कालिका पुराण अध्याय ८३

कालिका पुराण अध्याय ८३                      

कालिका पुराण अध्याय ८३ में परशुराम चरित्र का वर्णन है।

कालिका पुराण अध्याय ८३

कालिका पुराण अध्याय ८३                                         

Kalika puran chapter 83

कालिकापुराणम् त्र्यशीतितमोऽध्यायः परशुरामचरितवर्णनम्

कालिकापुराणम्

।। त्र्यशीतितमोऽध्यायः ।।

अथ श्रीकालिका पुराण अध्याय ८३                          

।। और्व उवाच ।।

अथ काले व्यतीते तु जमदग्निर्महातपाः ।

विदर्भराजस्य सुतां प्रयत्नेन जितां स्वयम् ।

भार्यार्थं प्रतिजग्राह रेणुकां लक्षणान्विताम् ।। १ ।।

और्व बोले-तत्पश्चात् बहुत समय बीतने पर महातपस्वी जमदग्नी ने प्रयत्नपूर्वक विदर्भराज की कन्या को स्वयं जीत लिया और लक्षणों से युक्त रेणुका नाम की उस कन्या को, पत्नी के निमित्त ग्रहण किया ॥१॥

सा तस्मात् सुषुवे पुत्रांश्चतुरो वेदसम्मितान् ।

रुषण्वन्तं सुषेणं च वसुं विश्वावसुं तथा ।। २।।

उसने उन ऋषि से रुषण्वन्त, सुषेण, वसु, विश्वासु नामक वेदों के समान, चार पुत्रों को जन्म दिया॥२॥

पश्चात् तस्यां स्वयं जज्ञे भगवान् मधुसूदनः ।।३।।

कार्तवीर्यवधायाशु शक्राद्यैः सकलैः सुरैः ।

याचितः पंचमः सोऽभूत् तेषां रामाह्वयस्तु सः ॥४॥

उपर्युक्त चारों पुत्रों के जन्म के बाद, इन्द्रादि समस्त देवताओं की याचना पर, कार्तवीर्य का वध करने के लिए स्वयं भगवान् विष्णु, शीघ्र ही उन्हीं के गर्भ से उत्पन्न हुये। वे राम नाम से पुत्रों में पाँचवें पुत्र थे। ३-४।।

भारावतरणार्थाय जातः परशुना सह ।

सहजं परशुं तस्य न जहाति कदाचन ॥५॥

वे पृथ्वी का भार दूर करने के लिए, जन्म से ही परशु के सहित, उत्पन्न हुये थे इसलिए उनका फरसा उनसे कभी भी अलग नहीं होता था ॥ ५॥

अयं निजपितामह्याश्चरुभुक्तिविपर्ययात् ।

ब्राह्मणः क्षत्रियाचारो रामोऽभूत् क्रूरकर्मकृत् ।।६।।

इस प्रकार अपनी दादी के द्वारा चरुभक्षण के व्यतिक्रम के कारण ब्राह्मण होते हुये भी भी राम, क्षत्रिय-आचरण से युक्त क्रूरकर्म करने वाले हुये ॥६॥

स वेदानखिलान् ज्ञात्वा धनुर्वेदं च सर्वशः ।

सततं कृतकृत्योऽभूद् वेदविद्याविशारदः ।।७।।

वे सभी वेदों को तथा धनुर्वेद को पूर्णतः जानकर निरन्तर वेदविद्या में निपुण और कृतकृत्य हुये ॥७॥

एकदा तस्य जननी स्नानार्थं रेणुका गता ।

गङ्गातोये ह्यथापश्यन्नाम्ना चित्ररथं नृपम् ॥८॥

भार्याभिः सदृशीभिश्च जलक्रीडारतं शुभम् ।

सुमालिनं सुवस्त्रं तं तरुणं चन्द्रसन्निभम् ।। ९ ।।

एक बार उनकी माता रेणुका, स्नान के लिए गयी हुई थीं, वहाँ उन्होंने गङ्गा के जल में चित्ररथ नामक सुन्दर माला, और वस्त्र धारण किये तथा चन्द्रमा के समान छवि वाले राजा को देखा जो अपने ही समान स्त्रियों सहित जलक्रीड़ा में रत था।। ८-९ ।।

तथाविधं नृपं दृष्ट्वा सञ्जातमदना भृशम् ।

रेणुका स्पृहयामास तस्मै राज्ञे सुवर्चसे ।।१०।।

स्पृहायुतायास्तस्यास्तु संक्लेदः समजायत ।

विचेतनाम्भसा क्लिन्ना त्रस्ता सा स्वाश्रमं ययौ ।। ११ ।।

उस प्रकार के, सुन्दर राजा को देखकर, वह बहुत अधिक काम से पीड़ित हो गई। तथा रेणुका ने उस तेजस्वी राजा की स्पृहा की । इस कामना के ही फलस्वरूप वह पसीने-पसीने हो गई । अनजाने में ही उत्पन्न उस जल से भींगी हुई, वह दुःखी और भयभीत मन से अपने आश्रम में गई ।। १०-११ ॥

अबोधि जमदग्निस्तां रेणुकां विकृता तथा ।

धिग् धिक्कारतेत्येवं निनिन्द च समन्ततः ।। १२ ।।

जगदग्नि ने उस रेणुका को, उस प्रकार से विकृत जानकर, सब प्रकार धिक्कारा और निन्दा की ।। १२ ।।

ततः स तनयान् प्राह चतुरः प्रथमं मुनिः ।

रुषण्वत्प्रमुखान् सर्वानेकैकं क्रमतो द्रुतम् ।।१३।।

छिन्थीमां पापनिरतां रेणुकां व्यभिचारिणीम् ।

ते तद्वचो नैव चक्रुर्मूकाश्चासन् जडा इव ।।१४।।

तब पहले उस जमदग्निमुनि ने रुषण्वन्त आदि अपने चार पुत्रों में से एक- एक से क्रमश: कहा कि इस पाप में लगी हुई व्यभिचारिणी रेणुका को शीघ्र ही काट किन्तु वे पुत्र, उनके वचन का पालन न करते हुये गूँगे एवं जड़ की भाँति खड़े ही रहे ।। १३-१४ ॥

कुपितो जमदग्निस्ताञ्छशापेति विचेतसः ।

भवध्वं यूयमाचिराज्जडा गोबुद्धिगर्धिताः ।।१५।।

तब जमदग्नि ऋषि ने क्रोधित हो उन निश्चेष्ट पुत्रों को शाप दिया कि तुम सब शीघ्र ही पशुबुद्धि से युक्त, जड़मति होओ ॥ १५ ॥

अथाजगाम चरमो जामदग्न्येऽतिवीर्यवान् ।

तं च रामं पिता प्राह पापिष्ठां छिन्धि मातरम् ।। १६ ।।

तत्पश्चात् जमदग्नि ऋषि के अन्तिम पुत्र राम, वहाँ आ गये जो अत्यन्त पराक्रमी थे। उनसे पिता ने कहा कि इस पापिनी, माता को काट डालो ॥१६॥

स भ्रातृ॑श्च तथाभूतान् दृष्टा ज्ञानविवर्जितान् ।

पित्रा शप्तान् महातेजाः प्रसूं परशुनाच्छिनत् ।। १७ ।।

पिता द्वारा शाप दिये गये, उस प्रकार ज्ञान (चेतना) से रहित, अपने भाइयों को देखकर उस महातेजस्वी राम ने, अपने परशु से माता को काट दिया॥ १७ ॥

रामेण रेणुकां छिन्नां दृष्ट्वा विक्रोधनोऽभवत् ।

जमदग्निः प्रसन्नः सन्निति वाचमुवाच ह ।। १८ ।।

राम के द्वारा रेणुका काट दी गई है, यह देखकर जमदग्नि ॠषि क्रोध से मुक्त हो गये और प्रसन्न हो, यह वाणी बोले ॥ १८ ॥

।। जमदग्निरुवाच ।।

प्रीतोऽस्मि पुत्र भद्रं ते यत् त्वया मद्वचः कृतम् ।

तस्मादिष्टान् वरान् कामांस्त्वं वै वरय साम्प्रतम् ।। १९ ।।

जमदग्नि बोले- हे पुत्र ! मैं प्रसन्न हूँ। तुम्हारा कल्याण हो, क्योंकि तुमने मेरे वचन का पालन किया है। अब तुम मुझसे अपने अभीष्ट वरों और कामनाओं को माँग लो ।। १९ ।।

।। और्व उवाच ।।

स तु रामो वरान् वव्रे मातुरुत्थानमादितः ।

वधस्यास्मरणं तस्या भ्रातॄणां शापमोचनम् ।।२०।।

मातृहत्याव्यपनयं युद्धे सर्वत्र वै जयम् ।

आयुः कल्पान्तपर्यन्तं क्रमाद् वै नृपसत्तम ।। २१ ।।

और्व बोले- हे राजाओं में श्रेष्ठ ! तब उन राम ने, माता पुनः जी उठें इससे प्रारम्भ कर, उन्हें अपने वध का स्मरण न रहे, भाइयों की शापमुक्ति हो जाय, स्वयं परशुराम की मातृहत्या का पाप हट जाय, सभी युद्धों में उन्हें विजय प्राप्त हो, कल्पपर्यन्त आयु हो, इन उपर्युक्त वरों को क्रमशः माँग लिया ॥ २०-२१ ॥

सर्वान् वरान् स प्रददौ जमदग्निमहातपाः ।। २२ ।।

सुप्तिस्थितेव जननी रेणुका च तदाभवत् ।

वधं न चापि संस्मार सहजा प्रकृतिस्थिता ।। २३ ।।

युद्धे जयं चिरायुष्यं लेभे रामस्तदैव हि ।

मातृहत्याव्यपोहाय पिता तं वाक्यमब्रवीत् ।। २४ ।।

महान् तपस्वी जमदग्नि ने परशुराम द्वारा माँगे गये सभी वरों को दे दिया । फलस्वरूप उनकी माता रेणुका उस समय सोकर उठी हुई की भाँति सहज एवं स्वाभाविक हो गईं। उन्हें अपने वध का भी स्मरण नहीं रहा तथा उसी समय परशुराम ने पिता के द्वारा अपने चिरायुष्य और युद्ध में विजय का वर प्राप्त लिया। किन्तु मातृहत्या से मुक्ति के लिए पिता ने उनसे ये वचन कहे ॥ २२-२४ ॥

न पुत्र वरदानेन मातृहत्यापगच्छति ।

तस्मात् त्वं ब्रह्मकुण्डाय गच्छ स्नातुं च तज्जले ।। २५ ।।

तत्र स्नात्वा मुक्तपापो नचिरात् पुनरेष्यसि ।

जगद्धिताय पुत्र त्वं ब्रह्मकुण्डं व्रज द्रुतम् ।। २६ ।।

जमदग्नि बोले- हे पुत्र ! वरदान से मातृहत्या दूर नहीं होगी । इसलि ब्रह्मकुण्ड पर जाकर उसके जल में स्नान करने के लिए जाओ। वहाँ जाकर, स्नान कर, तुम शीघ्र ही पापरहित हो जाओगे । अतः तुम शीघ्र ही संसार के कल्याण के लिए वहाँ जाओ ।। २५-२६ ।।

।। और्व उवाच ।।

स तस्य वचनं श्रुत्वा रामः परशुधृक् तदा ।

उपदेशात् पितुर्यातो ब्रह्मकुण्डं वृषोदकम् ।। २७ ।।

और्व बोले- वे अपने पिता के वचन सुनकर परशु धारण किये राम, उन्हीं के उपदेश से ब्रह्मकुण्ड नामक वृषोदक तीर्थ पर चले गये ॥२७॥

तत्र स्नानं च विधिवत् कृत्वा धौतपरश्वधः ।

शरीरान्निःसृतां मातृहत्यां सम्यग् व्यलोकयत् ।। २८ ।।

वहाँ इन्होंने विधिवत् स्नान कर तथा अपने फरसे को धोकर, अपने शरीर से निकली हुई मातृहत्या को उन्होंने भलीभाँति देखा ।। २८ ।।

जातसंप्रत्ययः सोऽथ तीर्थमासाद्य तद्वरम् ।

वीथीं परशुना कृत्वा ब्रह्मपुत्रमवाहयत् ।। २९ ।।

विश्वास हो जाने पर उस श्रेष्ठतीर्थ पर पहुँच कर, उन्होंने अपने परशु से मार्ग बनाकर ब्रह्मपुत्र को पृथ्वी पर आवाहित किया ॥ २९ ॥

ब्रह्मकुण्डात् सृतः सोऽथ कासारे लौहिताह्वये ।

कैलासोपत्यकायां तु न्यपतद् ब्रह्मणः सुतः ।। ३० ।।

वह ब्रह्मा का पुत्र, ब्रह्मकुण्ड से निकल कर कैलाश पर्वत की उपत्यका में स्थित लौहित्य नामक सरोवर में गिरा । ३० ॥

तस्यापि सरसस्तीरे समुत्थाय महाबलः ।

कुठारेण दिशं पूर्वामनयद् ब्रह्मणः सुतम् ।। ३१ ।।

महाबली परशुराम, उस सरोवर के किनारे से भी अपने परशु से उठाकर, उस ब्रह्मपुत्र को पूर्व दिशा में ले गये । । ३१ ॥

ततः परत्रापि गिरिं हेमशृङ्गं विभिद्य च ।

कामरूपान्तरं पीठमावहद्यदमुं हरिः ।। ३२ ।।

तब उन विष्णु ने आगे हेमशृंग नामक पर्वत को भी भेदकर उसे कामख्यापीठ की ओर प्रवाहित किया ।। ३२ ।।

तस्य नाम स्वयं चक्रे विधिलौहित्यगङ्गकम् ।

लौहित्यात् सरसो जातो लौहित्याख्यस्ततोऽभवत् ।। ३३ ।।

ब्रह्मा ने स्वयं उसका नाम लौहितगङ्गा रखा, लौहित्य सरोवर से उत्पन्न होने के कारण वह लौहित्य नाम से प्रसिद्ध हुआ ।। ३३ ।।

स कामरूपमखिलं पीठमाप्लाव्य वारिणा ।

गोपयन् सर्वतीर्थानि दक्षिणं याति सागरम् ।। ३४।।

वह सम्पूर्ण कामरूपपीठ को जल से डुबाकर तथा सभी तीर्थों को अपने में छिपाकर, दक्षिणसागर में जाता है ।। ३४ ।।

प्रागेव दिव्ययमुनां स त्यक्तत्वा ब्रह्मणः सुतः ।

पुनः पतति लौहित्ये गत्वा द्वादशयोजनम् ।। ३५ ।।

पहले ही कहे दिव्य यमुना को छोड़कर वह ब्रह्मपुत्र, बारह योजन जाकर पुनः लौहित्य में गिरता है ।। ३५॥

चैत्रे मासि सिताष्टम्यां यो नरो नियतेन्द्रियः ।

चैत्रं तु सकलं मासं शुचिः प्रयतमानसः ।। ३६ ।।

स्नाति लौहित्यतोये तु स याति ब्रह्मणः पदम् ।

लौहित्यतोये यः स्नाति स कैवल्यमवाप्नुयात् ।। ३७ ।।

जो मनुष्य नियतेन्द्रिय होकर चैत्रमास के शुक्लपक्ष की अष्टमी को या सम्पूर्ण चैत्रमास, पवित्र और नियन्त्रित मन से, लौहित्य के जल में स्नान करता है वह ब्रह्मा के पद को प्राप्त करता है। जो लौहित्य के जल में स्नान करता है, वह कैवल्य को प्राप्त करता है ।। ३६-३७॥

इति ते कथितं राजन् यदर्थं मातरं पुरा ।

अहन् वीरो जामदग्न्यो यस्माद् वा क्रूरकर्मकृत् ।। ३८ ।।

हे राजन् ! प्राचीनकाल में जमदग्नि के पुत्र परशुराम ने जिस कारण से माता का वध किया और क्रूरकर्मा हुए, वह मैंने तुमसे कह दिया ।। ३८ ।।

इदं तु महदाख्यानं यः शृणोति दिने दिने ।

स दीर्घायुः प्रमुदितो बलवानभिजायते ।। ३९ ।।

यह एक महान आख्यान है जो इसे प्रतिदिन सुनता है, वह दीर्घायु, प्रसन्न और बलवान् हो जाता है ॥ ३९॥

इति ते कथितं राजञ्छरीरार्धं यथाद्रिजा ।

शम्भोर्जहार वेताल भैरवौ च यथाह्वयौ ॥४०॥

यस्य वा तनयौ जातौ यथा यातौ गणेशताम् ।

किमन्यत् कथये तुभ्यं तद्वदस्व नृपोत्तम ।।४१।।

हे राजन् ! जिस प्रकार पार्वती ने शिव के अर्ध शरीर को प्राप्त किया, वेताल और भैरव दोनों जिसके पुत्र थे एवं जैसे उन्होंने गणों का स्वामित्व प्राप्त किया था, वह सब तुमसे मेरे द्वारा कहा गया। हे राजाओं में श्रेष्ठ! अब मैं तुमसे और क्या कहूँ? वह बताओ ।। ४०-४१ ।।

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

इत्यौर्व्वस्य च संवादः सगरेण महात्मना ।

योऽसौ कायार्धहरणं शम्भोर्गिरिजायाः कृतः ।। ४२ ।।

सर्वोऽद्य कथितो विप्राः पृष्टं यच्चान्यदुत्तमम् ।

सिद्धस्य भैरवाख्यस्य पीठानां च विनिर्णयम् ॥४३॥

भृङ्गिणश्च यथोत्पत्तिर्महाकालस्य चैव हि ।

उक्तं हि वः किमन्यत् तु पृच्छन्तु द्विजसत्तमाः ।। ४४ ।।

मार्कण्डेय बोले- हे विप्रों ! इस प्रकार और्व और महात्मा सगर का संवाद, जिसमें पार्वती द्वारा शिव के शरीरार्ध का ग्रहण किया गया, वह सब तथा अन्य जो उत्तम बातें पूछी गई, पीठों का निर्धारण, सिद्ध-भैरव-भृङ्गि और महाकाल की उत्पत्ति वह सब कहा गया। हे द्विजसत्तमों! आप सब और क्या पूछ रहे हैं।। ४२-४४ ।।

इति सकलसुतन्त्रं तन्त्रमन्त्रावदातं बहुतरफलकारि प्राज्ञविश्रामकल्पम् ।

उपनिषदमवेत्य ज्ञानमार्गेकतानं स्स्रवति स इह नित्यं यः पठेत् तन्त्रमेतत् ।। ४५ ।।

इस प्रकार से यह उत्तम तन्त्र, जो तन्त्र-मन्त्रों का समूह है, बहुत ही फलदाय है, बुद्धिमानों को विश्राम देने वाला है। जो इस तन्त्र को नित्य पढ़ता है, उसमें उपनिषदों की भाँति, ज्ञान का संचार होता है ॥ ४५ ॥

॥ इति श्रीकालिकापुराणे परशुरामचरितवर्णने त्र्यशीतितमोऽध्यायः ॥

श्रीकालिकापुराण में परशुरामचरितवर्णनसम्बन्धी तिरासीवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ।। ८३ ।।

आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 84 

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