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कर्मकाण्ड

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कालिका पुराण अध्याय ७४

कालिका पुराण अध्याय ७४                      

कालिका पुराण अध्याय ७४ में मुद्रा, मन्त्र, न्यास व पूजन का वर्णन है ।

कालिका पुराण अध्याय ७४

कालिका पुराण अध्याय ७४                                        

Kalika puran chapter 74

कालिकापुराणम् चतुःसप्ततितमोऽध्यायः मुद्राविभागः

अथ श्रीकालिका पुराण अध्याय ७४                        

।। श्रीभगवानुवाच ।।

या योनिमुद्रा कथिता मुद्राविभजने पुरा ।

अष्टधा योनिमुद्रा स्यात् प्रथमा सा तु कीर्तिता ।। १ ।।

श्रीभगवान् बोले-पहले मुद्रावर्णन प्रसङ्ग में जिस योनिमुद्रा का वर्णन किया गया है, वह आठ प्रकार की कही गई है, जिसमें पहली योनिमुद्रा कही गई है ।। १ ।।

द्वितीया खेचरी मुद्रा कामाख्यायास्तु भैरव ।

तां विद्धि चाद्भुतं गुह्यं येन तुष्यति चण्डिका ।। २।।

हे भैरव ! दूसरी योनिमुद्रा, कामाख्या हेतु प्रयोग की जाने वाली खेचरीमुद्रा है। तुम उस अद्भुत और गुप्तमुद्रा को जानो जिससे चण्डिका सन्तुष्ट होती है ॥२॥

कालिका पुराण अध्याय ७४ -।। खेचरीमुद्रावर्णन ।। 

अनामिकां दक्षिणस्य तर्जन्यां वामतो न्यसेत् ।

वामानामा दक्षिणस्य तर्जन्यां विनिवेशयेत् ।। ३ ।।

दाहिने हाथ की अनामिका को बायें हाथ की तर्जनी पर रखे तथा बायें हाथ की अनामिका को दाहिने हाथ की तर्जनी पर रखे ।। ३ ।।

ते द्वे तथा तर्जनीभ्यां वेष्टयेदग्रतोऽग्रतः ।

मध्ये द्वयं तु विन्यस्य चोर्ध्वभागे त्वनामयोः ।। ४ ।।

उन दोनों अनामिकाओं को तर्जनियों के आगे करके लपेटे, तत्पश्चात् उन दोनों अनामिकाओं के मध्य में ऊपर की ओर दोनों मध्यमाओं को रखे ।।४।।

तदग्राग्रेण संयोगात् तथैव च कनिष्ठके ।

अग्रेणैव च संयुक्ते तन्मूलेऽङ्गुष्ठके न्यसेत् ।

इयं ते खेचरी योनिर्योनिमुद्रा तु कामदा ।।५।।

उन सबके आगे उसी भाँति दोनों कनिष्ठिकाओं को तत्पश्चात् मिले हुये अंगूठे को भी उसके मूल में स्थापित करे। इससे यह कामनाओं को प्रदान करने वाली खेचरीयोनिमुद्रा बनती है ॥ ५ ॥

कालिका पुराण अध्याय ७४- ।। गुह्ययोनिमुद्रावर्णन ।।

एषैवाधः कनिष्ठे द्वे नियोज्य यदि युज्यते ।

गुह्ययोनिस्तु सा ख्याता कामेश्वर्यास्तु तुष्टिदा ।।६।।

इसी के निचले भाग में दोनों कनिष्ठाओं का उपयोग किया जाय तो यह कामेश्वरी को सन्तुष्ट करने वाली गुह्ययोनिमुद्रा कही गयी है । ६ ॥

कालिका पुराण अध्याय ७४- ।। त्रिशांङ्करीयोनिमुद्रावर्णन ।।

संवेष्टय पूर्ववत् पाण्योर्द्वे कनिष्ठे त्वनामिके ।

अधोभागे नियोज्याथ मध्यमे चोर्ध्वतस्तथा ।।७।।

तासां परस्परश्चाग्रैरन्योऽन्यं योजयेद् यदि ।।८।।

मध्यां मध्ये तथाङ्गुष्ठे निःक्षिप्याग्रे नियोजयेत् ।

योनिस्त्रिशाङ्करी प्रोक्ता त्रिपुरा तुष्टिदा सदा ।।९।।

पहले की भाँति दोनों हाथों की कनिष्ठिका और अनामिकाओं को लपेट कर तथा उनके ऊपरीभाग में मध्यमाओं को एक दूसरे के आगे आपस में मिलाकर रखे एवं मध्यमाओं के मध्य में अँगूठों को आगे की ओर स्थापित करे तो त्रिपुरा को सदैव सन्तुष्ट करने वाली, त्रिशाङ्करीयोनिमुद्रा कही गई है ।। ७-९ ॥

कालिका पुराण अध्याय ७४- ।। शारदीयोनिमुद्रावर्णन ।।

मध्ये द्वे च तथा वेष्टया पूर्ववच्चाप्यनामिका ।

कनिष्ठाभ्यां पुरो न्यस्य अङ्गुष्ठौ मूलयोस्तयोः ।। १० ।।

मुद्रेयं शारदी प्रोक्ता शारदायास्तु तुष्टिदा ।

मूलयोनिस्तु कथिता वैष्णवीतंत्रगोचरे ।। ११ ।।

पहले की भाँति लपेटी हुई अनामिका तथा दोनों मध्यमाओं के मध्य में आगे की ओर कनिष्ठिाओं तथा उनके मूल में दोनों अँगूठों को रखने से शारदा को सन्तुष्ट करने वाली शारदीयोनिमुद्रा कही जाती है ।। १०-११ ।।

कालिका पुराण अध्याय ७४- ।। महायोनिमुद्रावर्णन ।।

तर्जन्यनामिकं मध्ये कनिष्ठेऽपि क्रमादपि ।

करयोर्योजयित्वैव कनिष्ठामूलदेशतः ।

अङ्गुष्ठायं तु निःक्षिप्य महायोनिः प्रकीर्तिता ।। १२ ।।

दोनों ही हाथो की तर्जनी, अनामिका, मध्यमा और कनिष्ठाओं को ऊपर-ऊपर क्रमशः स्थापित करके, कनिष्ठाओं के मूलदेश में अंगूठों को रखने से बनने वाली मुद्रा, महायोनिमुद्रा कही गई है ॥ १२ ॥

कालिका पुराण अध्याय ७४- ।। योगिनीयोनिमुद्रावर्णन ।।

अङ्गुष्ठौ चाथ संवेष्ट्य संयुज्याथ कराङ्गुलीः ।। १३ ।।

अग्रभागैर्मध्यशून्यं तत्र कुर्यात् करद्वयम् ।

इयं तु योगिनी योनिर्योगिनीनां प्रियंकरी ।। १४ ।।

हाथ की अङ्गुलियों को मिलाकर अँगूठों से लपेट कर, मध्य में खालीस्थान रखने से दोनों हाथों से जो मुद्रा बनती है, वह योगिनियों को प्रिय लगने वाली योगिनीयोनिमुद्रा होती है ॥ १३-१४ ॥

एता अष्टौ समाख्याता योन्यः कामेश्वरीप्रियाः ।

मूर्तिभेदेन चान्येषां देवानामपि तुष्टिदाः ।। १५ ।।

आठों योनि-मुद्रा कामेश्वरीदेवी को प्रिय हैं तथा मूर्तिभेद से अन्य देवताओं को भी सन्तोष देने वाली हैं ।। १५ ।।

यात्रायां युद्धविषये वाग्वादे कलहे तथा ।

अष्टौ योन्यः स्मरेद् यस्तु जयस्तस्य सनातनः ।। १६ ।।

यात्रा में, युद्ध-प्रसङ्ग में, वाद-विवाद में, झगड़े में जो इन आठों मुद्राओं का स्मरण (अभ्यास) करता है, उसकी विजय सुनिश्चित होती है ॥ १६ ॥

विसर्जने पूजने च स्मरणे कर्मभेदतः ।

एता योन्यः समाख्याताश्चण्डिकापूजनेषु च ।। १७ ।।

चण्डिका के पूजन हेतु विसर्जन, पूजन एवं स्मरण में कर्म-भेद के अनुसार योनिमुद्रायें कही गई हैं || १७ ।।

एतास्तु कथिता योन्यः क्रमात् क्रमविसर्जने ।

रहस्यं वामदाक्षिण्यं मंत्रशुद्धिं शृणुष्व मे ।। १८ ।।

अब रहस्य तथा वाम- दाक्षिण्य के भेद और मन्त्रशुद्धि के विषय में मुझसे सुनो। ये योनि-मुद्रायें क्रमविसर्जन के अन्तर्गत क्रमशः कही गई हैं ।। १८ ।।

मंत्रेण क्रियते यत् तु शारीरं मंत्रमुत्तमम् ।

तद्रहस्यमिति प्राहुर्मन्त्रेषु मंत्रकोविदाः ।। १९ ।।

मन्त्र से जो उत्तम शारीरमन्त्र किया जाता है उसे मन्त्रवेत्ता साधक मन्त्रों में रहस्य कहते हैं ॥ १९ ॥

कामाख्यायास्तु षट्कोणं मण्डलस्य दलान्तरे ।

त्रिधा लिखेन्मूलमंत्रमूर्ध्वं त्रिष्वपि सन्धिषु ।। २० ।।

कामाख्या देवी के पूजन हेतु मण्डल (यन्त्र) के मध्य, षट्कोण बनाये उसकी ऊपरी तीनों सन्धियों के मूल में तीन बार कामाख्या के मूलमन्त्र को लिखे ।।२०।।

अधस्त्रिसन्धिषु पुनर्विधिं शक्रं हरं तथा ।

सहितं मदनेनैव लिखेद् भूर्जत्वचि त्रिधा ।। २१ ।।

पुनः भोजपत्र पर तीन बार नीचे की तीनों सन्धियों (कोणों) में ब्रह्मा, इन्द्र, शिव के (बीजमन्त्र) के सहित मदन क्लीं लिखे ॥ २१ ॥

तन्तुमादाय साहस्रं दक्षिणेन करेण वै ।

मालामपि समादाय संजपेदुत्तरामुखः ।। २२ ।।

उस यन्त्र को दाहिने हाथ में रखकर तथा माला भी लेकर उत्तराभिमुख हो एक हजार मूलमन्त्र का जप करना चाहिये ॥२२॥

तद्भुजे दक्षिणे धार्य बाहौ वा साधकोत्तमैः ।

जपान्ते लिखितं यंत्रं तेन सर्वजयी भवेत् ।। २३ ।।

दीर्घायुः सर्ववशकृद्धनधान्यसमृद्धिमान् ।

मृतो देवीगृहे याति यंत्रयत्रिंतबुद्धिमान् ।।२४।।

जप के अन्त में उत्तम साधक द्वारा लिखे गये इस प्रकार से अभिमन्त्रित यन्त्र को दाहिनी भुजा या हाथ में बाँधने से, बाँधने वाला, सबको जीतने वाला हो जाता है । वह दीर्घायु, सबको वश में करने वाला तथा धन-धान्य से समृद्ध होता है। उपर्युक्त यन्त्र से अपने को नियन्त्रित करने वाला बुद्धिमान साधक, मृत्यु के पश्चात् देवीलोक को जाता है ।। २३-२४।।

षट्कोणानन्तरकृतं वेष्टिताष्टदलेष्वथ ।

लिखित्वा भूर्जपत्रेषु विलीनैर्यावकोदकैः ।। २५ ।।

उत्तरादिक्रमेणैव वैष्णवीतंत्रसङ्गतान् ।

अष्टौवर्णान्मध्यभागे पूर्ववत् कामराजकम् ।। २६ ।।

महावर घुलेजल से भोजपत्र पर अष्टदल कमल के भीतर षट्कोण बनाये। उसमें उत्तर आदि के क्रम से वैष्णवी तन्त्र में बताये गये आठो वर्णों को और मध्यभाग में कामराज (क्लीं) को पहले की ही भाँति लिखे ॥ २५-२६ ॥

त्रीन् वर्णान् नेत्रबीजस्य त्रिकोणस्याग्रतो लिखेत् ।

एवं त्रिधाकृतं यन्त्रं कृत्वा वामकरे स्थितः ।। २७ ।।

नेत्रबीज के तीन वर्णों को त्रिकोण के अगले भाग में लिखे, इस प्रकार तीन आवृत्ति किये, यन्त्र को साधक, अपने बायें हाथ में ले ।। २७ ।।

जपेत् त्रीणि सहस्त्राणि मालामादाय् दक्षिणे ।

जपान्ते वैष्णवीरूपध्यानं कुर्यादतन्द्रितः ।।२८।।

प्राणायामसहस्रं तु ततस्तं लिखितोत्तमम् ।

ग्रीवायां धारयेद् यंत्रं तेन सर्वजयी भवेत् ।। २९ ।।

तब दाहिने हाथ में माला लेकर, तीनहजार मन्त्र जप करे, जप के अन्त में आलस्यरहित हो, वैष्णवी रूप का ध्यान करे और एकहजार प्राणायाम करे, तत्पश्चात् उस लिखे गये, उत्तम यन्त्र को गले में धारण करे। ऐसा करने साधक सबको जीतने वाला होता है ।। २८-२९ ॥

राजपुत्रो भवेद्राजा तदन्यः सचिवो भवेत् ।

द्विजराजो भवेद्विद्वान् कविर्वाग्मी च वा भवेत् ।। ३० ।।

राजा का पुत्र राजा होता है तथा अन्य साधक, सचिव होता है। ब्राह्मण साधक विद्वान् या कवि और वक्ता होता है ।। ३० ।।

राक्षसेभ्यः पिशाचेभ्यो भूतेभ्यश्चापि चान्यतः ।

साधु संविद्यते तस्य न कदाचित् पराजयः ।

दीर्घायुर्बलवान् प्राज्ञो मृते मोक्षमवाप्नुयात् ।। ३१ ।।

राक्षसों से, पिशाचों से, भूतों से या अन्य किसी से उसे कभी पराजय नहीं होती । वह सकुशल रहता है। वह दीर्घायु, बलवान और बुद्धिमान होता है तथा मरने के बाद मोक्ष को प्राप्त करता है ।।३१।।

सम्पूर्णं मण्डलं कृत्वा अष्टपत्रसमन्वितम् ।

भूर्जत्वचि श्रीफलस्य निर्यासैस्तस्य मध्यतः ।। ३२ ।।

षट्कोणं विलिखेत् तस्य प्रागग्रेष्वथ त्रिष्वपि ।

विलिखेत् त्रिपुरावर्णानधो बीजं तु नेत्रकम् ।। ३३ ।।

दलेष्वष्टासु तु पुनर्वैष्णवीतंत्रसङ्गतान् ।। ३४ ।।

अष्टौ वर्णास्तु विलिखेत् तथा द्वार्षु चतुर्ष्वपि ।

षट्कोणेषूत्तराकोणक्रमेणैकाग्रमानसः ।। ३५ ।।

आठ दलों से युक्त एक पूर्णमण्डल, भोज-पत्र पर बेल के रस से बनावे। उसके मध्य में षट्कोण बनावे। उसके पहले (ऊपरी तीन कोणों में त्रिपुरा के वर्ण तथा तीन कोणों में नेत्रबीज लिखे। आठ दलों में वैष्णवीतन्त्र से सम्बन्धित आठ वर्गों को लिखे । चारो द्वारों पर भी षट्कोण के उत्तरी कोण के क्रम से इन्हें ही एकाग्रमन से लिखे ।। ३२-३५ ।।

तद्धृत्वा दक्षिणकरे वैष्णवीतंत्रमंत्रकम् ।

जपेत् त्रिभिर्दिनैरेवायुतं संयतमानसः ।। ३६ ।।

प्राणायामसहस्राणि त्रीणि कृत्वा तु हर्षितः ।

सन्ध्याकाले नवम्यां तु शीर्षेण धारयेद् बुधः ।। ३७।।

वैष्णवीतन्त्र मन्त्र से युक्त, उस यन्त्र को दाहिने हाथ में धारण कर, संयत- मन से तीन दिनों में ही दशहजार मन्त्र जप करे और विद्वान्साधक प्रसन्नता पूर्वक तीनहजार प्राणायाम कर, नवमी के दिन सन्ध्या को उस यन्त्र को मस्तक पर धारण करे ।। ३६-३७॥

शतायुः सर्वदमनो मतिमान् पण्डितोत्तमः ।

बलवीर्यधनैश्वर्ययुक्तः पार्थिव एव वा ।। ३८ ।।

ऐसा करने वाला साधक शतायु, सब का दमन करने वाला, बुद्धिमान् तथा पण्डितों में उत्तम या बल, वीर्य, धन और ऐश्वर्य से युक्त राजा होता है ॥ ३८॥

प्रत्यक्षतो महामायां कामाख्यां त्रिपुरामपि ।

नित्यं पश्यति मेधावी महोच्छ्वासां च शारदाम् ।। ३९ ।।

वह मेघावी साधक नित्य महामाया, कामाख्या, त्रिपुरा, महोच्छ्वासा, शारदा को प्रत्यक्षरूप से देखता है ।।३९।।

सिंहव्याघ्रौ भुजङ्गो वा येऽन्ये वा तस्य हिंसकाः ।

सर्वे तस्य तनुं प्राप्य विषीदन्ति न संशयः ।। ४० ।।

सिंह, बाघ, सर्प या और भी जो उसको हानि पहुँचाने वाले हिंसकप्राणी हैं। वे सभी उसके शरीर को पाकर नष्ट हो जाते है। इसमें कोई संशय नहीं है ।।४०।।

जयहेतुरतोऽन्यस्मात् संग्रामे शास्त्रवादतः ।

न विद्यते त्रिभुवने तस्मात् कुर्यात् तु यंत्रकम् ।

अन्ते देवीगृहं प्राप्य ततो मोक्षमवाप्नुयात् ।। ४१ ।।

अन्यों से विजय हेतु संग्राम, शास्त्रचर्चा या वाद-विवाद में रत होने पर उसे नियन्त्रित करने वाला तीनों लोकों में कोई नहीं होता, अन्त में वह देवी के धाम को प्राप्त करता है, तत्पश्चात् मोक्ष को पाता है ॥४१॥

महामाया शारदाख्या कामाख्या त्रिपुरा तथा ।।४२।।

महोत्साहा तथैतेषां मंत्राणां यो गणे भवेत् ।

मण्डलं चाष्टदलकं तन्मध्ये विलिखेत् पुनः ।।४३।।

महामाया, शारदा, कामाख्या, त्रिपुरा तथा महोत्साहा एवं इनके मन्त्रों के जो गण हैं। उन्हें आठ दलों से युक्त, मण्डल बनाकर, उनके मध्य पुनः लिखे ॥ ४२-४३॥

लिखित्वा पूर्ववत् पूर्व प्रोक्तं मंत्रगणं समम् ।

अन्यद्वयं द्वारदेशे कोष्ठेष्वक्षरतो लिखेत् ।।४४।।

पहले बताये मन्त्रगणों के समूह को पूर्ववत् लिखकर अन्य दो को द्वारदेश के कोष्ठो में अक्षरशः लिखे ।।४४।।

शुक्लकौशेयवस्त्रेषु रसैर्वह्निशिखस्य तु ।

उत्तरीयं तु तद्वस्त्रं कृत्वा जप्यं समाचरेत् ।।४५।।

सफेद-रेशमी वस्त्रों पर बह्निशिख (केशर) से, इस, उपर्युक्त यन्त्र को लिखकर, उस वस्त्र का उत्तरीयदुपट्टा ओढ़ कर जप सम्पन्न करे ।। ४५ ।।

कृतोपवासः शुद्धश्च मातृकान्यासपूर्वकम् ।

पञ्चानामपि वर्गाणां सहस्राणि तु पंच वै ।।४६ ।।

दिवसैः पञ्चभिर्जप्त्वा तदन्ते च समाचरेत् ।

प्राणायामसहस्राणि पंच वै पंचभिर्दिनैः ।। ४७ ।।

उपवास करके शुद्ध हो, मातृकान्यास करके, पाँचों वर्गों के पाँचहजार मन्त्रों का, पाँच दिन तक जप करे । पाँच दिनों में जप करके जप के, अन्त में पाँचहजार प्राणायाम सम्पन्न करे ।।४६-४७।।

अन्ते तु कवचन्यासं कात्यायन्याः समाचरेत् ।

ततस्तु मातृकामंत्रैः श्वासरोधनपूर्वकम् ।

त्रिः पिवेत् कपिलाक्षीरं जागृवांश्च तदा निशि ।।४८ ।।

अन्त में कात्यायनी के कवचों का न्यास, सम्पन्न करे तत्पश्चात् मातृका - मन्त्रों से श्वास निरोधपूर्वक तीन बार कपिला गौ का दूध पीये तथा रात्रि में जागरण करे।।४८।।

एवं यः कुरुते यंत्र शरीरे शुक्लवाससा ।।

सोऽत्र सिद्धिमवाप्नोति देवीलोकं च गच्छति ।। ४९ ।।

इस प्रकार से जो शरीर पर, श्वेतवस्त्र के रूप में यन्त्र को धारण करता है वह यहाँ, इस लोक में सिद्धि को प्राप्त करता है तथा देहान्त होने पर देवीलोक को जाता है ॥ ४९ ॥

य उत्तरीयं विभृयाद् वस्त्रं मंत्रेण मन्त्रितम् ।

नित्यमेव महाभाग प्रभावं तस्य वै शृणु ।।५०।।

जो इस प्रकार के मन्त्र से अभिमन्त्रित वस्त्र को चद्दर के रूप में नित्य धारण करता है, हे महाभाग ! तुम उसके प्रभाव के विषय में सुनो ।। ५० ।।

न तस्य देहे शस्त्राणि प्रवेक्ष्यन्ति कदाचन ।

नाग्निर्दहति तत्कायं नापः संक्लेदयन्ति च ।। ५१ ।।

उसके शरीर में कोई शस्त्र न तो कभी प्रवेश करते हैं, न अग्नि उसके शरीर को जलाती है और न ही जल उसके शरीर को भिगोता है।

राक्षसाश्च पिशाचाश्च भूताद्या ये तु हिंसकाः ।।

ते तं दृष्ट्वा महाभागं भुवं गच्छन्ति वै भिया ।। ५२ ।।

राक्षस, भूत, पिशाचादि जो हिंसक तत्त्व हैं, वे उस महाभाग साधक को देखकर, भयवश धरती में समा जाते हैं ।। ५२ ।।

गच्छेदवारितः सोऽपि सर्वत्र साधकोत्तमः ।

वशीकरोति देवांश्च नृपानन्यांश्च योषितः ।।५३।

वह उत्तम साधक भी निर्बाधरूप से सब स्थानों पर विचरण करता है। वह देवताओं को, राजाओं को तथा अन्यों को और स्त्रियों को वश में कर लेता है ॥५३॥

उत्सहेद् यदि मेधावी वाग्मी राजा च वै भवेत् ।।५४।।

चिरजीवी महाभागो धनधान्यसमृद्धिमान् ।

कविः प्रज्ञासमायुक्तः सोऽभेद्यो जायतेऽरिभिः ।। ५५ ।।

वह साहस करे तो तो मेधावी, वक्ता और राजा होता है। वह महाभाग्यवान्, चिरजीवी, धन और धान्य से समृद्धिमान् होता है। वह कवि, प्रकृष्ट- बुद्धि से युक्त एवं शत्रुओं के लिए अभेद्य होता है ।। ५४-५५ ।।

यस्मिन् पुरे स निवसेद् वज्रपातो न तत्र वै ।

रस: शरीरं शस्त्राणि दृढहस्तोज्झितान्यपि ।।५६ ।।

एतं न घ्नन्ति सततं जयः सर्वत्र भैरव ।

आराधयन्ति सततं तस्य सर्वत्र भैरव ।।५७।।

हे भैरव ! जिस नगर में वह साधक निवास करता है, वहाँ कभी वज्रपात नहीं होता । विष तथा दृढ़ हाथों से फेंके गये (चलाये गये) शस्त्र भी उसके शरीर को नष्ट नहीं करते, वह सब जगह जय प्राप्त करता है । सब जगह सभी निरन्तर उसकी आराधना करते हैं ।। ५६-५७।।

नाधयो व्याधयस्तस्य जायन्ते तु कदाचन ।

देवीपुत्रः स मतिमान् मृतो मोक्षमवाप्नुयात् ।। ५८ ।।

उसको किसी प्रकार के मानसिक या शारीरिक रोग कभी नहीं होते। वह बुद्धिमान्, देवीपुत्र (देवी को पुत्रवत् प्रिय) साधक, मरने पर मोक्ष को प्राप्त करता है ।। ५८ ।।

यन्त्रता स्वामिना यन्त्रं या दधाति पतिव्रता ।

पुत्रैश्वर्यमवाप्नोति दीर्घायुः सा वधूर्भवेत् ।। ५९ ।।

अपने पति द्वारा यन्त्रित (बनाये) इस यन्त्र को जो पतिव्रता स्त्री धारण करती है, वह उत्तम वधू, दीर्घायु तथा पुत्र एवं ऐश्वर्य से युक्त होती है ।। ५९ ।।

प्रत्येकमेकं संहत्यावर्धनासहितेन च ।

क्रमाद् विंशतिमंत्राणि कथितानि मयेह वै ।।६०।।

एक-एक को संहित कर आवर्धन के सहित, मेरे द्वारा इस समय तुम दोनों से, बीस मन्त्रों का वर्णन किया गया ॥ ६० ॥

तानि प्रत्येकतो बुद्ध्वा यो न्यसेत् सर्वदा हृदि ।

लिखित्वा सर्वयंत्राणि विभृयाद्योऽथवा गले ।। ६१ ।।

देवेन्द्रो जायते सोऽत्र प्रभावेणेह भूतले ।

पूर्वोक्तानि समस्तानि फलान्याप्नोति तत्क्षणात् ।

पिहितः सर्वलोकांस्त्रीन्नित्यमेव प्रपश्यति ।।६२।।

उनमें से एक-एक को भी जानकर जो सर्वदा अपने हृदय में स्थापित करता है अथवा सभी यन्त्रों को लिखकर जो गले में धारण करता है, वह इस धरती पर प्रभाव की दृष्टि से देवराज इन्द्र हो जाता है। वह पहले कहे गये सभी फलों को तत्क्षण प्राप्त कर लेता है। सभी लोकों की गुप्त स्त्रियों (देवियों) को वह प्रत्यक्ष देखता है।।६१-६२।।

एवं सार्ध यंत्रवर्गैः समस्तैष्टाभिर्यत् पूर्वमुक्तं सहस्रम् ।

शुक्ले वस्त्रे संलिखित्वा स्वदेहे धृत्वा नित्यं प्राप्नुयाद् वै समस्तम् ।।६३।

इस प्रकार हजारों यन्त्रों में से जो आठ यन्त्र पहले बताये गये हैं, उन्हें श्वेत वस्त्र पर लिखकर, अपने शरीर पर नित्य धारण करके सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है। ६३ ॥

यः क्षत्रजातिर्हृदये स कुर्यात् संग्रामकाले कवचोष्टधाम्नि ।

मंत्राक्षराण्यादिकृतानि देव्या अष्टौ बहिर्गात्रविशेषतश्च ।।६४।।

जो क्षत्रिय, इन आठों यन्त्रों को युद्धकाल में अपने हृदय पर धारण कर देवी के यन्त्राक्षरों को अपने बाहरी अङ्गों में विशेषरूप से धारण करता है ।।६४।।

गले हरिं वक्षसि वै लिखेद् विधिं स्तनद्वये पुत्रयुतं महेश्वरम् ।

बाह्वंगसन्ध्योश्च हरिं च वैष्णवीं बाह्वोस्तु लक्ष्मी च सरस्वतीं च ।।६५।।

इस कार्य में वह गले पर हरि (विष्णु), वक्षस्थल पर ब्रह्मा, दोनों स्तनों पर पुत्र गणेश के सहित शिव का नाम (बीज मन्त्र) लिखे, भुजाओं और अङ्गों की सन्धियों में क्रमशः विष्णु और वैष्णवी का तथा दोनों भुजाओं पर लक्ष्मी और सरस्वती का मन्त्र लिखे ॥ ६५ ॥

एवं रणाष्टाङ्गमिदं विधाय गात्रे सवर्मण्यनुचिन्तयेच्छिवाम् ।

लिखेल्ललाटे तिलकान्तरे नरः समस्तमंत्राक्षरयंत्रमुत्तमम् ।।६६।।

इस प्रकार से अष्टाङ्ग का विधान कर, रण में साधक अपने शरीर को कवच-युक्त मानकर शिवा का अनुचिन्तन करे। उस समय वह मनुष्य तिलक के मध्य में सभी मन्त्राक्षरों से युक्त, उत्तममन्त्र ललाट पर लिखे ॥६६॥

ततो जपेदष्टधा तु पाणिं दत्त्वाष्टधामसु च ।

वैष्णवीतंत्रमंत्रं तु ततो गच्छेद्रणाजिरम् ।। ६७।।

तब आठ स्थानों पर हाथ रखकर, वैष्णवीतन्त्र में वर्णित मन्त्र का आठ बार जप करके वह क्षत्रिय, रणभूमि में जाये ॥६७॥

स तु बीरो मम समः संग्रामेषु च जायते ।

तृणानीव परास्त्राणि जायन्तेऽग्नौ तथात्मनि ।।६८।।

इस प्रकार से सुरक्षित वह वीर, संग्राम में मेरे (शिव के) समान हो जाता है । उसके प्रति चलाये गये, शत्रुओं के अस्त्र, अग्नि में फेंके गये तृण के समान नष्ट हो जाते हैं ।। ६८ ।।

विनिःसरन्ति रिपवो याचका धनिनो धनम् ।

सिंहाग्रयान्नरशार्दूलो वीर्यवान् बलवान् भवेत् ।। ६९ ।।

शत्रु उससे और दूर हट जाते हैं तथा याचक धन से सम्पन्न हो जाते हैं। वह नरशार्दूल, सिंहों (वीरों) में अग्रणी हो वीर्यवान्, बलवान् हो जाता है ॥६९॥

इदं रहस्यं कथितं कामाख्यायास्तु भैरव ।

वैष्णव्यासतंत्र मुख्येषु त्रिपुरायास्ततः श्रृणु ।।७० ।।

हे भैरव ! यह कामाख्या देवी का रहस्य तुमसे कहा गया । अब वैष्णवीतन्त्रों में मुख्य त्रिपुरा के रहस्य को सुनो ॥ ७० ॥

तस्यास्तु सर्वमंत्राणि त्रयोदशयुतानि वै ।

विंशतिं तु सहस्राणां तत्राद्यं वाग्भवं स्मृतम् ।।७१।।

उसके सभी मन्त्रों की संख्या तैंतिस हजार है जिनमें प्रथम वाग्भव कहा गया है ।। ७१ ॥

द्वितीयं कामराजाख्यं मोहनं च तृतीयकम् ।

आम्रेडितं वाग्भवं तु चतुर्थं परिकीर्तितम् ।। ७२ ।।

दूसरा कामराज नामक (क्लीं), तीसरा मोहन, दो बार उच्चारित वाग्भव चतुर्थ कहा गया है ।।७२।।

नेत्रबीजं द्वितीयं तु द्विरुक्तं वाग्भवं तथा ।

आद्यं तत्पञ्चमं प्रोक्तं चतुर्भिरपि चाक्षरैः ।।७३।।

पहले दो बार वाग्भवबीज तब द्वितीय नेत्रबीज यह चार अक्षरों सहित पाँचवाँ मन्त्र कहा गया है।।७३।

नेत्रबीजं द्वितीयं तु प्रथमं परिकीर्तितम् ।

द्वितीयं कामबीजं तु तृतीयं वाग्भवं तथा ।।७४ ।।

एभिस्त्रिभिस्तु यं मंत्रं तत् षष्टं परिकीर्तितम् ।

नेत्रबीजं द्वितीयं तु वाग्भवं तेन सप्तमम् ।। ७५ ।।

तदेवं वाग्भवाद्यं तु अष्टमं परिकीर्तितम् ।

वाग्भवं कामबीजं तु नेत्राभ्यां नवमं स्मृतम् ।। ७६ ।।

द्वितीय नेत्रबीज प्रथमवर्ण, कामबीज द्वितीयवर्ण और वाग्भव तृतीयवर्ण इन तीनों वर्णों के मिलने से जो मन्त्र बनता है वह छठाँ कहा गया है। पहले नेत्रबीज तत्पश्चात् वाग्भव मिलकर सप्तम, वही वाग्भव के पहले कर देने पर आठवाँ मन्त्र कहा गया है। वाग्भव, कामबीज और दो नेत्रों के योग से नौवाँ कहा गया है ।। ७४-७६ ।।

कामबीजं तथैवाद्यं दशमं चैव मोहनम् ।

एकादशमिदं प्रोक्तं डामराद्यं तु वाग्भवम् ।।७७।।

उसी प्रकार जब कामबीज को आगे कर मोहन का प्रयोग करते हैं तो दसवाँ और डामर को आगे कर वाग्भव का प्रयोग करते हैं तो ग्यारहवाँ मन्त्र बनता है ॥ ७७ ॥

द्वादशं कीर्तितं मंत्र शेषतस्त्रैपुरं महः ।

तन्महस्त्रैपुरं मंत्र शृणुष्वैकमनास्त्विदम् ।। ७८ ।।

उस महस्त्रैपुर मन्त्र को एकाग्र मन से सुनो। यही महः के साथ बारहवाँ मन्त्र और महस्त्रैपुरमन्त्र तेरहवाँ मन्त्र कहा गया है ।। ७८ ॥

प्रान्तादिस्तस्य चाप्यादिर्वह्निर्वाग्भवसन्धितः ।

आद्यं त्रिपुरभैरव्या बीजमाद्यं प्रकीर्तितम् ।। ७९ ।।

अन्तिम वर्ण के पहले से पहले का वर्ण अग्नियुक्त वाग्भव से युक्त होने पर त्रिपुरभैरवी का प्रथम बीज कहा गया है।।७९।।

उपान्तश्च तदादिश्च वह्निशेषस्वरस्तथा ।

चतुर्थस्वरविन्द्विन्दुयुताश्चैतत् द्वितीयकम् ।। ८० ।।

उसी प्रकार अन्त से पहला वर्ण ह, वह्नि बीज र तथा चन्द्रबिन्दु युक्त चतुर्थ स्वर ई से युक्त हो त्रिपुरभैरवी का द्वितीयमन्त्र ह्रीं कहा गया है ।। ८० ।।

उपान्तश्च तदादिश्च वह्निशेषस्वरस्तथा ।

समाप्तिर्बिन्दुसहिता सहितस्तु तृतीयकः ।। ८१ ।।

एतत् तत्त्वं विजानाति यो नरो भुवि भूमणिः ।

सिद्धविद्याधरेभ्यस्तु सोऽधिकस्तत्समो भवेत् ।।८२।।

उसी प्रकार उपान्त के आदि का वर्ण स् अग्नि और अन्तिम स्वर औ के साथ चन्द्रबिन्दु तथा विसर्ग से युक्त हो त्रिपुरा का तृतीय मन्त्र स्रौं बनता है। इस पृथ्वी पर इस रहस्य को जो मनुष्य जानता है, वह पृथ्वी के मणिस्वरूप श्रेष्ठ, सिद्ध विद्याधरों से भी अधिक श्रेष्ठ हो जाता है।। ८१-८२ ।।

एते त्रयोदश प्रोक्ता मंत्रा मंत्रेषु चोज्ज्वलाः ।

विंशतेस्तु सहस्त्रेभ्यः पराश्चैते प्रकीर्तिताः ।। ८३ ।।

ये ऊपर बताये गये तेरह मन्त्र, मन्त्रों में अत्यन्त उज्ज्वल मन्त्र हैं। बीसहजार मन्त्रों में ये श्रेष्ठमन्त्र, बताये गये हैं॥८३॥

विंशतेस्तु सहस्राणामाद्यमेतत् प्रकीर्तितम् ।

त्रिपुरायास्तु बालायाः मंत्रं तच्छृणु भैरव ।।८४।।

बीसहजार मन्त्रों में ये प्रारम्भ के कहे गये हैं । हे भैरव ! अब त्रिपुरा-बाला के मन्त्रों को सुनो।।८४।

वाग्भवं कामराजस्तु उपान्तादिः सबिन्दुकः ।

शेषस्वरसमाप्तिभ्यां मंत्रमेतत् प्रकीर्तितम् ।।८५ ।।

वाग्भव, कामराज, उपान्त ह के आदि का व्यञ्जन स, विसर्ग, बिन्दु तथा अन्तिम स्वर औ से युक्त हो बना सौं:, यह ऐं क्लीं सौः मन्त्र कहा गया है ।। ८५ ।।

एषा तु त्रिपुरा बाला मध्या प्रोक्ता पुरैव हि ।

शेषा तेजस्विनी प्रोक्ता येयं त्रिपुरभैरवी ॥। ८६ ।।

यह त्रिपुराबाला कही गई, मध्या, पहले ही कही जा चुकी है। शेष (अन्तिम) तेजस्विनी कही गई है यही त्रिपुरभैरवी भी है ॥ ८६ ॥

मध्यायाः पूजनं प्रोक्तं बालायाः शृणु साम्प्रतम् ।

तथा त्रिपुरभैरव्याः सर्वसिद्धिप्रदायकम् ।।८७।।

मध्या का पूजन कहा जा चुका है अब बाला का तथा त्रिपुरभैरवी का सब प्रकार की सिद्धि देने वाला, पूजन विधान सुनो ॥८७॥

विभिद्य शक्त्या शम्भुं तु शक्तिं चापि विभेदयेत् ।

शम्भवे वर्णषट्कोणं केशरं तत्र संलिखेत् ।।८८ ।।

मध्यायास्त्रिपुरायास्तु यादृशे द्वारमण्डले ।

तादृशेऽत्रापि कर्तव्यं कोणेषु लिखितं तथा ।।८९।।

शक्तित्रिकोण (अधोमुखी त्रिकोण) से शम्भु (ऊर्ध्वमुखी त्रिकोण को भेद कर षट्कोण के केशर में छ: वर्णों को लिखे । मध्यात्रिपुरा के पूजन में जिस प्रकार का मण्डल एवं द्वारदेश बताया गया है, वैसा ही यहाँ भी करना चाहिये एवं यन्त्र में लिखना चाहिये ।। ८८-८९ ।।

पापोत्सारणकर्माणि भूम्यादीनां विशोधनम् ।

पूर्वमुत्तरतंत्रोक्तं त्रिपुरापीठ भाषितम् ।। ९० ।।

पहले बताये गये उत्तरतन्त्र के त्रिपुरापीठ के सम्बन्ध में वर्णित विधि के अनुसार पापोत्सारण, भूमिशोधन आदि कर्म करना चाहिये ॥ ९० ॥

कामाख्यापूजने प्रोक्तं सर्वं कुर्यात् तु साधकः ।

दहनप्लवनादीनि प्रतिपत्तिं च पात्रके ।। ९१ ।।

साधक कामाख्या पूजन प्रसङ्ग में बतायी गई विधि से दहन, प्लवन, पात्रादि की प्रतिपत्ति आदि सभी कार्य करे॥९१॥

सर्वं तु पूर्ववत् कार्यं कामाख्यापूजने यथा ।

कृत्वाऽत्र देहन्यासं तु मंत्रवर्णैस्तथाक्षरैः ।

सर्वै: स्वरैस्तथा काद्यैस्ततो रूपं विचिन्तयेत् ।। ९२ ।।

कामाख्या पूजन क्रम में जैसा बताया गया है वैसा ही सब कुछ पूर्वोक्त विधि से करना चाहिये । तत्पश्चात् मन्त्र में प्रयुक्त वर्णों तथा अक्षरों से सभी स्वरों तथा क आदि व्यञ्जनों से देहन्यास करके, देवी के स्वरूप का चिन्तन करे ॥९२॥

कालिका पुराण अध्याय ७४- ।। त्रिपुर भैरवी ध्यान ।।

चतुर्भुजां रक्तवर्णां रक्तवस्त्रविभूषिताम् ।। ९३ ।।

दक्षिणोर्ध्वे स्रजं चाधो बिभ्रतीं पुस्तकोत्तमम् ।

अभयं वामहस्ताभ्यां वरं च दधतीं तथा ।।९४।।

वे चार भुजाओं से युक्त लाल रङ्ग की हैं, वे लालरङ्ग के वस्त्रों से विभूषित हैं। उन्होंने अपनी दाहिनी ओर के ऊपरी हाथ में माला, निचले हाथ में उत्तम पुस्तक, बाये हाथों में क्रमश: अभय तथा वरद मुद्रायें धारण कर रखा है।।९३-९४॥

सहस्त्रसूर्यसंकाशं त्रिनेत्रां गजगामिनीम् ।

पीनतुङ्गस्तनयुगां सितप्रेतासनस्थिताम् ।। ९५ ।।

सूर्य के समान आभावाली, तीन नेत्रों से सुशोभित, हाथी के समान गमन करने वाली हैं। उनके स्तन, पुष्ट और उठे हुए हैं। वे श्वेत-प्रेत के आसन पर विराजमान हैं ॥ ९५ ॥

स्मितप्रसन्नवदनां सर्वालंकारसंयुताम् ।

तिसृभिर्मुण्डमालाभिः शिरोवक्षः कटीषु च ।।

त्रिगुणां त्रिगुणीभूतैः प्रत्येकं परिभूषिताम् ।। ९६ ।।

वे मुस्कुराते हुये प्रसन्नमुखवाली, सभी प्रकार के आभूषणों से सुशोभित हैं। उन्होंने अपने सिर, वक्षस्थल और कमर में तीन मुण्ड मालायें धारण किया है। जो एक-एक तीन गुणों से युक्त तथा तिगुनी की गई हैं ।। ९६ ॥

मदिराघूर्णनयनां रक्तदन्तच्छदद्वयाम् ।

चिन्तयेद् वरदां देवीमेवं त्रिपुरभैरवीम् ।। ९७ ।।

उनके नेत्र मदिरापान से घूर्णित (झूमते हुए) तथा दोनों ओठ लाल रङ्ग के हैं, ऐसी वरदायिनी त्रिपुरभैरवी देवी का ध्यान करे ।। ९७ ।।

बालायास्त्रिपुरायास्तु रूपं पूर्व प्रपूजने ।

उक्तः क्रमः पीठयोगे तंत्रादि शृणु भैरव ।। ९८ ।।

हे भैरव ! बाला और त्रिपुरा का ध्यान एवं पूजन तुमसे कहा। अब पीठ, क्रम तन्त्र आदि को सुनो ।। ९८ ।।

पुष्पबाणांस्तु पाशं च धत्ते पौष्पं शरासनम् ।

पाशं च कुणपारूढा सा बाला त्रिपुरा स्मृता ।। ९९ ।।

बालात्रिपुरा पुष्पों से बना बाण, पुष्पों का ही बना हुआ धनुष और पाश धारण की हुई तथा कुणप (शव) पर आरूढ़ बताई गई हैं ।। ९९ ।।

मंत्रे त्रिपुरे देवीं विद्महे पदमादितः ।

कामेश्वरीं धीमहि त्वां तन्नः क्लिन्ने प्रचोदयात् ।। १०० ।।

एषा त्रिपुरगायत्रीत्यावाहनविशेषतः ।

स्नानाद्यैः पूजयेत् सम्यग् बालामन्यां च भैरवीम् ।। १०१ ।।

उसके मन्त्रों में त्रिपुरेदेवीं विद्महे पद प्रारम्भ में, कामेश्वरीं धीमहि त्वां क्लिन्ने प्रचोदयात् शब्दों का प्रयोग करने पर, त्रिपुरेदेवीं विद्महे कामेश्वरीं धीमहि त्वां तन्नः क्लिन्ने प्रचोदयात् त्रिपुरा गायत्रीमन्त्र बनता है। इसको उपयोग विशेषकर आवाहन में होता है। हे वेताल और भैरव ! स्नानादि से भली भाँति बाला तथा अन्य त्रिपुरभैरवी का पूजन करना चाहिये ।। १००-१०१ ।।

अस्याः क्रमे विशेषो यो न्यासे चोत्तरकर्मणि ।

तत् सर्वं सह मंत्रौघैः शृणु वेतालभैरव ।। १०२ ।।

हे वेताल और भैरव ! इस पूजन क्रम में उत्तर कर्म और न्यास आदि में जो विशेष है, उन सबको सम्बन्धित मन्त्र समुदाय के सहित सुनो ॥ १०२ ॥

ब्राह्मे मुहूर्ते उत्थाय चिन्तयेत् परमं गुरुम् ।

ततोऽनु स्वगुरु शुद्धं ततस्त्रिपुरभैरवीम् ।। १०३ ।।

सर्वप्रथम ब्राह्म मुहूर्त्त में उठकर परम गुरु का चिन्तन (ध्यान) करे तत्पश्चात् अपने गुरु के शुद्धस्वरूप का, तब त्रिपुरभैरवी का ध्यान करे ।।१०३।।

चतुर्भुजां शुक्लवर्णां वरदाभयपुस्तकाम् ।। १०४ ।।

अक्षमालां च क्रमतो धत्ते वामे च दक्षिणे ।

सुवर्णरत्नखचिते संस्थितां प्रवरासने ।। १०५ ।।

सौवर्णमुत्तरीयं तु धत्ते सौवर्णकुण्डले ।

स्वगुरुं वर्णतो ध्यानात् तथैव परिचिन्तयेत् ।। १०६ ।।

जो चार भुजाओंवाली तथा श्वेत वर्णोंवाली हैं, जिन्होंने अपनी भुजाओं में बायें और दक्षिण के क्रम से क्रमशः वरद एवं अभय मुद्रायें, पुस्तक और रुद्राक्ष माला धारण की हुई हैं। जो सोने और रत्न जड़े, श्रेष्ठbसिंहासन पर विराजमान हैं। जिन्होंने सोने का दुपट्टा, सोने के कुण्डल धारण किया है। स्वर्णिमवर्ण के अपने गुरु का उसी प्रकार ध्यान करे ।। १०४-१०६ ॥

भैरवीं चिन्तयित्वा तु तत उत्थाय चाचरेत् ।

मैत्रमाचमनं चैव दन्तानां शोधनं तथा ।। १०७ ।।

उपर्युक्त विधि से भैरवी (त्रिपुरभैरवी) का चिन्तन कर, मैत्र (शौच) और आचमन तथा दाँतों को शुद्ध करने का कार्य करना चाहिये ॥ १०७॥

प्रातः स्नानं ततः कुर्यात् त्रैपुरं योजयन् क्रमम् ।

सर्वत्र देवीमंत्रेषु वैदिकेष्वपि भैरवीम् ।। १०८ ।।

तब प्रातः काल स्नान करके तीनों, पुरों के समायोजन के क्रम में देवी के मन्त्रों और वैदिकमन्त्रों से भैरवी का सब जगह पूजन करे ।। १०८ ।।

त्रिपुरां चिन्तयेन्नित्यं देवमंत्रेषु च क्रमात् ।

त्रिभिस्तु त्रिपुराबीजैस्त्रिधा मज्जनमाचरेत् ।। १०९ ।।

त्रिपुरादेवी का नित्य चिन्तन करता हुआ देवमन्त्रों में से तीन त्रिपुराबीजों से तीन बार स्नान करे ॥ १०९ ॥

देवानामपि सर्वेषु भैरवेषु पदं सदा ।

कुर्याद् विशेषणं नित्यं नोच्चार्यं निर्विशेषणम् ।। ११० ।।

देवताओं का भी सबमें भैरवपद का विशेषण लगाकर सदा नित्य उच्चारण करना चाहिये, बिना विशेषण लगाये नहीं ॥ ११० ॥

आपः पुनन्तु पृथिवीमुक्त्वा त्रिपुरभैरवीम् ।

कुर्यादाचमनं विप्रो द्रुपदायां तथाचरेत् ।। १११।।

आपः पुनन्तु पृथिवीं...........मन्त्र बोलकर तथा द्रुपदा....... से ब्राह्मण (साधक) त्रिपुराभैरवी का आचमन करे।।१११॥

इदं विष्णुर्भैरवस्तु विचक्रम इतीरितम् ।

मृदालम्भनकृत्येषु नित्यमेवाप्युदीरयेत् ।। ११२ ।।

नित्य मृतिकाग्रहण मन्त्रों में इदं विष्णु भैरव विचक्रमे..... मन्त्र का प्रयोग करे ।। ११२ ।।

गायत्री त्रिपुराद्यां तु भैरवीमाह्वयेच्छिवाम् ।

मार्तण्ड भैरवायेति सूर्यायार्घ्यं निवेदयेत् ।। ११३ ।।

सम्बन्धित गायत्री से त्रिपुरा आद्याभैरवी शिवा का आवाहन करे तथा मार्तण्ड भैरवाय कहकर सूर्य को अर्घ्य प्रदान करे ।।११३ ।।

उदुत्यं जातवेदसं देवं वहन्ति केतवः ।

दृशे विश्वाय सूर्यं शेषे भैरवमीरयेत् ।। ११४।।

तब उदुत्यं जातवेदसं देवं वहन्ति केतवः दृशे विश्वाय सूर्य के अन्त में भैरव शब्द कहे ।।११४।।

तर्पणादौ प्रयुंजीत तृप्यतां ब्रह्मभैरवः ।

आवाहने स्वयं पितृन् भैरवानिति कीर्तयेत् ।। ११५ ।।

तर्पण आदि में तृप्यतां ब्रह्मभैरवः मन्त्र का प्रयोग करे। आवाहन में स्वयं पितरों को भैरवान् कहे।। ११५ ।।

तृप्यतां भैरवीमातः पितर्भैरव तृप्यताम् ।

आदौ च त्रिपुरापूर्वं तर्पणेऽपि प्रयोजयेत् ।। ११६ ।।

भैरवीमातः तृप्यताम्, भैरवपितः तृप्यताम् ऐसा कहे। देवी तर्पण के प्रारम्भ में त्रिपुर शब्द का प्रयोग करे ।। ११६ ।।

ज्योतिष्टोमाश्वमेधादौ यत्र यं यं प्रपूजयेत् ।

तत्र भैरवरूपेण देवीमपि च भैरवीम् ।। ११७ ।।

ज्योतिष्टोम अश्वमेधादि यज्ञों में भी जो जो प्रयोग करना हो उसमें देवताओं का भैरवरूप में एवं देवियों का भैरवीरूप में पूजन करे ॥११७॥

मदिरापात्रमालोक्य रक्तवस्त्रां स्त्रियं तथा ।

शिरो नरस्य दृष्टा तु भैरवीं चिन्तयेद् द्विजः ।। ११८ ।।

मदिरापात्र तथा लालवस्त्रवाली स्त्री एवं मनुष्य के शिर (कपाल) को देखकर द्विज (साधक) भैरवी का चिन्तन करे ।। ११८ ॥

स्त्रियो दृष्ट्वा ह्यथैकत्र युवतीः सुमनोहराः ।

ताभ्यस्त्रिपुरभैख्याः प्रीतये वन्दनादिकम् ।

दाद्भक्तया तु मनसा चिन्तयन्नथ भैरवीम् ।। ११९ ।।

सुन्दरी युवती या एक साथ बहुत सी सुन्दर स्त्रियों को एकत्र देखकर उन्हें मन से भैरवी के रूप में उनका चिन्तन करता हुआ त्रिपुरभैरवी की प्रसन्नता के लिए उनके प्रति वन्दनादि करे ।। ११९ ।।

भैरवीं प्रतिगृह्णामि भैरवोऽहं प्रतिग्रही ।

कन्यायां भावयेद् धीमांस्त्रिपुरायाः प्रपूजकः ।। १२० ।।

मैं भैरवी का प्रतिग्रह करता हूँ और मैं स्वयं भैरवरूप से ग्रहण करने वाला हूँ, त्रिपुरा का पूजक, बुद्धिमान् साधक कन्या के प्रति इस प्रकार की भावना करे ॥ १२० ॥

भैरवाय ददाम्यद्य देवीं त्रिपुरभैरवीम् ।

इतीरयेत् प्रदाने तु कन्यायास्त्रिपुरां ततः ।। १२१ ।।

आज मैं देवी त्रिपुरभैरवी को भैरव को प्रदान करता हूँ। कन्या रूपिणी, त्रिपुरा को पूजोपचार प्रदान करते हुए ऐसा कहे ।। १२१ ॥

तस्याः पूजोपकरणपात्राद्यं नान्यपूजने ।

आसनाद्यं च सततं नोपयोज्यं कदाचन ।। १२२ ।।

उसकी पूजा में जो आसन-पात्र आदि पूजा- उपकरण, नित्य प्रयोग किये जायँ उनका किसी दूसरे के पूजन में प्रयोग नहीं करना चाहिये ॥ १२२ ॥

सकृत् तु दापयेदन्यैर्मदिरां साधको द्विजः ।। १२३ ।।

शूद्रादयस्तु सततं ददुरासवमुत्तमम् ।

एवं तु वामभावेन यजेत् त्रिपुरभैरवीम् ।। १२४ ।।

जो साधक द्विज है, केवल एक बार अन्यों से मदिरा दिला दे। शूद्रादि उत्तम आसव निरन्तर देवें । इस भाँति वामभाव से त्रिपुरभैरवी का पूजन करे ।। १२३ - १२४ ।।

बालां तु वामदाक्षिण्यमार्गाभ्यामपि पूजयेत् ।

श्मशान भैरवीं देवीमुग्रतारां तथैव च ।। १२५ ।।

उच्छिष्टभैरवीं चण्डी तथा त्रिपुरभैरवीम् ।

एतास्तु वामभावेन पूज्या दक्षिणतां विना ।। १२६ ।।

बाला देवी का वाम और दक्षिण दोनों मार्गों से पूजन करे। श्मशानभैरवी, देवी - उग्रतारा, उच्छिष्टभैरवी, चण्डी तथा त्रिपुरभैरवी का पूजन, दक्षिणभाव छोड़कर, मात्र वामभाव से ही करे ।।१२५-१२६ ॥

ऋषीन् देवान् पितॄंश्चैव मनुष्यान् भूतसञ्चयान् ।

योजयेत् पंचभिर्यज्ञैर्ऋणानि परिशोधयेत् ।। १२७ ।।

ऋषियों, देवताओं, पितरों, मनुष्यों, प्राणी समूह सम्बन्धी ऋण का शोधन बलि-वैश्वादि पञ्चयज्ञों से करे ।। १२७ ।।

विधिवत् स्नानदानाभ्यां कुर्वन् यद्विधिपूजनम् ।

क्रियते सरहस्य तु तद्दाक्षिण्यमिहोच्यते ।। १२८ ।।

विधिपूर्वक स्नान-दान-आदि द्वारा, तत्त्वज्ञानपूर्वक, जो विधि के अनुसार पूजन कर्म किया जाता है उसे दाक्षिण्य कहा जाता है ।। १२८ ॥

सर्वे च पितृदेवादौ यस्माद् भवति दक्षिणः ।

देवी च दक्षिणा यस्मात् तस्माद् दक्षिण उच्यते ।। १२९ ।।

सभी देवगण एवं पितृगण दक्षिणभाग में स्थित रहते हैं और देवी भी दक्षिण में ही स्थित रहती हैं, इसीलिए दक्षिण कहा जाता ॥ १२९ ॥

या पुनः पूज्यमाना तु देवादीनां च पूर्वतः ।

यज्ञभागं स्वयं धत्ते सा वामा तु प्रकीर्तिता ।। १३० ।।

जो देवता आदि द्वारा पहले की भाँति पुन: पूजी जाती हैं, जो स्वयं यज्ञभाग को धारण करती हैं, वे ही वामा कही गई हैं ।। १३० ॥

पूजकोऽपि भवेद् वामस्तत्रैव सततं सुत ।

पंचयज्ञान् न वा कुर्याद् यद् वा वाम्यप्रपूजने ।।१३१।।

हे पुत्र ! पूजक भी तभी वाममार्गी हो जाता है जब वह अपनी वामपूजा में बलि-वैश्वादिपञ्चयज्ञों को नित्य नहीं करता ॥ १३१ ॥

अन्यस्य पूजाभागं हि यतो गृह्णाति वामिका ।

यत्पूजयेद्वामभावैर्न तत् स्यादृणशोधनम् ।

पितृदेवनरादीनां जायते च कदाचन ।। १३२ ।।

इसमें अन्य परकीय द्वारा समर्पित पूजा भाग को वामिकाग्रहण करती है। वाम भाव से जो पूजा की जाती है, उससे देव-पितृ अदि का ऋण-शोधन कभी भी नहीं होता ॥ १३२ ॥

सोऽभ्यस्य त्रिपुरायोगं तेन योगेन संयुतः ।। १३३ ।।

जीयते यदि सुप्राज्ञस्तदा मोक्षमवाप्नुयात् ।

स च मोक्षश्चिरेणैव जायतेऽत्र पुनः पुनः ।। १३४।।

उस वाम-मार्ग का अभ्यास, त्रिपुरायोग में करके, उस योग से युक्त हो सुप्राज्ञ, साधक जीवन-यापन कर, मोक्ष को प्राप्त करता है। वह मोक्ष बार-बार के यत्न के बाद दीर्घकाल में प्राप्त होता है।। १३३-१३४।।

ऋणशोधनजैः पापैराक्रान्तश्चैव भैरव ।

इह लोके सुखश्चैर्ययुक्तः सर्वत्र वल्लभः ।। १३५ ।।

हे भैरव ! वह ऋण शोधन से उत्पन्न पापों से आक्रान्त होते हुये भी इस लोक के सुखों और ऐश्वर्य से युक्त हो, सर्वत्र प्रिय हो जाता है ।। १३५ ।।

मदनोपमकान्तेन शरीरेण विराजता ।

सराष्ट्रकं च राजानं वशीकृत्य समन्ततः ।। १३६ ।।

मोहयन् वनिताः सर्वाः सर्वाश्च मदविव्हलाः ।

सिंहान् व्याघ्रान् तरक्षूंश्च भूतप्रेतपिशाचकान् ।

वशीकुर्वन् विचरति वायुवेगोद्यतस्ततः ।। १३७।।

वह कामदेव के समान सुन्दर शरीर से विराजमान हो, अपने-अपने देश (राज्य) के सहित सब राजाओं को वश में कर लेता है। वही सभी स्त्रियों को मद से विह्वल कर, मोहित कर, सिंह, व्याघ्र, लकड़बघ्घा, भूत-प्रेत, पिशाच आदि को अपने वश में करता हुआ, वायुवेग से इधर- ऊधर विचरण करता है ।। १३६ - १३७॥

बालां वा त्रिपुरां देवीं मध्यां वाप्यथ भैरवीम् ।

यो जयेत् परया भक्त्या यश्च बाणोपमाकृतिः ।। १३८ ।।

कामेश्वरीं तु कामाख्यां पूजयेत् तु यथेच्छया ।

दाक्षिण्याद् वामभावाद् वा सर्वथा सिद्धिमाप्नुयात् ।। १३९ ।।

जो बाण के समान आकृति वाला अर्थात् तीक्ष्ण बुद्धि साधक, बाला, त्रिपुरा, मध्या, भैरवी या कामाख्या की इच्छानुसार, परमभक्ति से वाम या दाक्षिण्यभाव से, पूजन करता है, वह सब प्रकार की सिद्धि प्राप्त करता है ।। १३८-१३९ ।।

महामायां शारदां च शैलपुत्री तथैव च ।

यथा तथा प्रकारेण दाक्षिण्यादेव पूजयेत् ।। १४० ।।

महामाया, शारदा, शैलपुत्री का दाक्षिण्यभाव से ही यथोचितरूप से पूजन करना चाहिये ।। १४० ॥

यो दाक्षिण्यं विना भावं महामायां समर्चति ।

स पापः स्वर्गलोकेभ्यच्युतो भवति रोगधृक् ।। १४१ ।।

जो दाक्षिण्यभाव के बिना अन्य भाव से महामाया का पूजन करता है वह पापी स्वर्गलोक से पतित हो, रोगी होता है ।। १४१ ॥

अन्यास्तु शिवदूत्याद्या देव्यो याः पूर्वमीरिताः ।

तास्तु वां पान्तु दाक्षिण्यात् पूजितव्यास्तु साधकैः ।। १४२ ।।

अन्य जो शिवदूती आदि देवियाँ पहले कही गई हैं, वे साधकों द्वारा दाक्षिण्य-भाव से पूजने योग्य हैं वे, सदैव तुम दोनों की रक्षा करें ॥ १४२ ॥

किन्तु यः पूजको वामः सोऽन्यासां परिवर्जितः ।

सर्वासां पूजकः स्यात् तु दक्षिणस्तेन उत्तमः ।। १४३ ।।

जो वामभाव का पूजक होता है, वह अन्यों द्वारा परित्यक्त हो जाता है किन्तु दक्षिणभाव से पूजन करने वाला साधक, सब में श्रेष्ठ होता है ।। १४३ ॥

अथ त्रिपुरभैरव्यां न्यासं च शृणु भैरव ।

येन वै न्यासमात्रेण देववज्जायते नरः ।। १४४।।

हे भैरव ! अब त्रिपुरभैरवी के उस न्यास को सुनो जिस न्यास मात्र के करने से ही मनुष्य, देववत् हो जाता है।।१४४।।

भैरवीतंत्रमंत्रस्य ऋषिदक्षिण उच्यते ।। १४५ ।

छन्दः पंक्तिः समाख्याता देवी त्रिपुरभैरवी ।

कामार्थयोः साधने च विनियोगः प्रकीर्तितः ।। १४६ ।।

भैरवीतन्त्र-मन्त्र के दक्षिण ऋषि, पंक्ति छन्द, त्रिपुरभैरवी देवी, काम और अर्थ साधन में विनियोग कहा गया है ।। १४५-१४६॥

हकारं विन्यसेन्नाभौ सकारं वस्तितो न्यसेत् ।

वकारं शेफे विन्यस्य एकारं च गुदे तथा ।। १४७ ।।

हकार का नाभि में, सकार का वस्ति में, लकार का शेफ (लिङ्ग) में, एकार का गुदा में न्यास करे ॥१४७ ॥

पुनरूर्वोस्तथैवाद्यं जानुयुग्मे द्वितीयकम् ।

तृतीयं जङ्घयोर्न्यस्य चतुर्थं पादयोर्न्यसेत् ।। १४८ ।।

पुनः प्रथम मन्त्र से ऊरु, द्वितीय मन्त्र से जानु, तृतीय मन्त्र से टखनों में तथा चतुर्थ मन्त्र से पैरों में न्यास करे ।। १४८ ।।

त्रिविधं विन्यसेद् देवं नाभ्यादेः पादसङ्गतम् ।

द्वितीयस्य तु बीजस्य आद्यं ह्यद्येव विन्यसेत् ।। १४९ ।।

तीन प्रकार के देव का नाभि से पैरों तक और द्वितीय मन्त्र के पहले बीज का हृदय में विशेष प्रकार से न्यास करे।।१४९॥

वामे स्तने द्वितीयं तु तृतीयं दक्षिणे स्तने ।

चतुर्थमुदरे न्यस्य पंचमं पार्श्वयोर्न्यसेत् ।। १५० ।।

बायें स्तन में द्वितीय मन्त्र का, दाहिने स्तन में तृतीय मन्त्र का, चौथे मन्त्र का उदर में न्यास कर, पाँचवें का पार्श्वभागों में न्यास करे ।। १५० ।।

षष्ठं नाभौ परिन्यस्य न्यसेचापि त्रिधा त्रिधा ।

तृतीयस्य तु बीजस्य मूर्ध्नि चायं तु विन्यसेत् ।। १५१ ।।

छठे मन्त्र का नाभि में न्यास कर तृतीय मन्त्र के बीजमन्त्रों का मस्तक पर न्यास करे ।। १५२ ।।

द्वितीयं न्यस्य केशान्ते तृतीयं वदने न्यसेत् ।

चतुर्थं हृदये न्यस्य यथा स्यात् तु त्रिधा त्रिधा ।।१५२।।

दूसरे का केश के अन्तिम भाग में न्यास कर तीसरे का मुख में न्यास करे। चौथे का हृदय में तीन-तीन बार न्यास करे ।। १५२ ।।

आद्याद्यं दक्षिणाङ्गुष्ठे द्वितीयं तर्जनीं पुनः ।

तृतीयं च मध्यमायामनामायां चतुर्थकम् ।। १५३ ।।

पहले के पहले बीजमन्त्र का दाहिने अँगूठे में, द्वितीय का तर्जनी में तीसरे का मध्यमा और चौथे का अनामिका में न्यास करे ॥ १५३॥

तृतीयाद्यं कनिष्ठायां वामाङ्गुष्ठे द्वितीयकम् ।

तृतीयं वामतर्जन्यां चतुर्थ मध्यमातनौ ।। १५४।।

तीसरे के पहले का कनिष्ठा में दूसरे का बायें अँगूठे में, तीसरे का बायीं तर्जनी और चौथे का मध्यमा में न्यास करे५४

अनामायां पंचमं तु षष्ठं शेषे तु विन्यसेत् ।

एवं त्रिधा तु विन्यस्य तृतीयमथ बीजकम् ।। १५५ ।।

अनामिका में पाँचवें का छठें का शेष में न्यास करे इस प्रकार तृतीय बीज का तीन-तीन बार न्यास करे।।१५५।।

उभयोर्हस्तयोः कृत्वा अङ्गुष्ठाद्यं युगं युगम् ।

तृतीयं बीजवर्णास्तु विन्यसेत् क्रमतो बुधः ।। १५६ ।।

इस प्रकार विद्वान्साधक, तृतीय मन्त्र के दो-दो बीजाक्षरों का क्रमशः दोनों हाथों के अंगुष्ठादि में न्यास करे ॥ १५६ ॥

पिण्डितं सर्वबीजं तु विन्यसेत् तु कनिष्ठयोः ।

आद्यं तु तलयोर्न्यस्य पृष्ठयोश्च द्वितीयकम् ।। १५७ ।।

पिण्डित सभी बीजों का कनिष्ठा में न्यास कर, पहले का हाथ के तल में न्यास करें, दूसरे का पीठ पर न्यास करे।। १५७।।

तालत्रयं ततो दत्त्वा तृतीयेन तु वेष्टनम् ।

कर्णयोश्चिबुके गण्डे मुखे दृङ्नासयोस्तथाः ।। १५८।।

स्कन्धयोश्च कफोणौ च जठरे शिश्नमूर्धनी ।

पादयोः पार्श्वयोश्चैव हृदये स्तनयुग्मके ।

कण्ठदेशे च न्यस्तव्या मंत्रवर्णक्रमात् पुनः ।।१५९।।

लिङ्गे रत्यै नम इति वाग्भवाद्येन विन्यसेत् ।। १६० ।।

तब तीन ताल देकर तृतीय मन्त्र से वेष्टन करे। कानों, ठुड्डी, गण्डस्थल, मुख, नेत्र, नासिका छिद्रों, कन्धों, कुहनियों, पेट, शिश्न, मस्तक, पैरों, पार्श्व भागों, हृदय, दोनों स्तन तथा कण्ठदेश में मन्त्र के वर्णों का क्रमशः न्यास करे तत्पश्चात् लिङ्ग पर रत्यै नमः के साथ वाग्भवयुक्त बीज का न्यास करे । १५८-१६० ।।

ॐ क्लीं प्रीत्यै नम इति हृदये विन्यसेत् ततः ।

मनोभवायेति ततो ध्रुवोर्मध्ये तृतीयकम् !

विन्यसेत् त्रिपुराबीजं सद्यो देवत्वसिद्धये ।।१६१ ।।

ॐ क्लीं प्रीत्यै नमः कह कर हृदय में न्यास करे तब शीघ्र देवत्व सिद्धि हेतु तृतीय त्रिपुरामन्त्र सहित मनोभवाय नमः कहकर दोनों भौहों के बीच न्यास करे ।। १६१ ॥

ॐ ई ईशानरूपाय ततो मनोभवाय वै ।

नम इत्यन्ततः प्रोक्तो मूर्ध्नीशानं न्यसेत्ः पुनः ।।१६२ ।।

ॐ ईं ईशानरूपायमनोभवाय नमः कहकर शिर पर ईशान का न्यास करे।। १६२ ।।

वक्त्रे तत्पुरुषं चापि बीजेन मकरध्वजम् ।

हृदये घोरकन्दर्पमाद्यबीजेन वै न्यसेत् ।। १६३ ।।

मकरध्वजबीज (कामबीज) से, मुख में तत्पुरुष का तथा आदिबीज से घोर एवं कन्दर्प का हृदय में न्यास करे ।। १६३ ॥

शिश्ने वा वामदेवं तु मन्मथं चापि विन्यसेत् ।

सद्योजातं पादद्वये. कामदेवं च विन्यसेत् ।।१६४।।

शिश्न में वामदेव एवं मन्मथ का तथा दोनों पैरों में सद्योजात और कामदेव का न्यास करे ।। १६४ ॥

ॐ कारं चहकारं च रेफमेकत्र सन्धितम् ।। १६५ ।।

प्रान्तस्वरं वाग्भवाद्यां स्वरैर्ह्रस्वैस्तु पञ्चभिः ।

एभिस्तु पञ्चभिर्मंत्रैरीशानादीनि विन्यसेत् ।। १६६ ।।

वक्त्राणि पूर्वमुक्तानि स्वमुखोर्ध्वे तु पूर्वतः ।

दक्षिणोत्तरयोः पश्चात् पश्चिमे चापि विन्यसेत् ।। १६७।। २

ॐ कार, हकार, रेफ एक साथ मिलाकर वाग्भवादि ऐं, प्रान्त स्वर औ पर्यन्त अ इ उ ए ओ इन पाँच ह्रस्व स्वरों से पहले कहे गये ईशानादि मुखों का अपने मुख पर, ऊपर, पूर्व, दक्षिण, उत्तर तथा पश्चिम दिशाओं में न्यास करे।। १६५-१६८

हृदयदिषडङ्गानि दीर्घेराद्यस्वरैः पुनः ।

न्यसेत् ततः पञ्चबाणान् मूर्धादिष्वथ विन्यसेत् ।। १६८ ।।

हृदय आदि छः अङ्गों आदि में दीर्घ स्वरों, आ ई ऊ ऐ औ से तत्पश्चात् पञ्च- बाणों का शिर आदि स्थानों पर न्यास करे ।। १६८ ।।

ॐ ह्रीं क्लीं सौं द्रावणाय न्यसेन्मूर्ध्नि ततः पुनः ।

ॐ ह्रीं क्षोभणबाणाय पद्भ्यां नम इतीरयेत् ।। १६९ ।।

ॐ ह्रीं क्लीं सौं द्रावणाय बोलकर शिर पर न्यास करे तब पुनः ॐ ह्री क्षोभणबाणाय पद्भ्यांनमः ऐसा कहे ।। १६९ ॥

ॐ क्लीं क्लीं ह्रीं समाप्यन्तु षट्कारान्तार्धचन्द्रकैः ।

वक्त्रे वशीकृतं लिङ्गे सम्मोहनमथो न्यसेत् ।। १७० ।।

आकर्षणं तथा बाणं हृदि मंत्रैः क्रमान्न्यसेत् ।

ॐ क्लीं क्लीं ह्रीं जो सकार एवं अर्धचन्द्र से युक्त हो जिसके अंत में वशीकरण का मुह में, लिङ्ग में सम्मोहन बाण का न्यास करे । मन्त्रों सहित आकर्षण बाण का हृदय में न्यास करे ॥१७०॥

वाग्भवाद्यन्तकारान्तो वषट्कारसमन्वितः ।।१७१।।

त्रिः शेषस्वर एवात्र चन्द्रार्धो बिन्दुसंयुकः ।

एभिस्तु पञ्चभिर्मंत्रैरष्टशक्ती: क्रमादिमाः ।। १७२ ।।

वाग्भव ऐं से आरम्भ हो यकारपर्यन्त वषट् सहित त्रिशेष स्वर, चन्द्रार्ध और बिन्दु से युक्त हो उपयुक्त पाँच मन्त्रों द्वारा अष्ट शक्तियों का नीचे लिखे क्रम में न्यास करे।। १७१-१७२॥

एतेषु चष्टस्थानेषु विन्यसेमंत्रवित् पुनः ।

सुभगां च भगां देवीं तृतीयां भगरूपिणीम् ।। १७३ ।।

भगमालां चतुर्थी तु अनङ्गकुसुमां ततः ।

अनङ्गमेखला पश्चादनङ्गमदनां तथा ।। १७४ ।।

अष्टमीं च तथा देवीं मदविभ्रममन्थराम् ।

रूपतो ध्यानतश्चैषा यथा त्रिपुरभैरवी ।।१७५ ।।

ललट भ्रूमध्यभागमुखकर्णान्तकण्ठके ।

हृन्नाभिलिंगेष्वेवात्र न्यस्तव्या अष्टशक्तयः ।। १७६ ।।

मन्त्रवेत्ता साधक, सुभगा, भगा, भगरूपिणी, भगमाला, अनङ्गकुसुमा, अनङ्ग- मेखला, अनङ्गमदना, मदविभ्रममन्थरा आठ शक्तियों का नाम की त्रिपुरभैरवी की भाँति ध्यान करता हुआ, क्रमशः ललाट, भौहों के बीच में, मुख, कानों के छोर, कण्ठ, हृदय, नाभि और लिङ्ग इन आठ स्थानों में न्यास करे।। १७३-१७६।।

शिरोललाट भ्रूयुग्मकर्णनेत्रद्वयेषु च ।

गण्डयोरथ नासायां दन्तवीथ्यां मुखे तथा ।

चतुर्दशपदेष्वेषु न्यसेच्चतुर्दशस्वरान् ।। १७७।।

शिर, ललाट, दोनों भौहों, दोनों कान और दोनों नेत्रों, गण्डस्थलों, नाक, दन्तपंक्तियों, मुख इन चौदह स्थानों में चौदह स्वरों का न्यास करे ।।१७७।।

चिबुके त्वथ ग्रीवायां कण्ठेदेशे तु पार्श्वयोः ।। १७८ ।।

स्तनयोः कक्षयोश्चापि कफोण्योर्हस्तयोस्तथा ।

तत् पृष्ठयोस्तथा नाभौ लिङ्गे चोरुद्वये तथा ।। १७९ ।।

अष्ठीवदोर्जङ्घयोस्तु स्फिचोस्तु पदमूलयोः ।

चरणाङ्गुष्ठयोः कादिमान्तान् वर्णास्तु विन्यसेत् ।। १८० ।।

ठुड्डी, गला, कण्ठ, पार्श्वों, स्तनों, काँखों, कुहनियों, हाथों और उनके पीठ में नाभि, लिङ्ग, दोनों जंघों, टखनों में, कुल्हों, एड़ियों, पैर के अँगूठों में क वर्ण से प्रारम्भ कर म पर्यन्त २५ वर्णों का न्यास करे ।। १७८ - १८० ।।

मेखलायां कण्ठदेशे बाहुभूषणभागतः ।

हारे स्रजि कुण्डले च केशबन्धे तथैव च ।। १८१ ।।

चूडामणौ च न्यस्तव्या नकाराद्याः क्रमात्पुनः ।

मंत्राक्षराणि त्रीण्येव सन्धितानि पुनस्तथा ।। १८२ ।।

मेखला, कण्ठ, बाहुभूषण का स्थान, हार, माला, कुण्डल, केशबन्ध (चूडा) चूड़ामणि के दश स्थानों पर नकार से आरम्भ कर तीन मन्त्राक्षरों का न्यास करना चाहिये ।। १८१-१८२ ॥

प्रातिलोम्येन विन्यस्य मंत्रैर्मूर्ध्नि त्रिधात्रिधा ।

अमृतां योगिनीं विश्वयोगिनीं चाक्षरक्रमात् ।। १८३ ।।

उल्टे क्रम से तीन-तीन बार मन्त्रों का न्यास करते हुए शिर पर अमृता-योगिनी एवं विश्वयोगिनी का न्यास करे।।१८३।।

ततो बीजत्र्यक्षराणि मूर्ध्नि बाहौ तथा हृदि ।

विन्यस्य पूर्ववत् पूजामारभेन्मंत्रविद् बुधः ।। १८४।।

तब बुद्धिमान मन्त्रवेत्ता साधक, बीज के तीन अक्षरों से शिर में, भुजाओं में, हृदय में, पहले की भाँति ही न्यास करके पूजन प्रारम्भ करे ।। १८४ ।।

पूर्ववत् पूजयेद् देवीं पीठदेवविवर्जिताम् ।

विशेषतो ह्यष्टशक्तीः क्रमात् तु सुभगादिकाः ।। १८५ ।।

मण्डलस्याष्टदिग्भागे पूर्वादौ परिचिन्तयेत् ।

त्रिकोणाग्रेऽमृताद्यास्तु सम्पूज्यास्तु त्रियोनयः ।। १८६ ।।

पीठदेवताओं को छोड़कर पहले की ही भाँति देवी का विशेषकर, सुभगादि अष्टशक्तियों का पूजन करे। मण्डल की पूर्व आदि आठो दिशाओं में त्रिकोण के अगले भाग में अमृता आदि तीन योनियों का पूजन करे ।। १८५-१८६ ।।

मध्येऽष्टभूषणान्येव पूजयेत् तु ततः पुनः ।

ईशानादीनि वक्त्राणि मम भैरव मध्यतः ।।१८७।।

हे भैरव ! त्रिकोण के मध्य में, मेखलादि पूर्वोक्त अष्ट- आभूषणों का पूजन तत्पश्चात् मेरे ईशानादि मुखों का मध्य में पूजन करे।। १८७ ।।

पूजयेत् तु तथा तत्र मनोभवमुखानपि ।

अन्यच्च पूजने तत्र क्रमः पूर्वोदितश्च यः ।

स एव सततं ग्राह्यः त्रिपुरापरिपूजने ।। १८८ ।।

तथा वहीं पर उसी प्रकार पाँच मनोभव आदि का भी पूजन करे। जैसा पहले बताया गया है, उसी क्रम (पद्धति) से अन्य पूजन भी सम्पन्न करे । त्रिपुरा के विधिवत पूजन में वही क्रम अपनाना चाहिये ।। १८८ ॥

निर्माल्यधारिणी देवी चैतस्याः शृणु भैरवी ।

विसर्जनं चोत्तरस्यां त्यक्त्वा निर्माल्यमाचरेत् ।। १८९ ।।

इनका निर्माल्य धारण करने वाली देवी भैरवी है, विसर्जन के पश्चात् उत्तर दिशा में इनके निर्माल्य का परित्याग करना चाहिये ।

त्रिमूर्ति पूजयेत् तां तु देवीं त्रिपुरभैरवीम् ।

न जपेत् त्रिंशता न्यूनं साधकस्तु कदाचन ।। १९० ।।

देवी त्रिपुरभैरवी की त्रिमूर्ति का पूजन करना चाहिये एवं कभी भी साधक को तीन सौ मन्त्रों से कम का जप नहीं करना चाहिये ॥ १९० ॥

अङ्गुष्ठमध्यमानामाङ्गुलीभिस्तिसृभिः पुनः।

सदा पुष्पादिकं दद्यान्मालां तु त्रिगुणां चरेत् । । १९१ ।।

अँगूठा, मध्यमा, अनामिका इन तीन अँगुलियों के ही योग से सदा देवी को पुष्पादि की त्रिगुणा माला देकर साधक पूजन करे ॥ १९१॥

चर्मासनमधिष्ठाय पश्चात् कृत्वा पदद्वयम् ।

पूजयेन्निर्जने देशे साधकोऽनन्यमानसः ।।१९२।।

चमड़े के आसन पर बैठकर अपने दोनों पैरों को पीछे की ओर वज्रासनमुद्रा में करके साधक, निर्जन स्थान में अनन्य मन से पूजन करे ।।१९२।।

आसादयेत् तु पुष्पादि नैवेद्यादि च यद् भवेत् ।।१९३।।

तद् वामहस्तमुख्येन सततं साधको बुधः।

त्रिच्छिद्रा त्रिपुरा प्रोक्ता न सम्यक्पूजिता यदि ।। १९४ ।।

विद्वान्साधक सतत बायें हाथ से पुष्प- नैवेद्यादि जो पूजोपहार हों उन्हें उपलब्ध कराये । क्योंकि यदि त्रिपुरा देवी की पूजा सम्यकरीति से न सम्पन्न हो, तो यह तीन दोषों को उत्पन्न करती है ।।१९३-१९४ ।।

शरीरे निन्दितो व्याधिर्जायतेऽवश्यमेव हि ।

अवश्याः पुत्रदाराश्च भृत्याद्याश्च भवन्ति हि ।।१९५ ।।

अस्त्राघातो भवेत् स्वस्य प्राणत्यागो न संशयः ।

त्रिच्छिद्रदायिनी चैवमन्यथा पूजिता यदि ।।१९६।।

यदि अन्यथा (अविहित) रीति से त्रिपुरा पूजन किया जाय तो निम्नलिखित तीन दोष उत्पन्न होते हैं--

१. साधके के शरीर में अवश्यम्भाविकरूप में घृणित व्याधि उत्पन्न होती है ।

२. उसके पत्नी, पुत्र एवं सेवक आदि अवश्य (निरङ्कुश हो जाते हैं।

३. उसके ऊपर अस्त्र का आघात होता है जिससे स्वयं का उसका प्राण त्याग तक हो जाता है । इसमें कोई संशय नहीं है ॥। १९५-१९६॥

इतः प्रकारां सततं सम्यग् बेतालभैरव ।

एषा: च त्रिपुरादेवी याश्चान्याः पूर्वभाषिताः ।।१९७ ।।

सर्वास्तु माया भैरव्या योगनिद्रा जगत्प्रसूः ।

तस्याः प्रपंचरूपैस्तु बहुभिः सैव क्रीडति ।। १९८ ।।

महामाया मूलभूता ततस्तु शारदा पुरा ।

हे वेताल भैरव ! इस प्रकार त्रिपुरा देवी नित्य ही सम्यक्रूप से पूजनीया हैं। ये त्रिपुरादेवी एवं अन्य जिन देवियों का वर्णन पहले किया गया है वे सभी, भैरवी, योगनिद्राजगत्प्रसू, उसी की माया हैं। वही अनेक प्रपञ्चात्मकरूपों से निरंतर क्रीड़ा करती है ।। १९७ - १९८ ॥

उमा ततः शैलपुत्री मत्प्रियायास्ततस्त्विमाः ।

उग्रचण्डा प्रचण्डाद्यास्त्रिपुराद्यास्तथैव च ।। १९९ ।।

महामाया ही मूलरूप में है, इसके बाद पहले वर्णन की गई शारदा, तब उमा है, तब भगवती शैलपुत्री मेरी प्रिया का रूप हैं। तत्पश्चात् उग्रचण्डा, प्रचण्डा, आदि त्रिपुरा भी उन्हीं की भाँति मुझे प्रिय हैं । । १९९ ॥

तासां चापि सदैवाहं महाभैरवरुपधृक् ।

नायकः सुतरां ताभिर्नित्यं नित्यं वसेद्बुधः ।।२०० ।।

मैं उन्हीं के साथ भैरवरूप धारण कर सदैव उनके नायक के रूप में नित्य रहता हूँ। ऐसा मानकर बुद्धिमान् साधक हम दोनों की सेवा करे ।। २०० ।।

मम भैरवरूपस्य मंत्रः पूर्वं मयोदितः ।

रूपं चोक्तं पूजनेषु त्रिपुरायाः क्रमः स्मृतः ।। २०१ ।।

मेरे भैरवरूप का मन्त्र, पहले ही मेरे द्वारा बताया गया है तथा त्रिपुरा के पूजन क्रम में मेरे रूप का वर्णन भी पहले ही कहा जा चुका है ।। २०१ ।।

महाभैरवं विद्महे कालरुद्राय धीमहि ।

तन्नः कामो भैरवस्तु क्लेदिन् नित्यं प्रचोदयात् ।। २०२ ।।

एषा भैरवरूपस्य गायत्री मे प्रतिष्ठिता ।। २०३ ।।

महाभैरवं..............प्रचोदयात्। यह मेरे द्वारा मेरे भैरवरूप की गायत्री प्रतिष्ठित की गई हैं। मन्त्रार्थ-मैं महाभैरव को जानता हूँ कालरुद्र का ध्यान करता हूँ, वे क्लेदिन् मुझे प्रेरित करें। ।। २०२-२०३॥

यथेष्टमांसमद्यादि भोजनार्थं मया धृतः ।

महाभैरवकायोऽयं तथा स्त्रीरतिसंगमे ।

अयं तु वाम्यभावेन पूज्यो मद्यादिभिः सदा ।। २०४ ।।

यह महाकाया, विशाल स्वरूपवाला महाभैरवरूप मेरे द्वारा इच्छानुसार माँस, मदिरा आदि के भोजन तथा स्त्रियों के साथ रति प्रसङ्ग हेतु धारण की गई है जिसका मदिरा आदि द्वारा वाम-भाव से सदा पूजन किया जाना चाहिये२०४

वामः कायो ब्रह्मणोऽपि मांसमद्यादिभुक्तये ।

कृतो महामोहनामा चार्वाकादिप्रवर्तकः ।। २०५ ।।

इसी प्रकार ब्रह्मा द्वारा मद्य-मांस आदि के भोग हेतु, चार्वाक आदि के मतों के प्रवर्तक, महामोह नामक वाममार्गी शरीर को धारण किया गया है ।। २०५ ॥

विष्णोर्वामात्मिका मूर्तिर्नरसिंहाह्वया भवेत् ।

सा तु दाक्षिण्यवामाभ्यां पूजनीया सदा बुधैः ।।२०६ ।।

विष्णु की भी वाममार्गी मूर्ति, नरसिंह नाम से पुकारी जाती है। जो विद्वानों द्वारा सदैव अपनी श्रद्धा के अनुसार वाम और दक्षिण दोनों ही मार्गों से पूजे जाने योग्य है॥ २०६ ॥

तथैव बालगोपालमूर्तिर्जरायुवेष्टिता ।

मद्यमांसाशनो भोगी लोलुपः स्त्रीषु सर्वदा ।। २०७ ।।

उसी प्रकार जरायु से लिपटी जो बाल-गोपाल की वैष्णवीमूर्ति है, वह भी मद्य-मांसभोगी और स्त्रियों के प्रति आसक्ति रखने वाली है ।। २०७ ।।

वह्वयस्तु चण्डिकादेव्याः वामिका मूर्तयः स्मृताः ।

लक्ष्म्यास्तु वामिकामूर्तिरुक्ता दहनभैरवी ।। २०८।।

याग्निदाहं पुरग्राममन्दिरेष्वकरोदियम् ।

सुपूजिता महालक्ष्मीर्देहल्यां तां तु पूजयेत् ।। २०९ ।।

चण्डिका देवी की भी बहुत सी ऐसी मूर्तियाँ हैं जो केवल वाममार्गी मूर्तियाँ कही गई हैं। जैसे लक्ष्मी की वाममार्गी मूर्ति दहनभैरवी कही गई है जो नगर, गाँव, और घरों में अग्निदाह करती हैं। महालक्ष्मी की पूजा के समय, इसका देहली पर पूजन किया जाना चाहिये ।। २०८- २०९ ।।

वाग् भैरवी सरस्वत्या वामिकामूर्तिरीरिता ।

तस्या मंत्र पुरा प्रोक्तं शुक्लवर्णां तु सा स्मृता ।। २१० ।।

सरस्वती की वाममूर्ति वाग्भैरवी कही गई है। उनका मन्त्र पहले ही बताया गया है, वह श्वेतवर्ण की बताई गई है ।। २१० ॥

मध्यायास्त्रिपुरायास्तु रूपं ध्यानमिहोच्यते ।

पूजाक्रमस्तथैवोक्तः सर्वत्रैव तु भैरव ।। २११ ।।

हे भैरव ! त्रिपुरा में मध्यत्रिपुरा का जो रूप या ध्यान है वही इनका भी रूप एवं ध्यान कहा जाता है। सब जगह इनका पूजन क्रम, वैसा ही बताया गया है।॥२११ ॥

मार्तण्ड भैरवो नाम मूर्तिः सूर्यस्य कीर्तिता ।

गणेशस्याग्निवेतालः कथितो वामनामकः ।। २१२ ।।

एते वाम्येन भावेन पूजनीया विशेषतः ।। २१३ ।।

सूर्य की वाममूर्ति, मार्तण्डभैरव तथा गणेश की वाममूर्ति, अग्नि - वेताल कही गई है । इन ऊपर वर्णित सभी मूर्तियों का विशेषरूप से वामभाव से पूजन करना चाहिये ।। २१२-२१३ ॥

त्रिधाद्यस्तु यथापूर्वं नमयैर्रलवैस्तथा ।

वान्तैर्द्विरफैः सर्वत्र यथा कृत्वा तथा तथा ।। २१४ ।

अनुस्वारविसर्गाभ्यां प्राक्शेषौ परिकीर्तितौ ।

पूर्वक्रमानुसार नमय और वलय के साथ आद्य बीज को तीन बार तत्पश्चात् व के अन्त में आने वाला श, दोबार रेफ के सब स्थानों पर अनुस्वार और विसर्ग के सहित प्राकशेष कहा जाता है ।। २१४ ॥

मध्ये तु केवलाः पूर्वं सानुस्वारविसृष्टिभिः ।। २१५।।

पश्चाद् द्वित्रिक्रमाद् यस्तु वर्णैरेकेन चैव हि ।

व्यस्तैः समस्तैरपि च दकारादिषु संयुतैः ।। २१६ ।।

आद्यायास्त्रिपुरायास्तु मंत्रवद् योजितैस्तथा ।

तथा त्रिपुरभैरव्या मंत्रवच्चाक्षरैरपि ।। २१७ ।।

त्रिश्चतुर्दशभिः कृत्वा डादींस्त्रींस्तु विशारयेत् ।

द्वितीयं द्विगुणं कृत्वा शेषेऽत्रादौ च योजयेत् ।। २१८ ।।

मध्य में केवल अ, पहले अनुस्वार और विसर्ग के साथ लिखा जाय तत्पश्चात् दो-तीन के क्रम से एक ही वर्ण समस्त एवं व्यस्तक्रम में दकार आदि से संयुक्त करके आद्या, त्रिपुरा तथा त्रिपुरभैरवी के मन्त्रों की भाँति, अक्षरों को दो-तीन-चार और दश के क्रम में तीन डादि का तथा द्वितीय त्रिपुरामंत्र को दो गुना कर शेष को यहाँ प्रारम्भ में जोड़ दे ।। २१५- २१८।।

विंशतिस्तु सहस्त्राणि शेषे चापि त्रयोदश ।

आद्यमाद्यं ततः प्रोक्तं वाग्भवाद्यं तृतीयकम् ।

एवं च परमप्येतन्मन्त्राणां च चतुष्टयम् ।। २१९ ।।

बीस हजार के बाद तेरह मन्त्रों में पहला, प्रथम श्रेणी का आद्यमन्त्र है तत्पश्चात् वाग्भव से मिलकर तृतीय मन्त्र बनता है। इन सभी मन्त्रों में सर्वश्रेष्ठ चार मन्त्र है ।। २१९ ॥

एतज् ज्ञात्वा नरः कामानखिलान् प्राप्य सङ्गतः ।

मृते देवीपुरं याति क्रमादेव तु भैरव ।। २२० ।।

हे भैरव ! इनको जानकर मनुष्य जीवन में सम्पूर्ण कामनाओं को प्राप्त कर, मृत्यु के पश्चात् क्रमशः देवीपुर को जाता है ।। २२० ।।

यः सकृत् तु जपेदेतत् सकलं मंत्रसञ्चयम् ।। २२१ ।।

प्रथमं कामतो न्यस्य साधकस्तु त्रिभिर्दिनैः ।

चिन्तयन्मनसा देवीं सम्यक् त्रिपुरभैरवीम् ।। २२२ ।।

स कामानखिलान् प्राप्य स्वरूपे मदनोपमः ।

धार्मिको नृपातिर्भूयाद् ब्राह्मणो द्विजराड् भवेत् ।। २२३ ।।

जो एक बार शरीर में न्यासपूर्वक, भली-भाँति देवी त्रिपुरभैरवी का मन में चिन्तन करता हुआ, इस मन्त्र समुदाय का जप करता है, वह साधक, तीन दिनों में ही सभी कामनाओं को प्राप्त कर, स्वरूप में कामदेव के समान सुन्दर, राजा, धार्मिक और ब्राह्मण द्विजों में श्रेष्ठ हो जाता है ।। २२१-२२३।।

अबाधितशरीरस्तु पिशाचाद्यैः सदैव हि ।

नीरोगश्च चिरायुश्च बलवानपि जायते ।

एवं त्रिपुरभैरव्या मया प्रोक्तस्त्वयं क्रमः ।। २२४ ।।

साधक का शरीर सदैव पिशाचादि से बाधा रहित, निरोग, चिरायु और बलवान हो जाता है । इस प्रकार यह मेरे द्वारा त्रिपुराभैरवी का क्रम, (उपासना पद्धति) कहा गया है ।। २२४ ॥

वैष्णव्यास्तु महादेव्याः सहस्राणि तु षोडश ।

शृणु भैरव मंत्राणि शिवैकाग्रमनाः पुनः ।। २२५ ।।

हे भैरव ! महादेवी वैष्णवी के सोलह हजार मन्त्रों को तुम शिवा (कालिका) के प्रति एकाग्रचित्त होकर आगे सुनो२२५

अष्टोत्तरसहस्रं तु चतुःषष्टिस्तथा त्रयः ।

मंत्राः प्रोक्ता महादेव्या मूर्तिभेदेन ताः पुनः ।। २२६ ।।

महादेवी के मूर्तिभेद से एक हजार आठ, चौसठ और तीन मन्त्र कहे गये है॥ २२६ ॥

अनुस्वारविसर्गाभ्यां द्विगुणास्ते पुनः समाः ।

कादिव्यञ्जनसंयोगादूर्ध्वाधो व्यस्त भावतः ।। २२७।।

द्वाभ्यां त्रिभिश्च सततमुद्धरेन्मंत्रवित् पुनः ।। २२८ ।।

अनुस्वार और विसर्गयोग से वे द्विगुणित हो जाते हैं। क से आरंभ कर व्यञ्जनों के योग से ऊपर और नीचे व्यस्त भाव से दो और तीन के क्रम से मन्त्रवेत्ता निरन्तर मन्त्र का उद्धार करे ।। २२७॥

अष्टावष्टौ ततः कृत्वा समस्तव्यस्तसंयुतैः ।

विस्वरैः सस्वरैश्चापि सानुस्वारविसर्गकैः ।। २२९ ।।

केवलैरपि तत्रैव द्विव्यस्तैरन्तरैस्तथा ।

एवमष्टोत्तरं यावत् संयोगयोगभावतः ।। २३० ।।

आठ समस्त और आठ व्यस्त रूपों के स्वरयुक्त एवं स्वररहित, अनुस्वार और विसर्गयुक्त, केवल उन्हीं के दिव्यरूपों तथा उत्तरों से संयोग-वियोग की भावना करते हुए एक सौ आठ मन्त्रों का रूप हो जाता है ।। २२९-२३०॥

देव्यास्तु षट्सहस्राणि सहस्राणि तथा दश ।

मंत्रास्तु संख्यया ख्याताः क्रमाद् वेतालभैरव ।। २३१ ।।

हे वेताल और भैरव ! देवी के यहीं सोलह हजार मन्त्र क्रमशः कहे गये हैं॥२३१॥

समस्तव्यस्तरूपेण वैष्णव्या ये मयोदिताः ।

ताञ् ज्ञात्वा मानवो याति ममैव सदनं प्रति ।। २३२ ।।

समस्त और व्यस्त रूप से वैष्णवी देवी के मेरे द्वारा जो मन्त्र कहे गये हैं उन्हें जानकर मनुष्य (साधक) मेरे घर, (शिव-लोक) को जाता है ।। २३२॥

अष्टम्यां च नवम्यां च सहस्त्राणि तु षोडश ।

यो जपेमंत्रबीजानि सकृदेव तु भैरव ।

ध्यायंस्तु वैष्णवीं मूर्तिं तदेकाग्रमनाः शृणु ।। २३३ ।।

हे भैरव ! अष्टमी और नवमी को इन सोलह हजार बीजमन्त्रों का एक बार भी वैष्णवी मूर्ति का एकाग्र मन से ध्यान करता हुआ, जो साधक जप करता है, उसका फल सुनो।। २३३ ॥

नरराजो भवेद् भूमौ पण्डितश्चातिहर्षितः ।

चिरायुः सुखभोगी स्यादुद्रिक्तो बलवाहनैः ।। २३४।।

वह पृथिवी पर मनुष्यों का राजा होता है। वह पण्डित होता है तथा अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक जीवन यापन करता है। वह चिरायु, सुख भोगनेवाला, बल और वाहनों से परिपूर्ण होता है ।। २३४।।

तान्येव चाष्टधा जप्त्वा सार्वभौमो नृपो भवेत् ।

गणाध्यक्षो मृतेः स स्यात् ततो मुक्तिमवाप्नुयात् ।। २३५ ।।

उन्हीं मन्त्रों का आठ बार जप कर साधक, सार्वभौम राजा होता है । मृत्यु के बाद वह गणों का स्वामी होता है और अन्त में मुक्ति को प्राप्त करता है ।। २३५ ।।

इति सकलगुणौघैरस्तदोषस्तु नित्यं भवति कलुषहन्ता श्रीविवृद्ध्यै सुमंत्रः ।

सततमखिलवेत्ता यो भवेदेतयोस्तु स च भवति जितारी रोगशोकप्रमुक्तः ।। २३६ ।।

इस प्रकार वह सभी गुणों के समूहों से युक्त तथा दोषों को समाप्त कर, निर्दोष हो जाता है। वह सुन्दर मन्त्रवेत्ता दोषों का नाश करने वाला हो जाता है। जो इनके समस्त तत्त्वों को निरन्तर जानता है, वह शत्रुओं को जीतने वाला तथा रोग एवं शोक से मुक्त हो जाता है ।। २३६ ॥

॥ इति श्रीकालिकापुराणे मुद्राविभागनाम चतुःसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७४॥

श्रीकालिकापुराण में मुद्राविभागनामक चौहत्तरवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥७४॥

आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 75 

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