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कर्मकाण्ड

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गीत गोविन्द सर्ग ७ अष्टपदी १४ हरिरमितचम्पकशेखर

गीत गोविन्द सर्ग ७ अष्टपदी १४ हरिरमितचम्पकशेखर

कवि श्रीजयदेवजीकृत गीत गोविन्द सर्ग नागर- नारायण में ४ अष्टपदी है। जिसका १३ वें अष्ट पदि को पिछले अंक में आपने पढ़ा । अब यहाँ अष्ट पदि १४ दिया जा रहा है। गीतगोविन्द के इस चौदहवें प्रबन्ध का नाम हरिरमितचम्पकशेखर है। इसमें विपरीत रति का वर्णन है ।

गीत गोविन्द सर्ग ७ अष्टपदी १४ हरिरमितचम्पकशेखर

श्रीगीतगोविन्दम्‌ सप्तमः सर्गः नागर नारायणः चतुर्दश: अष्ट पदि हरिरमितचम्पकशेखर

गीतगोविन्द सर्ग नागर नारायण- अष्टपदी १४ हरिरमितचम्पकशेखर

Shri Geet govinda sarga 7 Naagar Narayan Ashtapadi 14 Hariramitachampakashekher

गीतगोविन्द सातवाँ सर्ग नागर नारायण चौदहवाँ अष्ट पदि हरिरमितचम्पकशेखर

अथ सप्तमः सर्गः - नागर- नारायणः

अथ चतुर्दश: सन्दर्भः ।

गीतम् ॥१४॥

गीत गोविन्द सर्ग ७ अष्टपदी १४ हरिरमितचम्पकशेखर

वसन्तरागयतितालाभ्यां गीयते ।

अनुवाद - यह चौदहवाँ प्रबन्ध वसन्त राग तथा यति ताल के द्वारा गाया जाता है।

समर - समरोचित - विरचित-वेशा,

दलित - कुसुम - दर विलुलित केशा ।

कापि मधुरिपुणा

विलसति युवतिरधिकगुणा ॥१॥ध्रुवम्

अन्वय - हे सखि स्मर-समरोचित-विरचित- वेशा ( स्मरसमरस्य उचितो विरचितो वेशो यया सा ) [ ततश्च रणावेशेन] दलित- कुसुम-दर- विलुलित- केशा (दलितानि विमर्दितानि कुसुमानि येभ्यः तादृशाः दरविलुलिताः ईषद्वित्रस्ताः केशा यस्याः तादृशी) कपि अधिकगुणा (मत्तेऽपि अधिकगुणवती ) युवतिः मधुरिपुणा सह विलसति ॥ १ ॥

अनुवाद - सखि ! मदन – समर के योग्य वेशभूषा का परिधान किये हुए और अनङ्ग-रस के आवेश में कबरी-बन्धन आलुलायित होने (बिखर जाने) के कारण कुसुमसमूह विगलित होने से विमर्दित केशोंवाली मुझसे भी अधिक गुणशालिनी कोई युवती मधुरिपु के साथ सुखपूर्वक विलास कर रही है।

पद्यानुवाद-    

स्मर-समरोचित-विरचित- वेशा ।

गलित- कुसुम - वर- विलुलित-केशा ॥

शोभित है युवती री कोई।

हरि से विलस रही जो खोई ॥

बालबोधिनी - आशंकिता श्रीराधा सखी से कहती हैं- हे सखि ! मुझसे भी अधिक कोई सुन्दर रमणी काम-संग्राम के अनुकूल वेश धारणकर मधुरिपु के साथ विलास कर रही है। रतिक्रीड़ा में उसके केश पाश ढीले होकर इधर-उधर लहरा रहे हैं, उसमें से ग्रंथित पुष्प भी झर गये हैं।

मधुरिपु - श्रीकृष्ण माधुर्य के शत्रु हैं, उनको माधुर्य भान ही नहीं है। इसलिए वे मेरी उपेक्षा करके किसी दूसरी युवती के साथ रतिविलास में लिप्त हैं।

युवतिरधिकगुणा- वह व्रजरमणी मुझसे भी अधिक गुणशालिनी है, पर यह तो संभव ही नहीं है। अधिक गुणों का व्यंगार्थ है- कम गुणोंवाली युवती रमण कर रही है, यह बड़े आश्चर्य की बात है। इससे विपरीत रति सूचित होती है। विपरीत रति में युवती का ही रतिकर्तृत्व रहता है।

स्मरसमर – रतिकेलि को स्मर-समर कहा गया है। रतिक्रीड़ा में रति -विमर्दन आदि क्रिया होती है, जिससे नायिका का कबरी बन्धन खुल जाता है, उसमें सन्निहित पुष्प झर जाते हैं, विशृंखलित हो जाते हैं।

हरि - परिरम्भण- वलित-विकारा ।

कुच - कलशोपरि तरलित-हारा ॥

कापि मधुरिपुणा... ॥२॥

अन्वय - [ अतः परं षड्भिः तामेव विशिनष्टि] हरि-परिरम्भण- वलितविकारा (हरेः परिरम्भणेन आलिङ्गनेन वलितः रचितः विकारः रोमाञ्चादि कामज- विकृतिर्यस्याः तादृशी ) [ तथा] कुच कलसोपरि (स्तनकुम्भयोरुपरि) तरलित-हारा (तरलितः आन्दोलितः हारो यस्यास्तादृशी ) [ कापि अधिकगुणा इत्यादि प्रत्येकेन योजनीयम् ] ॥ २ ॥

अनुवाद – श्रीकृष्ण का प्रगाढ़ रूप से आलिङ्गन करने पर मदन – विकार से विमोहित उसमें रोमांच आदि विकार उत्पन्न हो गये होंगे और उसके कुचकलशों पर हार दोलायमान हो रहा होगा।

पद्यानुवाद-

हरि-परिरंभण-वलित-विकारा ।

कुच- कलशोपरि-तरलित-धारा ॥

शोभित है युवती री कोई ।

हरिसे विलस रही जो खोई ॥

बालबोधिनी - श्रीराधा आनुमानिक तौर पर उस रमणी की चेष्टाओं को चित्रित करते हुए कहती हैं कि श्रीकृष्ण के द्वारा आलिङ्गित होने से उस युवती में कामोचित रोमांचादि मदन -विकार उद्भूत हो गये होंगे। कलश सरीखे उन्नत स्तनों पर हार दोलायमान हो रहा होगा। हार की चञ्चलता रतिकाल में युवती द्वारा रतिकर्तृत्व अथवा विपरीत रति में ही संभव है।

विचलदल - कललितानन - चन्द्रा ।

तदधर- पान रभस - कृत - तन्द्रा ॥

कापि मधुरिपुणा... ॥३॥

अन्वय- विचलदलक-ललितानन चन्द्रा (विचलद्भिः अलकैः चूर्णकुन्तलैः ललितः सुन्दरः आननमेव चन्द्रो यस्यास्तादृशी ) [तथा] तदधर-पान- रभस - कृत - तन्द्रा (तस्य कृष्णस्य अधरपान- रसभेन अधरपानावेशेन कृता तन्द्रा आनन्द - निमीलनं यस्याः तादृशी ॥३॥

अनुवाद - उसका मुखचन्द्र घुँघराली अलकावलियों से सुललित हो रहा होगा और श्रीकृष्ण की अधर – सुधा का पान करने की अतिशय लालसा के कारण नयनयुगल आनन्दपूर्वक निमीलित हो रहे होंगे।

पद्यानुवाद-

अलक- ललित मृदु आनन चन्द्रा ।

अधर - पान-मुद अधिकृत तन्द्रा ॥

शोभित है युवती री कोई।

हरिसे विलस रही जो खोई ॥

बालबोधिनी - उस रमणी का मुखचन्द्र चंचल अलकावलियों के कारण और भी अधिक शोभाशाली दीखता होगा। रति काल में श्रीकृष्ण की अधर- सुधा का पान कर रतिजन्य आनन्द में निमग्न आँखें बन्द करके वह कपट निद्रा का मिथ्या अभिनय कर रही होगी।

चञ्चल - कुण्डल- ललित - कपोला ।

मुखरित - रसन - जघन - गति - लोला ॥

कापि मधुरिपुणा... ॥ ४ ॥

अन्वय- चञ्चल - कुण्डल- ललित- कपोला ( चञ्चलाभ्यां तदधर - पानावेशादिति भावः कुण्डलाभ्यां ललितौ परममनोहरौ कपोलौ यस्याः सा) [ तथा ] मुखरित रसन- जघन गति - लोला ( मुखरिता शब्दायमाना रसना काञ्ची यस्मिन् तादृशस्य जघनस्य गतिः तया लोला चपला ) ॥ ४ ॥

अनुवाद - कुण्डल- युगल चञ्चल होने पर उसके कपोल- तल की शोभा और भी बढ़ रही होगी, कटि तट पर विराजमान मणिमय मेखला की क्षुद्र घण्टिकाएँ उसके जघन स्थल पर आन्दोलित होने के कारण सुमधुररूप से मुखरित हो रही होंगी।

पद्यानुवाद-

चंचल कुंडल ललित कपोला ।

मुखरित रसन जघन गति लोला ॥

शोभित है युवती री कोई ।

हरिसे विलस रही जो खोई ॥

बालबोधिनी रतिक्रीड़ा में संलग्न उसके कुण्डल – युगलों का आन्दोलित होना स्वाभाविक ही है-इससे उसके कपोलों की मनोहरता और भी बढ़ गयी होगी, मेखला में संलग्न घुँघरू बार-बार बजते होंगे, जाँघों का सदा संचलन होने के कारण वह अति चंचल प्रतीत होती होगी।

दयित - विलोकित - लज्जित - हसिता ।

बहुविध - कूजित - रति-रस रसिता-

कापि मधुरिपुणा... ॥ ५ ॥

अन्वय- दयित - विलोकित- लज्जित - हसिता ( दयितस्य प्रियस्य विलोकितेन वीक्षणेन लज्जितं लज्जायुक्तं हसितं हास्यं यस्याः तथोक्ता) [ तथा ] बहुविध कूजित - रति-रस- रसिता (बहुविधं पारावतादिवत् कूजितं यस्यां तादृशी या रतिः तस्या रसेन आस्वादेन रसिता रसपूर्णा ) ॥५ ॥

अनुवाद - दयित श्रीकृष्ण के द्वारा अवलोकित होने पर वह लज्जित होती होगी, हँसती होगी, रतिकाल में रति रस रसिता होकर कोकिल कलहंसादि के समान मदन विकार सूचक 'सीत्कार' शब्द करती होगी।

पद्यानुवाद-

हरि - आलोकित - लज्जित - हंसिता ।

बहु विधि कूजित रति-रस- रसिता ॥

शोभित है युवती री कोई ।

हरिसे विलस रही जो खोई ॥

बालबोधिनी - प्रियतम श्रीकृष्ण जब तृप्त होकर उसकी ओर देखते होंगे, तब वह लज्जित होकर गर्दन झुका लेती होगी, हँसती होगी, रतिरसातिरेक के कारण वह पक्षियों-कोकिल, कलहंस के समान विविध प्रकार की मधुर सीत्कार ध्वनि करती होगी।

विपुल - पुलक- पृथु - वेपथु - भङ्गा ।

श्वसित - निमीलित-विकसदनङ्गा-

कापि मधुरिपुणा... ॥ ६ ॥

अन्वय- विपुल - पुलक-पृथु-वेपथु-भङ्गा (विपुलाः पुलकाः पृथुः महान् वेपथुः कम्पश्च तेषां भङ्गाः तरङ्गाः यस्याः तादृशी) [ तथा ] श्वसित - निमीलित-विकसदनङ्गा ( श्वसितेन निमीलितेन च विकसन् आविर्भवन् अनङ्गः मदनः यस्याः तादृशी ॥६॥

अनुवाद - अनंग- रस से पुलकित हो उसके रोमांच एवं कम्प ही उसके तरंग के समान हैं। सघन निःश्वास एवं नेत्र- निमीलन के द्वारा वह मदन-आवेश प्रकाशित करती होगी।

पद्यानुवाद-

विपुल पुलक पृथु वेपथु भंगा ।

श्वसित निमीलित उदित अनंगा ॥

शोभित है युवती री कोई ।

हरिसे विलस रही जो खोई ॥

बालबोधिनी रतिकाल में पुलकावलियों से, कम्पन से, स्वर भंग होने से वह लम्बी-लम्बी श्वासोच्छ्वास करती होगी, आनन्द प्राप्ति होने पर आँखें मूँद लेती होगी, जिससे उसका काम विकसित होता होगा।

वेपथुभङ्गा - प्रस्तुत श्लोक में रोमाञ्च तथा कम्प को तरंग सदृश इसलिए बताया है कि जिस प्रकार जलाशय में एक के बाद दूसरी तरंग उत्पन्न होती है, उसी प्रकार उसके शरीर में भी रोमांच तथा कम्प उत्तरोत्तर उत्पन्न होते होंगे।

श्रमजल - कण-भर - सुभग- शरीरा ।

परिपतितोरसि रति रण-धीरा ॥

कापि मधुरिपुणा... ॥७॥

अन्वय- श्रम- जल-कण-भर सुभग-शरीरा ( श्रमजलकणभरेण सुरतश्रमजात - स्वेदवारिबिन्दुसमूहेन सुभगं सुन्दरं शरीरं यस्याः सा) [तथा ] रतिरणधीरा (सुरतसंग्रामे धीरा पण्डिता) [निःसहता-विस्मृत-स्वाङ्गानुसन्धानतया ] उरसि (कान्तस्य वक्षसि) परिपतिता ॥७ ॥

अनुवाद - रतिरसनिपुण वह कामिनी सुरत-क्रीड़ा जन्य पसीने की बूँदों से और भी सुन्दर लगती होगी, रतिक्रिया में धैर्य धारण करनेवाली वह रतिश्रमश्रान्ता श्रीकृष्ण के वक्षःस्थल पर निपतिता होकर कितनी शोभा पा रही होगी।

पद्यानुवाद-

श्रमजल कण भर सुभग शरीरा ।

हरि- उर पतित सुरति रणधीरा ॥

शोभित है युवती री कोई ।

हरिसे विलस रही जो खोई ॥

बालबोधिनी - अनंग आवेश में वह पूर्ण रूप से थक गयी होगी। सुरतायासजन्य श्रम बिन्दुओं से उसका मुखारविन्द कैसा चमकता होगा? स्वयं को विस्मृत होकर सुरतक्रियारूपी रण में दक्ष वह श्रीकृष्ण के वक्षःस्थल पर गिर गयी होगी, उसकी शोभा कैसी अद्भुत हो रही होगी ।

श्रीजयदेव - भणित- हरि - रमितम् ।

कलि- कलुष जनयतु परिशमितम्-

कापि मधुरिपुणा... ॥८ ॥

अन्वय- श्रीजयदेव - भणित- हरि रमितं ( श्रीजयदेवेन भणितं यत् हरिरमितं हरेः रमणं ) [ भक्तानां] कलिकलुषं (कामादिकं ) परिशमितं जनयतु ॥ ८ ॥

अनुवाद - कवि जयदेव द्वारा वर्णित यह हरि - रमण – विलास रूप रतिक्रीड़ा सब का कलि-कल्मष अर्थात् कामवासना को शान्त करे।

पद्यानुवाद-

श्रीजयदेव कथित यह लीला ।  

कलि-मल सहज विनाशनशीला ॥

शोभित है युवती री कोई ।

हरिसे विलस रही जो खोई ॥

बालबोधिनी – गीतगोविन्द के इस चौदहवें प्रबन्ध का नाम हरिरमितचम्पकशेखर है। इस प्रबन्ध में विपरीत रति का वर्णन है । रति- व्यापार का यह वर्णन अति पवित्र है । यह पाठकों तथा श्रोताओं के कलिदोषजन्य काम-विकार का प्रक्षालन करे।

विरह - पाण्डु - मुरारि - मुखाम्बुजद्युतिरयं तिरयन्नपि वेदनाम् ।

विधुरतीव तनोति मनोभुवः सुहृदये हृदये मदनव्यथाम् ॥

अन्वय - [अथ चन्द्रं पश्यन्ती तं श्रीकृष्णमुखत्वेन उद्भाव्य तत्र अन्यया सह वर्त्तमानस्यापि मद्विरहेण पाण्डुत्वस्फुर्त्या स्वस्मिन् तस्य अतिप्रणयितां स्मरन्ती चन्द्रमाक्षिपति ] – अये (खेदे) मनोभुवः (कामस्य) सुहृत् (मित्रभूतः ) विरहपाण्डु - मुरारि - मुखाम्बुजद्युतिः (विरहेण मम विच्छेदेन पाण्डु यत् मुरारेः कृष्णस्य मुखाम्बुजं तस्य द्युतिरिव द्युतिर्यस्य तथाभूतः ) [ अतएव ] वेदनां (सन्तप्तानां मनोव्यथां ) तिरयन्नपि (आच्छादयन् निराकुर्वन्नपीत्यर्थः; चन्द्रदर्शनेन श्रीकृष्णमुखदर्शनजनितानन्दादि भावः) अयं विधु: (चन्द्रः) हृदये अतीव मदनव्यथां (कृष्णस्य अदर्शन - जनितामिति भावः) तनोति (विस्तारयति ) [ मदन - सुहृत्वेन तन्मुखस्मारकतया चन्द्रो मां व्यथयतीत्यभिप्रायः ] ॥ १ ॥

अनुवाद - प्रियसखि ! मेरे विरह में पाण्डुवर्ण हुए श्रीमुरारी के मुखकमल की कान्ति के समान धूसरित यह चन्द्रमा मेरी मनोव्यथा को तिरोहित कर कामदेव के सुहृदभूत मेरे हृदय में मदन – सन्ताप की अभिवृद्धि कर रहा है।

बालबोधिनी – श्रीराधा ने विलाप करते हुए सारी रात बितायी। जब चन्द्रमा को अस्ताचल की ओर जाते देखा, तब अपने प्रति श्रीकृष्ण के पूर्वराग का स्मरण कर अपनी प्रिय सखी से कहने लगी- अरे सखि ! कितने कष्ट की बात है। यह जो चन्द्रमा है, सन्तप्त व्यक्तियों की विरह व्यथा को और भी बढ़ा रहा है। अब यह अस्तमित हो रहा है, जिससे मेरा मदनताप तिरोहित हो रहा है। इसके पाण्डुवर्ण को देखकर मुझे श्रीहरि के मुखकमल का स्मरण हो रहा है- मेरे विरह में वे कैसे निष्प्राण हो गये होंगे? अन्य प्रकार से अनुमान करती हुई कहती हैं कि श्रीहरि मेरा परित्याग कर किसी दूसरी रमणी के साथ रमण कर रहे हैं, इसलिए उनकी ढलते चन्द्रमा जैसी कान्ति हो गयी है, यही कारण है कि हृदय में सन्ताप और अधिक गहरा गया है।

इति चतुर्दश: सन्दर्भः ।

आगे पढ़ें........ गीतगोविन्द सर्ग 7 अष्ट पदि 15

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