गीत गोविन्द सर्ग ७ अष्टपदी १५ हरिरसमन्मथतिलक

गीत गोविन्द सर्ग ७ अष्टपदी १५ हरिरसमन्मथतिलक

कवि श्रीजयदेवजीकृत गीत गोविन्द सर्ग नागर- नारायण में ४ अष्टपदी है। जिसका १३ वें और १४ वें अष्ट पदि को पिछले अंक में आपने पढ़ा । अब यहाँ अष्ट पदि १५ दिया जा रहा है। गीतगोविन्द के इस पंद्रहवें प्रबन्ध का नाम हरिरसमन्मथतिलक है।

गीत गोविन्द सर्ग ७ अष्टपदी १५ हरिरसमन्मथतिलक

श्रीगीतगोविन्दम्‌ सप्तमः सर्गः- पञ्चदश: अष्ट पदि हरिरसमन्मथतिलक

गीतगोविन्द सर्ग - अष्टपदी १५ हरिरसमन्मथतिलक

Shri Geet govinda sarga 7- Ashtapadi 15 Harirasamanmathatilak

गीतगोविन्द सातवाँ सर्ग- पंद्रहवाँ अष्ट पदि हरिरसमन्मथतिलक

अथ सप्तमः सर्गः - नागर- नारायणः पञ्चदश: सन्दर्भः ।

गीतम् ॥१५॥

गीत गोविन्द सर्ग ७ अष्टपदी १५ हरिरसमन्मथतिलक

गुर्जरीरागकतालीतालेन गीयते ।

अनुवाद - गीत-गोविन्द काव्य का यह पन्द्रहवाँ प्रबन्ध गुर्जरी राग तथा एकताली ताल से गाया जाता है।

इस गीति में श्रीकृष्ण के साथ विलास करनेवाली रमणी को स्वाधीनभर्तृका के रूप में दिखाया गया है, जो यमुना- पुलिन में श्रीकृष्ण के साथ विलास-परायणा है।

समुदित- मदने रमणी - वदने चुम्बन - वलिताधरे ।

मृगमदतिलकं लिखति सपुलकं मृगमिव रजनीकरे ॥

रमते यमुना - पुलिन - वने विजयी मुरारिरधुना ॥ १ ॥ध्रुवम्

अन्वय - [ पुनस्तस्या एव स्वाधीनभर्तृकात्वं सूचयन् तल्लीलाविशेषमाह ] - अधुना ( इदानीं ) विजयी (जयशीलः मण्डनादि - कौशलेन सर्वातिशायी) मुरारिः (श्रीहरिः) यमुनापुलिनवने ( यमुनायाः पुलिनवर्त्तिनि कानने ) [ तया सह ] रमते ( क्रीड़ति); [तथाच] समुदितमदने (समुदितः सम्यक् वृद्धिंगत: मदनः यस्मात् तस्मिन् कामोद्दीपके इत्यर्थः चन्द्रपक्षेऽपि स एवार्थः) चुम्बन- वलिताधरे ( वदनपक्षे तिलकं लिखित्वा साध्विदं वदनमित्युक्त्वा चुम्बनाय वलिता विन्यस्तः अधरो यत्र, चन्द्रपक्षे चुम्बनेन वलितो युक्तोऽधरः यस्मात् इत्यर्थः) रमणी – वदने (तस्या एव कामिन्याः वदने) रजनीकरे (चन्द्रे) मृगमिव सपुलकं (सरोमाञ्चं स्पर्शेन जातरोमाञ्चं यथास्यात् तथा ) मृगमदतिलकं (मृगमदस्य कस्तूरिकायाः तिलक) लिखति (ददाति ॥ १ ॥

अनुवाद – रतिरण में विजयी मधुरिपु यमुना – पुलिन के वन में प्रिया के साथ रमण कर रहे हैं, पुलकावलियों से पूर्ण काम की उद्दीपन-स्वरूपा उस रमणी के वदन में चन्द्रमण्डल के ऊपर मृगलाञ्छन की भाँति कस्तूरी तिलक की रचना कर रहे हैं एवं रोमाञ्चित हो उसका चुम्बन कर रहे हैं।

पद्यानुवाद-

यमुन - पुलिनके सघन कुंजमें रमते आज मुरारी ।

प्रियकी अमर सुहागिन होकर जीती बाजी हारी ॥

रचते मृगमद तिलक पुलक कर मदन- मुदित मुख उसके ।

चुम्बन वलित अधर लगते हैं, मधुर रसातुर जिसके ॥

बालबोधिनी - श्रीराधा अपनी कल्पनाओं के वितान में प्रलाप करती हुई कहती हैं- (विरह में भाव - नेत्रों द्वारा अपनी पूर्व लीला का स्मरण कर उसी का वर्णन करती हैं) इस कामसंग्राम में मधुरिपु मुझे पराभूत कर इस समय निकुंज में विजय उत्सव मना रहे हैं। श्रीराधा उस काल्पनिक रमणी का स्वरूप बताते हुए कहती हैं कि यमुनापुलिन के वन में श्रीकृष्ण मण्डनादि कला-कौशल के द्वारा उस रमणी के साथ क्रीड़ा कर रहे हैं। उस रमणी के मुख कमल पर मृगमद से तिलक की रचना कर रहे हैं, जिससे वह अति पुलकित हो रही है। चुम्बन की अभिलाषा से श्रीकृष्ण ने उसका मुख अपने सम्मुख कर लिया हैं, उसमें काम पूर्ण रूप से उदित हो गया है, श्रीकृष्ण भी अति रोमाञ्चित हो रहे हैं, वे अपने को संभाल नहीं पा रहे हैं, बड़ी कठिनाई से टेढ़ा-मेढ़ा तिलक रच रहे हैं। उसकी शोभा ऐसी हो रही है, मानो चन्द्रमण्डल के ऊपर मृगलाञ्छन हो। उसके अधर एवं मुखमण्डल पर चुम्बन करने से श्रीकृष्ण के अधर-पुटों में उस तिलक का चिह्न अङ्कित हो गया है ।

घनचय - रुचिरे रचयति चिकुरे तरलित - तरुणानने ।

कुरुबक - कुसुमं चपला- सुषमं रतिपति-मृग-कानने-

रमते यमुना - पुलिन वने..... ॥२॥

अन्वय - [ न केवलं तस्या वदने तिलकं लिखति अपितु ] - घनचय- रुचिरे (मेघचयवत् रुचिरे शोभने) तरलित- तरुणानने (तरलितं, चञ्चलितं तद्गुणवर्णने मुखरीकृतमित्यर्थः तरुणस्य श्रीहरेः आननं मुखं येन तत्र ) [ तथा ] रतिपति- मृगकानने ( रतिपतिः कामएव मृगः तेन सदाश्रितत्वात् तस्य कानने विचरणस्थाने, कामोद्दीपके इतिभावः) [तस्याः] चिकुरे (कुन्तले) चपला- सुषमं (चपलाया विद्युतइव सुषमा परमा शोभा यस्य तादृशं कुरुबककुसुमं (रक्तझिण्टीपुष्पं ) रचयति (तत्पुष्पैः तस्याः कवरीं ग्रथ्नातीत्यर्थः) ॥ २ ॥

अनुवाद - मदन – मृग के विहार-कानन-स्वरूप उस युवति के मेघ- समूह के समान मनोहर कुन्तल ( केशपाश) हैं, जिससे उसका तरुण करुण आनन सतत उल्लसित होता है, उनमें वे कुरुवक कुसुम सन्निवेशित कर रहे हैं।

पद्यानुवाद-    

गोरे मुखपर श्याम तिलकने ऐसी ही छवि धारी ।

मिरग साथ ज्यों खिल उठती है चन्दाकी उजियारी ॥

चपलसे, कुरुबक कुसुमोंसे, सजल मेघसे काले-

केशोंको उसके सजते हैं, भीगेसे मतवाले ॥

यमुन - पुलिनके सघन कुंजमें रमते आज मुरारी ।

प्रिय अमर सुहागिन होकर जीती बाजी हारी ॥

बालबोधिनी - श्रीराधा अपनी सखी से श्रीकृष्ण की शृङ्गार- क्रीड़ा का विवरण करती हुई कहती हैं- उन्होंने केवल उसके ललाट पर ही तिलक रचना की हो, केवल ऐसा ही नहीं हैं, अपितु कनेर पुष्पों से उसके केशों की भी सज्जा की है। उसके बाल इस प्रकार काले, स्निग्ध, घने एवं घुंघराले हैं, मानो कोई सजल मेघों का समूह हो। वह केशपाश ऐसा लगता है, मानो कामदेवरूपी मृग के निर्भय घूमने के लिए घना कानन हो। इस केशपाश के अवलोकन मात्र से ही युवकों का मन चञ्चल हो जाता है। श्रीहरि के द्वारा रमणी के केशपाश में सुसज्जित कुरुवक के पुष्प विद्युत की अतिशय छटा को धारण कर रहे हैं।

घटयति सुधने कुच - युग - गगने मृगमद - रुचिरुषिते ।

मणिसरममलं तारक -पटलं नख-पद-शशि-भूषिते ॥

रमते यमुना - पुलिन वने..... ॥ ३ ॥

अन्वय - सुघने (निविड़े शोभनमेघयुक्ते च) नखपद-शशि- भूषिते (नखपदं नखक्षतं तदेव शशी तेन भूषिते ) [तथा] मृगमद - रुचि - रूषिते (मृगमदस्य कस्तूरिकायाः या रुचिः कान्तिः तया रूषिते प्रक्षिते; गगनपक्षे कस्तूरीदीप्त्यैव प्रक्षिते ) कुचयुग - गगने (कुचयुगमेव वृहत्त्वात् गगनं (तत्र) अमलं (निर्मलम् उज्ज्वलमिति यावत्) मणिसरं (मुक्ताहारं ) [ एव] तारक- पटलं (नक्षत्रराजि) घटयति (योजयति) ॥ ३ ॥

अनुवाद - उस सुकेशी के गाढ़ नीलवर्णा कस्तूरी की धूलि से रुषित (विलेपित) परस्पर नितान्त सन्निहित विशाल कुचयुग- मण्डलरूप गगन जो अर्द्धचन्द्राकार नखक्षत से परिशोभित है, उस पर निर्मल तारक – दल के समान मनोहर मणिमय हार को अर्पित कर रहे हैं।

पद्यानुवाद-

मृगमद-रंजित कुच-युग-गगने, नखपद शशिसे विलसे ।

चमक रहे मणि-हार अमल अति, चम चम तारक- दलसे ॥

यमुन - पुलिनके सघन कुंजमें, रम आज मुरारी ।

प्रियकी अमर सुहागिन होकर, जीती बाजी हारी ॥

बालबोधिनी - श्रीराधा कह रही हैं कि नख के अर्द्धचन्द्राकार चिह्नों से विभूषित उस रमणी के वक्ष स्थल पर मणियों की माला रूप तारा समूह विन्यस्त कर रहे हैं। आकाश तथा स्तनद्वय में एक विचित्र ही मनोरम अन्विति है ।

कुचयुगगगने- दोनों स्तन उस प्रकार विस्तृत हैं, जैसे आकाश विस्तृत होता है। आकाश के बिम्ब से स्तनों के पीनत्व की प्रतीति करायी गयी है।

सुधने - परस्पर सन्निहित उस नायिका के स्तन अति कठोर हैं, जैसे आकाश सघन सुन्दर बादलों से युक्त होता है।

मृगमदरुचिभूषिते - सुरतजन्य श्रम के कारण स्तनों पर स्वेदविन्दु क्षरित होते हैं, तब उन्हें सुखाने के लिए कस्तूरी के चूर्ण को मला जाता है, गगन भी तो कस्तूरीवत् नील कान्तियुक्त होता है।

तारकपटलं नखपद शशिभूषिते - उस सुकेशी के कुच युगल रूपी गगन में तारों के समुदाय सदृश मुक्ता सरोवर परिलक्षित हो रहा है। उसमें श्रीकृष्ण के नखों के अग्रभाग के आघात से विभूषित चिह्न अर्द्धचन्द्राकार की शोभा को प्राप्त हो रहे हैं। उसके स्तनमण्डल को श्रीकृष्ण मोतियों की मालारूपी ताराओं से सजा रहे हैं।

ये सम्पूर्ण उपमान एक सुन्दर बिम्ब-योजना है। तिलक मृग है, ललाट चन्द्रमा है और केशपाश अभयारण्य बन गया है । कुरुवक के फूल बिजली की चमक एवं वक्षस्थल आकाश हो गया है। नख क्षत चन्द्रमा एवं छोटी-छोटी मणियाँ ताराओं के रूप में सुशोभित हुई हैं।

जित - विस-शकले मृदु- भुज-युगले करतल - नलिनी - दले ।

रकत - वलयं मधुकर-निचयं वितरति हिम-शीतले ॥

रमते यमुना - पुलिन वने..... ॥ ४ ॥

अन्वय- जित-विस-शकले ( जितानि विसशकलाणि मृणालखण्डानि येन तादृशे) करतल नलिनीदले (करतलमेव नलिनीदलं पद्मपत्रं यत्र तस्मिन्) [तथा] [सम्भोगिन्याः कामतापराहित्यात्] हिमशीतले (हिमवत् शीतले) मृदुभुजयुगले (कोमलबाहुद्वये) मधुकर - निचयं (भ्रमरपङ्क्तिम् ) [ एव] मरकतवलयं (मरकतमयं वलयं) वितरति (परिधापयति) ॥४ ॥

अनुवाद - सुकेशी, पीनस्तनी उस रमणी के मृणालदण्ड से भी सुशीतल भुजयुगल जिनमें उसके सुकुमार करतल रूपी नलिनी-दल सुशोभित हो रही हैं, उनमें वे भ्रमर - सदृश मरकतमय वलयरूपी कंगन धारण करा रहे हैं।

पद्यानुवाद-

तालखण्डसे युग भुज, करतल राजित नलिनी दलसे ।

पहिनाते मरकत-कंकण जो लगते छाये अलिसे ॥

यमुन - पुलिनके सघन कुंजमें रमते आज मुरारी ।

प्रियकी अमर सुहागिन होकर जीती बाजी हारी ॥

बालबोधिनी - श्रीराधा कह रही हैं- उस भाग्य शालिनी की दोनों भुजाएँ कोमलता में मृणालदण्ड को भी मात कर देनेवाली हैं। सुकुमार गौर वर्ण, हिम के समान दोनों हाथों की सुशीतल हथेलियाँ कमल के समान लाल-लाल हैं। जिस प्रकार लाल कमल दलों के ऊपर नीले नीले भौंरे अत्यन्त अभिराम प्रतीत होते हैं, उसी प्रकार उसके करतलों में श्रीकृष्ण नीलमणिजड़ित कंगनरूपी भौंरे धारण करा रहे हैं। कोमल बाहों में ये कंगन ऐसे सुशोभित होते हैं मानो उन हाथों को घेर कर भौंरे एक कली-पंक्ति बना रहे हों।

हिमशीतले - सम्भोगकारिणी रमणी का भुजयुगल श्रीकृष्ण के स्पर्श से काम - ताप शून्य होकर हिमवत् शीतल हो गया है अथवा उस रमणी में काम का अभाव है - यह भी सूचित होता है। उसके ठण्डे हाथों में यह कंगन एक नया ताप प्रदान करेगा।

रति -गृह- जघने विपुलापघने मनसिज - कनकासने ।

मणिमय- रसनं तोरण-हसनं विकिरति कृत- वासने ॥

रमते यमुना - पुलिन वने.....॥५॥

अन्वय- विपुलापघने (विपुलम् अपघनम् अङ्गम् आयतन- मित्यर्थः यस्य तादृशे विशाले इत्यर्थः) मनसिज - कनकासने ( मनसिजस्य कामस्य कनकासने स्वर्णपीठे ) [ तथा] कृतवासने ( कृता वासना लीला - विशेषवासना येन तादृशे दृष्टिमात्रेणैव कामोद्दीपके इत्यर्थः) [तस्याः] रतिगृहजघने ( रतेः शृङ्गारस्य गृहम् आश्रय एव जघनं कटि पुरोभागः नितम्बो वा तस्मिन्) तोरणहसनं (तोरणस्य बहिर्द्वारशोभार्थ माङ्गल्यस्रजः हसनम् उपहासः यस्मात् तत्; ततोऽप्यधिकमनोज्ञमित्यर्थः) मणिमयरसनं ( मणिमयं रसनं काञ्चीं) विकिरति (निक्षिपति ) [ तत्स्पर्शजात- कम्पतया अयथातथं विन्यस्यतीत्यर्थः ] ॥५ ॥

अनुवाद - मांसल, सुगन्धित, विपुलतर कन्दर्प के सुवर्ण पीठ- स्वरूप के समान रतिगृह तुल्य उस रमणी के जघन स्थल में मणिमय मेखलारूपी मंगल तोरण धारण करा रहे हैं।

पद्यानुवाद-    

मनसिज कनकासन सम उसके मांसल रतिगृह- जघने ।

सजा रहे तोरण सम कांची (स्मित अंकित वर वदने) ॥

यमुन - पुलिनके सघन कुंजमें रमते आज मुरारी ।

प्रियकी अमर सुहागिन होकर जीती बाजी हारी ॥

बालबोधिनी - श्रीराधा कह रही हैं कि उस रमणी की जाँघें रतिकेलिकी आश्रय स्वरूप हैं। विपुल, कमनीय एवं मांसलता को प्राप्त वह उरुस्थल कामदेव का सुवर्णरचित पीठस्वरूप है, जिसके अवलोकन से ही श्रीकृष्ण के मन में मदन लालसा जाग्रत हो जाती है।

कृतवासनं - नायिकाएँ अपने अंगों को एक विशेष प्रकार की सुगन्ध-सिद्ध धूप से सुवासित करती हैं, जिससे नायक उसके वश में हो जाते हैं। उस रमणी ने अपनी जाँघों को इसी प्रकार से सुवासित करके श्रीकृष्ण को अपने वश में कर लिया है।

कनकासने- कामदेव का हेमपीठ। 'कनक' शब्द का अर्थ धतूरा भी होता है, जो शंकरजी को अति प्रिय है। श्रीशंकर ने कामदेव को भस्मीभूत कर दिया था, अतः उनके प्रिय 'कनक' शब्द के प्रयोग के द्वारा काम की उत्तेजना को सूचित किया है।

मणिमयरसनं तोरणहसनं- जब कोई राजा सिंहासनारूढ़ होता है, तो द्वार पर मंगलमय वन्दनवार सजाया जाता है।

यहाँ कामरूप राजा के गौरवर्णीय उरुस्थल रूपी हेमसिंहासन पर आरूढ़ होने के लिए उसे मणिमय मेखलारूपी वन्दनवार से श्रीकृष्ण सजा रहे हैं।

विकिरति - उरु- स्थल के स्पर्श से कन्दर्पजनित कम्पन भाव उदित होता है, अतः मणिमय मेखला को ठीक-ठीक रूप से धारण कराने में समर्थ नहीं हुए। फिर भी पहनाने की कोशिश की गयी है-एक लीला विशेष की भावना बन गयी है।

चरण - किसलये कमला-निलये नख-मणिगण - पूजिते ।

बहिरपवरणं यावक-भरणं जनयति हृदि योजिते ॥

रमते यमुना - पुलिन वने.....॥६॥

अन्वय- हृदि (वक्षसि) योजिते (विनिहिते) कमला-निलये ( कमलायाः सौन्दर्याधिदेवतायाः श्रियाः निलये आवासे) नखमणिगण - पूजिते (नखा एव मणिगणाः तैः पूजिते अर्चिते) चरणकिशलये (पादपल्लवे) यावक-भरणं (यावकं अलक्तकमेव भरणम् आभरणं) बहिरपवरणं (बहिरावरणं) जनयति (करोति) [ श्रीनिवासस्य मणियुतस्य च बहिरावृतिर्युक्तैवेत्यर्थः] [यद्वा कमलानिलये हृदि इत्येवमन्वयः कार्यः ] ॥६॥

अनुवाद- उस नितम्बिनी के अरुण मनोहर श्री से सम्पन्न एवं नखरूपी मणियों से विभूषित पद-पल्लवों को नखक्षत एवं मणियों से समलंकृत एवं लक्ष्मी के वास स्थल अपने हृदय पर स्थापित करते हुए बड़े यत्न से आवरण-आच्छादन करते हुए जावक – रस से रञ्जित कर रहे हैं।

पद्यानुवाद-

कमलाके समान आवास- हृदय पर पग उसके हैं धरते।

और हाथसे 'जावक' रचना फिर मातल हो करते ॥

बालबोधिनी - श्रीराधा श्रीकृष्ण की नवीन रति- केलि का वर्णन करते हुए कहती हैं-उस बड़भागिनी के चरण-कमल लक्ष्मी के आश्रय-स्वरूप हैं, रक्तिम वर्ण के नवीन कोमल पल्लवों के समान हैं। उसके पद नख मणियों की कान्ति को धारण किये हुए हैं, उन चरण-युगल को वे अपने हृदय में संश्लिष्ट करके बैठे हैं, उनके उस वक्षःस्थल में लक्ष्मी सदा निवास करती है। उनका वह वक्षःस्थल उस रति-निष्णाता रमणी द्वारा अर्पित नखक्षतों एवं मणि समूहों से समलंकृत है। उसके उन स्वाभाविक अरुण वर्ण पदों में श्रीकृष्ण अपने करकमलों से महावर (आलक्तक रस) लगाकर बाह्य आच्छादन- अलंकरण प्रदान कर बड़े यत्न से उन्हें संरक्षण प्रदान कर रहे हैं।

नखमणिपूजित विशेषण रमणी एवं श्रीकृष्ण दोनों में अन्वित होता है।

रमयति सुभृशं कामपि सुदृशं खलहलधरसोदरे ।

किमफलमवसं चिरमिह विरसं वद सखि ! विटपोदरे ॥

रमते यमुना - पुलिन वने..... ॥७ ॥

अन्वय- सखि, खल- हलधर सोदरे ( खलः धूर्त्तः हलधरस्य बलदेवस्य सोदरः तस्मिन् हलधरस्य इति सोल्लुण्ठनोक्तिः- लाङ्गलभृतः-सूतरामविदग्धस्य इत्यर्थः) कृष्णे कामपि सुदृशं (सुलोचनां कामिनीं ) सुभृशं (प्रगाढ़ ) रमयति [ सति] इह विटपोदरे (वनमध्ये) अफलं (विफलं ) विरसं (रसहीनं यथा तथा) किं (कथं) [अहम्] अवसम् (अवस्थितास्मि ) [ इत्येतत् ] वद ( कथय ) [ मामभिसार्य अन्यया सह रमणात् हरेःखलत्वम्]॥७॥

अनुवाद हलधर के सहोदर, अविवेकी, गँवार, खल वे श्रीकृष्ण निश्चित रूप से किसी सुनयना का प्रगाढ़ आलिङ्गन कर उसके साथ रमण कर रहे हैं, तब सखि ! तुम्हीं बताओ, मैं इस लतानिकुंज में कब तक विरस भाव से बैठी-बैठी प्रतीक्षा करती रहूँ?

पद्यानुवाद-

'पापी' के पर-तिय-विलासको देखूँ आँखें मींचे।

कब तक विरस प्रतीक्षा सखि ! मैं करूँ विटपके नीचे ?

यमुन - पुलिनके सघन कुंजमें रमते आज मुरारी ।

प्रियकी अमर सुहागिन होकर जीती बाजी हारी ॥

बालबोधिनी - श्रीराधा प्रतीक्षा करती करती नैराश्य को प्राप्त होकर अपनी सखी से कहती हैं- सखि ! कुछ तो बोलो, मौन का त्याग करो, अब इस वन के लतानिकुंज में व्यर्थ ही बहुत देर तक रुकने से क्या लाभ है? 'खल हलधरसहोदरें - हलधर बलरामजी का नाम है, उनका छोटा भाई कृष्ण, जो अतिशय खल है। हलधर का अर्थ होता है, हलवाहा । श्रीकृष्ण हलवाहे के समान ही खल, गँवार और अविदग्ध हैं। मेरी उपेक्षा कर, मुझे ठग कर उस सुलोचना के साथ रमण कर रहे हैं। अरे, वह सुलोचना कैसी? वे तो अपने जैसी किसी गँवार रमणी के साथ ही रमण कर रहे हैं, मेरा उनसे क्या लेना-देना? मैं उन पर विश्वास स्थापन कर इस बीहड़ वन में सारी रात बैठी रही, मेरी कितनी उपेक्षा की है। मैं इस कुंज में दहकती रहूँ, क्या मैं उन्हें ढूँढती ही रहूँ? मेरे पास चारा क्या है? पर सखि ! कैसे सहन करूँ? उन्होंने यहाँ आने की बात कही थी, परन्तु वे तो अन्य प्रेयसी के साथ विलासपरायण हो रहे हैं।

इस पन्द्रहवें प्रबन्ध की नायिका स्वाधीनभर्तृका है, जिसके गुणों से आकृष्ट होकर श्रीकृष्ण उसके सान्निध्य का त्याग न कर श्रीराधा की उपेक्षा कर रहे हैं।

इह रस-भणने कृत- हरि-गुणने मधुरिपु-पद- सेवके ।

कलि युग - रचितं न वसतु दुरितं कविनृप जयदेवके ॥

रमते यमुना - पुलिन वने..... ॥८ ॥

अन्वय- रसभणने ( रसस्य शृङ्गाररसस्य भणनं कथनं यत्र तस्मिन्) कृतहरिगुणने (कृतं हरेः गुणनं गुणकीर्त्तनं येन तादृशे) मधु-रिपु-पद-सेवके (श्रीकृष्णपदसेवके) इह (अस्मिन् ) कविनृप - जयदेवके ( कविश्रेष्ठ जयदेवे) कलियुग-चरितं (कलि- युगधर्म-वशादाचरितं) दुरितं (पापं न वसतु ॥ ८ ॥

अनुवाद - शृङ्गार रस से परिपूर्ण श्रीकृष्ण की लीला-कथाओं का कीर्तन करनेवाले, मधुसूदन के सेवक मुझ कविराज जयदेव में कलियुग आचरित दुरित दोष प्रविष्ट न हों।

बालबोधिनी - श्रीजयदेव इस अष्टपदी की संरचना में स्वयं को मधुरिपु के सेवकों में सर्वश्रेष्ठ मानकर यह प्रार्थना करते हैं कि इस गीति को सुननेवालों में कलियुग के दूषणीय चरित्र प्रविष्ट न हों। 'रसभणने' से तात्पर्य है - रसपूर्ण शृङ्गारिक उक्तियाँ कहनेवाला । 'हरिगुणने' से तात्पर्य है – श्रीहरि की कथाओं का अभ्यास करनेवाले कविराज जयदेव । इस प्रबन्ध में आयी कवि की सभी उक्तियाँ रस की उद्दीपना करानेवाली हैं। इस रस की अभिव्यक्ति से कलियुग के प्रभाव से तामसी चित्तवृत्तियाँ हृदय में प्रविष्ट नहीं हो पाती हैं।

इस प्रबन्ध का नाम हरिरसमन्मथतिलक है, जिसे प्रबन्धराज कहा गया है। यह द्रुत ताल एवं द्रुत लय से गाया जाता है। इसकी राग मल्हार है।

नायातः सखि ! निर्दयो यदि शठस्त्वं दूति ! किं दूयसे ?

स्वच्छन्दं बहुवल्लभः स रमते, किं तत्र ते दूषणम् ?

पश्याद्य प्रिय-सङ्गमाय दयितस्याकृष्यमाणं गुणै

रुत्कण्ठार्तिभरादिव स्फुटदिदं चेतः स्वयं यास्यति ॥ १ ॥

अन्वय - [ इदानीं विषण्णवदनां सखीं सनिर्वेदमाह ] - सखि, निर्दयः (दयाहीनः) शठः (धूर्त्तः अन्तरन्यत् बहिरन्यत्कारीत्यर्थः) यदि न आयातः हे दूति त्वं किं (कथं) दूयसे (दुःखितासि ) ? बहुवल्लभः (बह्व्यः वल्लभ्यः प्रेयस्यः यस्य सः कृष्ण) स्वच्छन्दं (निःशङ्क) रमते तत्र ते (तव) दूषणं किं (को दोषः); [ इत्थं सखीमनूद्य निर्वेदभङ्गया आत्मनो दशमीदशामाह] - पश्य अद्य (इदानीं ) दयितस्य (कृष्णस्य) गुणैः (सौन्दर्यादिभिः) [रज्जुभिश्चेति ध्वनिः; यथा कश्चित् रज्वाकृष्टः सन् याति तद्वत्] आकृष्यमाणम् इदं (तदप्राप्तितापोद्धनितधैर्यं ) [ मम ] चेतः (चित्तम्) उत्कण्ठाभिरादिव (उत्कण्ठा औत्सुक्यम् आतिः पीड़ा च तयोः भरात् आधिक्यात् हेतोः) स्फुटत् इव (विदलदिव) स्वयं यास्यति ॥ १ ॥

अनुवाद- सखी - हे सखि राधे! वे नहीं आये।

श्रीराधा- वे निर्दय, निष्ठुर, शठ यदि नहीं आये तो तुम दुःखी क्यों हो रही हो ?

सखी - वे बहुवल्लभा हैं, स्वच्छन्दतापूर्वक रमण करते हैं।

श्रीराधा- इसमें तुम्हारा क्या दोष है? देखो, आज मेरा मन उस प्राणकान्त प्रियतम श्रीकृष्ण के गुणों से आकृष्ट होकर तथा उत्कण्ठा के भार से विदीर्ण होकर उनसे मिलने के लिए स्वयं ही जायेगा ।

बालबोधिनी – श्रीकृष्ण के न आने पर इस विषण्णवदना दूती को ही हेतु मानकर अत्यन्त विरह व्यथा के साथ अपनी उत्कण्ठा प्रकट करती हुई रहती है। सखी ने श्रीराधा से कहा - हे सखि राधे ! उन अनेक प्रेयसियोंवाले को मैंने बहुत बुलाया, पर वे निर्दय आये ही नहीं। श्रीराधा ने प्रत्युत्तर में कहा- हे दूति ! यदि वे शठ और धूर्त आये ही नहीं, तो इसमें तुम्हारा क्या दोष है? तुम दुःखी क्यों हो रही हो ? तुमने अपना दौत्य - कर्म बहुत अच्छी प्रकार से कर दिया । दूती ने कहा- मैं इसलिए दुःखी हो रही हूँ कि मैं उन्हें ला नहीं सकी। वे बहुबल्लभा हैं, उनकी अनेक प्रेयसियाँ हैं, वे स्वच्छन्द हैं, जहाँ मन चाहे, वहीं रमण करते हैं। पुनः श्रीराधा ने कहा - तब तुम्हारा क्या दोष है? अब तुम देखना, मेरा चित्त उनके गुणों से आकर्षित होकर उनसे मिलने के लिए असहनीय वेदना से फट रहा है और इस पीड़ा का प्राण बनकर उन तक पहुँच जायेगा। कैसा चित्त है - स्वतः सिद्ध रूप से श्रीकृष्ण के गुणों से आकृष्ट ।

'उत्कण्ठार्तिभराद्' से तात्पर्य है, प्रियमिलन की इच्छा-पीड़ा के भार से विदीर्ण चित्त। मेरे द्वारा रोके जाने पर भी रुकेगा नहीं। उनके पास पहुँचेगा ही ।

अथवा देखो, सखि ! इस समय दयित के साथ दूसरी रमणी के मिलन होने से उनकी प्राप्ति सम्भव नहीं है, फिर भी मेरी उत्कण्ठा प्रतिक्षण बढ़ती जा रही है।

अथवा हरि के संगम से पूर्वानुभूत स्मर – सुख को प्राप्त करनेवाला यह चित्त वहाँ जायेगा ही, इसमें न तुम्हारा दोष है और न मेरा । वह रमणी भी उपालम्भ के योग्य नहीं है, विधाता ही विमुख हो गया है।

अथवा इस प्रकार यह चित्त वहाँ जायेगा ही और निवृत्ति को प्राप्तकर उपरमित हो जायेगा ।

इस प्रकार श्रीराधा शान्त निर्वेद की स्थिति में श्रीकृष्ण का गुणगान करती हुई दशमी दशा को प्राप्त हो गयीं।

अपने गुणों के द्वारा श्रीकृष्ण जिस रमणी का सुख-विधान करते हैं, उसे किसी प्रकार का कष्ट नहीं होता, श्रीराधा श्रीकृष्ण की प्राप्ति के अभाव में अति विपन्ना, विषण्णा अवस्था को प्राप्त हो गयीं।

प्रस्तुत श्लोक के पूर्वार्द्ध में श्रीराधा का सखी के साथ वचन प्रतिवचन है। श्रीराधा के मन में भाव यह है कि स्वयं यह दूती ही श्रीकृष्ण को बुलाने गयी और उनके साथ रमण कर लौट आयी है। अतः वह कृष्ण को शठ, निर्दय इत्यादि कहती है। कैसे गँवार हैं वे, नायिका और दूती में भी अन्तर नहीं जानते।

प्रस्तुत श्लोक में विक्रीडित छन्द है और काव्यलिङ्ग नामक अलङ्कार है।

इति पञ्चदश: सन्दर्भः ।

आगे पढ़ें........ गीतगोविन्द सर्ग 7 अष्ट पदि 16

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