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Kalika puran chapter 70
कालिकापुराणम् सप्ततितमोऽध्यायः नैवेद्यादिपूजोपचारवर्णनम्
अथ श्रीकालिका
पुराण अध्याय ७०
।।
नैवेद्यवर्णन ।।
।।
श्रीभगवानुवाच ।।
निवेदनीयं यद्
द्रव्यं प्रशस्तं प्रयतं तथा ।
तद्भक्ष्याद्यं
पञ्चविधं नैवेद्यमिति गद्यते ।। १ ।।
श्रीभगवान्
बोले- जो पदार्थ निवेदन के लिए उत्तम और प्रस्तावित हैं,
उन भक्ष्य आदि पाँच प्रकार के नैवेद्य के विषय में कहा जाता
है ।। १।।
भक्ष्यं
भोज्यं च लेह्यं च पेयं चोष्यं च पञ्चमम् ।
सर्वत्र
चैतन्नैवेद्यमाराध्येष्टे निवेदयेत् ।।२।।
भक्ष्य,
भोज्य, लेह्य (चाटने योग्य), पेय (पीने योग्य), चोष्य (चूसने योग्य) ये पाँच प्रकार के नैवेद्य,
आराध्य इष्टदेव को निवेदित करना चाहिये ॥२॥
तेषु प्रियतरं
देव्याः कथये शृणुतं तु वाम् ।
भक्ष्यादिपञ्चकैर्देवी
दत्तैरेवाभितुष्यति ।
नादत्ते
विधिवत् किञ्चिद् दत्तं चैतन्न विद्यते ।। ३ ।।
उन भक्ष्यादि
पाँचों में देवी को जो विशेषरूप से प्रिय हैं, जिनके अर्पणमात्र से ही देवी, सन्तुष्ट हो जाती हैं।जिनके विधि पूर्वक दिये बिना वह कुछ
भी नहीं स्वीकार करती किन्तु इनके समर्पण से देने को कुछ नहीं बचता,
उन नैवेद्यों के विषय में मैं कहता हूँ,
तुम दोनों सुनो ॥ ३ ॥
नागरं च
कपित्थं च द्राक्षां क्रमुकमेव च ।।४।।
करकं वरदं
कोलं कुष्माण्डं पनसं तथा ।
बकुलं च मधूकं
च रसालाम्रातकेशरम् ।। ५।।
आक्षोडं
पिण्डखर्जूरं करुणं श्रीफलं तथा ।
औदुम्बरं च
पुन्नागं माधवं कर्कटीफलम् ।। ६ ।।
जाम्बवं
पिण्डखर्जूरं बीजपूरं च जाम्बवम् ।
हरीतकी मामलकं
षड्विधं नागरङ्गकम् ।।७।।
देवकं मधुकं
शीतं पटोलं क्षीरवृक्षजम् ।
पाटलं शालजं वृन्तमग्निजं
कदलीफलम् ।।८।।
तिन्दुकं
कुसुमं पीतं कारविन्दं करूषकम् ।
गर्भावर्तं च
तत्पुष्पं क्षीरस्राव्यमनङ्गजम् ।। ९ ।।
कुमुदानां
पङ्कजानां फलानि विविधानि च ।
वन्यानां
सकलैर्देवीं फलैः पुष्पैः प्रपूजयेत् ।
ऋते
श्लेष्मातकं विम्बशैलकं वैष्णवीं तथा ।।१०।।
नारंगी,
कैंथ, अंगूर, क्रमुक (सुपारी), करक (अनार), वरद, कोल (बैर विशेष) कुष्माण्ड, (कुम्हड़ा या भतुआ), पनस (कटहल), बकुल (मौलसिरी), मधूक (महुआ), रसाल (आम), आम्रातक (अमड़ा), केशर, आक्षोड (अखरोट), पिण्डखजूर, करुण, श्रीफल (बेल), गूलर, पुन्नाग, माधव, ककड़ी, जामुन, पिण्ड - खर्जूर, बीजपूर (बिजौरा) और जाम्बव, हरें, आँवला, छः प्रकार की नारङ्गियाँ, देवक, मधूक, शीत, लिसोड़ा, पटोल, क्षीरवृक्षज (अंजीर), पाटल (लाललोध), शालफल, वृन्त, अग्निज, केला, तिन्दुक (तेन्दु के फूल), पीले करुषक, गर्भावर्त (कटहल) और उसका फूल,
क्षीरस्राव्य एवं अनङ्गज, कुमुद, पङ्कज आदि अनके फल, पुष्पों, श्लेष्मान्तक (लिसोड़ा) और विम्बशैल (बिम्ब) फल को छोड़कर
सभी प्रकार के जंगलीफल पुष्पों से, वैष्णवी देवी का कारबिन्द, पूजन करना चाहिये (यहाँ कई फलों के नाम दो बार आये हैं) ।।
४ - १० ॥
सर्वेषां
फलजातीनां मध्ये देवीप्रियं फलम् ।
लाङ्गलं मातुलुङ्गं
च करमर्दं रसालकम् ।। ११ ।।
सभी
फल-जातियों (फलों) में लाङ्गल, मातुलुङ्ग (चकोतरा), करमर्द और आम, देवी के प्रियफल हैं ॥ ११ ॥
एवं फलानि
देयानि कामाख्यायै च भैरव ।
त्रिपुरायै तथा
सम्यक् पीठदेवीभ्य एव च ।। १२ ।।
हे भैरव ! इसी
प्रकार के फल कामाख्या, त्रिपुरा, और पीठदेवियों को भली-भांति देना चाहिये ॥ १२ ॥
शृङ्गाटकं
कशेरुं च शालूकं च मृणालकम् ।।१३।।
शृङ्गबेरं
काञ्चनं च स्थूलं कन्दं बकुलकम् ।
एवमादीनि
कन्दानि दैव्यै सर्वाणि चोत्सृजेत् ।। १४ ।।
श्रृंगाटक
(सिंघाड़ा), कशेरु, शालक (कुमुदिनी की जड़), मृणालक (कमलनाल), शृंगबेर (अदरक), काञ्चन, स्थूलकंद (कन्दा), बकुल आदि कन्दों (कन्दजातीय) फलों को देवी को समर्पित करे
।।१३-१४।।
परमान्नं
पिष्टकं च यावकं कृशरं तथा ।
मोदकं
पृथुकादीनि कन्दुपक्वानि चोत्सृजेत् ।। १५ ।।
परमान्न (खीर),
पिष्टक (बाटी), यावक (हलुआ), कृशर ( खिचड़ी), मोदक (लड्डू), पृथुक (चूड़ा) आदि पतीली में बनाये पदार्थ,
देवी को समर्पित करे ॥ १५ ॥
हविः शाल्योदनं
दिव्यमाज्ययुक्तं सशर्करम् ।
निवेदयेन्महादेव्यै
सर्वाणि व्यञ्जनानि च ।। १६ ।।
हविष्य और धान
(चावल) के घी, चीनी युक्त भात आदि दिव्य व्यञ्जनों को महादेवी के लिए निवेदित करे॥१६॥
क्षीरादीन्यथ
गव्यानि माहिष्याणि च सर्वशः ।
अजाविकमृगाणां
च क्षीरादीनि निवेदयेत् ।।१७।।
दुग्धसम्बन्धी
पदार्थों की दृष्टि से गौ, भैंस, बकरी, भेड़, मृग आदि के सभी प्रकार के दूध आदि को निवेदन करना चाहिये ॥
१७॥
मध्वादीनि च
सर्वाणि गुडधानाः सितां तथा ।
अन्नानि चैव
पानानि मांसानि विनिवेदयेत् ।। १८ ।।
मधु आदि के
निमित्त सब प्रकार के गुड़, मदिरा, अन्न आदि से बने पेय पदार्थ एवं मांस आदि को निवेदित करे ॥
१८ ॥
सर्वं सुरभिगन्धाढ्यं
व्यञ्जनं सुमनोहरम् ।
शाकमांसादिसम्भूतं
महादेव्यै निवेदयेत् ।। १९ ।।
सब प्रकार के
सुन्दरगन्धयुक्त, मन को प्रिय लगने वाले, शाक और मांस आदि से बने व्यञ्जन,
महादेवी को निवेदित करे ॥ १९ ॥
आमिषं परमान्नं
च दधिसर्पिः सशर्करम् ।
महादेव्यै
निवेद्याथ वाजिमेधफलं लभेत् ।। २० ।।
आमिष,
खीर, दही, घी, चीनी, से युक्त पदार्थ, महादेवी को निवेदित कर साधक, वाजपेययज्ञ का फल प्राप्त करता है ॥२०॥
सितासम्मिश्रितां
दत्त्वा सुरां मधुसमन्विताम् ।
देवीलोके चिरं
स्थित्वा राजा क्षितितले भवेत् ।। २१ ।।
देवी को सिता
(मिश्री) और मधु से युक्त सुरा अर्पित करने वाला साध देवीलोक में चिरकाल तक निवास
कर,
पृथ्वी तल पर पुनः जन्म ले, राजा होता है ।।२१।।
लाङ्गलं
क्रमुकं दत्त्वा रुचकं करमर्दकम् ।
सौभाग्यमतुलं
प्राप्य देवीलोके महीयते ।। २२ ।।
देवी को
लाङ्गल (नारीयल), क्रमुक (सुपारी), रुचक (नींबू), करमंर्दक प्रदान कर साधक देवी लोक में अतुल सौभाग्य को
प्राप्त करता है ।। २२ ।।
माषान्
मुद्गान् मसूरांश्च- तिलान् भङ्गास्तथैव च ।
यवादीन्यथ
सर्वाणि यथायोग्यं निवेदयेत् ।। २३ ।।
उर्द,
मूँग, मसूर, तिल तथा भङ्गा (पटसन), जौ आदि सब पदार्थो को यथोचित रूप से निवेदित करे ॥ २३ ॥
यथा यथा
भवेद्धभक्ष्यं यथा द्रव्यं तथा तथा ।
संस्कृत्य वेश
– वाराद्यैर्महादेव्यै निवेदयेत् ।। २४ ।।
जैसे-जैसे
द्रव्य भोजन करने योग्य हो सके, उसे वेश, वार आदि के अनुसार वैसा ही संस्कारित कर (बनाकर),
देवी को अर्पित करना चाहिये ।।२४।।
महावीरो
मुनिर्वापि ब्राह्मणश्चेतरोऽथवा ।
यद् यद्
भक्ष्यं स्वमर्थं तु प्रकल्प्यं स्याद् यथा यथा ।
तथा तथा
महादेव्यै भक्तियुक्तो निवेदयेत् ।। २५ ।।
कोई साधक चाहे
वह महान् साधक, वीर हो, ब्राह्मण या कोई अन्य हो, वह अपने निमित्त जिन-जिन भक्ष्य पदार्थों का उपयोग करता हो,
उसे वे ही पदार्थ, उन्हीं रूपों में महादेवी को भक्तिपूर्वक निवेदित करना
चाहिये ॥ २५॥
संस्कार्याण्यथ
संस्कृत्य यथा संस्कारकं भवेत् ।
संस्कार्यश्च
यथा तस्यास्तत्तद् दद्यात्तथा तथा ।। २६ ।।
संस्कारित
किये जाने वाले पदार्थों को संस्कारकर्ता साधक द्वारा उचितरूप से संस्कारित कर,
उसे संस्कारितरूप में ही देवी को अर्पित करना चाहिये ॥ २६ ॥
यत्पूतिगन्धसंयुक्तं
दग्धं भोज्यविवर्जितम् ।
तदुक्तमपि नो दद्यान्महादेव्यै
कदाचन ।। २७ ।।
जो पदार्थ पीब
आदि गंधो से युक्त हो, जला हुआ हो, खाने के योग्य न हो, उस पदार्थ का निर्देशित होने पर भी उसे महादेवी को कभी
निवेदित न करे॥ २७॥
बलिदानेषु
विहिता य एव मृगपक्षिणः ।
तेषां मांसानि
मत्स्यानां मांसानि च निवेदयेत् ।। २८ ।।
बलिदान प्रकरण
में जो पशु-पक्षी बताये गये है उनका मांस तथा मछलियों का माँस देवी को निवेदित
करे।।२८।।
खड्गवार्ध्रणसच्छागमांसैर्मिश्रीकृतैः
कृतम् ।। २९ ।।
व्यञ्जनं
स्वादुगन्धाढ्यं वासितं सुमनोहरम् ।
सकृद् दत्त्वा
महादेव्यै सार्वभौमो नृपो भवेत् ।। ३० ।।
गैंडा,
वार्षीणस, और बकरे के मांस को स्वाद एवं सुन्दरगन्ध से युक्त कर एक
बार भी महादेवी को अर्पित करने वाला साधक, सार्वभौम- राजा होता है ।। २९-३०॥
मूलकैरेणमांसेन
लोहपात्रे सुसंस्कृतम् ।
व्यञ्जनं
गन्धिनं दत्त्वा देवीलोकमवाप्नुयात् ।। ३१ ।।
देवी को मूली से
निकाली मंदिरा और मांस से लोहे के बर्तन में बनाये हुये सुगन्धित व्यञ्जन प्रदान
कर,
साधक देवीलोक को प्राप्त करता है ।। ३१॥
खर्जूरं
पिण्डखर्जूरं यवचूर्णं च साज्यकम ।
वैष्णव्यै
विनिवेद्यैव राजसूयफलं लभेत् ।। ३२ ।।
खजूर,
पिण्डखजूर, घी के सहित जौ का चूर्ण, वैष्णवी को निवेदित करने मात्र से ही साधक,
राजसूययज्ञ का फल प्राप्त करता है ।। ३२॥
कृशरान्नप्रदानेन
सौभाग्यमतुलं भवेत् ।
दत्त्वैव
नारिकेलाम्बु वह्निष्टोमफलं लभेत् ।। ३३ ।।
खिचड़ी प्रदान
करने से साधक अतुल सौभाग्यवान होता है तथा नारीयल का जल अर्पित कर,
वह अग्निष्टोमयज्ञ का फल प्राप्त करता है ।।३३।।
जाम्बवं लवली
धात्री श्रीफलानि निवेद्य च ।
वह्निष्टोमफलं
लब्ध्वा देवीलोकमवाष्नुयात् ।। ३४।।
जामुन,
लवली, आँवला और श्रीफल (बेल) देवी को निवेदित कर,
साधक अग्निष्टोमयज्ञ का फलभोग कर,
अन्त में देवी के लोक को प्राप्त करता है ।। ३४ ।।
द्राक्षां
सितासमायुक्ता नागरङ्कसंयुताम् ।
विनिवेद्य
महादेव्यै लक्ष्मीवान् रूपवान् भवेत् ।। ३५ ।।
मिश्रीयुक्त
द्राक्षा,
नारङ्गी, महादेवी को निवेदित कर साधक, लक्ष्मीवान् और रूपवान होता है ॥ ३५ ॥
धान्यं च पृथुकं
देव्यै दत्त्वा श्रियमवाप्नुयात् ।
इक्षुदण्डं
मुद्रममण्डं नवनीतं निवेद्य च ।
सौभाग्यमुत्तमं
प्राप्य देवीलोके महीयते ।। ३६ ।।
देवी को चावल
और चूड़ा देवी को अर्पित कर साधक, श्री (शोभा) को प्राप्त करता है। गन्ना,
बिना मांड़ का मूँग, मक्खन निवेदित कर उत्तम-सौभाग्य को प्राप्त कर,
वह देवीलोक को जाता है ॥ ३६ ॥
नवनीतसमायुक्तं
तिलं देव्यै निवेद्य च ।
इह
कामानवाप्यैव मृतो मोक्षमवाप्नुयात् ।। ३७।।
देवी को,
नवनीत से युक्त तिल निवेदित कर,
इस लोक में कामनाओं को प्राप्त कर साधक,
मृत्यु के बाद मोक्ष को प्राप्त करता है ॥ ३७॥
अभक्ष्यवर्ण्य
सर्वान्नं व्यञ्जनेन समन्वितम् ।
भोज्यवत्
परिकल्प्याथ महादेव्यै निवेदयेत् ।। ३८ ।।
अभक्ष्य -
अन्न को छोड़कर सब प्रकार का अन्न- व्यञ्जन से समन्वित कर,
भोज्य की भाँति कल्पना कर, महादेवी को निवेदित करे ॥ ३८ ॥
रत्नतोयसमायुक्तं
सलिलं नारिकेलजम् ।
क्षीराज्यमधुभिर्मिश्रं
सितादधिसमन्वितम् ।। ३९ ।।
यस्तैजसेन
पात्रेण पेयं देव्यै निवेदयेत् ।।४०।।
देवी को
रत्नजल से युक्तजल, नारीयल का पानी, घी, दूध, मधु, चीनी, दही युक्त पेयपदार्थ, धातु के पात्र में पेय के रूप में निवेदित करे ।। ३९-४०॥
भक्तिप्रवणचित्तेन
तस्य पुण्यफलं शृणु ।
कल्पकोटिसहस्राणि
कल्पकोटिशतानि च ।। ४१ ।।
स्थित्वा
देवीपुरे धीरः सार्वभौमो भवेत् क्षितौ ।
ततः परं तु
कैवल्यमाप्नोति च यथेच्छया ।। ४२ ।।
भक्तियुक्त
चित्त से ऐसा करने वाला, धैर्यवान्, साधक जो पुण्यफल प्राप्त करता है,
उसे सुनो। वह सैकड़ों एवं हजारों कल्पों तक देवीलोक में
स्थित हो,
पुनः जन्म लेकर पृथिवी पर सार्वभौम राजा होता है । तदनन्तर
वह इच्छानुसार मोक्ष प्राप्त करता है।।४१-४२ ॥
कलायं च
सनीवारं क्वथितं दधिसंयुतम् ।
महादेव्यै
निवेद्यैव काममिष्यमवाप्नुयात् ।। ४३ ।।
मटर और नीवार
को धीमी आँच में पकाकर दही के साथ, महादेवी को निवेदित करके साधक अभीष्ट कामनाओं को प्राप्त कर
लेता है ।।४३।।
मरिचं
पिप्पलीकोलं जीरकं तन्तुभं तथा ।
संस्कारे च
समक्षे च महादेव्यै निवेदयेत् ।। ४४ ।।
मरिच,
पीपल, कोल, जीरा, तन्तुक (सरसों) से संस्कारित नैवेद्य महादेवी के समक्ष
निवेदित करे॥ ४४ ॥
तिन्तिडी
खण्डसंयुक्तां भक्तियुक्तो निवेद्य च ।
ज्योतिष्टोमफलं
लब्ध्वा देवलोकमवाप्नुयात् ।। ४५ ।।
देवी को
भक्तिपूर्वक खाँड़ सहित इमली, निवेदित कर साधक, ज्योतिष्टोमयज्ञ का फल प्राप्त करता है,
तत्पश्चात् वह देवी लोक को प्राप्त करता है ।।४५ ॥
राजमाषं मसूरं
च पालङ्कं चाथ पोतिकाम् ।
कालशाकं कलायं
च ब्राह्मीमूलकमेव च ।। ४६ ।।
वास्तूकं च
कलम्बी च कञ्चुकं हिलमोचिकाम् ।
चक्रं
विद्रुमपत्रं च तथैव च पुनर्नवाम् ।।४७।।
शाकानेतान्
महादेव्यै योजयेद् भक्तिसंयुतः ।
सोऽतुलां
श्रियमाप्नोति मम लोके महीयते ।।४८ ।।
राजमा,
मसूर, पालक, पोतिका, कालशाक, मटर, ब्राह्मी, मूली, वास्तूक, कदम्ब, कशुक (जौ), हिलमोचिका, चक्र, विद्रुमपत्र, पुनर्नवा इन शाकों को जो भक्तिपूर्वक महादेवी को निवेदित
करता है,
वह अतुलश्री को प्राप्त कर, मेरे लोक (शिवलोक ) को जाता है ॥ ४६-४८ ॥
श्रद्धापरीष्टिसंस्कारभक्तिद्रव्याभिसम्भ्रमम्
।
रागाधिक्यात्
फलाधिक्यं हीनाद् वै हीनतां ब्रजेत् ।। ४९ ।।
श्रद्धापूर्ण संस्कार,
भक्तिरूपी द्रव्य का सम्भार तथा अनुराग की अधिकता से,
फल में अधिकता तथा हीनता से, फल में हीनता आती है। (पूजोपचारों के निवेदन के साथ श्रद्धा-भक्ति
एवं अनुराग का मिश्रण पूजाफल को बढ़ाता या घटाता है) ॥ ४९ ॥
कालिका पुराण अध्याय ७० ताम्बूल वर्णन
।। ताम्बूल
वर्णनम् ।
ताम्बूलं
गन्धसंयुक्तं कर्पूराद्यधिवासितम् ।
सञ्चूर्णैर्जलजानां
च संस्कृतं विनिवेदयेत् ।। ५० ।।
(नैवेद्य अर्पण के बाद) साधक सुगन्ध से युक्त, कर्पूर आदि से सुगन्धित, कमल के चूर्ण से संस्कारित ताम्बूल देवी को अर्पित करे ॥ ५०
॥
मन्त्रकालविरुद्धानि
नैवेद्यानि कदाचन ।
देवेभ्यो नोपयुञ्जीत
गुरुताविहितानि च ।। ५१ ।।
किन्तु
गौरवशाली मन्त्र और काल से विरुद्ध नैवेद्य कभी भी, देवी को नहीं अर्पित करना चाहिये ॥ ५१ ॥
राजते वाऽथ
सौवर्णे ताम्रे वा प्रस्तरेऽपि च ।
पद्मपत्रेऽथवा
दद्यान्नैवेद्यं मत्प्रियाप्रियम्
।। ५२ ।।
मेरी प्रिया,
योगमाया को प्रिय नैवेद्य, चाँदी, सोना, ताँबा, पत्थर के पात्र में अथवा कमलपत्र पर समर्पित करना चाहिये ॥
५२ ॥
तैजसेषु च
पात्रेषु सौवर्णं ताम्रमेव वा ।
प्राशनार्थमुपादद्यादर्घ्यपात्रार्थमेव
वा ।।५३।।
यज्ञदारुमयं
वापि पात्रं मध्यममिष्यते ।
सर्वालाभे तु
माहेयं स्वहस्तघटितं यदि ।।५४।।
भोजन-पात्र या
अर्घ्यपात्र हेतु धातु के पात्रों में सोने और ताँबे का उपयोग करना चाहिये । इस
दृष्टि से यज्ञकाष्ठ का बना पात्र, मध्यम कहा गया है। यदि उपर्युक्त सबका अभाव हो तो अपने हाथ
से बनाये हुए मिट्टी के पात्र में ही अर्पित करे ।। ५३-५४ ॥
नैवेद्येन
भवेत् सर्वं नैवेद्येनामृतं भवेत् ।
धर्मार्थकाममोक्षाश्च
नैवेद्येषु प्रतिष्ठिताः ।। ५५ ।।
नैवेद्य से सब
कुछ होता है । नैवेद्य से सब कुछ अमृतमय हो जाता है । नैवेद्य में ही धर्म,
अर्थ, काम, मोक्ष प्रतिष्ठित होते हैं ॥ ५५ ॥
सर्वयज्ञमयं
नित्यं नैवेद्यं सर्वतुष्टिदम् ।
ज्ञानदं कामदं
पुण्यं सर्वभोग्यमयं तथा ।।५६॥
नैवेद्य,
नित्य ही समस्त यज्ञों का स्वरूप है। वह सभी को सन्तुष्टि प्रदान
करने वाला, ज्ञानप्रदान करने वाला, कामनाओं को प्रदान करने वाला, पवित्र तथा सब प्रकार से भोग्यमय है ॥ ५६ ॥
मनसापि
महादेव्यै नैवेद्यं दातुमिच्छति ।
यो नरो
भक्तियुक्तः सन् स दीर्घायुः सुखी भवेत् ।। ५७ ।।
जो मनुष्य
भक्तियुक्त होकर महादेवी को मानसिक रूप से भी नैवेद्य प्रदान करने की इच्छा रखता
है,
वह दीर्घायु और सुखी होता है ।। ५७॥
महामायां सदा
देवीमर्चयिष्यामि भक्तितः ।
नानाविधैस्तु
नैवेद्यैरिति चिन्ताकुलस्तु यः ।
स सर्वकामान्
सम्प्राप्य ममलोके महीयते ।। ५८ ।।
मैं महामाया
देवी का सदैव अनके प्रकार के नैवेद्यों से भक्तिपूर्वक पूजन करूंगा,
इस चिन्ता से जो साधक आकुल रहता है,
वह अपनी समस्त कामनाओं को प्राप्त कर,
मेरे लोक में महत्त्वपूर्ण स्थान को प्राप्त करता है ॥ ५८ ॥
विदधाति च
नैवेद्यं महादेव्यै सुभक्तिमान् ।
दातुं प्रति
नरः सोऽपि देवीलोकमवाप्नुयात्
।। ५९ ।।
जो सुन्दर भक्तिमान्
पुरुष,
महादेवी को अर्पित करने के लिए नैवेद्य-प्रस्तुत करता है,
वह मनुष्य भी देवीलोक को प्राप्त करता है ।।२३।।
एतद् वां
कथितं पुत्रौ नैवेद्यं वैष्णवीप्रियम् ।
कामाख्यायास्तथा
देव्यास्त्रिपुराया विशेषतः ।। ६० ।।
प्रदक्षिणनमस्कारौ
साम्प्रतं शृणुतं युवाम् ।। ६१ ।।
हे पुत्रों !
इस प्रकार से मैंने तुम दोनों से वैष्णवी, विशेषरूप से कामाख्या और देवी त्रिपुरा के प्रिय नैवेद्य के
विषय में कहा। अब तुम दोनों प्रदक्षिणा और नमस्कार के विषय में सुनो ।।६०-६१॥
इति
श्रीकालिकापुराणे नैवेद्यादिपूजोपचारवर्णने सप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७० ॥
श्रीकालिकापुराण
में नैवेद्यादिपूजोपचारवर्णनसम्बन्धी सत्तरवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ ७० ॥
आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 71
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