कामाख्या कवच

कामाख्या कवच

कालिका पुराण अध्याय ७२ में वर्णित इस कामाख्या कवच का पाठ करने से साधक को आधिव्याधि,  अग्नि, जल, शत्रु या राजा से कोई भय नहीं होता है एवं उसे दीर्घायु की प्राप्ति होता है तथा वह बहुत प्रकार के भोग करने वाला, पुत्र-पौत्र से समन्वित होता है और साधक सभी बन्धन से मुक्त हो जाता है ।

कामाख्या कवच

हरिप्रोक्तं कामाख्याकवचम्

Kamakhya kavach

ॐ कामाख्याकवचस्य ऋषिर्बृहस्पतिः स्मृतः ।। ४५ ।।

देवी कामेश्वरी तस्य अनुष्टुप्छन्द इष्यते ।

विनियोगः सर्वसिद्धौ तं च शृण्वन्तु देवताः ।। ४६ ।।

इस कामाख्याकवच के ऋषि, बृहस्पति कहे गये हैं । कामाख्या देवी तथा अनुष्टुप्, छन्द बताया गया है । सब प्रकार की सिद्धियों में इसका विनियोग होता है। आप सब देवता उस कामाख्या कवच को सुनें ॥४५-४६ ॥

कामाख्या कवचम्

शिरः कामेश्वरी देवी कामाख्या चक्षुषी मम ।

सारदा कर्णयुगलं त्रिपुरावदनं तथा ।। ४७ ।।

कामेश्वरीदेवी मेरे सिर की, कामाख्या नेत्रों की, शारदा दोनों कानों की तथा त्रिपुरा, मुख की रक्षा करें ॥४७॥

कण्ठे पातु महामाया हृदि कामेश्वरी पुनः ।

कामाख्या जठरे पातु शारदा मां तु नाभितः ।।४८ ।।

मेरे कण्ठ में महामाया तथा हृदय में कामेश्वरी रक्षा करें। जठर में कामाख्या-देवी और नाभि में शारदादेवी रक्षा करें ॥४८॥

त्रिपुरा पार्श्वयोः पातु महामाया तु मेहने ।

गुदे कामेश्वरी पातु कामाख्योरुद्वये तु माम् ।। ४९ ।।

त्रिपुरादेवी पार्श्व-भाग में तथा महामाया, मेहन (लिङ्ग) में रक्षा करें । कामेश्वरी गुदा में और कामाख्या दोनों उरुओं (जंघों) में मेरी रक्षा करें ॥ ४९ ॥

जानुनोः शारदा पातु त्रिपुरा पातु जङ्घयोः ।

महामाया पादयुगे नित्यं रक्षतु कामदा ।।५०।।

दोनों घुटनों में शारदादेवी तथा टखनों में त्रिपुरादेवी रक्षा करें। कामनाओं की पूर्ति करने वाली महामाया नित्य मेरे दोनों पैरों में रक्षा करें ॥ ५० ॥

केशे कोटेश्वरी पातु नासायां पातु दीर्घिका ।

भैरवी दन्तसङ्घाते मातंग्यवतु चाङ्गयोः ।।५१।।

केशों में कोटेश्वरी रक्षा करें। नाक में दीर्घिका, दाँतसमूह में भैरवी एवं अङ्गों में मातङ्गी रक्षा करें ॥ ५१ ॥

बाह्वोर्मां ललिता पातु पाण्योस्तु वनवासिनी ।

विन्ध्यवासिन्यङ्गुलिषु श्रीकामा नखकोटिषु ।। ५२ ।।

बाहों में ललिता, हाथों में वनवासिनी, अङ्गुलियों में विन्ध्यवासिनी और नखों में श्रीकामा देवी मेरी रक्षा करें ॥५२॥

रोमकूपेषु सर्वेषु गुप्तकामा सदावतु ।

पादाङ्गुलिपार्ष्णिभागे पातु मां भुवनेश्वरी ।। ५३ ।।

सभी रोमकूपों में सदा गुप्तकामादेवी रक्षा करें तथा पैरों की अंगुलियों और एड़ियों में भुवनेश्वरीदेवी रक्षा करें ॥ ५३ ॥

जिह्वायां पातु मां सेतुः कः कण्ठाभ्यन्तरेऽवतु ।

लः पातु चान्तरे वक्ष इः पातु जठरान्तरे ।

सामीन्दुः पातु मां वस्ताविन्दुबिन्द्वन्तरेऽवतु ।। ५४ ।।

जिह्वा में सेतु (ऊँकार) मेरी रक्षा करे, कण्ठ के भीतर ककार रक्षा करे । '' कार वक्ष के भीतर तथा '' कार जठरान्तर में रक्षा करे। अर्धचन्द्र सर्वदा मेरे वस्तिभाग की तथा इन्दु (बिन्दु) बिन्दु (योनि) के अन्तर में रक्षा करे (क्लीं द्वारा रक्षा) ।। ५४ ।।

तकारस्त्वचि मां पातु रकारोऽस्थिषु सर्वदा ।

अकारः सर्वनाडीषु ईकार: सर्वसन्धिषु ।। ५५ ।।

चन्द्रः स्नायुषु मां पातु बिन्दुमज्जासु सन्ततम् ।। ५६ ।।

इसी प्रकार त कार मेरी त्वचा की तथा र कार हड्डियों की सदैव रक्षा करें। अकार सभी नाड़ियो में, ई कार सभी जोड़ो में, चन्द्र (अर्धचन्द्र) स्नायुयों में तथा बिन्दु सदैव मेरी मज्जाओं में रक्षा करे (त्रीं द्वारा रक्षा) ।।५५-५६॥

पूर्वस्यां दिशि चाग्नेय्यां दक्षिणे नैर्ऋते तथा ।

वारुणे चैव वायव्यां कौबेरे हरमन्दिरे ।।५७।।

अकाराद्यास्तु वैष्णव्या अष्टौ वर्णास्तु मन्त्रगाः ।

पान्तु तिष्ठन्तु सततं समुद्भवविवृद्धये ।

ऊद् र्ध्वाधः पातु सततं मां तु सेतुद्वयं सदा ।। ५८ ।।

पूर्व, अग्निकोण, दक्षिण, नैर्ऋत्यकोण, वारुण (पश्चिम), वायव्य, कौबेर (उत्तरदिशा), हर का मन्दिर (ईशान कोण) की आठों दिशाओं में वैष्णवी मन्त्र के अकार-आदि आठों वर्ण क्रमशः मेरी रक्षा करें तथा निरन्तर मेरी उन्नति एवं विकास हेतु स्थित रहें, मेरे ऊपर और नीचे की ओर से दोनों सेतु निरन्तर रक्षा करें।। ५७-५८ ।।

नवाक्षराणि मन्त्रेषु शारदामन्त्रगोचरे ।

नवस्वरं तु मां नित्यं नासादिषु समन्ततः ।। ५९ ।।

शारदामन्त्र के नव अक्षर और नव छिद्रों स्वर नाक आदि की सब ओर से नित्य मेरी रक्षा करें।। ५९ ।।

वातपित्तकफेभ्यस्तु त्रिपुरायास्तु त्र्यक्षरम् ।।६० ।।

त्रिपुरा के तीनों अक्षर, वातपित्तकफ सम्बन्धी विकारों से मेरी रक्षा करें ॥ ६० ॥

नित्यं रक्षतु भूतेभ्यः पिशाचेभ्यस्तथैव च ।

तत्सेतू सततंपातां क्रव्याद्भ्योमान्निवारकौ ।। ६१ ।।

भूत-पिशाच, तथा दुर्निवार, मांसभोजी प्रेतादि से उसका सेतु, निरन्तर मेरी रक्षा करे ॥ ६१ ॥

नमः कामेश्वरीं देवीं महामायां जगन्मयीम् ।

या भूत्वा प्रकृतिर्नित्यं तनोति जगदाद्यताम् ।।६२।।

उन महामाया जगन्मयी कामेश्वरी देवी को नमस्कार है जो प्रकृतिरूप हो जगत् का नित्य विस्तार करती हैं ॥ ६२ ॥

कामाख्यामक्षमालाभयवरदकरां सिद्धसूत्रैकहस्तां-

श्वेतप्रेतोपरिस्थां मणिकनकयुतां कुङ्कुमापीतवर्णाम् ।

ज्ञानध्यानप्रतिष्ठामतिशयविनयां ब्रह्मशक्रादिवन्द्या-

मग्नौ बिन्द्वन्तमन्त्रप्रियतमविषयां नौमि सिद्ध्यै रतिस्थाम् ।। ६३ ।।

हाथों में रुद्राक्षमाला, अभय और वरदमुद्रा तथा सिद्धसूत्र (पाश) धारण की हुईं, श्वेत-प्रेत पर स्थित, सोने और मणियों से युक्त, कुङ्कुम के समान पीले रङ्ग वाली, ज्ञान-ध्यान में प्रतिष्ठित, अत्यन्त विनय (सौम्यता) से युक्त, आगे स्थित हुये ब्रह्मा-इन्द्र आदि देवताओं द्वारा वन्दिता, बिन्दु पर्यन्त मन्त्र बीजाक्षर ही जिनका प्रिय विषय है, रति में स्थित ऐसी देवी कामाख्या को मैं सिद्धि हेतु, नमस्कार करता हूँ ।। ६३ ।।

मध्ये मध्यस्यभागे सततविनमिता भावहावाबलीया-

लीलालोकस्य कोष्ठे सकलगुणयुताव्यक्तरूपैकनम्रा ।

विद्याविद्यैकशान्ता शमनशमकरी क्षेमकर्त्री वरास्या

नित्यं पायात् पवित्रप्रणववरकरा कामपूर्वेश्वरी नः ।। ६४ । ।

कमर के मध्यभाग में निरन्तर झुकी हुई, हाव-भाव से बलवती, लीलालोक के कोष्ठ में सभी गुणों से युक्त, प्रकटरूप में नम्रता की प्रतिमूर्तिविद्या और विधियों से शान्त, शमन (यम) का भी शमन करने वाली, कल्याण करने वाली, श्रेष्ठमुखवाली, पवित्र प्रणव स्वरूपा, वरद हाथों (मुद्रा) वाली, पहले काम शब्द से युक्त ईश्वरी, कामेश्वरी, नित्य हमारी रक्षा करें ॥ ६४ ॥

कामाख्याकवचम् माहात्म्य

इति हरकवचं तनुस्थितं शमयति वै शमनं तथा यदि ।

इह गृहाण यतस्व विमोक्षणे सहित एष विधिः सह चामरैः ।। ६५ ।।

शिव द्वारा कहा गया यह कवच शरीर में स्थित हो शमन (यमराज) का भी शमन करने वाला है। देवताओं सहित आप इसे ग्रहण करें और मुक्ति हेतु प्रयत्न करें। यही विधि है ।। ६५ ।।

इत्ययं कवचं यस्तु कामाख्यायाः पठेद् बुधः ।

सकृत् तं तु महादेवी त्वनुव्रजति नित्यदा ।। ६६ ।।

जो विद्वान्साधक, कामाख्या के इस कवच को एक बार भी पढ़ता है वरदायिनीदेवी उसका नित्य अनुगमन करती हैं ॥ ६६ ॥

नाधिव्याधिभयं तस्य न क्रव्याद्भ्यो भयं तथा ।

नाग्नितो नापि तोयेभ्यो न रिपुभ्यो न राजतः ।। ६७ ।।

उसे आधिव्याधि और क्रव्यादि से कोई भय नहीं होता एवं न तो उसे अग्नि, जल, शत्रु या राजा से ही भय होता है ॥६७॥

दीर्घायुर्बहुभोगी च पुत्रपौत्रसमन्वितः ।

आवर्तयञ्छतं देवीं मन्दिरे मोदते परे ।। ६८ ।।

वह दीर्घायु बहुत प्रकार के भोग करने वाला, पुत्र-पौत्र से समन्वित होता है तथा परलोक में देवी के धाम में चक्कर लगाता (भ्रमण करता) हुआ, आनन्दित होता है ॥ ६८ ॥

यथा तथा भवेद् बद्धः संग्रामेऽन्यत्र वा बुधः ।

तत् क्षणादेव मुक्तः स्यात् स्मरणात् कवचस्य तु ।। ६९ ।।

साधक यदि किसी भाँति से युद्ध में या अन्यत्र बन्धन में आ जाता है तो इस कवच के स्मरण मात्र से ही वह क्षणभर में मुक्त हो जाता है ।। ६९ ।।

इति कालिकापुराणे द्विसप्ततितमाध्यायान्तर्गतं हरिप्रोक्तं कामाख्याकवचं सम्पूर्णम् ।

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