गीत गोविन्द सर्ग ७ अष्टपदी १६ नारायणमदनायास

गीत गोविन्द सर्ग ७ अष्टपदी १६ नारायणमदनायास

कवि श्रीजयदेवजीकृत गीत गोविन्द सर्ग नागर- नारायण में ४ अष्टपदी है। जिसका १३ वें, १४ वें और १५ वें अष्ट पदि को पिछले अंक में आपने पढ़ा । अब यहाँ अष्ट पदि १६ दिया जा रहा है। गीतगोविन्द के इस सोलहवें प्रबन्ध का नाम नारायणमदनायास है।

गीत गोविन्द सर्ग ७ अष्टपदी १६ नारायणमदनायास

श्रीगीतगोविन्दम्‌ सप्तमः सर्गः- षोडषः अष्ट पदि नारायणमदनायास

गीतगोविन्द सर्ग - अष्टपदी १६ नारायणमदनायास

Shri Geet govinda sarga 7- Ashtapadi 16 Narayanamadanayas

गीतगोविन्द सातवाँ सर्ग- सोलहवाँ अष्ट पदि नारायणमदनायास

अथ सप्तमः सर्गः - नागर- नारायणः षोडषः सन्दर्भः ।

गीतम् ॥१६॥

गीत गोविन्द सर्ग ७ अष्टपदी १६ नारायणमदनायास

देशवराडीरागेण रूपकतालेन गीयते ।

अनुवाद - गीतगोविन्द काव्य का यह सोलहवाँ प्रबन्ध देशवराड़ी राग तथा रूपक ताल में गाया जाता है।

अनिल - तरल - कुवलय- नयनेन ।

तपसि न सा किसलय - शयनेन ॥

सखि ! या रमिता वनमालिना ॥ध्रुवपदम् ॥१ ॥

अन्वय - [तद्गुणैरन्यस्याः सुखं वर्णयन्ती स्वस्यास्तदलाभात् निर्वेदेन श्लोकार्थमेव निश्चिनोति ] - सखि, या, अतिल-तरल- कुवलय- नयनेन ( अनिलेन वायुना तरले चञ्चले ये कुवलये नीलोत्पले तद्वत् नयने यस्य तेन) [उत्पलवत् शैत्यगुणेन तापोपशमनादिति भावः] वनमालिना रमिता (विविध- सम्भोग - केलिभिर्नन्दिता) सा किशलयशयनेन (पल्लवशयनेन) न तपति (सन्तापं न गच्छति सुखयत्येवेत्यर्थः) । [एवं सर्वत्र योजनीयम्] पक्षे या अरमिता सा किशलयशयने (पल्लवशय्यायां) न तपति इति न अपि तु तपत्येव [अतीवोद्दीपकत्वात् तस्य] ॥ १ ॥

अनुवाद पवन के द्वारा सञ्चालित इन्दीवर ( कमल) के समान चञ्चल नयनवाले श्रीकृष्ण के द्वारा जो वरयुवती रमिता हुई है, उसे किसलय शय्या पर शयन करने से किसी ताप का अनुभव नहीं हुआ होगा ।

बालबोधिनी - इस अष्टपदी में श्रीराधा की ईर्षा और भी ज्वलित हो उठी है। वह सखी से कहती है- हे सखि ! श्रीकृष्ण के नयनयुगल इन्दीवर (नील कमल) के समान चंचल हैं, मानो दक्षिण पवन से संचालित हो रहे हों। वे श्रीकृष्ण जिसे रमण - सुख दे रहे हैं और स्वयं रमित हो रहे हैं, वह मेरी तरह किसलय के सेज पर भी क्यों झुलसेगी? कैसे हृदय टूट जाता है, तार-तार हो जाता है, यह तो मैं जानती हूँ। इस तरह प्रस्तुत श्लोक में श्रीराधा श्रीकृष्ण के सुरत- सौशील्य का वर्णन कर उनकी स्तुति करती है।

निन्दापरक अर्थ यह हो सकता है कि वन-लक्ष्मी की शोभा का आनन्द लेने में लीन, संभोगपराङ्मुख वनमाली श्रीकृष्ण उस गोपी के साथ रमण नहीं कर सके। उनके नेत्र वायु के द्वारा नीलकमल के समान चञ्चल हो रहे थे। इन नेत्रों के द्वारा उपभुक्त होने से वह गोपि का किसलय-रचित शय्या पर शयन करने मात्र से ही सन्तप्त नहीं की गयी क्या ? अवश्य ही की गयी। अथवा नील कमल के समान जिसके नेत्र हैं, ऐसी गोपी उन अन्यमनस्क इधर-उधर दूसरी प्रिया को देखनेवाले श्रीकृष्ण के द्वारा अवश्य ही सन्तप्ता हुई है।

विकसित - सरसिज - ललित-मुखेन ।

स्फुटति न सा मनसिज-विशिखेन-

सखि ! या रमिता... ॥२॥

अन्वय - विकसित-सरसिज - ललित मुखेन (विकसितं यत् सरसिजं पद्मं तद्वत् ललितं मनोहरं मुखं यस्य तादृशेन) वनमालिना या रमिता, सा मनसिज - विशिखेन (मन्मथशरेण ) न स्फुटति (न विदीर्यते) । [ पक्षान्तरे या अरमिता सा ( सादृशी भाग्यहीना नारी) मनसिज - विशिखे न स्फुटति इति न, अपि तु स्फुटत्येव ] ॥२॥

अनुवाद - प्रफुल्लित कमल के समान सुललित मुखवाले वनमाली श्रीकृष्ण के द्वारा जो सुन्दरी संभुक्ता हुई है, उसे कन्दर्प के विषम बाण कभी भेद नहीं सकते। अथवा विलासकला - पराङ्मुख केवल हास्य-परायण श्रीकृष्ण के साथ रमण न कर सकनेवाली वह गोपी का काम के विषमबाणों से क्या बिद्ध नहीं होती ? अपितु होती ही है।

पद्यानुवाद-

अनिल तरुण मृदु जलज नयनके,

विकसित सरसिज ललित वदनके,

अमिय मधुर अति मंजु वचनके,

थल जलरुहसे रुचिर चरणके ।

मिले, जिसे हैं सरस भावसे, उसे, कभी वनमाली,

पल्लव 'स्मर शर' 'मलय' चन्द- सब जला न पाते आली ।

बालबोधिनी - श्रीराधा सखी से कहती है- प्रफुल्लित अरविन्दवत् विलसित मुखकमलवाले वनमाली श्रीकृष्ण जिस रमणी को आनन्द दे रहे हैं, वह क्यों जानेगी कि मदन के बाणों की व्यथा कैसी होती है? किस प्रकार मैं विरह से पीड़ित हो रही हूँ, उस रमिता का काम के बाणों से सन्तप्त होने का प्रश्न ही नहीं उठता। कैसा हृदय विदीर्ण कर दिया है मेरा यह स्तुति परक व्याख्या है।

निन्दापरक अर्थ में वे श्रीकृष्ण तो विलासपराङ्मुख हैं, हास्यपरायण हैं, अपने मनोहर मुख से बस हास-परिहास करते रहते हैं, उनके साथ रमण न कर पाने से वह गोपिका क्या मदन- शरों से सन्तप्त नहीं होती क्या? अवश्य ही होती है।

अमृत-मधुर- मृदुतर- वचनेन

ज्वलति न सा मलयज - पवनेन ॥

सखि ! या रमिता... ॥३ ॥

अन्वय- अमृत-मधुर- मृदुतर वचनेन (अमृतादपि मधुरं मृदुतरं कोमलतरञ्च वचनं यस्य तेन) वनमालिना या रमिता सा मलयज - पवनेन (मलयानिलेन ) न ज्वलति । [ अमृतसिक्ता ज्वालातिशयानुपपत्तेः]। [ पक्षान्तरे - या अरमिता सा मलयजपवने न ज्वलति इति न, अपि तु ज्वलत्येव ] ॥ ३ ॥

अनुवाद - अति सुमधुर तथा कोमलतर वचन बोलनेवाले श्रीकृष्ण से जो वनिता रमिता हुई है, उसे मलय पवन के संपर्क से कभी ज्वाला का अनुभव नहीं हो सकता है।

बालबोधिनी - सखि ! वे अपनी अमृतमयी कोमल और मधुर वाणी से उस रमणीया को लुभा रहे हैं। वह कैसे जानेगी कि मलयाचल से चलनेवाली दक्षिणी बयार से कैसी ज्वालाएँ उद्भूत होती हैं? कैसी दाहक ज्वलनशील पीड़ा होती है? जो विरहिणियों को सन्तप्त करती है।

अथवा निन्दापरक अर्थ में श्रीकृष्ण ने जिस गोपिका के साथ रमण नहीं किया, अपितु अमृतमयी मृदु मधुर वाणी से लुभाते रहे, वह रमणी क्या मलयानिल से सन्तप्त नहीं हुई होगी? अवश्य ही हुई होगी।

स्थल - जलरुह - रुचि - कर-चरणेन ।

लुठति न सा हिमकरकिरणेन ॥

सखि ! या रमिता... ॥५॥

अन्वय- स्थल - जलरुह-रुचि-कर-चरणेन (स्थल जलरुहस्य स्थलपद्मस्य रुचिरिव रुचिः कान्तिः यस्य तादृशं कर-चरणं पाणिपादं यस्य तादृशेन) वनमालिना या रमिता सा हिमकरकिरणेन (चन्द्रकिरणेन) न लुठति ( मूच्छिता भूतले न परिवर्त्तते) [इन्दुकिरणानाम् उज्ज्वलतया तापकत्वावगमेऽपि स्थलकमलवत् शीतल- कर चरण स्पर्श सुखेनेति भावः] पक्षान्तरे या अरमिता सा हिमकरकिरणे [किरणं विकिरति सति] न लुठति इति न, अपि तु लुठत्येव] [तादृश-करचरणस्पर्शाभावादिति भावः ] ॥४॥

अनुवाद - वनमाली श्रीकृष्ण के कर एवं चरण स्थल – कमल के समान कान्तिमय एवं सुशीतल हैं, उनसे जो रमणी संभुक्ता हुई है, उसे चन्द्र- किरणों से सन्तापित होकर पृथ्वी पर लुण्ठन नहीं करना पड़ता ।

बालबोधिनी - श्रीराधा सखि से कहती है- हे सखि, श्रीकृष्ण के कर तल एवं पद-तल स्थल कमल के समान कान्तिमय एवं सुशीतल हैं। उनके साथ रमण करनेवाली रमणी कैसे जानेगी कि चन्द्रमा की शीतल किरणें कैसे दहकती हैं, वह उस विधु –कौमुदी से संतप्त होकर रातभर शय्या पर करवटें क्यों बदलती होगी? निन्दापरक के अर्थ में, स्थल- कमल के समान अंगोंवाले श्रीकृष्ण की आलिङ्गन प्राप्ति के लिए वह रातभर करवटें बदलती रहती होगी।

सजल - जलद - समुदय - रुचिरेण ।

दहति न सा हृदि विरह - दवेन ॥

सखि ! या रमिता.... ॥५॥

अन्वय- सजल - जलद समुदय-रुचिरेण (सजल जलदानां समुदयात् समूहादपि रुचिरेण सुन्दरेण) वनमालिना या रमिता सा विरह दवेन हृदि न दहति ( भस्मीभवति) [जलदवदार्द्रतया दाहासम्भवात् ]; पक्षान्तरे - या अरमिता सा विरहदवे (विरहानले) [ जलति सति] हृदि न दहति इति न [ अपि तु दहत्येव इत्यर्थः ] । नवमेघस्य विरहोद्दीपकत्वात् ] ॥५॥

अनुवाद - वनमाली श्रीकृष्ण सजल जलद – मण्डल से भी मनोहर कान्तिमय एवं सुकुमार हैं। उन श्रीकृष्ण के साथ जिस वराङ्गना ने रमण किया, उसे दीर्घकालिक विरह के विषभार से कभी भी संदलित नहीं होना पड़ता।

बालबोधिनी - सखि, जिनका स्वरूप नवीन बादल के समान अतिशय मनोहर है, अति सुकुमार है, उनसे जो रमणी संभुक्ता हुई, उसे विरहरूपी विष से कदापि भय नहीं रहता। वे तो जलवर्षी मेघ के समान उस पर बरस रहे हैं, वह क्या जानेगी कि यह दीर्घकालिक विरह कितना विदलित करता है, कितना विदीर्ण करता है। निन्दापरक अर्थ में - जो गोपी नवजलधर सदृश कान्तिवान श्रीकृष्ण के साथ रमण नहीं कर सकी, वह इस दीर्घकालिक विरह के तीव्र- विष से दुःखी नहीं होगी क्या ? अवश्य ही दुःखी होगी ।

कनक- निकष- रुचि - शुचि - वसनेन ।

श्वसिति न सा परिजन - हसनेन ॥

सखि ! या रमिता....॥६॥

अन्वय - कनक- निकष- रुचि शुचि - वसनेन ( कनकस्य सुवर्णस्य निकषेषु निकष पाषाणेषु या रुचिः तद्वत् शुचि उज्ज्वलं वसनं यस्य तेन) वनमालिना या रमिता सा परिजन - हसनेन ( परिजनानामुपहासेन) न श्वसिति (दीर्घश्वासं न मूञ्चति) [ सौभाग्यगर्वेण काश्चिदपि न गणयतीति भावः ]; पक्षान्तरे या अरमिता सा परिजन हसने [सति ] न श्वसिति इति न [ अपि तु श्वसित्येव इत्यर्थः ] ॥६॥

अनुवाद - स्वर्ण-निकष (कसौटी) सदृश श्याम वर्णवाले, पवित्र पीतवस्त्र धारण करनेवाले श्रीकृष्ण के द्वारा जो सौभाग्यवती रमणी संभुक्ता हुई है, उसे कभी भी परिजनों द्वारा उपहास का कारण बनकर दीर्घ निःश्वास नहीं लेने पड़ते।

बालबोधिनी - सखि ! जिन श्रीकृष्ण के वसन (वस्त्र) कसौटी पर घिसी हुई स्वर्ण रेखाओं के समान उज्ज्वल, पीत एवं निर्मल हैं (शरीर कसौटी है, वस्त्र सोना है), ऐसे श्रीकृष्ण द्वारा जो कुलबाला रमिता हुई है, वे पीताम्बरी जिस बड़भागिनी को बाहुपाश में आबद्ध करते हों, तो वह क्या जानेगी कि जब अपने ही परिजन उपहास करते हैं, तब कैसा दुःख होता है? कैसे साँसें घुटती हैं? कैसी म्लानता होती है?

निन्दापरक अर्थ में सुवर्ण की कान्ति के समान श्याम कान्तिवाले तथा पीतवस्त्र धारण करनेवाले श्यामसुन्दर के साथ रमण - सुख प्राप्त करने के लिए जो गोपी कषाय वस्त्र आदि को धारण करती है, उसे अपने परिजनों के उपहास का पात्र बनकर दुःखी होना ही पड़ता है।

सकल-भुवन-जन-वर - तरुणेन ।

वहति न सा रुजमति - करुणेन ॥

सखि ! या रमिता... ॥७ ॥

अन्वय-सकल-भुवन-जन - वर तरुणेन (सकलभुवनेषु ये जनाः युवानस्तेभ्यो वरः श्रेष्ठो यः तरुणः किशोरः तेन) वनमालिना या रमिता सा अतिकरुणेन (अतिशोकेन) रुजं (पीड़ा) न बहति ( प्राप्नोति ) [ जगद्वल्लभतरुण प्राप्त्या करुणानुपपत्तेः ]; पक्षान्तरे या अरमिता, सा अतिकरुणे रुजं न बहति इति नः [ अपितु बहत्येव इत्यर्थः ] ॥७ ॥

अनुवाद - अखिल जगत के तरुण श्रेष्ठ, सुकुमार मनोहर रूप लावण्य - विशिष्ट श्रीकृष्ण के साथ रमण करनेवाली नायिका अपने अन्तःकरण में दारुण विरह वेदना का अनुभव नहीं करती है क्योंकि वे अति करुण हैं।

बालबोधिनी - समस्त लोकों में जितने भी तरुण युवा पुरुष हैं, उनमें श्रीकृष्ण सर्वातिशय युवतर हैं, सुन्दरतम हैं, वे नवकिशोर नटवर हैं। करुणावरुणालय वे जिस रमणी को भी रमायेंगे, वह अति करुण भाव से मेरी तरह निढाल नहीं पड़ेगी।

निन्दापरक अर्थ में जगत में श्रेष्ठ तरुण पुरुषों के साथ रमण करनेवाली रमणी, उनमें से किसी एक का भी विरह होने पर करुणातिशयता के कारण कष्ट का अनुभव करेगी ही।

श्रीजयदेव - भणित-वचनेन ।

प्रविशतु हरिरपि हृदयमनेन ॥

सखि ! या रमिता... ॥८ ॥

अन्वय- अनेन श्रीजयदेव - भणित-वचनेन (श्रीजयदेवोक्त- श्रीराधायाः माधवमुद्दिश्य वचनेत्यर्थः ) हरिरपि [तदेकचित्तानां भक्तानां] हृदयं (चित्तनिकेतनं) प्रविशतु [ प्रविष्टः कर्णरन्ध्रेण स्वानां भावसरोरुहमित्युक्तेः ] ॥८ ॥

अनुवाद - श्रीजयदेवकवि विरचित श्रीराधा के विलाप वचनों के साथ श्रीहरि भी भक्तों के हृदय में प्रवेश करें।

पद्यानुवाद-

सजल जलद सम फुल्ल वदनके ।

कनक- निकष सम पीत वसनके ॥

सकल युव जन श्रेष्ठ तरुणके ।

प्रेरक कवि 'जय' काव्य करुणके ॥

मिले, जिसे हैं सरस भावसे, उसे, कभी वनमाली ।

विरह, स्वजन - स्वर - व्यङ्ग-दरद- सब जला न पाते आली ॥

बालबोधिनी - जयदेव कवि के द्वारा माधव के उद्देश्य से गाये गये इस प्रबन्ध से प्रसन्न होकर श्रीकृष्ण हृदय में प्रवेश करें। किसके हृदय में ? श्रीराधा के हृदय में । साथ ही कर्ण - रन्ध्र द्वारा मेरे - कवि जयदेव के, इस प्रबन्ध के पाठकों के तथा श्रोताओं के भावरूपी हृदय कमल में भी प्रवेश करें। नागर नारायण हरि हृदय में अवस्थित हों।

इस प्रकार नारायणमदनायास नाम का सोलहवाँ प्रबन्ध समाप्त हुआ।

मनोभवानन्दन चन्दनानिल !

प्रसीद रे दक्षिण ! मुञ्च वामताम् ।

क्षणं जगत्प्राण! विधाय माधवं ।

पुरो मम प्राणहरो भविष्यसि ॥ १ ॥

अन्वय - [ अत्यावेशेन मनोवाष्पमुद्गिरति दैन्येनाधुना मलयानिलं सविनयं प्रार्थयते] - हे मनोभवानन्दन (आनन्दयतीति आनन्दनः मनोभवस्य आनन्दनः तत्सम्बुद्धौ हे मदनानन्दकर) हे चन्दनानिल (मलयवायो ) प्रसीद (प्रसन्नो भव); [ पुनर्योदयादाह ] - रे दक्षिण (सरल स्वभाव, सर्वानुकूल इति यावत्) वामतां (प्रतिकूलतां) मुञ्च (त्यज) [दक्षिणपथप्रवृत्तस्य वाम-पथ प्रवृत्तेरयुक्तत्वात् वामता त्याज्य इति भावः ] ; [तहि किं विधेयं तत्राह ] - [ जगद्धितोऽपि मनोभवानन्दनाय चन्दनतरु- सम्पर्कात् विषमश्चेत् मां मारयसि तर्हि ] हे जगत्प्राण! क्षणं मम पुरः ( अग्रतः) माधवं विधाय (संस्थाप्य) [पश्चात् ] मम प्राणहरो भविष्यसि ॥ १ ॥

अनुवाद - हे कन्दर्प को आनन्द देनेवाले मलयाचल के समीर! दक्षिण ही बने रहो! वामता का त्याग कर दो! हे जगत के प्राणस्वरूप ! माधव को मेरे सामने कर तुम मेरे प्राण हर लेना ।

बालबोधिनी – कामदेव के बाणों के प्रहार को न सह सकने के कारण श्रीराधा मलयानिल को सम्बोधित करती हुई कहती है – काम के बाणों को उनके लक्ष्य तक पहुँचानेवाली मलयाचल की वायु मेरे लिए प्रतिकूल बन गयी है, मुझे जलाकर अपने मित्र कामदेव को तो आहादित कर दिया और मुझे काम की पीड़ा से इतना दग्ध कर दिया। दक्षिणानिल कहलाते हो, सम्पूर्ण जगत को आनन्द प्रदान करते हो, फिर मेरे लिए तुम्हारा आचरण प्रतिकूल क्यों है? क्यों वाम भाव धारण किया है? मैं जानती हूँ तुम मदन के सहचर हो, मलयाचल पर्वत पर सर्पों से घिरे हुए चन्दन वृक्षों के संसर्ग से तुम्हारा स्वभाव अवश्य ही दूषित हो गया है, कितना सन्तप्त कर रहे हो मुझे? हे जगत्प्राण! क्षणभर के लिए प्रसन्न हो जाओ, क्षमा करो मुझे अपनी प्रतिकूलता का त्याग कर दो, मेरे प्राणों को हर लेना, पर पहले एक क्षण के लिए प्राणनाथ माधव का दर्शन करा दो, फिर प्राणापहारक बन जाओ।

वंशस्थ छन्द है, अतिशयोक्ति अलंकार है ।

रिपुरिव सखी-संवासोऽयं शिखीव हिमानिलो

विषमिव सुधारश्मिर्यस्मिन् दुनोति मनोगते ।

हृदयमद तस्मिन्नेवं पुनर्वलते बलात्-

कुवलय-दृशां वामः कामो निकामनिरंकुशः ॥ २ ॥

अन्वय - [ अथ अनुरागहीने दयिते सानुरागं चित्तं निन्दति ] - तस्मिन् (श्रीहरौ) मनोगते (चित्तारूढ़े ) [सति] अयं सखीसंवासः ( सखीभिः संवासः सहवासः) रिपुरिव (शत्रुरिव ) ( स्वच्छन्दगमन - प्रतिरोधकत्वात्] दुनोति (क्लिश्नाति ); हिमानिलः (शीतलवायुः) [तापकत्वात्] शिखीव (अग्निरिव ) [ दुनोति ]; सुधारश्मिः (चन्द्रः ) [दाहकत्वात्] विषमिव [मम मनः] [दुनोति ] ; [यदि] अदये (दयाहीने) तस्मिन् [कान्ते] एवं पुनः [नानारूपेण कार्यमाणमपि ] हृदयं वलात् वलते (संभक्तं स्यात्), [तर्हि ] कुवलयदृशां (नीलोत्पलाक्षीणां कामिनीनां) कामः (अभिलाषः) निकाम-निरङ्कुशः ( अत्यर्थमयन्त्रितः हिताहितविचारापगमात् दुर्निवार इत्यर्थः) [ अतएव] वामः (प्रतिकूलएव) ॥ २ ॥

अनुवाद - हे सखि ! सखियों का सुखमय साथ, शत्रु के समान मेरे मन को शत्रु की भाँति अनुभूत हो रहा है, सुशीतल सुमन्द समीरण हुताशन के समान प्रतीत हो रहा है और सुधा - रश्मियाँ विष के समान मुझे कष्ट दे रही हैं, फिर भी मेरा हृदय बलात् उसी में लगा हुआ है, सत्य हैं, कुवलय सदृश कामिनियों के प्रति काम सर्वथा ही निरंकुश हुआ करता है।

बालबोधिनी - प्रस्तुत श्लोक में श्रीराधा विरह के उन्माद में अपने चित्र को ही उपालम्भ देती हुई अपनी सखी से कहती है - हाय! मैं किसे दोष प्रदान करूँ ? उस श्रीकृष्ण के स्मरण से जो मेरी प्रिय सखियाँ मुझे श्रीकृष्ण के समीप जाने से मना किया करती थीं, आज उनका सुखमय संग भी मुझे वर्षों की शत्रुता जैसा प्रतीत होता है, शीत वायु मुझे ज्वाला के समान दग्ध करती है, चन्द्रमा हलाहल विष जैसा लगता है। फिर भी सखि ! मेरा मन उस निर्दय निष्ठुर श्रीकृष्ण के प्रति अबाध गति से दौड़ता हुआ चला जा रहा है, मेरा अविवेकी मन ही मेरे दुःख का कारण बन गया है। अहो ! हिताहित विवेकरहिता कमलनयनाओं के लिए 'काम' ही नितान्त दुनिर्वार होकर उनके अशेष दुःख का कारण बन जाता है। यह कामदेव अति निरंकुश है, सुन्दरियों के प्रति तो अति ही कठोर है एवं प्रतिकूल है, विरहियों के प्रति अति निरंकुश आचरण करता है।

इस श्लोकमें हरिणी-वृत तथा विरोधालङ्कार है।

बाधां विधेहि मलयानिल! पञ्चबाण!

प्राणान्गृहाण न गृहं पुनराश्रयिष्ये ।

किं ते कृतान्तभगिनि ! क्षमया तरङ्गे-

रङ्गानि सिञ्च मम शाम्यतु देहदाहः ॥ ३ ॥

अन्वय - [ अधुना विरहोत्तप्तया प्राणोत्सर्गः कृत एवाह ] - हे मलयानिल, त्वं वाधां (मनः पीड़ा) विधेहि ( जनय) [वामत्वेन वाधाविधान - सामर्थ्यादित्यर्थः ]; हे पञ्चबाण, (काम) प्राणान् गृहाण [ पञ्चबाणधारित्वे पञ्चबाणग्रहणयोग्यत्वादित्यर्थः ]; हे कृतान्त - भगिनि (यम- सहोदरे यमुने) ते (तव) क्षमया किं ? (क्षमां मा कुरु) [यमानुजायाः क्षमा न युक्ता] ; [तर्हि किं कर्त्तव्यम्? तरङ्गैः मम अङ्गानि सिञ्चः देहदाहं (शरीरसन्तापः ); शाम्यतु (चिरं निवृत्तो भवतु ); [एतेन दशम दशां विधेहीति ध्वन्यते]; [अहं] पुनः गृहं न आश्रयिष्ये [तेन बिना गृहमपि सन्तापकमेव ततो मरणमेव युक्तमित्यर्थः] ॥ ३ ॥

अनुवाद - हे मलयानिल! तुम बाधाओं का विधान करो ! हे पञ्चबाण! तुम मेरे प्राणों का हरण करो! हे यमुने! तुम यम की बहन हो, तुम क्यों मुझे क्षमा करोगी? तुम तरङ्गों के द्वारा मुझे अभिषिक्त कर देना, जिससे मेरे देह का सन्ताप सदा के लिए शान्त हो जाय।

बालबोधिनी - संप्रति विरह-ताप-तापिता श्रीराधा अपने प्राणों को त्यागने का संकल्प लेकर कहती हैं- हे मलयपवन ! हे शीत समीरण! क्यों प्रतीक्षा कर रहे हो? मुझे खूब जमकर पीड़ा देना! हे पञ्चबाण! मेरे प्राणों का हरण कर लेना, अपने पाँच बाणों से तुम मेरे पाँचों प्राणों का अपहरण कर लेना- इसीलिए तुम्हें पञ्चबाणों से उपहित किया जाता है । प्राणों का हरण करना ही तुम्हारा प्रयोजन है। ठीक ही तो है - कामदेव सन्तप्त जनों को उत्तप्त करके गृह की ओर उन्मुख करा देता है। पर तुम मुझे कितना भी विवश कर लो, मेरे प्राण भले ही चले जायें, पर मैं घर कभी नहीं जाऊँगी, श्रीकृष्ण के चरणों का आश्रय लूँगी। दोनों का उपालम्भ देकर काम से विदीर्ण होकर यमुना से कहती हैं- हे यमुने ! तुम यमराज की बहन हो! मलयानिल एवं पञ्चबाण मुझे पीड़ित कर ही रहे हैं, कामदेव सम्भोगकारक हैं, पर वह तो विपरीत आचरणमय हो गया है, मलयानिल सुखकारक होकर मुझे विकल बना रहा है, उन दोनों के द्वारा प्राणों के ग्रहण कर लिये जाने पर तुम भाई यम को क्या उत्तर दोगी? इसलिए तुम मुझे क्षमा मत करो, तुम अपनी तरङ्गों से मेरे अङ्ग का सिंचन कर दो, मृत देह को अपने सलिल में समा लो, जिससे गत प्राण मेरे देह का दाह शान्त हो जाय। इस प्रकार श्रीराधा श्रीकृष्ण विरह में दसवीं दशा को प्राप्त होने लगीं।

प्रस्तुत श्लोक में वसन्ततिलका छन्द तथा अप्रस्तुत प्रशंसा अलङ्कार है।

प्रातर्नील- निचोलमच्युतमुर संवीत पीतांशुकं

राधायाश्चकितं विलोक्य हसति स्वैरं सखीमण्डले ।

ब्रीडाचञ्चलमञ्चलं नयनयोराधाय राधानने

स्मेरस्मेरमुखोऽयमस्तु जगदानन्दाय नन्दात्मजः ॥४॥

इति षोडश सन्दर्भः ।

इति श्रीगीतगोविन्द महाकाव्ये विप्रलब्धा वर्णने नागर - नारायणो नाम सप्तमः सर्गः ।

अन्वय - [अथैतद्दुः खवर्णनमसहिष्णुः कविः सिंहावलोकन्यायेन साधारण केलिरात्रैः प्रातश्चरितवर्णनेन श्रीराधायाः खण्डितावस्थां वर्णयिष्यन् श्रीराधामाधवयोः प्राक्तन केल्यनन्तरावस्थितिवर्णनेन मङ्गलमातनोति]– [कदाचित्] प्रातः (प्रभाते) नीलनीचोलं (नीलं निचोलं वस्त्रं यस्य तादृशं परिहित- राधावसनमित्यर्थः) अच्युतं (हरिं ) [तथा] संवीतपीतांशुकं (संवीतम् उत्तरीकृतं श्रीकृष्णस्य पीतम् अंशुकं वस्त्रं यत्र तादृशं ) राधाया उरः (वक्षःस्थलं) विलोक्य सखीमण्डले स्वैरं ( स्वच्छन्दम् उच्चैरित्यर्थः) [तथा] चकितं (चमत्कृतं यथा तथा) हसति [सति] राधानने (श्रीराधावदने) ब्रीड़ाचञ्चलं (ब्रीड़या लज्जया चञ्चलं यथा तथा) नयनयोः अञ्चलं (नेत्रप्रान्तं कटाक्षमित्यर्थः) आधाय (विन्यस्य) स्मेर - स्मेर-मुखः (मृदुमन्दसहास्यवदनः) अयं नन्दात्मजः (नन्दनन्दनः) जगदानन्दाय अस्तु ( जगतामानन्दं विदधातु) [अतः सर्गोऽयं नागरा एव नरा नरसमूहास्तेषामयनं मूलभूतः श्रीकृष्णो यत्र स इति सप्तमः सर्गः] ॥४ ॥

अनुवाद - प्रातः काल विभ्रमवश श्रीकृष्ण ने श्रीराधाजी का नील उत्तरीय वस्त्र (कञ्चुक) तथा श्रीराधा ने अपने वक्षःस्थल पर श्रीकृष्ण का पीत उत्तरीय वस्त्र धारण कर लिया, जिसे देख सखीमण्डल स्वच्छन्दतापूर्वक हँसने लगा। उन्हें हँसता हुआ देखकर श्रीकृष्ण ने मन्दमुस्कान के साथ सलज्ज होकर अपाङ्ग भङ्गिमा से श्रीराधा के मुखारविन्द के प्रति कटाक्षपात किया। ऐसे नन्दनन्दन श्रीकृष्ण जगत के लिए आनन्द का विधान करें।

बालबोधिनी - प्रस्तुत सर्ग के अन्तिम श्लोकों में वैष्णवों को कवि जयदेव के द्वारा आशीर्वाद दिया गया है यह नन्दनन्दन श्रीकृष्ण जगत को आनन्ददायी हों । निकुञ्ज वन के निकट जयदेवजी के द्वारा श्रीराधा-माधव की पूर्व केलि का स्मरण कर प्रातःकाल की स्थिति का निरूपण किया है। कवि जयदेव श्रीराधा का विरह वर्णन करने में असमर्थ हो गये, तब सिंहावलोकन न्याय से रात्रिकालीन साधारण केलि का चित्राङ्कन कर प्रातःकालीन श्रीराधा की खण्डितावस्था का दिग्दर्शन कराया है । श्रीश्रीराधा-माधव दोनों ने एक साथ रति-केलि के द्वारा पिछली रात बितायी है एवं विभ्रम से एक-दूसरे के वस्त्र पहन लिये हैं। इस वैचित्र्य परिवर्त्तन से सखियाँ हँस पड़ीं, उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। अच्युत श्रीकृष्ण ने अपने तन पर नील- वसन कञ्चुक को धारण किया है और श्रीराधा का उर पीताम्बर से ढका हुआ है। यह वस्त्र - विनिमय ही सखियों के स्वच्छन्द हास्य का कारण है। लज्जा से चञ्चल नेत्रों को श्रीराधा के मुख पर रखते हुए कटाक्षपात कर श्रीकृष्ण मन्द मन्द मुस्कराने लगे ।

प्रस्तुत श्लोक में कवि जयदेव की लोकमङ्गल की कामना प्रकट हुई है। हास्य रस, शार्दूल विक्रीडित छन्द, स्वभावोक्ति अलङ्कार, नायक शठ एवं नायिका अभिसारिका है।

श्रीगीतगोविन्द के सोलहवें सन्दर्भ की बालबोधिनी वृत्ति समाप्त।

इति सप्तमः सर्गः ।

आगे पढ़ें........ गीतगोविन्द सर्ग 8

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