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कर्मकाण्ड

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कालिका पुराण अध्याय ६९

कालिका पुराण अध्याय ६९                      

कालिका पुराण अध्याय ६९ में षोडशोपचार पूजा विधि अंर्तगत वस्त्र, आभूषण, गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, नेत्र रञ्जन इन पूजा उपचारों के विषय का वर्णन है ।

कालिका पुराण अध्याय ६९

कालिका पुराण अध्याय ६९                                        

Kalika puran chapter 69

कालिकापुराणम् एकोनसप्ततितमोऽध्यायः वस्त्रादिपूजोपचारवर्णनम्

अथ श्रीकालिका पुराण अध्याय ६९                     

।। श्रीभगवानुवाच ।।

।। वस्त्रवर्णनम् ।।

कार्पासं कम्बलं वाल्कं कोशजं वस्त्रमिष्यते ।

तत्पूर्वं पूजयित्वैव मन्त्रैर्देवाय चोत्सृजेत् ।। १ ।।

श्रीभगवान् बोले- कार्पास (कपास से बने, सूती), कम्बल (ऊनी), वल्कल से बने तथा कोशा (रेशम) से बने, ये चार प्रकार के वस्त्र कहे जाते हैं, जिन्हें पहले पूजन कर (प्रतिष्ठित करके), मन्त्रोच्चारपूर्वक अपने पूज्यदेवता को समर्पित करे ॥ १ ॥

निर्दशं मलिनं जीर्णं छिन्नं गात्रावलिंङ्गितम् ।

परकीयं ह्याखुदंष्टं सूचीविद्धं तथोषितम् ।। २ ।।

उप्तलेशं विधौतं च श्लेष्ममूत्रादिदूषितम् ।

प्रदाने देवताभ्यश्च दैवे पित्र्ये च कर्मणि ।

वर्जयेत् स्वोपयोगेन यज्ञादावुपयोजने ॥ ३॥

बिना माला आदि से सजे हुए, मैले, पुराने, कटे हुए, शरीर पर धारण किये हुये, दूसरों के, चूहों से काटे हुए, सूई से छिदे (सिले), जले हुये, उप्तलेश (कतरन), बिना धोये, कफ-मूत्र आदि से दूषित वस्त्रों को दैव और पितृकार्यों में देवताओं के लिये पूजादान करने में प्रयोग नहीं करे। अपने उपयोग के वस्त्रों में, यज्ञादि में भी उनका उपयोग नहीं करना चाहिये ॥ २-३ ॥

उत्तरीयोत्तरासङ्गैर्निचोलो मोदचेलकः ।

परिधानं च पञ्चैतान्यस्यूतानि प्रयोजयेत् ।।४।।

दुपट्टा, कुर्ता से रहित या बिना चोली के ढीले-ढाले, ऊपरी वस्त्रों या बिना सिले हुये पाँच प्रकार के वस्त्रों का प्रयोग करे ॥ ४ ॥

शाणवस्त्रं निशारं च तथैवातपवारणम् ।

चण्डातकं तथा दृश्यं पञ्च स्यूतान्यदुष्टये ।। ५ ।।

सन से बने वस्त्र, छाता, चण्डातक (लहँगा), निशार, दृश्य (पारदर्शक) ये पाँच सिले होने पर भी शुद्ध होते हैं ।॥ ५ ॥

पताकाध्वजकुण्डादौ स्यूतं वस्त्रं प्रयोजयेत् ।

अन्यत्रावरणादौ च तद्विनाशस्य तेन तत् ।। ६ ।।

ध्वजा, पताका तथा कुण्ड आदि के लिए विनाश से बचाते हुये सिले वस्त्रों का ही प्रयोग करना चाहिये ॥ ६ ॥

रक्तं कौशेयवस्त्रं च महादेव्यै प्रशस्यते ॥ ७ ॥

पीतं तथैव कौशेयं वासुदेवाय चोत्सृजेत् ।

रक्तं तु कम्बलं दद्याच्छिवाय परमात्मने ॥ ८ ॥

साधक लाल रेशमी वस्त्र देवी की उपासना के लिए और पीले रेशमी वस्त्रों का भगवान्विष्णु के पूजन में उपयोग करे। उसे लाल एवं ऊनी वस्त्रों को परमात्मा शिव को समर्पित करना चाहिये ।।७-८।।

विचित्रं सर्वदेवेभ्यो देवीभ्योऽशु निवेदयेत् ।

कार्पासं सर्वतोभद्रं दद्यात् सर्वेभ्य एव च ।। ९ ।।

रंगबिरङ्गे वस्त्र सभी देवी देवताओं को तथा कपास, रूई से बना सूतीवस्त्र जो सब प्रकार से कल्याण कारक है, सभी देवताओं को निवेदित करे ॥ ९ ॥

नैकान्तरक्तं दद्यात् तु वासुदेवाय चैलकम् ।

तथा नैकान्तनीलं तु शिवाय विनिवेदयेत् ।।१०।।

एकमात्र लालवस्त्र भगवान्विष्णु को तथा एकमात्र काला या नीलावस्त्र भगवान् शिव को न चढ़ाये ॥ १० ॥

नीलीरक्तं तु यद्वस्त्रं तत् सर्वत्र विवर्जितम् ।

दैवे पित्र्ये तूपयोगे वर्जयेत् तु विचक्षणः ।। ११ ।।

नीले या काले, लाल, वस्त्रों का देवता, पितर एवं अपने उपयोग के भी कार्यों में बुद्धिमान् साधक, सदैव निषेध करे॥ ११॥

नीलीरक्तं प्रमादात्तु यो दद्याद् विष्णवे बुधः ।

निष्फला तस्य तत्पूजा तदा भवति भैरव ।। १२ ।।

हे भैरव ! जो विद्वान् (साधक) लाल और काले वस्त्र भूल से भी भगवान् विष्णु को चढ़ाता है, उस समय की जाने वाली उसकी वह पूजा, निष्फल हो जाती है ॥ १२ ॥

विचित्रे वाससि पुनर्लग्नं नीलीविरञ्जितम् ।

वस्त्रं दद्यान्महादेव्यै नान्यस्मै तु कदाचन ।। १३ ।।

रंग-बिरंङ्गे-वस्त्रों के साथ ही काले वस्त्र महादेवी को समर्पित करे किन्तु कभी भी दूसरे देवताओं को नहीं समर्पित करना चाहिये ॥ १३ ॥

द्विपदां ब्राह्मणो यद्वद्देवानां वासवो यथा ।

तथा भूषणवर्गेषु वस्त्रमुत्तममुच्यते ।।१४।।

दो पैरवालों (मनुष्यों) में जैसे ब्राह्मण, देवताओं में इन्द्र, श्रेष्ठ हैं उसी प्रकार भूषणों (शरीर को सुशोभित करने वालो) में वस्त्र, सर्वश्रेष्ठ कहा गया है ॥ १४ ॥

वस्त्रेण जीर्यते लज्जा वस्त्रेण हीयते त्वघम् ।

वस्त्रात् स्यात् सर्वतः सिद्धिश्चतुर्वर्गप्रदं च तत् ।। १५ ।।

वस्त्रदान से लज्जाक्षीण होती है। वस्त्रदान से पाप कम होता है। वस्त्रदान से सब प्रकार की सिद्धि प्राप्त होती है, वस्त्र चारो पुरुषार्थों को देने वाला है ॥१५॥

कालिका पुराण अध्याय ६९- आभूषण वर्णन                      

।। आभूषणवर्णनम् ।।

वस्त्रं ते कथितं पुत्र सर्वप्रीतिप्रदायकम् ।

भोग्यं भूषोत्तमं नित्यं भूषणानि शृणुष्व मे ।। १६ ।।

हे पुत्रों ! मैंने सबको प्रसन्नता देने वाले वस्त्रों के विषय में कहा । अब मैं नित्य उपयोग में आने वाले शोभाकारकों में श्रेष्ठ, आभूषणों के विषय में कहता हूँ, तुम दोनों उसे मेरे द्वारा सुनो ॥ १६ ॥

किरीटं च शिरोरलं कुण्डलं च ललाटिका ।

तालपत्रं च हारश्च ग्रैवेयकमथोर्मिका ।। १७ ।।

प्रालम्बिकारत्नसूत्रमुत्तङ्गोतर्क्षमालिका ।

पार्श्वद्योतो नखद्योतो ह्यङ्गुलीच्छादकस्तथा ।। १८ ।।

जूटालकं मानवको मूर्धताराखलन्तिका ।

अङ्गदो बाहुबलय: शिखाभूषण इङ्गिका ।। १९ ।।

प्राग्दण्डबन्धमुद्धासनाभिपूरोऽथ मालिका ।

सप्तकी शृङ्खलं चैव दन्तपत्रं च कर्णकः ।। २० ।।

ऊरुसूत्रं च नीवीं च मुष्टिबन्धं प्रकीर्णकम् ।

पादाङ्गदं हंसकश्च नूपुरं क्षुद्रघण्टिका ।। २१ ।।

सुखपट्टमिति प्रोक्ता अलङ्काराः सुशोभनाः ।

चत्वारिंशदमी प्रोक्ता लोके वेदे तु सौख्यदाः ।। २२ ।।

१. मुकुट २. शिरोरत्न ३. कुण्डल ४. ललाटिका (लांगटीका) ५. ताल- पत्र (कान का आभूषण) विशेष ६. हार ७. ग्रैवेयक ८. ऊर्मिका (अँगूठी) ९. प्रालम्बिका (मुक्ताहार) १०. रत्नसूत्र ११. उत्तङ्ग (उत्तङ्गश, मुकुट के उपर का आभूषण) १२. तर्क्षमालिका १३. पार्श्वद्योत १४. नखद्योत १५. अङ्गुलीच्छादक १६. जूटालक १७. मानवक १८. मूर्धतारा १९. खलन्तिका २०. अङ्गद (बाजूबन्द) २१. बाहुबलय (भुजदण्ड) २२. शिखाभूषण २३. इङ्गिका २४. प्राग्दण्डबन्धन २५. उद्भासना २६. अभिपूर २७. मालिका २८. सप्तकी (करधनी) २९. श्रृंखल (सीकड़) ३०. दन्तपत्र (कान का आभूषण विशेष) ३१. कर्णक (कान की बाली) ३२. ऊरुसूत्र ३३. नीवी (कमर बन्द) ३४. मुष्टिबन्ध ३५. प्रकीर्णक (चपर) ३६. पादाङ्गद ३७. हंसक (पैर का आभूषण विशेष) ३८. नूपूर (पायजेब) ३९. छुद्रघण्टिका (घुंघरू वाली करधनी) ४०. सुखपट्ट ये चालीस प्रकार के सुन्दर और सुखदायक गहने, लोक एवं वेद में कहे गये हैं ।। १७-२२ ।।

अलङ्कारप्रदानेन चतुर्वर्गप्रसाधनम् ।

एतेषां पूजनं कृत्वा प्रदद्यादिष्टसिद्धये ।

तेषां दैवतमुच्चार्य पूजयेत् तु विचक्षणः ।। २३ ।।

अलङ्कारप्रदान करने से अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष चारों पुरुषार्थों की सिद्धि होती है। इनका पूजन (प्रतिष्ठा) करके इष्टसिद्धि हेतु इन्हें इष्टदेव को प्रदान करना चाहिये ॥२३॥

शिरोगतानि वा दद्यात् सौवर्णानि तु सर्वदा ।

चूडारत्नादिकानीह भूषणानि तु भैरव ।। २४ ।।

हे भैरव ! सिर पर धारण किये जाने वाले चूड़ारत्न आदि आभूषण, सदैव स्वर्ण के बने ही अर्पित करना चाहिये ॥ २४ ॥

ग्रैवेयकादिहंसान्तं सौवर्णं राजतं च वा ।

निवेदयेत् तु देवेभ्यो नान्यत् तैजससम्भवम् ।। २५।।

देवताओं को ग्रैवेयक से हंसक पर्यन्त उल्लिखित आभूषण, सोने या चाँदी से ही बने, अर्पित करे। किसी अन्य धातु से निर्मित नहीं ॥ २५ ॥

रीतिरङ्गादि संजातं पात्रोपकरणादिकम् ।

दद्यादायसमयं तु भूषणं न कदाचन ।। २६ ।।

पीतल, काँसे आदि के बने पात्र और उपकरण आदि भले दिये जायँ किन्तु उनके तथा लोहे के बने आभूषण कभी नहीं प्रदान किये जाने चाहिये ॥ २६ ॥

घण्टाचामरकुम्भादिपात्रोपकरणादिकम् ।

तद्भूषणान्तरे दद्यादस्मात् तदुपभूषणम् ।। २७ ।।

जो घण्टा, चामर, कलश आदि पात्र और पूजा के उपकरण कहे जाते हैं, उन्हें आभूषण प्रदान करने के बाद चढ़ाना चाहिये। इसीलिए इन्हें उपभूषण कहा जाता है ।। २७।।

सर्वं ताम्रमयं दद्याद् यत् किञ्चिद् भूषणादिकम् ।

सर्वत्र स्वर्णवत् ताम्रमर्घ्यपात्रे ततोऽधिकम् ।। २८ ।।

अन्यथा भी आभूषण आदि देवता को अर्पित हों, वे सब ताँबे का ही बना हुआ अर्पित करना चाहिये। ताँबा सब जगह स्वर्ण के समान है किन्तु अर्घ्यपात्र की दृष्टि से तो यह स्वर्ण से भी श्रेष्ठ है ॥ २८ ॥

पूजार्घ्यपात्रनैवेद्याधारपात्रं च पानकम् ।

औदुम्बरं सदा विष्णोः प्रीतिदं तोषदं तथा ।। २९ ।।

पूजा की दृष्टि से औदुम्बर (ताँबे) के बने अर्घ्यपात्र, नैवेद्य आदि के आधार - पात्र, पान (पीने के) पात्र, विष्णु को सदा सन्तोष और प्रसन्नता देने वाले हैं ॥ २९ ॥

ताम्रे देवाः प्रमोदन्ते ताम्रे देवाः स्थिताः सदा ।

सर्वप्रीतिकरं ताम्रं तस्मात् ताम्रं प्रयोजयेत् ।। ३० ।।

ताँबे में देवता प्रसन्न होते हैं, ताँबे में देवता सदैव स्थित रहते हैं। ताँबा सबको सब प्रकार की प्रसन्नता देने वाला है, इसीलिए मनुष्य (साधक) को अपने तथा देवताओं के उपयोग के लिए भी ताँबे का ही प्रयोग करना चाहिये ॥ ३१ ॥

स्वोपयोगे नरः कुर्याद् देवानामपि भैरव ।

ग्रीवोर्ध्वदेशे रौप्यं तु न कदाचिच्च भूषणम् ।। ३१ ।।

भैरव ! मनुष्य को अपने उपयोग के लिए हो या देवताओं के उपयोग के लिए हो, कभी भी गले ऊपर स्थित अङ्गों के लिए चाँदी के बने आभूषणों का उपयोग नहीं करना चाहिये ॥ ३१ ॥

प्रावारः पानपात्रं च गण्डको गृहमेव च ।

पर्यङ्कादि यदन्यच्च सर्वं तदुपभूषणम् ।। ३२ ।।

पहनने के लिए चोंगा, पानपात्र, गण्डक (घोड़े का आभूषण विशेष ) गृह, पलंग आदि जो अन्य वस्तुयें हैं, वे सब वस्तुएँ उपभूषण कही जाती हैं ॥३२ ॥

अयोमयमृते कांस्यमृते यद्भूषणं भवेत् ।

स्वर्णरोप्यस्य चाभावे त्वधः काये नियोजयेत् ।। ३३ ।।

सोने और चाँदी के बने आभूषणों के अभाव में, लोहे एवं काँसे के छोड़कर अन्य धातुओं के बने आभूषण, शरीर के निचले भाग में चढ़ाये ॥ ३३ ॥

एतेषां भूषणादीनां यद् दातुं शक्यते नरैः ।

तत् तद् दद्यात् सम्भवे तु सर्वमेव प्रदापयेत् ।। ३४ ।।

साधक मनुष्यों द्वारा इन आभूषण आदि में से जो जो देना सम्भव हो वे वे देवता को अर्पित करे। यदि सम्भव हो तो सभी प्रकार के आभूषण प्रदान करे ॥३४॥

चतुर्वर्गप्रदं त्वित्थं भूषणं सर्वसौख्यदम् ।

तुष्टिपुष्टिप्रीतिकरं यथाशक्तीष्टये सृजेत् ।। ३५ ।।

इदं वा भूषणं प्रोक्तं सर्वदेवस्य तुष्टिदम् ।। ३६ ।।

यह सब आभूषण, चारों पुरुषार्थ प्रदान करने वाले, सब प्रकार का सुख देने वाले, तुष्टि पुष्टि और प्रीति कारक हैं। इन्हें अपने सामर्थ्य के अनुरूप इष्ट देवता को समर्पित करे। ये सभी देवताओं को सन्तुष्ट करने वाले आभूषण बताये गये हैं ॥ ३६ ॥

कालिका पुराण अध्याय ६९- गन्ध वर्णन

।। गन्धवर्णन ॥

गन्धं च सम्यक् शृणुतं पुत्रौ वेतालभैरवौ ।

चूर्णीकृतो वा घृष्टो वा दाहाकर्षित एव वा ।। ३७ ।।

रसः सम्मर्दजो वापि प्राण्यङ्गोद्भव एव वा ।

गन्धः पञ्चविधः प्रोक्तो देवानां प्रीतिदायकः ॥३८॥

हे वेताल और भैरव नामक पुत्रों ! अब तुम दोनों, गन्ध के विषय में भली-भाँति सुनो- चूर्ण बनाया हुआ, घिसा गया, जलाकर प्राप्त किया गया ( भस्म आदि), परस्पर घर्षण से प्राप्त रस, प्राणियों के अङ्ग से उत्पन्न (कस्तूरी आदि) के भेद से देवताओं को प्रीतिप्रदान करने वाला, गन्ध इस प्रकार पाँच प्रकार का बताया गया है ।। ३६-३८।।

गन्धचूर्णं गन्धपत्रं चूर्णं सुमनसस्तथा ।

प्रशस्तगन्धयुक्तानां पत्रचूर्णानि यानि तु ।

तानि गन्धवहानि स्युः सगन्धः प्रथमः स्मृतः ।। ३९ ।।

चन्दन का चूर्ण, चन्दन के पत्ते का चूर्ण, उसके पुष्पों का चूर्ण या उत्तम सुगन्धित पत्तों के चूर्ण जो स्वयं में सुगन्धित होता है, वह प्रथमकोटि का गन्ध(चूर्णीकृत गन्ध) कहा गया है ।। ३९ ।।

घृष्टो मलयजो गन्धः सचूर्णीकृतमेरुणा ।। ४० ।।

अगुरुप्रभृतिश्चापि यस्य पङ्क: प्रदीयते ।

गन्धो घृष्ट्वामघृष्टोऽयं द्वितीयः परिकीर्तितः ।। ४१ ।।

मलयाचल पर उत्पन्न, मेरु (शिला) पर रगड़ा गया चन्दन, अगुरु आदि से बना, जिसका पङ्क मिलाकर, प्रदान किया जाता है, वह गन्ध से युक्त हो घिसे जाकर द्वितीय कोटि का घृष्टगन्ध कहा जाता है ।।४०-४१ ।।

देवदार्वगुरुपद्मगन्धसारान्त चन्दनाः ।

प्रियादीनां च यो दग्ध्वा गृह्यते दाहजो रसः ।।४२।।

स दाहाकर्षितो गन्धस्तृतीयः परिकीर्तितः ।

देवदारु, अगुरु, कमल, चन्दन, प्रिया (छोटी इलायची) आदि को जलाकर दाह के कारण जो रसतत्त्व प्राप्त किया जाता है वह तृतीय कोटि का दाहकर्षितगन्ध कहा जाता है ॥ ४२ ॥

सुगन्धकरवीबिल्वगन्धीनि तिलकं तथा ।।४३।।

प्रभृतीनां रसो योऽसौ निष्पीड्य परिगृह्यते ।

स सम्मर्दोद्भवो गन्धः सम्मर्दज इतीष्यते ।। ४४ ।।

सुगन्धित कनैल, बिल्व (बेल), तिलक (वृक्ष विशेष) आदि निचोड़ कर जो रस ग्रहण किया जाता है, वह रगड़ से उत्पन्न होने के कारण चौथे प्रकार का सम्मर्दजगन्ध कहा जाता है ।।४३-४४ ।।

मृगनाभिसमुद्भूतस्तत्कोषोद्भव एव वा ।

गन्ध: प्राण्यङ्गजः प्रोक्तो मोददः स्वर्गवासिनाम् ।। ४५ ।।

कस्तूरीमृग की नाभि से उत्पन्न या उसकी कोषिकाओं से उत्पन्न जो गन्ध है,उसे प्राणी के अङ्ग से उत्पन्न गन्ध कहा जाता है और यह सभी स्वर्गवासियों, देवताओं को आनन्द देने वाला है ।। ४५ ।।

कर्पूरगन्धसाराद्याः क्षोदे घृष्टे च संस्थिताः ।

चन्द्रभागादयश्चापि रसे पङ्के च सङ्गताः ।।४६ ॥

गन्धसारं सर्वरसं गन्धादौ च प्रयुज्यते ।

मृगनाभिर्भवेद् घृष्टश्चूर्णोऽप्यन्यस्य योगतः ।। ४७ ।।

कर्पूर, चन्दन आदि सिल पर, चकले पर स्थित हो, चन्द्रभाग आदि के जल और कीचड़ से युक्त हुए सभी पदार्थ चन्दन की भाँति प्रयुक्त होते हैं । मृगनाभि (कस्तूरी) भी अन्यों से मिलकर घृष्ट या चूर्ण अवस्था को प्राप्त कर लेता है ।।४६-४७॥

एवं सर्वं तु सर्वत्र गन्धो भवति पञ्चधा ।

घृष्टादिभावादन्योन्यं गन्धः प्रीतिकरं परः ।।४८ ।

इस प्रकार सभी गन्ध सब जगह पाँच प्रकार का ही होता है। घृष्टादि भावों को ग्रहण करते हुये ये गन्ध, अत्यधिक प्रसन्नता देते हैं ॥ ४८ ॥

सर्वः पञ्चविधेष्वेव प्रविष्टो भवति क्षणात् ।। ४९ ।।

गन्धस्य विस्तरो भेदः प्रोक्तः कालीयकादयः ।

गन्ध के कालीयक आदि जो विस्तृत भेद कहे गये हैं, वे सभी क्षणभर में ही इन्हीं पाँचभेदों में समाविष्ट हो जाते हैं ॥४९॥

गन्धो मलयजो यस्तु दैवे पित्र्ये च सम्मतः ।

तस्य पङ्को रसो वापि चूर्णो वा विष्णुतुष्टिदः ।। ५० ।।

जो मलयाचल में उत्पन्न होने वाला गन्ध (चन्दन) है, वह देवता और पितरों को रुचिकर है एवं उसका पङ्क (लेप), रस या चूर्ण, भगवान्विष्णु को तुष्टि देनेवाला है ॥५०॥

सर्वेषु गन्धजातेषु प्रशस्तो मलयोद्भवः ।

तस्मात् सर्वप्रयत्नेन दद्यान्मलयजं सदा ।।५१।।

गन्ध हेतु प्रयोग किये जाने वाले पदार्थों में मलयज सर्वश्रेष्ठ है। अतः सब प्रकार के प्रयत्नपूर्वक सदैव मलयपर्वत पर उत्पन्न चन्दन ही अर्पित करना चाहिये॥५१॥

कृष्णागुरुः सकर्पूरः सहितो मलयोद्भवैः ।

वैष्णवीप्रीतिदो गन्धः कामाख्यायाश्च भैरव ।।५२।।

हे भैरव ! मलयजचन्दन और काले अगुरु और कपूर सहित निर्मित गन्ध वैष्णवी एवं कामाख्या को प्रसन्नता देने वाला है ॥५२॥

कुङ्कुमागुरुकस्तूरीचन्द्रभागैः समीकृतैः ।

त्रिपुराप्रीतिदो गन्धस्तथा चण्ड्याश्च शस्यते ।। ५३ ।।

कुङ्कुम, अगुरु, कस्तूरी और चन्द्रभाग (कपूर) समान मात्रा में मिलाये जाने से त्रिपुरा को प्रसन्नता प्रदान करने वाला एवं चण्डी के लिए प्रशस्त गन्ध बनता है ॥५३॥

दैवतोद्देशपूर्वेण गन्धं सम्पूज्य साधकः ।

देवायेष्टाय वितरेत् सर्वसिद्धिप्रदं सदा ।।५४।।

देवता को लक्ष्य में रखकर, उनकी पूजा के पश्चात् साधक सदैव सब प्रकार की सिद्धि देने वाला चन्दन, अपने इष्टदेव को अर्पित करे ॥ ५४ ॥

गन्धेन लभते कामान् गन्धो धर्मप्रदः सदा ।

अर्थानां साधको गन्धो गन्धे मोक्षः प्रतिष्ठितः ।।५५।।

गन्ध (प्रदान करने) से साधक को उसकी कामनायें प्राप्त होती हैं, गन्ध उसे सदैव धर्म देता है, गन्ध अर्थ की सिद्धि कराता है, गन्ध मोक्ष को प्रतिष्ठित करता है ॥५५॥

कालिका पुराण अध्याय ६९- पुष्प वर्णन

।। पुष्पवर्णन ।।

अयं वा कथितो गन्धः पुत्रौ वेतालभैरवौ ।

पुष्पाणि देव्या वैष्णव्याः प्रियाणि शृणु सम्प्रति ।। ५६ ।।

हे वेताल और भैरव नामक पुत्रों ! यह मैंने तुम दोनों से गन्ध (चन्दन) के विषय में कहा, अब देवी वैष्णवी के प्रिय पुष्पों के सम्बन्ध में सुनो ॥ ५६ ॥

बकुलैश्चैव मन्दारैः कुन्दपुष्पैः कुरुण्टकैः ।

करवीरार्कपुष्पैश्च शाल्मलैश्चापराजितैः ।। ५७ ।।

दमनैः सिन्धुवारैश्च सुरभी कुरुवकैस्तथा ।

लताभिर्ब्रह्मवृक्षस्य दूर्वाङ्कुरैश्च कोमलैः ।। ५८ ।।

मञ्जरीभिः कुशानां च बिल्वपत्रैः सुशोभनैः ।

पूजयेद् वैष्णवीदेवीं कामाख्यां त्रिपुरां तथा ।। ५९ ।।

बकुल, मँदार, कुन्द, कुरुण्टक, कनैल, आक, शाल्मली, अपराजिता, दमन, सिन्धुवार कुरुवक के सुगन्धित पुष्पों, ब्रह्मवृक्ष (ढाक या गुलर) की लताओं, दूब के कोमल अङ्कुरों, कुश की मञ्जरियों, सुन्दर बिल्वपत्रों से साधक वैष्णवी देवी, कामाख्या तथा त्रिपुरा का पूजन करे ।। ५७-५९ ।।

अन्याश्च या शिवाप्रीत्यै जायन्ते पुष्पजातयः ।

ता इमाः शृणु कथ्यन्ते मया वेतालभैरव ॥ ६० ॥

हे वेताल एवं भैरव ! शिवा (देवी) की प्रसन्नता के लिए अन्य जो पुष्पों की जातियाँ उत्पन्न हैं, उनके विषयों में कहता हूँ, तुम दोनों सुनो ॥ ६० ॥

मालती मल्लिका जाती यूथिका माधवी तथा ।

पाटला करवीरश्च जवा तर्कारिका तथा ।। ६१ ।।

कुब्जकस्तगरचैव कर्णिकारोऽथ रोचना ।

चम्पकाम्रातकौ बाणो बर्बरा मल्लिका तथा ।।६२।।

अशोको लोध्रतिलकौ अटरूषशिरीषकौ ।

शमीपुष्पं च द्रोणश्च पद्मोत्पलबकारुणाः ।। ६३ ।।

श्वेतारुणस्त्रिसन्ध्ये च पलाश: खदिरस्तथा ।

वनमालाऽथ सेवन्ती कुमुदोऽथ कदम्बकः ।।६४।।

चक्रं कोकनदं चैव तण्डिलो गिरिकर्णिका ।

नागकेशरपुन्नागौ केतक्यञ्जलिका तथा ।। ६५ ।।

दोहदा बीजपूरश्च नमेरुः शाल एव च ।

त्रपुषी चण्डबिल्वश्च झिण्टी पञ्चविधास्तथा ।

एवमाद्युक्तकुसुमैः पूजयेद् वरदां शिवाम् ।। ६६ ।।

मालती, मल्लिका, जाती (चमेली), यूथिका (जूही), माधवी, पाटल, करवीर, जवा, तर्कारिका, कुब्जक, तगर, कर्णिकार, रोचना, चम्पक, आम्रातक, बाण (पुष्पविशेष), बर्बर (वनतुलसी), अशोक, लोध, तिलक, अटरूष, शिरीष, शमीपुष्प, द्रोण, पद्म (लालकमल), उत्पल (नीलकमल), बकारुण, श्वेतारुण, पलाश, खदिर (खैर), वनमाला, सेवन्ती, कुमुद, कदम्ब, चक्र, कोकनद, तण्डिल, गिरिकर्णिका, नागकेशर, पुन्नाग, केतकी और अञ्जलिका, दोहद, बीजपूर, नमेरू, शाल, पुषी, चण्डबिल्व और पाँच प्रकार के झिण्टी पुष्पों से वरदायिनी शिवा का तीनों संध्याओं में पूजन करना चाहिये ।।६१-६६ ॥

अपामार्गस्य पत्र तु ततो भृङ्गारपत्रकम् ।

ततोऽपि गन्धिनीपत्रं वलाहकमतः परम् ।।६७।।

तस्मात् खदिरपत्रं तु वञ्जुलस्तवकस्तथा ।

आम्रं तु बकगुच्छं तु जम्बुपत्रं ततः परम् ।। ६८ ।।

बीजपूरस्य पत्रं तु ततोऽपि कुशपत्रकम् ।

दूर्वांकुरं ततः प्रोक्तं शमीपत्रमतः परम् ।।६९।।

पत्रमामलकं तस्मादामलं पत्रमन्ततः ।

सर्वतो बिल्वपत्रं तु देव्याः प्रीतिकरं मतम् ।।७० ।।

अपामार्ग (चिचिड़ा), भृङ्गार (भेंगरैया), गन्धिनी (गन्धवती), वलाहक, खदिर, वञ्जुल, आम, बकगुच्छ, जामुन, बीजपूर, कुश के पत्ते, दूर्वांकुर, आवँले, आमड़े के पत्ते, क्रमशः देवी को विशेष प्रिय हैं किन्तु बेल के पत्ते देवी को सबसे अधिक प्रसन्नता देने वाले कहे गये हैं ।। ६७-७० ।।

पुष्पं कोकनदं पद्मं जपा बन्धूक एव च ।। ७१ ।।

पत्रं बिल्वस्य सर्वेभ्यो वैष्णवीतुष्टिदं मतम् ।

सर्वेषां पुष्पजातीनां रक्तपद्ममिहोत्तमम् ।। ७२ ।।

वैष्णवी को तुष्टि देने वाले पुष्पों में, कोकनद, पद्म (लालकमल), जपा, के बन्धूक पुष्प तथा बिल्वपत्र सबसे श्रेष्ठ बताये गये हैं। सभी प्रकार की पुष्प जातियों में लालकमल सर्वश्रेष्ठ कहा गया है ।।७१-७२ ।।

रक्तपद्मसहस्रेण यो मालां सम्प्रयच्छति ।

भक्तियुक्तो महादेव्यै तस्य पुण्यफलं शृणु ।। ७३ ।।

जो साधक भक्तियुक्त होकर महादेवी को हजार लाल पद्मों की बनी माला अर्पित करता है, उसके पुण्यफल को सुनो ।। ७३ ।।

कल्पकोटिसहस्राणि कल्पकोटिशतानि च ।

स्थित्वा मम पुरे श्रीमांस्ततो राजा क्षितौ भवेत् ।।७४।।

वह साधक हजारों और सैकड़ों करोड़कल्पों की अवधि तक मेरे पुर में निवास कर, पुनः पृथिवी पर श्रीसम्पन्न राजा होता है ।। ७४ ।।

पत्रेषु बिल्वपत्रं तु देवीप्रीतिकरं मतम् ।

तत्सहस्रकृता माला पूर्ववत् फलदा भवेत् ।। ७५ ।।

पत्तों में बिल्वपत्र देवी को अत्यन्त प्रसन्नता देने वाला कहा गया है। उसकी हजार पत्तों से निर्मित माला पहले के ही समान फल देने वाली होती है ॥ ७५ ॥

वाजिदन्तकपत्रैश्च पुष्पौधैरपि पूजयेत् ।

तुलसीकुसुमैः पत्रैरचर्ययेच्छ्रीविवृद्धये ।। ७६ ।।

यदि सम्भव हो वाजिदन्त के पत्र - पुष्पों से भी देवी का पूजन करे । लक्ष्मी की वृद्धि के लिए तुलसी के पत्ते और मञ्जरी से देवी का पूजन करे ॥ ७६॥

पुष्पैर्देवाः प्रसीदन्ति पुष्पे देवाश्च संस्थिताः ।

चराचराश्च सकलाः सदा पुष्परसाः स्मृताः ।। ७७ ।।

पुष्पों से देवता प्रसन्न होते हैं, पुष्प में देवता वास करते हैं, समस्त चराचर-जगत सदैव पुष्प का रसास्वादन करने वाला कहा गया है ॥७७ ॥

किञ्चाति बहुनोक्तेन पुष्पस्योक्तिर्मतल्लिका ।

परं ज्योतिः पुष्पगतं पुष्पेणैव प्रसीदति ।।७८।।

बहुत अधिक कहने से क्या लाभ पुष्प सर्वश्रेष्ठ है क्योंकि पुष्प में स्थित परमज्योति (मतल्लिका) जगदम्बा, पुष्प अर्पण से ही प्रसन्न होती हैं ॥ ७८ ॥

त्रिवर्गसाधनं पुष्पं तुष्टिश्रीपुष्टिमोक्षदम् ।

पुष्पमूले वसेद् ब्रह्मा पुष्पमध्ये तु केशवः ।। ७९ ।।

पुष्पाग्रे तु महादेवः सर्वे देवाः स्थिता दले ।

तस्मात् पुष्पैर्यजेद् देवान्नित्यं भक्तियुतो नरः ।

उच्चारितं नाममात्रं जायते सर्वभूतये ।। ८० ।।

पुष्प, अर्थ, धर्म, काम तीनों पुरुषार्थों को सिद्ध करने वाला और तुष्टि, पुष्टि, श्री एवं मोक्ष प्रदान करने वाला है। इसके मूल में ब्रह्मा, मध्यभाग में विष्णु, अग्र- भाग में महादेव शिव तथा पंखुड़ियों में सभी देवता निवास करते हैं। इसलिए मनुष्य (साधक), देवताओं का नित्य (प्रतिदिन) भक्तिपूर्वक पुष्प से देवताओं का पूजन करे, जिसका नाम मात्र उच्चारण ही सब प्रकार से ऐश्वर्य देने वाला है । ७९-८० ।।

किञ्चात्र बहुनोक्तेन सामान्येनेदमुच्यते ।

उक्तानुक्तैस्तथापुष्पैर्जलजै: स्थलसम्भवैः ।।८१ ।।

पत्रैः सर्वैर्यथालाभं सर्वोषधिगणैरपि ।

वनजैः सर्वपुष्पैश्च पत्रैरपि शिवां यजेत् ।। ८२ ।।

बहुत कहने से क्या लाभ ? सामान्यरूप से यह कहा जाता है कि जल में, स्थल में या वन में उत्पन्न होने वाले सभी फूलों, पत्तों और औषधिगणों से जो ऊपर कहे गये हों या न कहे गये हों किन्तु उपलब्ध हों, उनसे शिवा (कालिका) का पूजन करना चाहिये ।।८१-८२।।

पूजयेत् परमेशानीं पुष्पाभावेऽपि पत्रकैः ।

पत्राणामप्यभावे तु तृणगुल्मौषधादिभिः ।। ८३ ।।

परमेश्वरी का पुष्पों के अभाव में पत्तों से, पत्तों के अभाव में तृण-गुल्म, औषधि आदि से विधिपूर्वक पूजन करना चाहिये ॥ ८३ ॥

औषधीनामभावे तु तत्फलैरपि पूजयेत् ।

अक्षतैर्वा जलैर्वापि तदभावे तु सर्षपैः ।

सितैस्तस्याप्यलाभे तु मानसीं भक्तिमाचरेत् ।।८४।।

औषधियों के अभाव में उनके फलों से पूजन करे या अक्षत और जल से, इनके भी अभाव में, श्वेत सरसों से पूजन करे। यदि वह भी सम्भव (उपलब्ध) न हो तो मानसी पूजा करे ॥ ८४ ॥

सततं पुष्पपर्णाभ्यां पूजयेद् यस्तु देवताम् ।

ताभ्यामेव चतुर्वर्गः कथितो नात्र संशयः ।। ८५ ।।

जो साधक निरन्तर पत्र-पुष्प से देवता का पूजन करता है, उन्हीं के लिए चतुवर्ग है, इसमें कोई संशय नहीं है ॥ ८५ ॥

एवं वां कथितो पुष्पो धूपं च शृणुतं सुतौ ।। ८६ ।।

हे पुत्रों ! यह मैंने तुम दोनों से पुष्प के विषय में कहा। अब धूप के विषय में सुनो।।८६।।

कालिका पुराण अध्याय ६९- धूप वर्णन

।। धूपवर्णन ।।

नासाक्षिरन्ध्रसुखदः सुगन्धोऽतिमनोहरः ।

दह्यमानस्य काष्ठस्य प्रयतस्येतरस्य च ।। ८७ ।।

परागस्याथवा धूमो निस्तापो यस्य जायते ।

स धूप इति विज्ञेयो देवानां तुष्टिदायकः ।। ८८ ।।

नाक और आँख के छिद्रों को सुख देने वाला अत्यन्त सुन्दर सुगन्धवाला, जलने वाली लकड़ी या लगाये हुए अन्य पराग का जिससे बिना ताप का धुआँ निकलता है, उसे धूप जानना चाहिये। यह देवताओं को सन्तोष देने वाला है ।। ८७-८८।।

राशीकृतैर्न चैकत्र तैर्द्रव्यैः परिधूपयेत् ।

तुषाग्निवर्तुलां कृत्वा न तत् फलमवाप्नुयात् ।। ८९ ।।

उन पदार्थों को एक स्थान पर इकट्ठा कर भूसा और आग से घेर कर धुआँ न करे क्योंकि इस प्रकार के धूप-अर्पण का कोई फल प्राप्त नहीं होता है ॥ ८९ ॥

श्रीचन्दनं च सरलः शालः कृष्णागुरुस्तथा ।

उदयः सुरथस्कन्दो रक्तविद्रुम एव च ।। ९० ।।

पीतशाल: परिमलो विर्मदी काशलस्था ।

नमेरुर्देवदारुश्च बिल्वसारोऽथ खादिर: ।।९१।।

सन्तानः पारिजातश्च हरिचन्दनवल्लभौ ।

वृक्षेषु धूपाः सर्वेषां प्रीतिदाः परिकीर्तिताः ।। ९२ ।।

श्रीचन्दन, सरल (चीड़ा), शाल, कृष्णागुरु, उदय, सुरथ, स्कन्द (पारा) लाख, पीतशाल (चन्दन), परिमल (सुगन्ध), काशलस्थचूर्ण, नमेरु, देवदार, बेल की गुद्दी, खदिर (खैर), सन्तान (पुष्प विशेष), पारिजात, हरिचन्दन, वल्लभ वृक्षों के धूप, सबके प्रसन्नता देने वाले कहे गये हैं ।। ९०-९२ ।।

अरालः सह सूत्रेण श्रीवासः पट्टवासकः ।

कर्पूर: श्रीकरश्चैव परागः श्रीहरामलौ । । ९३ ।।

सर्वौषधीव जातीव वराह चूर्णं उत्कलः ।

जातीकोषस्य चूर्णं च गन्धः कस्तूरिका तथा ।

क्षोदे वृत्ते च गदिता धूपा एते उदाहृताः ।। ९४ ।।

रेशे के सहित अराल, श्रीवास (कमल), पट्टवास, कपूर, श्रीकर (लाल- कमल), पराग, श्रीहर, आँवला, सभी प्रकार की औषधियाँ, जाती (चमेली), वाराहचूर्ण (विदारीकंद का चूर्ण), उत्कल, जातीकोष का चूर्ण, कस्तूरी, गन्ध आदि सिल पर पिसी या घिसी अवस्था में धूप कहे गये है ।। ९३-९४ ।।

यक्षधूपो वृक्षधूपः श्रीपिष्टोऽगुरु झर्झरः ।। ९५ ।।

पुत्रिवाहः पिण्डधूपः सुगोल: कण्ठ एव च ।

अन्योन्ययोगा निर्यासा धूपा एते प्रकीर्तिताः ।। ९६ ।।

यक्षधूप ( गुग्गुल), वृक्षधूप ( तारपीन), श्रीपिष्ट, अगुरु, झर्झर (बेंत), पुत्रिवाह, पिण्ड - धूप, सुगोल (मैनसिल), कण्ठ आदि परस्पर सहयोग से या इनके रस भी धूप कहे जाते हैं ।। ९५-९६ ।।

एतैर्विधूपयेद् देवान् धूमिभिः कृष्णवर्त्मना ।

येषां धूपोद्धवैघ्राणस्तुष्टिं गच्छन्ति जन्तवः ।। ९७॥

इन उपर्युक्त पदार्थों के अग्नि द्वारा उत्पन्न धुएँ से देवताओं को धूप समर्पित करे, जिनके धूप से उत्पन्न सुगन्ध से, सभी जन्तुओं की घ्राणेन्द्रियाँ तृप्त हो जाती हैं॥९७॥

निर्यासश्च परागश्च काष्ठं गन्धं तथैव च ।

कृत्रिमश्चेति पञ्चैते धूपाः प्रीतिकराः पराः ।। ९८ ।।

रस, पराग, लकड़ी, गन्ध और घिसकर बनाये गये कृत्रिम, ये पाँच प्रकार धूप, अत्यन्त प्रीतिकारक होते हैं ॥९८॥

न यक्षधूपं वितरेन्माधवाय कदाचन ।

न रक्तं विद्रुमं मह्यं सुरथं कद्रिलं तथा ।। ९९ ।।

गुग्गुल, कभी भगवान विष्णु को, न लाख, विद्रुम, सुरथ, कलि, मुझ शिव को प्रदान करे ।। ९९ ॥

यक्षधूपः पुत्रिवाहः पिण्डधूपः सुगोलकः ।

कृष्णागुरुः सकर्पूरो महामायाप्रियः स्मृतः ।

वृक्षधूपेन वा देवीं महामायां प्रपूजयेत् ।। १०० ।।

गुग्गुल, पुत्रवाह, पिण्डधूप, सुगोलक, कृष्णागुरु और कपूर महामाया के प्रिय धूप कहे गये हैं अथवा वृक्षधूप (तारपीन) से देवी महामाया का पूजन करे॥ १०० ॥

मेदोमज्जासमायुक्तान् न धूपान् विनियोजयेत् ।

परकीयांस्तथाघ्रातांस्तेऽपि कृत्याभिमर्दितान् ।। १०१ ।।

मेदा, मज्जा से युक्त, दूसरों के लाये गन्ध, पुष्प, धूप, दूसरों के द्वारा सूँघे -गये या कुचले गये धूपों का प्रयोग न करे ॥ १० ॥

पुष्पं धूपं च गन्धं च उपचारांस्तथापरान् ।

घ्रात्वा निवेद्य देवेभ्यो नरो नरकमाप्नुयात् ।। १०२ ।।

पुष्प, धूप, गन्ध आदि तथा अन्य पूजा उपचारों को, जो सूंघ कर देवता को अर्पित करता है, वह साधक नरक में जाता है ।। १०२ ॥

न भूमौ वितरेद् धूपं नासने न घटे तथा ।

यथातथाधारगतं कृत्वा तद् विनिवेदयेत् ।। १०३ ।।

भूमि पर, आसन पर या घड़े पर, धूप अर्पित न करे अपितु किसी प्रकार का आधार लेकर ही धूप समर्पित करे ॥ १०३ ॥

रक्तविद्रुमशालौ च सुरथः सरलस्तथा ।

सन्तानको नमेरुश्च कालागुरुसमन्वितः ।। १०४।।

जातीकोषाक्षसंयुक्तो धूपः कामेश्वरीप्रियः ।

त्रिपुण्यायास्तथैवायं मातृणामपि नित्यशः ।। १०५ ।।

सर्वेषां पीठदेवानां रुद्रादीनां च पुत्रकौ ।। १०६ ।।

लाख, विद्रुम, शाल, सुरथ, सरल, सन्तानक, नमेरु, कालागुरु, जातीकोष और अक्ष (बहेड़े) युक्त धूप, देवी कामेश्वरी, त्रिपुरा तथा मातृकाओं को नित्य ही प्रिय है। हे पुत्र ! यह रुद्रादि सभी पीठस्थ देवताओं को भी नित्यप्रिय है ।। १०४ - १०६ ॥

कालिका पुराण अध्याय ६९- दीप वर्णन

।। दीपवर्णन ।।

दीपेन लोकाञ्जयति दीपस्तेजोमयः स्मृतः ।

चतुर्वर्गप्रदो दीपस्तस्माद् दीपैर्यजेच्छ्रियम् ।। १०७ ।।

दीपक से लोकों को जीता जाता है, दीप तेजस्वरूप कहा गया है, दीप, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, चारो पुरुषार्थों को देने वाला है। इसलिए साधक को दीपों से देवी का पूजन करना चाहिये ॥ १०७ ॥

घृतप्रदीपः प्रथमस्तिलतैलोद्भवस्ततः ।। १०८ ।।

सार्षपफलनिर्यासजातो वा राजिकोद्भवः ।

दधिजश्चान्नजश्चैव दीपाः सप्त प्रकीर्तिताः ।। १०९ ।।

दीप, सात प्रकार के कहे गये हैप्रथम घी का प्रदीप, उसके बाद तिल के तेल का दीप, सरसो के तेल का दीप, काली सरसो (राई) के तेल का, दधिज (तारपीन) के तेल, फलों के रस, राल आदि के प्रज्ज्वलित दीप, बिनौला आदि अन्न के रस से प्रज्ज्वलित दीप ।। १०८-१०९ ॥

पद्मसूत्रभवा दर्भगर्भसूत्रभवाऽथवा ।

शणजा बादरी वापि फलकोषोद्भवा तथा ।

वर्तिका दीपकृत्येषु सदा पञ्चविधाः स्मृताः ।। ११० ।।

पद्मसूत्र (कमलनाल के रेशे) से बनी, दर्भगर्भ (कुशा के मूलभाग से बनी ) अथवा सन से बनी, बादरी (रूई से बनी), फल के कोश से बनी होने से, दीपकार्य के लिए बत्ती भी सदैव, पाँच प्रकार की कही गई है ॥ ११० ॥

तैजसं दारवं लौहं मार्त्तिक्यं नारिकेलजम् ।

तृणध्वजोद्भवं वापि दीपपात्रं प्रशस्यते ।। १११।

तैजस (धातु से बना ), दारव (लकड़ी से बना), लौह (लोहे से बना), मार्तिक्य (मिट्टी से बना) नारीकेलज (नारीयल की खोपड़ी से बना), तृणध्वज (बाँस) से बना होने के कारण, पाँच प्रकार के दीपक पात्र, उत्तम कहे गये हैं ।। १११ ।।

दीपवृक्षाच कर्तव्यास्तैजसाद्यैस्तु भैरव ।

वृक्षेषु दीपो दातव्यो न तु भूमौ कदाचन ।। ११२ ।।

हे भैरव ! उपर्युक्त दीपपात्रों की भाँति ही दीप वृक्ष (दीयट) भी तैजस आदि आधार स्तम्भ, दीयट) पूर्वोक्त पाँच प्रकार के ही बनाने चाहिये। इन दीपवृक्षों (दीप पर ही देवता को दीपक अर्पित करना चाहिये । भूमि पर कभी अर्पित न करे ।। ११२ ॥

सर्वंसहा वसुमती सहते न त्विदं द्वयम् ।

अकार्यपादघातं च दीपतापं तथैव च ।। ११३ ।।

तस्माद् यथा तु पृथिवी तापं नाप्नोति वै तथा ।

दीपं दद्यान्महादेव्यै अन्येभ्योऽपि च भैरव ।। ११४ ।।

हे भैरव ! सब कुछ सहने वाली वसुमती (पृथ्वी) बिना प्रयोजन, पैर से मारना (पैर पटक कर चलना) और दीपक का ताप, इन दो कष्टों को नहीं सह पाती । अतः पृथ्वी जिस प्रकार से ताप को न प्राप्त करे, उसी प्रकार महादेवी और अन्य देवताओं को दीपक अर्पित करना चाहिये ।। ११३ ११४ ।।

कुर्वन्तं पृथिवीतापं यो दीपमुत्सृजेन्नरः ।

स ताम्रतापं नरकं प्राप्नोत्येव शतं समाः ।। ११५ ।।

जो मनुष्य पृथ्वी को ताप प्रदान करने वाला दीपक, ईष्ट देवता को अर्पित करता है, वह सौ वर्षों तक ताम्रताप नामक नरक को प्राप्त करता है ॥ ११५ ॥

सुवृत्तवर्तिः सुस्नेहः पात्रमग्नः सुदर्शनः ।

सूच्छ्राये वृक्षकोटौ तु दीपं दद्यात् प्रयत्नतः ।। ११६।।

साधक, सुन्दर ऊँचे वृक्ष (दीयट) के कोटि, पाटे पर, सुडौल बत्ती, सुन्दर घी या तेलयुक्त, सुन्दर दिखाई देने वाले अखण्डदीपपात्र युक्त दीपक, प्रयत्नपूर्वक अर्पित करे ।। ११६ ॥

लभ्यते यस्य तापस्तु दीपस्य चतुरङ्गुलात् ।

न स दीप इति ख्यातो ह्योघवह्निस्तु स श्रुतः ।। ११७।।

जिस दीपक का ताप चार अङ्गुल की ऊँचाई से अनुभव किया जाता है, वह दीपक, दीपक नहीं कहा जाता। वह ओद्यवह्नि निरन्तर प्रज्ज्वलित अग्नि सुना जाता है ।। ११७॥

नेत्राह्लादकरः स्वर्चिर्दूरतापविवर्जितः ।

सुशिखः शब्दरहितो निर्धूमो नातिह्रस्वकः ।। ११८ ।।

दक्षिणावर्तवर्तिस्तु प्रदीपः श्रीविवृद्धये ।।११९ ।।

आँखों को प्रसन्न करने वाला, ज्वाला और दूर तक फैलने वाले ताप व धूयें एवं शब्द से रहित, बहुत छोटी बत्ती वाली न हो, ऐसी सुन्दर शिखा (लौ) से युक्त दक्षिणावर्त बत्तीवाला प्रदीप, श्री की वृद्धि के लिए होता है ।। ११८-११९॥

दीपवृक्ष स्थिते पात्रे शुद्धस्नेहप्र पूरिते ।। १२० ।।

दक्षिणावर्तवर्त्या तु चारुदीप्तः प्रदीपकः ।

उत्तमः प्रोच्यते पुत्र सर्वतुष्टिप्रदायकः ।। १२१ ।।

हे पुत्र ! दीपवृक्ष पर स्थित, शुद्ध स्नेह (घृत, तेल आदि) से भरे हुए पात्र में दक्षिण की ओर (दाहिनी ओर झुकी हुई बत्तीवाला, सुन्दर ढंग से जलने वाला दीपक, उत्तम कोटि का कहा जाता है तथा यह सब को सन्तोष प्रदान करने वाला होता है ।। १२०-१२१ ॥

वृक्षेण वर्जितो दीपो मध्यमः परिकीर्तितः ।

विहीनः पात्रतैलाभ्यामधमः परिकीर्तितः ।। १२२ ।।

दीपवृक्ष (दीयट) से रहित दीपक, मध्यम तथा पात्र और तेल से रहित बत्ती मात्र का दीपक, अधम, दीपक कहा जाता है ।। १२२ ।।

शाणं वा दारवं वस्त्रं जीर्ण मलिनमेव वा ।

उपयुक्तं च नादद्याद् वर्तिकार्थं तु साधकः ।। १२३ ।।

उपादद्यान्नूत्नमेव सततं श्रीविवृद्धये ।

कोषजं रोमजं वस्त्रं वर्तिकार्थं न चाददेत् ।। १२४ ।।

साधक सन का बना, लकड़ी का बना, या फटा पुराना और मैलावस्त्र, बत्ती के लिए न प्रयोग करे । वह श्रीवृद्धि के लिए नित्य नये वस्त्र का ही उपयोग करे । वह रेशम और रोम (ऊन) से बने वस्त्र भी बत्ती के लिए न प्रयोग करे ॥ १२३ - १२४॥

न मिश्रीकृत्य दद्यात् तु दीपे स्नेहघृतादिकान् ।

कृत्वा मिश्रीकृतं स्नेहं तामिस्त्रं नरकं व्रजेत् ।। १२५ ।।

दीपक में स्नेह के रूप में घी और तेल मिलाकर उपयोग न करे क्योंकि मिला हुआ स्नेह, उपयोग करने से साधक, तामिस्र नामक नरक को जाता है ॥ १२५ ॥

वसामज्जास्थिनिर्यासैः स्नेहैः प्राण्यङ्गसम्भवैः ।

प्रदीपं नैव कुर्यात् तु कृत्वा पङ्केऽवसीदति ।। १२६ ।।

चर्बी, मज्जा या हड्डी से निकले रस या प्राणी के अंग से उत्पन्न, तरल पदार्थों के स्नेह से दीपक नहीं बनाना चाहिये। ऐसा करने से साधक, पङ्क में कष्ट पाता है ।। १२६ ॥

अस्थिपात्रेऽथवा पच्येद् दुर्गन्धास्थिपवासिनि ।

नैव दीपः प्रदातव्यो विबुधैः श्रीविवृद्धये ।। १२७।।

श्री की अभिवृद्धि चाहने वाले विद्वानों को अस्थिपात्र में या दुर्गन्धयुक्त अस्थि आदि के बीच दीपक नहीं प्रदान करना चाहिये ।। १२७ ।।

नैव निर्वापयेद् दीपं कदाचिदपि यत्नतः ।

सततं लक्षणोपेतं देवार्थमुपकल्पितम् ।। १२८ ।।

कभी भी देवता के निमित्त जलाये गये, सभी लक्षणों युक्त, निरन्तर जलाये गये, दीपक को, प्रयत्नपूर्वक नहीं बुझाना चाहिये । १२८ ॥

न हरेदज्ञानतो दीपं तथा लोभादिना नरः ।

दीपहर्ता भवेदन्धः काणो निर्वापको भवेत् ।। १२९ ।।

मनुष्य अज्ञानवश या लोभ आदि के कारण उपर्युक्त दीप को नष्ट न करे, न (बुझाये) क्योंकि दीप को नष्ट करने वाला अन्धा तथा बुझाने वाला काना होता है॥ १२९ ॥

उद्दीप्तदीप्तप्रतिमः काष्ठकाण्डसमुद्भवः ।

बिल्वेध्मोद्भवमेवाथ दीपालाभे निवेदयेत् ।। १३० ।

दीपक के अभाव में बेल के ईन्धन से जला हुआ, लकड़ी के टुकड़े का बना,दीप के समान प्रज्ज्वलित पिण्डरी अर्पित करे ॥ १३० ॥

उल्मुकं नैव दीपार्थे कदाचिदपि चोत्सृजेत् ।

प्रसन्नार्थं तु तं दधाउपचाराद् बहिष्कृतम् ।।१३१।।

देवता को अर्पित दीप के रूप में उल्मुक (जलती हुई लकड़ी या मशाल) का कभी उपयोग न करे, यदि प्रसन्नता या विशेष प्रकाश हेतु देना ही हो तो, पूजा उपचारों से अलग प्रदान करे।। १३१ ।।

कालिका पुराण अध्याय ६९- नेत्र रञ्जन वर्णन

।। नेत्र रञ्जन वर्णन ।।

एष वां कथितो दीपः शृणु तन्नेत्ररञ्जनम् ।

येन तुष्यति कामाख्या त्रिपुरा वैष्णवी तथा ।। १३२ ।।

यह मैनें तुम दोनों से दीप का वर्णन किया। अब उस नेत्ररञ्जन (काजल) के विषय में मुझसे सुनो । जिससे कामाख्या, वैष्णवी, त्रिपुरादेवी सन्तुष्ट हो जाती हैं ।। १३२ ॥

सौवीरं यामुनं तुत्थ्र मयूरयामुनं तथा ।

दर्विका मेघनीलश्च अञ्जनानि भवन्ति षट् ।। १३३ ।।

सौवीर (सुरमा), यामुन (अंजन विशेष), तुत्यं (तुतिया), मयूर, यामुन, दर्विका और मेघनील (मेघ के समान नीला) ये छ: प्रकार के अञ्जन होते हैं ।। १३३ ॥

स्रवद्द्द्रुमं च सौवीरं यामुनं प्रस्तरं तथा ।

मयूरग्रीवकं रत्नं मेघनीलस्तु तैजसम् ।। १३४।।

घृष्टानि ग्राह्य चैतानि शिलायां तैजसेऽथवा ।

प्रदद्यात् सर्वदेवेभ्यो देवीभ्यश्चापि पुत्रक ।। १३५ ।

हे पुत्र ! सौवीर, वृक्ष से निकलने वाला रस, यामुनपत्थर, मयूर, ग्रीवक, रत्न एवं मेघनील धातुमय होता है। इन्हें शिला या धातु पर घिसा हुआ ही ग्रहण करना चाहिये और सभी देवी-देवताओं को देना चाहिये।।१३४-१३५ ॥

घृततैलादियोगेन ताम्रादौ दीपवह्निना ।

यदञ्जनं जायते तु दर्विका परिकीर्तिता ।

सर्वाभावे तु तद् दद्याद् देवीभ्यो दाहजाञ्जनम् ।। १३६ ।।

घी, तेल आदि के योग से ताँबा आदि पर दीपक की लौ से जो अञ्जन (काजल) बनता है उसे दर्विका कहा जाता है, सब प्रकार के अजनों के अभाव में उस दाह से उत्पन्न अञ्जन को ही देना चाहिये ॥१३६॥

महामाया जगद्धात्री कामाख्या त्रिपुरा तथा ।

आप्नुवन्ति महातोषं षड्भिरेभिः सदाञ्जनैः ।। १३७ ।।

महामाया, जगत्द्धात्री, कामाख्या तथा त्रिपुरा देवियाँ इन उपर्युक्त छ: प्रकार के अञ्जनों से महान् सन्तोष प्राप्त करती हैं ॥ १३७॥

विधवा नाञ्जनं कुर्यान्महामायार्थमुत्तमम् ।

नादत्ते त्वञ्जनं कुर्यान्महामायार्थमुत्तमम् ।। १३८ ।।

विधवा स्त्री को महामाया के निमित्त अञ्जन नहीं लगाना चाहिये और न तो कहीं से लिया हुआ अञ्जन ही महामाया को अर्पित करना चाहिये ॥१३८॥

न मृत्पात्रे योजयेत् तु साधको नेत्ररञ्जनम् ।

न पूजाफलमाप्नोति मृत्पात्रविहिताञ्जनैः ।। १३९ ।।

साधक मिट्टी के पात्र में आँख की शोभा बढ़ानेवाले, अञ्जन की व्यवस्था न करे क्योंकि मिट्टी के पात्र में अञ्जन रखने से पूजा का फल साधक को प्राप्त नहीं होता ।। १३९ ।।

चतुर्वर्गप्रदो दीपः कामदं नेत्ररञ्जनम् ।

तस्माद् द्वयमिदं दद्याद् देवेभ्यो भक्तितो नरः ।। १४० ।।

दीप अर्पण करना अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष चारों पुरुषार्थों को प्रदान करता हैं। तथा नेत्ररञ्जन सभी कामनाओं को प्रदान करता है, इसीलिए साधक मनुष्य देवताओं को ये दोनों पदार्थ भक्तिपूर्वक अर्पित करे ॥ १४० ॥

इति वां गदितो दीपस्तथोक्तं नेत्ररञ्जनम् ।

नैवेद्यं तु महादेव्याः शृण्वैकाग्रमनाः पुनः ।। १४१ ।।

इति श्रीकालिकापुराणे वस्त्रादिपूजोपचारवर्णने एकोनसप्ततमोऽध्यायः ।। ६९ ।।

यह तुम दोनों से दीप एवं नेत्ररञ्जन के विषय में, मेरे द्वारा कहा गया । अ आगे एकाग्रमन से महादेवी के नैवेद्य के विषय में सुनो ॥ १४१ ॥

श्रीकालिकापुराण में वस्त्रादिपूजोपचारवर्णनसम्बन्धी उनहत्तरवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ।। ६९ ।।

आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 70 

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