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कालिका पुराण अध्याय ७१

कालिका पुराण अध्याय ७१                      

कालिका पुराण अध्याय ७१ में षोडशोपचार पूजा विधि अंर्तगत प्रदक्षिणा और नमस्कार इन पूजा उपचारों के विषय का वर्णन है ।

कालिका पुराण अध्याय ७१

कालिका पुराण अध्याय ७१                                        

Kalika puran chapter 71

कालिकापुराणम् एकसप्ततितमोऽध्यायः प्रदक्षिणादिपूजोपचारवर्णनम्

अथ श्रीकालिका पुराण अध्याय ७१                       

।। प्रदक्षिणा ।।

।। श्रीभगवानुवाच ।।

प्रसार्य दक्षिणं हस्तं स्वयं नम्रशिरः पुनः ।

दक्षिणं दर्शयन् पार्श्वं मनसापि च दक्षिणः ।। १ ।।

सकृत् त्रिर्वा वेष्टयेयुर्देव्याः प्रीतिः प्रजायते ।

स च प्रदक्षिणो ज्ञेयः सर्वदेवौघतुष्टिदः ।। २॥

श्रीभगवान् बोले-दाहिना हाथ फैलाकर स्वयं मस्तक झुकाये हुये, अपना दक्षिण पार्श्व दिखाते हुये मानसिकरूप से भी उन्हें दक्षिण रखते हुये देवी की एक या तीन आवृत्ति करने से देवी को प्रसन्नता होती है, वह क्रिया प्रदक्षिणा जानी जाती है तथा वह सभी देवताओं को प्रसन्नता देने वाली है ।। १-२ ।।

अष्टोत्तरशतं यस्तु देव्याः कुर्यात् प्रदक्षिणम् ।

स सर्वकाममासाद्य पश्चान्मोक्षमवाप्नुयात् ।। ३ ।।

जो साधक देवी की एक सौ आठ प्रदक्षिणायें करता है वह इस लोक में सभी कामनाओं को प्राप्त कर, अन्त में मोक्ष को प्राप्त करता है ।। ३ ।।

मनसापि च यो दद्याद् देव्यै भक्त्या प्रदक्षिणम् ।

प्रदक्षिणाद् यमगृहे नरकाणि न पश्यति ।। ४ ।।

देवी को भक्तिपूर्वक जो साधक मानसिकरूप से भी प्रदक्षिणा अर्पित करता है, वह प्रदक्षिणा के फलस्वरूप, यमलोक को नहीं जाता है तथा नरकों को भी नहीं देखता है ।।४।।

कालिका पुराण अध्याय ७१- नमस्कार

।। नमस्कार ।।

कायिको वाग्भवश्चैव मानसस्त्रिविधः स्मृतः ।

नमस्कारः श्रुतस्तज्ज्ञैरुत्तमाधममध्यमः ।।५।।

उसके रहस्य को जानने वाले साधकों द्वारा शरीरिक, वाचिक और मानसिक तीन प्रकार के, नमस्कार कहे गये हैं। तीन-तीन भेद सुने। उन तीन भेदों के भी उत्तम, मध्यम, अधम सुना जाता है ॥ ५ ॥

।। कायिक नमस्कार ।।

प्रसार्य पादौ हस्तौ च पतित्वा दण्डवत् क्षितौ ।

जानुभ्यामवनिं गत्वा शिरसास्पृश्य मेदिनीम् ।

क्रियते यो नमस्कार उत्तमः कायिकस्तु सः ।।६।।

हाथ और पैर को फैलाकर, पृथ्वी पर दण्ड की भाँति गिरकर, घुटनों के बल सिर से पृथ्वी को स्पर्श करते हुये जो प्रणाम किया जाता है, वह उत्तम श्रेणी का कायिक नमस्कार होता है ॥ ६ ॥

जानुभ्यां न क्षितिं स्पृष्ट्वा शिरसास्पृश्य मेदिनीम् ।

क्रियते यो नमस्कारो मध्यमः कायिकः स्मृतः ।।७।।

घुटनों से पृथ्वी का स्पर्श न करते हुये मस्तक से पृथ्वी का स्पर्श करने पर जो नमस्कार सम्पन्न होता है, उसे मध्यम श्रेणी का कायिक नमस्कार कहा जाता है ।।७।।

पुटीकृत्य करौ शीर्षे दीयते यद् यथा तथा ।

अस्पृष्ट्वा जानुशीर्षाभ्यां क्षितिं सोऽधम उच्यते ।।८।।

दोनों हाथों को सिर के ऊपर जोड़कर, घुटनों और सिर से पृथ्वी का बिना स्पर्श किये जो नमस्कार किया जाता है, उसे अधमश्रेणी का कायिक नमस्कार कहते हैं ।। ८ ॥

।। वाग्भव नमस्कार ।।

या स्वयं गद्यपद्याभ्यां घटिताभ्यां नमस्कृतिः ।

क्रियते भक्तियुक्तेन वाचिकस्तूत्तमस्तु सः ।।९।।

स्वनिर्मित गद्य-पद्यमय स्तुतियों से भक्तिपूर्वक जो नमस्कार (स्तुति) किया जाता है, उसे उत्तमकोटि का वाचिक (वाग्भव) नमस्कार कहते हैं ।। ९ ।।

पौराणिकैवैदिकैर्वा मन्त्रैर्वा क्रियते नतिः ।

स मध्यमो नमस्कारो भवेद् वाचनिकः सदा ।। १० ।।

पौराणिक या वैदिक मन्त्रों से जो नमस्कार किया जाता है वह मध्यमकोटि का वाचिक नमस्कार होता है ॥१०॥

यत् तु मानुष्यवाक्येन नमनं क्रियते सदा ।

स वाचिकोऽधमो ज्ञेयो नमस्कारेषु पुत्रकौ ।। ११ ।।

हे पुत्रों ! नमस्कारों में मनुष्य के (मानव रचित) वाक्यों से जो नमस्कार किया जाता है। वह सदैव अधमकोटि का वाचिक नमस्कार जाना जाता है ।। ११।।

।। मानसिक नमस्कार ।।

इष्टमध्यानिष्टगतैर्मनोभिस्त्रिविधं पुनः।

नमनं मानसं प्रोक्तमुत्तमाधममध्यमम् ।।१२।।

इष्ट, मध्य, अनिष्ट मनोगत भावों के कारण मानसिक नमस्कार भी उत्तम, मध्यम और अधम, तीन कोटि का कहा गया है ॥ १२॥

त्रिविधे च नमस्कारे कायिकश्चोत्तमः स्मृतः ।

कायिकैस्तु नमस्कारैर्देवास्तुष्यन्ति नित्यशः ।। १३ ।

उपर्युक्त कायिक, वाचिक और मानसिक तीनों नमस्कारों में कायिक- नमस्कार, उत्तम नमस्कार कहा गया है। कायिक नमस्कार से देवतागण नित्य- सन्तुष्ट हो जाते हैं ॥१३॥

अयमेव नमस्कारो दण्डादिप्रतिनामभिः ।

प्रणाम इति विज्ञेयः स पूर्वं प्रतिपादितः ।। १४ ।।

यह कायिक नमस्कार ही दण्ड आदि प्रत्येक नामों से युक्त होकर प्रणाम ऐसा जाना जाता है जैसा कि पहले वर्णन किया जा चुका है ।। १४ ।।

देवमानुषगन्धर्वाः यक्षराक्षसपन्नगाः ।

नमस्कारेण तुष्यन्ति महात्मानः समन्ततः ।। १५ ।।

देवता, मनुष्य, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, सर्प तथा समस्त महात्मागण नमस्कार से ही सन्तुष्ट होते हैं ।। १५ ।।

नमस्कारेण लभते चतुर्वर्गं महामतिः ।

सर्वत्र सर्वसिद्ध्यर्थं नतिरेव प्रशस्यते ।। १६ ।।

महान्मतिवाला साधक नमस्कार से ही चारो पुरुषार्थो को प्राप्त करता है । सर्वत्र सफलता प्राप्ति के लिए नमन ही प्रशंसनीय कहा गया है ॥ १६ ॥

नत्या विजयते लोकान्नत्यायुरपि वर्धते ।

नमस्कारेण दीर्घायुरच्छिन्ना लभते प्रजाः ।। १७ ।।

नमन से लोकों पर विजय प्राप्त होती है, नमन से आयु भी बढ़ती है । (देवतादि को ) नमस्कार करने से दीर्घायु तथा अछिन्न, सतत, सन्तति परम्परा प्राप्त होती है ॥ १७॥

नमस्कुरु महादेव्यै प्रदक्षिणमथो कुरु ।

नैवेद्यं देहि नितरामिति यो भाषते मुहुः ।

सोऽपि कामानवाप्येह मम लोके प्रमोदते ।। १८ ।

महादेवी को नमस्कार करो, प्रदक्षिणा करो, देवी को नैवेद्य अर्पित करो ऐसा निरन्तर बार-बार जो कहता है। वह साधक भी अपनी कामनाओं को प्राप्त कर, मेरे लोक में आनन्दित होता है ।। १८ ।।

इति वां कथिताः सम्यगुपचारास्तु षोडश ।

किमन्युद्रुचितं वां तत् कथयिष्यामि पृच्छतोः ।। १९ ।।

इस प्रकार से तुम दोनों से सोलह पूजा - उपचारों के सम्बन्ध में भलीभाँति कहा गया । तुम लोगों को और क्या रुचिकर लगता है, वह तुम दोनों से पूछे जाने पर मैं उसे भी कहूँगा ॥ १९ ॥

इति श्रीकालिकापुराणे प्रदक्षिणादिपूजोपचारवर्णने एकसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७१ ॥

।। श्रीकालिकापुराण में प्रदक्षिणादिपूजोपचारवर्णन-सम्बन्धी एकहत्तरवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ ७१ ॥

आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 72 

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