recent

Slide show

[people][slideshow]

Ad Code

Responsive Advertisement

JSON Variables

Total Pageviews

Blog Archive

Search This Blog

Fashion

3/Fashion/grid-small

Text Widget

Bonjour & Welcome

Tags

Contact Form






Contact Form

Name

Email *

Message *

Followers

Ticker

6/recent/ticker-posts

Slider

5/random/slider

Labels Cloud

Translate

Lorem Ipsum is simply dummy text of the printing and typesetting industry. Lorem Ipsum has been the industry's.

Pages

कर्मकाण्ड

Popular Posts

कालिका पुराण अध्याय ७५

कालिका पुराण अध्याय ७५                      

कालिका पुराण अध्याय ७५ में त्रिपुरामहात्म्य अंतर्गत मन्त्र पुरश्चरण विधि तथा त्रिपुरा कवच का वर्णन है।

कालिका पुराण अध्याय ७५

कालिका पुराण अध्याय ७५                                         

Kalika puran chapter 75

कालिकापुराणम् पञ्चसप्ततितमोऽध्यायः पुरश्चर्याविधिः

अथ श्रीकालिका पुराण अध्याय ७५                         

।। श्रीभगवानुवाच ।।

पुरश्चरणकार्येषु बिल्वपत्रयुतैस्तिलैः ।

साक्षतैः सघृतैर्वापि शिवामुद्दिश्य यत्नतः ।

जुहुयादनलं वृद्धं संस्कृतं कामवृद्धये ।।१।।

श्रीभगवान् बोले- कामना की वृद्धि (पूर्णता) के लिए पुरश्चरण कार्य में बिल्वपत्रयुक्त तिल, घी, अक्षत से शिवा के निमित्त प्रज्ज्वलित एवं संस्कारित, अग्नि में होम करना चाहिये ॥ १ ॥

सङ्कल्पितः कामसिद्धये सङ्ख्यया यः कृतो जपः ।

तदन्ते पूजनं यत्तु विहितं क्रियते द्विजैः ।

पुरश्चरणसंज्ञं तु कीर्तितं द्विजसत्तमैः ।।२।।

संकल्पित (इच्छित) कामना की सिद्धि के लिए निश्चित संख्या में जो जप किया जाता है । उसके अन्त में द्विजातियों द्वारा विधिपूर्वक जो पूजन किया जाता है, उसे ही श्रेष्ठ ब्राह्मण, पुरश्चरण कहते हैं ।। २ ।।

तस्मिन् पुराणके पूर्वं पूर्वोक्तैर्विस्तरोदितैः ।

विधानैः पूजयेद् देवीं कामाख्यां वैष्णवीमपि ।।३।।

यथासम्भवमेवात्र दद्यात् षोडश साधकः ।

उपचारांस्तथैवोक्तान् विधिकृत्यान्न लङ्घयेत् ।।४।।

सम्पूर्णं पूजनं कृत्वा कल्पोक्तं शतधा जपेत् ।।५।।

उस पुरश्चरण कर्म हेतु पुराणों में पहले ही विस्तारपूर्वक बताये गये विधानों से देवी कामाख्या और वैष्णवी का भी पूजन करे। साधक, उस समय यथा सम्भव सोलह उपचारों को भी इसमें प्रदान करे। बताये गये विधि सम्बन्धी कृत्यों का उलङ्घन न करे। वह कल्प (पूजाविधान) में वर्णितरीति से सम्पूर्ण पूजन करके, कम से कम सौ बार मन्त्र जप करे३-५॥

जपान्ते जुहुयादग्निं होमान्ते तु बलित्रयम् ।

त्रिजातीयं तु वितरेत्तौर्यत्रिक्रमतः परम् ।। ६ ।।

पत्नीं स्वयं वा भ्राता वा गुरुर्वा विनियोजयेत् ।

नैवेद्यादीनि सर्वाणि स्वपुत्रः शिष्य एव वा ।।७।।

जप सम्पन्न कर अग्नि में होम करे और होम के पश्चात् तीन बलिदान करे। यह बलिदान तीन जाति (प्रकार) का होना चाहिये। तत्पश्चात् तौर्यत्रिक् (नृत्य, गायन, वाद्य का समेकित) आयोजन करे। इसमें स्वयं को, अपनी पत्नी, भाई, गुरु, पुत्र और शिष्य को सम्मिलित करे तथा सब प्रकार के नैवेद्य अर्पित करे ।।६-७।।

यज्ञावसाने दद्यात् तु गुरवे दक्षिणां शुभाम् ।

चामीकरं तिलान् गाञ्च तदशक्तौ तु चोलकम् ।।८।।

यज्ञ के समापन पर गुरु के लिए सुन्दर चामीकर (स्वर्ण), गौ, तिल आदि गुरु को दक्षिणारूप में दे, यदि ऐसा करने में समर्थ न हो तो वस्त्र ही दान करे ॥ ८ ॥

अष्टम्यां शुक्लपक्षस्य ब्रह्मचारी जितेन्द्रियः ।

नवम्यां वा चतुर्दश्यां महादेव्याः पुरश्चरेत् ।।९।।

साधक जितेन्द्रिय और ब्रह्मचारी हो, शुक्लपक्ष की अष्टमी, नवमी या चतुर्दशी को महादेवी का पुरश्चरण करे ।। ९ ।।

आदद्याद् गुरुवक्त्रात् तु विधिना विस्तरेण तु ।

कल्पोदितेन सम्पूज्य तिथिष्वेतासु भैरव ।। १० ।।

हे भैरव ! उपर्युक्त तिथियों में गुरु- मुख से ज्ञात, कल्प (पूजाविधान) में वर्णित विधि के अनुसार, विस्तार से पूजन कर, मन्त्र ग्रहण करे ॥ १० ॥

सम्पूर्णपूजां नो कृत्वा न दद्यान्मन्त्रमीप्सितम् ।

न पुरश्चरणं वापि कुर्यात् कृत्वाऽवसीदति ।। ११ ।।

बिना पूजा सम्पूर्ण किये, न तो इच्छित मन्त्र ही किसी को देना चाहिये और न पुरश्चरण ही करना चाहिये । यदि कोई करता है तो वह कष्ट पाता है ॥ ११ ॥

नित्यपूजा सा तु पुनः सम्पूर्णा यदि शक्यते ।

कल्पोदितं पूजयितुं तदा कुर्यादतन्द्रितः ।।१२।।

यदि सम्भव हो तो आलस्य रहित साधक, कल्पोक्त रीति से नित्य पूजा, स्वयं सम्पन्न करे ।। १२ ।।

न चेद् विस्तरशः कर्तुं देव्याः पूजां तु भैरव ।

कल्पोक्तां वाऽन्यदेवस्य तत्रायं विधिरुच्यते ।। १३ ।।

हे भैरव ! यदि विस्तार से, कल्पोक्तरीति से, देवी या अन्य देवों की पूरी पूजा, सम्भव न हो तो, इस सम्बन्ध में यहाँ यह विधि बताई जा रही हैं। ।।१३।।

मार्जनाद्यैस्तु संस्कृत्य स्थण्डिले मण्डलं लिखेत् ।

पात्रस्य प्रतिपत्तिं तु कृत्वा दाहं प्लवं तथा ।। १४ ।।

ध्यायेदात्मानमथ च संस्कृत्याङ्गस्वरूपतः ।

अङ्गुष्ठाद्यस्त्रपर्यन्तं द्वादशाङ्गस्य शुद्धये । १५ ।।

मार्जन (झाड़ने-बुहारने) आदि से वेदिका का संस्कार कर, उस पर मण्डल लिखे । तब पात्र का स्थापन कर, दहन और प्लवन की क्रियाएँ सम्पन्न करे, तत्पश्चात् शरीर के बारह अंगों की शुद्धि हेतु, अगूंठा से अस्त्र तक, अङ्गों के रूप में अपना ही ध्यान कर, संस्कार करे ।। १४-१५॥

अर्घ्यपात्रेऽष्टधा जप्त्वा उपचारान् प्रसेचयेत् ।

आधारशक्तिप्रमुखं मूलवर्णान् प्रयुज्य च ।। १६ ।।

हृदिस्थां देवतां ध्यात्वा बहिः कृत्यं च वायुना ।

आरोप्य मण्डले दद्यादुपचारान् यथाविधि ।।१७।।

अर्घ्यपात्र पर ८ बार मूल मन्त्र का जप कर, उसके जल से पूजा उपचारों का सिंचन करे। मूल वर्णों का प्रयोग करता हुआ आधार - शक्ति आदि का हृदय में स्थित देवता का ध्यान कर, वायुमार्ग से उसे बाहर लाकर, मण्डल पर आरोपित कर, यथाविधि उपचारों को प्रदान कर, उनका पूजन करे ।। १६-१७।।

पूजयित्वा षडङ्गानि तथाष्टौदलदेवताः ।

पुष्पाञ्जलित्रयं दत्त्वा जप्त्वा स्तुत्वा प्रणम्य च ।। १८ ।।

मुद्रामग्रे प्रदर्श्याथ ततः पश्चाद् विसर्जयेत् ।

सर्वेषामेव देवानामेष एव विधिः स्मृतः ।। १९।।

साधक छओं अङ्गों तथा अष्ट-दल कमल में देवताओं का पूजन कर, तीन पुष्पाञ्जलि देकर जप, स्तुति एवं प्रणाम करे तब आगे मुद्रा का प्रदर्शन कर विसर्जन करे। सभी देवताओं के पूजन की यही विधि बताई गई है।। १८-१९ ॥

सम्यक् कल्पोदिता पूजा यदि कर्तुं न शक्यते ।

उपचारांस्तथा दातुं पञ्चैतान् वितरेत् तदा ।। २० ।।

गन्धंपुष्पं च धूपं च दीपं नैवेद्यमेव च ।

अभावे पुष्पतोयाभ्यां तदभावे तु भक्तितः ।। २१ ।।

विधान में वर्णित पूजा, भली-भाँति करना, सम्भव न हो तो गन्ध, पुष्प, धूप, दीप और नैवेद्य इन पाँच उपचारों को ही अर्पित करे यदि यह भी सम्भव न हो तो भक्तिपूर्वक जल और पुष्प से ही इष्टदेवता का पूजन करे ।। २०-२१ ।।

संक्षेपपूजा कथिता तथावस्त्रादिकं पुनः ।

पुरश्चरणकृत्ये च विशेषं शृणु भैरव ।। २२ ।।

हे भैरव ! मेरे द्वारा संक्षिप्त पूजा और वस्त्रादिक उपचार तथा पुरश्चरण कृत्य के सम्बन्ध में बताया गया। अब उसके विषय में विशेष सुनो ॥ २२ ॥

निष्पल्लवद्वादशभिर्लक्षैर्मंत्रजपैस्तथा ।

पुरश्चरेत् साधकस्तु कामामिष्टाप्तिहेतवे ।। २३ ।।

साधक अभीष्ट कामना की पूर्ति के लिए पल्लवरहित, बारह लाख मन्त्रों का जप कर, पुरश्चरण का कार्य सम्पन्न करे॥२३॥

जातीपुष्पं च बकुलं मालतीपुष्पमेव च ।

नन्द्यावर्तपाटलं च सितपद्ममतः परम् ।।२४।।

आज्यमन्नं पायसं च दधिक्षीर तथा मधु ।

लाजाश्चापि सकर्पूरा अमी एव चतुर्दश ।

पुरश्चरणसम्भूता त्रिपुरायाः प्रकीर्तिताः ।। २५ ।।

चमेली का पुष्प, मौलसिरी का पुष्प, मालती का फूल, नन्द्यावर्त (केशर), श्वेतकमल, घी, अन्न, खीर, दही, दूध, मधु और कपूर के सहित लावा, ये चौदह पदार्थ त्रिपुरा के पुरश्चरण के सम्भार (उपादान) बताये गये है।।२४-२५।।

द्वादशष्वेव लक्षेषु जप्तेष्वपि च साधकः ।

एतानि सर्वद्रव्याणि जुहुयादनलोज्ज्वले ।। २६ ।।

साधक, बारह लाख मन्त्र जप करने के पश्चात् उपर्युक्त सभी द्रव्यों का प्रज्ज्वलित अग्नि में होम करे ॥ २६ ॥

लक्षत्रयं तु यो जप्त्वा पुरश्चरणमाचरेत् ।

स तु साज्यं सकर्पूरं जुहुयात् तु चतुष्टयम् ।। २७ ।।

जो तीन लाख मन्त्रों का जप कर पुरश्चरण करे उसे घी और कपूर के सहित उपर्युक्त में से मात्र चार पदार्थो का होम करना चाहिये ।। २७।।

दशभिर्नवलक्षेषु द्रव्यैर्मन्त्री पुरश्चरेत् ।

जप्तेषु चाष्टभिः षट्सु सर्वैः सर्वत्र चाचरेत् ।। २८ ।।

यदि मन्त्र जापक नव लाख मन्त्रों से पुरश्चरण करे तो दश पदार्थो से तथा छः लाख मन्त्रों से करने पर आठ पदार्थों से हवन करे। इसी प्रकार सभी जगह सभी पदार्थों से हवन करना चाहिये ।। २८ ।।

हस्तमात्रं तु कुण्डं स्यात् षट्कोणं त्र्यङ्गुलाधिकम् ।। २९ ।।

त्रिपुरायास्तु मध्याया बालायाश्च सदैव हि ।

तथा त्रिपुरभैरव्याः कुण्डमानं प्रकीर्तितम् ।। ३० ।।

त्रिपुरा, मध्या, बाला और त्रिपुर भैरवी के हवन के लिए कुण्ड का मान, एक हाथ से तीन अङ्गुल अधिक एवं आकार षट्कोण बताया गया है ।। २९-३०।।

चतुष्कोणं भवेत् कुण्डं हस्तमात्रद्वयेषु च ।

अष्टाङ्गुलाधिकं प्रोक्तं वैष्णव्यास्तु पुरश्चरे ।। ३१ ।।

वैष्णवी के पुरश्चरण में दो हाथ से आठ अङ्गुल अधिक का, चौकोर कुण्ड हो, ऐसा कहा गया है ॥ ३१ ॥

त्रिकोणं हस्तमात्रं तु कामाख्यायास्तु कुण्डकम् ।

एवं सर्वप्रपञ्चानामासामपि तथा तथा ।।३२।।

कामाख्या देवी के लिए एक हाथ मान का त्रिकोण कुण्ड बनाये। इसी प्रकार सभी प्रपञ्चों (रूपों) का भी वैसा-वैसा (भिन्न-भिन्न) कुण्ड बनाना चाहिये ॥ ३२ ॥

संस्कुर्यादनलं वृद्धं विधिवद् वैष्णवीकृतौ ।

कामाख्यायास्त्रतथा कुर्याज्ज्योतिष्टोमादि मत्सुतौ ।। ३३ ।।

मेरे पुत्रों ! विधिपूर्वक वैष्णवी तथा कामाख्यादेवी के लिए प्रज्ज्वलित अग्नि का संस्कार करके ज्योतिष्टोमादि यज्ञसम्पन्न करे ॥ ३३ ॥

आदौ त्रिपुरभैरव्याश्चतुर्भिर्दशभिस्तथा ।

जुहुयादनले वृद्धे आहुतीश्च चतुर्दश ।। ३४ ।।

प्रारम्भ में त्रिपुरभैरवी के चौदह मन्त्रों से प्रज्ज्वलित अग्नि में चौदह आहुतियों से हवन करे ।।३४।।

पश्चात् तु मूलमंत्रेण अष्टोत्तरशतत्रयम् ।

होमं यन्नव वा तेन शतानि नव वाऽथवा ।। ३५ ।।

तत्पश्चात् तीन सौ आठ मूलमन्त्रों से होम करे, यदि नवलक्ष किया हो तो नौ सौ मन्त्रों से होम करे ॥ ३५ ॥

जपान्ते तु बलिं दद्याद् वैष्णव्या बलिदानतः ।

रत्नकर्पूरकनकान् यत्रैव गुरुदक्षिणाः ।। ३६ ॥

जप के पश्चात् वैष्णवीतन्त्र में वर्णित, बलिदान की विधि के अनुसार, बलि- प्रदान करे तथा रत्न एवं कपूर के कणों से गुरु दक्षिणा अर्पित करे ॥ ३६ ॥

अलाभे दधिपुष्पाज्यलाजैर्देव्याः पुरश्चरेत् ।

लाभे चतुर्दशद्रव्यैर्जुहुयाद् विधिपूर्वकम् ।। ३७ ।।

यदि उपलब्ध हो तो ऊपर वर्णित चौदह पदार्थो से विधिपूर्वक होम करे, न उपलब्ध होने पर दही, पुष्प, घी और धान के लावा से ही करे ।। ३७ ।।

अस्या यन्त्रं रहस्येन शृणु वेतालभैरव ।

यत्कृत्वैवाखिलान् कामाँल्लभते नरसत्तम ।।३८॥

हे वेताल भैरव (शिव के सम्बोधन पर) अथवा हे नरों में श्रेष्ठ (और्व मुनि से सम्बोधन पर) इसके यन्त्र को रहस्य सहित सुनो, जिसके (पूजन) ! करने से सभी कामनायें प्राप्त हो जाती हैं ।। ३८ ।।

षट्कोणं मण्डलं कृत्वा तत् तु कोणत्रये लिखेत् ।

मंत्र त्रिपुरभैरव्यास्त्रिवर्णं तु ततस्त्वधः ।। ३९ ।।

षट्कोण और मण्डल बनाकर उसके बाद त्रिकोण लिखे उसके नीचे त्रिपुर- भैरवी के त्रयक्षरी मन्त्र को लिखे ।। ३९ ।।

आद्यायास्त्रिपुरायास्तु त्रिबीजानि लिखेदनु ।

मध्यबीजत्रयं मध्ये लिखित्वा पीठयन्त्रके ।।४०।।

उसके पश्चात् आद्यात्रिपुरा के तीनों बीज मन्त्रों को लिखे। यन्त्र पीठ के मध्य में मध्य-- बीज को तीन बार लिखे ।।४०।।

सर्वैस्तु मातृकावर्णैस्त्रिधा संवेष्टयेदनु ।

लाक्षारसैर्लिखित्वा तु त्रिलोहैर्वेष्टयेत् ततः ।

तद् धार्य मूर्ध्नि सततं तेन सर्वजयी भवेत् । । ४१ ।।

तत्पश्चात् सभी मातृका वर्णों से उसे तीन बार घेरे। यह सम्पूर्ण यन्त्र, लाक्षारस से लिखकर, त्रिलोह (सोना, चाँदी एवं ताँबे) के बनी डिब्बी में रखकर, उसे निरन्तर मस्तक पर धारण करे। ऐसा करने से वह साधक सर्वत्र विजयी होता है ॥ ४१ ॥

रूपवान् बलवान् वाग्मी धनरत्नयुतः सदा ।

दीर्घायुः कामभोगी च सुप्रजः स च जायते ।।४२।।

वह सदा रुपवान, बलवान, वाग्मी, धन एवं रत्न से युक्त दीर्घायु, कामों का उपभोग करने वाला, उत्तम सन्तान का स्वामी हो जाता है ॥४२॥

मध्ये बीजं लिखित्वैकं मूर्ध्नि चाधस्तथापरम् ।

आद्यायास्त्रिपुरायास्तु भैरव्यास्तद्वदेव हि ।।४३।।

मध्य में मस्तक पर भैरवी का बीजमन्त्र लिखकर उसके नीचे उन पर क्रमश: आद्या और त्रिपुरा के मन्त्रों को लिखे ॥४३॥

इमानि षट्कमंत्राणि क्रमाद् वेतालभैरव ।

पूर्ववत् सल्लिखित्वैकं संवेष्टयाथ त्रिलोहकैः ।। ४४ ।।

वामे बाहौ दक्षिणे च हृदि कण्ठे करे तथा ।

मूर्ध्नि धार्याणि क्रमतः फलमेतच्च तद्भवम् ।। ४५ ।।

हे वेताल और भैरव ! इन छः मन्त्रों को पहले की भाँति क्रमशः लिखकर एक-एक को त्रिलोह में संवेष्टित कर बायीं और दाहिनी बाँह, हृदय, कण्ठ, हाथ तथा मस्तक पर धारण करने से, उसका यह फल होता है।।४४-४५।।

सम्पत्सौभाग्यसंस्तम्भ-वशीकरणमोहनम् ।

कवित्वमथ सर्वत्र भवेदेतन्न संशयः ।। ४६ ।

उसको सर्वत्र सम्पत्ति, सौभाग्य, संस्तम्भन, वशीकरण, मोहन, कवित्व, हो जाता है, इसमें कोई संशय नहीं है ।। ४६ ॥

यन्त्रमन्त्राणित्राणि तन्त्राणि त्रैपुराणि तु भैरव ।। ४७ ।।

स पञ्च षट् सहस्राणि मंत्रोधैस्त्रिगुणकृतैः ।

तज् ज्ञात्वा पूजको धीमान् परत्रेह न सीदति ।। ४८ ।।

हे भैरव ! त्रिपुरा सम्बन्धी यन्त्र-मन्त्र और तन्त्रों की संख्या, पाँच-छ: हजार मन्त्रों को तीन गुना कर कही गई है। इनको जान कर, पूजन करने वाला बुद्धिमान् साधक, इस लोक या परलोक में कहीं कष्ट नहीं पाता ।।४७-४८ ।।

मंत्रौघैस्तन्त्रमन्त्रैरविचलितपदं त्रैपुरं यत् प्रधानं

यद्विप्राद्यैरदेयं विगतभयपदं यत्कवित्वप्रदातृ ।

त्रैवर्गीयं त्रिरूपं त्रिदिवमथ सुरा यत्र सन्ति त्रयोऽपि

तज्ज्ञानौघैः सुभूतंसकलशुभफलंयन्म हस्त्रैपुराख्याम् ।। ४९ ।।

मन्त्रों के समुदाय, त्रिपुरा सम्बन्धी तन्त्र-मन्त्रों में जो अविचलित और प्रधान, ब्राह्मण आदि साधकों द्वारा सर्वसाधारण को दिये जाने योग्य, भय को दूर करने वाला है । यह कवित्व प्रदान करने वाला, अर्थ-धर्म-काम तीनों पुरुषार्थ, तीन रूपों वाला, तीनों स्वर्गरूप, जहाँ तीनों देव निवास करने वाले है। ऐसा जो महात्रैपुर नामक मन्त्र है, वह ज्ञान का समूह, सुन्दर ढंग से उत्पन्न एवं समस्त शुभफलों को देने वाला है ॥ ४९ ॥

कवचं त्रिपुरायास्तु शृणु वेतालभैरव ।

यज्ज्ञात्वा मन्त्रवित् सम्यक् फलमाप्नोति पूजने ।। ५० ।।

हे वेताल और भैरव ! अब तुम दोनों त्रिपुरा के कवच को सुनो, जिसे जानकर पूजन करने से मन्त्रवेत्ता सम्यक् फलों को प्राप्त कर लेता है ।। ५०॥

उपचाराः पुरा प्रोक्ता येन एवात्र पूजने ।

प्रतिपत्तिस्तु सैवात्र कीर्तिता नित्यपूजने ।। ५१ ।।

यहाँ पूजन प्रकरण में जो उपचार, पहले बताये गये हैं, वे ही उपक्रम यहाँ भी नित्यपूजन में कहे गये हैं । ५१ ॥

कवचस्य च माहात्म्यमहं ब्रह्मा न केशवः ।

वक्तुं क्षमस्त्वनन्तोऽपि बहुजिह्वः कदाचन ।।५२।।

इस कवच के माहात्म्य को मैं ब्रह्मा, विष्णु और बहुत (हजार) जिह्वा वाले, अनन्त भी कहने में कभी समर्थ नहीं है ।। ५२॥

क्रव्याद् भयं न लभते तथा तोयपरिप्लवे ।

कवचस्मरणादेव सर्वकल्याणमाप्नुयात् ।। ५३ ।।

कवच के स्मरण मात्र से क्रव्यादों का भय नहीं होता और न जलप्लावन ही होता है तथा साधक सब प्रकार से कल्याण प्राप्त करता है ।। ५३॥

कालिका पुराण अध्याय ७५ 

अब इससे आगे श्लोक ५४ से ९२ में देवी त्रिपुरभैरवी के कवच को दिया गया है इसे पढ़ने के लिए क्लिक करें-

।।त्रिपुराकवच ।।

अब इससे आगे

कालिका पुराण अध्याय ७५   

यस्योच्चारणरणकृत्ये तु संयोगो बोधदूषणम् ।

प्रत्येकभिन्नताबोधः स कुष्ठी जायते नरः ।। ९३ ।।

जिसके उच्चारण कर्म में संयोग और बोध सम्बन्धी दोष और प्रत्येक प्रकार की भिन्नता का बोध पाया जाता है, वह साधक मनुष्य, कोढ़ी होता है ।। ९३ ॥

न्यासानां प्रचुरत्वे तु फलानामपि भूरिता ।

उक्तन्यासो न हि त्याज्यो ह्यधिकं तु समाचरेत् ।। ९४ ।।

न्यासों की अधिकता से फल में भी अधिकता होती है इसलिए उपर्युक्त न्यासों को नहीं छोड़ना चाहिये अपितु अधिक ही न्यास करना चाहिये ।। ९४ ।।

मयोक्तन्यासमज्ञात्वा न कृत्वा वा प्रमादतः ।

यः कुर्यात् पूजनं देव्या आप्नुयात् स महापदम् ।। ९५ ।।

प्रमादवश इन न्यासों को, बिना जाने या किये, जो साधक देवी का पूजन करता है, वह महान् आपत्तियों को प्राप्त करता है ।। ९५ ।।

मन्त्राक्षरस्य विन्यासः सर्वमन्त्रेषु कीर्तितः ।

वैष्णवे चाथवा रौद्रे महाभागेऽथवा पुनः ।। ९६ ।।

मन्त्रे कलेवरगते महामायाप्रपूजने ।

मंत्रन्यासे न वा कुर्यात् कुर्यात् वान्यत्र वाचरेत् ।। ९७ ।।

विष्णु सम्बन्धी या शिव सम्बन्धी महाभागा (देवी), देवताओं के मन्त्रों में शरीर पर या महामाया के विशेष पूजन में, सभी मन्त्रों के मन्त्राक्षरों को विशेष प्रकार से न्यास करना चाहिये अथवा अन्यत्र मन्त्र न्यास करे ।। ९६-९७ ।।

अङ्गरागेषु सिन्दूरं पानेषु मदिरा तथा ।

वस्त्रं रक्तं तु कौशेयं त्रिपुराप्रीतिदं मतम् ।। ९८ ।।

अङ्गरागों में सिन्दूर, पेय पदार्थों में मदिरा तथा वस्त्रों में लाल रेशमीवस्त्र देवी त्रिपुरा को विशेष प्रसन्नता देने वाले बताये गये हैं ।। ९८ ।।

यो दीपाः प्रदातव्याः पञ्च वा सप्त भैरव ।

इतो न्यूनान् न प्रदद्यात् त्रिपुरायै कदाचन ।। ९९ ।।

हे भैरव ! पूजन में तीन, पाँच या सात दीप, प्रदान करना चाहिये । इनसे कम दीप, त्रिपुरादेवी के पूजन में कभी भी प्रयोग नहीं करना चाहिये। ९९ ।।

मल्लिकामालतीकुन्दं वको द्रोणः सिताम्बुजम् ।

शुक्लपुष्पाणि त्रिपुराप्रीतिदानि तु भैरव ॥ १०० ॥

हे भैरव ! मल्लिका (चमेली), मालती, कुन्द, बक, द्रोण, श्वेत-कमल और सफेद पुष्प त्रिपुरा को प्रसन्नता देने वाले होते हैं ॥ १०० ॥

रक्ताम्बुजं जवा रक्ता करवीरोऽथ कोमलः ।

रक्तं त्रिपुरभैरव्याः प्रीतिदा स्नेहकाञ्चनैः ।। १०१ ॥

देवी त्रिपुरा को प्रेम से अर्पित लालकमल, लालगुड़हल, कोमल कनैल, सुवर्ण से भी अधिक प्रसन्नता देने वाले होते हैं ।। १०१ ।।

इदं ते कथितं पुत्र संक्षेपादेव भैरव ।

अवाप्य सिद्धिं परमां स्वयं विस्तारयिष्यसि ॥ १०२ ॥

हे पुत्र ! हे भैरव ! यह उपासना क्रम मेरे द्वारा तुमसे संक्षेप में कहा गया इसके अनुसार परम सिद्धि को प्राप्त कर, तुम स्वयं इनका विस्तार करोगे ॥ १०२ ॥

आराध्य त्वं महामायामवाप्य च गणेशताम् ।

कल्पमन्त्रौधमन्त्राणां भविष्यसि वितानक ।।१०३ ॥

तुम महामाया की आराधना करके गणाध्यक्षपद को प्राप्त करोगे तत्पश्चात् कल्प (पूजाविधान) सम्बन्धी मन्त्रों के समूह तथा अनेक मन्त्रों के विस्तारकर्त्ता होगे ॥ १०३ ॥

अस्यास्त्रिपुरभैरव्याः शुक्लरूपाणि यानि तु ।

तानि सारस्वताख्यानि मन्त्राः सम्यगुदीरिताः ।। १०४ ।।

इस त्रिपुरभैरवी के जो सरस्वती आदि के श्वेतरूप हैं उनके मन्त्र भली भाँति मेरे द्वारा कहे गये हैं ।। १०४ ॥

सरस्वती तु या देवी वीणापुस्तकधारिणी ।

स्रक् कमण्डलुहस्ता च दक्षिणे शुक्लपर्णिका ।। १०५ ।।

महाचलस्य पृष्ठस्था सितपद्मोपरिस्थिता ।

शुक्लवर्णा शुक्लवस्त्रा शुक्लाभरणभूषिता ।। १०६ ।।

जो सरस्वती देवी हैं, वे वीणा और पुस्तक धारण करने वाली, हाथों में माला एवं कमण्डलु धारण करने वाली तथा दाहिने में श्वेतपर्णिका धारण की महान् पर्वत के पृष्ठ पर श्वेतपद्म पर स्थित हैं। वे श्वेतवर्ण की हैं, वे श्वेत वस्त्र तथा श्वेत आभूषण, धारण करने वाली हैं ।। १०५ - १०६ ॥

तस्यास्तु वाग्भवाद्याभ्यां नेत्रबीजं द्वितीयकम् ।

कृत्वान्ते विनियोज्यैव मन्त्रं प्राक्प्रतिपादितम् ॥ १०७ ॥

उसके ही मन्त्र, वाग्भव प्रथम तथा नेत्रबीज दूसरे का प्रयोग करे, उनके अन्य मन्त्र पहले ही कहे गये हैं ।।१०७॥

वरदाभयहस्ता च मालापुस्तकधारिणी ।

शुक्लपद्यासनगता सा परा वाग् सरस्वती ॥ १०८ ॥

जो वरद और अभय की मुद्रावाले हाथों तथा हाथों में माला एवं पुस्तक धारण करने वाली, श्वेतपद्मासन पर विराजमान सरस्वती कही गई हैं, वे ही परावाक् हैं ।। १०८ ।।

बालाबीजाद्यक्षरं तु द्विरुक्तं चार्धचन्द्रकम् ।

मन्त्रमस्याः पुरा प्रोक्तं तन्त्रं सामान्यमीरितम् ॥१०९ ॥

बाला बीज का पहला अक्षर अर्धचन्द्र के साथ यदि दो बार कहा जाय तो इसका मन्त्र बनता है, जो पहले ही कहा गया है। इनका सामान्य तन्त्र (पूजा विधान) भी मैंने पहले ही कह दिया है ।। १०९ ॥

एषा तु या रक्तवर्णा मुण्डमालाविभूषिता ।

तस्याः प्रोक्तः पुरा मन्त्रः सा तु वृद्धा सरस्वती ।। ११० ।।

षष्ठमन्त्रस्तथैतस्यास्त्रयोदशनिरूपणे ।। १११ ।।

यह जो मुण्डमाला से विभूषित लाल रङ्ग की देवी हैं, जिनका मन्त्र पहले ही कहा गया हैं, वे ही वृद्धा सरस्वती हैं। पूर्वोक्त कहे तेरह मन्त्रों के समुदाय में छठा मंत्र उसी का बताया गया है ।। ११०-१११ ॥

एषा कवित्वशास्त्रौध- तत्त्ववादविनिश्चये ।

सुखसम्पत्करा प्रोक्ता नित्यमेव तु भैरव ।। ११२ ।।

हे भैरव ! ये कवित्त्व और शास्त्र समूह के तत्त्ववाद के निश्चय हेतु उपास्य तथा नित्य सुख-सम्पत्ति प्रदान करने वाली कही गई हैं ।। ११२ ।।

अस्या व्यस्तसमस्तैश्च शुक्लरक्तादिभेदतः ।

चतुःषष्टिमूर्तयश्च त्रैपुरादुत वाग्भवम् ।।११३ ॥

महामाया योगनिद्रा मूलभूता जगत्प्रसूः ।

जगन्माता जगद्धात्री विद्याविद्यापरात्मिका ।। ११४ ।।

व्यस्त, समस्त, श्वेत और रक्तभेद से त्रिपुरा वाग्भव, महामाया, योगनिद्रा, मूलभूता, जगत्त्रसू, जगत्माता, जगद्धात्री, विद्या, अविद्या, परात्मिका आदि चौंसठ मूर्तियाँ, इसी की हैं ॥ ११३ ११४।।

तस्या एव महाभाग त्रिपुराद्या विभूतयः ।

प्रस्तुताः कथिता नित्यं ताः स्वयंगत एव हि ।। ११५ ।।

हे महाभाग ! ये त्रिपुरा आदि वर्णित देवियाँ उन्हीं महादेवी की विभूतियाँ कही गई हैं। वे नित्य हैं तथा स्वयं जाने जाने योग्य हैं ।। ११५ ।।

इति ते कथितं पुत्र महादेव्या मनोहरम् ।

रहस्यं वामदाक्षिण्यं मन्त्रसिद्धिं शृणुष्व मे ।। ११६ ।।

हे पुत्र ! यह तुमसे महादेवी के मनोहर, वाम और दक्षिण के रहस्य को कहा गया। अब मुझसे उसकी मन्त्रसिद्धि को सुनो ।। ११६ ॥

॥ इति श्रीकालिकापुराणे पुरश्चर्याविधिर्नाम पञ्चसप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७५ ॥

श्रीकालिकापुराण में पुरश्चर्याविधिनामक पचहत्तरवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ ७५ ॥

आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 76 

No comments:

vehicles

[cars][stack]

business

[business][grids]

health

[health][btop]