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कालिका पुराण अध्याय ८६
कालिका पुराण
अध्याय ८६ राजधर्मवर्णन के अन्तर्गत पुष्य स्नान की विधि को कहा गया है।
कालिका पुराण अध्याय ८६
Kalika puran chapter 86
कालिकापुराणम् षडशीतितमोऽध्यायः पुष्यस्नानविधिः
कालिकापुराणम्
।। षडशीतितमोऽध्यायः
।।
अथ श्रीकालिका
पुराण अध्याय ८६
।। और्व उवाच ।।
शृणु राजन्
प्रवक्ष्यामि पुष्यस्नानविधिक्रमम् ।
येन
विज्ञानमात्रेण विघ्नाः नश्यन्ति सन्ततम् ।। १ ।।
और्व बोले- हे
राजाओं में श्रेष्ठ ! मैं अब तुम से उस पुष्य स्नान के विधान का वर्णन करूँगा
जिसके जानने मात्र से ही विघ्न, निरन्तर नष्ट हो जाते हैं ॥ १ ॥
पौषे
पुष्यर्क्षगे चन्द्रे पुष्यस्नानं नृपश्चरेत् ।
सौभाग्यकल्याणकरं
दुर्भिक्षमरणापहम् ॥ २ ॥
पूस के महीने
में जब चन्द्रमा पुष्य नक्षत्र पर स्थित हो तो, राजा को पुष्यस्नान का आचरण करना चाहिये। यह सौभाग्य और
कल्याण करने वाला तथा दुर्भिक्ष एवं मृत्यु को दूर करने वाला होता है ॥२॥
विष्ट्यादिदुष्टकरणे
व्यतीपाते च वैधृतौ ।
वज्रे शूले
हर्षणादौ योगे तु यदि लभ्यते ॥३॥
तृतीयायुक्तपुष्यर्क्ष
रविशौरिकुजेऽहनि ।
तदा
समस्तदोषाणां तत् स्नानं हानिकारकम् ।।४।।
यदि विष्टि
(भद्रा) आदि दूषित करण, व्यतीपात, वैधृति, वज्र, शूल, हर्षण आदि योग पड़ें, या तृतीया तिथि युक्त पुष्यनक्षत्र,
रवि, शनि तथा मङ्गलवार को पड़े तब वह स्नान,
समस्त दोषों का नाश करने वाला होता है।।३-४॥
ग्रहदोषाश्च
जायन्ते यदि राज्येषु चेतयः ।
तदा पुष्ये तु
नक्षत्रे कुर्यान्मासान्तरेऽपि च ।। ५।।
यदि राज्यों
में ग्रहदोष उत्पन्न हो और ईति (दैवी आपत्तियाँ) आ जायँ तो अन्य मासों के पुष्य नक्षत्रों
में ही उपर्युक्त स्नान करना चाहिये ॥ ५ ॥
इयं तु
ब्रह्मणा शान्तिरुद्दिष्टा गुरवे पुरा ।
शक्रादिसर्वदेवानां
शान्त्यर्थं च जगत्पतिः ।। ६ ।।
यह शान्ति प्रकरण
प्राचीनकाल में जगत्पति ब्रह्मा द्वारा इन्द्रादि सभी देवताओं की शान्ति (कल्याण)
के लिए,
देवगुरु बृहस्पति से कहा गया था ।। ६ ।।
तुषकेशास्थिवल्मीक-
कीटदेशादिवर्जिते ।
शर्करा कृमि
कूष्माण्ड बहुकृष्ट विवर्जिते ॥७॥
काकोलूकैश्च
कङ्कैश्च काकोलैर्गृध्रशौनकैः ।
वर्जिते
कण्टकिवने विभीतकविवर्जिते ॥८॥
शिग्रुश्लेष्मातकाभ्यां
तु जलौकाद्यैर्विवर्जिते ।
स्वस्थाने
चम्पकाशोक- वकुलादिविराजिते ।। ९ ।।
हंसकारण्डवाकीर्णे
सरस्तीरेथवा शुचौ ।
पुष्यस्नानाय
नृपतिर्गृह्णीयात् स्थानमुत्तमम् ।।१०।।
भूसा,
केश, हड्डी, बाँबी, कीड़े, कङ्कण, कीटाणु, कूष्माण्ड बहुत जुताई आदि स्थानदोष,
कौए, उल्लू, कङ्क (बगुला ), काकोल (पहाड़ी कौआ), गीध, शौनक आदि पक्षियों, कण्टकि (कटहल) के तथा विभीतक (बहेड़ा) के वन से,
शिशु (सहजन), श्लेष्मातक (लिसोड़ा) और जोंक आदि से रहित,
चम्पक, अशोक, कुल, आदि से सुशोभित, हंस, कारण्डव आदि से युक्त, सरोवर के किनारे अथवा पवित्र स्थान में राजा पुष्यस्नान हेतु,
उत्तम स्थान का चयन करे।। ७-१० ॥
ततः पुरोहितो
राजा नाना वादित्रनिःस्वनैः ।
प्रदोषसमये
गच्छेत् तत् स्थानं पूर्ववासरे ।। ११ ।।
तब पुरोहित और
राजा अनेक प्रकार के वाद्यों की ध्वनि के साथ, पुष्यस्नान के पहले दिन प्रदोष बेला में उस स्थान पर जाये ॥
११ ॥
तस्य स्थानस्य
कौवेर्यां दिशि स्थित्वा पुरोहितः ।
सुगन्धचन्दनैः
पानैः कर्पूराद्यधिवासितैः ।। १२ ।।
गोरोचनाभिः
सिद्धार्थैरक्षतैः सफलादिभिः ।
गन्धद्वारेत्यादिर्मन्त्रैः
सर्वाधिक्तिकैः ।। १३॥
अधिवस्य तु
तत् स्थानं पूजयेत् तत्र देवताः ।
गणेशं केशवं
शक्रं ब्रह्माणं चापि शङ्करम् ।। १४ ।।
उस स्थान से
उत्तर दिशा में स्थित हो पुरोहित, सुगन्धित चन्दन, कर्पूर आदि से अधिवासित पेय पदार्थों,
गोरोचन, सरसों, अक्षत, फल आदि से अधिसिक्त कर, उस स्थान को अधिवासित कर, वहाँ गणेश, विष्णु, इन्द्र, ब्रह्मा और शङ्कर नामक देवताओं का पूजन करे।। १३-१४॥
उमया सहितं
देवं सर्वाश्च गणदेवताः ।
मातृश्च
पूजयेत् तत्र नृपतिः सपुरोहितः ।। १५ ।।
पुरोहित कें
सहित राजा, पार्वती के सहित महादेव, सभी गणदेवताओं एवं मातृकाओं का भी वहीं पूजन करे ॥ १५ ॥
मङ्गलान्
कलशान् कृत्वा नाना नैवेद्यसञ्चयान् ।
प्रदद्यात्
पायसं स्वादुफलं मोदकायावकौ ।। १६ ।।
मङ्गल कलशों
को स्थापित कर, खीर,
मोदक, हलवे, स्वादिष्टफल आदि अनेक प्रकार के नैवेद्य समूहों को अर्पित
करे ॥ १६ ॥
अधिवास्य च
तत् स्थानं दूर्वासिद्धार्थकाक्षतैः ।
तत्स्थानाच्चापि
भूतानि सारयेन्मन्त्रमीरयन् ।।१७।।
उस स्थान को
दूर्वा,
सरसो और अक्षतों से अधिवासित कर,
नीचे लिखे अपसर्पन्तु...म्ह्यम्। को बोलता हुआ,
उस स्थान से भूतों का अपसारण करे ।। १७ ।।
कालिका पुराण अध्याय ८६ ।।
भूतापसारणमन्त्र ।।
अपसर्पन्तु ते
भूता ये भूता भूमिपालकाः ।
भूतानामविरोधेन
स्नानकर्मकरोम्यहम् ।। १८ ।।
मन्त्रार्थ -
जो इस भूमि का पालन करने वाले प्राणी हैं वे यहाँ से दूर हट जायँ। मैं उन
प्राणियों के अविरोध (सहयोग) से स्नानकर्म करता हूँ।। १८ ।।
ततः करौ
पुटीकृत्य मन्त्रेणानेन पार्थिवः ।
आवाहयेदिमान्
देवान् पूज्यान् पुष्याभिषेकतः ।। १९।।
तब हाथों को
अन्जली की तरह करके, राजा, इस मन्त्र से इन पुष्याभिषेक से पूजे जानेवाले देवताओं का
आवाहन करे ।। १९ ।।
कालिका पुराण अध्याय ८६ ॥
आवाहनमन्त्र
।।
आगच्छन्तु
सुराः सर्वे येऽत्र पूजाभिलाषिणः ।
दिशो हि
पालकाः सर्वे ये चान्येऽप्यंशभागिनः ।। २० ।।
आवाहनमन्त्र- आगच्छन्तु....
भागिनः है। मन्त्रार्थ- वे सभी देवता यहाँ पधारें जो मुझसे पूजे जाने की
अभिलाषा रखते हैं। सभी दिग्पाल और अन्य देवता भी, जो इस पूजा में अपने अंश के अधिकारी हों वे भी पधारें।। २०
।।
ततः
पुष्पाञ्जलिं दत्त्वा पुनर्मन्त्रं पठेदिमम् ।
अद्य
तिष्ठन्तु विबुधाः स्थानमासाद्य मामकम् ।
स्वपूजां
प्राप्य पातारो दत्त्वा शान्तिं महीभुजे ।। २१ ।।
तत्पश्चात्
पुष्पाञ्जलि देकर पुनः अद्य - महीभुजे इस मन्त्र को पढ़े,
मन्त्रार्थ-यहाँ आज सभी देवता मेरे स्थान पर आकर,
अपने आसनों को ग्रहण कर, स्थित हों। वे सभी रक्षक, अपनी पूजा प्राप्त कर राजा को शान्ति प्रदान करें ॥२१॥
ततस्तां नृपती
रात्रिं नयेत् तु सपुरोहितः ।
शुभाशुभं
विद्यान्नृपस्तु सपुरोहितः ।। २२ ।।
तब राजा पुरोहित
के सहित,
उस रात्रि को व्यतीत करे तथा स्वप्न में शुभाशुभ फल को जाने
॥२२॥
कृत्वा पूजां
तु देवानां रात्रौ स्थाने नृपः स्वपेत् ।
शुभाशुभफलं
स्वप्ने ज्ञेयं दोषज्ञसम्मते ।। २३ ।।
देवताओं का
पूजन कर राजा, रात्रि में उस स्थान पर शयन करे। दोष को जानने वाले की सम्मति से,
शुभ या अशुभ फल को स्वप्न में जाने ॥ २३ ॥
कालिका पुराण अध्याय ८६ - स्वप्न विचार
।। स्वप्नविचार ॥
दुःस्वप्नदर्शनं
चेत् स्यात् तदा पुष्याभिषेचने ।
होमं
चतुर्गुणं कुर्याद्दत्त्वा चापि गवां शतम् ।। २४ ।।
यदि दुःस्वप्न
दिखाई दे तो पुष्याभिषेक के समय में चौगुना होम करे तथा सौ गायों का दान करे ।। २४
।।
।। स्वप्न -
विमर्श ॥
गोवाजिकुंजराणां
तु प्रासादस्य गिरेस्तरोः ।
आरोहणं शुभकरं
राज्यश्रीवृद्धिकारकम् ।। २५ ।।
गौ,
घोड़े, हाथी, महल, पर्वत और वृक्ष पर चढ़ना शुभकारक एवं राज्य तथा श्री को
बढ़ानेवाला होता है।।२५।।
दधिदेवसुवर्णानां
ब्राह्मणस्य प्रदर्शनम् ।
वीणादूर्वाक्षतफल
पुष्पच्छत्रविलेपनम् ।। २६ ।।
शीतांशु चक्रशंखानां
पद्मस्य सुहृदस्तथा ।
लाभाः
क्षयकराः शत्रौ रत्नाकरस्य भूभृतः ।। २७।।
दधि,
देवता, सुवर्ण, ब्राह्मण, वीणा, दूर्वा, अक्षत, फल, पुष्प, छत्र, चन्दन, चन्द्रमा और शङ्ख, कमल तथा मित्रों, राजा और रत्नाकर का स्वप्न में दिखाई देना,
राजा को लाभ तथा उसके शत्रुओं को हानि पहुँचाने वाला होता
है।। २६-२७।।
दर्शनं
चोपरागस्य निगडेन च बन्धनम् ।
मांसस्य भोजनं
चैव पर्वतस्य विवर्तनम् ।। २८ ।।
नाभिमध्ये
तरुत्पत्तिर्मृतं प्रत्यनुरोदनम् ।
अगम्यागमनं कूपपङ्कगर्भावतीर्णता
।। २९ ।।
पर्वतस्य तथा
नद्याः स्रोतसां लङ्घनं तथा ।
स्वपुत्रमरणं
चैव पानं रुधिरमद्ययोः ।। ३० ॥
भोजनं
पायसस्यापि मनुष्यारोहणं तथा ।
कल्याणसुखसौभाग्य-
राज्य शत्रुक्षयं तथा ।। ३१ ।।
एते स्वप्नाः
प्रकुर्वन्ति नृपस्य नृपसत्तम ।। ३२ ।।
स्वप्न में
ग्रहण का दर्शन, हथकड़ी से बन्धन, मांसभोजन, पर्वत से लुढ़कना, नाभि के बीच से वृक्ष की उत्पत्ति,
मृत्यु और तत्पश्चात् विलाप, अगम्यों के साथ गमन, कुआँ और कीचड़ से निकलना, पर्वत, नदी-नालों का डांकना, अपने पुत्र का मरण, रुधिर और मद्य का पीना, खीर खाना, मनुष्य पर सवारी करना, उपर्युक्त स्वप्न, राजा के लिए कल्याण, सुख-सौभाग्य, राज्य तथा शत्रुक्षय कारक होते हैं ।। २८-३२।।
खरोष्ट्रमहिषाणां
च आरोहो राज्यनाशनः ।
नृत्यं गीतं
तथा हास्यं पाठश्चाप्यशुभप्रदः ।।३३।।
स्वप्न में
गदहा,
ऊँट और भैंसे पर चढ़ना, नाचना, गाना, हँसना, पढ़ना भी राज्यनाशक, अशुभ प्रदान करने वाला होता है।। ३३ ।।
रक्तवस्त्रपरिधानं
रक्तमालानुलेपनम् ।
रक्तां
कृष्णां स्त्रियं चैव कामयन् मृत्युमाप्नुयात् ।। ३४ ।।
स्वप्न में
लाल वस्त्र पहनना, लाल माला, लाल चन्दन, धारण करने से तथा लाल या काली स्त्री की कामना से,
मृत्यु प्राप्त होती है ॥ ३४ ॥
कूपान्तरे
प्रवेशः स्याद् दक्षिणाशागतिस्तथा ।
पङ्के
निमज्जनं स्नानं भार्यापुत्रविनाशनम् ।। ३५ ।।
कुएँ में
प्रवेश,
दक्षिण दिशा में गमन, कीचड़ में डूबना या स्नान करना दीखना,
स्त्री एवं पुत्र का नाश करने वाला होता है ।।३५।।
लाभस्तस्य
भवेत् स्वप्नेऽप्यरुत्पत्तिर्नृपस्य च ।
आदाय
गर्भनाडीं तु शकुनो याति खञ्जनम् ।
स तु
राज्यान्तरं प्राप्त महाकल्याणमाप्नुयात् ।। ३६ ।।
स्वप्न में
यदि राजा अपनी उत्पत्ति देखे तो उसे लाभ होता है। यदि गर्भनाडी लेकर प्राप्त कर
जाता हुआ खञ्चन पक्षी को देखे तो वह दूसरा राज्य एवं महान् कल्याण को प्राप्त करता
है ।। ३६ ॥
दीर्घं
विंशतिहस्तं तु हस्तषोडशविस्तृतम् ।
कुर्यात् तु
लक्षणोपेतं यज्ञमण्डलमुत्तमम् ।। ३७ ।।
ततोऽपरेऽह्नि
पूर्वाह्ने मातृणां पूजनं चरेत् ।
कुड्यलग्नां
वसोर्धारां वृद्धिश्राद्धं तथैव च ।। ३८ ।।
बीस हाथ लम्बा
और सोलह हाथ चौड़ा, सभी लक्षणों से युक्त, उत्तम, यज्ञमण्डल बनाकर दूसरे दिन पूर्वाह्न में वहाँ मातृकापूजन,
कुड्यलग्ना (दीवार से लगी) वसोर्धारा का पूजन तथा
वृद्धिश्राद्ध, नान्दीमुखश्राद्ध सम्पन्न करे ।। ३७-३८ ।।
चन्दनागुरुकस्तूरीधूमकर्पूरचूर्णकैः।।
३९ ।।
सम्पूज्य
मण्डलस्थानं तस्मिन् ह्रौं शम्भवे नमः ।
अस्त्राय हुं
फडित्येव लिखेन्मन्त्रद्वयं बुधः ।। ४० ।।
चन्दन,
अगुरु, कस्तूरी के धुयें तथा कपूर के चूर्ण से मण्डलस्थान की पूजा
करके उस पर विद्वान्साधक ह्रौं शम्भवे नमः एवं अस्त्राय हुं फट् इन
दो मन्त्रों को लिखे ।। ३९-४० ।।
मन्त्रविमण्डलज्ञश्च
सूत्रैः कम्बलसम्भवैः ।
कौशेयैर्वा
स्वस्तिकाख्यं प्रथमं मण्डलं लिखेत् ।। ४१ ।।
मन्त्रवेत्ता
जो मण्डल के रहस्य को जानने वाला है, वह सर्वप्रथम कम्बल (ऊन) के बने सूत्रों अथवा रेशमीसूत्रों
से स्वस्तिक नामक मण्डल बनाये ॥ ४१ ॥
चतुर्हस्तप्रमाणं
तु मण्डलं विलिखेत् ततः ।
हस्तप्रमाणं
पद्मं तु मण्डलस्य प्रकीर्तितम् ।। ४२ ।।
इस हेतु चार हाथ
मान का मण्डल लिखकर, उस पर एक हाथ मान का, कमल बनाने को कहा गया है ॥४२॥
द्वाराणि
सार्धहस्तानि कर्णिकाकेशरोज्ज्वलम् ।
सितं रक्तं च
पीतं च कृष्णं हरितमेव च ।। ४३ ।।
शालिचूर्णैश्च
कौसुम्भैहरिद्रैर्हरिदुद्भवैः ।
कुर्यात्
तथाञ्जनैश्चूर्णै राजा मण्डलवृद्धये ।। ४४ ।।
मण्डल के
विकास हेतु, डेढ़ हाथ के द्वारों तथा केशर से सुशोभित कर्णिकाएँ श्वेत,
लाल, पीले, हरे, काले रङ्ग के चूर्ण, क्रमशः चावल, लालपुष्प, हल्दी, हरित वनस्पतियों तथा काजलचूर्ण से,
राजा बनाये ॥ ४३-४४ ॥
पद्मान्ततः
समारभ्य तालं पश्चिमगामिनम् ।
पश्चिमद्वारमध्ये
च शतपत्रं विनिर्दिशेत् ।। ४५ ।।
कमल के भीतर
से प्रारम्भ कर पश्चिम दिशा में पश्चिम द्वार के मध्य में एक तल (बित्ते) मान का एक कमल बनाये॥४५॥
प्रत्येकं
द्वारमध्ये तु पद्मं चैवाष्टपत्रकम् ।
कुर्यान्मण्डलभागज्ञचूर्णैरेव
पृथक् पृथक् ।। ४६ ।।
मण्डलभाग का
ज्ञाता,
इसी प्रकार प्रत्येक द्वार के मध्य में,
चूर्ण से अलग-अलग, अष्टदल कमल बनाये ॥ ४६ ॥
चूर्णस्तु
मण्डलं कृत्वा सूत्राण्युत्सारयेत् ततः ।
उत्सार्य
सूत्रं प्रथमं मण्डलं पूजयेत् ततः ।। ४७ ।।
चूर्णों से
मण्डल बनाकर, सूत्रों को वहाँ से हटाये। ऐसा करते हुये पहले सूत्रों को हटाये,
तब मण्डल का पूजन करे ॥४७॥
भवनाथनमः इति
ततो हस्तं वियोजयेत् ।
सव्यावलम्बहस्तं
तु रजः पात्रं समाचरेत् ।।४८ ।।
भवनाथनमः कहकर दोनों हाथों को विशेषरूप से मिलाये,
बायें हाथ का अवलम्बन ले, रजपात्र की व्यवस्था करे॥४८॥
मध्यमानामिकाङ्गुष्ठेरुपरिष्टाद्
यथेच्छया ।
अधोमुखाङ्गुलीः
कृत्वा पातयेच्च विचक्षणः ।। ४९ ।।
बुद्धिमान्
साधक,
मध्यमा अनामिका अंगुलियों को अँगूठे के ऊपर करके उन्हें नीचे
अङ्गुलियों वाला करके रज कण गिराये ॥ ४९ ॥
समारेखा तु
कर्तव्या विच्छिन्ना पुष्परञ्जिता ।
अङ्गुष्ठपर्वनैपुण्यात्
समा कार्या विजानता ।। ५० ।।
बिखरे हुए
पुष्पों से ही सुसज्जित समान नाप की रेखाएँ विशेष ज्ञान से बनानी चाहिये तथा
अँगूठे के मूल से उन्हें समतल करना चाहिये ॥ ५० ॥
संसक्तविषमं
स्थूलं विच्छित्रं कृसराकृतम् ।
पर्यन्तमर्पितं
ह्रस्वमालिखेन्न कदाचन ।।५१॥
मण्डलनिर्माण
में कभी भी आपस में मिली हुई, विषम, मोटी, टूटी-फूटी, पतली, सीमाओं में ही लुप्त, अत्यन्त छोटी रेखायें न बनाये ॥ ५१ ॥
संसक्ते कलहं
विद्यादूर्ध्वरेखे तु विग्रहम् ।
अतिस्थूले
भवेद् व्याधिर्नित्यं पीडाविमिश्रिते ।। ५२ ।।
बिन्दुभिर्भयमाप्नोति
शत्रुपक्षान संशयः ।
कृशायां
चार्थहानिः स्याच्छिन्नायां मरणं ध्रुवम् ।
वियोगो वा
भवेत् तस्य इष्टद्रव्यसुतस्य वा ।। ५३ ।।
रेखाओं के
संसक्त होने पर कलह जाने, ऊँची रेखाओं से विग्रह, अधिक मोटी होने पर रोग, मिली जुली होने पर अत्यन्त पीड़ा,
बिन्दुओं से युक्त होने पर शत्रुपक्ष से भय होता है इसमें
कोई सन्देह नहीं है। पतली रेखाओं से अर्थ-हानि और टूटी- फूटी रेखाओं से निश्चितरूप
से मरण अथवा उसके अभीष्टद्रव्य या पुत्रादि का वियोग होता है ।। ५२-५३ ॥
अविदित्वा
लिखेद् यस्तु मण्डलं तु यथेच्छया ।
सर्वदोषानवाप्नोति
ये दोषाः पूर्वमीरिताः ।।५४।।
सितसर्षपदूर्वायाः
रेखाः कार्या विजानता ।। ५५ ।।
जो साधक मण्डल
के इन रहस्यों को बिना जाने, मनमाने ढंग से मण्डल बनाता है वह,
'पहले कहे गये उपर्युक्त
सभी दोषों को प्राप्त करता है । इसलिए भलीभाँति जानकारी करके,
सफेद (पीला) सरसों एवं दूब से रेखाओं का निर्माण करना
चाहिये ।। ५४-५५॥
विमलं विजयं
भद्रं विमानं शुभदं शिवम् ।
वर्धमानं च
देवं च शताक्षं कामदायकम् ।। ५६ ।।
रुचिकं
स्वस्तिकं चैव द्वादशैते तु मण्डलाः ।
यथास्थानं
यथायज्ञं योजनीया विचक्षणैः ।।५७।।
बुद्धिमान्
मनुष्यों द्वारा विमल, विजय, भद्र, विमान, शुभद, शिवम्, वर्धमान, देव, शताक्ष, कामदायक, रुचिक, स्वस्तिक इन बारह प्रकार के मण्डलों का यज्ञों के अनुरूप,
यथास्थान, निर्माण किया जाना चाहिये ।। ५६-५७।।
सागरे
समथ्यमाने तु पीयूषार्थं सुरोत्करैः ।
पीयूषधारणार्थाय
निर्मतां विश्वकर्मणा ।।५८।।
कलां कलां तु
देवानामसित्वा ते पृथक्-पृथक् ।
यतः कृतास्तु
कलशास्ततस्ते परिकीर्तिताः ।। ५९ ।।
देवताओं के
समूह द्वारा अमृत प्राप्ति हेतु समुद्र मन्थन किये जाते समय,
अमृत को रखने के लिए विश्वकर्मा द्वारा देवताओं की अलग-अलग
कलाओं से युक्त कर निर्मित होने के कारण ही अमृतपात्र,
कलश कहे गये हैं।।५८-५९।।
नवैव कलशाः
प्रोक्ता नामतस्तान्निबोधत ।
गोह्योपगोह्यो
मरुतो मयूखश्च तथापरः ।। ६० ।।
मनोहाचार्यभद्रश्च
विजयस्तनुदूषकः ।
इन्द्रियघ्नोऽथ
विजयो नवमः परिकीर्तितः ।। ६१ ।।
जो नव प्रकार
के कलश कहे गये हैं, अब आप उनके नामों को सुनो-गो, उपगोह्य, मरुत, मयूख, मनोहर, आचार्यभद्र, विजयतनुदूषकः, इन्द्रियघ्न और नौवाँ विजय कहा गया है । ६०-६१॥
तेषामेव
क्रमाद् भूप नव नामानि यानि तु ।
शृणु
तान्यपराण्येव शान्तिदानि सदैव हि ।। ६२ ।।
हे राजन् !
अन्य क्रमशः सुनो। उनके ही सदैव शान्ति देने वाले अन्य नामों को भी क्रमशः सुनो ॥
६२॥
क्षितीन्द्रः
प्रथमः प्रोक्तो द्वितीयो जलसम्भवः ।
पवनाग्नी ततो
द्वे तु यजमानस्ततः परः ।। ६३ ।।
कोषसम्भवनाभ्यां
तु षष्ठः स परिकीर्तितः ।
सोमस्तु
सप्तमः प्रोक्त आदित्यस्तु तथाष्टमः ।। ६४ ।।
विजयो नाम
कलशो योऽसौ नवम उच्यते ।
स तु पंचमुखः
प्रोक्तो महादेवस्वरूपधृक् ।। ६५ ।।
उनमें
क्षितीन्द्र पहला कहा गया है, द्वितीय जलसम्भव, उसके बाद क्रमशः दो पवन एवं अग्नि तत्पश्चात् यजमान,
नाभिकोष से उत्पन्न जो कलश है वह छठा कहा गया है । सोम
सातवाँ,
आदित्य आठवाँ है। विजय नामवाला जो नौवाँ कहा गया है वह
महादेव का स्वरूपधारण करने के कारण पंचमुख कहा जाता है ।६३-६५॥
घटस्य
पञ्चवक्त्रेषु पञ्चवक्त्रः स्वयं तथा ।
यथाकाष्ठां
स्थितः सम्यग्वामदेवादिनामतः ।। ६६ ।।
इस घट के पाँच
मुखों में स्वयं पञ्चवक्त्र शिव यथोचित दिशाओं में अपने वामदेव आदि नामों से भलीभाँति
स्थित हैं । ६६ ॥
मण्डलस्य तु
पद्मान्तः पञ्चवक्त्रः स्वयं तथा ।
क्षितीन्द्रं
पूर्वतो न्यस्य पश्चिमे जलसम्भवम् ।। ६७ ।।
मण्डल पर बने
कमल के मध्य में पञ्चवक्त्र घट की स्थापना करे । उसके पूर्व की ओर क्षितीन्द्र घट
का न्यास करके पश्चिम में जलसम्भव नामक घट की स्थापना करे ॥ ६७॥
वायव्ये वायवं
न्यस्य आग्नेये ह्यग्निसम्भवम् ।
नैर्ऋत्ये
यजमानं तु ऐशान्यां कोषसम्भवम् ।। ६८ ।।
सोममुत्तरतो
योज्यं सौरं दक्षिणतो न्यसेत् ।
न्यस्यैवं
कलशांश्चैव तेषु चैतान् विचिन्तयेत् ।। ६९ ।।
वायव्यकोण में
वायु (पवन) का न्यास कर आग्नेयकोण में अग्नि की, नैर्ऋत्य में यजमान की तो ऐशान्य में कोषसम्भव नाम के घट की,
उत्तर में सोम की योजना कर, दक्षिण में सौर (आदित्य) कलश की स्थापना करे । इस प्रकार
उपर्युक्त रीति से कलशों की स्थापना करके, उन कलशों पर इन (नीचे लिखे) देवों का ध्यान करे ।। ६८-६९ ।।
कलशानां मुखे
विष्णुग्रीवायां शङ्करः स्थितः ।
मूले तु
संस्थितो ब्रह्मामध्ये मातृगणाः स्थिताः ।। ७० ।।
कलशों के मुख
में भगवान् विष्णु, गले में भगवान् शङ्कर स्थित हैं,
उनके मूल में ब्रह्मा तथा मध्य में मातृगण (मातृकाएँ) स्थित
हैं।। ७० ॥
दिक्पाला
देवताः सर्वाः वेष्टयन्ति दिशोदशः ।
कुक्षौ तु
सागराः सप्त सप्तद्वीपाश्च संस्थिताः ।। ७१ ।।
दिशाओं के
स्वामी इन्द्रादि देवगण, सभी दशों दिशाओं से इन्हें घेरे रहते हैं,
इनकी कुक्षि में सातों समुद्र तथा सातों द्वीप स्थित रहते
हैं ।। ७१ ॥
नक्षत्राणि ग्रहाः
सर्वे तथैव कुलपर्वताः ।
गङ्गाद्याः
सरितः सर्वाः वेदाश्चत्वार एव च ।
कलशे
संस्थिताः सर्वे तेषु तानि विचिन्तयेत् ।। ७२ ।।
सभी नक्षत्र,
ग्रह तथा कुलपर्वत, गङ्गादि सभी नदियाँ, चारों वेद, कलश में ही स्थित हैं, उनका वैसा ही ध्यान करे॥७२॥
रत्नानि सर्वबीजानि
पुष्पाणि च फलानि च ।
वज्रमौक्तिकवैदूर्यमहापद्मेन्द्रस्फाटिकैः।।७३।।
सर्वधाममयं
बिल्वं नागरोदुम्बरं तथा ।
बीजपूरकजम्बीरकाश्मीराम्रातदाडिमम्
।।७४।।
यवं शालिं च
नीवारं गोधूमं सितसर्षपम् ।
कुङ्कुमागुरुकर्पूरमदनं
रोचनं तथा ।।७५।
चन्दनं च तथा
मांसीमेलां कुष्ठं तथैव च ।
कस्तूरीपत्रचूर्णं
च जलनिर्यासकाम्बुदम् ।।७६ ।।
शैलेयं बदरं
जातीपत्रपुष्पे तथैव च ।
कालशाकं तथा
पृक्का देवीपर्णकमेव च ।। ७७।।
वचां धात्रीं
समञ्जिष्ठां तुरुष्कं मङ्गलाष्टकम् ।
दूर्वा
मोहनिकां भद्रां शतमूली शतावरीम् ।।७८।।
वर्णानां
सरलां क्षुद्रां सहदेवीं गजाह्वयाम् ।
पूर्णकोषां
सितां पीठां गुञ्जां शिरसिकानलौ ।।७९।।
व्यामकं
गजदन्तं च शतपुष्पं पुनर्नवाम् ॥८०॥
ब्राह्मीं
देवीं शिवां रुद्रां सर्वसन्धानिकां तथा ।
समाहृत्य
शुभानेतान् कलशेषु निधापयेत् ।। ८१ ।।
सब प्रकार के
रत्न,
बीज, पुष्प, फल, वज्र (हीरा), मोती, मूँगा, महापद्म, इन्द्र (नील), स्फटिकों से, सर्वधाममय, बेल, नागर, गूलर, बीजपूर, जम्बीर, काश्मीर (केशर), आम, अनार, जौ, धान, गेहूँ, श्वेतसरसो, नीवार, गोरोचन, चन्दन, जटामांसी, मेला (सुरमा), कुष्ठ (कूट), कस्तूरी, पत्रचूर्ण, जल निर्मित काम्बुदशैले (गुल),
बदर (बेर), जाती पुष्प के पत्र और कालशाक,
पृक्का, देवीपर्ण, वचा, आँवला, मजीठ, तुरुष्क, मङ्गलाष्टक दूब, मोहनिका, भद्रा, शतमूली, शतावरी, वर्णाना, छुद्रा, सहदेवी, गजा, सरला (विरोजा), पूर्णकोषा, सिता (मिश्री), पीठा, गुञ्जा, शिरसिका और अनल, व्यापक, गजदन्त, शतपुष्प, पुनर्नवा, ब्राह्मी, देवी, शिवा, रुद्रा तथा सर्वसन्धानिका इन सब शुभ पदार्थों (सर्वौषिधि)
को लाकर उन में छोड़े।।७२-८१ ॥
कलशस्य
यथादेशं विधिं शम्भुं गदाधरम् ।
यथाक्रमं
पूजयित्वा शम्भुं मुख्यतया यजेत् ।। ८२ ।।
प्रासादेन तु
मन्त्रेण शम्भुं तन्त्रेण शङ्करम् ।
प्रथमं
पूजयेन्मध्ये नाना नैवेद्यवेदनैः ॥८३॥
कलश के शुभ स्थानों
पर क्रमशः ब्रह्मा, शिव और विष्णु का पूजन करके विशेषरूप से शिव का पूजन करे।
इस हेतु प्रासादमन्त्र और शम्भुतन्त्र ( शिवपूजा पद्धति) से अनेक प्रकार के
नैवेद्य निवेदित कर, मध्यभाग में सर्वप्रथम भगवान् शङ्कर का पूजन करे ।। ८२-८३
।।
दिक्पालानां
घटेष्वेव दिक्पालानपि पूजयेत् ।
पूर्वं बहिः
स्थापितेषु ग्रहाणां कलशेषु च ।
नवग्रहान्
पूजयेत् तु मातृर्मातृघटेषु च ।। ८४ ।।
दिक्पालों के
घट पर दिक्पालों का तथा मातृकाघटों पर मातृकाओं का पूजन करे। पहले बाहर स्थापित
ग्रहों के कलशों पर नवग्रहों का तब मातृकाओं का मातृकाघट पर पूजन करे ॥ ८४
॥
सर्वे देवा
घटे पूज्या घटास्तेषां पृथक् पृथक् ।
नवैव तत्र
पूर्वोक्ताः स्मृता मुख्यतया नृप । । ८५ ।।
इस प्रकार सभी
देवताओं घर पर ही पूजे जाने चाहिये और उनके घट भी अलग-अलग होने चाहिये। हे राजन् !
उनमें नव ही मुख्यरूप से बताये गये हैं॥८५॥
भक्ष्यैर्भोज्यैश्च
पेयैश्च पुष्पैर्नानाविधैः फलैः ।। ८६ ।।
यावकैः
पायसैश्चैव यथासम्भवयोजितैः ।
पुष्यस्नानाय
नृपतिः पूजयेत् सकलान् सुरान् ।। ८७ ।।
इनका भक्ष्य,
भोज्य और पेय पदार्थों, अनेक प्रकार के पुष्पों, फलों, हलुआ, खीर जो यथासम्भव (सामर्थ्य के अनुसार) जुटाये गये हों,
उनसे पुष्यस्नान के निमित्त राजा,
सब देवताओं का पूजन करे।।८६-८७।।
दक्षिणे
मण्डलस्याथ कुण्डं निर्माय पायसैः ।
समिद्भिः शलिसिद्धार्थं
घृतैर्दूर्वाक्षतैस्तथा ।।८८॥
केवलैश्च
तथैवाज्यैः पूजितान् सकलान् सुरान् ।
होमेन तोषयेद्
वृद्धयै नृपः ऋत्विक् पुरोहितः ।।८९।।
राजा अपनी
वृद्धि हेतु, मण्डल के दक्षिण में कुण्ड बनाकर खीर, समिधा, चावल, सरसो, घी, दूब, या केवल अक्षत और घी से ऋत्विक पुरोहित के साथ,
सभी पूजे गये देवताओं को होम द्वारा सन्तुष्ट करे ।। ८८-८९
।।
होमान्ते
मण्डलोदीच्यां वेदिकायां सपट्टकम् ।
रोचनाख्यमलंकारांस्तथा
सर्वान् नियोजयेत् ।। ९० ।।
होम के अन्त
में मण्डल के उत्तरभाग में वस्त्रयुक्त वेदिका पर अलङ्कार तथा रोचना आदि को
व्यवस्थित करे ।। ९० ।।
वृद्धावङ्गुलमङ्गुल्या
षड्विशाङ्गुलिकावधि ।
वृत्तं वा
चतुरस्त्रं वा पद्मं त्रिकोणसंज्ञकम् ।। ९१ ।।
एक-एक अङ्गुल
बढ़ाते हुए क्रमशः २६ अङ्गुल तक वृत्ताकार, चौकोर, कमल के आकार की या त्रिकोण वेदी बनाये ॥ ९१ ॥
रत्नेशान्
पद्ममध्ये तु गोमुष्टिकविनायकैः ।
श्रीश्रीवृक्षवरारोहामुमादेवीं
शुभान्विताम् ।। ९२ ।।
रत्नैः
सर्वैरलङ्कारैः पट्ट कार्य द्विहस्तकम् ।
हस्तविस्तारमुच्छ्रायं
नवहस्तं दशाङ्गुलम् ।। ९३ ।।
स्नानार्थं
सार्धहस्तं च पट्टं वृत्तं गुणान्वितम् ।
कमल के मध्य
में उत्तम रत्न, गौ,
स्वस्तिक, गणेश, लक्ष्मी, श्रीवृक्ष (बेल के पेड़) सब प्रकार के रत्नों और आभूषणों से,
के लिए दो हाथ चौड़ा, नौ हाथ लम्बा, दश अङ्गुल ऊँचा पीठ को स्थापित करे,
शुभदायिनी उत्तम जंघों वाली उमादेवी।।९२-९३।।
शय्या
चतुर्गुणा दीर्घा धनुर्मानं तु पीठकम् ।। ९४ ।।
गजसिंहकृत
टोपं हेमरत्नविभूषितम् ।
सिंहाख्यं
सार्धविस्ताराद् दण्डासनमथापि वा ।। ९५ ।।
उनके स्नान
हेतु डेढ़ हाथ का वृत्ताकार, गुणों से युक्त, शय्या के लिए इस चौगुना लम्बा,
धनुष के मान का पीठ बनावे। अथवा हाथी या सिंह के मुख के
आकार की स्वर्ण एवं रत्नों से विभूषित, सिंह नामक अथवा डेढ़ हाथ चौड़ी दण्डासनरूप की शय्या बनावे
।। ९४-९५॥
व्याघ्रचित्रकपट्टैर्वा
उपधानानि कारयेत् ।
अन्यैर्वा
निर्मितां चर्ममृदुलकरिता ।। ९६।।
बाघ के
चित्रांकित वस्त्रों से अन्य मुलायम, चमड़े, रुई आदि से निर्मित तकिये बनाने चाहिये ॥ ९६ ॥
शय्या
दीर्घार्धविस्तीर्णा चतुर्हस्ता सुलक्षणा ।
वितस्त्यधिकमिच्छन्ति
नृपस्य गुरुविद्यया ।। ९७ ।।
गुरु के
उपदेशानुसार उत्तम शय्या, चारहाथ लम्बी और उसकी आधी, दो हाथ, चौड़ी बताई गई है। राजा की शय्या इससे एक बित्ता अधिक बताई
गई है ॥ ९७ ॥
अर्धचन्द्रसमं
कुर्यादासनं चतुरस्रकम् ।
उपधानानि शय्यायाः
कर्णादिमूलभेदतः ।
षोडशैवात्र
कार्याणि वर्णचित्रयुतानि च ।। ९८ ।।
अर्धचन्द्र के
समान चौकोर सिंहासन और कर्ण आदि मुख्य भेदों के आधार पर शय्या के सोलह प्रकार के
रङ्ग बिरङ्गे उपधान बनाने चाहिये ॥ ९८ ॥
यानं सिंहासनं
पट्टं शय्योपकरणादिकम् ।
राज्ञो
नूतनयोग्यं तद् वेद्या उत्तरतो न्यसेत् ।। ९९ ।।
राजा के लिए
जो भी नये वाहन, सिंहासन, वस्त्र, शय्या, उपकरण आदि हों, उन सबको वेदी के उत्तर में रखे ।। ९९ ।।
तेषां तु
पश्चिमे स्वर्णरत्नौघखचिते वरे ।
पर्यङ्के
यज्ञदार्वौघनिर्मिते महदास्तरे ।। १०० ॥
अर्थाच्छादनसंयुक्ते
चर्मावृतचतुष्टये ।
वृषभस्य
तथोर्णायाः सिंहशार्दूलयोरपि ।। १०१ ।।
पादपीठे
रत्नयुते पादावारोप्य पार्थिवः ।। १०२ ।।
उनके पश्चिम
में सोने और रत्नों से जड़े, यज्ञकाष्ठ से बने, महान अस्तर से युक्त, अर्ध आच्छादन से सुशोभित, बैल, ऊन, सिंह और शार्दूल के चार प्रकार के चमड़ों से ढके हरे,
श्रेष्ठ पलङ्ग, तथा रत्नजटित, पादपीठ पर पैर रखकर, राजा विराजमान हो ॥१००-१०२॥
तस्मिन् पर्यङ्कपीठस्थे
चर्मावृतचतुष्टये ।
नानालङ्कारभूषाढ्यं
नृपतिं रत्नशालिनम् ।। १०३ ।।
स्नापयेद्
ब्राह्मणैः सार्धं राजानं सुखसङ्गतम् ।
संवीतकम्बलं
कृष्णं बहुवस्त्रैश्च स्नापयेत् ।
कलशैर्वलिपुष्पाद्यैः
शालिचूर्णैश्च स्नापयेत् ।। १०४।।
उस पर्यंकपीठ
पर,
चार प्रकार के चमड़ों से ढके, अनेक प्रकार के अलङ्कारों से अलंकृत,
रत्नों से सम्पन्न ब्राह्मणों के साथ सुखपूर्वक विराजित,
काले कम्बलों के समूह व बहुत से वस्त्रों से शोभायमान,
राजा को, कलशों के समूह, बलि पुष्प, चावल के चूर्ण (उबटन) आदि से स्नान कराये ।। १०३-१०४।।
अष्टौ षोडश
विंशाष्टशतमधिकं च वा ।
कलशानां
समाख्याता अधिकस्योत्तरोत्तरम् ।। १०५ ।।
अभिषेक के
निमित्त कलशों की आठ, सोलह, बीस या एक सौ आठ संख्या उत्तरोत्तर अधिक श्रेष्ठ बताई गई है॥१०५
॥
जयकल्याणदैर्मन्त्रैर्मङ्गलोत्यैश्च
शाम्भवैः ।
वैष्णवैरथ
दिक्पालैर्ग्रहमन्त्रैश्च मातृकैः ।। १०६ ।।
उपर्युक्त
कलशों से विजय दिलाने वाले, कल्याण करने वाले, शिव, विष्णु, दिक्पालों, ग्रहों तथा मातृकाओं के मन्त्रों के द्वारा अभिषेक करे ।।
१०६ ।।
आज्यं तेजः
समुदृष्टमाज्यं पापहरं परम् ।
आज्यं
सुराणामाहार आज्ये लोकाः प्रतिष्ठिताः । । १०७ ।।
भौमान्तरिक्षं
दिव्यं वा यत् ते कल्मषमागतम् ।
सर्वं
तदाज्यसंस्पर्शात् प्रणाशमुपगच्छत ।। १०८ ।।
आज्यम्...
मुपगच्छत, मन्त्रार्थ-घी, तेज प्रदान करने वाला है, वह पाप को दूर करने वाला परम साधन है,
वह देवताओं का भोजन है तथा उसी में लोक प्रतिष्ठित हैं।
पृथ्वी सम्बन्धी, अन्तरिक्ष सम्बन्धी, दैवी जो भी दोष आ गये हों वे सब घी के सम्यक स्पर्श से दूर
हो जायँ। इन मन्त्रों को पढ़ता हुआ घी लगाये।। १०७-१०८।।
ततोऽपनीयगात्रात्
तु कम्बलं वस्त्रमेव च ।
कलशैः
स्नापयेद् भूपं पुष्पस्नानीयपूरितैः ।। १०९ ।।
एभिमन्त्रैर्नरश्रेष्ठ
तनुतत्त्वार्थसाधकैः ।। ११० ।।
तब शरीर से
वस्त्र कम्बल आदि को हटाकर, पुष्प और स्नानीयजल से भरे कलशों से,
शरीर के तत्त्व और अर्थसिद्ध करने वाले इन मन्त्रों द्वारा
राजा को स्नान कराये ॥ १०९-११०॥
कालिका पुराण अध्याय ८६ ।।
अभिषेकमन्त्र ।।
सुरास्त्वामभिषिञ्चन्तु
ये च सिद्धाः पुरातनाः ।
ब्रह्मा
विष्णुश्च रुद्राश्च साध्याश्च समरुद्गणाः ।
आदित्या वसवो
रुद्रा अश्विनौ यौ भिषग्वरौ ।। १११ ।।
हे राजन् !
पुराने सिद्ध, ब्रह्मा, विष्णु, शिव,
मरुत्गणों के सहित साध्यगण, आदित्य, वसु, रुद्र, श्रेष्ठ चिकित्सक अश्विनीकुमार आदि जो देवगण हैं,
वे सब आपका अभिषेक करें ।। १११ ॥
अदिर्तिर्देवमाता
च स्वाहा लक्ष्मीः सरस्वती ।
कीर्तिर्लक्ष्मीधृतिः
श्रीश्च सिनीवाली कुहूस्तथा ।। ११२ ।।
दितिश्च सुरसा
चैव विनता कगुरेव च ।
देवपल्यश्च
याः प्रोक्ता देवमातर एव च ।। ११३ ।।
सर्वास्त्वामभिषिञ्चन्तु
सिद्धाश्चाप्सरसां गणाः ।। ११४।।
देवमाता अदिति,
स्वाहा, लक्ष्मी, सरस्वती, कीर्ति, (कमला) धृति, श्री, सिनीवाली, कुहू, दिति, सुरसा, विनिता, कद्रु आदि जो देवपत्नियाँ व देवमातायें कही गई हैं,
वे सभी तथा सिद्धों और अप्सराओं के समूह,
आपका अभिषेक करें ।। ११२-११४।।
नक्षत्राणि
मुहूर्ताश्च पक्षाहोरात्रसन्धयः ।
संवत्सराः
निमेषाश्च कलाः काष्ठाः क्षणा लवाः ।
सर्वे
त्वामभिषिञ्चन्तु कालस्यावयवस्तथा ।। ११५ ।।
नक्षत्र,
मुहूर्त, पक्ष, अहोरात्र की सन्ध्यायें, संवत्सर, निमेष, कला, काष्ठा, क्षण, लव जो भी काल के अवयव हैं, वे सभी आपका अभिषेक करें ।। ११५ ।।
वैमानिकाः
सुरगणाः मनवः सागरैः सह ।
सरितश्च
महानागा नागाः किंपुरुषास्तथा ।। ११६।।
वैखानसा
महाभागा द्विजा वैहायसाश्च ये ।
सप्तर्षयः
सदाराश्च ध्रुवस्थानानि यानि तु । । ११७।।
मरीचिरत्रिः
पुलहः पुलस्त्यः क्रतुरङ्गिराः ।
भृगुः
सनत्कुमारश्च सनकश्च सनन्दनः ।। ११८।।
सनातनश्च
दक्षश्च जैगीषव्योऽभिनन्दनः ।
एकतश्च
द्वितश्चैव त्रितो जावालिकाश्यपौ ।। ११९ ।।
दुर्वासा
दुर्विनीतश्च कण्वः कात्यायनस्तथा ।
मार्कण्डेयो
दीर्घतमाः शुनःशेपो विदूरथः ।। १२० ।।
और्वः संवर्तकश्चैव
च्यवनोऽत्रिः पराशरः ।
द्वैपायनो
यवक्रीतो देवरातः सहात्मजः ।। १२१ ।।
एते चान्ये च
बहवो वेदव्रतपरायणाः ।
सशिष्यास्तेऽभिषिञ्चन्तु
सदाराश्च तपोधनाः ।। १२२ ।।
विमान पर
विराजमान देवगण, चौदह मनु, सागरों के सहित नदियाँ, महान पर्वत, नाग, किंपुरुष (किन्नर), महाभाग वैखानस जो वैहायस हैं, वे तथा ध्रुवस्थान पर स्थित जो मरीचि,
अत्रि, पुलह, पुलस्त्य, क्रतु, अङ्गिरा, पत्नी के सहित वशिष्ठ आदि सप्तर्षि,
भृगु, सनत्कुमार, सनक, सनन्दन, सनातन, दक्ष, जैगीषव्य, अभिनन्दन, जाबालि और काश्यप, दुर्वासा, दुर्विनीत, कण्व, कात्यायन, मार्कण्डेय, दीर्घतमा, शुनःशेप, विदूरथ, और्व, संवर्तक, च्यवन, अत्रि, पराशर, द्वैपायन, यवक्रीत, अपने पुत्र के सहित देवरात, ये सभी और दूसरे भी बहुत से वेदव्रतपरायण,
तपस्वी ऋषिगण, अपनी पत्नियों और शिष्यों के सहित,
अकेले, दो-दो, तीन-तीन के समूहों में, अवस्थित हो आपका अभिषेक करें।।११६-१२२॥
पर्वतास्तरवो
नद्यः पुण्यान्यायतनानि च ।
प्रजापतिः
क्षितिश्चैव गावो विश्वस्य मातरः ।। १२३ ।।
वाहनानि च
दिव्यानि सर्वे लोकाश्चराचराः ।
अग्नयः
पितरस्तारा जीमूताः खं दिशो जलम् ।। १२४ ।।
एते चान्ये च
बहवः पुण्यसंकीर्तनाः शुभाः ।
तोयैस्त्वामभिषिञ्चन्तु
सर्वोत्पातनिवर्हणैः ।। १२५ ।।
सभी पर्वत,
वृक्ष, नदियाँ, पुण्यतीर्थक्षेत्र, प्रजापति, पृथ्वी, विश्व की मातायें (मातृकायें),
गौवें, दिव्यवाहन, चराचरलोक, अग्नियाँ, पितर, तारा, बादल, आकाश, दिशायें एवं जल, ये सब, बहुत से, जिनका स्मरण शुभदायक एवं पुण्य स्मरणीय है और सभी अन्य,
उत्पातों को दूर करने के लिए जल से आपका अभिषेक करें ।। १२३
- १२५ ॥
इत्येवं शुभदैरेतैर्दिव्यैर्मन्त्रैस्तथापरैः
।। १२६ ।।
सौरैर्नारायण रौद्रैर्ब्रह्मशक्रसमुद्भवैः
।
आपोहिष्ठा
हिरण्येति सम्भवेति सुरेति च ।। १२७ ।।
मानस्तोकेति
मन्त्रेण गन्धद्वारैत्यनेन च ।
सर्वमंगलमाङ्गल्ये
श्रीश्च ते ग्रहयोगिभिः ।। १२८ ।।
सुरा.....
निवर्हणैः । इन
उपर्युक्त शुभदायी एवं दिव्यमन्त्रों (जिनके अर्थ उनके नीचे लिखे हैं) से तथा अन्य
सूर्य,
विष्णु, शिव, ब्रह्मा, इन्द्र से सम्बन्धित मन्त्रों- आपोहिष्ठा,
हिरण्य, सम्भवाय, सुर, मानस्तोके, गन्धद्वारा, सर्वमंगलमाङ्गल्ये, श्रीश्चते, ग्रह और योगिनी आदि मन्त्रों से अभिषेक करे।। १२६- १२८ ॥
इत्येवं
स्नानमासाद्य गानमावृत्य कम्बलैः ।
सर्वमंगलमन्त्रेण
वस्त्रं कार्पासकं ध्रियात् ।। । १२९ ।।
इस प्रकार
स्नान सम्पन्न करके राजा कम्बल से अपने शरीर को ढके कर. सर्वमङ्गल मंत्र से सूती वस्त्र
धारण करे।।१२९॥
आचम्य च ततो
देवान् गुरुं विप्रांश्च पूजयेत् ।
ध्वजच्छत्रं
चामरं च घण्टां चाश्वान् गजांस्तथा ।'
मन्त्र
जप्त्वा धारयेत् तु ततो गच्छेधुताशनम् ।।१३० ।।
आचमन करे,
तत्पश्चात् देवताओं, ब्राह्मणों का पूजन करे। तब मन्त्रजप - पूर्वक ध्वज,
छत्र, चामर, घण्टा, हाथी, घोड़े से युक्त हो, राजा अग्निशाला में जाये ।। १३० ।।
तत्र गत्वा
वह्निमध्ये वह्नेः श्रीर्वीक्ष्य पार्थिवः ।
निमित्तान्यनिमित्तानि
लक्षयेत् तत्र बिन्दुभिः ।। १३१ ।।
राजा वहाँ
जाकर अग्नि के मध्य उसकी शोभा को देखे तथा उसके स्फुलिङ्गों के आधार पर,
निमित्त और अनिमित्तों का विचार करे ।। १३१ ॥
दैवज्ञकञ्चुक्यमात्यवन्दिपौरजनैर्वृतः।
वादित्रघोषैस्तुमलैस्तथा
तौर्यत्रिकैः शुभैः ।। १३२ ।।
कृत्वा शेषे
पुनः शान्तिमाशीर्वाच्य च वै द्विजान् ।
पूर्णा विधाय
विधिवद् दक्षिणां कनकान्विताम् ।। १३३ ।।
धान्यानि चाथ
वासांसि दत्त्वा कुर्याद् विसर्जनम् ।। १३४।।
ज्योतिषी,
कञ्चुकी, अमात्य, वन्दि, नागरिकों से घिरा हुआ, बाजे गाजे, तूर्यत्रिक आदि शुभ वाद्यों के तुमुलघोष सहित,
अन्त में ब्राह्मणों द्वारा पुनः शान्तिपाठ और
आशीर्वचन कराकर, पूर्णाहुति कर, द्विजों को स्वर्णमयी दक्षिणा,
अन्न और वस्त्र प्रदान कर, राजा विसर्जन कार्य सम्पन्न करे।। १३२-१३४ ।।
ततः शेषजलैः
सर्वानमात्यादीन् पुरोहितः ।
सेचयेच्चतुरङ्गं
च बलं चापि सराष्ट्रकम् ।। १३५ ।।
तब पुरोहित,
शेष जल से राष्ट्र और बल के सहित,
सभी अमात्यादि का, चतुरङ्गिणी सेना का भी सिंचन करे ॥ १३५ ॥
एवं कृत्वा
नृपः पश्चात् त्रिरात्रं संयतो भवेत् ।
मांसमैथुनहीनश्च
कुर्यान्माङ्गल्यसेवनम् ।। १३६ ।।
इस प्रकार से
पुष्यस्नान करने के पश्चात् राजा, तीन रात्रि पर्यन्त मांस-मैथुन से रहित हो,
माङ्गल्य का सेवन करता हुआ, संयतभाव से रहे ।। १३६ ।।
पुष्यनक्षत्रयुक्ता
तु तृतीया यदि लभ्यते ।
तस्यां पूज्या
सदा देवी चण्डिका शंकरेण ह ।। १३७।।
पाञ्चालिकाविहाराद्यैः
शिशूनां कौतुकैस्तथा ।
वैवाहिकेन
विधिना मोहयेच्चण्डिकां शिवाम् ।। १३८ ।।
पुष्यनक्षत्र
से युक्त तृतीया तिथि जब भी पड़े उसमें शङ्कर के साथ पार्वती देवी का सदैव पूजन कर,
पाञ्चालिक विहार आदि, बच्चों के कौतुक और विवाहादि विधि से वह शिवा,
चण्डिका को प्रसन्न करे ।। १३७-१३८ ।।
चतुष्पथेषु
सर्वेषु देवदेवीगृहेषु च ।
पताकाभिरलंकुर्यादेवं
कुर्वन्न सीदति ।। १३९ ।।
सभी चौराहों,
देवी-देवताओं के मन्दिरों को पताकाओं आदि से अलंकृत करे। ऐसा
करके राजा कष्ट नहीं पाता ॥ १३९॥
एवं कृत्वा
शान्तियागं तथा पुष्याभिषेचनम् ।
चतुरङ्गैः समं
राजा भार्याभिस्तु नरैः सह ।
राज्यमण्डलसंयुक्तः
परत्रेह न सीदति ।। १४० ।।
इस प्रकार से
शान्तियाग और पुष्याभिषेक करके राजा, अपनी चतुरङ्गिणी सेना, पत्नियों और प्रजा के सहित राज्यमण्डल से युक्त होकर,
इस लोक और परलोक में कहीं भी कष्ट नहीं पाता ॥ १४० ॥
नातः परतरो
यज्ञो नातः परतरोत्सवः ।
नातः परतरा
शान्तिर्नातः परतरं शिवम् ।। १४१ ।।
इससे श्रेष्ठ
न कोई यज्ञ है, न उत्सव है, न कोई शान्तिविधान है और न कोई कल्याणकारी कार्य ही है ।। १४१ ॥
अनेनैव विधानेन
नृपतेरभिषेचनम् ।
युवराज्याभिषेकं
च कुर्याद्राजपुरोहितः ।। १४२ ।।
तथा इसी विधि
से राजपुरोहित, राजा और युवराज का अभिषेक करे ॥ १४२ ॥
नृपाभिषेककरणमादौ
यदि समाचरेत् ।
अनेनैव
विधानेन स्थिरः स्यान्नृपतिस्तदा ।। १४३ ।।
यदि
राज्याभिषेक के प्रकरण का प्रारम्भ, इस विधान से किया जाय तो राजा स्थायित्व को प्राप्त होता है
।। १४३ ॥
अयं यज्ञः
समुद्दिष्टः शक्रार्थं ब्रह्मणा पुरा ।
एवं यज्ञं
नृपः कृत्वा परत्रेह न सीदति ।। १४४ ।।
प्राचीनकाल
में यह यज्ञविधान, ब्रह्मा द्वारा इन्द्र से कहा गया था। इस प्रकार से यज्ञ
करके राजा, इस लोक और परलोक में कहीं भी कष्ट नहीं पाता है ॥ १४४ ॥
॥ इति श्रीकालिकापुराणे
पुष्यस्नानविधिर्नाम षडशीतितमोऽध्यायः ॥ ८६ ॥
श्रीकालिकापुराण
में पुष्यस्नानविधिनामक छियासीवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ ८६ ॥
आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 87
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