कालिका पुराण अध्याय ७६

कालिका पुराण अध्याय ७६                      

कालिका पुराण अध्याय ७६ में त्रिपुरामहात्म्य अंतर्गत भगवान् शिव द्वारा मन्त्र शुद्धि उनके प्रकार  पुरश्चरण विधि की सम्पूर्ण विधि को बतलाना तथा वेताल भैरव का माँ की स्तुति करना, सिद्धि लाभ मिलना और माता द्वारा उन्हें स्वयं अपना दूध पिलाना का वर्णन है।

कालिका पुराण अध्याय ७६

कालिका पुराण अध्याय ७६                                         

Kalika puran chapter 76

कालिकापुराणम् षट्सप्ततितमोऽध्यायः वेतालभैरवसिद्धिलाभः

अथ श्रीकालिका पुराण अध्याय ७६                         

।। षट्सप्ततितमोऽध्यायः ।।

।। श्रीभगवानुवाच ।।

मन्त्रशुद्धमवेक्ष्यैव गृह्णीयान्मन्त्रमुत्तमम् ।। १॥

श्रीभगवान् बोले- मन्त्र शुद्धि का विचार करके ही उत्तम मन्त्र, ग्रहण करना चाहिये ॥ १ ॥

तत्र सिद्धं सुसिद्धं च साध्यं शात्रवमेव च ।

मन्त्रं  चतुर्विधं प्रोक्तं तद्विद्ध्यक्षर भेदतः ।।२।।

इस विषय में अक्षरभेद से मन्त्र, सिद्ध, सुशिद्ध, साध्य और शात्रव चार प्रकार के कहे गये हैं ॥२॥

वर्णक्रमः शाश्वतस्तु यो मया भाषितः पुरा ।

तत्रादौ भैरव ज्ञात्वा पश्चाच्चक्रं शृणुष्व मे ।

वर्णानां तु मुखादीनां वैष्णवीतन्त्रसंज्ञक ॥३॥

हे भैरव ! वैष्णवीतन्त्र के अन्तर्गत मुख्यवर्णों का जो वर्णक्रम मेरे द्वारा पहले बताया गया, वही शाश्वत है, पहले उसे जानकर, चक्रों के विषय में मुझसे सुनो ॥३॥

यः प्रोक्तोऽभून्महामन्त्रस्तस्यासन्नक्षराणि तु ।

मूलभूतानि तान्येव ततोऽन्यानपि वर्धयेत् ।।४।।

जो पहले महामन्त्र बताया गया है, उसके अक्षर ही मूलभूतवर्ण हैं। उन्हीं से अन्य को विकसित करे ॥ ४ ॥

अकारश्च ककारश्च चटकारौ तथैव च ।

तपकारौ यकारश्च वर्गाद्याः परिकीर्तिताः ।। ५ ॥

, , , , , , य ये अक्षर, वर्णों के वर्गों के, आदि अक्षर कहे गये हैं जो वैष्णवीतन्त्र में मूलभूतरूप में वर्णित हैं॥५॥

अ इ उ ऋ लृ मूल्लैते स्वरा अदीर्घदीर्घकाः ।

ए ऐ ओ औ विसर्गश्च बिन्द्वादियौगिकस्तथा ।

ध्वनेरन्तरजाश्चेति कीर्तितास्तु स्वरा अमी ।। ६ ।।

, , , , , ये मूलस्वर अदीर्घ (ह्रस्व) और दीर्घ दोनों ही प्रकार के होते हैं । ए, , , , विसर्ग एवं बिन्दु (अनुस्वार), ध्वनि के भेद से उत्पन्न,ये वर्ण, यौगिकस्वर कहे गये हैं ॥६॥

खकारगकारौच घ ङो क वर्गः प्रकीर्तितः ।

व्यञ्जनकारादिछजौ टकार: परमस्मृतः ।।७।।

ठकाराश्च डकारश्च भैरवशब्दादिरेव च ।

णकारान्तस्तृतीयोऽयं वर्गोष्ठादिः प्रकीर्तितः ॥८॥

थकारश्च दकारश्व धर्मशब्दादिरेव च ।

नवशब्दस्य चैवादिश्चतुर्थो वर्ग उच्यते ।।९।।

फलशब्दस्य यश्चादिर्बहुशब्दादिरेव च ।

भकारो मनः शब्दादिः पञ्चमो वर्ग उच्यते ।। १० ।।

यकारश्च रकारश्च लकारो वस्तथैव च ।

एभिश्चतुर्भिर्वर्गोऽयं षष्ठो भैरव उच्यते ।। ११ ।।

हे भैरव ! ख, , , , कवर्ग, , , , , चवर्ग, तत्पश्चात् ट, , , भैरव (ड) जिसके आदि में है वह ढ, तथा णकार तक तृतीयवर्ग ट वर्ग है जिसे ओष्ठादि वर्ग भी कहा गया है। थ, द और धर्मशब्द का आदि अक्षर ध, नव शब्द का आदि अक्षर न, यह चौथा वर्ग तवर्ग कहा गया है। फल शब्द का प्रारम्भिक वर्ण फ, बहुशब्द का जो आदि वर्ण ब, भ एवं मन शब्द का आदि वर्ण म, ये पञ्चम वर्ग प- वर्ग कहे गये हैं। य, , ल एवं व इन चारों वर्णों से व्यञ्जनों का छठावर्ग यवर्ग कहा जाता है।।७-११॥

शषसा हः क्षकारश्च संयोगः परिवेदकः ।

पञ्चभिः शेषवर्गोऽयं सप्तमः परिकीर्तितः ।। १२ ।।

, , , , क्ष इन पाँच वर्णों से बना यह अन्तिमवर्ग, संयोग, परिवेदक या सातवाँवर्ग कहा गया है ॥ १२ ॥

संयोगायोगसंलोमप्रतिलोमैरिमे सुत ।

वर्णाः स्युर्मन्त्रानामादौ वाङ्मात्रेऽपि च भैरव ।। १३ ।।

हे पुत्र, भैरव ! संयोग, अयोग, संलोम, प्रतिलोम भेद से ये वर्ण चार प्रकार के होते हैं जो मन्त्रों के आदि में वाणी मात्र में प्रयुक्त होते हैं ।। १३ ।।

चर्तुवर्गप्रदा वर्णाः सुखदुःखकरास्तथा ।

रोगं च तेजसम्पूज्यपूजकाः परिकीर्तिताः ।। १४ ।।

ये वर्ण चारों प्रकार के पुरुषार्थ (अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष), सुख, दुःख, रोग एवं तेज कारक तथा पूज्य और पूजक कहे गये हैं ॥ १४ ॥

अहं विष्णुश्च ब्रह्मा च गायत्री ब्रह्ममातृकाः ।। १५ ।।

अपरं ब्रह्मवर्णार्थ परब्रह्मसुखप्रदम् ।

अपरं ब्रह्मकुशल: परब्रह्मधिगच्छति ।।१६।।

मैं (शिव), विष्णु, ब्रह्मा, ब्रह्ममाता गायत्री और अन्य ब्रह्मवर्ण (विद्योपासकों) के लिए परब्रह्म का सुख देने वाले कहे गये हैं। अन्य साधक भी जो ब्रह्मकौशल (ज्ञान) से युक्त है, वह भी परब्रह्म को प्राप्त करता है ।। १५-१६ ॥

सिसृक्षुरीश्वरो वर्णाज्जगन्ति स्वेच्छया पुनः ।

ससर्ज मम वक्त्रे तां ब्रह्मवक्त्रे च वै न्यधात् ।। १७ ।।

वर्णों से जगत् की इच्छा रखने वाले ईश्वर ने स्वेच्छा से उनकी सृष्टि कर उन वर्णों को मेरे एवं ब्रह्मा के मुख में स्थापित किया ।। १७ ।।

अहं तु सकलान् वर्णान् न्यस्य भैरव तन्त्रकम् ।

अकार बहुलं पुत्र ज्ञानमार्गविवर्धयन् ।। १८ ।।

हे पुत्र भैरव ! मैंने अकार के विस्तारवाले, सभी वर्णों को, ज्ञानमार्ग को बढ़ाते हुये, तन्त्रशास्त्र में न्यस्त किया है ॥ १८ ॥

य इमे गदिता वर्णा मया वर्णविनिश्चये ।

मन्त्रशुद्धिविवेकार्थं वर्णचक्रं ततः शृणु ।। १९ ।।

मन्त्रशुद्धि विवेक हेतु मेरे द्वारा कहे गये ये वर्ण, वर्ण निश्चय (वर्णों के निर्धारण) के लिए कहे गये हैं। अब वर्णचक्र को सुनो ॥ १९ ॥

शक्तिशम्भुस्वरूपिण्यो रेखे द्वे प्रथमं न्यसेत् ।

तन्मध्यतः पुनारेखे विष्णुलक्ष्मीतले तथा ।।२०।।

तयोस्तु रेखयोर्मध्ये द्वे रेखे समतो न्यसेत् ।

तस्य चक्रस्य चारेषु रेखास्तु परिसंख्यया ।। २१ ।।

शक्ति और शिव सम्बन्धी दो रेखायें पहले खींचे, उनके मध्य में विष्णु एवं लक्ष्मी स्वरूपिणी रेखाओं का लेखन कर विष्णु-लक्ष्मी के रेखा के समानान्तर दो रेखाएँ खींचे। इसी प्रकार दूसरी ओर उतनी ही रेखायें उस चक्र के निर्माण हेतु खींचनी चाहिये ।। २०-२१।।

चतस्रस्तु प्रदातव्याः स्वरमध्ये तु भैरव ।

भिन्नानां च तथा वर्णाः सन्धयोऽष्टौ प्रकीर्तिताः ।

नेमयस्तु चतस्रोऽस्य सन्धिमध्येषु कीर्तिताः ।। २२ ।।

हे भैरव ! उसमें चारों ओर स्वरों के बीच में भिन्न-भिन्न वर्ण और आठ संधियों (य से ह तक) के वर्ण कहे गये हैं। इसकी संधियों के मध्य चार नेमियाँ कही गई हैं ।। २२ ।।

अष्टसंयुतं चक्रं चतुर्नेमिसमन्वितम् ।

बहिर्वेष्टनसंयुक्तं वर्णचक्रं प्रकीर्तितम् ।। २३ ।

आठ अक्षरों और चारों नेमियों से समन्वित तथा बाहर से घिरा हुआ चक्र, वर्णचक्र कहा गया है ।। २३॥

मेषादीनां च राशीनामुदयास्तप्रतिज्ञया ।

इदमेव भवेच्चक्रं ज्ञान श्रीवृद्धि कारकम् ।। २४ ।।

मेषादि को आरम्भ और अन्त के क्रम से जोड़ने पर यही वर्णक्रम (संभवतः मन्त्रमहोदधि का अकडमचक्र) साधक के ज्ञान और श्री के विकास का कारक हो जाता है ।। २४ ।।

इदं चक्रं लिखित्वा तु समभूमावुदङ्मुखः ।

प्राङ्मुखो वा लिखेद् वर्णाञ्छुचिरिष्टं नमन् गुरुम् ।। २५ ।।

इस चक्र को सम-भूमि पर, उत्तर मुँह या पूर्व मुँह लिख कर, अपने इष्ट एवं गुरु को नमस्कार करके, पवित्र हो, साधक वर्णों को लिखे ॥ २५ ॥

प्रदक्षिणं लिखेत् तस्मिन् वर्णास्तेष्वेव तु क्रमात् ।

पुरोनेमावकारं तु रकारं चापि वै लिखेत् ।। २६ ।।

अकारं वर्जयेद् दीर्घमीकारं च स्वरेषु वै ।। २७ ।।

उस चक्र में वर्णों को प्रदक्षिणा क्रम (दक्षिणावर्त) से क्रमशः लिखे। पहले नेमियों में क्रमशः अ और र लिखे इस क्रम में स्वरों में आकार एवं दीर्घ ईकार न लिखे ॥ २६-२७॥

अकारादिक्षकारान्तं झ ट ञ ण विवर्जितम् ।

प्रदक्षिणक्रमादेव लिखित्वा वर्णसंचयम् ।। २८ ।।

स्वनामाद्यक्षरं गृह्य कुर्यात् तु गणनक्रमम् ।

मन्त्रस्याद्यक्षरं यावत् सिद्धाद्यं तत्र योजयेत् ।। २९ ।।

झ ट ञ ण वर्णों को छोड़कर अकार से क्षकार पर्यन्त वर्णों को प्रदक्षिणा क्रम से लिखकर अपने नाम के पहले अक्षर से गणना कर साधक, मन्त्र के आदि अक्षर तक गिनकर, सिद्ध साध्यादि की योजना करे ।। २८-२९।।

नवैकपंचके सिद्धः साध्यः षड्युग्मपङ्क्तिषु ।

त्रिसप्तैकादशेष्वेव सुसिद्धः परिकीर्तितः ।

द्वादशाष्टचतुर्थेषु शात्रवः परिकीर्तितः ।। ३० ।।

यह संख्या यदि नव या पाँच हो तो वह मन्त्र साधक के लिए सिद्ध, छः या दो हो तो साध्य, तीन, सात, ग्यारह हो तो सुसिद्ध, चार, आठ, बारह हो तो शात्रव कहा गया है। ३० ॥

सिद्धेनैवाचिरात् सिद्धिः साध्यः कालेन सिध्यति ।

कामान्नाशयते शत्रुः सुसिद्धः सिद्धिदोऽचिरात् ।। ३१ ।।

यो यो वर्णक्रमः प्रोक्तो मन्त्रे दक्षिणगोचरे ।। ३२ ।।

सिद्धमन्त्र की साधना से शीघ्र सिद्धि प्राप्त होती हैं, साध्यमन्त्र विलम्ब से सिद्ध होता है, शत्रु कोटिका मन्त्र कामनाओं का नाश करता है, तथा सुसिद्धमन्त्र शीघ्र ही साधक को सिद्धि प्रदान करने वाला होता है। यहाँ जो वर्ण क्रम कहा गया है, वह दक्षिण भाव से मन्त्र साधना हेतु कहा गया है।। ३१-३२॥

वाम्याराधनमन्त्रेषु क्रमं शृण्विह भैरव ।

ऋलृ द्वयं ङ ऋ णंना वर्ज्याश्च वर्णगोचरे ।

लिखेद् वामक्रमेणैव तत्र वर्णास्तु मंत्रवित् ।। ३३ ।।

भैरव ! अब वाम भाव से आराधन किये जाने वाले मन्त्रों के विषय में सुनो- दोनों ऋ लृ तथा ङ, , , न वर्णों को वर्ण विचार में छोड़ देना चाहिये तत्पश्चात् मन्त्रवेत्ता शेषवर्णों को वामक्रम से लिखे ॥ ३३ ॥

नृसिंहार्कवाराहाणां प्रासादप्रणवस्य च ।

एकाक्षरद्वयक्षराणां न सिद्धादिविचिन्तनम् ।। ३४ ।।

नृसिंह, सूर्य, वाराह के मन्त्रों, प्रासाद मन्त्र, प्रणव, एकाक्षर एवं दो अक्षरों वाले मन्त्रों की दीक्षा में पूर्वोक्त; सिद्ध आदि भेदों का विचार नहीं करना चाहिये ॥ ३४ ॥

बीजेषु चापि सर्वेषु दीक्षार्थेषु च भैरव ।

सिद्धादिचिन्ता नो कार्या ग्राह्यास्तु दश वश्यकम् ।। ३५ ।।

हे भैरव ! सभी प्रकार के बीज मन्त्रों की दीक्षा के लिए भी सिद्ध आदि की चिन्ता नहीं करनी चाहिये। इनका विचार केवल दश वश्य कर्मों में ही करना चाहिये ॥ ३५ ॥

सुसिद्धं कामदं ग्राह्यं साध्यसिद्धविचारणात् ।

न ग्राह्यः शात्रवो धीरैर्गृहीत्वाप्नोति चापदम् ।। ३६ ।।

सुसिद्धमन्त्र कामनाओं को पूर्ण करने वाला होता है अतः उसे अवसर मिलते. ही ग्रहण कर लेना चाहिये, सिद्ध और साध्यमन्त्रों को विचारपूर्वक ग्रहण करना चाहिये किन्तु शत्रु मन्त्र कभी नहीं ग्रहण करना चाहिये क्योंकि यदि इन्हें धीर साधकों द्वारा ग्रहण किया जाय तो ये अनेक प्रकार की आपत्ति प्रदान करने वाले होते हैं ॥ ३६ ॥

यो यस्यैकाक्षरो मन्त्रस्तन्नाम्ना स निगद्यते ।

सहितश्चन्द्रबिन्दुभ्यां तद् बीजमिति गद्यते ।। ३७ ।।

जो जिसका एकाक्षर मन्त्र होता है उसे उसी के नाम से कहा जाता है। नाम का पहला अक्षर ही चन्द्र-बिन्दु के सहित, सम्बन्धित देवता का बीजमन्त्र कहा जाता है ॥ ३७ ॥

यथा शक्रो शकारः स्यात् सार्धचन्द्रः सबिन्दुकः ।

स एव शक्रबीजं स्यात् तथान्यत्रापि योजयेत् ।। ३८ ।।

जैसे शक्र का पहला अक्षर '' अर्धचन्द्र और बिन्दु के साथ इन्द्र देवता का बीजमन्त्र शँ हो जाता है। उसी प्रकार अन्य देवताओं के सम्बन्ध में भी विचार करना चाहिये ॥ ३८ ॥

मन्त्रोद्वारेषु सर्वत्र परतः परतः पुरः।

पूर्वतोऽपि परे कार्यमनुक्तः पूर्वपक्षकः ।। ३९ ।।

जो पहले नहीं बताया गया है, वह यह है कि मन्त्रोद्धारों में सब जगह बाद वालों का पहले प्रयोग करना चाहिए और पहले का बाद में उपयोग करे ।। ३९ ॥

यदा षोडशसाहस्रं वैष्णव्या मन्त्रसञ्चयम् ।

चक्रं निरीक्ष्यते तत्र षोडशारं तु चक्रकम् ॥४०॥

जब वैष्णवी के सोलह हजार मन्त्रों का चक्र, विचार करना हो तो सोलह अरों का चक्र निर्माण कर विचार करना चाहिये ॥४०॥

विंशतिस्तु सहस्राणि त्रिपुराया यदीक्षते ।

द्वात्रिंशारं तत्र चक्रं लेखनीयं सदा बुधैः ।।४१।।

यदि त्रिपुरा के बीस हजार मन्त्रों का विचार करना हो तो विद्वान् साधकों द्वारा सदैव बत्तीस अरों का चक्र बनाना चाहिये ॥४१ ॥

इदमेव महाचक्रं षोडशारादिकं कृती ।

कुर्यादधिकरेखाभिर्मन्त्रशुद्धयन्तरे सुत ।।४२।।

हे पुत्र ! साधक को इसी प्रकार षोडश या इससे अधिक रेखाओं से चक्र निर्माण, मन्त्र शुद्धि के बाद करना चाहिये॥४२॥

इयं ते कथिता पुत्र मन्त्रसिद्धिरभीष्टदा ।

जानाति सम्यक् य इमां स जयी काममाप्नुयात् ।।४३।।

हे पुत्र ! यह अभीष्ट सिद्धि देनेवाली मन्त्रों की सिद्धि, मैंने तुमसे कही। जो विजयी साधक इसे भली-भाँति जानता है, वह अपनी समस्त कामनाओं को प्राप्त कर लेता है ॥ ४३ ॥

रहस्यं परमं पुत्र प्रयोगादिप्रकारतः ।

वक्ष्यामि तत् समासेन शृणु वेतालभैरव ॥४४ ।।

हे वेताल भैरव ! हे पुत्रों ! अब मैं संक्षेप में प्रयोग आदि सहित इनके परम- रहस्य को कहूँगा। तुम दोनों उसे सुनो॥४४॥

कालिका पुराण अध्याय ७६ ॥ प्रयोगविधि ॥

दन्तः पक्षविडालस्य तत् त्वचा परिवेष्टितः ।

निर्माल्येन तु वैष्णव्या तत् संवेष्ट्य गुणत्रयम् ।। ४५ ।।

तत् तद् वा वामसूत्रस्य तत्तन्मन्त्रेण मन्त्रितम् ।

गृहीत्वा दक्षिणे पाणौ मन्त्राणां शतमादितः ।। ४६ ।।

सञ्चयेदथ वैष्णव्या अष्टम्यां नियतेन्द्रियः ॥ ४७ ।।

पक्षविडाल के दाँत को उसकी ही खाल में लपेट कर, वैष्णवी के निर्माल्य से, उसे वामा स्त्री के हाथ से कते, सूत्र से वेष्टित् और अभीष्ट मन्त्र से अभिमन्त्रित कर, इन्द्रिय निग्रहपूर्वक साधक, तीन बार वेष्टित कर, अष्टमी तिथि को उस वैष्णवीमन्त्र को अपनी दाहिने हाथ में बाँधे ॥ ४७ ॥

ततस्तु दक्षिणे बाहौ धार्यं यन्त्रोत्तमं बुधैः ।

ततो द्वादशसिद्धिः स्याद्धर्ताचेन्नाभितित्तिलीम् ।।४८ ।।

तब विद्वान् द्वारा उपर्युक्त उत्तम यन्त्र को अपनी दाहिनी भुजा में धारण करना चाहिये। ऐसा करने से धारण करने वाला यदि वह तित्तिली को प्राप्त न करे (विचलित न हो तो) बारह प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त करता है ।।४८ ।।

जयः संग्रामवादेषु शरीरस्याप्यरोगिता ।

वशकृद्राजपुत्राणां राज्ञामपि च सन्ततम् ।। ४९ ।।

वह युद्ध एवं शास्त्रार्थ या मुकदमें में विजय, शरीर में आरोग्यता, राजाओं व राजपुत्रों (राजकर्मियों) को निरन्तर वश में करने की सामर्थ्य, प्राप्त करता है ॥४९॥

भूतप्रेतपिशाचश्च नो यान्ति नेत्रगोचरम् ।

योषितां समदानां तु वशकृच्चिन्तनात् सकृत ।। ५० ।।

उसे कभी भूत-प्रेत पिशाचादि दिखाई नहीं देते और वह एक बार चिन्तनमात्र से ही प्रमत्त कामिनी को भी अपने वश में करने में समर्थ होता है ॥५०॥

वह रक्त, कफ, धातु तथा वीर्य को भी स्तम्भन करने में समर्थ और अपनी आँखों से ही तेज प्रदान करने वाला हो जाता है ॥ ५१ ॥

मूर्ध्नि पक्षविडालस्य हस्तं दत्त्वा शतत्रयम् ।

वैष्णवीतन्त्रमन्त्रं तु जप्त्वा तं स्थापयेद् गृहे ।। ५२।।

पक्षविडाल के हाथ को सिर पर रखकर, वैष्णवीतन्त्र के मन्त्र का तीन सौ बार जप कर, उसे अपने घर में स्थापित करे ॥५२॥

तं विडालं तु या पश्येन्मलिनी वनिता सुत ।

नापुत्रा सा भवित्री तु कदाचिदपि भैरव ।। ५३ ।।

हे भैरव ! हे पुत्र ! उस विडाल को जो मालिनी (रजोधर्मा) स्त्री देखेगी, वह कभी भी पुत्रहीन नहीं होगी ।। ५३ ।।

तादृक् पक्षविडालस्तु यस्य तिष्ठति मन्दिरे ।

मृतापत्यापि तद्गेहे जीवत् पुत्रा प्रजायते ।।५४।।

उस प्रकार का पक्षविडाल जिसके घर में रहता है, जिसके पुत्र पैदा होके मर जाते हों, ऐसी स्त्री भी उस घर में जीवित पुत्रों वाली हो जाती है ॥५४॥

कोकिलो भृङ्गराजो वा चकोरो वा शुकोऽथवा ।

वैष्णवीतन्त्रमन्त्रेण मन्त्रितो यत्र तिष्ठति ।

विघ्नं न मन्दिरे तस्य भवित्री सुप्रजा भवेत् ।। ५५ ।।

कोयल, भौरे, भृङ्गराज, चकोर अथवा तोते, वैष्णवी मन्त्र से अभिमन्त्रित हो, जहाँ रहते हैं । वहाँ, उस घर में कभी विघ्न नहीं होते तथा सदैव उत्तम सन्तति उत्पन्न होती है ॥ ५५ ॥

न सर्पास्तत्र गच्छन्ति गताः खादन्ति नो नरान् ।

नारी न बन्धकी तस्य मन्दिरेऽपि प्रजायते ।। ५६ ।।

उस घर में कभी सर्प नहीं जाते और यदि चले भी जायँ तो मुनष्यों को डसते नहीं। उस घर में स्त्री कभी वन्ध्या नहीं होती ॥५६॥

पञ्चमूर्तेश्चण्डिकायाः निर्माल्यानि च पञ्चमः ।

तेषां बलीनां मांसेन स्थाल्यां पक्त्वा दिनत्रयम् ।। ५७ ।।

अष्टम्यां तत्पुनर्देव्यै दत्त्वा मन्त्रमन्त्रितैः ।

तोयैरभ्युक्ष्य भुञ्जीयान्मनसा चिन्तयेच्छिवाम् ।।५७।।

पूर्व वर्णित चण्डिका की पाँच मूर्तियों के निर्माल्य और उनके बलिदान को दिये मांस को तीन दिन तक स्थाली में पकाकर अष्टमी को उनके मन्त्रों से अभिमन्त्रित कर, उसे पुनः निवेदित कर, जल से सींचकर, साधक, शिवा का चिन्तन करता हुआ। उसका भोजन करे ।। ५७-५८ ॥

तस्मिन् भुक्ते तु दीर्घायुर्जरा शोकविवर्जितः ।

तेजस्वी शत्रुदमनः कविर्वाग्मी च जायते ।। ५९ ।।

पूर्वोक्त प्रसाद के भोजन से साधक दीर्घायु, बुढ़ापा और शोक से रहित, तेजस्वी, शत्रुओं का दमन करने वाला, कवि और वक्ता हो जाता है ।। ५९ ।।

ललाटे मूर्ध्नि कण्ठे च बाह्वोः पाण्योस्तथा हृदि ।

वैष्णवीतन्त्रमन्त्रस्य यानि चाष्टाक्षराणि च ।। ६० ।।

लिखित्वा तानि चैतेषु स्थानेषु मंत्रविद् बुधः ।

कुङ्कुमं क्षीरमलयजातपङ्कः सुयावकैः ।।६१।।

अष्टम्यां संयतो भूत्वा नवम्यां प्रथमं नरः ।

प्रतिष्ठाने न्यस्य करमष्टावष्टौ जपेद् बुधः ।।६२।।

मन्त्रवेत्ता साधक अष्टमी के दिन संयत हो, कुङ्कुम, दूध, चन्दन, महावर के लेप से, वैष्णवी- तन्त्र-मन्त्र में जो आठ अक्षर कहे गये हैं, उन्हें क्रमशः ललाट, शिर, गला, दोनों भुजाओं, दोनों हाथों तथा हृदय, इन आठ स्थानों पर लिखे। तब नवमी के दिन पहले मनुष्य उन आठों स्थानों पर अपने हाथ रखकर, आठों वर्णों का आठ-आठ बार जप करे।। ६०-६२॥

आवर्तनेन मंत्राणां ततोऽनु पूजयेच्छिवाम् ।

ततस्तस्मिन् दिने देव्यै विजातीयं बलित्रयम् ।। ६३ ।।

जपत्वा सहस्रं मन्त्रस्य संख्यया जपमारभेत् ।

जपान्ते तु हविर्भुक्त्वा संयतो रजनीं नयेत् ।। ६४ ।।

उपर्युक्त रीति से मन्त्र जप के पश्चात् शिवा का पूजन करे और उसी दिन देवी के लिए तीन प्रकार की बलि देकर, एक हजार संख्या में मन्त्र जप आरम्भ करे । जप समाप्त कर, हविष्य का भोजन कर, संयतरूप से वह रात्रि व्यतीत करे ।।६३-६४।।

एवं सकृत्कृते पुत्र रणे तस्य पराजयः ।

कदाचिदपि नो भूयान्न च वादेषु शास्त्रतः ।। ६५ ।।

हे पुत्र ! एक बार भी इस प्रकार से पूजन करने से साधक का युद्ध में, वाद में, शास्त्रार्थ में पराजय नही होता ।। ६५ ।।

विधिमेवं सकृत् कृत्वा रणकाले यथा तथा ।

सदा लिखेत् क्षत्रियस्तु विजयाय रणेषु च ।। ६६ ।।

यदि कोई क्षत्रिय, युद्धकाल में एक बार भी इस विधि से पूजन करे तो उसे पूर्वोक्त फल ही प्राप्त होता है। युद्ध में विजय प्राप्त करने के लिए क्षत्रिय इसे सदा लिखे ॥ ६६ ॥

अपरं तु रणाष्टाङ्गं गृह्यमेतत् प्रकीर्तितम् ।

अनेनैव तु गुह्येन विजयी त्वं भविष्यसि ।। ६७ ।।

अन्य उपायों से विशिष्ट अष्टांग न्यासपूर्वक यह रणविधान, जो अत्यन्त गुप्त है, (हे भैरव अथवा हे राजन्!) उसे मैंने कहा है। इसे जानकर तुम विजयी अर्थात् अपने उद्देश्य प्राप्ति में सफल होगे ॥ ६७ ॥

इति नौ कथितं सर्वं गुह्याद् गुह्यतरं शुभम् ।

सुखसम्पत्करं मन्त्रं यन्त्रतन्त्रसमन्वितम् ।।६८।।

यह मैंने तुम दोनों से गोपनीय से भी गोपनीय (अर्थात् अत्यन्त गोपनीय), शुभ फलदायक, सुख-सम्पत्ति प्रदान करने वाला, यन्त्र और तन्त्र से समन्वित, मन्त्र और उससे सम्बन्धित, सब कुछ कहा है ।। ६८ ।।

यच्छ्रोतुं त्रिदशाः सर्वे नित्यं वाञ्छन्ति चामृतम् ।

तदिदंते समाख्यातं पुत्र वेतालभैरव ।। ६९ ।।

हे पुत्र वेताल और भैरव ! जिस अमृतमय तत्त्व को सुनने की सभी देवगण भी नित्य कामना करते हैं, वही यह मेरे द्वारा तुम दोनों से भली-भाँति कहा गया है ॥ ६९ ॥

एतत् सर्वं तु यो ज्ञात्वा तत्त्वतः पुत्र भैरव ।

स कामानखिलान् प्राप्य नित्यं कैवल्यमाप्नुयात् ।।७० ।।

हे पुत्र भैरव ! जो इन सबको यथार्थरूप में जान जाता है, वह सम्पूर्ण कामनाओं को प्राप्त कर नित्य कैवल्य को प्राप्त करता है ।। ७० ।।

शृणोति यः सकृदिदं कथ्यमानो द्विजोत्तमैः ।

न तस्य विघ्ना जायन्ते नापुत्रः स च जायते ।।७१ ।।

जो उत्तम द्विजों के प्रति कहे गये इस तथ्य को एक बार भी सुनता है, उसके कार्यों में विघ्न उत्पन्न नहीं होते और न तो वह पुत्रहीन ही होता है ।। ७१ ॥

दीर्घायुर्बलयुक्तश्च नित्यं प्रमुदितः कृती ।

वाञ्छितार्थमवाप्नोति देवीगृहमवाप्नुयात् ।। ७२ ।।

वह नित्य दीर्घायु, बलवान्, प्रसन्नचित्त, यशस्वी होता है तथा अपने वाञ्छित- प्रयोजन को प्राप्त कर लेता है और अन्त में देवी के धाम को प्राप्त करता है ।। ७२॥

गच्छतं कामरूपान्तः पीठं नीलाचलाह्वयम् ।

कामाख्यानिलयं गुह्यं कुब्जिकापीठसंज्ञकम् ।।७३।।

तुम दोनों कामाख्या देवी के निवास, कुब्जिकापीठ नामक, अत्यन्त गोपनीय, नीलाचल नाम के कामरूपपीठ पर जाओ।।७३॥

आकाशगङ्गा यत्रास्ति तज्जलैरभिषिच्य च ।

तत्राराधयतं पुत्रो महामायां जगन्मयीम् ।। ७४ ।।

सा प्रसन्नाचिराद् देवी वरदा वां भविष्यति ।। ७५ ।।

हे पुत्रों ! जहाँ आकाशगङ्गा विराजमान हैं। वहीं उसी के जल से जगन्मयी महामाया का अभिषेक कर, उनकी आराधना करो। वह वरदायिनी देवी, शीघ्र ही तुम दोनों पर प्रसन्न हो जायेंगी ।। ७४-७५ ।।

।। और्व उवाच ।

इत्युक्त्वा वृषभारूढस्तदा वेतालभैरवौ ।

स पुत्रौ तु परित्यज्य तत्रैवान्तरधीयत ।। ७६ ।।

और्व बोले- तब ऐसा कहकर वृषभ पर सवार (शिव), अपने पुत्रों बेताल और भैरव को छोड़कर, वहीं अन्तर्ध्यान हो गये॥७६॥

ततस्तौ नाटकं शैलं परित्यज्य तपस्विनौ ।

आसेदतुर्महात्मानं वसिष्ठं ब्रह्मण: सुतम् ।।७७।।

तब वे दोनों तपस्वी, नाटक- पर्वत को छोड़कर, ब्रह्माजी के पुत्र, महात्मा- वशिष्ठ के यहाँ गये ।। ७७ ।।

स तु सन्ध्याचलगतस्तौ दृष्ट्वा समुपस्थितौ ।

सभाजयामास मुनिः शिष्यवत् तौ हरात्मजौ ।।७८।।

सन्ध्याचल पर उपस्थित हुये उन दोनों शिवपुत्रों को देखकर, उन मुनि वशिष्ठ ने, उन दोनों के प्रति शिष्यवत् व्यवहार किया ॥७८॥

ततस्तस्योपदेशेन वसिष्ठस्य महात्मनः ।

जग्मतुस्तौ महाशैलं नीलं कामाख्यया गतम् ।। ७९ ।।

तत्पश्चात् महात्मा वशिष्ठ के उपदेशानुसार महान् आत्मावाले वे दोनों नीलाचल पर, कामाख्याधाम में चले गये ।। ७९ ॥

तत्र गत्वा महात्मानौ वैष्णवीतन्त्रगोचरम् ।

आदाय यजतां देवीं महामायां जगन्मयीम् ॥८०॥

भैरवाख्यस्य लिङ्गस्य निकटस्थौ शिवात्मनः ।

आकाशगङ्गामाप्लाव्य स्थण्डिले मण्डलोत्तमम् ।

विधाय नरशार्दूलौ जपेतुर्मन्त्रमुत्तमम् ।।८१ ।।

वहाँ जाकर उन दोनों महात्माओं ने वैष्णवीतन्त्र में वर्णित, जगन्मयी महामाया देवी का पूजन करते हुए उन्हें लाकर, शिव के भैरव नामक लिङ्ग के निकट स्थित हो, अपने को आकाशगङ्गा में आप्लावित कर, उसी के तट पर वेदिका पर आकर उत्तम मण्डल बनाकर, उन दोनों नरशार्दूलों ने उत्तम मन्त्र का जप किया।। ८०-८१ ॥

तौ जप्त्वा विधिवन्मन्त्रं सिद्धमष्टाक्षरात्मकम् ।

वेतालस्य तथासाध्यमष्टलक्षाणि संख्यया ।।८२।।

त्रिभिर्वर्षैस्तु लक्षाणां चतुर्णामन्ततस्ततः ।

त्रिधा पुरश्चरणं च तौ भक्तया समकुर्वताम् ॥८३ ।।

स्वयं के सिद्ध तथा वेताल के साध्य अष्टाक्षर मन्त्र का उन दोनों ने विधिपूर्वक, तीन वर्षों में चार-चार लाख जपकर, आठ लाख मन्त्रों से भक्तिपूर्वक तीन बार पुरश्चरण किया ।। ८२-८३॥·

यद् यदोत्तरतन्त्रोक्तं कल्पोक्तं पूजने कृतम् ।।८४।।

तत्सर्वं चक्रतुस्तौ तु तं त्रिहायणसंवृतौ ।

कामाख्या त्रिपुरादीनामन्यासामपि पूजनम् ।।८५ ।

उत्तरतन्त्र में कहे पूजन विधान में त्रिपुरा, कामाख्या, आदि का जो-जो पूजन और न्यास बताया गया है, उन्होंने उसके अनुसार तीन वर्षों तक वह सब कुछ किया ।। ८४-८५ ।।

सकृत् कृत्वा पीठयात्रां चेरतुर्विधिवत् तदा ।

एवं तौ बद्धकवचौ कृतन्यासौ हरात्मजौ ।। ८६ ।।

तब इस प्रकार कवच से आबद्ध हो, न्यास करके, उन दोनों शिवपुत्रों ने एक बार कामरूपपीठ की विधिपूर्वक यात्रा सम्पन्न की॥ ८६ ॥

सुप्रीता चानुग्राह महामायाऽथ तौ तदा ।

ध्यानस्थयोस्तु जपतोर्यजतोश्च जगन्मयीम् ।

शिवलिङ्गं विनिर्भिद्य तदा प्रत्यक्षतां गता ।।८७ ।

उन दोनों के जगमन्यी के ध्यानस्थ हो, जप-पूजन करने पर महामाया ने प्रसन्न हो, उन दोनों पर अनुग्रह किया। उस समय वे शिव लिङ्ग को भेदकर प्रत्यक्ष हुईं ॥ ८७ ॥

तस्यां विनिर्गतायां तु शिवलिङ्गं त्रिधाऽभवत् ।

भैरवो भैरवी चेति हेरुकश्च तथा त्रयः ।।८८।।

उनके प्रकट होते ही वह शिवलिङ्ग, भैरव, भैरवी और हेरुक नाम से तीन रूपों में, तीन खण्ड हो गया ।। ८८ ।।

तां ददर्श तदा देवीं वेतालो भैरवस्तदा ।

यथा ध्यानगता दृष्टा वहिश्चापि तथा तथा ।। ८९ ।।

तब उस देवी को वेताल और भैरव ने जैसा अपने ध्यान में देखा था वैसा ही उस समय, बाहर प्रत्यक्षरूप में भी देखा ॥ ८८ ॥

तां दृष्ट्वा चारुसर्वाङ्गी पीनोन्नतपयोधराम् ।

वरदाभयहस्तां च सिद्धसूत्रासिधारिणीम् ।। ९० ।।

रक्तपद्मप्रतीकाशां सितप्रेतासनस्थिताम् ।। ९१ ।।

निमील्य नयनद्वयं तदा वेतालभैरवौ ।

त्राहि त्राहि महामाये ऊचतुस्तौ मुहुर्मुहुः ।। ९२ ।।

उन सभी प्रकार से सुन्दर अङ्गोंवाली, पुष्ट और ऊँचे स्तनों वाली, वरद- अभय मुद्राओं तथा हाथों में सिद्ध-सूत्र, तलवार एवं (पाश) धारण करने वाली, लालकमल के समान आभावाली, श्वेत प्रेत के आसन पर स्थित, भगवती को देखकर, अपने नेत्रों को बन्द कर वे दोनों वेताल तथा भैरव, महामाया रक्षा कीजिये, महामाया रक्षा कीजिये, ऐसा बारम्बार कहने लगे ।। ९०-९२ ॥

ततस्तया महादेव्या तेजसाप्यायितौ तु तौ ।

पस्पर्श वरहस्तस्य चाग्रभागेन वैष्णवी ।। ९३ ।।

तब अपने तेज से अभिभूत हुए उन दोनों का वैष्णवी देवी ने अपने वरद-हस्त के अगले भाग से स्पर्श किया ॥ ९३ ॥

आप्यायितौ ततस्तौ तु स्पृष्टावपि तथा पुनः ।

आसेदतुश्च देवत्वं मनुष्यत्वं विहाय च ।। ९४ ।।

तब वैष्णवी के तेज से आप्यायित और देवी द्वारा स्पर्श किये गये वे दोनों, मनुष्यत्व को छोड़कर देवत्व प्राप्त किये।।९४।।

देवभूतौ तदा तौ तु महामायां जगन्मयीम् ।

स्तुतिभिर्नतिभिश्चेति तदा तुष्टुवतुः शिवाम् ।। ९५ ।।

उस समय देवरूप होकर उन दोनों ने अपनी नम्रता तथा स्तुति से शिवा, महामाया, जगत्स्वरुपा, उन देवी की स्तुति की ॥९५॥

कालिका पुराण अध्याय ७६

अब इससे आगे श्लोक ९६  से १०५ में देवी महामाया के स्तवन को दिया गया है इसे पढ़ने के लिए क्लिक करें-

।। महामाया स्तुति:  ।।

अब इससे आगे

कालिका पुराण अध्याय ७६   

इति स्तुता ततस्ताभ्यां महामाया जगत्प्रसूः ।

उवाच मुदिता चेति वरं वरयतं युवाम् ।। १०६ ।।

तब इस प्रकार से उन दोनों के द्वारा स्तुति किये जाने पर वे महामाया, जगत जननी प्रसन्नतापूर्वक उनसे बोलीं- तुम दोनों मुझसे वर माँगो ॥ १०६ ॥

प्रत्यक्षतो महामायां पूर्ववद् ध्यानगोचराम् ।

तौ दृष्टवा भर्गतनयौ प्राहतुश्चेदमुत्तमम् ।। १०७ ।।

उन महामाया को प्रत्यक्षरूप में पहले ध्यान में दिखाई देने वाले की ही भाँति देखकर शिव के उन दोनों पुत्रों ने, ये उत्तम वचन कहे - ॥१०७॥

।। वेताल- भैरवावूचतुः ।।

देव्यनेन शरीरेण भवत्याः शङ्करस्य च ।

प्रार्थये शाश्वतीं सेवां नित्यं यावद्रविः शशी ।। १०८ ।।

वेताल और भैरव बोले- हे देवि ! हम दोनों आपसे प्रार्थना करते हैं कि जब तक सूर्य और चन्द्रमा हैं, तब तक हम दोनों अपने इस शरीर से, आपकी और भगवान् शङ्कर की शाश्वतरूप से नित्य, सेवा करते रहें ॥१०८ ॥

नान्यं वरं साधयावो माये त्वत्तो जगन्मयि ।

अन्यथा तव भक्त्यैव स्थास्यावो गिरिकन्दरे ।। १०९ ।।

हे जगन्मयी माये ! आपके अतिरिक्त हम दोनों कोई अन्य वर नहीं साधेंगे (मांगेंगे) । अन्यथा पर्वतों की कन्दराओं में आपकी भक्ति में ही रहकर, स्थायीरूप से निवास करेंगे ।। १०९ ॥

।। और्व उवाच ॥

एवमुक्ता यतस्ताभ्यां महामाया जगन्मयी ।

एवस्त्विति चोवाच भवत्येवं मुहुर्मुहुः ।। ११० ।।

और्व बोले- महामाया जगन्मयी उन दोनों के द्वारा चूँकि इस प्रकार कही गईं, अतः उनके द्वारा बारम्बार उन दोनों से कहा गया कि ऐसा ही हो ॥ ११० ॥

एवं सिद्धिर्जगद्धात्री प्रोक्ता स्वस्याथ चूचुके ।

निष्पीडय कारयामास क्षीरधाराद्वयं शिवा ।। १११ ।।

इस प्रकार कहकर उस शिवा, सिद्धि, जगद्धात्री ने अपने चूचुकों को दबा कर दो दुग्धधारायें उत्पन्न किया ।। १११ ।।

ततस्तु निःसृतं क्षींर पाययामास भैरवम् ।

वेतालं च महाराज पिवतस्तौ च तत् तदा ।। ११२ ।।

हे महाराज ! तब उससे निकले हुये दूध को, उन भैरव एवं वेताल को, जो उस समय पी रहे थे, पिलाया।।११२।।

पीत्वा तौ च तदा क्षीरं देवत्वं प्राप्य शाश्वतम् ।

अजरौ चामरौ भूतौ महातेजस्विनौ शुभौ ।। ११३ ।।

उस समय उस दूध को पीकर वे दोनों शाश्वत देवत्व को प्राप्त कर, अजर-अमर, महात्तेजस्वी एवं शुभस्वरूपवाले हो गये ॥११३॥

तस्यास्तु क्षीरममृतं तत् पीत्वा तौ महाबलौ ।

पीयूषपानात् सजातौ ततस्तौ प्राह वैष्णवी ।। ११४ ।।

अपने अमृतमय उस दूध को पीकर, अमृतपान के कारण महाबलशाली हुए उन दोनों से उन वैष्णवी देवी ने कहा ।। ११४ ।।

।। वैष्णवी उवाच ॥

गणानां देवदेवस्य भवतश्चाधिपौ युवाम् ।

 द्वाःस्थौ च नित्यमासन्नो नन्दिवद् भवतं सुतौ ।। ११५ ।।

वैष्णवी बोली- हे पुत्रों ! तुम दोनों देवों के देव महादेव के गणों के स्वामी होओ और नन्दि की भाँति नित्य उनके निकट द्वार देश में स्थित रहो । । ११५ ।।

।। और्व उवाच ।।

इत्युक्त्वा हरसम्मत्या महामाया जगन्मयी ।

योगिनीगणसंयुक्ता तत्रैवान्तरधीयत ।। ११६ ।।

और्व बोले- ऐसा कहकर महामाया, जगन्मयी, योगिनी, गणों के सहित भगवान शिव की सम्मति से वहीं अन्तर्हित हो गईं ।। ११६ ॥

अन्तर्हितायां तस्यां तु तदा वेतालभैरवौ ।

मुदितौ परमप्रीतौ कृतकृत्यौ बभूवतुः ।। ११७ ।।

उन देवी के अन्तर्हित हो जाने पर, वेताल और भैरव अत्यधिक प्रेममय, प्रसन्न और कृतकृत्य हो गये ॥११७॥

अथागच्छद् देवगणैः सार्धं सप्रमथो हरः ।

सभाजयितुमत्यर्थं पुत्रौ वेतालभैरवौ ।। ११८ ।।

इसके बाद अपने दोनों पुत्रों, वेताल और भैरव के अत्यधिक सभाजन के लिए देवगणों और प्रमथगणों के सहित भगवान् शिव, स्वयं वहाँ आ पहुँचे ।। ११८।।

तावासाद्य महादेवस्तदा नीलाह्वयं गिरिम् ।

सकलं दर्शयामास पीठं तु स्थानभेदतः ।। ११९ ।।

तब उस नील नामक पर्वत पर उन दोनों के पास पहुँच कर महादेव ने उन्हें सम्पूर्णपीठों का स्थान भेद के अनुसार दर्शन कराया ।। ११९ ।।

कामाख्याया गुहां तत्र दर्शयित्वा मनोभवाम् ।

ततः स्वीयां कामगुहां छायाच्छत्रं स्वमालयम् ।। १२० ।।

उन्होंने उन्हें कामाख्या की मनोभव गुहा दिखाया तत्पश्चात् अपनी कामाख्या-गुफा एवं अपना स्थान, छायाच्छत्र भी दिखाया ॥ १२० ॥

स्वकीयं पञ्चमूर्तीनां संस्थानं चाप्यदर्शयत् ।

कामरूपस्य सकलं पीठं देवमयं तथा ।। १२१ ।।

उन्होंने अपनी ईशानादि पञ्चमूर्तियों के संस्थान को भी दिखाया तथा देव- स्वरूप समस्त कामरूपपीठ का भी उन्हें दर्शन कराया ॥ १२१ ॥

प्रत्येकं दर्शयामास क्रमतस्त्रिपुरान्तकः ।

प्रथमं करतोयाख्यां सत्यगङ्गां सदाशिवाम् ।

पुण्यतोयमयीं शुद्धां दक्षिणाब्ध्येकगामिनीम् ।। १२२ ।।

उन्होंने क्रमशः प्रत्येक स्थानों को उन्हें दिखाया। इस क्रम में उन्होंने सर्वप्रथम सदा कल्याण करने वाली, वास्तविक गङ्गास्वरूप, दक्षिणी सागर को अकेले जाने वाली, पवित्र जल से युक्त, शुद्ध, करतोयानाम वाली नदी को दिखाया । । १२२ ।।

॥ इति श्रीकालिकापुराणे वेतालभैरवसिद्धिलाभोनाम षट्सप्ततितमोऽध्यायः ॥ ७६ ॥

श्री कालिकापुराण में वेतालभैरवसिद्धिलाभनामक छिहत्तरवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ।। ७६ ।।

आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 77 

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