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कर्मकाण्ड

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कालिका पुराण अध्याय ७८

कालिका पुराण अध्याय ७८                      

कालिका पुराण अध्याय ७८ में कामरूपमण्डल वर्णन अंतर्गत मणिकूट माहात्म्य का वर्णन है।

कालिका पुराण अध्याय ७८

कालिका पुराण अध्याय ७८                                         

Kalika puran chapter 78

कालिकापुराणम् अष्टसप्ततितमोऽध्यायः कामरूपवर्णनेमणिकूटमाहात्म्यम्

अथ श्रीकालिका पुराण अध्याय ७८                         

कालिकापुराणम्

।। अष्टसप्ततितमोऽध्यायः ।।

।। मार्कण्डेय उवाच ।।

एतच्छ्रुत्वा तु संवादमुत्तमं शंकरस्य च ।

भैरवस्य तु वेतालसहितस्य महात्मनः ।। १ ।।

भूयश्च सगरो राजा मुनिमौर्वं महामतिम् ।

प्रपच्छ मोदसंहृष्टः सूनृतं चेदमुत्तमम् ।। २ ।।

मार्कण्डेय बोले- भगवान् शङ्कर एवं महात्मा वेताल के सहित भैरव के इस उत्तम संवाद को सुनकर पुनः राजा सगर ने प्रसन्नता से भरकर, महान् बुद्धिमान् और्वमुनि से, यह सत्य एवं उत्तम प्रश्न पूछा ॥ १-२॥

॥ सगर उवाच ॥

विचित्रमिदमाख्यातं भगवन्मुनिसत्तम ।

कामरूपस्य पीठस्य संस्थानं निर्णयं तथा ॥३॥

सगर बोले- हे मुनिसत्तम् ! कामरूपपीठ के संस्थान और निर्णय के विषय में आपके द्वारा यह अद्भुत प्रसङ्ग कहा गया ॥३॥

भूयश्च श्रोतुमिच्छामि विस्तरेण महामते ।

वायव्यस्याथ मध्यस्य पूर्वभागस्य निर्णयम् ॥४॥

हे महामति ! अब मैं पुनः विस्तारपूर्वक क्षेत्र के वायव्य मध्यभाग, पूर्वभाग के निर्धारण के विषय में सुनना चाहता हूँ ॥ ४ ॥

यथा यस्मिन् निष्ठितोऽस्ति महादेवोऽम्बिका तथा ।

तत्सर्वं मुनिशार्दूल कथय श्रोतुमुत्सहे ।। ५ ।।

हे मुनिशार्दूल ! जिस प्रकार से जहाँ-जहाँ महादेव शिव और अम्ब (पार्वती) स्थित हैं, आप वह कहिये। मैं उसे सुनना चाहता हूँ ॥५॥

।। और्व उवाच ।।

उक्तो वायव्य भागस्य निर्णयो नृपसत्तम ।

नैर्ऋत्योत्तरमध्येंद्रेः शृण्विदानीं विनिर्णयम् ।।६।।

और्व बोले- हे राजाओं में श्रेष्ठ ! मेरे द्वारा आपसे कामरूप के वायव्य- भाग का निर्णय कहा गया। अब उसके नैर्ऋत्य, उत्तर, मध्य, ऐन्द्री (पूर्व) दिशाओं की स्थिति के विषय में, मुझसे सुनो ॥६॥

बहुरोका नाम नदी करतोया प्रदक्षिणे ।

उत्तरश्रवणी चास्ते तत् पूर्वं कामरूपकम् ।।७।।

करतोया नदी के दक्षिण भाग में बहुरोका नाम की एक नदी है जो उत्तर की ओर बहती हुई, कामरूप के पूर्वभाग में स्थित है ॥७॥

सुरसो नाम जीमूतः कामरूपं ततः स्थितः ।

निःसृता बहुरोकेति नदी तस्माद् वृषप्रदा ॥८॥

तत्पश्चात् कामरूप में एक सुरस नाम का जीमूत (पर्वत) है जिससे बहुरोका नामक नदी निकली है जो वृष प्रदान करने वाली है ॥ ८ ॥

आसन्ने सुरसाख्यस्य शिवलिङ्गो महावृषः ।

माहेश्वरी तत्र देवी योनिमण्डलरूपिणी ।।९।।

सुरस के समीप ही एक महावृष नाम का शिवलिङ्ग है । वहाँ देवी महेश्वरी, योनिमण्डल के रूप में स्थित हैं॥९॥

स्नात्वा तु बहुरोकायामारुह्य सुरसाचलम् ।

महावृषं पूजयित्वा महादेवीं महेश्वरीम् ।

धूतपापो जितद्वन्द्वः पुनर्योनौ न जायते ।।१०।।

बहुरोका नदी में स्नान कर, सुरस नामक पर्वत पर चढ़कर, शिवरूप महावृष तथा महेश्वरी देवी का पूजन कर साधक, पाप रहित हो, द्वन्द्व को जीत कर, पुनः किसी योनि में उत्पन्न नहीं होता, जन्म नहीं लेता । । १० ॥

चतुर्भुजो वृषारुढो वरदाभयशूलधृक् ।

शुद्वस्फटिकसंकाशो जटावान् स महावृषः ।। ११ ।।

अघोरस्य तु मंत्रेण पूजाऽस्य परिकीर्तिता ।। १२ ।।

वे महावृष, वरद और अभय मुद्राओं तथा शूल धारण कीये, चार भुजाओं से युक्त हो, वृषभ पर सवार हैं। वे शुद्ध स्फटिक के समान आभा वाले हैं तथा जटावान् हैं। उनकी पूजा, अघोरमन्त्र से कही गई है ।११-१२ ॥

कामेश्वर्याः स्वरूपं तु माहेश्वर्याः प्रकीर्तितम् ।

पूजापि यद्वदेवास्यास्तद्वत्फलप्रदायिका ।।१३।।

कामेश्वरी का स्वरूप ही महेश्वरी का भी बताया गया है । उनकी पूजा भी उन्हीं की भाँति दी गई है तथा वे उन्हीं की भाँति फल प्रदान करने वाली भी हैं ।। १३ ।।

तत्र वसिष्ठकुण्डं तु वसिष्ठमुनिसेवितम् ।

यत्र स्थितो वसिष्ठस्तु नरकेण निवारितः ।। १४ ।।

वहीं वशिष्ठ मुनि द्वारा सेवित, वशिष्ठ कुण्ड है जहाँ निवास करते हुये वशिष्ठमुनि, नरकासुर द्वारा रोके गये थे ॥१४॥

अप्राप्य गन्तुं जीमूतं नीलाख्यं वाशपत्तु तम् ।

स्वस्नानार्थं कृतं तत्र कुण्डं देवगणार्चितम् ।

तत्र स्नात्वा नरो याति नाकपृष्ठं यथेच्छया ।। १५ ।।

नील नामक पर्वत पर न जा पाने पर उन्होंने उसे (नरकासुर को) शाप दे दिया तथा अपने स्नान हेतु वहाँ देव गणों से पूजित एक कुण्ड का निर्माण किया। जहाँ स्नान करके मनुष्य, इच्छानुसार स्वर्गलोक को जाता है ॥१५॥

सुरसस्य च पूर्वस्यां कृत्तिवासाह्वयो गिरिः ।

कृत्तिवासाः स्वयं तत्र सत्या सहावसत् पुरा ।। १६ ।।

चन्द्रिकाख्या नदी यत्र तस्यां स्नात्वा दिवं व्रजेत् ।। १७ ।।

सुरस की पूर्व दिशा में कृत्तिवास नाम का पर्वत है, जहाँ स्वयं भगवान् कृत्तिवास (शिव) ने प्राचीनकाल में सती के साथ निवास किया था। वहीं चन्द्रिका नाम की एक नदी बहती है जिसमें स्नान करके मनुष्य, स्वर्ग को जाता है।।१६-१७ ।।

चन्द्रिकायां नरः स्नात्वा सम्पूज्य कृत्तिवाससम् ।

भाद्रशुक्लचतुर्थ्यां तु निष्कलङ्को भवेन्नरः ।।१८।

भादो के शुक्लपक्ष की चतुर्थी को चन्द्रिका नदी में स्नान कर तथा कृत्तिवास (शिव) का पूजन कर, मनुष्य निष्कलङ्क हो जाता है ॥१८॥

पूर्ण भाद्रपदं मासं चन्द्रिकायां नरोत्तमः ।

स्नात्वा गच्छति भूतेशं दृष्टैव कृत्तिवाससम् ।

उत्तरस्राविणीं नित्यं चन्द्रिकाख्या सरिद्वरा ।। १९ ।।

पूरे भाद्रपद महीने भर चन्द्रिका नदी में स्नान कर, कृत्तिवास के दर्शनमात्र से मनुष्यों में उत्तम मनुष्य, भूतेश शिव को प्राप्त करता है। नदियों में श्रेष्ठ यह चन्द्रिका नाम की नदी, नित्य उत्तर की ओर बहने वाली है ।। १९ ।।

नातिदूरे चन्द्रिकायाः पूर्वस्यां दिशि फेनिला ।

संज्ञया च सरिच्छ्रेष्ठा शतानन्दावतारिता ।। २० ।।

ब्रह्मणो दुहिता सा तु गङ्गा पर्वतसम्भवा ।। २१ ।।

चन्द्रिका से थोड़ी ही दूरी पर, पूर्व दिशा में एक फेनिला नाम की श्रेष्ठ नदी बहती है जो ब्रह्मा की पुत्री, पर्वत से निकली हुई गङ्गा है, जिसे शतानन्द धरती पर लाये थे। । २०-२१।।

फेनिलायां नरः स्नात्वा ब्रह्मोत्थानदिने पुनः ।

फाल्गुने मासि नरकं जित्वा स्वर्गमवाप्नुयात् ।। २२ ।।

फेनिला में ब्रह्मोत्थान दिवस (देवोत्थान एकादशी) को या पूर्ण फाल्गुनमास-भर स्नान कर, मनुष्य नरक को जीत कर, स्वर्ग को प्राप्त करता है ।। २२ ॥

ततः सिताह्वया पूर्वं सरिदुत्तरगामिनी ।

तस्यां स्नात्वा महाचैत्र्यां गङ्गास्नानफलं लभेत् ।। २३ ।।

वहाँ से पूर्व में उत्तर दिशा की ओर बहने वाली सिता नाम की एक नदी है, उसमें महाचैत्री (महावारुणी) के अवसर पर स्नान कर, मनुष्य गङ्गा-स्नान का फल प्राप्त करता है ॥२३॥

ततः पूर्वं सुमदना योजनद्वितयान्तरे ।

नदी जनकराजेन समाराध्य वृषध्वजम् ।

हिताय भैरवाख्यस्य सुतीक्ष्णादवतारिता ।। २४ ।।

उससे पूर्व में दो योजन (१६ मील) की दूरी पर सुमदना नाम की एक नदी है जो राजा जनक द्वारा वृषध्वज शिव की भली भाँति आराधना कर, भैरव के हित के लिए सुतीक्ष्ण पर्वत से अवतरित की गई थी ॥२४॥

सुतीक्ष्णं गिरिमारुह्य स्नात्वां सुमदनाजले ।। २५ ।।

माघशुक्लचतुर्थ्यां तु पूजयित्वा महेश्वरम् ।

संप्राप्य सकलान् कामान् शिवलोकाय गच्छति ।। २६ ।।

माघ शुक्लपक्ष की चतुर्थी तिथि को सुमदना नामवाली नदी में स्नान कर तथा सुतीक्ष्ण पर्वत पर चढ़कर, महेश्वर का पूजन कर, मनुष्य अपनी समस्त कामनाओं को प्राप्त कर, शिवलोक को जाता है ।। २५-२६॥

एता नद्यः कामरूपैर्नैर्ऋत्यामुत्तरस्रवाः ।

पीठस्य पूर्वतस्तत्र त्रिपुरा यत्र पूज्यते ।। २७ ।।

ये (उपर्युक्त) नदियाँ कामरूपपीठ के नैर्ऋत्य भाग में जहाँ देवी, त्रिपुरारूप में पूजी जाती हैं, स्थित हैं तथा उत्तर की ओर बहने वाली हैं ॥ २७॥

एवं ते कथितं राजन् महापुण्यदमुत्तमम् ।

कामरूपस्य नैर्ऋत्यां यत्र शम्भुः सदाम्बिका ।। २८ ।।

हे राजन् ! इस प्रकार आपसे कामरूप के उस उत्तम, महान पुण्य- देनेवाले नैऋत्य भाग का वर्णन किया गया, जहाँ शिव, अम्बिका के साथ सदैव निवास करते हैं ।। २८॥

पुनरेव महाराज या नद्यो दक्षिणस्रवाः ।

हिमवत्प्रभवां याताः क्रमशः शृणु भूपते ।। २९ ।।

हे भूपति ! हे महाराज ! आप पुनः उन नदियों के विषय में सुनें, जो हिमालय से निकलकर क्रमश: दक्षिण की ओर बहकर जाने वाली हैं ॥ २९ ॥

अगदस्य नदस्योर्ध्वं भद्राख्या तु महानदी ।

भाद्रे कृष्णचतुर्दश्यां यस्यां स्नात्वा दिवं व्रजेत् ।। ३० ।।

उत्तर में एक भद्रा नाम की महानदी है। जिसमें भाद्रपद के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी तिथि को स्नान कर मनुष्य, स्वर्ग को जाता है ।। ३० ।।

ततः पूर्वसुभद्राख्या नदी पुण्यतमा सदा ।

वैशाखस्य तृतीयायां यस्यां स्नात्वा दिवं व्रजेत् ।। ३१ ।।

उसके पूर्व में सुभद्रा नाम की सदैव पुण्यतमा नदी है जिसमें वैशाख की तृतीया तिथि को स्नान करके मनुष्य, स्वर्ग को जाता है ॥३१॥

ततस्तु मानसा नाम नदी पुण्यतमा मता ।

सरसो मानसाख्यात् तु तृणबिन्द्ववतारिता ।। ३२।।

वैशाखं सकलं मासं तस्यां स्नात्वा नरोत्तमः ।

विष्णुलोकमवाप्यैव ततो मोक्षमवाप्नुयात् ।। ३३ ।।

उसके बाद मानसा नाम की पवित्रतम मानी जाने वाली वह नदी है। जो राजा तृण-बिन्दु द्वारा मानससर से अवतरित की गई है। उसमें सम्पूर्ण वैशाखमास- पर्यन्त स्नान करके, मनुष्यों में श्रेष्ठ पुरुष, पहले विष्णुलोक को प्राप्त करता है, तत्पश्चात् मोक्ष को प्राप्त करता है ।। ३२-३३ ।।

हिमवन्निकटे शैलो विभ्राटः स महाद्युतिः ।

यस्मिन् वसति भूतेशः सदा भैरवरूपधृक् ।। ३४ ।।

हिमालय के निकट ही एक विभ्राट् नामक पर्वत है। वह महान् चमक से सुशोभित है जिस पर स्वयं भगवान् भूतेश्वर, शिव, भैरवरूप धारण कर निवास करते हैं।। ३४।।

तस्मात् तु भैरवी नाम नदी पुण्योदका शुभा ।

प्राङ् मानसाद्या स्रवति गङ्गेव फलदायिनी ।। ३५ ।।

मानसानदी के पूर्वभाग में उस विभ्राट पर्वत से निकली हुई, भैरवी नाम की, पवित्र, जलवाली, गङ्गा की भाँति फल देने वाली, एक शुभकारिणी नदी बहती है ।। ३५ ।।

यस्यां वसन्तसमये स्नात्वा गच्छति वै दिवम् ।

यस्यां सम्पूज्य कामाख्यामिष्टं ज्ञानमवाप्नुयात् ।

सम्पूज्याथ महामायां द्विगुणं प्राप्नुयात् फलम् ।। ३६ ।।

जिसमें वसन्त समय में स्नान करके मनुष्य, स्वर्ग को जाता है तथा जिसमें (जिसके जल से) कामाख्या देवी की पूजा कर अभीष्ट ज्ञान प्राप्त करता है। तत्पश्चात् महामाया का भली भाँति पूजन कर दूना फल प्राप्त करता है ॥ ३६ ॥

ऊर्ध्वं ततो देवगङ्गा वर्णासाख्या सरिद्वरा ।

हिमवत्प्रभवा नित्यं फलदा मानसोपमा ।। ३७।।

उससे ऊपर देवगङ्गा वर्णासा नाम की वह श्रेष्ठ नदी है जो नित्य हिमालय से निकलती है तथा मानससरोवर के समान फल देने वाली है ॥३७॥

सुभद्राद्यास्तु याः प्रोक्ता वर्णासान्ताः सरिद्वराः ।

हिमवत् प्रभवास्तास्तु सर्वा एवोत्तरप्लवाः ॥३८॥

सुभद्रा से प्रारम्भ कर वर्णासा पर्यन्त जिन श्रेष्ठ नदियों का वर्णन किया गया है। वे सभी हिमालय से निकलकर उत्तर की ओर बहने वाली नदियाँ हैं ॥३८॥

पूर्वेतु मदनारास्तु ब्रह्मक्षेत्रस्य पश्चिमे ।

रविक्षेत्रं यत्र देव आदित्यः सततं स्थितः ।। ३९ ।।

मदनारा के पूर्व तथा ब्रह्मक्षेत्र के पश्चिम में रविक्षेत्र नामक वह स्थान है, जहाँ आदित्यदेव (सूर्य) निरन्तर स्थित रहते हैं ।। ३९ ॥

भैरवस्य हितार्थाय यत्र सर्वेश्वराः स्थिताः ।। ४० ।।

कामरूपे महापीठे ब्रह्मेन्द्रवरुणादयः ।

तदा तत्त्वाह्वये शैले श्रीसूर्योऽपि व्यवस्थितः ।।४१ ।।

भैरव के कल्याण के लिए ब्रह्मा, इन्द्र, वरुण आदि समस्त देवता कामरूप नामक महान् पीठ में स्थित हुए तभी तत्त्व नामक पर्वत पर श्री सूर्यदेव भी व्यवस्थित किये गये थे ॥४०-४१ ॥

त्रिस्त्रोता नाम यस्यास्ति नदी पूर्वदिशि स्थिता ।

कपोतकरणं पश्चादस्य कुण्डद्वयं स्थितम् ।।४२।।

जिसके पूर्व दिशा में त्रिस्रोता (तिस्ता) नाम की नदी तथा उसके बाद कपोत तथा करण नामावाले दो कुण्ड स्थित हैं ॥ ४२ ॥

कपोतकुण्डे विधिवत् स्नात्वा करणकुण्डके ।

तत्त्वाचलं समारुह्य सम्पूज्य च दिवाकरम् ।

सकृदेव नरो याति भास्करस्य गृहं प्रति ।। ४३ ।।

विधिपूर्वक कपोत कुण्ड और करण कुण्ड में स्नान करने के पश्चात् तत्त्वाचल पर चढ़कर एक बार सूर्य भगवान् का पूजन करने से मनुष्य, भाष्कर के गृह, सूर्यलोक को जाता है ॥ ४३ ॥

सूर्यरश्मिसमुद्भूतं कपोतकरणामृतम् ।

पुण्यतोयसमाख्यातं पापं कपोत मे हर ।। ४४ ।।

मन्त्र - सूर्यरश्मिसमुद्धूत.... हर ! मन्त्रार्थ - हे कपोत एवं करण नामक अमृतमय कुण्डों ! तुम सूर्य की किरणों से उत्पन्न हुये हो, पुण्यतोय के नाम से प्रसिद्ध, हे कपोत, तुम मेरे पापों का हरण करो ॥ ४४ ॥

इत्यनेन तु मन्त्रेण स्नात्वा कपोतपुष्करे ।

करणं समुपस्पृश्य तत्त्वशैले रविं यजेत् ।। ४५ ।।

इस मन्त्र से कपोतकुण्ड में स्नान कर करण-कुण्ड के जल का स्पर्श करे तब तत्त्वशैल पर सूर्यदेव का पूजन करे ॥ ४५ ॥

कालिका पुराण अध्याय ७८ ।। आदित्य मन्त्र ॥

त्रिविधं ब्रह्मबीजं तु सहस्रपदमन्ततः ।

रश्मयेऽपि चतुर्थ्यं तु देवोजाया तु चेष्टतः ।। ४६ ।।

अङ्गबीजमिदं प्रोक्तमादित्यस्यातिकामदम् ।।४७ ।।

तीन बार ब्रह्मबीज (ॐ) के पश्चात् सहस्र शब्द और तब रश्मये भी कहे और देवोजाया (स्वाहा) शब्द के प्रयोग से बना, अत्यधिक कामनाओं को पूर्ण करने वाला, "ॐ ॐ ॐ सहस्ररश्मये स्वाहा " यह आदित्य का अङ्गबीज कहा गया है ।।४६-४७।।

कालिका पुराण अध्याय ७८ ।। आदित्य ध्यान ।।

पद्मासनः पद्मकर: पद्मगर्भसमद्युतिः ।

सप्ताश्वः सप्तरज्जुश्च द्विभुजो भास्करः सदा ।।४८ ।।

वर्तुलं मण्डलं चास्य अष्टपत्रसमन्वितम् ।। ४९ ।।

भास्कर, सूर्यदेव, सदैव कमल के आसन पर विराजमान, हाथों में कमल धारण किये हुए, कमल के गर्भ के समान पीताभ चमक वाले, सात रस्सियों को पकड़े हुए, सात घोड़ो से जुते रथ पर स्थित, दो भुजाओं वाले बताये गये हैं। इनका मण्डल, आठ दलों से युक्त वृत्ताकार होता है ।। ४८-४९ ।।

अङ्गुष्ठाग्राङ्गुलीनां च हृदादीनां तथा च षट् ।

अङ्गमन्त्रेण सहित उपान्ते वह्निसंयुतः ।

सर्वन्यासे सुमुद्दिष्ट मंत्र: सर्वफलप्रदः ।। ५० ।।

अंगुष्ठा तथा अङ्गुलियों के अग्र भाग सहित हाथ एवं हृदय आदि छः अङ्गों का न्यास कहा गया है। सभी न्यासों के लिए अङ्ग मन्त्र के सहित वह्नियुक्त उपान्त व्यंजन ह सभी प्रकार का फल देने वाला उत्तम मन्त्र बताया गया है ॥४९-५०॥

हच्छिरस्तु शिखा वर्मनेत्रास्योदरपृष्ठतः ।

बाह्वोः पाण्योर्जङ्घयोस्तु पादयोश्चापि विन्यसेत् ।। ५१ ।।

जघने च समस्तानि क्रमान्मन्त्राक्षराणि च ।

क्रमोच्चोत्तरतः प्रोक्तः पूजने परिकीर्तितः ।। ५२ ।।

हृदय, शिर, शिखा, कवच, नेत्र, मुख, उदर, पीठ, दोनों भुजायें, दोनों हाथ, दोनों टखनों, दोनों पैर, जघन आदि समस्त स्थानों में क्रमशः मन्त्रों के एक-एक अक्षर का न्यास करे। पूजन में आगे-आगे (बाद का) का क्रम बताया गया है ।। ५१-५२ ॥

विसर्जनं तथैशान्यां विद्याद्या दलशक्तयः ।

निर्माल्यधृक् तत्त्वत्चण्डो माठराद्यास्तु पार्श्वयोः ।

बीजमुत्तरतंत्रस्य पूर्वतः प्रतिपादितम् ।। ५३ ।।

इस पूजन में देवता का विसर्जन ईशान कोण में, विद्या आदि आठ दलों की आठ शक्तियाँ, निर्माल्य धारण करने वाला देवता तत्त्वचण्ड और माठर आदि पार्श्ववर्तीगण बताये गये हैं। इस का बीजमन्त्र, पहले ही उत्तरतन्त्र में बताया गया है ॥ ५३ ॥

अनेन विधिना तत्त्वे पूजयित्वा नरोत्तमः ।।५४।।

स कामानखिलान् प्राप्य इहलोके प्रमोदते ।

सुखी शेषे तथा गच्छेद् भास्करस्यालयं प्रति ।। ५५ ।।

इस विधि से भगवान् सूर्य का तत्त्वपर्वत पर पूजन कर, उत्तम साधक, अपनी समस्त कामनाओं को प्राप्त कर, इस लोक में आनन्द से सुखपूर्वक रहता है तथा शेष (अन्त) होने पर वह भास्कर के आलय, सूर्यलोक को जाता है ।। ५४-५५।

नातिदूरे भास्करस्य दक्षिणस्यां शुभाह्वयः ।

तस्योर्ध्वसानौ वसति लिङ्गं शांकरमुत्तमम् ।। ५६ ।

परिवार्य सदा यान्ति महाकायास्तु वानराः ।

परिवार्यावतिष्ठन्ते सेवमानाश्च शङ्करम् ।। ५७ ।।

भास्कर के समीप ही दक्षिण दिशा में शुभ नामक एक पर्वत है जिसकी ऊँची चोटी पर एक उत्तम शिवलिङ्ग स्थित है, जिसे विशालकाय वानर सदैव घेरे रहते हैं। तथा उसे घेर कर शङ्कर की सेवा में लगे रहते हैं ।। ५६-५७।।

त्रिस्रोतायां नरः स्नात्वा यः पश्येत् तु शुभाचले ।

महात्मानं महादेवं काममिष्टं लभेन्नरः ।।५८।।

त्रिस्रोता नामवाली नदीं में स्नान कर जो मनुष्य, शुभाचल पर महान आत्मावाले भगवान शिव का दर्शन करता है। वह अपनी अभीष्ट कामनाओं को प्राप्त कर लेता है ॥५८॥

ततः पूर्वं सुरनदी नाम्ना कुसुममालिनी ।

क्षीरोदाख्यापरा तस्मात् ते गते दक्षिणत्रवे ।। ५९ ।।

एते अपि महाराज पुण्यतोयेऽमृतस्रवे ।

तयोः स्नात्वा नरो याति शङ्करस्यालयं प्रति ।। ६० ।।

उसके पूर्व में एक कुसुममालिनी नामवाली देवनदी (गङ्गा) तथा दूसरी क्षीरोदा नाम की नदी, उसी से निकली है। ये दोनों ही नदियाँ दक्षिण की ओर जाती हैं । हे महाराज ! ये दोनों ही नदियाँ पवित्र जलवाली एवं अमृत बहानेवाली हैं। उन दोनों में स्नान कर, मनुष्य शिवलोक को जाता है ॥५९-६० ।।

ततोऽपि पूर्वतो देवीलीलाख्या चापरा नदी ।

यस्यां स्नात्वा महानद्यां शिवलोकाय गच्छति ।। ६१ ।।

उससे भी पूर्व में देवीलीला नामवाली, एक अन्य महानदी बहती है जिसमें स्नान कर मनुष्य शिवलोक को जाता है॥६१॥

ततः पूर्व शिवाचण्डी चण्डिकाख्या महानदी ।

निर्याति धवलाख्यात् तु पर्वतात् सुमनोहरात् ।। ६२ ।।

उसके पूर्व में शिवा चण्डी- चण्डिका नाम वाली एक महान् नदी है जो धवल नामक सुन्दर पर्वत से निकलती है ॥ ६२ ॥

शिवलिङ्गद्वयं तत्र नातिदूरे व्यवस्थितम् ।

गोलोकं चाथ शृङ्गं च क्रोशमात्रान्तरे स्थितम् ।। ६३ ।।

वहीं मात्र एक कोश (२ मील) के अन्तर से गोलोक एवं श्रृंग नाम के दो शिवलिङ्ग, चण्डिका नदी के समीप ही स्थित है ॥ ६३॥

चण्डिकायां नरः स्नात्वा आरुह्य धवलाचलम् ।

दक्षिणं सागरं वीक्ष्य स्पृष्ट्वा गोलोकसंज्ञकम् ।। ६४ ।।

ततोऽवतीर्य च पुनः शृङ्गिणं भूमिपीठकम् ।

शिवपूजाविधानेन पूजयित्वा महेश्वरम् ।। ६५ ।।

अश्वमेधस्य यज्ञस्य फल सम्प्राप्य मानवः ।

सर्वान् कामानवाप्येह देहान्ते शिवतां व्रजेत् ।। ६६ ।।

एता याः कथिता नद्यः सर्वा वै दक्षिणस्रवाः ।।६७।।

चण्डिका नदी में स्नान कर, धवलाचल पर चढ़कर, दक्षिण सागर का दर्शन तथा गोलोक नामक शिवलिङ्ग का स्पर्श करके, वहाँ से पुनः धरातल पर उतर कर, शृङ्ग महेश्वर की, शिवपूजा की विधि से पूजन करके, मनुष्य, अश्वमेधयज्ञ का फल प्राप्त करता है एवं अपनी सभी कामनाओं को प्राप्त कर, देहान्त के पश्चात शिवत्व को जाता है (प्राप्त करता है)। ये जो नदियाँ कही गई है वे सभी दक्षिण की ओर बहने वाली हैं ।। ६४ - ६७।।

तस्मादीशानकाष्ठायां पर्वतो गन्धमादनः ।

यत्र भृङ्गाह्वयं लिङ्गं शिवस्यास्ते महत्तरम् ।

स एव पर्वतश्रेष्ठः प्राप्तः क्षेत्रस्य पश्चिमे ।। ६८ ।।

उस (कामरूपपीठ) से ईशान दिशा में गन्धमादन नामक पर्वत है जहाँ शिव का एक भृङ्ग नामक विशाल लिङ्ग है। यही पर्वत श्रेष्ठ, क्षेत्र के पश्चिमी भाग तक फैला हुआ है॥ ६८ ॥

धृत्वा ब्रह्मशिलां देवीं सावित्री प्रतिगामिनी ।

गन्धमादनकस्यान्ते भृङ्गेशस्य पदद्वयम् ।

स्रवद्गङ्गाजलं चास्ते कुण्डं तत्रान्तरालकम् ।। ६९ ।।

सावित्री की ओर जाने वाली ब्रह्मशिला को धारण कर, गन्धमादन पर्वत के अन्त में भृङ्गेश के दो चरण, स्थित हैं। जिनसे सदैव गङ्गाजल बहता रहता है। वहीं अन्तरालक नाम का एक कुण्ड भी है ॥ ६९ ॥

अन्तरालककुण्डे तु स्नात्वा पीत्वा च तज्जलम् ।। ७० ।।

भृङ्गेशस्य ततो दृष्टा शिलासंस्थं पदद्वयम् ।

पूजयित्वा महाभृङ्गं गाणपत्यमवाप्नुयात् ।। ७१ ।।

अन्तरालक कुण्ड में स्नान कर, उसके जल को पीकर, भृङ्गेश का तथा ब्रह्मशिला पर स्थित उनके दोनों पैरों का पूजन कर साधक, महाभृङ्ग नाम से गणों के स्वामीत्व को प्राप्त करता है।।७०-७१ ॥

शम्भुपादसमुद्भूतमन्तरालदृशाकरम् ।

वृषध्वजपदानां त्वं संयोजय महावृष ।।७२।।

इत्यनेन तु मन्त्रेण स्नानं कृत्वान्तराजले ।

भृङ्गदेवं ततः पश्येत् कुब्जपीठान्तवासिनम् ।। ७३ ।।

मन्त्रार्थ - शिव के चरणों से उत्पन्न अन्तरालक में एकत्रित होने वाले हे `महान् (जलस्रोत) वृष ! तुम मुझे वृषध्वज शिव के चरणों में लगाओ, इस अर्थ वाले शम्भुपाद - महावृष मन्त्र से अन्तरालक के जल में स्नान कर, कुब्जपीठ के अन्त में निवास करने वाले भृङ्गेश का दर्शन करना चाहिये ।। ७२-७३।।

मणिकूटस्याथ गिरेर्गन्धमादनकस्य च ।

मध्ये स्रवति लौहित्यो ब्रह्मणाग्निसमुत्थितः ।

वर्णाशाया दक्षिणस्यां लौहित्यो नाम सागरः ।।७४ ।।

ब्रह्मा के अग्नि (वीर्य) से उत्पन्न, लौहित्य (ब्रह्मपुत्र) नाम वाला, महान् नद मणिकूट और गन्धमादन पर्वतों के बीच से बहता है। यह लौहित्य नामक सागर (महानद), वर्णाशा से दक्षिण में स्थित है (कालिका पुराण में यही दक्षिण, सागर नाम से अभिहित है) ।। ७४ ।।

मणिकूटः स्थितः पूर्वे हयग्रीवो हरिर्यतः ।।७५।।

स हयग्रीवरूपेण विष्णुर्हत्त्वा ज्वरासुरम् ।

निहत्य स हयग्रीवः क्रीडायै यत्र संस्थितः ।।७६ ।।

पूर्व में मणिकूट पर्वत स्थित है जहाँ हयग्रीव, हरि (भगवान् विष्णु), हयग्रीव रूप में विराजमान हैं। क्योंकि ज्वरासुर को मारने के पश्चात् वहीं विष्णु, हयग्रीवरूप में क्रीड़ा हेतु स्थित हैं ।। ७५-७६ ।।

हत्वा ज्वरं तथा विष्णुस्तत्र वासयथाकरोत् ।

नरदेवासुरादीनां यथा भवति वै हितम् ।। ७७ ।।

ज्वर नामक असुर को मारकर विष्णु ने वहाँ इस प्रकार निवास किया जिससे देवता, असुर और मनुष्य सभी का कल्याण हो ॥७७॥

ज्वरेणापीडिततनुर्ज्वरं हत्वा महासुरम् ।

सर्वलोकहितार्थाय सोऽगदस्नानमाहरत् ।।७८।।

ज्वर से पीड़ित शरीर वाले हयग्रीव ने समस्त लोक के हित के लिए ज्वर नामक उस महान् असुर को मार कर रोगमुक्ति स्नान किया ॥७८॥

अगदस्नानसम्भूतं संजातं च महासरः ।

तस्य स्वयं हयग्रीवो नाम चक्रेऽपुनर्भवम् ।। ७९ ।।

उनके अगद स्नान से एक महान् सरोवर निर्मित हो गया जिसे स्वयं भगवान् हयग्रीव ने अपुनर्भव नाम दिया ।। ७९ ।।

न पुनर्जायते यस्मात् तत्र स्नात्वा नरोत्तमः ।

अपुनर्भवसंज्ञं तत् सरस्तु परिकीर्तितम् ।।८० ॥

इसमें स्नान करने से श्रेष्ठ पुरुष को पुनः जन्म नहीं लेना पड़ता इसीलिए वह सरोवर अपुनर्भव कहा गया है॥८०॥

मणिकूटाचले विष्णुर्हयग्रीवस्वरूपधृक् ।

शतव्यामप्रमाणेन विस्तरेणैव शोभितम् ।। ८१ ।।

मणिकूटाचल पर भगवान् विष्णु, हयग्रीवरूप धारण कर एक सौ व्याम (परोसा) के क्षेत्र में विस्तार से शोभायमान हैं ॥ ८१ ॥

तस्मात् पूर्वे भद्रकामः पर्वतस्तु त्रिकोणकः ।

यत्र कालहयो नाम शिवलिङ्गो व्यवस्थितः ।। ८२ ।।

उससे पूर्वभाग में भद्रकाम नामक एक त्रिकोणाकार पर्वत है जिस पर कालहय नामक एक शिवलिङ्ग विशेषरूप से स्थित है ॥ ८२ ॥

तस्यासन्ने दक्षिणस्यामपुनर्भवकुण्डकम् ।

अपुनर्भूसरस्तीरे पर्वते भद्रकामदे ।। ८३ ।।

हरवीथीति विख्याता शिला ब्रह्मस्वरूपिणी ।

तत्र योगी महादेवो योगज्ञो ध्यानतत्परः ।

यं दृष्टा योगवान् मर्त्यो मृतो मोक्षमवाप्नुयात् ।। ८४ ।।

उसी के समीप अपुनर्भव कुण्ड से दक्षिण दिशा में अपुनर्भव सर के तट पर स्थित, भद्रकामद पर्वत पर हरवीथि नाम से ब्रह्मस्वरूपिणी एक शिला है। ध्यान में तत्पर योगी महादेव जो योग के ज्ञाता हैं, उसी पर स्थित हैं। जिन्हें देखकर मनुष्य को जीते जी योग प्राप्त होता है तथा मरने पर वह मोक्ष को प्राप्त करता है ।।८३-८४ ।।

तस्यामेव शिलायां तु गोकर्णो नाम शङ्करः ।

गोकर्णो  निहतो येन अन्धकस्य सखा पुरा ॥८५ ।।

उसी शिला पर उन भगवान् शङ्कर का गोकर्ण नामक शिवलिङ्ग भी स्थित है, जिन शङ्कर के द्वारा प्राचीनकाल में अन्धक का मित्र, गोकर्ण नामक असुर मारा गया था ।। ८५ ।।

गोकर्णस्य तथैशान्यां केदारः शम्भुरन्ततः ।

ततोऽन्धकसमः प्रोक्तः कमलाकर भोगधृक् ॥ ८६ ।।

गोकर्ण से ईशान दिशा में शम्भु के समीप, केदार है जो कमलाकर के भोग को धारण करता है। वह गोकर्ण के मित्र अन्धक के समान कहा गया है ॥८६॥

यत्रास्ति शम्भुः केदारः स गिरिर्मदनाह्वयः ।

तत्रैव कमलः प्रोक्त स महात्मालयप्रदः ।। ८७ ।।

और जहाँ पर केदार नामक शिव स्थित हैं, वह मदन नाम का एक पर्वत है। वहाँ एक कमल बताया गया है जो महात्मात्ओं का आश्रय स्थल है ॥८७॥

स्नात्वाऽपुनर्भवजले दृष्ट्वा गोकर्णयोगिनौ ॥८८॥

केदारकमलौ दृष्ट्वा मुक्तिर्माधवदर्शने ।

दृष्ट्वा तु माधवं देवं ततः कामं विलोकयेत् ॥। ८९ ।।

कामं विलोक्य तत्रस्थो निरीक्षेदपुनर्भवम् ।

एवं कृत्वा पीठयात्रामनेन क्रमयोगतः ।। ९० ॥

सप्तपूर्वान् सप्तपरानात्मानं दशपञ्च च ।

पितॄनुद्धृत्य त्रिदिवं नयेत् स पुरुषोत्तमः ।। ९१।।

यदि उत्तम पुरुष, अपुनर्भव के जल में स्नान कर, गोकर्ण तथा योगी नामक शिवरूपों का दर्शन कर, केदार और कमल का दर्शन कर, मुक्ति और माधव के दर्शन करे तत्पश्चात् माधव देव का दर्शन करने के बाद, काम का दर्शन करे। काम के दर्शन के अनन्तर वहीं स्थित अपुनर्भव का पुनः दर्शन करे, तो इस क्रम रूप से पीठय़ात्रा करने से पुरुषों में श्रेष्ठ वह, अपने सहित सात पहले तथा सात बाद के, कुल १५ पितरों का उद्धार कर, उन्हें स्वर्ग में ले जाता है ।। ८८- ९१ ॥

विष्णुस्थान समुद्भूतापुनर्भवहरीश्वर I

पापं हर स्वर्ग हेतोर्जितसङ्गमहोदधे ।

अनेनैव तु मन्त्रेण स्नायाद् वीरोऽपुनर्भवेत् ।। ९२ ।।

मन्त्रार्थ - हे विष्णु के स्थान से उत्पन्न अपुनर्भव नामक जल के ईश्वर ! मेरे पापों को दूर करो। हे महोदधि ! तुम स्वर्ग के लिए सङ्ग से परे हो। इस विष्णुस्थान- महोदये मन्त्र से यदि स्नान करे तो वीर साधकं पुनः न जन्म लेने वाला हो जाता है ॥ ९२ ॥

हयग्रीवस्य तन्त्रं तु पुरैव प्रतिपादितम् ।

रूपं शृणु महाराज चिन्तयेत् तस्य यादृशम् ।।९३।।

हयग्रीव का तन्त्र तो पहले ही कहा जा चुका है। अब हे महाराज ! उनके जिस रूप का ध्यान करना चाहिये, उसके विषय में सुनिये ॥ ९३ ॥

कालिका पुराण अध्याय ७८ ।। हयग्रीव ध्यान ।

कर्पूरकुन्दधवलः सितपद्मोपरिस्थितः ।

चतुर्भुजःकुण्डलादिनानालङ्कारभूषितः ।। ९४ । ।

वे कपूर और कुन्द के समान श्वेतवर्ण के हैं। वे श्वेतकमल के ऊपर स्थित हैं, चार भुजाओं से युक्त तथा कुण्डल आदि विविध आभूषणों से सुशोभित हैं ॥ ९४ ॥

वरदाभयहस्तस्तु वामहस्तद्वयेन तु ।। ९५ ।।

पुस्तकं सितपद्मं च धत्ते हस्तद्वयेऽपरे ।

श्रीवत्सकौस्तुभोरस्कः कचिच्च गरुडासनः ।। ९६।।

वे अपने दोनों बायें हाथों में वरद और अभय मुद्रायें तथा दूसरे (दाहिने) दोनों हाथों में क्रमश: पुस्तक एवं श्वेतकमल धारण किये हैं तथा हृदय में श्रीवत्स और कौस्तुभमणि धारण करते हैं, कभी-कभी वे गरुड़ पर भी विराजमान होते हैं ।। ९५-९६ ।।

सर्वं उत्तरतन्त्रोक्तः क्रमो ग्राह्यः प्रपूजने ।

विष्वक्सेनो हयारेस्तु निर्माल्यधृग् विसर्जने ।। ९७ ।।

उत्तरतन्त्र में कहा गया समस्त क्रम ही इनके विशेष पूजन में भी ग्रहण करना चाहिये। हयग्रीव के विसर्जन के समय निर्माल्य धारण करने वाले विष्वक्सेन हैं ।। ९७॥

शिलारूपप्रतिच्छत्र: सदास्ते गरुडध्वजः ।

क्रीडमानोऽथ गन्धर्वैः स्थितो लोकहिताय च ।। ९८ ।।

वहाँ गरुड़ध्वज विष्णु, गन्धर्वो के साथ सदैव क्रीड़ा करते हुये, लोक के कल्याण के लिए, प्रच्छन्नरूप से शिलारूप में स्थित रहते हैं ॥ ९८ ॥

हयग्रीवस्य मन्त्रस्य सिद्धिर्लक्षद्वयेन तु ।

यावकैः पायसैराज्यैर्होमं कुर्वन् पुरश्चरेत् ।।९९।।

हयग्रीव मन्त्र की सिद्धी दो लाख मन्त्र जप करने से होती है। यावक (हलुये), खीर, और घी से होम करते हुये पुरश्चरण करना चाहिये ।। ९९ ।।

एकेनैव तु राजेन्द्र पुरश्चरणकर्मणा ।

इष्टसिद्धिमवाप्येह विष्णुलोकमवाप्नुयात् ।। १०० ।।

हे राजेन्द्र ! एक ही पुरश्चरण कर्म सम्पन्न करने से इस लोक में ईष्ट सिद्धि प्राप्त करके साधक, मृत्यु के बाद विष्णुलोक को प्राप्त करता है ॥ १०० ॥

मन्त्रैस्तु पञ्चवक्त्राणां पञ्चमूर्तीन सदार्चयेत् ।

पूर्वे तत्पुरुषादीनां कामादीन् पूजको द्विजः ।। १०१ ।।

पूजा करनेवाला द्विज साधक, पहले कहे गये पञ्चवक्त्र के मन्त्रों से तत्पुरुष आदि तथा काम आदि पाँचों मूर्तियों का सदैव पूजन करे ॥ १०१ ॥

कामस्तत्पुरुषो ज्ञेयो योगीशानः प्रकीर्तितः।

अघोरो हाथ गोकर्णः केदारो वामदेवकः ।

सद्योजातस्तु कमलामन्त्रैस्तैस्तैः प्रपूजयेत् ।। १०२ ।।

इस क्रम में कामलिङ्ग को तत्पुरुष जानना चाहिये, योगी को ईशान कहा गया है, गोकर्ण - अघोर तथा केदार, वामदेव, कमला-सद्योजात हैं। साधक उनकी उन्हीं के मन्त्रों से पूजा करे ।। १०२ ।।

पर्वतश्चैव केदारः शिवगङ्गा तु कालिका ।। १०३ ।।

हयग्रीवस्य पूर्वस्यां केदारस्य तु पश्चिमे ।

छाया भोगाह्वयस्थानं पुरी भोगवती तथा ।। १०४ ।।

केदार, पर्वत तथा कालिका शिवगङ्गा हैं । हयग्रीव से पूर्व तथा केदार के पश्चिम में छायाभोग नामक स्थान एवं भोगवती नामवाली एक नगरी स्थित है ।। १०३-१०४ ।।

यो गच्छेन्मणिकूटाख्यां कौतुकाच्चापुनर्भवम् ।

स सर्वतीर्थयात्राणां फलमाप्नोति मानवः ।। १०५॥

जो मनुष्य, मणिकूट नामक पर्वत तथा अपुनर्भव कुण्ड पर कौतुक से भी जाता है, वह सभी तीर्थो की यात्रा का फल प्राप्त करता है ।। १०५ ॥

ज्येष्ठे मासि सिते पक्षे पञ्चदश्यष्टमीषु च ।

स्नात्वा पुनर्भवजले यः पश्येद् विधिवद्धरिम् ।

स सर्व कुलमुद्धृत्य विष्णुसायुज्यमाप्नुयात् ।। १०६ ।।

जो मनुष्य ज्येष्ठ मास के शुक्लपक्ष की पूर्णिमा और अष्टमी तिथियों में, अपुनर्भव कुण्ड के जल में स्नान कर, विधिपूर्वक श्री हरि (विष्णु) का दर्शन करता है, वह अपने समस्त कुल का उद्धार कर, विष्णु के सायुज्य को प्राप्त करता है॥१०६॥

ज्येष्ठं तु सकलं मासं नित्यं पश्येत् तु यो हरिम् ।

हरौ विलीनतां याति स सर्वैः सहितः कुलैः ।। १०७ ।।

जो सम्पूर्ण ज्येष्ठमास तक नित्य, विष्णु का वहाँ दर्शन करता है, वह अपने समस्त कुल के सहित हरि में विलीन होने का योग प्राप्त करता है ॥ १०७ ॥

एतत् ते कथितं पुण्यं मणिकूटाह्वयं परम् ।

वाराणसीतो ह्यधिकं सिद्धविद्याधरार्चितम् ।। १०८ ।।

यह आपसे जिस मणिकूट नामक पर्वत का वर्णन किया गया, वह परम पुण्यमय तथा वाराणसी से भी अधिक, सिद्ध और विद्याधरों द्वारा अर्चित है ।। १०८ ।।

यः पठेच्छृणुयाद्विप्रो मणिकूटस्य निर्णयम् ।

स सर्ववेदस्य फलं प्राप्नोत्येव न संशयः ।। १०९ ।।

जो विप्र, इस मणिकूट निर्णय प्रसङ्ग को पढ़ता या सुनता है, वह सभी वेदों के अध्ययन का फल प्राप्त करता है। इसमें कोई संशय नही है ॥ १०९ ॥

॥ इति श्रीकालिकापुराणे कामरूपवर्णनेमणिकूटमाहात्म्यनाम अष्टसप्ततितमोऽयायः ॥ ७८ ॥

श्रीकालिकापुराण में कामरूपवर्णनमणिकूटमाहात्म्यनामक अठहत्तरवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ।। ७८ ।।

आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 79 

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