गीतगोविन्द सर्ग ८ विलक्ष्य लक्ष्मीपति

गीतगोविन्द सर्ग विलक्ष्य लक्ष्मीपति

कवि श्रीजयदेवजीकृत गीतगोविन्द के सर्ग १ सामोद दामोदर सर्ग २ अक्लेश केशव, सर्ग ३ मुग्ध मधुसूदन, सर्ग ४ स्निग्ध मधुसूदन, सर्ग ५ आकाङ्क्ष-पुण्डरीकाक्ष, सर्ग ६ धृष्ट वैकुण्ठ तथा सर्ग नागर नारायण को पिछले अंक में आपने पढ़ा । अब गीतगोविन्द सर्ग  जिसका नाम विलक्ष्य लक्ष्मीपति है। साथ ही सत्रहवें सन्दर्भ अथवा सत्रहवें प्रबन्ध अथवा अष्ट पदि १७ का वर्णन किया गया है। इस  सत्रहवें प्रबन्ध का नाम 'लक्ष्मीपति- रत्नावली' है।

गीतगोविन्द सर्ग ८ विलक्ष्य लक्ष्मीपति

श्रीगीतगोविन्दम्‌ अष्टमः सर्गः विलक्ष्यलक्ष्मीपतिः

श्रीगीतगोविन्द अष्टम सर्ग विलक्ष्य लक्ष्मीपति

Shri Geet govinda sarga 8 Vilakshya Laxmipati

गीतगोविन्द सर्ग विलक्ष्य लक्ष्मीपति

श्रीगीतगोविन्द सर्ग आठ - विलक्ष्य लक्ष्मीपति

अथ अष्टमः सर्गः

विलक्ष्यलक्ष्मीपतिः

अथ कथमपि यामिनीं विनीय स्मरशरजर्जरितापि सा प्रभाते ।

अनुनयवचनं वदन्तमग्रे प्रणतमपि प्रियमाह साभ्यसूयम् ॥१ ॥

अन्वय - [ इदानीं श्रीराधायाः खण्डितावस्थां वर्णयति यदुक्तं- साहित्यदर्पणे- पार्श्वमेति प्रियो यस्या अन्यसम्भोगचिह्नितः । सा खण्डितेति कथिता धीरैरीर्षाकषातिता इति ] - अथ (बहुविध- प्रलापानन्तरं ) सा स्मरशर जर्जरितापि ( स्मरस्य कामस्य शरेण जर्जरितापिः क्षणमात्रमतिबाहयितुमशक्तापीति भावः) कथमपि (अतिकृच्छ्रेण) यामिनीं विनीय (अतिबाह्य) प्रभाते (प्रातः) अग्रे ( पुरतः) अनुनयवचनं (स्वापराधजनित-कोपोप- शमन - वाक्यं) वदन्तमपि [ततोऽपि प्रसादमनालोक्य ] प्रणतमपि [ अनेन प्रेम्णः पराकाष्ठा दर्शिता ] प्रियं (श्रीकृष्ण) साभ्यसूयं (कण्ठागतप्राणाया अपि प्रियदर्शनमात्रेण असूयोदयात् स यथातथा ) आह ॥ १ ॥

अनुवाद - अतः पर श्रीराधा ने जैसे-तैसे वह रात बिताई। प्रातः काल होने पर श्रीकृष्ण उनको प्रणिपातपूर्वक सानुनय वचन से उनके रोष भरे मान को प्रशमित करने का प्रयास करने लगे, परन्तु श्रीराधा मदन बाणों से जर्जरित होने पर भी विरह वचनों से युक्त प्रियकान्त श्रीकृष्ण को अपने निकट प्रणतभाव से समुपस्थित देखकर अतिशय असूया (ईर्ष्या) भाव से उनको इस प्रकार कहने लगीं।

पद्यानुवाद-

किसी तरह दुःख-रात बिताई, हो आया जब भोर ।

चरणों पर झुकते, अधरों पर हँसते दीखा 'चोर'

किन्तु नहीं राधाका इससे नाचा रे मन मोर ।

हुई क्षुब्ध, सागरमें जैसे लहरोंका हो रहा शोर ॥

हे माधव ! हे कमल-विलोचन! वनमाली! रसभीने!

अपनी व्यथा-हारिणीके ढिग जाओ हे परलीने!

बालबोधिनी - पिछली रात श्रीराधा सब कल्पना जाल रचती रहीं, विरह में श्रीकृष्ण की बाट जोहती रहीं, श्रीकृष्ण नहीं आये, श्रीराधा विरह से जर्जरित हो गई, विदीर्ण हो गई, रात भर मदमाते वसन्त की बयार की व्यथा का सन्देश प्रति सन्देश पहुँचाती रहीं। उस वसन्ती रात में दसों दिशाओं से भाँति-भाँति के फूलों की गन्ध और काम के शरों से आहत हो गयीं, संकेत स्थल पर विलाप करती रहीं, मिलने के सपने देखती रहीं, मिलन की स्मृतियों में खोयी रहीं। कैसा अजस्र विरह, इतने में ही प्रातः काल हो गया। कैसी बिडम्बना है कि मानिनी नायिकाओं का मान अपने प्रियतम के समक्ष और भी अभिवर्द्धित हो जाता है। श्रीकृष्ण उनके सामने उपस्थित होकर प्रणाम करते हुए अत्यधिक अनुनय करनेवाले, प्रणतमान होकर सान्त्वना देने लगे, उनके कोप को दूर करने का प्रयास करने लगे, परन्तु काम – पीड़ा से जर्जरिता श्रीकृष्ण के शरीर में सम्भोग का चिह्न देखकर वे और भी अधिक अधीर हो गयीं। श्रीराधा के चरणों में श्रीकृष्ण का झुकना प्रेम की पराकाष्ठा है, श्रीराधा के प्राण कण्ठगत हैं, प्रिय के दर्शन से ही श्रीराधा में असूया भाव प्रवाहित होने लगा और वे कहने लगीं-

गीतगोविन्द सर्ग अष्ट पदि १७ - लक्ष्मीपति रत्नावली

सप्तदशः सन्दर्भः

गीतम् ॥१७॥

भैरवीरागयतितालाभ्यां गीयते ।

गीतगोविन्द काव्य का यह सत्रहवाँ प्रबन्ध भैरव राग तथा यति ताल से गाया जाता है।

रजनि - जनित - गुरु-जागर - राग- कषायितमलस- निमेषम् ।

वहति नयनमनुरागमिव स्फुटमुदित - रसाभिनिवेशम् ॥

हरि हरि याहि माधव याहि केशव मा वद कैतववादं

तामनुसर सरसीरुहलोचन या तव हरति विषादम् ॥ध्रुवम् ॥१ ॥

अन्वय- रजनि - जनित - गुरु-जागर-राग-कषायितम् ( रजन्यां जनितेन गुरुणा दीर्घेण जागरेण जागरणेन यो रागस्तेन, तस्यामनुरागेण च कषायितं लोहितीकृतं) [ तथा ] अलसनिमेषं (अलसेन निमेषः निमीलनं यत्र तं ) [ तथाच ] उदितरसाभिनिवेशं ( उदितः प्रकटितः रसाभिनिवेशः तस्याः सुरते अभिनिवेशः येन तथाभूतं) तव नयनं स्फुटम् (अभिव्यक्तम्) अनुरागं बहतीव ( धारयतीव); [तां प्रति तव हृदि स्थितोऽनुरागः प्राचूर्यात् अरविन्दचक्षुषा निर्गत इव प्रतीयते इति भावः ]; हे माधव [ त्वं] याहि हे केशव [ त्वं ] याहि [ द्विरुक्त्या कोपाधिक्यं सूचितम् ]; कैतववादं (त्वदेकपरायणोऽहमिति कपटवचनं) मा वदः हे सरसीरुहलोचन (कमललोचन दृष्टिपातमात्रेणैव मुग्धस्त्रीजनवञ्चनपरायण इत्यभिप्रेत्यर्थः) हरि हरि (खेदे) [त्वत्तोऽपि वञ्चनचतुरा] या [सहजप्रेमानभिज्ञस्य] तव विषादं (कापट्यापादितवैमनस्यं) हरति, ताम् (तव चित्तानुरूपचतुरव्यापारां कान्ताम्) अनुसर (अनुगच्छ) ॥१॥

अनुवाद - हे हरि ! (अपनी सुललित नयन – भङ्गिमा से अवलाओं के मन को हरण करनेवाले) मुझे खेद है। हे माधव! जाओ! हे केशव चले जाओ! तुम झूठ मत बोलो ! जो तुम्हारे दुःख का हरण कर सकती है, तुम उसी के पास चले जाओ! रात्रि में बहुत अधिक जागरण के कारण अलसतामय मन्द मन्द निमीलित, रति रसावेश संयुक्त आरक्त नयन उस व्रजसुन्दरी के प्रति प्रबलानुराग को अभी भी प्रकाशित कर रहे हैं।

पद्यानुवाद-

नैश जागरण से रतनारी बनी सखे! हैं आँखें।

रह-रहकर झप झप उठती है मृदु पलकों की पाँखें ॥

छलक रही अनुराग माधुरी अलसाई 'कोरों' से।

वह कौन बँधी सी झलक रही है रेशमके डोरोंसे ॥

हे माधव ! हे कमल विलोचन! वनमाली! रसभीने! ।

अपनी व्यथाहारिणीके ठिंग, जाओ हे परलीने! ॥

बालबोधिनी – श्रीकृष्ण की आँखें रातभर जागने के कारण और विरहानुभूति से लाल हो गयी हैं और अलसता हेतु बार-बार मुँदी जा रही हैं ऐसी अनुरञ्जित आँखों को देखकर श्रीराधा श्रीकृष्ण को भावों की सार्थकता हेतु कई नामों से सम्बोधित करती हैं- सपत्नी विषयक ईर्ष्या प्रकट करती हैं। हरि ! हरि ! - ये दोनों अव्यय पद 'खेद प्रकट करने के लिए प्रयुक्त हुए हैं। गान छन्द को पूर्ण करने के लिए भी स्तोभ रूप में इनका प्रयोग हो सकता है। खण्डिता श्रीराधा अपने सम्मुख प्रणतवान अपने प्रिय से कहती हैं हे माधव! हे लक्ष्मीपति। जाओ! चले जाओ! आप अन्यासक्त हैं, किस प्रकार दूसरों की प्रताड़ना करोगे यह 'मा' शब्द से द्योतित होता है। अथवा मा अर्थात् लक्ष्मी स्वभाव से चञ्चला हैं, उनके पति का भी चञ्चल होना युक्ति संगत ही है। मैं एक पतिपरायणा हूँ, आप मुझसे किस प्रकार स्नेह कर सकते हैं? अतः चले जाओ। इस प्रकार दोषारोप और तिरस्कार कर पुनः असन्तुष्ट होकर कहने लगीं हे केशव ! चले जाओ! प्रशस्त हैं केश जिसके, उसमें अनुरक्त रहने वाले- यह 'केशव' शब्द की व्युत्पत्ति होती है। आप किसी केशसंस्कारवती स्वैरिणी में रत रहें-यहाँ 'केशव' शब्द में व्यङ्ग है। अतः हे केशव अर्थात् हे बहुबल्लभ ! मुझ एक-परायणा से इस कैतववाद से क्या प्रयोजन - छल- वाक्य मत बोलो। मुझ दुःखी में रोष क्यों है, यदि यह आशङ्का करते हो, तो सुनो-ऐसा नहीं है। हे सरसीसहलोचन ! अर्थात् कुमुदलोचन जो तुम्हारा विषाद हर लेती है, उसी (प्रिया, बहुबल्लभ) का अनुसरण करो। अनुरूप का अनुरूपा में ही अनुरूप प्रेम होता है। श्लोक में 'सरसीरुहलोचन' शब्द कहा गया है। सरसीरुह शब्द 'कमल' एवं 'कुमुद' दोनों का समान रूप से वाचक है। श्रीकृष्ण का कमललोचनत्व प्रख्यात है, किन्तु श्रीराधा को तो यहाँ सरसीरुह शब्द से कुमुद रूपी अर्थ ही अभिप्रेत है। कुमुद रात्रि भर विकसित रहता है और दिवस को देखकर मुकुलित हो जाता है। श्रीकृष्ण भी चन्द्रवंशी हैं, अतः रात किसी नायिका के साथ चन्द्रमा के समान ही जागकर बितायी है। पुनः श्रीराधा श्रीकृष्ण से कहती हैं- तुम्हारी आँखों में अनुराग अभी भी दिखायी दे रहा है, राग की लालिमारूपी दोष अभी भी विद्यमान है, तत्कालीन उदित शृङ्गार रस का अनुरागमय अभिनिवेश अभी भी आँखों में लक्षित हो रहा है। जैसा चित्त वैसी चतुराई ।

उन तीन सम्बोधनों की व्याख्या इस प्रकार भी होती है-

माधव - आप हमारे 'धव' अर्थात् पति नहीं हैं, पति होते तो क्या वञ्चना करते। यथार्थ में 'मा' अर्थात् श्रीराधा और 'धव' उनके प्राणप्रियतम हैं।

केशव - जो प्रकृष्ट वेश-भूषा को धारण करते हैं, सदा ही जिनके केश मुक्त हैं।

सरसीरुहलोचन-सदा आनन्द में डूबे हुए होने के कारण अर्द्धनिमीलित नेत्रवाले हैं।

हाय ! रातभर जिसने करुणा बरसाई है, उसी के पास जाओ ।

यह सुनकर श्रीकृष्ण बोले- मैं तुमसे एक प्राण और एक शरीर हूँ। राधे ! मैं सच कहता हूँ कि मैंने किसी दूसरी स्त्री का सङ्ग नहीं किया, मेरी आँखें हैं ही लाल रङ्ग की, किसी अङ्गना के साथ जागरण के कारण नहीं, अलसता से आँखें मुँद रही हैं ॥ १ ॥

कज्जल - मलिन - विलोचन - चुम्बन - विरचित - नीलिम-रूपम् ।

दशन - वसनमरुणं तव कृष्ण ! तनोति तनोरनुरूपम् ॥

हरि हरि याहि माधव..... ॥ २ ॥

अन्वय - [त्वच्चिन्तयैव जागरान्नेत्रे मे रागः, नतू अन्यस्या रतिरागादितिचेत् तत्राह ] - हे कृष्ण, कज्जल-मलिन- विलोचन- चुम्बन - विरचित-नीलिमरूपम् (कज्जलेन मलिनयोः विलोचनयोः नेत्रयोः तस्या इति शेषः, चुम्बनेन विरचितं नीलिमरूपं यत्र तादृशं) तव अरुणं (सहजलोहितं) दशनवसनं (अधरः) [ अधुना ] तनोः ( तव शरीरस्य) अनुरूपं (सदृशरूपं श्यामतामित्यर्थः) तनोति (व्यनक्ति) [हरि हरि याहि माधव याहीत्यादि सर्वत्र योजनीयम् ] ॥२॥

अनुवाद - आपकी दशन- पंक्ति के - वसन स्वरूप अरुण वर्ण के सुन्दर अधर व्रजयुवतियों के काजल से अञ्जित नयनों के चुम्बन करने से कृष्णवर्ण होकर आपके शरीर के अनुरूप ही कृष्णता को प्राप्त हो रहे हैं।

पद्यानुवाद-

उसकी कजरारी आँखोंके चुम्बनसे हैं काले।

अरुण अधर ये छली ! तुम्हारे, दीख रहे मतवाले ॥

बालबोधिनी - श्रीराधा अपने अन्तर में खण्डिता का आरोप करके बड़े मर्मभेदी व्यङ्गवाणों से माधव को भेदने लगती हैं - कृष्ण ! कपटता की आवश्यकता नहीं है। यदि तुम यह कहते हो कि दूसरी किसी भी रमणी के साथ मैंने रात नहीं बितायी है तो ये आँखें इतनी लाल-लाल क्यों हो रही हैं? उसी अनुरागिणी के प्रति अभी भी तुम्हारा प्रेम तुम्हारी आँखों में झलक रहा है। श्रीकृष्ण कहने लगे-प्रिये ! मैं सच कहता हूँ कि मैंने किसी भी रमणी के साथ रात्रि जागरण नहीं किया, अलसता के कारण मेरी आँखें बन्द हो रही हैं। श्रीराधा कहने लगीं - पुनः यह तुम्हारे लाल अधर काले क्यों हो रहे हैं? तुम्हारे शरीर के अनुरूप रातभर उसकी काजल – अँजी आँखों का तुमने चुम्बन किया है। जाओ, उसी के पास जाओ, जिसने तुम्हारी आँखों को रङ्गा है, इन होठों को रंगा है, रातभर अपनी करुणा बरसायी है, मुझसे झूठी बातें मत करो, जाओ! रति रसावेश में संयुक्त हुए आपके आरक्त नयन उस व्रजसुन्दरी के प्रति प्रबल अनुराग रूप रंग से रंजित होकर प्रकाशित हो रहे हैं।

वपुरनुहरति तव स्मर - सङ्गर - खरनखरक्षत - रेखम् ।

रकत - शकल - कलित- कलधौत- लिपेरिव रति-जयलेखम् ॥

हरि हरि याहि माधव..... ॥३ ॥

अन्वय - [त्वच्चिन्ताशोकेन मलिनोऽयमधरो नतु अन्यनारीनेत्र- चुम्बनादित्याह ] - स्मर-सङ्गर- खर-नखर-क्षतरेखं ( स्मरसङ्गरे मन्मथयुद्धे खरैः तीक्ष्णैः बाणैरिव नखरैः क्षतान्येव रेखाः यस्मिन् तत्) तव वपुः (शरीर) मरकत-शकल-कलित-कलधौत- लिपेरिव (मरकतशकले नीलमणिखण्डे कलिता अर्पिता या कलधौतस्य सुवर्णस्य लिपिः अक्षरविन्यासः तस्या इव) रतिजयलेखं ( रते: जयलेखम् विजयपत्रम्) अनुहरति (सदृशीकरोति) [ वपुषः कृष्णत्वात् नखक्षतस्य रक्तत्वाच्च मरकतार्पितलिपेः साम्यम् ] ॥ ३ ॥

अनुवाद - आपका यह श्यामल शरीर कामकेलि के समय रतिरणनिपुणा कामिनी के प्रखर नखों से रेखाङ्कित हुआ है, ऐसा प्रतीत होता है, मानो मरकतमणिरूपी दीवार पर स्वर्णलिपि से रति-जय-लेख अंकित कर दिया हो।

पद्यानुवाद-

स्मर-संगर- खर नख-क्षत रेखा अंकित वपु पर ऐसे ।

नील पटल पर रति-जय लेखा, स्वर्ण-लिखित हो जैसे ॥

हे माधव ! हे कमल-विलोचन! वनमाली! रसभीने!

अपनी व्यथा-हारिणीके ठिग जाओ हे परलीने!

बालबोधिनी - श्रीराधा कहती हैं-हे कृष्ण ! तुम्हारा अंग-अंग तुम्हारी काम-केलि की कहानी कह रहा है। उस रमणी ने आपके वक्षःस्थल पर तीक्ष्ण नखक्षत किया है - ऐसा लग रहा है कि तुम्हारा हृदय रणभूमि है, यहाँ विकट युद्ध हुआ है। नीलवर्ण आपके वपु पर उस रमणी के द्वारा किये गये नखक्षतों की लालिमामयी तीक्ष्ण रेखाएँ ऐसी प्रतीत हो रही हैं, मानो मरकतमणि की नीली शिला पर स्वर्ण-मसि से लिखी हुई लिपि हो, रतिजयपत्री हो। यह जय लेख अपना विजय- सन्देश कह रहा है। कामी के प्रति कामिनी का भेजा गया यह केलि लेख - 'मैंने रतिक्रीड़ा में इसे सम्पूर्णरूपेण जीत लिया है। कामिनी के द्वारा दूतरूप में भेजे जाने के कारण 'अधमत्व' ही व्यंग्यार्थ से सूचित हो रहा है। 'खर' शब्द से श्रीराधा का विशेष अभिप्राय है-एक तो इससे विलासभङ्गता सूचित होती है, दूसरे नख आघात क्षत ऐसे होने चाहिए, जिसमें तीक्ष्णता न हो, अपितु मृदुता हो। तीक्ष्णता तो कष्टदायिनी होती है। लगता है उस रमणी को रतिविलास का ज्ञान है ही नहीं। तुम जाओ! श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया- राधे ! मैं तुम्हें कंटकाकीर्ण वनों में खोज रहा था, वहीं काँटों से मेरा शरीर क्षतविक्षत हो गया है, ये किसी रमणी के नख क्षत नहीं हैं।

चरणकमल-गलदलक्तक- सिक्तमिदं तव हृदयमुदारम् ।

दर्शयतीव बहिर्मदन - द्रुम - नव - किसलय - परिवारम् ॥

हरि हरि याहि माधव ॥ ४ ॥

अन्वय - [तवान्वेषणे भ्रमणात् वने ममेदं वपुः कण्टकैः क्षतं नतु नखक्षतानीमानीति चेत् तन्न ] - इदं तव उदारं (मनोहरं ) हृदयं [तस्याः] [प्रेमोल्लासतः ] चरण-कमल-गलदलक्तक - सिक्तं (चरण-कमलाभ्यां गलता स्रवता अलक्तकेन सिक्तम्); [अतएव ] मदनद्रुम-नव - किशलय परिवारं ( मदनद्रुमस्य हृदयस्थस्य कामवृक्षस्य नवकिशलय परिवारं बालपल्लवसमूह) [ हृदयात् ] बहिः दर्शयतीव (प्रकटयतीव) ॥ ४ ॥

अनुवाद - आपके प्रशस्त हृदय पर वराङ्गना के चरण-कमलों के अलक्तक रस से रञ्जित लोहित वर्ण चिह्न ऐसे प्रतीत हो रहे हैं, मानो आपके अन्तःकरण में अवस्थित बद्धमूल मदन – वृक्ष के अरुण-वर्ण नूतन पल्लव बाहर अभिव्यक्त हो रहे हैं।

पद्यानुवाद-

कमल चरणके स्रवित अलकासे उर भीगा (क्या सीखे ) ?

अन्तरका स्मर - तरु-किसलय सा छाया बाहर दीखे ॥

बालबोधिनी - श्रीराधा व्यंग्यपूर्वक श्रीकृष्ण से कहती हैं- अहो, आपका हृदय अति उदार है-कैसा मनोहर स्वरूप धारण किया है ! आपने तो अति प्रेमोल्लास से औदार्य को अभिव्यक्त करते हुए उस कामिनी के चरणकमलों को ही हृदय में धारण कर लिया है। उसके चरणों से स्रवित आलता रस का लाल रंग आपके वक्षःस्थल को रञ्जित कर रहा है। श्याम वर्ण पर जावक – रस का लाल-वर्ण तुम्हारी शोभा को और भी अभिवृद्धि कर रहा है। ऐसा लगता है, तुम्हारा हृदय स्थित अनुराग ही कामतरु के नव-नव किसलयों की भाँति लाल वर्ण के रूप में बाहर प्रकाशित हो रहा है। तुम्हारे हृदय में विद्यमान कामवृक्ष के नवीन पल्लव बाहर निकल रहे हैं। यह तुम्हारे अन्तःकरण का निषिद्ध प्रेम व्यापार मदन वृक्ष के रूप में तुम्हारी हृदयस्थली पर उग आया है। इन चरण-चिह्नों के रूप में इस वृक्ष के नये-नये लाल-लाल पल्लव दिखायी दे रहे हैं। तुम उस अनुराग को छिपा नहीं पा रहे हो। तुम्हारे लिए यहाँ कुछ नहीं है, जाओ !

कुछ टीकाकारों के मतानुसार इस कथन के द्वारा श्रीराधा का अभिप्राय यह है कि श्रीकृष्ण द्वारा उस नायिका के साथ क्रोध नामक बन्धविशेष से रमण किया गया है।

श्रीकृष्ण ने अपनी निर्मलता प्रस्तुत करते हुए कहा- यह तो गैरिकादि धातुओं का चित्र चिह्न हैं, मैंने किसी भी अङ्गना के चरणकमलों को धारण नहीं किया, न ही किसी के महावर को हृदय में लगाया है।

दशन- पदं भवदधर - गतं मम जनयति चेतसि खेदम् ।

कथयति कथमधुनापि मया सह तव वपुरेतदभेदम् ॥

हरि हरि याहि माधव ॥ ५ ॥

अन्वय- [गैरिकचित्रितमेतत् नान्याङ्गना-चरणालक्तक- सिक्तमितिचेत् तत्राह]-एतत् (प्रत्यक्षदृष्टं ) तव वपुः (शरीर) अधुनापि ( एवं भावान्तरमापतितेऽपि ) मया सह अभेदं (ऐक्यं; नावयोर्भेद इति) कथं कथयति (सूचयति); (तस्याः तत्कथनप्रकारमाह; यतः] भवदधरगतं दशनपदं (दन्तक्षतं) मम चेतसि खेदं जनयति [व्यङ्गोक्तिरियम् त्वदधरस्थितस्य मच्चित्तव्यथाजनकत्वात् अभेदो ज्ञायते; नयनरागादिकं छद्मना आच्छादितम् इदन्तु उदितचन्द्र कलावत् प्रकाशमानमिति भावः ] ॥५ ॥

अनुवाद- उस विलासिनी के दन्त आघात से आपके अधर क्षत-विक्षत हो रहे हैं, जिन्हें देख मेरे अन्तःकरण में खेद उत्पन्न होता है और अब भी आप कहते हैं कि तुम्हारा शरीर मुझसे पृथक् नहीं है, अभिन्न है।

पद्यानुवाद-

लख अधरों पर दन्तक्षतोंको छिद जाता जी मेरा ।

फिर भी क्यों कोई कहता है, 'राधे ! है हरि तेरा ॥'

हे माधव ! हे कमल-विलोचन! वनमाली! रसभीने!

अपनी व्यथाहारिणीके ठिग जाओ हे परलीने !!

बालबोधिनी - हे कृष्ण ! नयन राग इत्यादि को तुम छल-छद्म वाक्यों से आच्छादित कर सकते हो, परन्तु उस विलासिनी के दाँतों से क्षत-विक्षत अधर – पल्लव को कैसे छुपा पाओगे जो चन्द्रकला की भाँति प्रकाशित हो रहा है? तुम्हारी यह निर्लज्ज हँसी मेरे चित्त में दाह पैदा करती है, सुरतकाल में तुम्हारे होठों पर उस रमणी के 'दशन' की छाप मुझमें खेद उत्पन्न कर रही है, विरह के कारण मेरी दशा दशमी स्थिति तक पहुँच गयी है। बार-बार यही कहते हो - हम तुम एक हैं - पर इस स्थिति में तुम अभेद कैसे अभिव्यक्त कर सकते हो- तुम चले जाओ।

श्रीकृष्ण ने सफाई दी - प्रिये ! यह तो सौरभलुब्ध भ्रमरों के द्वारा दंशन कर लिये जाने से ही मेरे अधर क्षत हो रहे हैं, इन अधरों पर किसी रमणी का दंशन नहीं है।

बहिरिव मलिनतरं तव कृष्ण मनोऽपि भविष्यति नूनम् ।

कथमथ वञ्चयसे जनमनुगतमसमशरज्वरदूनम् ॥

हरि हरि याहि माधव..... ॥ ६ ॥

अन्वय - [सौरभलुब्धभ्रमरेण दृष्टोऽयमधरो नतु अन्यनायिका- चुम्बनादितिचेत्, तदपि न] - हे कृष्ण तव [मलिनात्मकं] मनः अपि बहिरिव बाह्यं शरीरमिव) नूनं (निश्चितं ) मलिनतरं (कृष्ण) भविष्यति । अथ (अन्यथा) अनुगतं (त्वदेकायत्तं) असम-शर-ज्वरदूनं (असमशरस्य कामस्य ज्वरेण दूनं सन्तप्तं) [मां] कथं वञ्चयसे (प्रतारयसि) ( शुद्धान्तःकरणस्य नेयं रीतिरित्यर्थः ] ॥ ६ ॥

अनुवाद - हे कृष्ण ! जैसे तुम्हारा शरीर मलिन है, वैसे ही तुम्हारा मन भी अवश्य ही मलिन हो गया होगा। यदि ऐसा न होता तो मदन- शर से जर्जरित अपने अनुगत (आश्रित) जन की इस प्रकार वञ्चना न करते ।

पद्यानुवाद-

मन भी तन सा कृष्ण ! तुम्हारा बना हुआ है काला ।

अपनी जान जलाते रहते ( पड़ा निठुरसे पाला ) ॥

बालबोधिनी - श्रीराधा खेद को प्राप्त होकर श्रीकृष्ण से कहती हैं- हे कृष्ण ! बाहर से तुम जितने काले हो, अन्दर से तुम उससे भी अधिक काले हो । स्वभावतः उदार एवं उज्ज्वल मन मेरे प्रति इतनी उदासीनता कैसे बरत सकता है? अपने ही अनुकूल, अपने ही आश्रितजन के साथ इतना छल, मेरी उपेक्षा कर परायी रमणी के साथ विलास, जो मलिन मन होता है, वही अपने आश्रित व्यक्ति के साथ छल कर सकता है। मैं तो पहले से ही काम शरों से पीड़िता हूँ, कम से कम इस स्थिति में तो धोखा नहीं देना चाहिए। जाओ छलिया ! तुम यहाँ से चले जाओ। कोई शुद्ध अन्तःकरण वाला व्यक्ति ऐसा कभी नहीं कर सकता । श्रीकृष्ण ने कहा- राधे ! मुझ पर व्यर्थ ही शंका मत करो, मैं कभी भी तुम्हारी वञ्चना नहीं कर सकता हूँ।

भ्रमति भवानवला - कवलाय वनेषु किमत्र विचित्रम् ।

प्रथयति पूतनिकैव वधू - वध - निर्दय - बाल - चरित्रम् ॥

हरि हरि याहि माधव..... ॥७ ॥

अन्वय - [ न वञ्चयाम्यहं त्वमेव मुधा शङ्कसे इत्यत आह] - भवान् अवला-कवलाय ( अवलानां कवलाय ग्रासाय कान्तावाधायेति यावत्) वनेषु भ्रमति अत्र [विषये] किं विचित्रं [न किमपीत्यर्थः] ; [ अत्र उदाहरणमाह ] - पूतनिका (पूतना) एव वधु-वध-निर्दय - बालचरित्रं ( वधुवधे नारीहत्यायां निर्दयं बालचरित्र) [ कियत् ] प्रथयति (विस्तारयति ) [ नतु सर्वमित्यर्थः]; [बाल्ये चेदेवं कैशोरे किमत्र विचित्रमिति भावः ] ॥७॥

अनुवाद - आप अबलाओं का बध करने के लिए ही वन-वन में भ्रमण कर रहे हो, इसमें आश्चर्य ही क्या है ! बाल्य – चरित्र में ही आपने पूतना का वध करके अपने निर्दय निष्ठुर स्वभाव का परिचय दिया है, नारीबधपरायणता तो आपके चरित्र में है ही ।

पद्यानुवाद-

अबला - वधकी साध लिये, तुम वन वन डोल रहे हो ।

बालचरितका प्रथम पृष्ठ क्या फिरसे खोल रहे हो ?

हे माधव ! हे कमल-विलोचन! वनमाली! रसभीने!

अपनी व्यथाहारिणीके ढिग जाओ हे परलीने ! ।।

बालबोधिनी - पुनः श्रीराधा ने कहा- यह तो आपकी स्वभावसिद्धता ही है कि वनों में आप अबलाओं को 'ग्रस ने' के लिए, उनका बध करन के लिए ही घूमते हैं, मेरा भी बध कर रहे हो तो इसमें वैचित्र्य ही क्या आपने तो अपने बाल्यकाल में ही कंस-भगिनी, युद्धप्रिया पूतना का बध कर ख्याति पायी है, तो मेरी जैसी अबला का बध करना तो कितना आसान है। जब ऐसी प्रबला आपके द्वारा कालकवलित हो गयी, तो मेरी जैसी अबला का बध करने में आश्चर्य ही क्या है? शास्त्रों में स्त्री- बध निषिद्ध कहा गया है, निन्दनीय माना गया है, पर आपकी यह नृशंसता तो जन्म सिद्ध ही है। कृपाकर चले जाओ। अब तो आप युवक हैं, ऐसी स्थिति में मुझ जैसी स्त्री का बध करने में आपको कोई प्रयास भी नहीं करना पड़ेगा। हे निष्ठुर! अब रहने भी दो ।

श्रीजयदेव - भणित-रति- वञ्चित - खण्डित - युवति - विलापम् ।

शृणुत सुधा-मधुरं विबुधा ! विबुधा लयतोऽपि दुरापम् ॥

हरि हरि याहि माधव ॥८ ॥

अन्वय - हे विवुधाः (श्रीकृष्णमधुरलीलास्वादचतुराः देवा वा) सुधामधुरं (सुधायाः अपि मधुरं ) [ अतएव ] विधालयो (स्वर्गादपि अत्र सप्तम्यास्तसिः) दुरापं (दुर्लभं ) [ श्रीराधाकृष्णो- पासनालभ्यत्वात् तत्रेदं नास्तीति भावः ] श्रीजयदेव - भणित- रतिवञ्चितखण्डित - युवति विलापं (श्रीजयदेवेन भणितम् उक्तं रतिवञ्चितायाः खण्डितायाः युवत्याः श्रीराधायाः विलाप ) शृणुत। (आकर्णयत) ॥८ ॥

अनुवाद - हे विद्वानों! श्रीजयदेव कवि द्वारा विरचित खण्डिता, रतिवञ्चिता युवती श्रीराधा का अमृत से भी अधिक सुमधुर एवं सुरलोक में भी सुदुर्लभ विलाप का श्रवण करें।

पद्यानुवाद-

जयदेव कथित रति-वंचित खंडित युवती जनका-

विलाप है, छू लेता जो अन्तर भावुक मनका ॥

बालबोधिनी - यहाँ कवि श्रीजयदेव ने विद्वानों अथवा देवताओं को सम्बोधित करते हुए कहा है- हे विद्वानों !

अभिलषणीय रति से वञ्चित खण्डिता युवती के विलाप को सुनो, यह विलाप अमृत से भी अधिक मधुर है। श्रीकृष्ण के द्वारा उपेक्षिता श्रीराधा रति-क्रीड़ा से वञ्चित हुई हैं, अतः अपने प्रियतम की विरह वेदना में जो वह विलाप कर रही हैं, उस सुधा का रसास्वादन देवलोक में कदापि संभव नहीं है। देवलोक में सर्वाधिक सुमधुर वस्तु अमृत है, पर श्रीराधा के विलाप की तुलना में वह अमृत नगण्य है, इसे तो मनुष्य – तन से इस भौम जगत में ही प्राप्त किया जा सकता है। अतः जो विद्वान अमृत प्राप्ति के लिए, सुरत की उपलब्धि के लिए लालायित रहते हैं, उन्हें इस अतुलनीय भौम-सुधा का पान अवश्य ही करना चाहिए। प्रस्तुत प्रबन्ध की नायिका श्रीराधा खण्डिता है, जिसका लक्षण है-

निद्रा- कषाय-मुकुलीकृत - ताम्रनेत्रो

नारी - नखव्रणविशेष - विचित्रताङ्गः

यस्याः कुतोऽपि पतिरेति गृहं प्रभाते

सा खण्डेति कथिताकविभिः पुराणैः ॥

अर्थात् निशा जागरण के कारण रात में जिसकी निद्रा पूरी न हो सकी, वह लाल नेत्रोंवाला, अन्य रमणी के नख – क्षतों के चिह्नों से विशेष विचित्र अङ्गोंवाला, किसी नायिका का पति (प्रियतम) कहीं से प्रातःकाल जब गृह में प्रवेश करता है, उस नायिका को कवियों ने खण्डिता कहा है।

इस गीतगोविन्द काव्य के सत्रहवें प्रबन्ध का नाम 'लक्ष्मीपति- रत्नावली' है। इसमें मेघराग है, विप्रलम्भ नामका शृङ्गार और करुण रस है ।

तवेदं पश्यन्त्याः प्रसरदनुरागं बहिरिव ।

प्रिया - पाद - लक्त - च्छुरितमरुणद्योति - हृदयम् ॥

ममाद्य प्रख्यात प्रणयभरभङ्गेन कितव ।

त्वदालोकः शोकादपि किमपि लज्जां जनयति ॥ १ ॥

अन्वय- हे कितव (धूर्त्त) प्रियापादालक्तच्छुरितं (प्रियायाः तस्याः नायिकायाः पादालक्तेन चरणालक्तक- रसेन च्छुरितं व्याप्तं ) [ सुतरां ] अरुणद्योति (अरुणं द्योतयतीति अरुणकान्ति) (अतएव ) बहिः प्रसरदनुरागमिव (प्रसरन् प्रवृद्धिं गच्छन् अनुरागः यस्मात् तथाभूतमिव ) [ तव अनुरागो हृदयं भित्त्वा बहिर्विनिर्गत इव इति भावार्थः] तव हृदयं पश्यन्त्याः [तवागमन प्रतीक्षमाणायाः] मम अद्य त्वदालोकः (तव दर्शनं) प्रख्यात- प्रणयभरभङ्गेन (प्रख्यातस्य प्रसिद्धस्य प्रणयस्य यः भरः आतिशय्यं तस्य भङ्गस्तेन हेतुना) शोकादपि (त्वद्वियोगदुःखादपि ) किमपि ( अनिर्वचनीयां जीवन-मरणयोः सन्देहापादिकां) लज्जां जनयति ॥१ ॥

अनुवाद - हे शठ ! आज प्रिय व्रजाङ्गना के चरणों के अलक्तक रस में रञ्जित आपका अरुण द्युति से युक्त हृदय आपके हृदयस्थित प्रबल अनुराग को बाहर प्रकट कर रहा है, जिसे देखकर आपका मेरा चिर-प्रसिद्ध प्रणय विच्छेदित हो रहा है। इससे मेरे चित्त में शोक की अपेक्षा लज्जा ही अधिक उद्भूत हो रही है।

पद्यानुवाद-

देख तुम्हारे उर पर 'उसके' चरण-कमलकी छाया ।

भीतरका ही प्रेम-भाव ज्यों बाहर होकर आया ।

हुआ न मुझको शोक, हुई मैं लज्जासे अति नीचे

मेरे रहते कौन सुहागिनि मेरे पियको खींचे ॥

बालबोधिनी - अब खण्डिता होने पर भी राधिका प्रौढत्व का आलम्बन करके श्रीकृष्ण पर आक्षेप करती हुई कहती है- हे कितव! हे कपटी ! तुम्हारा अवलोकन न करने पर तुम्हारे आगमन की प्रतीक्षा करते-करते मेरे सुविख्यात प्रणय का अब विच्छेद होने जा रहा है। तुम्हारा विच्छेदजनित दुःख भी मुझे अनिर्वचनीय जैसा ही हो रहा है, कैसे कहूँ, जीवन-मरण का प्रश्न-सा लग गया है, कैसा संकट उपस्थित हुआ है, न जी पा रही हूँ, न मर पा रही हूँ। हे धूर्त! तुम्हें इस दशा में देखकर मुझे शोक भी उतना नहीं होता, जितनी कि लज्जा अनुभूत होती है। आपने जिस कामिनी के साथ रमण किया, उसके चरणों को अपने वक्षःस्थल पर धारण किया, उसके पैरों की महावर से आपका वक्षःस्थल राग- रञ्जित हो गया है। इस अरुणोदय काल में सन्ध्याकालीन अरुण-द्युति को देखकर ऐसा लग रहा है कि जो अनुराग आपने अपने हृदय में वहन किया था, वह आज बाहर प्रकट हो गया है। जहाँ आप कौस्तुभमणि धारण किया करते थे, वहाँ उस प्रेयसी उपभोग चिह्नों को देखकर मैं लज्जा से गढ़ी जा रही हूँ। जिस अनन्य प्रणय के अपार गर्व से मैं अमर्यादित रूप से आह्लादित हुआ करती थी, आपने अपने इस गर्हित आचरण से उस प्रेम का सूत्र ही तोड़ दिया, उसका उपभोग करके आपको लज्जा भी नहीं आती। धन्य हो कृष्ण ! चले जाओ! हे छलिया ! मैंने तुमसे ही क्यों प्रीति की ?

प्रस्तुत श्लोक में शिखरिणी छन्द है।

अग्रिम श्लोक में श्रीकृष्ण ने विचार किया- इतना प्रयत्न करके भी श्रीराधा के अत्यन्त प्रगाढ़ मान का निर्बन्ध दूर नहीं हो रहा है। अतः अब बंशी दूती की सहायता लेनी पड़ेगी। दूसरा कोई उपाय नहीं सूझ रहा है, बंशी – ध्वनि से राधिका का मान अवश्य ही दूर होगा ऐसा विचारकर कवि जयदेव बंशीध्वनि के द्वारा आशीर्वाद का विस्तार कर रहे हैं।

अन्तर्मोहन - मौलि - घूर्णन - चलन्मन्दार- विस्त्रंशन

स्तब्धाकर्षण - दृष्टिहर्षण - महामन्त्रः कुरङ्गीदृशाम् ।

दृष्यद्दानव- दूयमान- दिविषद् - दुर्वार - दुःखापदां

भ्रंशः कंसरिपोहव्यापयतु वः श्रेयांसि वंशीरवः ॥ २ ॥

इति सप्तदश सन्दर्भः ।

इति श्रीगीतगोविन्दे महाकाव्ये खण्डितावर्णने विलक्ष-लक्ष्मीपतिर्नामाष्टमः सर्गः ।

अन्वय - [ अथ वंशीरवश्रवणेन श्रीराधिकायाः अतिगाढ़ोऽपि मानः अपयास्यतीति कविः वंशीध्वनिं वर्णयन् आशिषमातनोति]- कुरङ्गी-दृशाम् (मृगलोचनानाम् ) अन्तर्मोहन मौलि - घूर्णन- चलन्मन्दार - विस्रंसन स्तब्धाकर्षण-दृष्टि-हर्षण-महामन्त्रः ( अन्तर्मोहने मनोमोहने मौलि - घूर्णने साधु साधु इति शिरः कम्पने चलतां मन्दाराणां देवतरु-कुसुमानां विस्रंसने तथा स्तब्धे स्तम्भे, आकर्षणे, तथा दृष्टिहर्षणे वशीकरणे महामन्त्रः) [तथा] दृष्यद्दानवदूयमान- दिविषद्-दुर्वार- दुःखापदां (दृप्यद्भिः दर्पपूर्णैः दानवैः दूयमानानां पीड्यमानानां दिविषदां देवानां दुर्वाराणां दुःखापदाम् अनिवार्यदुःखपङ्क्तिनां) भ्रंशः (ध्वंसः नाशक इत्यर्थः ) [ वंशीरव - श्रवणमात्रेणैव देवाः दैत्यभयात् मुच्यन्ते इति भावः ] कंसरिपोः (श्रीकृष्णस्य) वंशीरवः वः (युष्माकं ) श्रेयांसि (शुभानि ) व्यपोहयतु (विगतविघ्नानि करोतु ) [ अतएव विलक्षो गाढ़मानवलोकाद् विस्मयान्वितो लक्ष्मीपतिः श्रीराधापतिर्यत्र सः इति अष्टमः सर्गः ] ॥ २ ॥

अनुवाद – गोपियों के अन्तःकरण को मोहनेवाली, मौलि स्थित मणिमय किरीटों को घूर्णित करनेवाली, चञ्चल मनोहर पुष्पों को विभ्रंशित करनेवाली, दृप्त दानवों के द्वारा विदलित देवताओं के दुर्निवार दुःख को दूर करनेवाली, कुरङ्गी नयनाओं के लिए स्तम्भन, आकर्षण एवं नेत्रों के हर्ष की अभिवृद्धि करनेवाली वंशी ध्वनि आप सबके मङ्गलमय मार्ग के विघ्नों का नाश करे।

बालबोधिनी - प्रस्तुत श्लोक द्वारा इस सर्ग के अन्त में श्रीजयदेव कवि अपने पाठकों एवं श्रोताओं के लिए मङ्गलाचरण रूप आशीर्वाद प्रदान करते हुए कहते हैं- कंसारि श्रीकृष्ण का वंशीरव कल्याण का विस्तार करे। वह वंशीध्वनि दर्पीले दानवों के कारण देवताओं को होनेवाले असह्य कष्ट को दूर करनेवाली है, कुरङ्गीनयनाओं के अन्तःकरण को इस प्रकार मोहित करती है कि वे आनन्द में निमग्न हो शिरश्चालन करने लगती हैं और घूर्णित- मौलि (मस्तक) हो जाती हैं, वे मुग्ध होकर अवलोकन किया करती हैं, स्वर्गलोक की अप्सराओं की मन्दार पुष्प की माला इस वंशीध्वनि से भ्रंशित होने लगती हैं, टूटने लगती है-इस प्रकार श्रीकृष्ण की वंशीध्वनि का 'वशीकारत्व' बताया है। वशीकृत देवता साधु-साधु कहकर शिरोधूनन के द्वारा प्रशंसा करते हैं। शिरोधूनन एवं मन्दार के विभ्रंशन से वंशी का 'मारण' अभिलक्षित है। स्तम्भत्व एवं आकर्षणत्व तो सिद्ध ही है। वंशीध्वनि को सुनकर व्रज-कुरङ्गनाएँ हिरणियाँ आकर्षित हो स्तम्भित रह जाती हैं। उच्चाटन तो वंशीरव में प्रमाणित ही है। अन्तःकरणों का मोहित हो जाना मोहनत्व है। इस प्रकार मोहनत्व, वशीकरणत्व, स्तम्भत्व, आकर्षणत्व, उच्चाटनत्व एवं मारणत्व के गुणों से युक्त होने के कारण वंशीध्वनि महामंत्र स्वरूप है। इस महामन्त्रत्व का जादू गोपियों से विशेष रूप से सम्बन्धित है।

श्रीकृष्ण श्रीराधा के प्रगाढ़ मान को दूर करने के लिए षट्साधन सम्पन्न महामन्त्र स्वरूप वंशीध्वनि करने लगे ।

इति श्रीजयदेवकृतौ श्रीगीतगोविन्दे खण्डितावर्णने विलक्ष्यलक्ष्मीपतिर्नामाष्टमः सर्गः ।

प्रकार श्रीजयदेव कवि प्रणीत गीतगोविन्द काव्य के खण्डिता नायिका वर्णन प्रसङ्ग में विलक्ष्यलक्ष्मीपति नामक आठवें सर्ग की बालबोधिनी व्याख्या समाप्त ।

आगे जारी........ गीतगोविन्द सर्ग 9

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