कालिका पुराण अध्याय ७९
कालिका पुराण
अध्याय ७९ में कामरूपमण्डल में दर्पणादि पर्वतों का माहात्म्य और नवग्रहों सहित
अन्य देवों के स्वरूप तथा मंत्र का वर्णन है।
कालिका पुराण अध्याय ७९
Kalika puran chapter 79
कालिकापुराणम् एकोनाशीतितमोऽध्यायः कामरूपवर्णनेदर्पणादिमाहात्म्यम्
अथ श्रीकालिका
पुराण अध्याय ७९
कालिकापुराणम्
।।
एकोनाशीतितमोऽध्यायः ।।
।। और्व उवाच
।।
ततः पूर्वं
महाराज दर्पणो नाम पर्वतः ।
कुबेरो यत्र
वसति धनपालैः समं सदा ।।१।।
और्व बोले- हे
महाराज ! उसके पूर्व में दर्पण नामक एक पर्वत है जहाँ अपने धनरक्षक गणों के साथ
कुबेर सदैव निवास करते हैं ॥१॥
यस्मिन्नास्ते
मध्यभागे रोहितो रोहिताकृतिः ।
यस्मिँल्लोहादिकं
स्पृष्टं स्वर्णतां याति तत्क्षणात् ।।२।।
जिसके मध्यभाग
में लालरंग की रोहित (रोहू मछली) के आकार का एक रोहित है, जिसका स्पर्श प्राप्त कर लोहा आदि धातुएँ
तत्काल सोना हो जाती हैं ॥ २ ॥
यन्नातिदूरे
स्त्रवति दर्पणो नाम वै नदः ।
हिमाद्रिप्रभवो
नित्यं लौहित्यसदृशः फलैः ॥३॥
जिससे बहुत
दूर नहीं (समीप ही) एक दर्पण नाम का नद बहता है, जो हिमालय से उत्पन्न है तथा नित्य प्रवहमान एवं लौहित्य के
समान फल देने वाला है ॥ ३ ॥
समुत्पन्नं हि
लौहित्यं सर्वैर्देवगणैर्हरिः ।
सर्वतीर्थोदकैः
सम्यक् स्नापयामास तं सुतम् ॥४॥
लौहित्य के
उत्पन्न होते ही सभी देवों के साथ हरि (ब्रह्मा) ने अपने उस पुत्र को सभी तीर्थों
के जल से भली भाँति स्नान कराया ॥ ४ ॥
तस्य स्नानसमुद्भूतः
पापदर्पस्य पाटनः ।
तेनायं दर्पणो
नाम पुरा देवगणैः कृतः ।। ५।।
उस स्नान के
फलस्वरूप उत्पन्न, पाप के दर्प को नष्ट करने के कारण देवगणों द्वारा प्राचीनकाल में इसका नाम
दर्पण रखा गया ॥५॥
तस्मिन्
स्नात्वा नदवरे योऽर्चयेद् दर्पणाचले।
कुबेरं
प्रतिपत्तिथ्यां कार्तिके शुक्लपक्षके ।
स याति .
ब्रह्मसदनमिह भूतिशतैर्युतः ।। ६ ।।
कार्तिक के
शुक्लपक्ष की प्रतिपदा तिथि को दर्पण नामक पर्वत पर स्थित, इस श्रेष्ठ नद में स्नान कर जो कुबेर का
पूजन करता है, वह इस लोक में सैकड़ों ऐश्वर्यों से युक्त हो,
मृत्यु के बाद ब्रह्मलोक को जाता है ।।६॥
दर्पणाद् दिशि
पूर्वस्यामग्निमालाह्वयो गिरिः ।
सर्पाकार: सप्तशतव्यामदीर्घोर्धविस्तृतः
॥७॥
दर्पण से
पूर्व दिशा में अग्निमाल नामक एक पर्वत है । यह सात सौ व्याम लम्बा तथा उसका आधा
चौड़ा, सर्पाकार, पर्वत है ॥७॥
तत्र तिष्ठति
वै वह्निरूर्ध्वभागेऽग्निमण्डले ।
सिन्दूरपुञ्जसङ्काशे
चारुदारुशिलातले ॥८॥
तस्मिन्निरिन्धनो
वह्निर्नित्यमद्यापि काशते ।।९।।
वहाँ
ऊर्ध्वभाग में, अग्निमण्डल
के मध्य स्वयं अग्निदेव, निवास करते हैं। सिन्दूर के ढेर के
समान आभावाले वे अग्निदेव, सुन्दर दारुशिला के तल पर बिना
इन्धन के ही, आज भी नित्य प्रकाशित होते हैं।। ८-९ ।।
भैरवस्य हितार्थाय
कामाख्यापरिसेवने ।
पूर्वमेव
स्थितस्तत्र साक्षाद् वह्निर्गणैः सह ।।१०।।
अग्नि
प्रत्यक्षरूप में, भैरव के कल्याण के लिए, कामाख्या देवी की सेवा में
पहले से ही अपने गणों के सहित, वहाँ उपस्थित हैं ॥ १० ॥
लौहित्यपाथसि
स्नात्वा त्वग्निमालाह्वयं गिरिम् ।
आरुह्य वह्निं
सम्पूज्य मोदते विष्णुमन्दिरे ।। ११ ।।
लौहित्य के जल
में स्नान कर तथा अग्निमाल नामक पर्वत पर चढ़कर, वह्निदेव का पूजन, कर मनुष्य विष्णुलोक
में आनन्द लेता है ।। ११ ।।
पुरस्तादग्निमालस्य
कुण्डकं वारुणाह्वयम् ।
तस्य तीरे
गिरिश्रेष्ठो नाम्ना कंसकरः स्मृतः ।
वरुणस्तत्र
वसति नित्यमेव जलाधिपः ।।१२।।
अग्निमाल पर्वत
के सामने वारुण नाम का एक कुण्ड है, जिसके तट पर कंसकर नामक पर्वतश्रेष्ठ बताया जाता है, जहाँ जल के स्वामी वरुण नित्य ही निवास करते हैं ॥ १२ ॥
तस्मिन् कंसकरे
सम्यक् पूजयित्वा प्रचेतसम् ।
स्नात्वा च
वारुणे कुण्डे वारुणं लोकमाप्नुयात् ।। १३ ।।
उस कंसकर पर
प्रचेतस (वरुण) का भली भाँति पूजन कर, वारुणकुण्ड में स्नान करके साधक, वरुणदेव
के लोक को प्राप्त करता है ।। १३ ॥
आद्यं व्यञ्जनमेवात्र
पञ्चमस्वरसंयुतम् ।
शम्भुचूडाशिखायुक्तं
कौबेरं बीजमुच्यते ।।१४।।
यहाँ पहला
व्यञ्जन क पञ्चम स्वर उ से युक्त, हो शिव की चूडा (चन्द्र) और शिखा (बिन्दु) से मिलकर, कुबेर का बीज कुँ कहा जाता है ॥ १४ ॥
सप्तमो यः
पकारस्य बिन्दुश्चन्द्रार्धसंयुतः ।
वह्निबीजमिति ख्यातं
तेन वह्निं प्रपूजयेत् ।। १५ ।।
प से सातवाँ
वर्ण र बिन्दु और अर्धचन्द्र से युक्त हो वह्निबीज रँ के नाम से प्रसिद्ध है। उससे
ही वह्नि (अग्नि) का पूजन करना चाहिये ॥ १५ ॥
मकारपञ्चमः सोमबिन्दुना
वारुणः समृतः ।
एभिर्मन्त्रैरिमान्
देवान् नित्यमेव प्रपूजयेत् ।। १६ ।।
म से पाँचवाँ
वर्ण व, सोम, चन्द्र, और बिन्दु से युक्त हो, वरुण का बीज मन्त्र वँ स्मरण
किया गया है। इन मन्त्रों से नित्य ही इन देवताओं का पूजन करना चाहिये ॥ १६॥
वायुकूटो नाम
गिरिः पूर्वस्यां वरुणाचलात् ।
द्विखण्डो वायुबीजेन
मण्डलेन समन्वितः ।। १७ ।।
वायुलोकस्थितश्चन्द्रो
यस्मान्निसृत्यमानसाः ।
ऊर्ध्वाधोभागमासाद्य
नित्यं वहति भूपते ।। १८ ।।
तत्र वायुं
समभ्यर्च्य वायुलोकमवाप्नुयात् ।। १९ ।।
हे भूपति!
वरुणाचल से पूर्व दिशा में वायुकूट नामक एक पर्वत है। वह दो खण्डों वाला पर्वत, वायुबीज और मण्डल से समन्वित है । वायुलोक
में जो चन्द्रमा स्थित है, उससे निकल कर वायु, ऊपरी और निचले दोनों भागों में नित्य बहती है। वहाँ वायुदेव का पूजन कर
मनुष्य वायुलोक को प्राप्त करता है ।। १७-१९ ॥
पूर्व
वायुगिरेः शैलश्चन्द्रकूट इति स्मृतः ।
त्रिकोणश्चन्द्रसङ्काशस्तदूर्ध्वे
चन्द्रमण्डलम् ।। २० ।।
वायुकूट के
पूर्व भाग में चन्द्रकूट नामक एक पर्वत है जहाँ चन्द्रमा के समान एक त्रिकोण और
उसके ऊपर चन्द्रमण्डल स्थित है ॥ २० ॥
द्वितीयवर्गस्याद्यं
तु बिन्दुना समलङ्कृतम् ।
चन्द्रबीजमिति
प्रोक्तं तेन चन्द्रं प्रपूजयेत् ।। २१ ।।
व्यञ्जनों के
द्वितीय वर्ग, च वर्ग का
पहला वर्ण च, चन्द्र-बिन्दु से सुशोभित होने पर चन्द्रमा का
बीज चँ कहा गया है। उसी से चन्द्रमा का पूजन करना चाहिये ॥ २१ ॥
अद्यापि
प्रतिदर्शे तु पर्वतं तं निशापतिः ।
प्रदक्षिणीकरोत्येव
दशभिश्चापि खेचरैः ।। २२।।
दश देवताओं
सहित, ग्रहों, चन्द्रमा
प्रत्येक अमावस्या को आज भी उस पर्वत की प्रदक्षिणा करते हैं ।। २२ ।।
तस्यैव
पूर्वभागे तु सोमकुण्डाह्वयं सरः ।
तत्र स्नात्वा
च पीत्वा च नरः कैवल्यमश्नुते ।। २३ ।।
उसी के
पूर्वभाग में सोमकुण्ड नाम का एक सरोवर है । उसमें स्नान कर और उसका जल पीकर
मनुष्य कैवल्य प्राप्त करता है ॥२३॥
स्वर्गादवतरच्चन्द्रः.
कामाख्यासेवने यदा ।
तदा तद्रश्मिसङ्घातान्निः
सृतास्तोयराशयः ।। २४ ॥
तैस्तोयैर्वासवः
कुण्डमकरोदिन्द्रचन्द्रयोः ।
मध्ये
पुण्यतमे स्थाने स्वयं ब्रह्मशिलोपरि ।। २५ ।।
जब कामाख्या
देवी की सेवा हेतु, चन्द्रमा स्वर्ग से धरती पर अवतरित हुए, उस समय उसकी
किरणों के समूह से जलराशि निकली। उस जल से इन्द्रदेव ने स्वयं ब्रह्मशिला के ऊपर,
इन्द्र और चन्द्रमा के मध्य, पवित्र स्थान में
एक कुण्ड का निर्माण किया ॥२४-२५ ।।
चन्द्ररश्मिसमुद्भूत
चन्द्रकुण्डमहोदधौ ।
यं यं भावं
समासाद्य तं चन्द्रकलुषं हर ।
सुधास्रवणमाह्लाद्
त्वं चन्द्रकलुषहरम् ।। २६ ।।
इत्यनेन तु
मन्त्रेण यः स्नात्वा चन्द्रपाथसि ।। २७ ।।
चान्द्रकूटं
समारुह्य पूजयेद् यस्तु तं नरः ।
अविच्छिन्नासन्ततिस्तु
सुकान्ता तस्य जायते ।
परत्र
चन्द्रभवनं भित्त्वा याति परं पदम् ।।२८।।
मन्त्रार्थ-हे
! चन्द्रमा की किरणों से उत्पन्न, चन्द्रकुण्डरूपी महान उदधि! जो जिस भाव से तुम्हारे समीप आये वहाँ तक तुम उसके,
पाप को चन्द्रमा के कलुष के समान हरने वालें हो। तुम चन्द्रमा से
उत्पन्न सुधा प्रवाह के आह्लाद स्वरूप हो। तुम चन्द्रमा की भाँति मेरे भी दोषों को
दूर करो। इस चन्द्ररश्मि- हर मन्त्र से जो मनुष्य चन्द्रकुण्ड में स्नान कर,
चन्द्रकूट पर चढ़कर, पूजन करता है, उसकी सुन्दर और अविच्छिन्न सन्तति परंपरा होती है और परलोक में वह
चन्द्रलोक को पारकर, परम्पद को प्राप्त करता है ।। २६-२८ ॥
तीरे तु
चन्द्रकूटस्य नन्दनो नाम वै गिरिः ।
तस्मिन् वसति
शक्रस्तु कामाख्यासेवने रतः ।। २९ ।।
चन्द्रकूट के
निकट, नन्दन नामक वह पर्वत है जहाँ पर कामाख्या
की सेवा में रत होकर इन्द्र निवास करते हैं ॥ २९ ॥
पञ्चभावं समासाद्य
सर्वदेवेश्वरो हरिः !
सेवितुं
त्रिदशेशानीं सततं वर्तते नरः ।। ३० ।।
सभी देवताओं
के स्वामी इन्द्र पञ्चभावों का आश्रय ले, त्रिदश (देवताओं) की स्वामिनी (कामाख्या) की सेवा में निरन्तर
रत रहते हैं ॥३०॥
चन्द्रकूटस्य
तु गिरेर्नन्दनस्य तथा गिरेः ।
प्रतिदर्श तथा
चन्द्रः प्रदक्षिणयति त्रिधा ।। ३१ ।।
प्रत्येक
अमावस्या को चन्द्रमा, चन्द्रकूट तथा नन्दन पर्वत की तीन परिक्रमा करता है॥३१॥
चन्द्रकूटजले
स्नात्वा समारुह्याथ नन्दनम् ।
आराध्य शक्रं
लोकेशं महाफलमवाप्नुयात् ।। ३२ ।।
चन्द्रकूट पर
जल में स्नान कर तथा नन्दन पर्वत पर चढ़कर, लोकपाल इन्द्र की आराधना कर, मनुष्य
महान् फल प्राप्त करता है ।। ३२ ।।
नन्दनात्
पूर्वभागे तु भस्मकूटो महागिरिः ।
यः स्वयं
भर्गरूपः स सदा चेच्छान्तमुत्तमम् ।।३३।
नन्दन पर्वत
के पूर्व भाग में भस्मकूट नामक एक महान् पर्वत है जो स्वयं शिवरूप है तथा सदा
उत्तम और शान्त है ।। ३३॥
दक्षिणे
भस्मकूटस्य देवी पीयूषधारिणी ।
उर्वशी नाम
विख्याता शक्रप्रीतिकरी सदा ।।३४।।
भस्मकूट के दक्षिण
में उर्वशी नाम से प्रसिद्ध, इन्द्र को सदैव प्रसन्न करने वाली पीयूष धारिणी देवी स्थित हैं ॥३४॥
देवैर्यत्
स्थापितं पूर्वममृतं भोजनाय वै ।
कामाख्यायास्तदादाय
स्वयं तिष्ठति चोर्वशी ।। ३५ ।।
शिलारूपो
हरस्तां तु समावृत्यैव तिष्ठति ।। ३६ ।।
पहले देवताओं
ने देवी कामाख्या के भोजन के लिए जो अमृत स्थापित किया था उसे धारण किये हुये, यह ऊर्वशी स्थित रहती है। एवं शिलारूपी शिव
दोनों ओर से उसे घेर कर स्थित हैं ।। ३५-३६ ।
सा
चैवामृतराशिं तु कृत्वा किञ्चन किञ्चन ।
उपस्थापयते
नित्यं कामाख्यायोनिमण्डले ।। ३७ ।।
वह उस अमृतराशि
को थोड़ा-थोड़ा करके कामाख्या देवी के योनिमण्डल में नित्य उपस्थापित करती है ।।३७॥
सुधा
शिलान्तरस्था तु उर्वशी कुण्डवासिनी ।
उर्वशी
भस्मकूटस्य मध्ये कुण्ड सदावृतम् ।। ३८ ।।
द्वात्रिंशद्धनुराकीर्णं
पञ्चाशद्धनुरायतम् ।
तत्र स्नात्वा
च पीत्वा च नरो मोक्षमवाप्नुयात् ।। ३९ ।।
उर्वशी कुण्ड
में निवास करने वाली वह शिलाओं के अन्दर बहती हुई सुधाधारिणी उर्वशी, भस्मकूट के मध्य में, बत्तीस धनु (मान विशेष ) चौड़े और पचास धनु लम्बे कुण्ड को सदा ढके रहती
है। उसमें स्नान कर और उसका जल पीकर के मनुष्य, मोक्ष को
प्राप्त करता है ।। ३८-३९॥
कामाख्यायोनिरैशानीं
दिशं याति सदैव हि ।
भस्मकूटे
प्रविशति उर्वशीमपि योगिनी ॥४०॥
आप्यायिता
चामृतेन नित्यं देवी प्रमोदते ।
मोदयुक्ता
महादेवी कामेन मोदते सदा ।।४१।।
यह कामाख्या
देवी के योनिमण्डल से ईशानकोण की दिशा में सदैव जाती है तत्पश्चात् भस्मकूट में
प्रवेश करती है। योगिनी उर्वशी के अमृत से संतृप्त हो, देवी नित्य प्रमुदित होती हैं। प्रसन्नता
से युक्त हो, महादेवी सदैव काम के साथ आनन्दित होती हैं ॥ ४०
- ४१ ॥
भस्मकूटस्य
चैशान्यां मणिकूटो महागिरिः ।
मणिकर्णो नाम
हरस्तत्र तिष्ठति लिङ्गकम् ।। ४२ ।।
भस्मकूट पर्वत
के ईशान कोण में मणिकूट नामक एक महान् पर्वत है जहाँ मणिकर्ण नाम का शिवलिङ्ग
स्थित है॥४२॥
स
सद्योजातरूपस्तु मणिकर्ण इतीरितः ।
सद्योजातस्य मन्त्रेण
पूजितव्यः सदाशिवः ।। ४३ ।।
शिव का जो
सद्योजातरूप है वही मणिकर्ण कहा गया है । सद्योजात मन्त्र से ही मणिकर्ण नामक
सदाशिव का सदैव पूजन करना चाहिये ॥४३॥
चन्द्रतीर्थजले
स्नात्वा दृष्ट्वा चन्द्रं सवासवम् ।
मणिकर्णेश्वरं
दृष्ट्वा मुक्तिर्भमाचलं गते ।। ४४ ।।
चन्द्रतीर्थ
के जल में स्नान करके तथा इन्द्र के सहित चन्द्रमा एवं भणिकर्णेश्वर का दर्शन कर, भस्माचल पर जाने से सधक को मुक्ति प्राप्त
होती है ॥ ४४ ॥
कालिका पुराण
अध्याय ७९ ॥ चन्द्रस्वरूप वर्णन ।।
श्वेतः
श्वेताम्बरधरो दशाश्वो हेमभूषितः।
गदापाणिर्द्विबाहुश्च
कर्तव्यो वरदः शशी ।। ४५ ।।
चन्द्रमा की
प्रतिमादि, श्वेतवर्ण
के, श्वेत वस्त्र धारण किये हुये, दश
घोड़ों के रथ पर विराजमान, स्वर्णाभूषणों से युक्त, दो भुजाओं वाले एक हाथ में गदा लिए तथा दूसरे में वरदमुद्राधारी, बनानी चाहिये ॥ ४४ ॥
कालिका पुराण अध्याय ७९ ।। इन्द्रस्वरूप वर्णन ॥
सहस्रनेत्रो
गौराङ्गो द्विभुजो वामहस्तगम् ।
वज्रं
गदांकुशं धत्ते दक्षिणेनापि पाणिना ।। ४६ ।।
ऐरावतगजस्थस्तु
बाणतूणीरबन्धनः ।
धनुश्च कक्षे
गृह्णाति सेवमानो महेश्वरीम् ।। ४७ ।।
इन्द्र की
प्रतिमा, सहस्रनेत्र के, गोरे
अङ्गों वाले, बायें हाथ में वज्र तथा दाहिने हाथ में भी गदा
और अङ्कुश धारण किये हुये, बाण से भरा तरकश बाँधे, कक्ष में धनुष ग्रहण करके महेश्वरी की सेवा में तत्पर, ऐरावत हाथी पर स्थित रुप में बनाये ॥ ४६-४७॥
कालिका पुराण
अध्याय ७९ ।। शक्र मत्र ॥
वकारानन्तरो
वर्णश्चन्द्रबिन्दुसमन्वितः ।
शक्रबीजमिति
प्रोक्तं शक्रं तेन प्रपूजयेत् ।।४८ ।।
व कार के बाद
आने वाला वर्ण श, चन्द्र-बिन्दु से समन्वित हो, शक्र का बीज शँ कहा
गया है। उससे इन्द्र देवता का पूजन करना चाहिये ॥ ४८ ॥
नदी सुमङ्गलानाम
हिमपर्वतनिर्गता ।
पूर्वस्यां
मणिकूटस्य सदा स्रवति शोभना ।। ४९ ।।
वहीं सुमङ्गला
नाम की एक सुन्दर नदी, हिमालय पर्वत से निकल कर, मणिकूट पर्वत के पूर्व भाग
में सदा बहती है ॥ ४९ ॥
मणिकूटं
समारुह्य यस्तां पश्यति वै नदीम् ।
स
गङ्गास्नानजं पुण्यमवाप्य त्रिदिवं व्रजेत् ।। ५० ।।
मणिकूट पर चढ़कर, जो व्यक्ति उस नदी का दर्शन मात्र करता है,
वह गङ्गा स्नान का फल प्राप्त कर, स्वर्ग को
जाता है ॥५०॥
मणिकूटाचलात्
पूर्वं मत्स्यध्वजकुलाचलः ।
निर्दग्धो
यत्र मदनो हरनेत्राग्निना पुनः ।। ५१ ।।
शरीरं प्राप
तपसा समाराध्य वृषध्वजम् ।
तत्र
मत्स्यस्वरूपस्तु कामदेवेन संस्थितः ।।५२।।
मणिकूट पर्वत
की पूर्व दिशा में मत्स्यध्वज नामवाला एक कुलपर्वत है, जहाँ शिव के नेत्र की अग्नि से जलाये जाने
के पश्चात्, कामदेव ने मत्स्य रूप से स्थित हो, तपस्या द्वारा वृषभध्वज शिव की आराधना कर, पुनः स्वशरीर
प्राप्त किया था।।५१-५२।।
अधित्यकायां
पृथिवीं वीक्षमाणः समन्ततः ।
नदी तु
शाश्वती नाम तत्रास्ते दक्षिणस्रवा ।। ५३ ।।
वहीं अधित्यका
में सब ओर से पृथ्वी का निरीक्षण करती हुई, दक्षिण की ओर बहने वाली एक शाश्वती नाम की नदी बहती है ।। ५३
॥
सरः कामसरो
नाम तत्र शैले व्यवस्थितम् ।
शाश्वत्यां
विधिवत्स्नात्वा पीत्वा कामसरोऽम्भसि ।
विमुक्तपापः शुद्धात्मा
शिवलोके महीयते ।। ५४ ।।
वहीं पर्वत पर
एक कामसर नामक सरोवर भी है। शाश्वती नदी में विधिपूर्वक स्नान कर तथा कामसर के जल
का पान कर, साधक,
पाप से मुक्त, शुद्ध अन्तःकरण वाला, होकर शिवलोक को जाता है ॥ ५४ ॥
गन्धमादनपूर्वस्यां
सुकान्तो नाम पर्वतः ।
तत्प्रान्ते
वासवं कुण्डं वासवामृतभोजनम् ।। ५५ ।।
यत्र स्थित्वा
दक्षिणस्यां पुरः शक्रः शचीपतिः ।
अमृतं
श्रान्तदेहस्तु कामरूपान्तरे पपौ ।। ५६ ।।
गन्धमादन के
पूर्व में एक सुकान्त नाम का पर्वत है। उसके किनारे वासव, इन्द्र द्वारा अमृत भोजन कराये जाने से सम्बन्धित
एक वासव नाम का कुण्ड है। जिसके दक्षिण दिशा में स्थित हो प्राचीनकाल में थक कर,
शची के पति, इन्द्र ने कामरूप क्षेत्र में
अमृत का पान किया था।। ५५-५६॥
स्नात्वा तु
वासवे कुण्डे समारुह्य सुकान्तकम् ।
वासवस्य
प्रियो भूत्वा शक्रलोकमवाप्नुयात् ।। ५७ ।।
वासव कुण्ड
में स्नान कर एवं सुकान्त पर्वत पर चढ़कर, इन्द्र का प्रिय होकर मनुष्य, शक्र
(इन्द्र) लोक को प्राप्त करता है ॥ ५७॥
पूर्वस्यां तु
सुकान्तस्य रक्षः कूटाह्वयो गिरिः ।
यत्रास्ते
सततं देवो निर्ऋति राक्षसेश्वरः ।। ५८ ।
सुकान्त के
पूर्व में रक्षकूट नाम का एक पर्वत है, जहाँ राक्षसों के राजा निर्ऋति नाम के देवता, निरन्तर निवास करते हैं ॥ ५८ ॥
कालिका पुराण
अध्याय ७९ ।। निर्ऋतस्वरूप वर्णन ॥
खड्गहस्तो
महाकायो वामे चर्मधरस्तथा ।। ५९ ।।
जटाजूटसमायुक्तः
प्रांशुः कृष्णाचलोपमः ।
द्विभुजः
कृष्णवासास्तु गर्दभोपरिसंस्थितः ।। ६० ।।
वे निर्ऋति, विशाल शरीर वाले हैं, उन्होंने अपने दाहिने हाथ में खड्ग तथा बायें हाथ में ढाल धारण किया है।
इस प्रकार वे अपनी दो भुजाओं से युक्त हैं । वे जटाजूट से सुशोभित, काले पहाड़ के समान ऊँचे कद के हैं। उन्होंने काला वस्त्र पहन रखा है तथा
वे गधे पर विराजमान हैं ।। ५९-६० ।।
कालिका पुराण
अध्याय ७९ ।। निर्ऋति मन्त्र ।।
प्रान्तोपान्तौ
बिन्दुचन्द्रसहितावादिरेव च ।
नैर्ऋत्यं
कथितं बीजं तेन तं परिपूजयेत् ।। ६१ ।।
चन्द्र-बिन्दु
के सहित अन्तिम और उसके पहले के व्यंजन क्ष और ह तथा आदि क नैर्ऋति का बीज कहा गया
है। उससे उस निर्ऋति का पूजन करना चाहिये ॥ ६१ ॥
रक्षः कूटं समारुह्य
निर्ऋति राक्षसेश्वरम् ।
यः पूजयेद्
विधानेन चण्डिकां राक्षसेश्वरीम् ।
न तस्य
राक्षसेभ्योऽस्ति भयं नृप कदाचन ।।६२।।
हे राजन् !
रक्षकूट पर चढ़कर जो साधक, राक्षसेश्वर निर्ऋति तथा राक्षसेश्वरी चण्डिका का विधिपूर्वक पूजन करता है,
उसे कभी राक्षसों से भय नहीं होता है ॥ ६२ ॥
राक्षसाश्च
पिशाचाश्च वेताला गणनायकाः ।
तं दृष्ट्वा
पुरुषं राजन् सर्वदैव प्रविभ्यति ।। ६३ ।।
हे राजन् ! उस
पुरुष को देखकर, राक्षस,
पिशाच, वेताल एवं गणनायक सभी, सदैव विशेषरूप से भयभीत होते हैं ॥६३॥
रक्षः कूटात् पूर्वदिशि
भैरवनाम् माधवः ।
पाण्डुनाथ इति
ख्यातो ग्रावरूपेण संस्थितः ।। ६४ ।।
रक्षकूट से
पूर्व दिशा में भैरव नाम के विष्णु, पाण्डुनाथ नाम से प्रसिद्ध हो, शिलारूप
में वहाँ विराजमान हैं ।। ६४ ॥
तं पाण्डुनाथं
सततमष्टाक्षरभवोत्तरम् ।
तैनैव पूजयेद्
देवं पाण्डुनाथाह्वयं हरिम् ।। ६५ ।।
वर्णेन
रक्तगौराङ्गं गदापद्मधरं करे ।
दक्षिणे
चक्रशक्ती च बाहुभ्यामपि विभ्रतम् ।। ६६ ।।
चतुर्भुजं
रक्तपद्मसंस्थितं मुकुटोज्ज्वलम् ।
कुण्डले
विभ्रतं शुद्धे श्रीवत्सोरस्कमुत्तमम् ।। ६७ ।।
नमो
नारायणायेति मूलबीजेन वा हरेः ।
एवं
सम्पूजयेद् भूप चतुर्वर्गस्य सिद्धये ।। ६८ ।।
उन पाण्डुनाथ
नामक विष्णु का उत्तरतन्त्र में वर्णित अष्टाक्षर मन्त्र से अथवा ॐ नमो
नारायणाय; विष्णु के इस मूलमन्त्र से निरन्तर पूजन करे। लाल गौराङ्गवर्णवाले, जिनके दाहिने हाथों में गदा-पद्म और बायें हाथों
में चक्र तथा शक्ति शोभायमान रही है। जो उज्ज्वल मुकुट धारण कर लाल कमल पर,
चार भुजाओं से सुशोभित हो स्थित हैं एवं दो शुद्ध कुण्डलों से
शोभायमान हैं। जो वक्षस्थल पर उत्तम श्रीवत्समणि धारण किये हैं। हे राजन् !
चतुर्वर्ग की सिद्धि के लिये पाण्डुनाथ का इसी रूप में पूजन करना चाहिये ।।
६५-६८।।
पाण्डुनाथस्योत्तरस्यां
ब्रह्मकूटाह्वयं सरः ।
ब्रह्मणा
निर्मितं पूर्वं स्नानार्थं स्वर्गवासिनाम् ।। ६९ ।।
आयामेन
शतव्यामं विस्तीर्णं त्वेतदर्धकम् ।। ७० ।।
पाण्डुनाथ से
उत्तर दिशा में स्वर्गवासीजनों (देवगणों) के स्नान हेतु ब्रह्मा द्वारा पहले ही
निर्मित, एक ब्रह्मकूट नामक सरोवर है, जो सौ व्याम लम्बा तथा उसका आधा, पचास व्याम चौड़ा
है।।६९-७०।।
सर्वपापहरं
पुण्यं देवलोकात् समागतम् ।
कमण्डलुसमुद्भूत
ब्रह्मकुण्डामृतस्रव ।
हर मे
सर्वपापानि पुण्यं स्वर्गं च साधय ।।७९।।
इत्यनेन तु
मन्त्रेण स्नात्वा तस्मिन् सरोजले ।
पाण्डुनाथं च
सम्पूज्य विष्णुसायुज्यमाप्नुयात् ।। ७२ ।।
मन्त्रार्थ-
हे देवलोक से आये हुये, ब्रह्मा के कमण्डलु से निकले, ब्रह्मकुण्ड में
स्रवित होने वाले, सभी पापों को हरने वाले पवित्र जल,
आर मेरे सभी पापों को दूर कर, मुझे पुण्य एवं
स्वर्ग सुलभ करायें। इस मन्त्र से उस सरोवर के जल में स्नान और पाण्डुनाथ का पूजन
करके मनुष्य, विष्णु के सायुज्य को प्राप्त करता है।७१-७२ ॥
ब्रह्मकुण्डजले
स्नात्वा पूजयित्वा उमापतिम् ।
वायुकूटं
समारूहा मुक्तिमेवाप्नुयान्नरः ।। ७३ ।।
ब्रह्मकुण्ड
के जल में स्नान कर, भगवान् शिव का पूजन करने के पश्चात् मनुष्य, वायुकूट
पर्वत पर चढ़कर, मुक्ति प्राप्त करता है ॥ ७३ ॥
पाण्डुनाथात्
पूर्वदिशि गिरिश्चित्रहरो हरिः ।
सततं यत्र
रमते विष्णुर्वाराहरूपधृक् ।। ७४ ।।
पाण्डुनाथ से
पूर्व दिशा में चित्रहर नाम का भगवान् विष्णु का एक पर्वत है जहाँ भगवान् विष्णु, वाराह का रूप धारण करके निरन्तर रमण
(निवास) करते हैं ।। ७४ ॥
ततस्तु
नीलकूटाख्यं कामाख्यानिलयं परम् ।
तत् पूर्वभागे
वसति ब्रह्मा ब्रह्मगिरिः पुनः ।। ७५ ।।
तत्पश्चात्
नीलकूट नामक कामाख्या देवी का श्रेष्ठ निवास है, जिसके पूर्व भाग में ब्रह्मा, ब्रह्मगिरि
के रूप में पुनः निवास करते हैं ।। ७५ ॥
ब्रह्मशैलस्य
पूर्वस्यां भूमिपीठे व्यवस्थितम् ।
चारुनिम्न
शुभावर्त कामाख्यानाभिमण्डलम् ।। ७६ ।।
उपर्युक्त
ब्रह्मशैल के पूर्व भाग में भूमितल पर ही, कामाख्या देवी का नाभिमण्डल स्थित है जो सुन्दर, गहरा, शुभ आवर्तन वाला है ॥ ७६ ॥
ततोग्रतारारूपेण
रमते परमेश्वरी ।
तत्र तेनैव
रूपेण पूजितव्या शुभात्मिका ।।७७।।
वहीं उग्रतारा
रूप से परमेश्वरी रमण करती हैं। उस शुभस्वरूपा देवी का, वहाँ उसी रूप में पूजन करना चाहिये॥७७॥
तस्यास्तु
बीजं पूर्वस्मिन्नुत्तरे प्रतिपादितम् ।
रूपं शृणु
नरश्रेष्ठ येन ध्येया सदा शिवा ।।७८ ।।
हे मनुष्यों
में श्रेष्ठ ! उसका बीजमन्त्र पहले ही उत्तरतन्त्र में बताया जा चुका है, अब उसके रूप को सुनो, जिससे उस शिवा का, सदा ध्यान करना चाहिये ॥ ७८ ॥
कालिका पुराण
अध्याय ७९ ।। उग्रतारास्वरूप वर्णन ॥
कृष्णा
लम्बोदरी दीर्घा विरला रक्तदन्तिका ।
चतुर्भुजा
कृशाङ्गी तु दक्षिणे कर्त्रीखर्परौ ।। ७९ ।।
खड्गं
चेन्दीवरं वामे शीर्षे चैकजटा पुनः ।
वामपादं
शवस्योर्वोर्निधायाङ्घ्रिं तु दक्षिणाम् ।।८० ।।
शवस्य हृदये
न्यस्य साट्टहासं प्रकुर्वती ।
नागहारशिरोमाला
भूषिता कामदा परा ।। ८१ ।।
त्रिकोणं
मण्डलं चास्या हुङ्कारं मध्यबीजकाम् ।।८२ ।।
वे परमेश्वरी, काले रङ्ग की, लम्बे पेटवाली,
लम्बी-काया, पतले शरीर, लाल
दाँतों से युक्त, चार भुजाओं सहित, दुर्बल
कायावाली हैं। उन्होंने अपने दोनों हाथों में कैंची और खप्पर तथा बायें हाथों में
खड्ग और नीलकमल एवं मस्तक पर एक जटा धारण किया हैं । वे अपना बायाँ पैर, शव के जङ्घों पर तथा दाहिना पैर, शव के हृदय पर रखकर
अट्टहास कर रही हैं। वे नागों के हार तथा शिरों की माला से सुशोभित, कामनाओं की पूर्ति करने वाली, परा देवी हैं, इनका हुङ्कारमय मध्यवर्ती बीज से युक्त त्रिकोणमण्डल है।। ७९-८२ ।।
द्वारेशानां
योगिनीनां नामान्यस्यातु तन्त्रके ।
ज्ञेयानि
नरशार्दूल यत् प्रोक्तं वाम्यगोचरे ।।८३।।
हे नरशार्दूल
! इनके द्वारपालों एवं योगिनियों का नाम जो अन्य वामतन्त्रों में कहा गया है, वैसा ही जानना चाहिये ।।८३॥
उर्वश्यां
विधिवत् स्नात्वा स्पृष्ट्वा पाण्डुशिलां तथा ।
नीलकूटं समारुह्य
पुनर्योनौ न जायते ।। ८४ ।।
उर्वशी कुण्ड
में विधिपूर्वक स्नान कर, पाण्डुशिला का स्पर्श कर तथा नीलकूट पर चढ़कर, मनुष्य
पुनः योनि में प्रवेश नहीं करता अर्थात् जन्म नहीं लेता ॥८४॥
कालिका पुराण अध्याय ७९ ।। उर्वशी स्तुति ।।
पुरन्दरपुरायाते
वाराणस्याः फलाधिके ।
सुधासंकीर्णतोयौद्यैः
पापं हर ममोर्वशि ॥ ८५ ।।
हे उर्वशी !
आप पुरन्दरपुर, इन्द्रलोक
से आई हुई हैं, वाराणसी से भी अधिक फल (महत्व) वाली हैं,
अमृत से युक्त, अपनी जल राशि से आप मेरे पापों
का हरण करें ।। ८५ ।।
अमृतत्राविणीं
देवी सुधौघपरिपूरणी ।
अमृतेनामृतं मेऽद्य
देहि देवि ममोर्वशि ।। ८६ ।।
हे देवी ! आप
अमृत प्रवाहित करने वाली, अमृत समूह से परिपूर्ण हैं । हे देवी उर्वशी ! इस अमृत से, आप आज मुझे, अमरता प्रदान करें। आप मेरे हृदय में विराजमान
हों ॥ ८६ ॥
पुरन्दरप्रिये
देवि वाराणस्याः सदाम्बिके ।
लौहित्यहृदसंकीर्णे
पापं हर मोर्वशि ॥८७॥
हे उर्वशी !
आप वाराणसी से भी अधिक श्रेष्ठ हैं तथा पुरन्दर की प्रिय हैं, आप लौहित्य ह्रद से मिली हैं अतः हे देवि !
आप मेरे पापों को दूर करें ।। ८७ ।।
इत्येभिः
स्तुतिभिर्मन्त्रैः स्नात्वा पुण्योर्वशीजले ।
सर्वपापविनिर्मुक्तो
विष्णुलोके विचेष्टते ॥८८॥
इन उपर्युक्त
मन्त्रों से स्तुति कर तथा उर्वशी के पवित्र जल में स्नान करके मनुष्य, सभी पापों से मुक्त हो, विष्णुलोक को जाता है ॥ ८८ ॥
कालिका पुराण
अध्याय ७९ ।। उर्वशीस्वरूप वर्णन ॥
उर्वशी
द्विभुजा प्रोक्ता स्वर्णकङ्कणधारिणी ।
सौवर्णपात्रममृतस्रावणाय
विभर्ति च ।।८९।।
शुक्लवस्त्रा
गौरवर्णा पीनोन्नतपयोधरा ।
सर्वाङ्गसुन्दरी
शुद्धा सर्वाभरणभूषिता ।। ९० ॥
उर्वशी, सोने का कङ्कण पहने हुये, अमृत प्रवाहित करने हेतु सुवर्ण - पात्र धारण करने वाली, दो भुजाओं से युक्त, गौरवर्ण, श्वेतवस्त्र
धारण की हुई, पुष्ट और ऊँचे स्तनों वाली, सभी अङ्गों से सुन्दर, शुद्ध एवं सभी प्रकार के
आभूषणों से विभूषित हैं ।। ८९-९० ।।
एतन्नामाद्यक्षरं
तु मन्त्रमस्याः प्रकीर्तितम् ।
उमातन्त्रे तु
गदितं मन्त्रमस्याः प्रकीर्तितम् ।।९१ ।।
इनके नाम का
पहला अक्षर, चन्द्र-बिन्दु
सहित, इनका मन्त्र, या उमातन्त्र में
वर्णितमन्त्र, इनके मन्त्र कहे गये हैं ।। ९१ ॥
गणेश:
पूर्वद्वारस्थः कामाख्यापर्वतस्य तु ।
तत्रैव
चाग्निवेतालः स्थितो द्वारि मनोहरः ।। ९२ ।।
कामाख्या पर्वत
के पूर्वी द्वार पर गणेशजी स्थित हैं एवं वहीं द्वार पर सुन्दर अग्नि वेताल भी
स्थित है ॥ ९२ ॥
तयो रूपं च
मन्त्रं च यथोक्तं शम्भुना पुरा ।
तदहं
प्रतिवक्ष्यामि महाराज शृणुष्व मे ।। ९३ ।।
हे महाराज !
जैसा भगवान्शङ्कर ने पहले बताया था, वैसा ही मैं भी उनके रूपों एवं मन्त्रों के विषय में कहूँगा,
आप उसे सुनें ॥ ९३ ॥
ॐ नमः
उल्कामुखायेति मूलबीजादिसङ्गतम् ।
मंत्रं
सिद्धगणेशस्य द्वारस्थस्य प्रकीर्तितम् ।। ९४ ।।
प्रारम्भ में
मूलबीज (गं) के सहित ॐ नमः उल्कामुखाय, यह कामाख्या के द्वार पर स्थित, सिद्धगणेश
का मूलमन्त्र कहा गया है ।। ९४ ।।
कालिका पुराण
अध्याय ७९ ।। सिद्धगणेशरूप वर्णन ॥
रूपं तस्य
प्रवक्ष्यामि गजवक्त्रं त्रिलोचनम् ।
लम्बोदरं
चतुर्बाहुं व्यालयज्ञोपवीतिनम् ।। ९५ ।।
शूर्पकर्णं
बृहद्गण्डमेकदन्तं पृथूदरम् ।
दक्षिणे तु
करे दण्डमुत्पलं च तथापरे ।। ९६ ।।
लड्डुकं परशुं
चैव वामतः परिकीर्तितम् ।
बृहत्त्वाक्षिप्तगगनं
पीनस्कन्धाङ्घ्रिपाणिनम् ।
युक्तं
बुद्धिकुबुद्धिभ्यामधस्तान्मूषकान्वितम् ।। ९७।।
अब मैं उनके
रूप के विषय में कहूँगा - वे हाथी के मुँह वाले, तीन नेत्रों से युक्त, लम्बे पेट,
चार भुजाओं एवं सर्प के यज्ञोपवीत से विभूषित हैं । उनके कान शूप की
आकृति के, बड़े, उनका गण्डस्थल विस्तृत
है। वे एक दाँत वाले तथा विशाल उदर वाले हैं। वे अपने दाहिने हाथों में दण्ड,
कमल तथा बायें हाथों में लड्ड व परशु धारण किये हुये बताये गये हैं
। वे अपनी विशालता से आकाश को ढँके हुये, पुष्ट कन्धों,
हाथ-पैरों से युक्त हैं। उनके साथ में बुद्धि और कुबुद्धि नामक दो
देवियाँ हैं तथा उनके निचले भाग में मूषक, विराजमान है।।
९५-९७।।
तन्त्रस्तु
यादृशः प्रोक्तः पञ्चवक्त्रस्य पूजने ।
स एव तन्त्रो
ग्राह्यस्तु तादृग् विधिनिषेधनम् ।। ९८ ।।
जिस प्रकार का
तन्त्र (पूजा विधान) और विधि निषेध पञ्चवक्त्र के पूजन प्रसङ्ग में बताया गया है
वैसा ही यहाँ भी ग्रहण (प्रयोग) करना चाहिये ॥ ९८ ॥
कालिका पुराण
अध्याय ७९ ।। अग्निवेतालरूप वर्णन ॥
द्विभुज: पीनवदनो
रक्तनेत्रो भयङ्करः ।
छुरिकां
दक्षिणे पाणौ वामे रुधिरपात्रकम् ।। ९९ ।।
दंष्ट्राकरालवदनं
कृशो धमनिसन्ततः ।
जटां दीर्घा
मूर्ध्नि विभ्रद् घोररावयुतस्तथा ।। १०० ।।
वे
(अग्निवेताल) दो भुजाओं से युक्त, मोटे शरीर, लाल नेत्र, भयंकर स्वरूप
वाले हैं । उन्होंने अपने दाहिने हाथ में छुरिका और बायें हाथ में रुधिर के लिए
पात्र, धारण किया है। उनके दाँत और मुँह भयानक हैं वे दुर्बल
तथा उनकी धमनियों से युक्त हैं। वे मस्तक पर लम्बी जटाएँ-धारण किये एवं घोर गर्जन
करते रहते हैं ।। ९९-१००॥
पचतुर्थोऽग्निबीजेन
षष्ठवरविभूषितः।
अग्निवेतालबीजोऽयं
सर्वत्र भयनाशकः ।। १०१ ।।
अग्नि (र) से
युक्त, प से चौथा वर्ण भ जो छठे स्वर (ऊ) से
सुशोभित हो, अग्निवेताल का बीजमन्त्र भ्रू थ्रू होता है जो
सभी जगह भयनाशक है ॥ १०१ ॥
पूजयेदग्निवेतालं
सर्वत्र भयनिवारणम् ।
यः पूजयेत्
तस्य पुनर्भूतादिभ्यो भयं नहि ।। १०२ ।।
सभी स्थानों
पर भय दूर करने के लिए अग्निवेताल का पूजन करना चाहिये। जो साधक उसका पूजन करता है, उसे भूतादि का पुनः भय नहीं होता ॥ १०२ ॥
अष्टानामथ
मंत्राणां योगिनीनां क्रमान्नृप ।। १०३ ॥
शैलपुत्रीप्रमुख्याणां
मंत्राण्यष्टाक्षराणि तु ।
वैष्णवीतन्त्र
संस्थानि पूर्वोक्तानि तानितु ।। १०४ ।।
शैलपुत्र्यास्तथा
चाङ्ग मन्त्रां प्राक् प्रतिपादितम् ।
रूप तु
नरशार्दूल योगिनीनां विशेषतः ।। १०५ ।।
हे राजन् !
शैलपुत्री आदि प्रमुख आठ योगिनियों के जो आठ मन्त्र हैं, वे वैष्णवीतन्त्र के आठ मन्त्राक्षरों के
रूप में क्रमश: पहले ही कहे गये हैं। हे मनुष्यों में शार्दूल के समान ! शैलपुत्री
के अङ्ग मन्त्र और विशेषरूप से योगिनियों के स्वरूप का वर्णन पहले ही प्रतिपादित
किया गया है ।। १०३-१०५ ।।
प्रत्यक्षरेण
बीजेन दुर्गातन्त्रेण वा त्विमाः ।
नेत्रबीजेनैव
पूज्या योगिन्यो नृपसत्तम ।। १०६ ।।
हे राजाओं में
श्रेष्ठ ! दुर्गातन्त्र में वर्णित बीजमन्त्र के प्रत्येक अक्षरों से अथवा
नेत्रबीज से, इन
योगिनियों का पूजन करना चाहिये ॥ १०६ ॥
कात्यायनीं
पाददुर्गा दुर्गातन्त्रेण पूजयेत् ।
तदेव पूजनं
रूपं तत्पूर्वं प्रतिपादितम् ।। १०७ ।।
साधक
कात्यायनी, पाददुर्गा
का भी दुर्गातन्त्र से ही पूजन करे। पहले बताये गये पूजन विधान एवं रूप का
ही, यहाँ भी प्रयोग करे ।। १०७ ।।
कालरात्र्यास्तु
मन्त्रेण कालरात्रिं प्रपूजयेत् ।
कालरात्र्या रूपमन्त्रौ
पुरैव प्रतिपादितौ ।
महामायातन्त्रैः
पूजयेद् भुवनेश्वरीम् ।। १०८।।
वह कालरात्रि
के मन्त्रों से कालरात्रि का पूजन करे । कालरात्रि के रूप और मन्त्र पहले ही
प्रतिपादित किये गये हैं। महामायातन्त्र के मन्त्रों से भुवनेश्वरी का पूजन करे ।।
१०८ ।।
एताः
सर्वास्तु योगिन्यः कामाख्यावत् फलप्रदाः ।। १०९ ।।
विशेषो यत्र
नैवोक्तो रूपे तन्त्रे च पूजने ।
दुर्गातन्त्रेण
मंत्रेण तत्र पूजां समाचरेत् ।। ११० ।।
ये सभी
योगिनियाँ कामाख्या के समान ही फलदायिनी हैं । जहाँ कोई विशेषरूप, तन्त्र या पूजन विधान न निर्दिष्ट हो,
वहाँ दुर्गातन्त्र के मन्त्रों से ही इनका पूजन करे ॥ ११० ॥
प्रत्येकं
योगिनीं यस्तु पूजयेन्नरसत्तमः ।
स सर्वयज्ञस्य
फलं प्राप्नोति नरसत्तम ।। १११ ।।
हे नरसत्तम् !
जो श्रेष्ठ पुरुष प्रत्येक योगिनी का पूजन करता है, वह सभी यज्ञों के करने का फल प्राप्त करता है ।। १११ ॥
नीलशैलस्य
पूर्वस्मिन् स्वरूपं प्रतिपादितम् ।
नाभिमण्डलपूर्वस्यां
भस्मकूटस्य दक्षिणे ।
पूर्वस्यां
कर्पटो नाम पर्वतो यमरूपधृक् ।। ११२ ।।
नीलशैल का
स्वरूप पहले ही प्रतिपादित किया है। नाभिमण्डल के पूर्व भाग में तथा भस्मकूट के
दक्षिण में पूर्व दिशा में, यमरूप धारण किया हुआ, कर्पटनाम का एक पर्वत है ॥ ११२
॥
तत्र
याम्यशिला कृष्णा नीलाञ्जनसमप्रभा ।
अधित्यकायां राजेन्द्र
व्यामपञ्चसुविस्तृता ।। ११३ ।।
हे राजेन्द्र
! वहीं पर्वत के ऊपरी मैदान, अधित्यका में एक काले अञ्जन के समान कालेर ङ्ग की पाँच व्याम में फैली हुई
यमशिला है ।। ११३ ॥
कालिका पुराण
अध्याय ७९ ।। यमस्वरूप वर्णन ॥
पूजयेत् तत्र
शमनं पाणौ दण्डं सदैव यः ।
धत्ते तु
पाणिना नित्यं प्राणिदण्डस्य साधनम् ।। ११४।।
कृष्णवर्णं तु
द्विभुजं किरीटमुकुटोज्ज्वलम् ।। ११५ ।।
दधतं
चासिपुत्रीं च वामपाणौ सदैव हि ।
कृष्णवस्त्रं
स्थूलपादं बहिर्निःसृतदन्तकम् ।। ११६ ।।
भयाभयप्रदं
नित्यं नृणां महिषवाहनम् ।
पूजयेत्परया
भक्त्या याम्यबीजेन साधकः ।। ११७ ।।
वहाँ उन यमराज
का पूजन करे जो अपने हाथों से प्राणियों के दण्ड साधन हेतु हाथ में सदा दण्डधारण
किये रहते हैं। काले रङ्ग के जो दो भुजाओं वाले, उज्ज्वलकिरीट (मुकुट) धारण करने वाले, सदैव
बायें हाथ में कटारधारी, काले वस्त्र धारण करते हैं । जिनके
पैर स्थूल और दाँत बाहर निकले रहते हैं । जो नित्य मनुष्यों को उनके कर्मानुसार भय
और अभय प्रदान करते हैं। जो महिष पर सवार हैं, ऐसे यमराज का
परमभक्ति के साथ साधक, याम्यबीज से पूजन करे।। ११४ - ११७॥
कालिका पुराण
अध्याय ७९ ।। यममन्त्र वर्णन ॥
उपान्तवर्गस्यादिर्यो
वर्णो बिन्द्विन्दुसंयुतः ।
यमबीजमिति
ख्यातं यमस्य प्रीतिदायकम् ।। ११८ ।।
अन्त से पहले
व्यञ्जनवर्ग (य वर्ग) का जो आदि वर्ण य है, वह बिन्दु और चन्द्रमा से युक्त हो यमराज का प्रसिद्ध
बीजमन्त्र (यं) है और यह यमराज को प्रसन्नता प्रदान करने वाला है ।। ११८ ।।
अनेनैव तु
मन्त्रेण शमनं पूजयेत् तु यः ।
कर्पटाख्येऽचलवरे
नापमृत्युमवाप्नुयात् ।। ११९ ।।
इसी मन्त्र से
कर्पट नामक श्रेष्ठ पर्वत पर जो यमराज का पूजन करता है, वह साधक, अपमृत्यु को
नहीं प्राप्त करता ॥ ११९ ॥
पूर्वस्यां
कर्पटाख्यात् तु शैलाच्चित्रं इति स्मृतः ।
यः पूर्वभागप्रान्तेऽभूद्
दिश्याग्नेय्यामवस्थितः ।। १२० ।।
कर्पट नामक
पर्वत से पूर्व दिशा में एक चित्र नामक पर्वत है जो पूर्व दिशा के अन्त में आग्नेय
दिशा में अवस्थित है ।। १२० ।।
पीठस्तु
ब्रह्मग्रावस्तु स प्राक् पर्वत उच्चते ।
तस्मिन्
वसन्ति सततं ग्रहा नव यथेच्छाया ।
तत्र तान्
पूजयेद् यस्तु स नाप्नोत्यापदं क्वचित् ।। १२१ । ।
वही पर्वत
पहले ब्रह्मग्रावपीठ कहा गया है। उसमें निरन्तर सभी नवग्रह, इच्छानुसार निवास करते हैं। वहाँ जो उन
ग्रहों का पूजन करता है, वह कभी भी आपत्ति को प्राप्त नहीं
करता ।। १२१ ॥
रूपं मन्त्रं
च सूर्यस्य चन्द्रस्य प्रतिपादितम् ।
सप्तानामितरेषां
तु मन्त्रं रूपं शृणुष्व मे ।। १२२ ।।
सूर्य एवं
चन्द्रमा के रूप (ध्यान) तथा मन्त्र पहले ही बताये गये हैं। अन्य सातों के रूपों
और मन्त्रों को मुझसे सुनो ॥ १२२ ॥
कालिका पुराण
अध्याय ७९ ।। मङ्गलस्वरूप वर्णन ॥
रक्ताम्बरधरः
शूली शक्तिमांश्च गदाधरः ।
चतुर्भुजो
मेषरथो वरदो मङ्गलो मतः ।। १२३ ।
मङ्गल ग्रह, लाल वस्त्र धारण किये, चार भुजाओं से युक्त, शूल, शक्ति,
गदा तथा वरदमुद्रा धारण किये, भेंड़ के रथ पर
सवार बताये गये हैं ।। १२३ ।।
कालिका पुराण अध्याय
७९ ।। बुधस्वरूप वर्णन ॥
पीताम्बरधरः
शूली पीतमाल्यानुलेपनः ।
खड्गचर्मगदापणिः
सिंहस्थो वरदो बुधः ।। १२४ ।।
बुध ग्रह, पीला वस्त्र धारण किये हुए, शूल, खड्ग और ढाल, गदा,
हाथों में धारण किये, पीले रंग की माला तथा
चन्दन से सुशोभित, वरदायक एवं सिंह पर सवार बताये गये हैं ।।
१२४ ॥
कालिका पुराण
अध्याय ७९ ।। बृहस्पतिस्वरूप वर्णन ॥
स्वर्णगौरः
पीतवासाः स्वर्णपर्यंकसंस्थितः ।
मालां
कमण्डलुं दण्डं वामेन वरदायकम् ।। १२५ ।।
चतुर्भुजं च
सर्वज्ञं चिन्तयेद् देवतीर्थकम् ।
सर्वैर्देवगणैनिंत्यं
तप्यमानं मनोहरम् ।। १२६ ।।
सुनहले
गोरे-वर्ण, पीले वस्त्र,
वामावर्त में माला, कमण्डलु, दण्ड तथा वरदमुद्रा धारण किये, चार भुजाओं से युक्त,
सभी देवगणों द्वारा नित्य जिनके लिए तपस्या की जाती है। ऐसे सर्वज्ञ
और सुन्दर, देवताओं के तीर्थ (पूज्य), देवगुरु
बृहस्पति का ध्यान करना चाहिये ।। १२५-१२६ ॥
कालिका पुराण
अध्याय ७९ ।। शुक्ररूप वर्णन ।।
शुक्लवस्त्रं
शुक्लवर्णं शङ्खनागोपरिस्थितम् ।
चतुर्भुजं
पाशमालां पुस्तकं च वराभये ।। १२७ ।।
क्रमाद्
दक्षिणवामायां धत्ते दैत्यगुरुः सदा ।। १२८ ।।
दैत्यगुरु शुक्र, सदैव श्वेत वस्त्र धारण करते हैं, वे शुक्लवर्ण के हैं। वे शङ्ख नामक हाथी पर स्थित हैं। वे चार भुजाओं वाले
हैं, उन्होंने क्रमशः दाहिनी भुजाओं में पाश और माला या
रुद्राक्षमाला एवं पुस्तक तथा बायें हाथों में वरद और अभय मुद्रायें धारण की हुई
हैं ।। १२७-१२८ ।।
कालिका पुराण
अध्याय ७९ ॥ शनिरूप वर्णन ॥
इन्द्रनीलनिभः
शूली वरदो गृध्रवाहनः ।
पाशबाणासनधरो ध्यातव्योऽर्कसुतः
सदा ।। १२९ ।।
अर्क (सूर्य)
पुत्र शनि ग्रह का सदैव इन्द्रनील मणि के समान आभावाले, शूल, पाश, धनुष तथा वरदमुद्रा धारण किये हुये एवं गीध पर सवाररूप में ध्यान करना
चाहिये ॥ १२९ ॥
कालिका पुराण
अध्याय ७९ ।। भौम-बुध-मन्त्र ।।
कामदेवस्य
बीजं तु मन्त्रं भौमस्य कीर्तितम् ।
दुर्गाया
नेत्रबीजस्य यत्तु मध्यावरं शुभम् ।
तन्मन्त्रं शशिपुत्रस्य
सर्वकामफलप्रदम् ।। १३० ।।
कामदेव का जो
बीजमन्त्र कहा गया है वही मङ्गल का भी मन्त्र कहा गया है, दुर्गा का जो नेत्रबीज है, उसके मध्य और उसके बाद का जो अक्षर है, वह सभी
कामनाओं का फल प्रदान करने वाला, शशिपुत्र, बुध का मन्त्र होता है ॥ १३० ॥
कालिका पुराण
अध्याय ७९ ।। गुरु-शुक्र-मन्त्र ।।
तकारपञ्चमादिस्तु
चतुः षट्स्वरसंयुतम् ।
गणेशबीजान्तमिदं
गुरोर्मन्त्रं प्रकीर्तितम् ।। १३१ ॥
बिन्द्विन्दुसंयुतं
चापि पूर्ववर्णद्वयं पुनः ।
सप्तमस्वरसंयुक्तो
मकारस्त्वादिरन्तरम् ।। १३२ ।।
प्रान्तवर्गाद्यक्षरं
तु बिन्द्वेन्दुभ्यां समन्वितम् ।
भवेच्छुक्रस्य
बीजं तु सर्वकामसमृद्धिदम् ।। १३३ ।।
चन्द्रबिन्दु
से समन्वित् त कार से पाँचवा वर्ण न जिसके आदि में है वह प, चतुर्थ स्वर ई तथा षट्स्वर ऊ से संयुक्त हो,
गणेशबीज गं में समाप्त होता हुआ, वृहस्पति का
बीजमन्त्र पीं पूँ गं कहा गया है। पुनः वही दोनों वर्ण, मकार
जिसके आदि में है वह य और उसके बाद के वर्ण र के साथ तथा सप्तम स्वर से युक्त हो
प्रीं पूं पं के साथ व्यञ्जनों के अन्तिम श वर्ग का पहला अक्षर श, चन्द्रबिन्दु से समन्वित हो सभी कामनाओं को समृद्धि देने वाला, शुक्र का बीजमन्त्र होता है।। १३२-१३३ ।।
कालिका पुराण
अध्याय ७९ ।। शनि मन्त्र ।।
प्रान्तवर्गाद्यक्षरं
तु चन्द्रबिन्दुभ्यां समन्वितम् ।। १३४ ।।
आद्यमन्त्रस्वरोपेतं
तदेवेत्यादिसंयुतम् ।
शनैश्चरस्य मन्त्रोऽयं
सर्वदोषविनाशनः ।। १३५।।
पूर्व की
भाँति चन्द्रबिन्दु से समन्वित अन्तिम वर्ग का आदि अक्षर श आदि स्वर अ एवं
चन्द्रबिन्दु से युक्त हो उसी की भाँति सभी दोषों को दूर करने वाला, यह शँ शनि का बीजमन्त्र कहा गया है ।।
१३४-१३५।।
बिन्दुचन्द्रसमायुक्तं
नामाद्यक्षरमेव वा ।
तेषां
सर्वग्रहाणां वै मन्त्रमङ्गं प्रकीर्तितम् ।। १३६ ।।
अथवा ग्रहों
के नाम के पहले अक्षर, बिन्दु और चन्द्र से समन्वित हो, उन सब ग्रहों के
अङ्ग मन्त्र कहे गये हैं ।। १३६ ।।
शान्तिके
पौष्टिके कृत्ये एभिर्मन्त्रैर्ग्रहानिमान् ।
पूजयेत्
सर्वदा धीरो भूतिकामो महामतिः ।। १३७ ।।
शान्ति और
पुष्टि हेतु किये जाने वाले कार्यों में, ऐश्वर्य की कामना करने वाला धैर्यवान्, महामतिवाला
साधक, इन्हीं मन्त्रों से, इन ग्रहों
का सदा पूजन करे ॥ १३७॥
कालिका पुराण
अध्याय ७९ ।। राहुस्वरूप वर्णन ।।
वरदाभयहस्तश्च
खड्गचर्मधरस्तथा ।
सिंहासनगतः
कृष्णो राहुर्धीरः प्रचक्ष्यते ।। १३८ ।
राहु, वरद और अभयमुद्रायुक्त हाथोंवाला, तथा खड्ग और ढाल धारण हुआ, धीर, सिंह पर विराजमान, काले रङ्ग का कहा जाता है ॥ १३८ ॥
कालिका पुराण
अध्याय ७९ ।। केतुस्वरूप वर्णन ॥
धूम्रवर्णो
विशालाक्षः पुच्छरूपी चतुर्भुजः ।
खड्गचर्मगदाबाणपाणिः
केतुः शवासनः ।। १३९ ।।
केतु, धूम्रवर्ण का, बड़े नेत्रोंवाला,
पूँछरूप में चार भुजाओं से युक्त, शव पर विराजमान,
हाथों में खड्ग, ढाल, गदा
और बाण, धारण किया हुआ, कहा जाता
है॥१३९॥
उपान्तादिर्द्वादशेन
स्वरेण सहितः पुनः ।
उपान्तः
पञ्चमेनेन्दुबिन्दुभ्यां सहितावुभौ ।। १४० ।।
मन्त्रोऽयमनुलोमेन
राहोः केतोर्विलोमतः ।
आद्याक्षरं
पूर्ववद् वा मन्त्रयुक्तमथैतयोः ।। १४१ ।।
अन्तिम वर्ग
से पहले वर्ग का पहला वर्ण य के आदि का वर्ण स उपान्त व्यञ्जन है जिसके आदि में है
वह क्ष द्वादश स्वर के सहित चन्द्रबिन्दु व पंचम स्वर सहित ऊपान्त (ह) से बना हुं, ये दोनों अनुलोम से राहु एवं विलोम से मंत्र
बनते हैं। अथवा इन दोनों के नाम का पहला अक्षर ही पहले की भाँति मन्त्र हो जाता है
।। १४०-१४१ ।।
एवं चित्रे
शैलवरे पूजयित्वा नवग्रहान् ।
अभीष्टाल्लभते
कामान्नरः शान्तिं तथोत्तमाम् ।। १४२ ।।
इस प्रकार
चित्र नामक श्रेष्ठ पर्वत पर नवग्रहों का पूजन कर, मनुष्य उत्तम शान्ति और अभीष्ट कामनाओं को प्राप्त करता है ॥
१४२ ॥
चित्रकूटात्
तु पूर्वस्यां कज्जलाचल उत्तमः ।
सर्वविद्याधराद्यास्तु
सन्त्यस्मिन् देवयोनयः ।। १४३ ।।
चित्र पर्वत
से पूर्व दिशा में कज्जल नाम का एक उत्तम पर्वत है, जिस पर विद्याधर आदि सभी देव योनियाँ, निवास
करती हैं ।। १४३ ॥
तं पर्वतं
समारुह्य प्रणम्य सकलान् सुरान् ।
स्वर्गं
यान्ति नरश्रेष्ठ इह चाप्यतुलां श्रियम् ।। १४४ ।।
हे नरश्रेष्ठ!
उस पर्वत पर चढ़कर तथा सभी देवताओं को प्रणाम कर, इस लोक में अतुल सम्पत्ति प्राप्त कर, साधक
स्वर्ग जाते हैं ।। १४४ ॥
कज्जलाचलशैलात्
तु पूर्वस्मिञ्छुभपर्वतः ।
शच्या सार्धं
पुरा रेमे यत्र शक्रः सुरेश्वरः ।। १४५ ।।
कज्जलाचल से
पूर्व में शुभ पर्वत है जहाँ प्राचीनकाल में देवराज इन्द्र ने शची के साथ रमण किया
था ।। १४५ ।।
तत्पूर्वस्यां
महादेवी नदी कपिलगङ्गिका ।
तस्यां
स्नात्वा नरो गङ्गास्नानजं फलमाप्नुयात् ।। १४६ ।।
उससे पूर्व दिशा
में कपिलगङ्गिका नाम की एक महादेवी नदी है । उसमें स्नान कर मनुष्य, गङ्गा स्नान से उत्पन्न, फल प्राप्त करता है ।। १४६ ॥
कामाख्यानिलयात्
पूर्वं दक्षिणस्यां तथा दिशि ।
विद्यते
महदावर्त भुवि ब्रह्मबिलं महत् ।। १४७ ।।
पंचविंशतिमानेन
योजनानां नरेश्वर ।
तस्मादायाति
सानदी सिताम्भोऽपम तोयभाक् ।। १४८ ।।
हे राजन् !
कामाख्या मन्दिर से पूर्व तथा दक्षिण दिशा में पृथ्वी पर एक बड़ा गोलाकार महान्
ब्रह्मबिल है जो पच्चीस योजन मान का है। उससे ही वह (उपर्युक्त) नदी आती है जो
सिताम्भ (अमृत) के समान जल से युक्त है।। १४७-१४८ ।।
को ब्रह्मा
कीर्तितो देवैर्यस्मात् तस्य पिलात् सृता ।
गंगेव फलदा
यस्मात् तस्मात् कपिलगंगिका ।। १४९ ।।
देवताओं
द्वारा ब्रह्मा कः कहे गये हैं। उनके 'पिल' (बिल) से निसृत होने तथा गङ्गा के
समान फलदायी होने के कारण ही वह कपिल गंगिका कही जाती है ।। १४९ ॥
स्नात्वा
कपिलगङ्गायां सर्वमन्वन्तरेषु च ।
नरः
स्वर्गमवाप्यादौ ब्रह्मलोकं ततो व्रजेत् ।। १५० ।।
सभी
मन्वन्तरों में कपिल गङ्गा में स्नान करके मनुष्य, प्रारम्भ में स्वर्ग को प्राप्त करता है तत्पश्चात् ब्रह्मलोक
को जाता है ॥ १५० ॥
अतीत्य तां
नदीं पूर्वभागे दमनकाह्वया ।
नदी
महाकृष्णतोया पापस्य दमनी तथा ।। १५१ ।
उस नदी को पार
कर पूर्व भाग में जाने पर, बहुत अधिक काले जल से युक्त, पापों का दमन करने वाली,
दमनिका नाम की नदी है ।। १५१ ॥
ततो
वृद्धाह्वया चाभूदपरा सरिदुत्तमा ।
तस्या नद्याः
पूर्वभागे गङ्गावत् फलदायिनी । । १५२ ।।
उसके पूर्व भाग
में उससे वृद्धा नाम की एक अन्य उत्तम नदी उत्पन्न हुई है, जो स्वयं गङ्गा के समान फल देने वाली है ।।
१५२ ॥
माघं तु सकलं
मासं स्नात्वा मुक्तिमवाप्नुयात् ।
तथा दमनिकायां
च परं निर्वाणमाप्नुयात् । । १५३ ।।
उस वृद्धा नदी
में माघ महीने भर स्नान करके मनुष्य, मुक्ति तथा दमनिका में स्नान करके पर निर्वाण को प्राप्त करता
है ।। १५३॥
ततः पूर्वे
परादेवी नाम्ना सा सरिदुत्तमा ।
महती
दिव्ययमुना यमुनावत् फलप्रदा ।। १५४ ।।
उसके पूर्व
में परादेवी नाम की वह उत्तम नदी है जो यमुना के समान दिव्य तथा यमुना की ही भाँति
फल प्रदान करने वाली भी है ।। १५४ ।।
दक्षिणाद्रिसमुद्भूता
दक्षिणोदधिगामिनी ।
तस्यां तु
कार्तिकं मासं स्नात्वा मुक्तिमवाप्नुयात् ।
इह
चैवोत्तमान् भोगान् भागधेयान् प्रतिष्ठितान् ।। १५५ ।।
यह नदी दक्षिण
पर्वत से निकल कर दक्षिण सागर तक जानेवाली है । कार्तिक महीने भर इसमें स्नान करने
से मनुष्य, मुक्ति
प्राप्त करता है एवं इस लोक में प्रतिष्ठित लोगों को प्राप्त, उत्तम भोगों को प्राप्त करता है ।। १५५ ॥
तन्मध्ये भैरवो
देवो भर्गसम्भोगसम्भवः ।
दुर्जयाख्ये
वरगिरावस्त्युपत्यकभूमिगः ।। १५६ ।।
योऽसौ
शरभरूपस्य मध्यखण्डोऽतिभैरवः ।
स एव
भैरवाख्योऽयं पञ्चवक्त्रस्य मत्रकैः ।। १५७।।
सम्पूज्य तत्र
मतिमान् स याति शिवलोकताम् ।। १५८।।
उसके मध्य में
शिव के सम्भोग से उत्पन्न, भैरव नामक देव, दुर्जय नाम के श्रेष्ठ पर्वत की घाटी
में रहते हैं। शिव के शरभावतार के समय उनके शरभ रूप का जो अत्यन्त भयानक मध्यखण्ड
था, ये वही भैरव नामक देव हैं बुद्धिमान् साधक पञ्चवक्त्र-
मन्त्र से जिनका पूजन कर शिवलोक को प्राप्त करता है ।। १५६-१५८।।
कामेश्वरस्य
या पूजा कथिता नीलनिर्णये ।
सम्पूज्य पर्वतश्रेष्ठे
दुर्जये चाचलोत्तमे ।। १५९ ।।
नीलपर्वत के
वर्णन प्रसङ्ग में कामेश्वर की जो पूजा कही गई है। उसे पर्वतों में श्रेष्ठ, दुर्जय नामक उत्तम पर्वत पर करनी चाहिये ।।
१५९ ।।
तत्र
भैरवगङ्गास्ति सरो वै भैरवाह्वयम् ।
तयोः स्नात्वा
नरो याति शिवलोकं सनातनम् ।। १६० ।।
वहीं भैरव नाम
का एक सरोवर है एवं भैरव गङ्गा नाम की एक नदी है, उन दोनों में स्नान करके मनुष्य, सनातन
(स्थायी) रूप से, शिवलोक को जाता है ॥ १६० ॥
दुर्जयाख्यस्य
पूर्वस्यां पुरं नाम वरासनम् ।
तद्दक्षिणे
महाशैलः क्षोभको नाम नामतः ।। १६१ ॥
दुर्जय नामक
पर्वत के पूर्व में एक वरासन नाम का पुर है, उसके दक्षिण में ही अपने नाम के अनुरूप ही एक क्षोभक नाम का
महान् (विशाल) पर्वत है ।। १६१ ।।
तस्मिन् गिरौ
शिलापृष्ठे रक्तदेवी व्यवस्थिता ।
पञ्चपुष्करिणी
नाम्ना पञ्चयोनिस्वरूपिणी ।। १६२ ।।
पञ्चभिर्दुर्गायोनिभिः
पूजयेत् पंचवक्त्रकम् ।
स्थिता
रमयितुं तत्र नित्यमेव हिमाद्रिजा ।।१६३।।
उस पर्वत के
शिला तल पर, पञ्च पुष्करिणी
नाम से पाँच-योनियों के रूप में रक्तदेवी स्थित हैं । वहाँ हिमालय पर्वत की पुत्री,
पार्वती ही रमण हेतु नित्य, स्थित रहती हैं,
वहाँ उन पाँच दुर्गम योनियों (के जल) से पंचवक्त्र, शिव का पूजन करे ।। १६२-१६३।।
तच्छैलपूर्वभागे
तु कान्ता नाम महानदी ।
दक्षिणं सागरं
याति प्रथमं चोत्तरस्रवा ।।१६४।।
उस पर्वत के
पूर्व भाग में एक कान्ता नामक महानदी है जो पहले उत्तर की ओर बहती है फिर
दक्षिणसागर (ब्रह्मपुत्र) को जाकर मिल जाती है ।। १६४ ॥
दिव्यं कुण्डं
महाकुण्डं तच्छैलोपत्यकांक्षितौ ।
संस्थितं तत्र
स्नात्वा तु तां देवीं परिपूजयेत् ।। १६५ ।।
उसी पर्वत की
घाटी की भूमि पर, महाकुण्ड नामक एक दिव्य-कुण्ड, स्थित है, उसमें स्नान कर उस देवी का पूजन करना चाहिये ॥ १६५ ॥
दिव्यकुण्डे
नरः स्नात्वा पञ्चपुष्करिणीं शिवाम् ।
यः
पूजयेन्महाभागः स योनौ न हि जायते ।। १६६ ।।
दिव्यकुण्ड
में स्नान करके जो महाभाग, पञ्चपुष्करिणीरूपी शिवा का पूजन करता है, वह पुनः
योनि में उत्पन्न नहीं होता अर्थात् मुक्त हो जाता है ॥ १६६॥
पञ्चयोन्यः
पुष्करिणीः पंचैव परिसंस्थिताः ।
यतस्ततः
पञ्चरूपा पञ्चपुष्करिणी मता ।। १६७।।
वह शिवा अपनी
पाँच योनियों को ही पञ्चपुष्करिणियों के रूप में स्थापित कर स्थित हैं, इस प्रकार के अपने पाँचरूपों के कारण ही वह
देवी, स्वयं पञ्चपुष्करिणी मानी गई हैं ।। १६७ ।।
यथा बकुल-
पुष्पाणि तथैताः पञ्चयोनयः ।
पञ्चपुष्करिणीदेव्यः
प्रचण्डाः सर्वकामदाः ।। १६८ ।।
ये पाँच
योनियाँ आकार में बकुल के पुष्प के समान हैं। ये पञ्च-पुष्करिणी देवियाँ, प्रचण्ड हैं किन्तु साधकों की सभी कामनाओं
को पूर्ण करने वाली हैं ।। १६८ ।।
त्रिपुराद्यास्तु
तन्त्रेण ताः पूज्याः साधकोत्तमैः ।
कामेश्वरीतन्त्रमन्त्रैरथवा
पूजयेच्छिवाम् ।। १६९ ।।
उत्तम साधक
त्रिपुरा आदि तन्त्रों के मंत्रों से अथवा कामेश्वरीतन्त्र के मन्त्रों से उन
देवियों का पूजन करे।।१६९।।
बालायास्त्रिपुरायास्तु
मन्त्रमस्याः प्रकीर्तितम् ।
कामेश्वर्यास्तु
वा मन्त्रं पूजनेऽस्याः प्रकीर्तितम् ।। १७० ।।
बाला, त्रिपुरा के ही मन्त्र, उसके मन्त्र कहे गये हैं अथवा कामेश्वरी के मन्त्र भी इनके पूजन के मन्त्र
कहे गये हैं ।। १७० ॥
उग्रचण्डा
प्रचण्डा च चण्डोग्रा चण्डनायिका ।
चण्डा चेति च
योगिन्यः पञ्चास्याः परिकीर्तिताः ।। १७१ ।।
इसकी पाँच
योगिनियाँ-उग्रचण्डा, प्रचण्डा, चण्डोग्रा, चण्डनायिका,
चण्डा इन-पाँच नामों से कही गई हैं ।। १७१ ॥
शिवलिङ्गं च
तत्रास्ति शिलायां हेरुकाह्वयम् ।
देवीदक्षिणपूर्वस्यां
नायकं तं तु पूजयेत् ।
भैरवस्य तु
मंत्रेण पूजयित्वा दिवं व्रजेत् ।। १७२ ।।
वहीं शिला पर
हेरुक नाम का शिवलिङ्ग है जो देवी के दक्षिण पूर्व दिशा में स्थित है, उन योगनियों के नायक के रूप में उसका पूजन
करे । भैरव के मन्त्र से उसका पूजन कर साधक, स्वर्ग को जाता
है ॥ १७२ ॥
निर्माल्यधारिणी
देवी चण्डगौरीति कीर्तिता ।
एतस्यां
नरशार्दूल पुरा भर्गेण भाषिता ।। १७३ ।।
इनकी
निर्माल्य धारिणीदेवी चण्डगौरी कही गई हैं । हे मनुष्यों में शार्दूल की भाँति
श्रेष्ठ ! इनके विषय में पहले ही भगवान् शङ्कर द्वारा कहा जा चुका है ।। १७३ ॥
कान्तायां
सलिले स्नात्वा वसन्ते मानवोत्तमः ।
रूपवान्
गुणवान् भूत्वा शिवलोकाय गच्छति ।। १७४।।
वसन्तऋतु में
उत्तम मनुष्य इस कान्ता-नदी के जल में स्नान करके रूप और गुणों से युक्त हो शिवलोक
को जाता है ।। १७४ ॥
क्षोभकाख्याद्
महाशैलादैशान्यां पर्वतोत्तमः ।
तुंगसन्ध्याचलो
नाम वसिष्ठो यत्र शप्तवान् ।।१७५ ।।
क्षोभक नाम के
महान पर्वत से ईशानकोण में सन्ध्याचल नाम का एक ऊँचा और उत्तम पर्वत है जहाँ प्राचीनकाल
में वशिष्ठ मुनि ने शाप दिया था ।। १७५ ।।
निमिनाम्नस्तु
राजर्षेः शापाद् ब्रह्मसुतः पुरा ।
वसिष्ठो
ह्यशरीरोऽभूत् तच्छापाच्च निमिस्तथा ।। १७६ ।।
प्राचीनकाल
में ब्रह्माजी के पुत्र वशिष्ठ मुनि स्वयं राजर्षि निमि के शाप से शरीर विहीन हुये
तथा उन वशिष्ठ के शाप से निमि, शरीर विहीन हुये थे ॥ १७६ ॥
ततो ब्रह्मोपदेशेन
निर्जने कामरूपके ।
सन्ध्याचले
तपस्तेपे तस्य विष्णुरभूत् तदा ।। १७७ ।।
प्रत्यक्षस्तस्य
देवस्य वरदानान्महामुनिः ।
अमृतान्यवतार्याशु
कुण्डं कृत्वा गिरेस्तटे ।। १७८ ॥
तत्र स्नात्वा
च पीत्वा च शरीरं प्राप पूरितम् ।। १७९ ।।
तब ब्रह्मा के
उपदेश से निर्जन कामरूप क्षेत्र में सन्ध्याचल पर्वत पर उन्होंने तपस्या की जिससे
भगवान् विष्णु ने उनको प्रत्यक्ष दर्शन दिया। उन विष्णुदेव के वरदान से महामुनि
वशिष्ठ ने पर्वत की तलहटी में कुण्ड बनाकर, उसमें अमृत को उतारा था। तब उसमें स्नान कर तथा उस कुण्ड के
जल को पीकर वे पूर्ण शरीरवाले हुये थे ।। १७७-१७९ ।।
तस्मादमृतकुण्डाच्च
सन्ध्या नाम नदीवरा ।
निःसृता तत्र
चाप्लुत्य चिरायुरगदो भवेत् ।। १८० ।।
उस अमृतकुण्ड
से ही सन्ध्या नाम की श्रेष्ठ नदी निकली है जिसमें स्नान करके मनुष्य, निरोगी और दीर्घायु हो जाता है ॥ १८० ॥
तस्मात्
पूर्वं तु ललिता ललिताख्या सरिद्वरा ।
सागराद्
दक्षिणात् पूर्वं महादेवावतारिता ।। १८१ ।।
उससे पूर्व
में ललिता नाम की एक श्रेष्ठ और सुन्दर नदी है, जिसे पहले महादेव, शिव ने दक्षिणसागर
(ब्रह्मपुत्र) से निकाला था।। १८१ ।।
वैशाखशुक्लपक्षस्य
तृतीयायां नरस्तु यः ।
कुर्याद् वै
ललितास्नानं स शम्भुसदनं व्रजेत् ।। १८२ ।।
वैशाख शुक्ल
तृतीया (अक्षय तृतीया) को जो मनुष्य इस ललिता नाम की नदी में स्नान करता है, वह शिवलोक को जाता है ।। १८२ ॥
ललितायाः
पूर्वतीरे भगवान्नाम पर्वतः ।
स्वयं
विष्णुर्लिङ्गरूपी तत्रास्ते भगवान् हरिः ।। १८३ ।।
ललिता के
पूर्वी तट पर भगवान् नाम का एक पर्वत है जहाँ स्वयं भगवान्-विष्णु, लिङ्गरूप में निवास करते हैं ॥१८३ ॥
ललितायां नरः
स्नात्वा द्वादश्यां शुक्लपक्षके ।
भगवन्तं
समारुह्य यो यजेत् परमेश्वरम् ।
स याति
विष्णुसदनं शरीरेण विराजता ।। १८४ ।।
शुक्लपक्ष की
द्वादशी तिथि को जो मनुष्य, ललिता नदी में स्नान कर भगवान् पर्वत पर चढ़कर परमेश्वर का पूजन करता है,
वह अपने वर्तमान शरीर से ही विष्णुलोक को जाता है ।। १८४ ॥
एताः
पूर्वोदिता नद्यः सर्वाश्चैवोत्तरस्रवाः ।
क्रमात् तु
दक्षिणं यान्ति सागरं जाह्नवीसमाः ।। १८५ ।।
ये पहले बताई
गईं सभी नदियाँ उत्तर की ओर बहने वाली हैं, ये गङ्गा के समान श्रेष्ठ हैं और क्रमशः दक्षिणसागर में जाकर
गिरती हैं ।। १८५ ॥
कामाख्या
प्रथमं दृष्ट्वा स्नात्वा चैवोर्वशीजले ।
य एतासु चरेत्
स्नानं स तु मुक्तिमवाप्नुयात् ।। १८६ ।।
जो साधक पहले
कामाख्यादेवी का दर्शन कर, उर्वशी के जल में स्नान करता है, तत्पश्चात् इन
नदियों में स्नान करता है, वह मुक्ति प्राप्त करता है ।। १८६
॥
॥ इति
श्रीकालिकापुराणे कामरूपवर्णनेदर्पणादिमाहात्म्यनाम एकोनाशीतितमोऽध्यायः ।। ७९ ।।
श्रीकालिकापुराण
में कामरूपवर्णनेदपर्णादिमाहात्म्यसम्बन्धी उन्नासिवाँ अध्यायं सम्पूर्ण हुआ ।। ७९
।।
आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 80
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