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Kalika puran chapter 72
कालिकापुराणम् द्विसप्ततितमोऽध्यायः कामाख्यामाहात्म्यवर्णनम्
अथ श्रीकालिका
पुराण अध्याय ७२
।।
श्रीभगवानुवाच ॥
कामाख्यायाश्च
माहात्म्यं शृणुतं च वदामि वाम् ।
साङ्गं तद्
सरहस्यं च शृणु वेताल भैरव ।। १ ।।
श्रीभगवान्
बोले- हे वेताल एवं भैरव ! मैं तुम दोनों से अङ्गों और रहस्य के सहित कामाख्यादेवी
का माहात्म्य कहता हूँ, तुम दोनों सुनो ॥ १ ॥
एकदा गरुडेनाशु
विष्णुर्विष्णुपरायणौ ।
गच्छन् देवीं
तु कामाख्यां नीलस्थामाससाद ह ।। २।।
एक बार भगवान
विष्णु और उनके परायण, भक्त (श्री नारद), गरुड़ पर सवार हो, तेजी से जाते हुए, देवी कामाख्या के नीलाचल नामक पर्वत पर पहुँचे ॥ २ ॥
आसाद्य तं
गिरिश्रेष्ठमवज्ञाय स केशवः ।
गच्छ गच्छेति
गरुडं चोदयामास तं गतौ ।। ३।।
वहाँ उस
श्रेष्ठ पर्वत की अवज्ञा कर, उन विष्णु ने गरुड़ को चलो चलो कहकर गति के लिए प्रेरित
किया ॥ ३ ॥
तं च देवी
महामाया कामाख्या जगतां प्रसूः ।
गरुडेन समं
कृष्णं स्तम्भयामास रोदसी ॥४॥
उस समय
जगत्जननी,
महामाया, देवीकामाख्या ने उन कृष्ण (विष्णु) को गरुड़ के सहित आकाश
में ही स्तम्भित कर दिया ॥४॥
स तु गन्तुं
महामाया मायया परिमोहितः ।
न
गन्तुमथवागन्तुमशकद् बद्धवत् स्थितः ॥५॥
वे महामाया की
माया से मोहित हो जाने के लिए प्रयत्नशील होने पर भी न आगे जा सकते थे और न पीछे
ही आ सकते थे। वे बँधे हुए (कैदी) की भाँति वहीं स्थिर हो गये ॥ ५॥
अशक्तं गरुडं
दृष्ट्वा गमने गरुडध्वजः ।
क्रुद्धस्तं
पर्वतश्रेष्ठमुत्सारयितुमुद्यतः ।। ६ ।।
गरुड़ को चलने
में असमर्थ देखकर गरुड़ ध्वज (भगवान् विष्णु), क्रोधित हो, उस पर्वतों में श्रेष्ठ, नीलाचल को स्वयं उखाड़ने को उद्यत हो गये ॥६ ॥
ततः कराभ्यां
तं शैलं क्रोडीकृत्य जगत्पतिः ।
अभूत्
क्षमश्चालयितुं मनागपि न केशवः ।।७।।
तब जगत् के
स्वामी (श्री विष्णु) ने उस पर्वत को अपने दोनों हाथों से गोद में पकड़ लिया
किन्तु केशव उस समय, उसे थोड़ा भी हिलाने-डुलाने में सक्षम नहीं हुये ॥७॥
तं विचालयितुं
शैलं कामाख्या क्रोधतत्परा ।
सिद्धसूत्रेण
वैकुण्ठं बबन्ध गरुडेन हि ।।८।।
उस समय
कामाख्यादेवी ने क्रोधित होकर उस पर्वत को विचलित करने को उत्सुक वैकुण्ठ (भगवान
विष्णु) को, गरुड़ के सहित अपने सिद्धसूत्र (सिद्धपाश) से बाँध दिया ॥८॥
तं बद्ध्वा
सिद्धसूत्रेण ग्राहाग्रे लवणार्णवे ।
चिक्षेप हेलया
देवी संक्षेपात् प्रापतत् तलम् ।।९।।
देवी ने पहले
उन्हें सिद्धसूत्र में बाँध कर पकड़ा, तब खिलवाड़ में ही फेंककर, लवणसमुद्र के तल में उन्हें पहुँचा दिया॥९॥
तं सागरतलं
प्राप्तं पुनरेव स्वमायया ।
यन्त्रयित्वा
समाक्रम्य जग्राहाब्धितल स्थितम् ।। १० ।।
सागरतल में
पहुँचे हुए उन भगवान विष्णु को अपनी माया से मोहित कर पुनः उठाकर सागर तल पर स्थित
किया॥१०॥
स प्रयत्नेन
महता नोत्प्लुतिं कर्तुमिष्टवान् ।
महायनं
प्रकुर्वाणः पुनरुन्मज्जने हरिः ।।११।।
उन्होंने उठने
का पुनः महान् प्रयत्न किया किन्तु अत्यन्त प्रयत्न के पश्चात् भी वे विष्णु,
बाहर न आ सके ॥ ११ ॥
तस्यासारं
प्रसारं च कामाख्या प्रतिषेधयेत् ।
ज्ञानोद्गमनमप्यस्य
सा देवी प्रतिषेधयेत् ।।१२।।
उनके विस्तार
को तथा उनके ज्ञान के उद्गम को भी कामाख्यादेवी ने रोक दिया था ।। १२ ।।
ततः
प्रज्ञानरहितः प्रसारासारवर्जितः ।
गरुडेन समं तोयतले
शीर्णमभूच्चिरम् ।।१३।।
तब ज्ञान से
रहित तथा व्यर्थ प्रसार से वर्जित हो, वे दीर्घकाल तक दुखी हो, गरुड़ के साथ ही सागर तल में पड़े रहे ।। १३ ।।
मार्गमाणस्तु तं
स्रष्टा सागरान्तरसंस्थितम् ।
हरिमासादयामास
विशीर्णं प्राकृतं तथा ।। १४ ।।
तब उनको खोजते
हुए ब्रह्मा ने सामान्यजन की भाँति दुखी अवस्था में, सागर तल में उन्हें स्थित पाया ।।
१४ ।।
तमासाद्य स
तार्क्ष्य तु स्रष्टा लोकपितामहः ।
हस्ताभ्यां तं
समादाय वोत्प्लावयितुमिष्टवान् ।। १५ ।।
गरुड़ के सहित
उन्हें उस अवस्था में देखकर, लोक के पितामह, श्रीब्रह्मा ने हाथ से पकड़कर उन्हें ऊपर उठाना चाहा ।। १५
।।
तमुत्प्लावयितुं
शक्तो नाभूल्लोकपितामहः ।
स्वयं च
देवीमायाभिर्बद्धः सन् विस्मयन् स्थितः ।। १६ ।।
किन्तु
लोकपितामह ब्रह्मा, उन्हें ऊपर न उठा सके और देवी की माया से आश्चर्यचकित हो,
स्वयं बँध से गये ॥ १६ ॥
मार्गमाणन्तु
ते सर्वे देवाः शक्रपुरोगमाः ।
चिरेण चाथ
कालेन समासे दुर्जलान्तरे ।। १७ ।।
उन्हें खोजते
हुए इन्द्रादि सभी देवताओं ने बहुत खोजने के पश्चात्,
उन दोनों को जल के भीतर पाया ।।१७।।
तावासाद्य ततः
सर्वे सुराः शक्रपुरोगमाः ।
समुत्प्लावयितुं
यत्नं चक्रुर्नाशक्नुवंश्च ते ।। १८ ।।
तब उन दोनों
को उस अवस्था में प्राप्त कर इन्द्रादि सभी देवताओं ने उन्हें ऊपर उठाने का
प्रयत्न किया किन्तु वे भी उन्हें उठा न सके ॥ १८ ॥
ततः सर्वेऽपि
ते देवा मोहिता मायया भृशम् ।
विधिविष्णू
स्थितौ यद्वत् तद्वत् ते तत्र संस्थिताः ।। १९ ।।
तब सभी देवता
भी देवी की माया से अत्यधिक मोहित हो, जहाँ ब्रह्मा और विष्णु, जिस रूप में बँधे हुए स्थित थे,
वहीं उसी रूप में वे सब भी स्थित हो गये ॥ १९ ॥
मार्गमाणोऽथ
तान् सर्वान् देवान् देवगुरुस्तदा ।
बृहस्पतिर्महादेवं
हिमवत्-सानुसंस्थितम् ।। २० ।।
तब उन देवगणों
को खोजते हुये, देवगुरु बृहस्पति, हिमालय के शिखर पर स्थित, महादेव (शिव) के समीप पहुँचे।।२०।।
समासाद्य स
देवानां वृत्तान्तं देवपूजितः ।
पृष्टवान्
सादरं सम्यक् स्तुत्वा नत्वा यथाविधि ।। २१ ।।
वहाँ जाकर उन
देवगुरु ने शिव को भली-भाँति, आदरपूर्वक तथा विधिपूर्वक, स्तुति और नमस्कार करके देवताओं के विषय में पूछा ।। २१ ।
।। देवगुरु-
उवाच ।।
महादेव जगद्धाम
जगत्प्रशमकारण ।
शक्रादीन्मार्गमाणोऽहं
देवांस्त्वां समुपस्थितः ।। २२ ।।
देवगुरु
(बृहस्पति) बोले- हे जगत् के आश्रय, संसार को शान्ति प्रदान करने वाले,
महादेव ! मैं इन्द्रादि देवताओं को खोजता हुआ,
आपकी सेवा में उपस्थित हुआ हूँ।। २२॥
ब्रह्मा
विष्णुश्च न ब्रह्मसदने नापि नाकतः ।
संस्थितौ नापि
कुत्रापि ज्ञायते ह्यन्यतो यथा ।। २३ ।।
ब्रह्मा और
विष्णु भी इस समय न तो ब्रह्मलोक में है और न स्वर्ग में ही हैं। वे इस समय
अन्यत्र कहाँ है, यह भी पता नहीं चल रहा है ।। २३॥
तमिमं संशयं
देव च्छिन्धि त्वं देवदेवताः ।
कुत्र
तिष्ठन्ति कस्माद् वा तथा भूत्वा ह्यवस्थिताः ।। २४ ।।
हे महादेव !
आप उनसे सम्बन्धित, मेरे इस संशय को दूर कीजिये कि वे दोनों देव तथा अन्य देवगण
इस समय क्यों, कहाँ और किस अवस्था में हैं ? ।।२४।।
अनुयास्यामि
तान् सर्वानुपदेशात् तव प्रभो ।
तेषां स्थितिं
त्वं कथय यदि ते वर्तते दया ।। २५ ।।
हे प्रभो !
यदि आप की दया हो तो आप उनकी स्थिति के विषय में कहिये । मैं आपके उपदेश (बताने)
के अनुसार, उन सबका अनुगमन (अन्वेषण) करूँगा ।। २५ ॥
तस्य तद् वचनं
श्रुत्वा तदुद्देशमहं पुनः ।
तत्
सर्वमुक्तवान् कर्म यथा बद्धाश्च मायया ।। २६ ।।
अवज्ञाता
महादेवी महामायाजगन्मयी ।
तेन
तन्माययाबद्धो विष्णुस्तिष्ठति सागरे ।। २७ ।।
उनके उस वचन
को सुनकर,
उन्हें लक्ष्य करके मैं (शिव) ने वह सब कार्य कह सुनाया,
जिससे, महादेवी, जगन्मयी, महामाया की अवज्ञा करने के फलस्वरूप उन्हीं की माया से
बँधकर,
विष्णु, सागर में पड़े थे ।। २६-२७।।
तं
मार्गमाणास्त्रिदशा ब्रह्माद्या मायया पुनः ।
निबद्धा निकटे
तस्य स्थिताश्चात्यर्थसंयताः ।। २८ ।।
उन्हें ही
खोजते हुये ब्रह्मा आदि देवता, उसी माया से बद्ध हो, उन्हीं के अत्यन्त समीप, नियन्त्रित हो, बँधे हुये स्थित थे ।। २८।।
तांस्तु
मार्गयितुं यासि यदिह त्वं मया विना ।
बद्धस्तथैव
त्वं चापि नायातुं भविता प्रभुः ।। २९ ।।
यदि आप मेरे
बिना उन्हें खोजने के लिए वहाँ जायेंगे तो आप भी वैसे ही बँध जायेंगे और पुन:
(लौटकर) यहाँ आने में समर्थ नहीं होंगे ॥२९॥
तस्माद्
गच्छाम्यहं तत्र यत्रास्ते गरुडध्वजः ।
ब्रह्मेन्द्राद्यास्तथा
गुप्तान्मोचयिष्ये च तान् क्रमात् ।। ३० ।।
इसलिए जहाँ
भगवान् विष्णु, ब्रह्मा, इन्द्रादि देवता छिपे हुए हैं, मैं भी वहाँ चलता हूँ, उन्हें मुक्त कराने का यत्न करूँगा।। ३० ।।
इत्युक्त्वा
गुरुणा सार्धं सम्भूय स वृषध्वजः ।
देवौघा यत्र
तिष्ठन्ति गतस्तत्र महेश्वरः ।। ३१ ।।
ऐसा कहकर गुरु
बृहस्पति के साथ, जहाँ देवगण स्थित थे, वृषध्वज (भगवान् शिव), वहीं गये ॥ ३१ ॥
तत्र गत्वा
महादेवो विष्णुमाभाष्य वेधसम् ।
सर्वांस्तान्
परिपप्रच्छ किमर्थं संस्थितास्त्विह ।। ३२।।
वहाँ जाकर
महादेव,
ने विष्णु, ब्रह्मा और इन्द्रादि सभी देवताओं से पूछा- आप लोग इस दशा
को कैसे प्राप्त हुये? ॥३२॥
गतागतविहीनाश्च
जडवज्ज्ञानवर्जिताः ।
किमर्थमभवन्
देवास्तन्मे भाषन्तु सम्प्रति ।। ३३ ।।
आप सब देवगण
इस समय आवागमन से रहित, ज्ञान से वर्जित हो, मूढ़ की भाँति, इस अवस्था में कैसे प्राप्त हुए हैं?
वह मुझसे कहिये ॥ ३३ ॥
तस्य तद्वचनं
श्रुत्वा महादेवस्य केशवः ।
शनैर्भर्गमुवाचेदं
ब्रह्मादीनां पुरस्तदा ।। ३४ ।।
उन महादेव के
उस कथन को सुन कर, भगवान विष्णु ने ब्रह्मादि देवताओं के सम्मुख धीरे से भगवान
शिव से यह कहा - ॥३४॥
।।
श्रीभगवानुवाच ।।
नीलकूटस्य शिखरादूर्ध्वभागेन
गच्छता ।
वियता गरुडस्थेन
मया नीलोमहागिरिः ।
घृतः करेण चोद्धर्तुं
गरुडागतिवारणे ।। ३५ ।।
श्रीभगवान्
(विष्णु) बोले- गरुड़ पर सवार हो, नीलाचल नामक पर्वत के ऊपर से आकाश-मार्ग से जाते हुए जब
मैंने गरुड़ की गति को रोके हुये नीलाचल को स्थित देखा तब उसे हाथ से उखाड़ फेंकने
का यत्न किया ।। ३५ ।।
तत्र मां सा
महामाया कामाख्या कामरूपिणी ।
योगनिद्रा
स्वयं धृत्वा चिक्षेपाम्बुधिपुष्करे ।। ३६ ।।
तब उन
कामरूपधारण करनेवाली, महामाया कामाख्या, योगनिद्रा ने मुझे स्वयं पकड़कर,
पुष्कर के जलराशि में फेंक दिया ॥
३६ ॥
ततोऽहं
तलमासाद्य तोयराशेः सवाहनः ।
पतितो निवसाम्यत्र
चिरमन्धकसूदन ।। ३७।।
हे अन्धकासुर
का वध करने वाले शिव! तब मैं अपने वाहन गरुड़ के समेत सागर-तल में पहुँच गया। वहाँ
पहुँच कर मैं चिर काल से यहाँ ही पड़ा हूँ ॥३७॥
निवसामि चिरं चाहमत्र
सागरतोयके ।
नाद्यापि सा
महामाया नुदते मां महेश्वर ॥३८॥
महेश्वर ! मैं
यहाँ सागर के जल में चिरकाल से पड़ा हूँ तो भी महामाया आज भी मुझपर प्रसन्न नहीं
हो रही हैं ॥ ३८ ॥
मदर्थमागता
देवा ब्रह्मेन्द्राद्याः समन्ततः ।
तेऽपि बद्धा
महादेव्या मायापाशेन वै हठात् ।। ३९ ।।
मेरे लिए
ब्रह्मा इन्द्र आदि सभी देवता भी आये किन्तु वे भी महादेवी द्वारा अपने माया - पाश
से बलपूर्वक बाँध दिये गये ॥ ३९ ॥
तस्मान्नो
ह्यनुगृह्णीष्व नयेदानीं शिवालये ।
तां च
प्रसादयिष्यामः सम्यग्बन्धविहिंसया ।। ४० ।।
अतः हम लोगों
पर आप कृपा करके इस समय हमें शिवलोक, शिवा के लोक (देवी लोक) में ले चलें। वहाँ हम सब बन्धन से
मुक्त हो भली-भाँति, उन महादेवी को प्रसन्न करेंगे ॥ ४० ॥
हरेस्तद्वचनं
श्रुत्वा ह्यहं च करुणायुतः ।
उवाच
परमप्रीत्या विधिविष्णू प्रति स्वयम् ।।४१।।
भगवान् विष्णु
के उन वचनों को सुन, करुणा से भर कर मैंने, अत्यन्तप्रेम-पूर्वक, विष्णु व ब्रह्मा से स्वयं कहा –
॥ ४१ ॥
ईश्वर्याः
कामपूर्वायाः कवचं सुमनोहरम् ।
बद्ध्वा शरीरे
चाप्लाव्य पश्चाद् गच्छन्तु तां प्रति ।। ४२ ।।
पहले काम लगे
ईश्वरी,
कामेश्वरी के सुन्दर - कवच से,
अपने शरीर को बाँधकर ऊपर उठकर आप सब,
उन तक पहुँचने का प्रयत्न करें ॥ ४२ ॥
अहं
निबद्धकवचस्तेनाहं मायया त्विह ।
न बद्धो मम
संसर्गात् तथा चेह बृहस्पतिः ।। ४३ ।
उनके कवच से
आबद्ध होने के कारण ही मैं, यहाँ उनकी माया से बिना बँधे, स्थित हूँ तथा मेरे संसर्ग से ही यह बृहस्पति भी इस समय
माया से आबद्ध नहीं हुए हैं ॥ ४३ ॥
तस्माद् यूयं
तु कवचं शृणुध्वं वचनान्मम ।
येन सौख्यात्
समुत्प्लुत्य द्रक्ष्यामः परमेश्वरीम् ।। ४४ ।।
अतः आप सब
मेरे कथन से, उस कवच को सुनो, जिससे हम सब ऊपर जाकर सुखपूर्वक परमेश्वरी कामाख्या को
देखेंगे ॥ ४४ ॥
कालिका पुराण अध्याय ७२
अब इससे आगे
श्लोक ४५ से ६९ में कामाख्या देवी के कवच को दिया गया है इसे पढ़ने के लिए क्लिक
करें-
अब इससे आगे
कालिका पुराण
अध्याय ७२
।। ईश्वर उवाच
।।
इति श्रुत्वा
तु कवचं हरिर्ब्रह्मा सुरास्तथा ।
शक्रोऽपि कवचं
देहे न्यासं चक्रुः पृथक् पृथक् ।। ७० ।।
ईश्वर बोले-
इस कवच को सुन कर विष्णु, ब्रह्मा और इन्द्र ने भी अलग-अलग अपने शरीर में इसे न्यस्त
किया ॥७० ॥
ते तु
विन्यस्तकवचा महामायाप्रभावतः ।
उत्प्लुप्य सागरस्याम्भ
आसेदुः क्षितिमञ्जसा ।।७१।।
आसाद्य
पृथिवीं सर्वे ब्रह्मविष्ण्वादयः सुराः ।
नीलकूटं समासाद्य
कामाख्यां द्रष्टुमागताः ।। ७२ ।।
कवच का न्यास
किये वे,
ब्रह्मा-विष्णु आदि सभी देवगण भी,
महामाया के प्रभाव के कारण सागर के जल से ऊपर आकर पृथ्वी पर
पहुँच गये। वे पृथ्वी पर आकर नीलकूट पर्वत पर पहुँच कर कामाख्या का दर्शन करने
पहुँचे ।। ७१-७२ ।।
दृष्ट्वा
कामेश्वरीं देवीं केशवस्तां जगन्मयीम् ।
इदमाह स्वयं
ज्ञात्वा प्रभावं तत् प्रतिष्ठितम् ।। ७३ ।।
भगवान विष्णु
ने उस जगन्मयी कामेश्वरी देवी को देखकर तथा स्वयं उनके प्रभाव को जानकर उनकी
प्रतिष्ठा में यह कहा - ॥७३॥
।।
विष्णुरुवाच ।।
त्वमेव
प्रकृतिर्देवी त्वमेव पृथिवी जलम् ।
त्वमेव जगतां
माता त्वमेव च जगन्मयी ॥७४॥
विष्णु बोले-
आप ही प्रकृति देवी हैं, आप ही पृथ्वी एवं जल हैं। आप ही जगत् की माता हैं और आप
जगन्मयी भी हैं ॥ ७४ ॥
त्वं कर्त्री
सर्वजगतां विद्या त्वं मुक्तिदायिनी ।
परापरात्मिका
देवी स्थूलसूक्ष्मात्मिका तथा ।। ७५ ।।
आप समस्त जगत्
की कर्ता (रचयिता) हैं, आप मुक्तिदायिनी विद्या हैं, आप परा से भी परात्मिका देवी हैं,
आप स्थूल तथा आप ही सूक्ष्म भी हैं ॥ ७५ ॥
प्रसीद त्वं
महादेवि प्रसन्नायां शुभे त्वयि ।
देवाः सर्वे
प्रसीदन्ति चतुर्वर्गप्रदेऽनघे ।। ७६ ।।
हे महादेवी आप
प्रसन्न होइये। हे शुभे ! हे चारों पुरुषार्थो को प्रदान करनेवाली ! हे निष्पाप !
आपके प्रसन्न होने पर सभी देवता, प्रसन्न हो जाते हैं ॥७६॥
इति
श्रुत्वावचस्तस्य केशवस्य महात्मनः ।
प्रत्यक्षरूपा
कामाख्या हरिमाभाष्य चाब्रवीत् ।। ७७ ।।
उन महात्मा विष्णु
के इस प्रकार के वचन को सुनकर, कामाख्यादेवी प्रत्यक्षरूप में विष्णु को दर्शन दे,
बोलीं ॥७७॥
।। देव्युवाच
।।
केशव ब्रह्मणा
सार्धं सर्वैर्देवैस्तथा गणैः ।
मद्योनिसलिलेष्वद्य
स्नानं पानं कुरु द्रुतम् ।।७८।।
देवी बोलीं-
ब्रह्मा और सभी देवगणों के सहित हे विष्णु ! तुम मेरे योनि से निकले जल में स्नान
और उस जल का पान, शीघ्र करो ॥ ७८ ॥
ततस्त्वं निरहङ्कारः
परवीर्यसमन्वितः ।
आरुह्य गरुडं याहि
त्रिदिवं सह वेधसा ।।७९।
तब तुम घमण्ड रहित
हो तथा श्रेष्ठ वीर्य (पराक्रम) से युक्त हो, गरुड़ पर सवार हो, ब्रह्मा के साथ स्वर्ग को जाओ ।।७९।।
एवमुक्तो
महादेव्या केशवः सह वेधसा ।
योनिमण्डलतोयेषु
स्नानं पानं चकार ह ।।८० ।।
महादेवी
द्वारा ऐसा कहे जाने पर, ब्रह्मा के सहित भगवान विष्णु ने योनि-मण्डल के जल में
स्नान और उस जल का पान किया।। ८० ।।
कृतप्लावास्ततो
देवाः कृतस्नानश्च केशवः ।
गता देव्याश्च
सम्मत्या त्रिदिवं प्रति हर्षिताः ।।८१ ।।
तब स्नान किये
विष्णु तथा अन्य देवगण, देवी की सम्मतिपूर्वक हर्षित हो,स्वर्ग को गये ॥ ८१ ॥
गच्छन्तस्ते
देवगणाः सहिताः केशवेन च ।
ब्रह्मणा च
तदाद्राक्षुः कामाख्यां तां वियद्गताम् ।।८२ ।।
तब ब्रह्मा और
विष्णु के साथ जाते हुए उन देवगण ने उस समय स्वर्ग में स्थित,
कामाख्यादेवी को देखा ॥ ८२ ॥
नीलकूटसहस्राणि
योनिभिः सह तद्गतैः ।
ऊर्ध्वाधोभागयोगेन
ददृशुः संस्थितानि च ।।८३।।
उन्होंने
योनियों सहित, हजारों नीलकूटों को ऊपर नीचे जुड़े हुए, उन्हीं में स्थित देखा ॥ ८३ ॥
तानि
प्रत्येकतो देवा आरुह्यारुह्य तत्क्षणात् ।
पपुः सस्नुः
पूर्ववत् ते प्रीतिमापुस्तथातुलाम् ।।८४।।
उनमें से
प्रत्येक पर क्षणभर में पहले की भाँति चढ़ते-उतरते तथा स्नान एवं पान करते,
वे देवता अतुलनीय प्रसन्नता को प्राप्त हुए। ८४ ।।
निरामयास्तथा
जग्मुर्विस्मयाक्लिष्टचेतनाः ।
स्तुवन्तः
प्रस्तुवन्तश्च कामाख्यायोनिमण्डलम् ।।८५ ।।
वे रोग-दोष से
रहित,
विस्मययुक्त चित्तवाले होकर, कामाख्या के योनि- मण्डल की स्तुति और प्रस्तुति करते रहे ॥८५॥
ततो देवगुरुं
नत्वा मां स्तुत्वा च मया पुनः ।
विसृष्टास्त्रिदिवं
याता हर्षोत्फुल्लविलोचनाः ।। ८६ ।।
तब देवगुरु को
नमस्कार कर तथा मेरी स्तुति करने के पश्चात् मेरे द्वारा विसर्जित किये जाने पर,
हर्ष से खिले नेत्रों वाले, वे सब, स्वर्ग को चले गये ॥८६ ॥
माहात्म्यमीदृशं
देव्याः कामाख्यायास्तु भैरव ।
कवचं चेदृशं
प्रोक्तं तत्त्वमासाद्य पुत्रक ।
यथेष्टविनियोगेन
तामासाद्य सुखी भव ।।८७।।
हे पुत्र भैरव
! देवी कामाख्या का इस प्रकार का माहात्म्य और कवच कहा गया । उसे ग्रहण करो और उसे
यथोचित विनियोगपूर्वक अपना कर सुखी होओ ॥ ८७ ॥
कामाख्यायाश्च
माहात्म्यं किमन्यत् कथयामि ते ।
यस्य
योनिशिलायोगाल्लोहाद्या यान्ति स्वर्णताम् ॥८८ ।।
अब उस
कामाख्या देवी के माहात्म्य के विषय में तुम से और क्या कहूँ,
जिसके योनिमण्डल की शिला के स्पर्श से लोहा भी सोना हो जाता
है॥ ८८ ॥
यद्योनिमण्डले
स्नात्वा सकृत् पीत्वा च मानवः ।
नेहोत्पत्तिमवाप्नोति
परं निर्वाणमाप्नुयात् ।। ८९ ।।
जिसके
योनिमण्डल में एक बार स्नान करके या पान करके मनुष्य,
इस लोक में पुनः जन्म नहीं प्राप्त करता,
अपितु अन्त में निर्वाण को प्राप्त करता है ।। ८९ ॥
॥ इति
श्रीकालिकापुराणे कामाख्यामाहात्म्यवर्णननाम द्विसप्ततितमोऽध्यायः ॥७२॥
।। श्री
कालिकापुराण में कामाख्यामाहात्म्यवर्णनामक बहत्तरवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥७२॥
आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 73
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