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अध्याय ७३ में मातृका मन्त्र न्यास का वर्णन है ।
कालिका पुराण अध्याय ७३
Kalika puran chapter 73
कालिकापुराणम् त्रिसप्ततितमोऽध्यायः मातृकान्यासवर्णनम्
अथ श्रीकालिका
पुराण अध्याय ७३
।।
श्रीभगवानुवाच ।।
मातृकान्यासमधुना
शृणु वेताल भैरव ।
येन
देवत्वमायाति नरोऽपि विहितेन वै ।। १ ।।
श्रीभगवान्
बोले-हे वेताल और भैरव ! अब तुम मातृकान्यास के विषय में सुनो,
जिसके करने मात्र से मनुष्य में देवत्व आ जाता है ॥ १ ॥
वाग्
ब्रह्माणीमुखा देव्यो मातृकाः परिकीर्तिताः ।
तासां
मन्त्राणि सर्वाणि व्यञ्जनानि स्वरास्तथा ।
चन्द्रबिन्दुप्रयुक्तानि
सर्वकाम प्रदानि च ।।२।।
वाक्,
ब्रह्माणी आदि देवियाँ मातृकाएँ कही गई हैं। सभी स्वर तथा
व्यञ्जन उन्हीं के मन्त्र हैं। जो चन्द्रबिन्दु से युक्त हो साधक की समस्त कामनाओं
की पूर्ति करते हैं ॥ २ ॥
ऋषिस्तु
मातृमन्त्राणां ब्रह्मैव परिकीर्तितः ।
प्रोक्तश्छन्दश्च
गायत्री देवता च सरस्वती ॥३॥
शरीरशुद्धिमुख्ये
तु सर्वकामार्थसाधने ।
विनियोगः
समुद्दिष्टो मन्त्राणां न्यूनपूरणे ॥४॥
मातृकामन्त्र
के ऋषि ब्रह्मा ही कहे गये हैं। इसका गायत्री छन्द, सरस्वती-देवता, शरीर शुद्धि-पूर्वक सब काम एवं अर्थ साधन में विनियोग,
इन मन्त्रों की न्यूनता पूर्ति हेतु बताया जाता है ।। ३-४ ॥
अकारेण सम
कादिर्वर्गो यः प्रथमः स्मृतः ।
तैश्चन्द्रबिन्दुसंयुक्तैस्तत्रस्थैरक्षरैर्बहिः
।।५।।
अकार के सहित
जो क आदि वर्ग पहले बताये गये हैं, उन्हीं के पहले स्थित चन्द्रबिन्दु से युक्त उन अक्षरों
द्वारा शरीर के बाहरी अंगों में न्यास करे ॥५॥
आकारं च
तथोच्चार्य अङ्गुष्ठाभ्यां नमस्तथा ।
प्रथमं मातृकामन्त्रमङ्गुष्ठद्वयतो
न्यसेत् ॥६॥
आकार का पहले
उच्चारण कर अंगुष्ठाभ्यां नमः कहकर इस पहले मन्त्र दोनों अंगूठों में न्यास करे ॥
६ ॥
परे वर्गाः
स्वरैः सार्धं ये वान्ये न्यासकर्मणि ।
ते सर्वे
चन्द्रबिन्दुभ्यां युक्ताः कार्यास्तु सर्वतः ।।७।।
बाद के वर्गों
के स्वरों से युक्त जो अन्य-अक्षर हैं वे सब न्यासकर्म में चन्द्र- बिन्दु से
युक्त करके, सब जगह प्रयोग करना चाहिये ॥७॥
ह्रस्वेकारश्चवर्गेण
दीर्घेकारान्तकेन तु ।
तर्जन्योर्विन्यसेत्
सम्यक् स्वाहान्तेन तु पूर्ववत् ॥८॥
ह्रस्व इकार
और च वर्ग के दीर्घ ई कारान्त अक्षरों से स्वाहा पर्यन्त पहले की भाँति उच्चारण कर
दोनों तर्जनियों में न्यास करे ॥ ८ ॥
ह्रस्वोकारष्टवर्गेण
दीर्घोकारान्तकेन तु ।
मध्यमायुगले
सम्यग्वषडन्तेन विन्यसेत् ।। ९ ।।
ह्रस्व उ कार
और ट वर्ग से दीर्घ ऊकार पर्यन्त, वर्ण का वषट् युक्त उच्चारण कर दोनों मध्यमा अङ्गलियों में
न्यास करे ॥ ९ ॥
एकारादितवर्गन्तु
ऐकारान्तेन चैव हुम् ।
न्यसेदनामिकायुग्मे
नियतं तत्र भैरव ।।१०।।
'हे भैरव ! ए कारादि और त वर्ग से ऐकार पर्यन्त हुम् से अन्त करते हुये ही
दोनों अनामिकाओं में निश्चित रूप से न्यास करे ॥ १० ॥
ओकरादिपवर्ग
तु औकारान्तमशेषतः ।
वौषडन्तं
कनिष्ठायां विन्यसेत् कार्यसिद्धये ।। ११ ।।
कार्य की
सिद्धि के लिए ओकारादि व पवर्ग के औकार पर्यन्त, सभी वर्णों से वौषट्युक्त कनिष्ठा अङ्गुलियों में न्यास करे
। । ११ ॥
अङ्कारादियकारादिवर्गेण
क्षान्तकेन तु ।
अः इत्यन्तेन
वलयोर्विन्यसेत् पाणिपृष्ठयोः ।। १२ ।।
वषट्कारं
शेषभागे अस्त्रन्यासे नियोजयेत् ।। १३ ॥
अंकार और
यवर्ग के आदि से क्ष पर्यन्त वर्णों से अःतक वर्ण तथा अन्त में फट् लगाकर,
हाथ के तलों और पृष्ठों में न्यास कर शरीर के अन्य भागों
में अस्त्र न्यास करने के लिए वषट्कार का प्रयोग करे ।। १२-१३।।
हृद्यादिषडङ्गेषु
पूर्ववत् क्रमतो न्यसेत् ।
अङ्गुष्ठाद्युक्तवस्तु
क्रमात् षड्भिस्तथाविधैः ।। १४ ।।
उसी विधि से
अङ्गुष्ठादि के लिए कहे गये छः क्रमों से ही हृदय आदि छः अङ्गों में पहले की ही
भाँति न्यास करे॥१४॥
पुनस्तथा पादजानुसस्थिगुह्येषु
पार्श्वयोः ।
वस्तौ च
विन्यसेन्मन्त्रान् क्रमात् पूर्ववदक्षरैः ।। १५ ।।
पुन: पहले ही
की भाँति अक्षरों का न्यास, क्रमशः पैर, घुटने, सक्थि (जाँघ), गुह्य, पार्श्व और वस्तिक्षेत्र में करे ॥ १५ ॥
बाह्वोः
पाण्योस्तथा कट्यां नाभौ च जठरे तथा ।
स्तनयोरपि
विन्यासं तथा षड्भिः समाचरेत् ।। १६ ।।
भुजाओं हाथों,
कमर, नाभि, पेट, स्तन इन छः अङ्गों में भी न्यास कार्य सम्पन्न करे ॥१६॥
वक्त्रे च
चिबुके गण्डे कर्णयोश्च ललाटके ।
अंसे कक्षे च
षड्वर्गैः पूर्ववन्न्यासमाचरेत् ।। १७ ।।
मुख,
ढुड्डी, गण्डस्थल, कान, ललाट, कन्धे एवं काँख के छः अङ्गों में पहले ही की भाँति छ:
वर्गाक्षरों से न्यास करे ॥१७॥
रोमकूपे
ब्रह्मरन्ध्रे गुदे जङ्घायुगे तथा ।
नखेषु पादपार्ष्ण्योश्च
तथा पूर्ववदाचरेत् ।। १८ ।।
पहले की भाँति
ही रोमकूप, ब्रह्मरन्ध्र, गुदा, दोनों जंघाओं (टखनों), नाखून, पैर की एड़ियों में भी न्यास करे ॥ १८ ॥
एवं तु
मातृकान्यासं यः कुर्यान्नरसत्तमः ।
स
सर्वयज्ञपूजासु पूतो योग्यस्तु जायते ।। १९ ।।
जो मनुष्यों
में श्रेष्ठ पुरुष, इस प्रकार से मातृकान्यास करता है,
वह सभी यज्ञ एवं पूजा सम्बन्धी कार्य हेतु पवित्र और
अधिकारी हो जाता है ।। १९ ।।
नातः परतरं
मन्त्रं विद्यते क्वचिदेव हि ।
यत्सर्वकामदं
पुण्यं चतुर्वर्गप्रदं परम् ।। २० ।।
इसके अतिरिक्त
कोई अन्य उत्तम मन्त्र नहीं है। जो सभी कामनाओं को देने वाला,
परम पवित्र तथा चारों पुरुषार्थों को प्रदान करने वाला हो ॥२०॥
वाग्देवतां
हृदि ध्यात्वा मूर्तिसर्वाक्षराणि च ।
त्रिधा च
मातृकामन्त्रैः सक्रमैश्च पिबेज्जलम् ।
स वाग्मी
पण्डितो धीमान् जायते च वरः कविः ।। २१ । ।
जो साधक
वाग्देवता और सभी मन्त्र - अक्षरों की मूर्तियों का हृदय में ध्यान करके,
मातृकामन्त्रों से क्रमशः तीन बार जल पीता है। वह वक्ता,
विद्वान्, बुद्धिमान् तथा श्रेष्ठकवि होता हैं ॥२१॥
कालिका पुराण अध्याय ७३- मातृका आचमनविधि
।। मातृका
आचमनविधि ॥
चन्द्रबिन्दुसमायुक्तान्
स्वरान् पूर्वं पठेद् बुधः ।
व्यञ्जनानि तु
सर्वाणि केवलानि पठेत् ततः ।। २२ ।।
अकारादिक्षकारान्तान्येवं
श्वासैश्च पूरकैः ।
जलं करतले
गृह्य पठित्वाक्षरसङ्ख्यकम् ।। २३ ।।
अभिमन्त्र्य
तु तत् तोयं प्रथमं पूरकैः पिबेत् ।
कुम्भकेन
द्वितीयं तु तृतीयन्त्वथ रेचकैः ।।२४।।
विद्वान्साधक
पहले चन्द्र-बिन्दु से युक्त सभी स्वरों को पढ़े तब केवल सभी व्यञ्जनों को पढ़े ।
अकार से क्षकार पर्यन्त इन वर्णों को पूरक श्वास प्रक्रिया से पढ़ता हुआ कर-तल में
जल-ग्रहण कर, उसे अक्षरों के समूह से अभिमन्त्रित कर, प्राणयाम की पूरक प्रक्रिया द्वारा जल पीये। विचक्षण
(बुद्धिमान् साधक) कुम्भक से दूसरी तथा रेचक से तीसरी बार जल पीकर,
आचमन करे ।। २२-२४ ।।
एवं सकृत्
त्रिवारं तु पीत्वा तोयं विचक्षणः ।
दृढाङ्गः
पण्डितो भूयात् पुत्रपौत्रसमन्वितः ।। २५ ।।
इस प्रकार जो
साधक एक बार या तीन बार जल पीता है । वह दृढ़ अङ्गों- वाला,
पण्डित तथा पुत्र-पौत्र से युक्त होता है ।। २५ ।।
त्रिसन्ध्यमथ
पीत्वैव मातृकामन्त्रमन्त्रितम् ।
तोयं
कवित्वमाप्नोति सर्वान् कामांस्तथैव च ।। २६।।
तीनों
सन्ध्याओं में मातृका मन्त्र से अभिमन्त्रित जल पीकर साधक,
कवित्व तथा सभी कामनाओं को प्राप्त कर लेता है ॥२६॥
सततं कुरुते
यस्तु मातृकामन्त्रमन्त्रितम् ।
तोयपानं महाभाग
पूरकुम्भकरेचकैः ।। २७ ।।
स सर्वकामान्
संप्राप्य पुत्रपौत्रसमृद्धिमान् ।
भूत्वा
महाकविर्लोके बलवान् सत्यविक्रमः ।। २८ ।।
सर्वत्र
वल्लभो भूत्वा चान्ते मोक्षमवाप्नुयात् ।। २९ ।।
जो साधक
महाभाग,
मातृकामन्त्र से अभिमन्त्रित जल का पूरक,
कुम्भक, रेचक प्रक्रियाओं से निरन्तर पान करता है,
वह अपनी सभी कामनाओं को प्राप्त कर,
पुत्र-पौत्र से युक्त होकर लोक में महाकवि,
बलवान, सत्यविक्रमी होता है। वह इस लोक में सब जगह प्रिय होकर अन्त
में मोक्ष को प्राप्त करता है ।। २७-२९।।
राजानमथवा
राजपुत्रं भार्यामथापि वा ।
वशीकरोति
नचिरान्मातृकामन्त्रपानतः ।। ३० ।।
मातृका -
मन्त्र से अभिमन्त्रित जल का पान करने वाला साधक, राजा को, राजकुमार को या स्त्री को शीघ्र ही अपने वश में कर लेता है
।। ३० ।।
न्यासक्रमे
क्रमः प्रोक्तो वर्गक्रम इहैव तु ।
अक्षराणां क्रमेणाथ
तोयपानं समाचरेत् ।।३१।।
न्यास कार्य
में मातृकाओं का प्रयोग जिस वर्ग क्रम से करना बताया गया है जलपान (आचमन) के कार्य
में इन्हीं अक्षर क्रम का प्रयोग करना चाहिये ॥३१॥
ये ये मन्त्रा
देवतानामृषीणामथ रक्षसाम् ।
ते मन्त्रा
मातृकामन्त्रैर्नित्यमेव प्रतिष्ठिताः ।। ३२।।
देवताओं,
ऋषियों, राक्षसों के जो-जो मन्त्र हैं वे सभी मन्त्र,
मातृकामन्त्रों में ही नित्य प्रतिष्ठित होते हैं ॥३२॥
सर्वमन्त्रमयश्चायं
सर्ववेदमयस्तथा ।
चतुर्वर्गप्रदश्चायं
मातृकामन्त्र उच्यते ।।३३।।
यह
मातृकामन्त्र सभी मन्त्रों का स्वरूप है। यह सभी वेदों का भी स्वरूप है। यही चारो पुरुषार्थ
प्रदान करने वाला भी कहा जाता है ॥३३॥
इति ते कथितं
पुत्र मातृकान्यासमद्भुतम् ।
विभागमथ मुद्राणां
शृणु वेताल भैरव ॥३४॥
हे पुत्र ! यह
मेरे द्वारा अद्भुत मातृका न्यास तुम से कहा गया । हे वेताल और भैरव!
अब मुद्राओं का विभाग सुनो॥३४॥
॥ इति
श्रीकालिकापुराणे मातृकान्यासवर्णने त्रिसप्ततितमोऽध्यायः ।। ७३ ।।
।।
श्रीकालिकापुराण में मातृकान्यासवर्णनसम्बन्धी तिहत्तरवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ।।
७३ ।।
आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 74
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