कालिका पुराण अध्याय ७७

कालिका पुराण अध्याय ७७                      

कालिका पुराण अध्याय ७७ में कामरूप क्षेत्र अंतर्गत जल्पीश लिङ्ग का वर्णन है।

कालिका पुराण अध्याय ७७

कालिका पुराण अध्याय ७७                                         

Kalika puran chapter 77

कालिकापुराणम् सप्तसप्ततितमोऽध्यायः कामरूपवर्णनेजल्पीशमाहात्म्यम्

अथ श्रीकालिका पुराण अध्याय ७७                         

।। सप्तसप्ततितमोऽध्यायः ।।

।। जल्पीशमाहात्म्यम् ।।

।। और्व उवाच ।।

ततस्तु कामरूपस्य वायव्यां त्रिपुरान्तकः ।

आत्मनो लिङ्गमतुलं जल्पीशाख्यं व्यदर्शयत् ।। १ ।।

और्व बोले- उसके बाद त्रिपुरान्तक शिव ने कामरूप की वायव्य दिशा में स्थित, अपने जल्पीश नामक अतुलनीय लिङ्ग का दर्शन कराया ॥ १ ॥

यत्र नन्दी समाराध्य महादेवं जगत्पतिम् ।

अभिन्नेन शरीरेण गाणपत्यमवाप्नुयात् ।। २।।

जहाँ नन्दी ने जगत के स्वामी, महादेव की भली भाँति आराधना करके, अपने शरीर से ही (जीते जी) गणों के स्वामी का पद प्राप्त किया था ॥ २ ॥

नन्दिकुण्डं महाकुण्डं यत्र नन्दी पुराऽकरोत् ।

अभिषेकं लब्धवरं पीतं तोयमनुत्तमम् ।। ३ ।।

जहाँ पहले नन्दी ने अपनी तपस्या हेतु नन्दिकुण्ड नामक एक महान् कुण्ड बनाया तथा उसके उत्तम जल को पीकर, उससे जल्पीश का अभिषेक कर, वर प्राप्त किया था ॥ ३ ॥

तत्र स्नात्वा च पीत्वा च कृतकृत्यो नरोत्तमः ।

हरस्य सदनं याति नन्दिनोऽपि महाश्रियः ॥ ४ ॥

नरों में श्रेष्ठ साधक, वहाँ स्नान करके और उसका जल पीकर, कृतकृत्य हो, शिवलोक को जाता है। नन्दी भी शिव के लोक को जाकर महान् शोभा को प्राप्त हुये हैं ॥४॥

तस्यासन्ने महादेवीं नातिदूरे व्यवस्थिताम् ।

सिद्धेश्वरी योनिरूपां महामायां जगन्मयीम् ।

त्र्यम्बको दर्शयामास भैरवाय महात्मने ॥५॥

उसी के निकट समीप में ही स्थित जगन्मयी, योनिरूपवाली, सिद्धेश्वरी, महामाया, कामाख्यादेवी का भी त्रयम्बक शिव ने महात्मा भैरव को दर्शन कराया ॥ ५ ॥

यत्र नन्दी महामायामाज्ञया शशिधारिणः ।

स्तुतिभिर्नतिभिः पूज्य गाणपत्यमावाप्नुयात् ।।६।।

जहाँ नन्दी ने चन्द्रमा को धारण करने वाले, शिव को महामाया की आज्ञा से अपनी स्तुतियों और नमस्कार से सन्तुष्ट कर गाणपत्य (गणों के स्वामित्व) को प्राप्त किया था ॥ ६ ॥

सुवर्णमानसस्तत्र नदमुख्यो मनोहरः ॥७॥

नन्दिनोऽनुग्रहायाशु मानसाख्यं सरस्तु तत् ।

आगतं चाज्ञया शम्भोः पूर्वमेव तपस्यतः ।। ८॥

वहीं शिव की आज्ञा से पहले से ही तपस्यारत नन्दी पर कृपा करके नदों में श्रेष्ठ सुवर्णमानस नामक सुन्दर सरोवर के रूप में मानसरोवर नामक तीर्थ वहाँ शीघ्रता से आया हुआ है ।। ७-८ ।।

जटोद्भवा तत्र नदी हिमवत्प्रभवा शुभा ।

यस्यां स्नात्वा नरः पुण्यमाप्नोति जाह्नवीसमम् ।।९।।

वहीं शिव की जटा से उत्पन्न हो, हिमालय से निकली जटोद्भवा नामक शुभदायिनी नदी है, जिसमें स्नान कर मनुष्य, गङ्गास्नान के समान पुण्य प्राप्त करता है ॥ ९ ॥

गौरीविवाहसमये सर्वैर्मातृगणैः कृतः ।

जलाभिषेको भर्गस्य जटाजूटेषू यः पुरा ।

तैस्तोयैरभवद्यस्माज्जटोदाख्या नदी ततः ।। १० ।।

प्राचीनकाल में गौरी विवाह के समय सभी मातृकाओं द्वारा शिव के जटाजूटों पर जो अभिषेक किया गया था, उस समय उस जल से उत्पन्न होनेवाली नदी, जटोदा नाम से प्रसिद्ध हुई ॥ १०॥

चैत्रे मासि सिताष्टम्यां स्नात्वा यस्यां नरो व्रजेत् ।

पूर्णायुर्वै नरश्रेष्ठ शिवस्य सदनं प्रति ।। ११ ।।

चैत्रमास के शुक्लपक्ष की अष्टमी तिथि को जिसमें स्नान कर, मनुष्य पूर्णायु भोगकर, मृत्यु के उपरान्त, शिवलोक को जाता है ॥ ११ ॥

द्वापरस्य तु या गङ्गा त्रिः स्रोताख्या सरिद्वरा ।

हिमवत्प्रभवा शुद्धचन्द्रबिम्बाद् विनिर्गता ।।१२।।

यस्यां स्नात्वा महामाध्यां मातृयोनौ न जायते ।

चन्द्रसूर्यग्रहे स्नात्वा कैवल्यं प्राप्नुयान्नरः ।।१३।।

सितप्रभानाम नदी महादेवावतारिता ।।१४।।

द्वापर में तीन स्रोतोंवाली नदियों में श्रेष्ठ, जो गङ्गा नदी, हिमालय से उत्पन्न हो, शुद्ध चन्द्रबिम्ब से निकली थी। जिसमें महामाघी (माघशुक्ल अष्टमी) को स्नान कर मनुष्य, मातृयोनि को नहीं प्राप्त करता, वही जिसमें चन्द्र-सूर्य- ग्रहण के समय स्नान करके मनुष्य, कैवल्य को प्राप्त करता है, उस सितप्रभा नाम की नदी को, महादेव शिव ने ही अवतरित किया था ।। १२-१४।।

हिमवत्प्रभवा सापि सिता दक्षसमुद्रगा ।

तस्यां दशहरायां तु दशम्यां शुक्लपक्षके ।

स्नात्वा विष्णुगृहे याति नरो वै मुक्तपातकः ।। १५ ।।

हिमालय से निकलने के कारण वह स्वच्छ जलवाली नदी भी दक्षिणी समुद्र में गिरती है। उसमें ज्येष्ठ शुक्लपक्ष की दशमी तिथि, दशहरा (गङ्गा दशहरा) को स्नान कर मनुष्य, सभी पापों से मुक्त हो, विष्णुलोक को प्राप्त करता है ॥१५॥

नवतोया नाम नदी ततः पूर्वस्थिता पुरा ।

नवं नवं नवं नित्यं कुर्वन्ती सा पुनाति हि ।। १६ ।।

नवतोया ततः प्रोक्ता हिमवत्प्रभवैव सा ।। १७ ।।

तत्पश्चात् (शिव ने भैरव को) पहले से ही पूर्व दिशा में स्थित नवतोया नाम की नदी को दिखाया जो नित्य ही नया-नया करती है और नव द्वार या पीढ़ियों को पवित्र करती है। इसीलिए वह नवतोया कही जाती है। यह नवतोया नदी भी हिमालय से ही निकली हुई है ।। १६-१७।।

तस्यां स्नात्वा महामाध्यां नरो गच्छति देवताम् ।

सम्पूर्ण माघमासं तु स्नात्वा विष्णुगृहं व्रजेत् ।। १८ ।।

उस नदी में महामाघी पर स्नान करके मनुष्य देवत्व को प्राप्त करता है तथा यदि वह सम्पूर्ण माघ महीने भर उसमें स्नान करे तो, विष्णुलोक को जाता है ॥१८॥

तासां नदीनां तु पतिरगदो नाम वै नदः ।

पीठपूर्वे स्थितः पुण्यो ब्रह्मपादसमुद्भवः ।।१९।।

हिमवत्प्रभवः सोऽपि देवगन्धर्वसेवितः ।

तत्र स्नात्वा च पीत्वा च नरो ब्रह्मगृहं व्रजेत् ।। २० ।।

उन नदियों का स्वामी, पीठ के पूर्वभाग में स्थित, ब्रह्मा के चरणकमल से उत्पन्न हो, हिमालय से निकला हुआ, देवता एवं गन्धर्वों से सेवित, अगद नाम का नद है । उसमें स्नान करके और उसका जल पीकर मनुष्य, ब्रह्मलोक को जाता है ।। १९-२० ॥

कार्तिकं सकलं मासं योऽगदाख्ये महानदे ।

स्नानं करोति मनुजस्तस्य पुण्यफलं शृणु ।। २१ ।।

जो मनुष्य सम्पूर्ण कार्तिक मास, उस अगद नामक महानद में स्नान करता है। उसके पुण्यफल को सुनिये ॥ २१ ॥

इह लोके त्वरोगः स प्राप्य चैवोत्तमं सुखम् ।

शेषे ब्रह्मगृहं प्राप्य ततो मोक्षमवाप्नुयात् ।। २२ ।।

वह इस लोक में आरोग्य और उत्तम सुख को पाकर, शेष (शरीरान्त) होने पर ब्रह्मलोक को प्राप्त करता है। तत्पश्चात् मोक्ष को पाता है ।। २२ ॥

नन्दिकुण्डे नरः स्नात्वा नक्तं कुर्यात् तदा निशि ।

ततः परस्मिन् दिवसे गच्छेज्जल्पीशमन्दिरम् ।। २३ ।।

नन्दिकुण्ड में स्नान करके मनुष्य को उस दिन नक्तव्रत कर, उस रात्रि में वहीं भोजन करना चाहिये। तब दूसरे दिन जल्पीश मन्दिर को जाना चाहिये ॥२३॥

तत्र स्नात्वा महानद्यां जल्पीशं प्रतिपूज्य च ।

तस्यां निशि हविष्याशी संयतस्तां निशां नयेत् ।। २४ ।।

उस महान् नदी में स्नान करके तथा जल्पीशं शिव का पूजन कर, उस रात्रि में हविष्य भोजन कर, संयत हो, वह रात्रि व्यतीत करे ॥२४॥

ततोऽनुदिवसे प्राप्ते गच्छेत् सिद्धेश्वरीं शिवाम् ।

तां पूजयेत् तथाष्टम्यामुपवासं तथाचरेत् ।। २५ ।।

तत्पश्चात् अगले दिन वह सिद्धेश्वरी, शिवा के मन्दिर में जाकर, वहीं उनका पूजन तथा अष्टमी का उपवास सम्पन्न कंरे ।। २५ ।

कालिका पुराण अध्याय ७७ ।। सिद्धेश्वरीस्वरूपवर्णन ॥

चतुर्भुजा तु सा देवी पीनोन्नतपयोधरा ।

सिन्दूरपुञ्जसङ्काशा धत्ते कर्त्री च खर्परम् ।। २६ ।।

दक्षिणे वामबाहुभ्यामभीतिरवरदायिनी ।

जटामण्डितशीर्षा च रक्तपद्मोपरिस्थिता ।। २७ ।।

वह शिवा देवी, चार भुजाओं से सुशोभित, पुष्ट और उन्नत वक्षस्थल धारण करने वाली, सिन्दूर के ढेर के सदृश आभावाली, दाहिनी भुजाओं में कर्त्री ( कैंची) व खप्पर धारण करती हैं तथा बायीं भुजाओं से अभय एवं वर, प्रदान करती हैं। उनका सिर, जटा से सुशोभित है और वे लालकमल पर विराजमान हैं ।। २६-२७।।

पंचारक्षरजपान्तादिर्मन्त्रऽस्याः परिकीर्तितः ।

कामख्यातन्त्रमेवास्याः पूजने तन्त्रमीरितम् ।

एवं कृत्वा नरो धीरः पुनर्योनौ न जायते ।। २८ ।।

पञ्चाक्षर जप उनका आदि मन्त्र कहा गया है। कामाख्यातन्त्र ही उनके पूजन की पद्धति कहा गया है, ऐसे पञ्चाक्षर मन्त्र और कामाख्यातन्त्र के प्रयोग करने से धैर्यवान् मनुष्य, पुनः मातृयोनि में गमन नहीं करता अर्थात् जन्म नहीं लेता ॥२८॥

जामदग्न्यभयाद् भीताः क्षत्रियाः पूर्वमेव ये ।

म्लेच्छच्छन्नान्युपादाय जल्पीशं शरणं गताः ।। २९ ।।

जो क्षत्रिय, पहले जमदग्नि ऋषि के पुत्र, परशुराम के भय से भयभीत हो गये थे वही, म्लेच्छ इस छद्मनाम से जल्पीश (शिव) की शरण में गये ॥ २९ ॥

ते म्लेच्छवाचः सततमार्यवाचश्च सर्वदा ।

जल्पीशं सेवमानास्ते गोपायन्ति च तं हरम् ।। ३० ।।

त एव तु गणास्तस्य महाराजमनोहराः ।

तोषयित्वा तथा सर्वान् जल्पीशं पूजयेन्नरः ।। ३१ ।।

वे ही म्लेच्छवाची निरन्तर आर्यवाची होकर सदा जल्पीश की सेवा करते हुए, शिव के उस रूप की रक्षा करते रहते हैं। हे महाराज ! वे ही वहाँ के सुन्दर गण है। अतः मनुष्य उन्हीं सब को सन्तुष्ट कर जल्पीश भगवान् का पूजन करे ।। ३०-३१ ॥

कालिका पुराण अध्याय ७७ ।। जल्पीशरूपवर्णन ॥

वरदाभयहस्तोऽयं द्विभुजः कुन्दसन्निभः ।

तत् पुरुषस्य तु मन्त्रेण पूजयेद् देवमुत्तमम् ।। ३२ ।।

जल्पीश वरद और अभय मुद्राओं से युक्त दो भुजाओं वाले तथा कुन्द की आभावाले हैं, उस उत्तमदेव का तत्पुरुष मन्त्र से पूजन करना चाहिये ॥ ३२ ॥

एवं पुण्यकरः पीठो जल्पीशस्य महात्मनः ।

एवं ज्ञात्वा नरो याति शंकरस्य पुरं प्रति ।। ३३ ।।

इस प्रकार से महात्मा जल्पीश का यह स्थान, पुण्यदायक है। इसे जानकर मनुष्य, शिवलोक को प्राप्त हो जाता है।।३३।।

॥ इति श्रीकालिकापुराणे कामरूपवर्णनेजल्पीशमाहात्म्यनाम सप्तसप्ततितमोऽध्यायः ॥७७॥

श्रीकालिकापुराणमें कामरूपवर्णनेजल्पीशमाहात्म्यनामक सतहत्तरवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ ७७ ॥

आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 78 

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