कालिका पुराण अध्याय ८७
कालिका पुराण
अध्याय ८७ इन्द्र ध्वजोत्सव व पूजन का वर्णन है।
कालिका पुराण अध्याय ८७
Kalika puran chapter 87
कालिकापुराणम् सप्ताशीतितमोऽध्यायः इन्द्रध्वजपूजनम्
कालिकापुराणम्
।। सप्ताशीतितमोऽध्यायः
।।
अथ श्रीकालिका
पुराण अध्याय ८७
।। और्व उवाच ।।
अथातः शृणु
राजेन्द्र शक्रोत्थानं ध्वजोत्सवम् ।
यत् कृत्वा
नृपतिर्याति न कदाचित् पराभवम् ।।१।।
और्व बोले- हे
राजाओं में इन्द्र के समान श्रेष्ठ ! अब तुम उस शक्रोत्थान नामक ध्वजोत्सव के विषय
में सुनो जिसे करके राजा, कभी भी पराभव को नहीं प्राप्त करता ॥ १ ॥
रवौ हरिस्थे
द्वादश्यां श्रवणेन विडौजसम् ।
आराधयेन्नृपः
सम्यक् सर्वविघ्नोपशान्तये ॥२॥
राजा,
सभी विघ्नों की शान्ति के लिए,
सूर्य के सिंह राशि में स्थित होने तथा श्रवण नक्षत्रयुक्त
द्वादशी तिथि के योग में, इन्द्र की भलीभाँति आराधना करे ॥ २ ॥
राजोपरिचरो नाम
वसुनामापरस्तु यः ।
नृपस्तेनायमतुलो
यज्ञः प्रावर्तितः पुरा ॥३॥
राजा उपरिचर
जिसका दूसरा नाम वसु था, जो एक राजा था, उसने प्राचीन- काल में इस अतुलनीय यज्ञ को प्रवर्तित किया
था ॥ ३ ॥
प्रावृट्काले
च नभसि द्वादश्यामसितेतरे ।
पुरोहितो
बहुविधैर्वाद्यैस्तूर्यैः समन्वितः ॥४॥
प्रथमं
शक्रकेत्वर्थं वृक्षमामन्त्र्य वर्धयेत् ।
संवत्सरो
वार्धकिश्च कृतमङ्गलकौतुकः ।।५।।
वर्षा ऋतु में
नभस मास (श्रावण मास) की शुक्लपक्ष की द्वादशी तिथि को पुरोहित,
बहुत प्रकार के वाद्य, तूर्य आदि से युक्त हो, सर्वप्रथम इन्द्रध्वज हेतु वृक्ष को आमन्त्रित कर उसे
बढ़ाये,
तब एक वर्ष के बढ़े हुए उस वृक्ष को मङ्गल उत्सव पूर्वक
काटे ॥४-५॥
कालिका पुराण अध्याय ८७- इन्द्रध्वज हेतु वर्ज्य वृक्ष
उद्याने देवतागारे
श्मशाने मार्गमध्यतः ।
ये
जातास्तरवास्तांस्तु वर्जयेद् वासवध्वजे ॥
६ ॥
उद्यान में,
देवता के मन्दिर में श्मशान में,
मार्ग के मध्य में जो वृक्ष उगे हों,
उन्हें इन्द्रध्वज के लिए न चुने ॥६॥
बहुवल्लीयुतं शुष्कं
बहुकण्टकसंयुतम् ।
कुब्जं
वृक्षादनीयुक्तं लताच्छन्नतरुं त्यजेत् ।।७।।
बहुत सी
वल्लियों,
बहुत अधिक काटों, वृक्ष आदि तथा लताओं से ढके, सूखे, कुबड़े, वृक्ष के समूह से युक्त वृक्ष का इस निमित्त,
त्याग करे ॥७॥
पक्षिवाससमाकीर्णं
कोटरैर्बहुभिर्युतम् ।
पवनानलविध्वस्तं
तरुं यत्नेन वर्जयेत् ॥८॥
जहाँ पक्षियों
के घोसले हों, जहाँ बहुत से खोखले हों, जो आग और पानी से ध्वस्त हो, ऐसे वृक्ष को भी प्रयत्नपूर्वक छोड़ दे ॥ ८ ॥
नारीसंज्ञाश्च
ये वृक्षा अतिह्रस्वा अतिकृशाः ।
तान् सदा
वर्जयेद् धीरः सर्वदा शक्रपूजने।।९।।
जो वृक्ष
स्त्रीनाम वाले हों, जो बहुत छोटे या बहुत पतले हों,
धीरपुरुष सदा, सब प्रकार से इन्द्र के पूजन में उन वृक्षों का,
त्याग करे ॥ ९ ॥
अर्जुनौऽप्यश्वकर्णश्च
प्रियको वट एव च ।
औदुम्बरश्च
पंचैते केत्वर्थे द्युत्तमाः स्मृताः ।। १० ।।
इन्द्रध्वज हेतु
अर्जुन,
अश्वकर्ण, प्रियक (नीम), वट, और गूलर ये पाँच वृक्ष, उत्तम बताये गये हैं ।। १० ।।
अन्ये च
देवादार्वाद्याः शालाद्यास्तरवस्तथा ।
प्रशस्तास्तु
परिग्राह्या नाप्रशस्ताः कदाचन ।। ११ ।।
अन्य देवदारु,
शाल आदि के वृक्ष यदि प्रशस्त (ठीक) हों तो उन्हें लेना
चाहिये अन्यथा कभी नहीं लेना चाहिये ॥ ११॥
धृत्वा वृक्षं
ततो रात्रौ स्पृष्ट्वा मन्त्रमिमं पठेत् ।
यानि वृक्षेषु
भूतानि तेभ्यः स्वस्ति नमोऽस्तु वः ।।१२।।
उपहारं
गृहीत्वेमं क्रियतां वासवध्वजम् ।
पार्थिवास्त्वां
वरयते स्वस्ति तेऽस्तु नगोत्तम ।
ध्वजार्थं
देवराजस्य पूजेयं प्रतिगृह्यताम् ।। १३ ।।
तब वृक्ष का
चयन कर,
रात्रि में उसका स्पर्श कर इन यानि ..... प्रतिगृह्यताम्
। मन्त्रों को पढ़े। मन्त्रार्थ - इस वृक्ष पर जो प्राणी स्थित हैं,
उन सबका कल्याण हो, तुम सब को नमस्कार है। तुम इस उपहार को स्वीकार करो और
इन्द्रध्वज के निर्माण में सहायक हों, राजा ने इन्द्रध्वज निर्माण हेतु तुम्हें चुना है। हे नगों
(वृक्षों) में उत्तम! तुम्हारा कल्याण हो, कृपया इस पूजा को स्वीकार करो।। १२-१३ ॥
ततोऽपरेऽह्नितं
छित्त्वा मूलमष्टांगुलं पुनः ।।१४।।
जले क्षिपेत्
तथाग्रस्य च्छित्वैव चतुरङ्गुलम् ।
ततो नीत्वा
पुरद्वारं केतुं निर्माय तत्र वै ।। १५ ।।
शुक्लाष्टम्यां
भाद्रपदे केतुं वेदीं प्रवेशयेत् ।
तत्पश्चात्
दूसरे दिन उसे काटकर उसके जड़ के आठ अङ्गुल भाग को जल में छोड़ दे तथा अगले चार अङ्गुल
भाग को काटकर उस वृक्ष को नगर के द्वार देश पर लाकर, वहीं इन्द्रध्वज का निर्माण कर,
भादों के शुक्लपक्ष की अष्टमी तिथि को उसे वेदी पर प्रवेश
(प्रतिष्ठित) कराये ।। १४-१५ ॥
द्वाविंशद्धस्तमानस्तु
अधमः केतुरुच्यते ।
द्वात्रिंशत्
तु ततो ज्यायान् द्वाचत्वारिंशदेव च ।। १६ ।।
ततोऽधिकः
समाख्यातो द्वापञ्चाशत् तथोत्तमः ।। १७ ।।
बाईस हाथ नाप
का ध्वज अधम, उससे अच्छा बत्तीस हाथ का तथा उससे अच्छा बयालीस हाथ का कहा गया है किन्तु
बावन हाथ का ध्वज उत्तमकोटि का कहा जाता है ।। १६-२७॥
कुमार्यः पञ्च
कर्त्तव्याः शक्रस्य नृपसत्तम ।
शालमय्यस्तु
ताः सर्वा अपराः शक्रमातृकाः ।। १८ ।।
केतोः
पादप्रमाणेन कार्याः शक्रकुमारिकाः ।
मातृकार्धप्रमाणां
तु यन्त्रहस्तद्वयं तथा ।। १९ ।।
हे राजाओं में
श्रेष्ठ ! ध्वज निर्माण के साथ ही इन्द्र की पाँच कुमारियाँ बनानी चाहिये। गुड़िया
के रूप में इन्हें बनाना चाहिये । ध्वज के एक चौथाई प्रमाण के बराबर ही इन शक्र कुमारिकाओं
को बनाना चाहिये। इसी प्रकार अन्य पाँच शक्र मातृकाएँ भी कुमारियों के आधे मान की
बनानी चाहिये तथा साधक के दो हाथ मान का यन्त्र होना चाहिये।।१८-१९॥
एवं कृत्वा
कुमारीश्च मातृकाः केतुमेव च ।
एकादश्यां
सिते पक्षे यष्टिं तामधिवासयेत् ।। २० ।।
इस प्रकार से
कुमारी,
मातृका और ध्वज का निर्माण कर शुक्लपक्ष की एकादशी को उस
यष्टि का अधिवासन करे॥२०॥
अधिवास्य ततो
यष्टिं गन्धद्वारादिमन्त्रकैः ।
द्वादश्यां
मण्डलं कृत्वा वासवं विस्तृतात्मकम् ।। २१ ।।
गन्धद्वारा - आदि मन्त्रों से यष्टि का अधिवासन कर,
द्वादशी को इन्द्र देवता का विस्तृत मण्डल बनावे ॥ २१ ॥
अच्युतं
पूजयित्वा तु शक्रं पश्चात् प्रपूजयेत् ।
शक्रस्य
प्रतिमां कुर्यात् काञ्चनीं दारवीं च वा ।
अन्यतैजससम्भूतां
सर्वाभावे तु मृन्मयीम् ।। २२ ।।
तत्पश्चात्
सर्वप्रथम विष्णु का पूजन करे तदनन्तर इन्द्र का पूजन करे । इस पूजन हेतु
स्वर्ण की, लकड़ी की अथवा अन्य किसी धातु की, सबके अभाव में मिट्टी से बनी, इन्द्रप्रतिमा बनानी चाहिये ॥ २२ ॥
तां मण्डलस्य
मध्ये तु पूजयित्वा विशेषतः ।
ततः शुभे
मुहूर्ते तु केतुमुत्थापयेन्नृपः ।। २३ ।।
उस प्रतिमा को
मण्डल के मध्य में विशेषरूप से पूजन कर राजा, शुभ, मुहूर्त में उस ध्वज को उठाये ॥ २३ ॥
वज्रहस्त
सुरारिघ्न बहुनेत्र पुरन्दर ।
क्षेमार्थं
सर्वलोकानां पूजेयं प्रतिगृह्यताम् ।। २४ ।।
एह्येहि
सर्वामरसिद्धसङ्घैरभिष्टुतो वज्रधरामरेश ।
समुत्थितस्त्वं
श्रवणाद्यपादे गृहाण पूजां भगवन्नमस्ते ।। २५ ।।
वज्रहस्त.....
नमस्ते । मन्त्रार्थ- हे हाथ
में वज्र धारण करने वाले, हे देवशत्रुओं का नाश करने वाले,
हे बहुत से नेत्रों वाले, पुरन्दर! सभी लोकों के कल्याण के लिए आप इस पूजा को स्वीकार
करें। हे सभी देवताओं और सिद्धों के समूह द्वारा पूजित,
हे वज्रधाकारी, हे देवताओं के राजा ! आप यहाँ पधारें । श्रवण नक्षत्र के इस
प्रथम चरण 'में ध्वजरूप से उत्थित हुये आप, इस पूजा को ग्रहण करें । हे भगवन् ! आपको नमस्कार है ।।
२४-२५ ॥
एवमुत्तरतन्त्रोक्तैर्दहनप्लवनादिभिः
।
इति मन्त्रेण
तन्त्रेण नाना नैवेद्यवेदनैः ।। २६ ।।
अपूपैः पायसैः
पानैर्गुडैर्धानाभिरेव च ।
भक्ष्यैर्भोज्यैश्च
विविधैः पूजयेच्छ्रीविवृद्धये ।। २७ ।।
इस प्रकार
कहकर,
उत्तरतन्त्र में वर्णित, मन्त्र-तन्त्रों से दहन-प्लवन आदि विधियों,
पूआ, खीर, पेयपदार्थों, गुड़, धान (चूर्ण), भक्ष्य, अनेक प्रकार के भोज्य पदार्थों के नैवेद्यों से,
श्रीवृद्धि हेतु पूजन करे ।। २६-२७।।
घटे तु
दशदिक्पालान् ग्रहांश्च परिपूजयेत् ।
साध्यादीन्
सकलान् देवान् मातृः सर्वा अनुक्रमात् ।। २८ ।।
घटों पर दशों दिक्पाल
तथा ग्रहों का एवं क्रमश: साध्य आदि सभी देवताओं और मातृकाओं का पूजन करे॥२८॥
ततः शुभे
मुहूर्ते तु ज्ञानी वर्धकिसंयुतः ।
केतूत्थापन
भूमिं तु या वेद्यास्तु पश्चिमे ।
विप्रैः
पुरोहितैः सार्धं गच्छेद्राजा सुमंगलैः ।। २९ ।।
तब शुभमुहूर्त
में ज्ञानी बढ़ई के साथ, यज्ञ वेदी के पश्चिमभाग में ध्वज उत्थापन हेतु निर्धारित भूमि
पर राजा सुमंगल वाद्यों, चिह्नों, ब्राह्मणों तथा पुरोहितों के सहित जाये ॥ २९ ॥
रज्जुभिः
पंचभिर्बद्धं यन्त्रश्लिष्टं समातृकम् ।
कुमारीभिस्तु
संयुक्तं दिक्पालानां च पट्टकैः ।। ३० ।।
बृहद्भिरतिकान्तैश्च
नानाद्रव्यैः सुपूरितैः ।
यथावर्णैर्यथादेशे
योजितैर्वस्त्रवेष्टितैः ।। ३१ ।।
युक्तं तं
किङ्किणीजालैर्वृहद्घण्टौघचामरैः ।
भूषितं मुकुरैरुच्चैर्माल्यैर्बहुविधैस्तथा
।। ३२ ।।
बहुपुष्पैः
सुगन्धैश्च भूषितं रत्नमालया ।
चित्रमाल्याम्बरैश्चैव
चतुर्भिरपि तोरणैः ।। ३३ ।।
उत्थापयेन्महाकेतुं
राजकीयैः शनैः शनैः ।। ३४ ।।
पाँच प्रकार
की डोरियों से बँधे तथा यन्त्र से जुड़े, मातृकाओं और कुमारियों व दिक्पालों के सहित,
बड़े-बड़े अत्यन्त सुन्दर वस्त्रों,
अनेक पदार्थों से पूरित, यथोचित रङ्गों के यथोचित स्थानों पर लिपटे वस्त्रों,
छोटी-छोटी घण्टियों और बड़े घण्टों तथा चामरों,
ऊँचे दर्पणों, बहुत प्रकार की मालाओं, बहुत से पुष्पों, सुगन्धित पदार्थों, रत्नों की माला, रंग बिरङ्गे माला व वस्त्रों से सुशोभित,
चारो तोरणों से युक्त उस विशाल,
ध्वज को राज्यकर्मियों की सहायता से धीरे-धीरे उठाये ॥३०-३४
॥
तमुत्थाय
महाकेतुं पूजितं मण्डलान्तरे ।
प्रतिमां तां
नयेन्मूलं केतोः शक्रं विचिन्तयन् ।। ३५ ।।
उस महान्ध्वज
को उठाकर पूजा करे, अन्य मण्डल में ध्यान के साथ पूजी- गई,
इन्द्र की प्रतिमा को ध्वज के मूल में ले आये ।। ३५ ।।
यजेत् तं
पूर्ववत् तत्र शचीं मातलिमेव च ।
जयन्तं तनयं
तस्य वज्रमैरावतं तथा ।। ३६ ।।
ग्रहांश्चाप्यथ
दिक्पालान् सर्वांश्च गणदेवताः ।
अपूपाद्यैः पूजयेत्
तु बलिभिः पायसादिभिः ।। ३७ ।।
उसका पहले की
भाँति पूजन करे, वहीं उनकी पत्नी शची, पुत्र जयन्त, आयुध वज्र,
वाहन ऐरावत तथा ग्रहों, दिक्पालों एवं सभी गणदेवताओं का भी पूआ,
खीर, बलि आदि से, पहले की ही भाँति पूजन करे ।। ३६-३७।।
पूजितानां च
देवानां शश्वद्धोमं समाचरेत् ।
होमान्ते तु
बलिं दद्याद् वासवाय महात्मने ।। ३८ ।।
तत्पश्चात्
पूजे गये देवताओं का भलीभाँति होम करे। होम के पश्चात् महात्मा-इन्द्र को बलि
प्रदान करे ।। ३८ ।।
तिलं घृतं
चाक्षतं च पुष्पं दूर्वां तथैव च ।
एतैस्तु जुहुयाद्
देवान् स्वैः स्वैर्मन्त्रैर्नरोत्तम ।। ३९ ।।
हे मनुष्यों
में उत्तम ! तिल, घी, अक्षत, पुष्प, दूब इनसे देवताओं का, उनके अपने-अपने मन्त्रों से होम करे॥३९॥
ततो होमावसाने
तु भोजयेद् ब्राह्मणानपि ।
एवं
सम्पूजयेन्नित्यं सप्तरात्रं दिने दिने ।
ब्राह्मणैः
सहिता राजा वेदवेदांगपारगैः ।। ४० ।।
तब होम की
समाप्ति के बाद ब्राह्मणों को भोजन भी कराये। इस प्रकार राजा सात दिनों तक नित्य,
प्रतिदिन, वेद के पारङ्गत ब्राह्मणों के साथ पूजन करे ॥४०॥
सर्वत्र
शक्रपूजासु यज्ञेषु परिकीर्तितः ।
त्रातारमिति
मन्त्रोऽयं वासवस्य प्रियः परः ।। ४१ ।।
सब जगह इन्द्र
पूजा सम्बन्धी यज्ञों में त्रातारमिन्द्रं - यह इन्द्र का श्रेष्ठ और प्रियमन्त्र
कहा गया है ।।४१ ॥
एवं कृत्वा
दिवाभागे शक्रोत्थापनमादितः ।। ४२ ।।
श्रवणर्क्षयुताया
तु द्वादश्यां पार्थिवः स्वयम् ।
अन्तपादे
भरण्यां तु निशि शक्रं विसर्जयेत् ॥४३॥
इस प्रकार
श्रवण नक्षत्रयुक्त द्वादशी को दिन के आदिभाग में राजा स्वयं इन्द्र का स्थापन और
इन्द्रध्वज का उत्थापन करे तथा भरणी नक्षत्र के अन्तिम चरण में,
रात्रि में उसको विसर्जित करे ।।४२-४३ ॥
सुप्तेषु
सर्वलोकेषु यथा राजा न पश्यति ।
षण्मासान्मृत्युमाप्नोति
राजा दृष्टा विसर्जनम् ।
शक्रस्य
नृपशार्दूल तस्मान्नेक्षेत तन्नृपः ।।४४।।
हे नृप
शार्दूल ! राजा जैसे सबके सो जाने पर उन्हें नहीं देखता । उसी प्रकार राजा,
इन्द्र का विसर्जन भी न देखे क्योंकि विसर्जन को देखकर राजा
छः महीने के भीतर मृत्यु को प्राप्त करता हैं ॥ ४४ ॥
विसर्जनस्य
मन्त्रोऽयं पुराविद्भिरुदीरितः ।। ४५ ।।
सार्धं
सुरासुरगणैः पुरन्दरः शतक्रतोः ।
उपहारं
गृहीत्वेयं महेन्द्रध्वज गम्यताम् ।।४६ ॥
पुराणवेत्ताओं
ने विसर्जन का यह मन्त्र बताया है- सार्धं गम्यताम्। मन्त्रार्थ- पुरन्दर!
हे शतक्रतु ! महेन्द्रध्वज ! सभी देवताओं और असुरों के सहित इस भेंट को स्वीकार
करके आप पधारें ।। ४५-४६ ।।
सूतके तु
समुत्पन्नने वारे भौमस्य वा शनैः ।
भूमिकम्पादिकोत्पाते
वासवं न विसर्जयेत् ।। ४७ ।।
सूतक पड़ जाने
पर,
मङ्गल अथवा शनिवार या भूकम्प आदि उत्पात के समय इन्द्र का
विसर्जन न करे ॥ ४७ ॥
उत्पाते
सप्तरात्रं तु तथोप्लवदर्शने ।
व्यतीत्य
शनिभौमौ च ह्यन्यर्क्षेऽपि विसर्जयेत् ।।४८।।
उत्पात होने
या विप्लव दिखाई देने पर सात रात्रि के पश्चात भी शनि एवं भौमवार को छोड़कर,
अन्य नक्षत्रों में भी विसर्जन करे ।।४८ ।।
सूतके त्वथ
संप्राप्ते व्यतीते सूतके पुनः ।
यस्मिन्
तस्मिन् दिने चैव सूतकान्ते विसर्जयेत् ।। ४९ ।।
जब सूतक
उपस्थित हो तो सूतक के बीत जाने पर जिस किसी दिन भी विसर्जन करे ॥ ४९ ॥
तथा केतुं
नृपो रक्षेत् पतन्ति शकुना यथा ।
न केतौ
नृपशार्दूल यावन्नहि विसर्जनम् ।। ५० ।।
हे नृपशार्दूल
! जब तक विसर्जन न हो जाय तब तक ध्वज की ऐसे रक्षा करे कि उस पर पक्षी आदि न
बैठें॥५०॥
शनैः शनैः
पातयेत् तु यथोत्थापनमादितः ।
कृतं तथा यथा
भग्ने केतौ मृत्युमवाप्नुयात् ।। ५१ ।।
प्रारम्भ में
धीरे-धीरे ध्वज को जिस प्रकार उठाया था, उसी प्रकार धीरे-धीरे गिराये। ऐसा करे जिससे वह टूटे नहीं,
ध्वज के टूट जाने पर राजा, मृत्यु को प्राप्त करता है ॥५१ ॥
विसृष्टं
शक्रकेतुं तु सालङ्कारं तथा निशि ।
क्षिपेदनेन
मन्त्रेण त्वगाधे सलिले नृप ।। ५२ ।।
हे राजन् !
अलङ्कारों के सहित विसर्जित किये, उस इन्द्रध्वज को रात्रि में इस तिष्ठ-- विनाशक-
मन्त्र के साथ गहरे जल में डुबो दे ॥ ५२ ॥
तिष्ठ केतो
महाभाग यावत् संवत्सरं जले ।
भवाय
सर्वलोकानामन्तराय विनाशक ।। ५३ ।।
मन्त्रार्थ -
हे महाभाग ! हे केतु (पताके) ! वर्षपर्यन्त, आप इस जल में सभी लोकों के विघ्नों के विनाशक होकर,
निवास करें ॥ ५३ ॥
उत्थापयेत्
तूर्यरवैः सर्वलोकस्य वै पुरः ।
रहो
विसर्जयेत् केतुं विशेषो यः प्रपूजने ।। ५४ ।।
तूर्यघोषों के
साथ सभी जनसमूह के सामने ध्वज स्थापित करे किन्तु जो विशेष पूजन की रीति है,
उसके अनुसार, एकान्त में उसका विसर्जन करे ॥
५४ ॥
एवं यः कुरुते
पूजां वासवस्य महात्मनः ।
स चिरं
पृथिवीं भुक्त्वा वासवं लोकमाप्नुयात् ।। ५५ ।।
इस प्रकार से
जो महात्मा इन्द्र की पूजा करता है, वह चिरकाल तक पृथ्वी के राज्यसुख को भोग कर,
अन्त में इन्द्रलोक को प्राप्त करता है ।। ५५ ।।
न तस्य राज्ये
दुर्भिक्षं नाधयो व्याधयः क्वचित् ।
स्थास्यन्ति
मृत्युर्नाकाले जनानां तत्र जायते ।। ५६ ।।
उसके राज्य
में कभी दुर्भिक्ष, आधि-व्याधि नहीं होती। वहाँ लोगों की मृत्यु भी अकाल में
नहीं होती ॥५६॥
तत्तुल्यः
कोऽपि नान्योऽस्ति प्रियः शक्रस्य पार्थिव ।
तस्य पूजा
सर्वपूजा केशवाद्याश्च तत्रगाः ।। ५७।।
हे राजन्!
उस (राजा) के समान इन्द्र को कोई प्रिय नहीं होता । उसकी पूजा
से सबकी पूजा हो जाती है तथा केशव आदि सभी देवता उसके वश में हो जाते हैं ।। ५७ ।।
सकलकलुषहारि
व्याधिदुर्भिक्षनाशं सकलभवनिवेशं सर्वसौभाग्यकारि ।
सुरपतिगृहगाभिर्वार्चनं
शक्रकेतोः प्रतिशरदमनेकैः पूजयेच्छ्रीविवृद्धयै ।। ५८।।
यह सभी प्रकार
के दोषों का नाश करने वाला, व्याधि और दुर्भिक्ष का नाश करने वाला,
समस्त संसार का आश्रय, सब प्रकार का सौभाग्य करने वाला है । इन्द्रलोक जाने की
इच्छा रखने वालों को प्रत्येक शरद ऋतु में श्रीवृद्धि हेतु अनेक इन्द्रध्वज का
पूजन करना चाहिये ॥५८॥
॥ इति
श्रीकालिकापुराणे इन्द्रध्वजपूजननाम सप्ताशीतितमोऽध्यायः ॥८७॥
श्रीकालिकापुराण
में इन्द्रध्वजपूजननामक सत्तासीवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥८७॥
आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 88
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