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मूल शांति पूजन विधि
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
दक्षिणामूर्ति स्तोत्र
श्री दक्षिणा
मूर्ति स्तोत्र जगद्गुरु आदि शंकराचार्य द्वारा लिखा गया था। दक्षिणामूर्ति (शिव)
भगवान,
गुरु और स्वयं (आत्मान) के रूप में तीन अलग-अलग रूपों में
प्रकट होते हैं। भजन के दसवें श्लोक में आत्मा की सर्वव्यापकता स्पष्ट रूप से बताई
गई है।
दक्षिणामूर्तिस्तोत्रं या दक्षिणामूर्तिष्टकम्
Dakshina murti stotram
॥ शान्तिपाठः ॥
ॐ यो ब्रह्मणं
विदधाति पूर्वम्
यो वै वेदांशश्च प्रहिनोति तस्मै।
तं ह
देवमात्मबुद्धिप्रकाशम्
मुमुक्षुर्वै शरणमहं प्रपद्ये ॥
ॐ शांतिः
शांतिः शांतिः
स्तोत्र से
पहले इस श्लोक का जाप किया जाता है। ॐ । मैं उसके प्रति समर्पण करता हूं,
जिसने सृष्टि की शुरुआत में ब्रह्मा को प्रक्षेपित किया और
वेदों को प्रकट किया। प्रेरणा मेरी बुद्धि को आत्मा की ओर मोड़ती है। हम पर सदैव
शांति बनी रहे।
श्रीदक्षिणामूर्तिस्तोत्रं या दक्षिणामूर्तिष्टकम्
विश्वं
दर्पणदर्शनमानगर्यतुल्यं निजान्तर्गतं
पश्यन्नात्मनि मया बहिरिवोद्भूतं यथा
निद्राय।
यः
साक्षात्कुरुते प्रबोधसमये स्वात्मानमेवाद्वयं
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं
श्रीदक्षिणामूर्तये ॥ ॥
दर्पण में
दीखती हुई नगरी के समान, यह तमाम नामरूपात्मक विश्व, अपने सच्चिदानन्द स्वरूप
व्यापक आत्मा के भीतर दृश्यमान है, यानी इस
कल्पित-प्रतीतिमात्र विश्व का आधार - अधिष्ठान एकमात्र- आत्मा ही है । जैसे
निद्रा-दोष से तीन काल में भी अविद्यामान स्वप्न- प्रपश्च सत्य की तरह बाहर
उत्पन्न हुए के समान, स्वप्न साक्षी तैजस- आत्मा में प्रतीत
होता है । तद्वत् यह जाग्रत प्रपञ्च तीन काल में भी अविद्यमान होने पर विशुद्ध
आत्मा में माया-शक्ति से सत्यकी तरह भासता है । इस प्रकार जो इस द्वैत-प्रपञ्च को
मिथ्या- मायामय निश्चय करके श्रीशङ्कर महादेव के समान श्रीगुरुदेव की कृपा से
अद्वैत ब्रह्मात्म-तत्त्व का बोध प्राप्त करता है, उसकी
दृष्टि से द्वैत-प्रपञ्च का सुतरां अत्यन्त अभाव हो जाता है। ऐसा अद्भुत
साक्षात्कार जिस शिवरूप गुरु के अनुग्रह से प्राप्त है, ऐसे
श्रीगुरुमूर्तिरूप श्रीदक्षिणामूर्ति भगवान् श्रीमहादेव को यह मेरा
श्रद्धाभक्तियुक्त नमस्कार है ।
बीजस्यान्तरिवाङ्कुरो
जगदिदं प्राणनिर्विकल्पं पुनः आरंभ
मायाकल्पितदेशकालनावैचित्रयचित्रकृतम् ।
मायावीव
विजृंभयत्यपि महायोगीव यः स्वेच्छया
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं
श्रीदक्षिणामूर्तये ॥ 2॥
जैसे बीज के
भीतर अव्यक्तरूप से अङ्कुर रहता है, तद्वत् यह दृश्यमान जगत् पूर्व में अव्यक्तरूप से माया विशिष्ट
निर्विकल्प – ब्रह्म में वर्तमान था । पश्चात् अघटघटनापटीयसी माया – शक्ति के
प्रभाव से अध्यस्त देश, काल, नाम,
रूप, आदि की विचित्र कल्पना द्वारा चित्र के
समान व्यक्तरूप से प्रकट हुआ। जैसे मायावी ( जादूगर ) या महायोगी अपनी विलक्षण-
इच्छाशक्ति के द्वारा अनेक रूप से प्रकट हो जाता है, तद्वत्
जो परमात्मा अपनी शक्ति के द्वारा एक से अनेकों रूप बनकर विविध-विलासों का अनुभव
करता है, 'एकोऽहं बहुस्यां प्रजायेय' (श्रुति) । ऐसे श्रीगुरुमूर्ति रूप श्रीदक्षिणामूर्ति भगवान् श्रीमहादेव को
यह मेरा श्रद्धाभक्तियुक्त नमस्कार है ।
यस्यैव
स्फुरणं सदात्मकमसत्कल्पार्थकं भासते
साक्षात्तत्त्वमसीति वेदवचसा यो
बोधयत्यश्रितान् ।
यत्ससाक्षात्करणाद्भवेन्न
चार्जर्भवाम्भोनिधौ
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं
श्रीदक्षिणामूर्तये ॥ 3॥
जिसकी
सत्ता-स्फूर्ति, असत्के
समान मिथ्या द्वैत-प्रपञ्च में अनुगत होने के कारण मिथ्या-प्रपञ्च भी सत्की तरह
प्रतीत होता है । जो जगद्गुरु विश्वनाथ अपने अनन्य शरणागत-शिष्यों को 'तत्त्वमसि' वह तू है, उससे
भिन्न नहीं; इस प्रकार वेद-वाक्यों के द्वारा साक्षात्
स्वस्वरूप का उपदेश करते हैं। जिसके साक्षात् करने पर इस भीषण- संसाररूपी महासागर में
जन्म-मरणरूपी पुनरावृत्ति नहीं होती है । ऐसे श्रीगुरुमूर्तिरूप श्रीदक्षिणामूर्ति
भगवान् श्रीमहादेव को यह मेरा श्रद्धा- भक्तियुक्त नमस्कार है ।
नानाच्छिद्रघटोदरस्थितमहादीपप्रभास्वरं
ज्ञानं यस्य तु चक्षुरादिकरणदेव बहिः
स्पंदते ।
जानामेति तमेव
भन्तमनुभत्येत्समस्तं जगत्
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं
श्रीदक्षिणामूर्तये ॥ 4॥
छोटे-छोटे
अनेक छेदवाले घट के भीतर स्थित बड़े दीपक के प्रकाश के समान प्रकाशवाले जिस चेतन
आत्मा का ज्ञान, चक्षुआदि
इन्द्रियों के द्वारा बाहर प्रकाशित होता है, जिससे मैं रूप को
जानता हूँ, शब्द को सुनता हूँ, इत्यादि
अनुभव प्राणीमात्र को होता है। इसलिये उस चेतन आत्मा के प्रकाश होने के बाद ही यह
समस्त चराचर जगत् प्रकाशित होता है। ऐसे श्रीगुरुमूर्तिरूप श्रीदक्षिणामूर्ति
भगवान् श्रीमहादेव को यह मेरा श्रद्धा-भक्तियुक्त नमस्कार हैं।
देहं प्राणपिन्द्रियण्यपि
चलं बुद्धिं च शून्यं विदुः
स्त्रीबन्धजदोपमास्त्वहमिति भ्रान्ता
भ्रष्टाचार वादिनः।
मायाशक्तिविलासकल्पितमहा
व्यामोहसंहारिणे
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं
श्रीदक्षिणामूर्तये ॥ 5॥
जो स्त्री के
समान विवेकहीन हैं, बालक के समान दुराग्रही हैं एवं उन्मत्त के समान बुद्धिहीन हैं, ऐसे विषयासक्त मूढ़ लोग देह, प्राण, इन्द्रिय, चञ्चल-बुद्धि एवं शून्य को ही 'अहं' ( मैं ) कहते हैं, इसलिये
वे लोग भ्रान्त होने के कारण मिथ्या बकवादी माने जाते हैं । भगवान् श्रीशङ्कर अपने
शरणागत शिष्यों के हृदय से मायाशक्ति का कार्य जो कल्पित महामोह है, उसके नाश करनेवाले हैं। ऐसे श्रीगुरुमूर्ति- रूप श्रीदक्षिणामूर्ति भगवान्
श्रीमहादेव को यह मेरा श्रद्धाभक्तियुक्त नमस्कार है ।
उग्रप्रभावितदिवाकरेन्दुसदृशो
मायासमाच्छादनात्
सन्मात्राः कारणोपसंहारतो योऽभूतसुसुप्तः
पुमान् ।
प्रगस्वप्समिति
प्रबोधसमये यः प्रत्यभिज्ञायते
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं
श्रीदक्षिणामूर्तये ॥ 6॥
जैसे राहु से
सूर्य और चन्द्रमा आच्छादित होता है, तद्वत् सन्मात्र चेतन आत्मा भी माया से आच्छादित होता है ।
इसलिये वही आत्मा चक्षुरादि बाह्यकरण एवं बुद्धयादि आभ्यन्तर करण का विलय करके
सुषुप्त होता है। यानी अज्ञान की गोद में सो जाता है। और वही आत्मा जाग्रत होकर 'मैं पूर्व में सोया था' 'अब जाग रहा हूँ' ऐसा पूर्वापर का अनुसन्धान करके स्वयं जानता है, एवं
अन्य से कहता भी है । ऐसे श्रीगुरुमूर्तिरूप श्रीदक्षिणामूर्ति भगवान् श्रीमहादेव को
यह मेरा श्रद्धाभक्तियुक्त नमस्कार है।
बाल्यादिश्वपि
जाग्रदादिषु तथा सर्वस्ववस्थास्वपि
व्यावृत्तास्वनुवर्तमानमहमित्यन्तः
स्फूरान्तं सदा।
स्वात्मानं
प्रकटैक्रोति भजतां यो मुद्रय भद्रया
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं
श्रीदक्षिणामूर्तये ॥ 7॥
बाल्य, कौमार, आदि एवं
जाग्रत्, स्वप्न आदि समस्त परस्पर व्यभिचारी अवस्थाओं में जो
अनुस्यूत है, यानी जो इन समस्त अवस्थाओं का साक्षी है,
और इन विकारी अवस्थाओं के आने जाने पर भी जो कूटस्थ, एकरस, एवं निर्विकार रहता है । जो बुद्धिरूपी गुहा के
भीतर 'अहं' ( मैं हूँ ) इस
प्रकार के अनुभव से सदा प्रकाशित है । जो श्रद्धा विश्वास पूर्वक एकाग्रता से भजन
करनेवाले महानुभाव हैं, उनके लिये भगवान् श्रीशङ्कर
भद्रामुद्रा के द्वारा उपदेश से अपने सर्वात्मस्वरूप को प्रकट करते हैं, ऐसे श्रीगुरुमूर्तिरूप श्रीदक्षिणामूर्ति भगवान् श्रीमहादेव को यह मेरा
श्रद्धा भक्तियुक्त नमस्कार है ।
विश्वं पश्यति
कार्यकारान्तया स्वस्वामीसंबन्धतः
शिष्याचार्य तथैव पितृपुत्रद्यात्मनात:
भेद।
स्वप्ने
जाग्रति वा य एष पुरुषो मायापरिभ्रमितः
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं
श्रीदक्षिणामूर्तये ॥ 8॥
शरीररूपी पुरी
में शयन करनेवाला यह जीव, माया के वश होकर चारों तरफ रात्रि दिन भ्रमण करता रहता है, कभी स्वप्न में जाता है तो कभी जाग्रत् में। और कार्यकारण के भाव से,
स्वस्वामी के सम्बन्ध से, शिष्य आचार्य के भाव
से तथा पिता, पुत्र, पति, पत्नी आदि के भेद से इस चराचर विश्व को देखता है, ऐसे
श्रीगुरुमूर्ति श्रीदक्षिणामूर्ति भगवान् श्रीमहादेव को यह मेरा
श्रद्धा-भक्तियुक्त नमस्कार है ।
भूर्भांस्यनलोऽनिलोऽम्बरमहर्नाथो
आमानः पुमान्
इत्याभाति चराचरात्मकमिदं यस्यैव
मूर्त्यष्टकम्।
नान्यत्किञ्चन
विद्यते विमृशतां यस्मात्परसमाद्विभोः
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं
श्रीदक्षिणामूर्तये ॥ 9॥
पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, सूर्य, चन्द्र और पुरुष (आत्मा) चर-अचर ( स्थावर जंगम ) स्वरूप जो आठ मूर्ति हैं,
उनके द्वारा जो सदा प्रकाशित होरहा है । और ब्रह्मनिष्ठ गुरुओं के
द्वारा जो आत्मा – अनात्मा के विचार करनेवाले हैं, उनको उन
परात्पर व्यापक परमात्मा से भिन्न कुछ भी विद्यमान नहीं दीखता है। ऐसे
श्रीगुरुमूर्तिरूप श्रीदक्षिणा-मूर्ति भगवान् श्रीमहादेव को यह श्रद्धा भक्तियुक्त
नमस्कार है ।
सर्वात्मत्वमिति
स्फुटक्लिओमिदं यस्मादुष्मिन् स्तवे
तेनास्य श्रवणत्तदर्थमन्नादध्यानाच्च
सङ्कीर्तनात् ।
सर्वात्मत्वमहाविभूतिहितं
स्यादीश्वरत्वं स्वतः वर ततः
सिद्धयेत्तत्पुनृष्टधा परिणतं
चैश्वर्यमव्यहतम् ॥ 10॥
इस दक्षिणामूर्ति स्तोत्र में मुमुक्षुओं के लिये सर्वात्मभाव स्पष्ट किया है। इससे इसके श्रवण से, इसके अर्थ के मनन से, ज्ञेय वस्तु के निरन्तर ध्यान ( अनुसन्धान ) से और योग्य अधिकारियों के लिये इसका उपदेश करने से सर्वात्मभावरूपी महाविभूति सहित ईश्वरभाव स्वतः सिद्ध होता है, और पुनः अष्ट सिद्धि एवं अष्ट ऋद्धि के रूप में परिणत हुआ अप्रतिहत ऐश्वर्य भी प्राप्त होता है ।
दक्षिणामूर्ति स्तोत्र महात्म्य
वत्वितपिसमपे
भूमिभागे निशानं
सकलमुनिजानानां ज्ञानदातारामरत्।
त्रिभुवनगुरुमीषं
दक्षिणामूर्तिदेवं
जन्ममरणदुःखच्छेददक्षं नमामि ॥
यह श्लोक
आमतौर पर उपरोक्त भजन के अंत में पढ़ा जाता है। मैं श्री महा दक्षिणामूर्ति को
अपना हार्दिक नमस्कार करता हूं, जो हमें बांधने वाले सांसारिक (सामरिक) बंधनों को दूर करते
हैं,
जिनका ध्यान बरगद के पेड़ के नीचे बैठकर सभी संतों को तुरंत
ज्ञान (ज्ञान) प्रदान करने के लिए किया जाता है। और समर्पित शिष्य)।
इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजाचार्यस्य श्रीगोविंदभगवतपूज्यपादशिष्यस्य श्रीमच्छङ्करभागवतः कृतौ दक्षिणामूर्तिष्टकं सम्पूर्णम्।
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