम अष्टाशीतितमोऽध्यायः ॥८८॥
श्रीकालिकापुराण
में विष्णुपूजनविधिनामक अट्ठासीवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ।।८८ ॥
आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 89
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