गीतगोविन्द सर्ग ७ - नागर नारायण
कवि
श्रीजयदेवजीकृत गीतगोविन्द के सर्ग १ सामोद ,दामोदर सर्ग २ अक्लेश केशव, सर्ग ३ मुग्ध मधुसूदन, सर्ग ४ स्निग्ध मधुसूदन, सर्ग ५ आकाङ्क्ष-पुण्डरीकाक्ष तथा सर्ग ६ धृष्ट वैकुण्ठ को पिछले अंक में आपने पढ़ा । अब गीतगोविन्द
सर्ग
७ जिसका
नाम नागर नारायण है। साथ ही त्रयोदश सन्दर्भ अथवा अष्ट पदि १३ का वर्णन किया गया है।
श्रीगीतगोविन्दम् सप्तमःसर्गः नागर - नारायणः
गीतगोविन्द
सर्ग ७ नागर नारायण
Shri Geet govinda sarga 7 Naagar Narayan
गीत गोविन्द सातवाँ सर्ग नागर - नारायण
अथ सप्तमःसर्गः
नागर -
नारायणः
अत्रान्तरे च
कुलटा-कुल-वर्त्म-पात
सञ्जात-पातक
इव स्फुट - लाञ्छन - श्रीः ।
वृन्दावनान्तरमदीपयदंशु
- जालै-
दिक्सुन्दरी -
वदन - चन्दन - बिन्दुरिन्दुः ॥ १ ॥
अन्वय- अत्रान्तरे (अस्मिन् अवसरे) दिक्सुन्दरी-
वदन-चन्दन-विन्दुः (दिक् पूर्वा सैव सुन्दरी तस्याः वदने चन्दन विन्दुरिव इति
लुप्तोपमा) कुलटा-कुल-वर्त्मपात- सञ्जात-पातकः इव (कुलटानां कुलवर्त्मनः
कुलाचारात् यः पातः पातनः तस्मात् सञ्जातं पातकं तज्जात रोगविशेषो यस्य तथाभूत इव)
स्फुटलाञ्छनश्रीः (स्फुटा) सुव्यक्ता लाञ्छनस्य कलङ्कस्य श्रीः शोभा यस्मिन्
तादृशः यः खलु पातकी भवति स रोगविशेषचिह्नितो भवतीति भावः अनेन चन्द्रस्य
पूर्णप्रायता उक्ता ] इन्दुः (चन्द्रः) अंशुजालैः (किरण समूहैः) वृन्दावनान्तरम्
अदीपयत् ॥१॥
अनुवाद
- श्रीकृष्ण श्रीराधा के
समीप जाने के लिए सोच ही रहे थे कि इतने में पूर्व दिशारूपी सुन्दर वधू के वदन कमल
में चन्दन – बिन्दु के समान कुछ ही दूरी पर जैसे कुलटा स्त्री कुलधर्म का त्याग
करने पर जिस विशेषरोग को (क्षयरोग) भोग करती है, उसके चिह्न की भाँति अपने अङ्ग में कलंक को धारण करते हुए
सुस्निग्ध किरणों के द्वारा श्रीवृन्दावन धाम को अतिशय सुशोभित कर दिया।
पद्यानुवाद-
इसी समय 'कुलटा कुल' का 'संकेत गमन' अवरोधे ।
प्रकटित कर
लाञ्छन- श्री अपनी पातक को परिशोधे ॥
वृन्दावन के
कुंज मध्य अब इन्दु अंशसह हासे ।
दिशा –
सुन्दरी के मुख पर ज्यों चन्दन-बिन्दु विलासे ॥
बालबोधिनी
– मानिनियों के मान का
खण्डन करनेवाले पूर्ण चन्द्रोदय- मण्डल का वर्णन करते हुए कवि कहते हैं- जिस समय
श्रीराधा श्रीकृष्ण के विरह में सन्तप्त हो रही थीं, उसी समय पूर्ण चन्द्रमा ने वृन्दावन को अपनी किरणों से
प्रकाशित कर दिया। कुलटा-कामिनियों के मार्ग में बाधा उत्पन्न करने के कारण जिस
चन्द्रमा को पाप लग गया है, वह पाप उसकी मृगलाञ्छनी से स्पष्ट प्रतीत हो रहा है। अथवा
पूर्व दिशा रूपी सुन्दरी के मुखमण्डल को अलंकृत करनेवाले चन्दनबिन्दु की भाँति
अपने कलङ्क को धारणकर उस द्विजराज ने समस्त दिशाओं को अपने प्रकाश से अलंकृत कर
दिया। अथवा जिस प्रकार चन्दन का बिन्दु सुन्दरी के ललाट को समलंकृत करता है,
उसी प्रकार दिशारूपी सुन्दरी को चन्द्रमा ने समलंकृत किया।
पातक इव- दूसरे के मार्ग में जो बाधा उत्पन्न करता है,
उसे पापी माना जाता है। कुलटाएँ अपने प्रेमियों से मिलने के
लिए रात में ही निकलती हैं। अतः चन्द्रमा के उदित होने से अन्धकार प्रकाशित होने
लगता है,
जिससे कामिनियों के मार्ग में बाधा उत्पन्न होती है। इसी का
पाप चन्द्रमा में मृगलाञ्छन के रूप में प्रतीत हो रहा है।
चन्द्रमा एक
ओर तो सकलङ्क है, दूसरी ओर उन्मुक्त दिशाओं का शृङ्गार ।
प्रस्तुत
श्लोक में वसन्ततिलका छन्द है, रूपक तथा उत्प्रेक्षा अलङ्कार है।
प्रसरति
शशधर-बिम्बे विहित- विलम्बे च माधवे विधुरा ।
विरचित-
विविध-विलापं सा परितापं चकारोच्चैः ॥ २ ॥
अन्वय- शशधर - विम्बे ( चन्द्रमण्डले) प्रसरति ( उद्गच्छति)
माधवे (कृष्ण) कृतविलम्बे ( आगमने विलम्बं कृतवतिच) [सति ] विधुरा ( विरहाकुला)
राधा उच्चैः विरचित - विविध – विलापं (विरचितः कृतः विविधः विलापः विविधशङ्कारूपः यस्मिन् तद् यथा
तथा ) परितापं चकार ॥२॥
अनुवाद
- शशधर मण्डल पूर्ण रूप से
उदित हो गया है, माधव आने में विलम्ब कर रहे हैं, इसीलिए श्रीराधा विरह में सन्तप्त होकर विविध प्रकार का
उच्च स्वर से विलाप करती हुई बहुत अधिक परितापित होने लगीं।
पद्यानुवाद-
चढ़ता चन्द्र
गगन में लखकर हरि आगम में बाधा ।
बिलख बिलख
परितापमयी अति
से उठती है राधा ॥
बालबोधिनी
– चन्द्रमा के उदित होते ही
माधव के आने की आशा क्षीण होने लगी, अतएव श्रीराधा उनके विरह से बड़ी सन्तप्त हो गयीं। उसी
सन्ताप का वर्णन करते हुई सखी कहती है- अतिशय विधुर भाव से श्रीराधा बड़ी सन्तप्त
होकर उच्च स्वर से विलाप करने लगीं। चन्द्रमा का बिम्ब विस्तीर्ण हो रहा था और
माधव श्रीराधा से मिलने को आने के लिए विलम्ब कर रहे थे,
व्याकुल श्रीराधा फूट-फूटकर बिलखने लगीं।
प्रस्तुत
श्लोक में आर्या छन्द है ।
त्रयोदश:
सन्दर्भः
गीतम् ॥१३॥
गीतगोविन्द सर्ग ७ नागर नारायण- अष्ट पदि १३
मालवराग-
यतितालाभ्यां गीयते ।
अनुवाद
- यह तेरहवाँ प्रबन्ध मालव राग तथा यति ताल में गाया जाता है।
कथित -
समयेऽपि हरिरहह न ययौ वनं ।
मम
विफलमिदममलमपि रूपयौवनं ॥
यामि हे !
कमिह शरणं सखीजन-वचन- वञ्चिता ॥ १ ॥ध्रुवम् !
अन्वय
- अहह (खेदे)
कथित समये (निर्द्धारित समये, चन्द्रानुदय - काले इत्यर्थः) हरिः ( मन्मनोहरः ) [ मन्मनो
हत्वा इत्यर्थः] वनमपि न ययौ [ कुतोऽत्रागमनमित्यर्थः] इदं मम रूपयौवनं विमलमपि
(अनवद्यमपि ) [तेन बिना] विफलम् (व्यर्थम्); [अतएव ] हे [नाथ] सखीगण वचन - वञ्चिता (कृष्ण इह अचिरेणैव
स्वयमायास्यतीति सखीजनस्य आश्वासवचनेन वञ्चिता विप्रलब्धा) अहम् इह (अधुना ) कं
शरणं यामि ॥ १ ॥
अनुवाद
- मेरा अमल रूप यौवन व्यर्थ
ही है,
क्योंकि संकेत – काल में हरि वन में नहीं आये। सखियों से
वञ्चित अब मैं किसकी शरण में जाऊँ?
पद्यानुवाद-
बीत रहा
संकेत-समय पर वे न कुंज में आये
विफल रूप यौवन
नव मेरा जो न उन्हें यह भाये ।
मैं भोली ठग
गयी सखी के आश्वासन वचनों में
अब किसकी
शरणों में जाऊँ भूली-सी सपनों में ॥
बालबोधिनी
- विरह-वेदना की अतिशय
तीव्रता का अनुभव करती हुई श्रीराधा को अत्यन्त सन्ताप हो रहा है - सखी! तुमने तो
कहा था मैं उन्हें अभी लेकर आती हूँ, तुम यहीं रहो, पर तुमने भी मेरी प्रताड़ना कर दी। चन्द्रोदय से पहले यहाँ
संकेत कुंज में आने की बात थी, अब तो चन्द्रमा गगन में अधिकाधिक उठता जा रहा है,
तुम्हारे झूठे आश्वासनों ने मुझे ठग लिया है। मेरा यह
निर्मल-अनवेद्य रूप-यौवन व्यर्थ ही प्रतीत होता है। यदि ये सार्थक होते तो वे
अवश्य यहाँ उपस्थित होते ।
'अहह'
पद से श्रीराधा का गहन कष्ट सूचित होता है। हे शब्द का
प्रयोग सम्बोधनपरक है।
यदनुगमनाय
निशि गहनमपि शीलितं ।
तेन मम
हृदयमिदमसमशर-कीलितम्- यामि हे ! कमिह... ॥२॥
अन्वय- यदनुगमनाय (यस्य कृष्णस्य अनुगमनाय निरन्तरं सङ्गमाय) निशि
(रात्रौ ) [गृहवासं विहाय ] गहनमपि (निविड़मपि)
वनं शीलितं (सेवितम्),
तेन (कृष्णेन
हेतुना) इदं मम हृदयम् असमशर-कीलितं (असम-शरेण पञ्चबाणेन कामेन कीलितं नितरां
विद्धमित्यर्थः ) [ हे नाथ सखीजन- वञ्चिता इह कं शरणं यामीति सर्वत्र योजनीयम् ] ॥
२ ॥
अनुवाद
- हाय! जिनका अनुसरण करनेके
लिए मैं इतनी गहन निशा में इस बीहड़ वन में भी आ गयी और वही मेरे हृदय को कामबाणों
से बेध कर रहा है। हाय! मैं किसकी शरण में जाऊँ?
पद्यानुवाद-
जिसकी मिलन-
चाह ले इतनी गहन निशामें आयी ।
वही हृदयको
मदन- शरोंसे छेद रहा री मायी ॥
बालबोधिनी
- श्रीराधा कहती हैं कि जिनके साथ मिलन के लिए मैं एकान्त
निर्जन कानन में आयी, उसी ने मेरे हृदय में काम की कील ठोक दी है या काम का कोई
बीजमन्त्र ऐसा कीलित कर दिया है कि मैं कहीं की नहीं रही। 'अपि' से तात्पर्य है ऐसा मैंने पहले कभी नहीं किया था।
मम मरणमेव
वरमिति- वितथ- केतना ।
किमिति
विषहामि विरहानलमचेतना-
यामि हे !
कमिह...॥३॥
अन्वय- अति- वितथ - केतना ( अतिवितथं नितान्तव्यर्थं केतनं देहः
यस्याः तादृशी) [कृष्णविरहेण ] अचेतना च [ अम् ] इह (अधुना ) किं (कथं ) विरहानलं
विषहामि [ अतः ] मरणमेव वरं ( श्रेष्ठम् ॥३॥
अनुवाद
- यह शरीर धारण करना व्यर्थ है, मुझे मर जाना चाहिए। मैं अचेत हो रही हूँ,
अब यह दुःसह विरहानल कैसे सहन करूँ ?
पद्यानुवाद-
विरह - अनलमें
जलूँ कहाँ तक ? हुआ विधाता वाम ।
मरना ही अच्छा
है अब तो, व्यर्थ हुई बदनाम ॥
बालबोधिनी- मैं भ्रष्ट हो रही हूँ, जिनके साथ संगम के लिए मैं घोर अन्धकारपूर्ण रात्रि – काल में
गम्भीर वन में बैठी रही, विह्वल और अचेतन हो गयी, मैं उनके विरह से कितनी अधीर हो रही हूँ,
मैं कहाँ जाऊँ, मेरा तो मरना ही अच्छा है, कितना विरह ताप सहन करूँ मैं, आशा के सभी संकेत झूठे हो गये हैं। मेरा यह शरीर व्यर्थ ही
है,
नहीं तो हरि ऐसी उपेक्षा नहीं करते,
सखी की बातों में आकर मैंने यहाँ आने का साहस कर लिया,
पर मेरे सारे प्रयास व्यर्थ हैं,
जीना व्यर्थ है।
मामहह
विधुरयति मधुर-मधु - यामिनी ।
कापि
हरिमनुभवति कृत- सुकृत-कामिनी-
यामि हे !
कमिह... ॥४ ॥
अन्वय- अहह (खेदे मधुर - मधुयामिनी) (मधुरा मनोहारिणी मधुयामिनी
वासन्ती रात्रिः ) मां विधुरयति (व्याकुली करोति या वासन्ती निशा दूरस्थमपि प्रियं
सङ्गमयति, सैव सुकृताभावात् मां विधुरयतीति भावः) । कापि
कृतसृकृत-कामिनी ( कृतं सुकृतं यया तादृशी कामिनी भाग्यवती रमणी) हरिम् अनुभवति (
तेन सह रहः केलिसुखमनुभवतीत्यर्थः) ॥४॥
अनुवाद
- ओह ! यह कैसा दुर्भाग्य
है मेरा । यह सुमधुर वसन्त की रात्रि मुझको विरह वेदना से अधीर कर रही है और उधर
ऐसे समय में निश्चित ही कोई कामिनी अपने पुण्य के फलस्वरूप परम सुख से श्रीकृष्ण के
साथ रतिसुख का अनुभव कर रही है।
पद्यानुवाद-
इधर मधुर यह
रात मुझे अब रह रह रुला रही है।
उधर अन्य कृत
सुकृत कामिनी हरिको भुला रही है ॥
बालबोधिनी
- अन्तर हृदय की विकट विरह-वेदना को अभिव्यक्त करती हुई
श्रीराधा कहती हैं- परमसुखस्वरूपा वसन्त ऋतु की ये सरस रात्रियाँ मुझे अतिशय
व्यथित कर रही हैं, दूसरी ओर कोई सुकृतशालिनी किशोरी श्रीकृष्ण के साथ
रति-क्रीड़ा का रसास्वादन कर रही है। उस विलासिनी के प्रेमपाश में बँधकर रमण करते
हुए श्रीकृष्ण इस संकेत- भूमि पर नहीं आये। कितनी सुकृति का अभाव है?
मैं विरह-विधुरा होकर विलाप कर रही हूँ और दूसरी उनके साथ
रति – सुख का अनुभव कर रही है।
विश्वकोष में
विधुर का तात्पर्य 'विकलता' से है ।
अहह कलयामि
वलयादि- मणि- भूषणम् ।
हरि - विरह -
दहन - वहनेन बहु-दूषणम् –
यामि हे !
कमिह... ॥५ ॥
अन्वय- अहह, हरि - विरह - दहन - बहनेन (हरिविरह एव दहनो वह्निः तस्य
वहनेन धारणेन) वलयादि- मणि-भूषणं (मत्परिहित-कङ्कणादि-रत्नालङ्कारः) बहुदूषणं
(बहूनि दूषणानि यस्य तत् अत्यधिक-दोषावहं विरहानलसन्धुक्षितत्वात्
अतिक्लेशकरमित्यर्थः) कलयामि (मन्ये) [प्रियावलोकफलोहि स्त्रीणां वेश इत्युक्तेः
]॥५॥
अनुवाद - हाय ! मणिजड़ित बलयादि आभूषण समुदाय मेरे विरहानल को
उद्दीपित कराकर मुझे अशेष दुःख प्रदान कर रहा है। अतः यह तो दोषयुक्त ही प्रतीत हो
रहा है।
पद्यानुवाद-
मणि- भूषण
दूषण लगते हैं,
पिय बिन कुछ न
सुहाता ।
बालबोधिनी
- आह ! सखि ! तुमने बड़ा छल
किया। मैंने पुष्पों - पल्लवों, मणियों से सजे इतने आभूषणों से शरीर को सजाया,
पर सभी हरि के विरह की आग में अनल सदृश ही प्रतीत हो रहे
हैं। मदन की वेदना से शरीर विरहाग्नि में तप्त हो रहा है। अब ये आभूषण नहीं रहे,
अभिशाप हो गये हैं, क्योंकि प्रिय के अवलोकन का फल ही रमणियों का सौन्दर्य एवं
परिधान है अथवा अलङ्कार का प्रियत्व तो तभी अनुभव होता है,
जब कोई उनको प्रेमपूर्वक देखनेवाला हो। अतः इनसे प्रियत्व की
प्रतीति नहीं, दोष की प्रतीति होती है।
कुसुम -
सुकुमार- तनुमतनु-शर लीलया ।
स्रपि हृदि
हन्ति मामतिविषम-शीलया-
यामि हे!
कमिह... ॥६॥
अन्वय
- [ का
कथान्यभूषणानाम् ] - [ तत्प्रीत्यै ] हृदि (हृदये) [निहिता ] स्रक् अपि
(कुसुममाल्यमपि अतिसुकोमल- सुखस्पर्शमपीति भावः) अतिविषमशीलया (अतिविषमम्
अतिदारुणं शीलं स्वभावो यस्यास्तादृश्या; अन्यस्तु बाणः क्षतुमुत्पाद्य व्यथयति,
कामबाणस्तु
विध्यन् अन्तर्भिनत्तीति विषमशीलत्वमस्य ) अतनु-शरलीलया (कामबाण - विलासेन) कुसुम
- सुकुमार-तनुं (कुसुमतः अपि सुकुमारी तनुः यस्याः तादृर्शी;
तत्सहन -
सामर्थ्यमपि नास्त्यस्या इत्यर्थः) मां हन्ति ( निपीड़यति ॥ ६ ॥
अनुवाद
- ( दूसरे आभूषणों की तो बात ही क्या) मेरे वक्षःस्थल पर
स्थित यह वनमाला अतिशय कोमल कुसुम से भी सुकुमार मेरे शरीर को भी काम शर की भाँति
विषम रूप से आघात प्रदान कर रही है।
पद्यानुवाद-
कुसुम देह पर
कुसुम हार था,
वहन नहीं हो
पाता।
बालबोधिनी - हे कान्त ! दूसरे आभूषणों की बात क्या कहूँ, उनकी प्रसन्नता के लिए जो वनमाला हृदय पर धारण करती हूँ,
वही कामदेव का अस्त्र बनकर मेरे प्राण ले लेती है,
काम- बाण की भाँति हृदय को बेधने लगती है तथा उसका प्रहार
इतना विषमय और असह्य होता है कि कुसुम से भी अतिशय सुकुमार देह उसकी विषमता को सहन
नहीं कर पाती है। बाणों से शरीर क्षत-विक्षत होता है तो मानो सामान्य - सी पीड़ा
होती है,
किन्तु इन कामबाणों के द्वारा बिधे हृदय की व्यथा सह्य नहीं
होती।
अहमिह
निवासामि न गणित - वनवेतसा ।
स्मरति
मधुसूदनो यामपि न चेतसा-
यामि हे !
कमिह... ॥७ ॥
अन्वय- मधुसूदनः चेतसा (मनसा) अपि मां न स्मरति [ अहो अस्थिर -
सौहृदं मधुसूदनस्य ] । अहं [पुनः] [भीतिमगणय ] न गणितवन - वेतसा ( न गणितं
वनवेतसम् अतीवक्लेशकरमिति भावः, यया तादृशी) इह (भयङ्करे वने ) [ तत्समागमाकाङ्क्षया]
निवसामि [ अहो मे मूढ़ता] ॥७॥
अनुवाद
- मैं यहाँ भयानक वेतस वन में भी निर्भय होकर श्रीकृष्ण के
लिए बैठी हूँ, किन्तु कितने आश्चर्य की बात है कि वे मधुसूदन मुझे एक बार भी स्मरण नहीं
करते।
पद्यानुवाद-
जिनके लिए
त्याग महलोंको बैठी वेतस वनमें।
क्या आ पायी
सुधि भी मेरी क्षण भर उनके मनमें ॥
बालबोधिनी
- श्रीराधा दैन्य प्रकाश
करती हुई कहती है कि श्रीमधुसूदन से मिलने के लिए सखी की बात मानकर मैं इस भयङ्कर
वन के भीतर निर्भय होकर बैठी हूँ, परन्तु मधुसूदन को मेरी कोई चिन्ता नहीं है,
उनका सुहृदय बड़ा अस्थिर है, बड़े आश्चर्य की बात है कि इस बीहड़ वन में जिनके लिए मैं
प्रतीक्षा कर रही हूँ, वे मेरा एक बार भी स्मरण नहीं करते। हाय! हाय! यह मेरा ही
दुर्भाग्य है।
हरि-चरण-शरण-
जयदेव - कवि - भारती ।
वस्तु हृदि
युवतिरिव कोमल-कलावती-
यामि हे !
कमिह... ॥८ ॥
अन्वय- कोमल-कलावती (कोमला माधुर्यगुणसम्पन्ना कलावती कवित्व -
कला - शालिनी च) हरि-चरण-शरण-जयदेव-कवि - भारती (हरिचरण मेव शरणम् आश्रयो यस्याः
तथाभूता जयदेवकवेः भारती वाणी) [यूनां हृदये कोमल कलावती कोमला मृद्वङ्गी कलावती
रति-कलानिपुणा ] युवतिरिव [ रसज्ञानां भक्तानां ] हृदि (हृदये) वसतु] ॥८ ॥
अनुवाद
- कोमल वपुवाली मनोहर लावण्यवती कला-समलंकृत युवती जैसे
सुन्दर गुणों वाले युवकों के मन में सदा विराजमान रहती है,
वैसे ही श्रीकृष्ण के चरणों के शरणागत श्रीजयदेव कवि द्वारा
विरचित यह सुललित गीति भक्तजनों के मन में सदा विराजमान हो ।
पद्यानुवाद-
मंजुल वंजुल
लता-कुंजमें मुझे बुलाये एकाकी ।
कहाँ विलसने
लगे छली वे, झलकी किसकी झाँकी ॥
बालबोधिनी
- जयदेव कवि कहते हैं कि
उनके रक्षक एकमात्र श्रीकृष्ण के चरण ही हैं। उनसे अलग उनका और
कोई रक्षक
नहीं है। जयदेव रचित कविता कोमल वर्णमयी और काव्य-सौष्ठव की कलाओं से समलंकृत है -
यह कविता भक्तों के हृदय में उसी प्रकार स्थान प्राप्त करे,
जिस प्रकार कोमल वपुवाली तथा शृङ्गार आदि रसवर्द्धिनी छह
कलाओं से विशिष्ट कोई सुन्दरी अपने नायक के हृदय में विराजती है। यथा लावण्य
विभूषिता कोई नायिका अपने नायक के मन को अत्यधिक आनन्द प्रदान किया करती है,
उसी प्रकार यह काव्य भक्तों के हृदय को भी आनन्दित करे यह
कवि की कामना है।
तत्कि कामपि
कामिनीमभिसृतः किं वा कलाकेलिभि-
बद्धो
बन्धुभिरन्धकारिणि वनाभ्यर्णे किमुद्भ्राम्यति ।
कान्त !
क्लान्तमना मनागपि पथि प्रस्थातुमेवाक्षमः
संकेतीकृत-मञ्जु
- वञ्जुल - लता - कुजेऽपि यन्नागतः ॥ १ ॥
अन्वय- [कृष्णागमन-विलम्बे तर्कयति ] -कान्तः (कृष्णः)
सङ्केतीकृत-मञ्जु - वञ्जुल - लता - कुजेऽपि (सङ्केतीकृतं मञ्जु मनोज्ञं यत् वञ्जुल
- लतानां वेतसलतानां कुञ्ज तस्मिन्नपि ) यत् (यस्मात्) न आगतः तत् (तस्मात्) किं
कामपि (अभिनव - प्रेमवन्धुरां) कामिनीम् अभिसृतः (उपगतः ) ?
[ मय्येव
दृढानुरागोऽसौ कथमन्यामभिसारिष्यतीति वितर्कान्तरमाह ] - किंवा वन्धुभिः (मित्रैः)
कलाकेलिभिः (कलानां गीतादीनां केलिभिः क्रीड़ाकौशलैः) बद्धः (आसक्तीकृतः );
[कृताभिसारसमये
अस्मितदपि न सम्भवतीति विचिन्त्य वितर्कान्तरमाह ] - [ मामभिसरन् तरूणां
नीरन्ध्रतया ] अन्धकारिणि वनाभ्यर्णे (वनप्रदेशे) किम् उद्भ्राम्यति [
पन्थानमविदित्वेति भावः ] ; [चतुरशिरोमणेः सहस्रशो ऽनुभूतस्थले भ्रमः कथं स्यादिति
विचिन्त्य निश्चिनोति ] - क्लान्तमनाः (मद्विश्लेषदुःखेन चन्द्रोदयानन्तरं तस्याः का दशा भवेदिति चिन्तया च
क्लान्तम् उपतप्तं मनो यस्य तादृशः ) [ सन् ] पथि मनागपि (अल्पमपि ) प्रस्थातुम्
अक्षम एव ॥ १ ॥
अनुवाद
- संकेत स्थल रूपमें
निर्दिष्ट मनोहर लताकुञ्जमें मेरे प्राणवल्लभ श्रीकृष्ण क्यों नहीं आये?
इसका क्या रहस्य है? क्या वे किसी दूसरी कामिनीके साथ अभिसार करने चले गये ?
क्या अपने सखाओंके साथ क्रीड़ा-आमोदमें प्रमत्त हो
निर्दिष्ट समयका उन्होंने अतिक्रमण कर दिया है? क्या सघन वृक्षोंकी छायामें घोर अन्धकारके कारण संकेत-स्थली
न मिलने पर इधर-उधर भटक रहे हैं? क्या मेरे विरहमें अत्यन्त क्लान्त हो एक कदम भी चल पानेमें
असमर्थ हो गये हैं?
पद्यानुवाद-
अथवा आये यहीं
हाय पर, छाई अति अँधियारी,
यहाँ-वहाँ
क्या मुझे खोजते, भटक रहे वनवारी ?
श्रीहरि-चरण-शरण
'कवि जय की प्रमदा सम मृदुवाणी
भक्तोंके
भावुक हृदयोंमें गूँज उठे कल्याणी ॥
बालबोधिनी
– श्रीकृष्ण के संकेत स्थल
पर न आने के कारण विरहिणी राधिका मन-ही-मन कितने प्रकार के सन्देह - संशय कर रही
हैं उनके न आने का कारण क्या हो सकता है? मनः कल्पित सन्देहों को प्रस्तुत करती हुई श्रीराधा कहती है,
यह मनोहर वेतस - लतागृह हम दोनों के मिलन का संकेत स्थान था,
फिर उन्हें क्या हो गया? वे क्यों नहीं आये? क्या वे दूसरी नायिका के साथ अभिसार करने चले गये ?
पर मेरे प्रति उनका अनुराग कम कैसे हो सकता है?
मुझे यहाँ ऐसे ही छोड़कर वे अन्यत्र विहार कैसे कर सकते हैं?
क्या केलिपरायण और कलापरायण उनके बान्धवों ने उन्हें यहाँ
आने से रोककर क्रीड़ावनि में ही रख लिया? यह भी संभव नहीं है, क्योंकि वे अभिसार के समय को किस प्रकार भूल सकते हैं?
ऐसा लगता है वे चतुर चूड़ामणि अन्धकार की अधिकता के कारण
मुझको प्राप्त न कर सकने के कारण मुझे इधर-उधर ढूँढ़ रहे हों,
पर वे तो इस वन में अभिसार के लिए कितनी ही बार आये होंगे !
वे परिचित पथ कैसे भूल सकते हैं? यह भी संभव नहीं है। तो क्या वे मुझसे विच्छिन्न होने से
क्लान्त होकर चलने में ही असमर्थ हो गये हैं? अथवा चन्द्रोदय के पश्चात् श्रीराधा की दशा कैसी होगी,
यह सोचकर विच्छेद दुःख से कातर होकर यहाँ नहीं आये?
प्रस्तुत पद में
शार्दूलविक्रीडित छन्द तथा संशय नामक अलङ्कार है।
अथागतां
माधवमन्तरेण सखीमियं वीक्ष्य विषादमूकाम् ।
विशङ्कमना
रमितं कयापि जनार्दनं दृष्टवदेतदाह ॥ २ ॥
अन्वय - [ चन्द्रोदयेन श्रीकृष्णागमनप्रतिवन्धे सति तं बिना सख्या आगमने तस्या विप्रलब्धावस्थां वर्णयितुमाह ] - [विप्रलब्धालक्षणं यथा - "प्रियः कृत्वापि सङ्केतं यस्या नायाति सन्निधिम्। प्रिलब्धेति सा ज्ञेया नितान्तमवमानिता ।।" इति साहित्यदर्पणे ।।] अथ (वितर्कानन्तरं ) माधवम् अन्तरेण (हरिं बिना) आगतां [अतः] विषादमुकां (दुःखातिशयेन वक्तुमशक्ताम् अकृत-कार्यत्वादित्यर्थः) सखीं वीक्ष्य इयं (राधा) जनार्दनं कयापि रमितं दृष्टवत् (दृष्टमिव) विशङ्कमाना [सती] एतत् ( वक्ष्यमाणं वचनम् ) आह ॥ २ ॥
अनुवाद
– माधव के बिना सखी को आया देख विषण्ण चित्त से मौन धारणकर
श्रीराधा आशंकित होकर सोचने लगीं- जनार्दन किसी और कामिनी के साथ रमण कर रहे हैं क्या
?
बालबोधिनी
- चन्द्रोदय हो जाने के
कारण श्रीराधा, श्रीकृष्ण के संकेत स्थल पर न आने के कितने ही कारणों का अनुमान कर रही थीं और
सखी को श्रीकृष्ण के बिना लौटती देखकर वह विप्रलब्धा स्थिति की पराकाष्ठा को
प्राप्त हो गयीं । दारुण वेदना के कारण कुछ भी बोलने में असमर्थ हो गयीं। सखी भी
विषण्ण अवस्था को प्राप्त कर अवाक् थी। सखी को मौन देखकर यह अनुमान लगा लिया कि
ब्रजराजनन्दन किसी अन्य नायिका के साथ रमण करते हुए देखने के कारण ही यह उदास एवं
मौन हैं,
इसलिए कुछ बोल नहीं रही हैं। श्रीराधा विलाप कर
उठीं-जनार्दन हैं न – लोगों को पीड़ा देना ही तो उनका काम है-अतः मुझे भी पीड़ित
कर रहे हैं।
विप्रलब्धा
नायिका - निरन्तर अभिवर्द्धित अनुराग के कारण नायिका दूती को भेजकर पहले किसी
संकेत - स्थल पर पहुँच जाती है, परन्तु दैवयोग से निर्दिष्ट समय बीत जाने पर भी नायक वहाँ
उपस्थित न हो तो वह नायिका विप्रलब्धा कहलाती है।
प्रस्तुत
श्लोक में उपेन्द्रवज्रा छन्द है ।
इति त्रयोदशः सन्दर्भः ।
आगे पढ़ें........ गीतगोविन्द सर्ग 7 अष्ट पदि 14
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