त्रिपुरा कवच

त्रिपुरा कवच

कालिकापुराण के अध्याय 75 में वर्णित भगवान् शिव द्वारा वेताल और भैरव से कहा गया माँ षोडशी त्रिपुर सुन्दरी का इस त्रिपुरा कवच का पाठ करने से सभी मनोकामना शीघ्र पूर्ण होता है ।

त्रिपुरा कवच

शिवप्रोक्तं त्रिपुराकवचम्

Tripura kavacham

।। त्रिपुराकवच ।।

      ॐ त्रिपुराकवचस्यास्य ऋषिर्दक्षिण उच्यते ।

छन्दश्चित्राह्वयं प्रोक्तं देवी त्रिपुरभैरवी ।

      धर्मार्थकाममोक्षाणां विनियोगस्तु साधने ॥ ५४॥

ॐ अस्य त्रिपुराकवचस्य दक्षिणऋषिः चित्राछन्दः त्रिपुरभैरवी देवी धर्मार्थ-काम-मोक्षाणां साधने विनियोगः ।

इस त्रिपुरा कवच के दक्षिण ऋषि, चित्रा नाम के छन्द हैं, त्रिपुरभैरवी देवी धर्म अर्थ काम और मोक्ष, साधन में विनियोग, कहा गया है ।।५४ ॥

यथाद्यात्रिपुराख्याया बीजानि क्रमतः सुत ।

नामतो वाग्भवादीनि कीर्तितानि मया पुरा ॥ ५५॥

हे पुत्र ! जिस प्रकार आद्या, त्रिपुरा, के नामानुसार वाग्भवादिबीज क्रमश: मेरे द्वारा पहले ही कहे गये है ॥ ५५ ॥

तथा त्रिपुरभैरव्या बीजान्नामपि नामतः ।

वाग्भवः कामराजश्च तथा त्रैलोक्यमोहनः ।। ५६ ।।

उसी प्रकार त्रिपुरभैरवी के भी नामानुसार वाग्भव, कामराज और त्रैलोक्यमोहन बीज कहे गये है ।। ५६ ॥

अवतु सकलशीर्षं वाग्भवे वाचमुग्रां

      निखिलरचितकामान् कामराजोऽवतान्मे ।

सकलकरणवर्गमीश्वरः पातु नित्यं

      तनुगतबहुतेजो वर्धयन् बुद्धिहेतुः ॥ ५७॥

सर्वप्रथम वाग्भवबीज मेरी उग्र ( प्रभावशाली) वाणी की रक्षा करे, मेरे सम्पूर्ण रचित कामों की कामराजबीज रक्षा करे। शरीर में स्थित बहुत से तेजों को बढ़ाते हुए, बुद्धि के लिए मेरे करण (इन्द्रिय) वर्गों की ईश्वर, नित्य रक्षा करें ॥ ५७ ॥

कूटैस्तु पञ्चभिरिदं गदितं हि यन्त्रं

      मन्त्रं ततोऽनु सततं मम तेज उग्रम् ।

तेजोमयं महति नित्यपरायणस्थं

      तन्त्रो हृदि प्रविततां तनुतां सुबुद्धिम् ॥ ५८॥

यह मन्त्र पञ्चकूटों से युक्त कहा गया है। ऐसा मन्त्र, उनके बाद मेरे उग्रतेज की रक्षा करे। महान् तेज से युक्त नित्य परायण, साधक के विशाल हृदय में, यह तन्त्र सुन्दर बुद्धि को संचारित करे ॥ ५८ ॥

आधारे वाग्भवः पातु कामराजस्तथा हृदि ।

भ्रुवोर्मध्ये च शीर्षे च पातु त्रैलोक्यमोहनः ॥ ५९॥

आधार में वाग्भवबीज तथा हृदय में कामराज, भौहों के मध्य और शिर में त्रैलोक्यमोहन रक्षा करे।। ५९॥

विततकुलकलाज्ञा कामिनी भैरवी या

      त्रिपुरपुरदहाख्या सर्वलोकस्य माता ।

वितरतु मम नित्यं नाभिपद्मे सकुक्षौ

      गणपतिवनिता मां रोगहानिं सुखं च ॥ ६०॥

कलाज्ञा कुल को बढ़ावें, जो कामिनी, भैरवी, त्रिपुरदहा नाम की समस्त लोकों की माता, गणपति की पत्नी, कुक्षि के सहित मेरे नाभिकमल में मेरे लिए रोगहानि एवं सुख प्रस्तुत करें ॥ ६० ॥

योगैर्जगन्ति परिमोहयतीव नित्यं

      जागर्ति या त्रिपुरभैरवभामिनीति ।

सायं च भावकलिता मम पञ्चभागे

      नासाक्षिकर्णरसनात्वचि पातु नित्यम् ॥ ६१॥

जो त्रिपुरभैरव की पत्नी, नित्य जगत को सब ओर से मोहित करती हुई, स्वयं जागृत हैं, वही भाव से युक्त हो नित्य मेरे नाक, आँख, कान, जीभ और त्वचा नामक पाँच भागों की रक्षा करें ॥ ६१ ॥

आद्या तु त्रिपुरेयं या मध्या या कामदायिनी ।

त्रिधा तु ह्यवतां नित्यं देवी त्रिपुरभैरवी ॥ ६२॥

ये त्रिपुरा जो आद्या, मध्या एवं कामदायिनी इन तीनों नामों से युक्त हैं। वही त्रिपुरभैरवी देवी, नित्य मेरी तीनों प्रकार से रक्षा करें।।६२।।

उदयदिशि सदा मां पातु बाला तु माता

      यमदिशि मम मध्याभद्रमुग्रं विदध्यात् ।

वरुणपवनकाष्ठामध्यतो भैरवी मा-

      मवतु सकलरक्षां कुर्वती सुन्दरी मे ॥ ६३॥

उदयदिशा (पूर्वदिशा) में माता बाला, सदा मेरी रक्षा करें, यमदिशा (दक्षिण-दिशा) में मध्या देवी मेरे उग्र (अधिक) कल्याण का विधान करें, वरुणदिशा (पश्चिम दिशा) में एवं पवनकाष्ठा (वायव्यकोण) में भैरवी देवी, मेरी रक्षा करें। सुन्दरीदेवी मेरी सब प्रकार की रक्षा करें ॥ ६३ ॥

महामाया महायोनिर्विश्वयोनिः सदैव तु ।

सा पातु त्रिपुरा नित्यं सुन्दरी भैरवी च या ॥ ६४॥

जो महामाया, महायोनि, विश्वयोनि, सुन्दरी, त्रिपुरा और भैरवी हैं, वे सदैव नित्य मेरी रक्षा करें ॥ ६४ ॥

ललाटे सुभगा देवी पूर्वस्यां दिशि कामदा ।

नित्यं तिष्ठतु रक्षन्ती सदा त्रिपुरसुन्दरी ॥ ६५॥

ललाट में सुभगा देवी, पूर्वदिशा में कामदा देवी, तथा नित्य, त्रिपुरसुन्दरी देवी, सदैव मेरी रक्षा करती हुई स्थित रहें ।। ६५॥

भ्रुवोर्मध्ये तथाग्नेय्यां दिशि मां त्रिपुरा च या ।

वर्धयन्ती भगगणान् पातु त्रिपुरभैरवी ॥ ६६॥

त्रिपुरा मेरे भौहों के बीच और आग्नेय दिशा में तथा जो त्रिपुरभैरवी देवी हैं, वे मेरे ऐश्वर्य समुदाय को बढ़ाती हुई रक्षा करें ॥ ६६ ॥

वदने दक्षिणस्यां च दिशि मां भगसर्पिणी ।

त्रिपुरा यमदूतादीन् वारयन्ती सदाऽवतु ॥ ६७॥

मुखमण्डल एवं दक्षिण दिशा में भगसर्पिणी देवी मेरी रक्षा करें तथा त्रिपुरादेवी यमदूतों को रोकती हुई सदैव मेरी रक्षा करती रहें ॥६७॥

कर्णयोः पश्चिमायां च दिशि मां भगमालिनी ।

अयोनिजा जगद्योनिर्बाला मां त्रिपुराऽवतु ॥ ६८॥

दोनों कानों और पश्चिम दिशा में भगमालिनी देवी मेरी रक्षा करें तथा योनि से न उत्पन्न होने वाली किन्तु स्वयं समस्त संसार को उत्पन्न करने वाली बालात्रिपुरा मेरी रक्षा करें ॥ ६८ ॥

अनङ्गकुसुमा कण्ठे प्रतीच्यां दिशि सुन्दरी ।

त्रिपुराभैरवी माता नित्यं पातु महेश्वरी ॥ ६९॥

अनङ्गकुसुमा देवी मेरे कण्ठ में, सुन्दरी देवी पश्चिम दिशा में तथा माता त्रिपुर- भैरवी जो स्वयं महेश्वरी हैं, नित्य मेरी रक्षा करें ॥ ६९ ॥

हृदि मारुतकाष्ठायां देवी चानङ्गमेखला ।

नाभावुदीच्यां दिशि मां मातङ्गी त्रिपुरापरा ॥ ७०॥

हृदय और मारुत्काष्ठा (वायव्यकोण) में अनङ्गमेखला देवी तथा नाभि एवं उत्तरदिशा में परा त्रिपुरा, मातङ्गी देवी मेरी रक्षा करें ॥ ७० ॥

अनङ्गमदना देवी पातु त्रिपुरभैरवी ।

ऐशान्यां दिशि लिङ्गे च मदविभ्रममन्थरा ॥ ७१॥

अनङ्गमदना देवी और त्रिपुरभैरवी देवी ईशानकोण में मद- विभ्रम से मन्थर गति वाली, मदविभ्रममन्थरा देवी लिङ्ग में स्थित हो, मेरी रक्षा करें ॥ ७१ ॥

वाग्वादिनी रक्षतु मां सदा त्रिपुरभैरवी ।

गुदमेढ्रान्तरे पातु रतिस्त्रिपुरभैरवी ॥ ७२॥

वाग्वादिनी त्रिपुरभैरवी सदैव मेरी रक्षा करें तथा रतिनाम वाली त्रिपुरभैरवी देवी गुदा एवं मेढ्र स्थानों में रक्षा करें ।। ७२ ।।

हृदयाभ्यन्तरे प्रीतिः पातु त्रिपुरभैरवी ।

भ्रूनासयोर्मध्यदेशे नित्यं पातु मनोभवः ॥ ७३॥

हृदयाभ्यन्तर में प्रीति नामवाली त्रिपुरभैरवीदेवी तथा भौहों एवं नासिका के मध्यदेश में कामदेव मेरी रक्षा करें।।७३।।

द्रावणी मां ग्रहात् पातु वाणी मां दुर्गमूर्धनि ।

क्षोभणो मां सदा पातु क्रव्याद्भ्योऽनिष्टभीतितः ॥ ७४॥

द्रावणदेवी मेरे प्रभाव की, दुर्ग और मूर्धा की वाणीदेवी एवं क्षोभणदेवी मांशभोजी जन्तुओं तथा अनिष्ट के भय से सदैव मेरी रक्षा करें ॥ ७४ ॥

वशीकरणवाणी मामग्नितः पातु राजतः ।

आकर्षणाह्वया वाणी मां पातु शस्त्रघाततः ॥ ७५॥

वशीकरण वाणी अग्नि और राजा के भय (राजकीय भय) से मेरी रक्षा करें, आकर्षण नामक वाणी शस्त्र के घात से मेरी रक्षा करें ।। ७५ ।।

मोहनाः सर्वभूतेभ्यः पिशाचेभ्यो जलात्तथा ।

नित्यं पातु महाबाणस्तन्वानः काममुत्तमम् ॥ ७६॥

सभी प्राणियों, पिशाचों तथा जल से महाबाणसंधान किये हुए उत्तम काम की मोहन, नित्य रक्षा करे ।।७६ ॥

माला मां शास्त्रबोधाय शास्त्रवादे सदाऽवतु ।

पुस्तकं पातु मनसि सङ्कल्पं वर्धयन् मम ॥ ७७॥

शास्त्र के ज्ञान के लिए माला सदैव शास्त्र सम्बन्धीवाद में मेरी रक्षा करे तो पुस्तक, मेरे मन में संकल्पों को बढ़ाते हुये मेरी रक्षा करे।।७७।।

वरः पातु सदा धाम्नि धामतेजो विवर्धयन् ।

अभयं ह्यभयं धत्तां सर्वेभ्यो भूतिभावनम् ॥ ७८॥

वरमुद्रा घर के तेज को बढ़ती हुई घर में मेरी रक्षा करे । अभयमुद्रा करने वाली भूतिभावन को सबसे अभय प्रदान करे ।।७८।।

ऊर्ध्वाधोभावभूतस्थिततरकरणै रक्तकीर्णा सुचक्रा

      कालाग्निप्रख्यरोचिः सकलसुरगणैरर्चिता मुण्डमाला ।

ज्ञानध्यानैकतानप्रबलबलकरं तत्त्वभूतप्रतिष्ठं

      पातादूर्ध्वं तथाधः सकलभयभृतो भोगभीरोस्तु विद्या ॥ ७९॥

देवी की मुण्डमाला, जो क्रम से स्थित होने सम्बन्धित शिरों के नीचे-ऊपर स्थित होने, परस्पर रक्त से भरी होने के कारण सुन्दरढंग से ग्रथित है। जो कालाग्नि के समान किरणों से प्रकाशमान है। जिसकी समस्त देवगण अर्चन किया करते हैं। वह हमारे ज्ञान तथा ध्यान की एकरुपता से प्रबल-बल प्रदान करे। तत्त्वस्वरूप में प्रतिष्ठित करने वाली हो। विद्या ऊपर-नीचे दोनों ही ओर से सभी भयप्रदभोग के भय से रक्षा करे ।। ७९ ।।

हः पातु हृदि मां नित्यं सः शीर्षे पातु नित्यशः ।

रः पातु गुह्यदेशे मां सौः पातु कण्ठपार्श्वयोः ॥ ८०॥

हः नित्य मेरे हृदय तथा सः नित्य ही मेरे मस्तक की रक्षा करे। रः मेरे गुह्यदेश की, सौ: मेरे कण्ठ और पार्श्वभाग की रक्षा करे ॥ ८० ॥

रकारो मम नाडीषु शिरः सौः पातु सर्वदा ।

शक्रः पातु सदाकाशे ब्रह्मा रक्षतु सर्वतः ॥ ८१॥

र कार सदैव मेरे नाड़ियों की तथा सौः मेरे शिर की रक्षा करे, इन्द्र सदैव आकाशतत्व की रक्षा करें तथा ब्रह्मा सब ओर से मेरी रक्षा करें ॥ ८१ ॥

विद्या विद्याभाविनी कामरूपा

      स्थूला सूक्ष्मा मायया याऽऽदिमाया ।

ब्रह्मेन्द्राद्यैरर्चिता भूतिदात्री

      रक्षां कुर्यात् सर्वतो भैरवी माम् ॥ ८२॥

जो आदि माया हैं, वे स्थूल और सूक्ष्म रूपों वाली विद्या को उत्पन्न करने वाली, कामरूपा विद्या, माया से मेरी रक्षा करे, ब्रह्मा और इन्द्र आदि देवताओं द्वारा पूजी गई तथा ऐश्वर्य प्रदान करने वाली, भैरवीदेवी सब ओर से मेरी रक्षा करें ॥ ८२ ॥

आद्या मध्या भाविनी नीतियुक्ता

      सम्यग्ज्ञानज्ञेयरूपापरा या ।

आदावन्ते मध्यभागे च तारा

      पायाद्देवी त्रैपुरी भैरवी या ॥ ८३॥

जो आद्या, मध्या, भाविनी, नीति से युक्त, सम्यक्ज्ञान एवं ज्ञेय-रूपवाली, अपरा, त्रिपुराभैरवी, तारा देवी हैं, वे मेरे आदि, अन्त और मध्य भाग की रक्षा करें ॥८३॥

यन्मन्त्रभागतन्त्राणां यन्त्राणामपि केशवः ।

ब्रह्मा रुद्रश्च जानाति तत्त्वं नान्यो नमोऽस्तु तान् ॥ ८४॥

तन्त्रों के जिन मन्त्रभाग और यन्त्रों के तत्व को ब्रह्मा, विष्णु तथा रुद्र (शिव) ही जानते हैं, अन्य कोई नहीं जानता, उनको नमस्कार है ॥ ८४ ॥

त्वं ब्रह्माणि भवानि विश्वभवितुर्लक्ष्मीरतिर्योगिनी

      त्वं वाग्मी सुभगा भवायुतयुतं मन्त्राक्षरं निष्कलम् ।

वर्णास्ते निखिला स्तनावचलितस्त्वं कामिनीकामदा

      त्वं देवि त्रिपुरे कवित्वममलं सौभाग्यमुच्चैः कुरु ॥ ८५॥

आप ब्रह्मा की पत्नी ब्रह्माणी, भव (शिव) की पत्नी भवानी हैं, आप ही विश्व के पालनकर्ता विष्णु की लक्ष्मी, रति योगिनी हैं। आप वाग्मी (वक्ता), सुभगा हैं। आप शिव से निकले निष्कल मन्त्राक्षर हैं। समस्त वर्ण आपके स्तनचलन के ही परिणाम हैं। आप कामनापूर्ति करने वाली कामिनी हैं। हे देवि त्रिपुरा ! आप मुझे अमल कवित्व और उच्च सौभाग्य प्रदान कीजिये ॥ ८५ ॥

त्रिपुरा कवचम् महात्म्य

इदं तु कवचं देव्या यो जानाति स मन्त्रवित् ।

नाधयो व्याधयस्तस्य न भयं च सदा क्वचित् ॥ ८६॥

देवी के इस कवच को जो जानता है वही वास्तविक मन्त्रवेत्ता है। उसे कभी शारीरिक या मानसिक रोग नहीं होते। वह सदैव, कभी भी, भय नहीं प्राप्त करता ।।८६ ॥

इति ते परमं गुह्यमाख्यातं कवचं परम् ।

तद्भजस्व महाभाग ततः सिद्धिमवाप्स्यसि ॥ ८७॥

हे महाभाग ! यह अत्यन्त गोपनीय एवं श्रेष्ठ कवच, तुमसे कहा गया। तुम उसी का अभ्यास करो। उससे ही तुम सिद्धि प्राप्त करोगे ।।८७।।

इदं पवित्रं परमं पुण्यं कीर्तिविवर्धनम् ।

त्रिपुरायास्त्रिमूर्तेस्तु कवचं मयकोदितम् ॥ ८८॥

यह त्रिपुरा की त्रिमूर्ति का अत्यन्त, पवित्र और पुण्यदायक, यश को बढ़ावाला कवच, मेरे द्वारा कहा गया है ॥८८॥

यः पठेत् प्रातरुत्थाय स प्राप्नोति मनोगतम् ।

लिखितं कवचं यस्तु कण्ठे गृह्णाति मन्त्रवित् ॥ ८९॥

न तस्य गात्रं कृन्तन्ति रणे शस्त्राणि भैरव ।

सङ्ग्रामे शास्त्रवादे च विजयस्तस्य जायते ॥ ९०॥

हे भैरव ! इसे जो प्रातः काल उठकर पढ़ता है, वह मनोगत कामनाओं को प्राप्त कर लेता है । जो मन्त्रवेत्ता इस कवच को लिखकर अपने कण्ठ में धारण करता हैं, युद्ध में उसके शरीर पर कोई शस्त्र, घात नहीं करते। युद्ध और शास्त्रार्थ दोनों में उसकी विजय होती है ॥८९-९० ॥

इदं कवचमज्ञात्वा यो जपेत् त्रिपुरां नरः ।

स शस्त्रघातमाप्नोति भैरवीं सुन्दरीमपि ॥ ९१॥

इस कवच को न जानकर जो साधक मनुष्य ! त्रिपुरा, भैरवी और सुन्दरी में से किसी का भी जप करता है, वह शस्त्रघात को प्राप्त करता है ।। ९१ ॥

बीजमुच्चारयेत् स्वस्थो गतवाग्दोषनिश्चितः ।

संयोगबोधः प्रत्येकभेद-श्रवणगोचरः ।

यथैव जायते सम्यग्यज्ञादिदोषवर्जितः ॥ ९२॥

जो वाणीरहित (मौन) हो, स्वस्थ चित्त से दोषों को जानता हुआ, बीजमन्त्रों का उच्चारण करता है उसे इनका परस्पर संयोगबोध हो जाता है तथा प्रत्येक रहस्य श्रवण गोचर हो जाते हैं। वह यज्ञादिदोष से सम्यकरूप से रहित हो जाता है ।। ९२ ।।

इति श्रीकालिकापुराणे पञ्चसप्ततितमाध्यायान्तर्गतं शिवप्रोक्तं त्रिपुराकवचं सम्पूर्णम् ।

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