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कर्मकाण्ड

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महामाया स्तुति

महामाया स्तुति

श्रीकालिकापुराण के अध्याय 76 में वेतालभैरव कृत इस महामाया की स्तुति का पूर्ण मनोयोग से नित्य पाठ करने से साक्षात् माँ महामाया पार्वती भगवती कालिका का कृपा बरसता है, भक्त निहाल हो जाता है । वह जो चाहे प्राप्त कर लेता है।इसका पाठ का फल अद्भुत व बेजोड़ है।

महामाया स्तुति

महामाया स्तुति: अथवा पार्वती स्तवन

Mahamaya stuti

अथ महामाया स्तवन

।। वेतालभैरवावूचतुः ।।

जय जय देवि सुरगणार्चितयुगलपादपङ्कजे

विश्वस्य भूतिभाविनि शशिमौलि- केलिभाविनि गिरिजे ।

नेत्रत्रयनिर्जितविवस्वद्विधुवह्निकान्तिकमलजे

मध्यनेत्रनतभ्रूभङ्ग भक्तमतिज्वायकविमलजे ।। ९६ ।।

वेताल और भैरव बोले- जिसके चरणकमल, देवगणों से पूजे जाते हैं ऐसी देवी, आपकी जय हो। हे विश्व के ऐश्वर्य को जन्म देने वाली, शशि (चन्द्रमा) जिनके मस्तक पर शोभायमान हैं, ऐसे शिव के साथ केलि करने वाली गिरिजा देवी, आपकी सदा जय हो। अपने तीनों नेत्रों से विवस्वान् (सूर्य), विधु (चन्द्रमा) तथा बह्नि (अग्नि) की कान्ति को जीतने वाली, कमल से उत्पन्न देवी, अपने मध्यवर्ती नेत्र को नत (कृपालु) रखी हुई, अपने भ्रूभङ्ग से ही भक्त की मति का प्रकटीकरण करने वाली, निर्मलस्वभाववाली, देवी आपकी जय हो ॥ ९६ ॥

आज्ञाचक्रान्तशान्तनवकोटिकरोटितुल्यकान्त शान्तशशधरे ।

बहुमायकाय भोगयोगतरङ्गसारस्य पद्मवसुचरे ।। ९७।।

हे देवि ! आप आज्ञाचक्र पर्यन्त शान्त, नौ करोड़ करोटि के समान कान्ति- युक्त, मस्तक पर शान्त (बाल) चन्द्र धारण करने वाली हैं। हे देवी! आप अनेक प्रकार के माया और रूपों के भोग और योग के सारस्वरूप पद्म पर विचरण करने वाली हैं ।। ९७ ।।

त्रिनाडिनीतमध्यवद्धविष्किर- वल्लभशुभसुषुम्नसमाधारपरे ।

विबुधरत्नविमोदिविश्वमूर्ति- महोमयानवसि षट्चक्रधरे । । ९८ ।।

आप इडा पिंगला सुषुम्णा तीनों नाड़ियों के मध्य में स्थित, विस्तृत, प्रिय, शुभ, सुषुम्ना को अपना आश्रय बनायी कुण्डलिनीरूपा हैं। आप देवताओं में श्रेष्ठ रत्न के समान श्रेष्ठ, देवजनों (ब्रह्मा-विष्णु-महेश) को विशेष रूप से आनन्दित करने वाली हैं। आप स्वयं विश्वरूपा हैं। आप सुषुम्नागत उस महान् यान में निवास करने वाली तथा षट्चक्रों को आधार बनाई हुई हैं । । ९८ ।।

आदिषोडशचक्रचुम्बितचारुदेह पीनतुङ्गकुचाचलालिंगितभूमिमध्यनागशाकगते ।

सिद्धसूत्रवराभयासिशान्तपातक- पङ्कजातकमूलमणिचतुर्बाहुयुते ।

ज्ञानतालकमत्रन्तन्त्रोयोगियोग-निबद्धस्त्रारसूतभङ्ग विनोदकृते ।

आत्मतत्त्वपरैकशाररत्नहारक- मुक्तिसूक्तिविवेकसितप्रेतरते ।। ९९ ।।

आपकी सुन्दर देहयष्टि आदि षोडशचक्र का चुम्बन कर रही हैं तथा कुचाल (स्तनमण्डल) पुष्ट, मोटे और उठे हुए हैं। ऐसी आप भूमध्य मूलाधार से स्वर्ग सदृश सहस्रार तक स्थित हैं। आपने अपने हाथों में सिद्ध-सूत्र (पाश), वर तथा अभय मुद्रायें, पातक (दुष्टों) को शान्त करनेवाली तलवार धारण किया है। इस प्रकार अपनी चार भुजाओं से युक्त मूलाधार पद्म में मणि के समान श्रेष्ठता पूर्वक स्थित हैं। आप ज्ञानरूपी कुण्डी हैं। आप मंत्र, तंत्र, योग से योगियों को निबद्ध करने वाली एवं सब प्रकार के पाश को भङ्ग कर भक्तों को आनन्दित करनेवाली हैं। आप आत्म तत्त्वपरायण एक शाररूप रत्नहार और सूक्तिरूपी मुक्तिदायक ज्ञान विवेक के कारण सितप्रेत से अनुराग रखने वाली हैं ।। ९९ ॥

रत्नसारसमस्तसङ्गतरङ्गगराग- वियोगिमन्त्रशान्तपुरविशेषकृते ।

योगिनीगणनृत्यभृत्यभावन- निबद्धनद्धहारकङ्कणमुख्यभूषणपते ।

साट्टहासविनोदमोदितमुक्त- केशसुरेशनिबद्धदेहपुटे ।  

देहि देवि शोकशोचनबन्ध - मोचन पापशातन शुद्धमते ॥ १००॥

आप समस्त रत्नों के सार से सुशोभित, रंग राग से वियुक्त भक्त के शान्तपुर (हृदय) को मन्त्र से विशेष रूप से युक्त करने वाली हैं। आप के चारों ओर योगिनीगण (योगिनियों के समूह) नृत्य करती रहती हैं। भृत्य (भैरवगढ़) आनन्द मग्न हो आप को घेरे रहते है। आप आभूषणों की स्वामिनी हैं। तथा हार एवं कंङ्कण जैसे- मुख्य आभूषणों से नद्ध है। आप विनोद से मुदित हैं, आपके केश उन्मुक्त हैं, सुरेश (देवाधिदेव शिव महादेव) के शरीर से उनके अन्धार्गंरूप मे युक्त है। इस प्रकार की उपयुक्त विशेषताओं वाली हे देवि आप मेरे शोक को भी शोकग्रस्त (नष्ट), करने, बन्धन से मुक्त करने तथा पापों का समन करने वाली शुद्ध मति प्रदान कीजिए ।

सर्वविद्यात्मिकां गुह्यां मन्त्रयन्त्रमयीं शिवाम् ।

प्रणमामि महामायां लोके वेदे च कीर्तिताम् ।। १०१ ।।

मैं सर्वविद्यात्मिका, गोपनीया, मन्त्रयन्त्रमयी, शिवा, महामाया को, जो लोक एवं वेद में प्रसिद्ध हैं, प्रणाम करता हूँ ॥१०१॥

परापरात्मिकां नित्यां साध्याधारैकसंस्थिताम् ।

कामाह्लादकरी कान्तां त्वां नमामि जगन्मयीम् ।। १०२ ।।

आप परा, परात्मिका, साध्या एवं एक आधार पर स्थित, काम को आह्लादित करने वाली, कान्ता, जगत्स्वरूपा हो। मैं आपको नमस्कार करता हूँ ।। १०२ ।।

प्रपञ्चपरमव्यक्तं जगदेकविविर्धिनि ।

प्रभावेनार्धरक्तांगि देवि तुभ्यं नमोऽस्तुते ।। १०३ ।।

आप इस प्रपंच में परम अव्यक्त हैं । जगत को बढ़ाने वाली, एकमात्र आप ही प्रभावयुक्त हैं। आप परा प्रकृति हैं। हे लाल अंगों वाली देवी ! ये सब कार्य आप अपने आधे प्रभाव से ही करती हैं। ऐसी आप को नमस्कार है ।। १०३ ॥

कामाख्या नित्यरूपाख्या महामाया सरस्वती ।

या लक्ष्मीर्विष्णुवक्षःस्था नमावो ह्यच्युतां शिवाम् ।। १०४ ।।

जो कामाख्या, नित्यरूपा, महामाया, सरस्वती आदि नामों से ख्यात हैं तथा लक्ष्मीरूप से विष्णु के वक्ष स्थल में स्थित हैं। उन अच्युता, शिवा को हम दोनों नमस्कार करते हैं ।। १०४ ॥

मन्त्राणि यस्यास्तन्त्राणि सहस्राणि च षोडश ।

मन्त्रयन्त्रात्मके तुभ्यं नमोऽस्तु मम पार्वति ।। १०५ ।।

जिसकें सोलह हजार मंत्र और तन्त्र हैं। ऐसी हे मंत्र तंत्र वाली मेरी माँ, पार्वती आपको नमस्कार है।। १०५ ॥

॥ इति श्रीकालिकापुराणे महामायास्तुतिनाम षट्सप्ततितमोऽध्यायः ॥ 

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