कालिका पुराण अध्याय ८०
कालिका पुराण
अध्याय ८० में कामरूपमण्डल में दीपवत्यादि नदियों का माहात्म्य और दिक्करवासिनी
तीक्ष्णकान्ता एवं ललितकान्ता का वर्णन, ब्रह्म, विष्णु,
शिव पूजन विधि वेताल भैरवोपाख्यान का वर्णन है।
कालिका पुराण अध्याय ८०
Kalika puran chapter 80
कालिकापुराणम् अशीतितमोऽध्यायः कामरूपवर्णनेदीपवत्यादिमाहात्म्यम्
कालिकापुराणम्
।।
अशीतितमोऽध्यायः ।।
अथ श्रीकालिका
पुराण अध्याय ८०
।। और्वउवाच
।।
शाश्वती कथिता
या तु नदी मत्स्यध्वजासिता ।
तस्याः पूर्वे
समाख्याता नदी दीपवती मता ।। १ ।।
और्व बोले-
मत्स्यध्वजा नाम की नीले जलवाली शाश्वती नदी जो पहले कही गई है, उसके पूर्व में दीपवती नाम की एक प्रसिद्ध
नदी मानी गई है ॥ १ ॥
एषा च
हिमवज्जाता छिन्दन्ती दीपवत्तमः ।
तेन
देवमनुष्येषु नदी दीपवती स्मृता ।। २ ।।
हिमालय से
उत्पन्न यह नदी, जैसे दीपक
अन्धकार को दूर कर देता है, उसी प्रकार तमस् (पापों) को दूर
कर देती है। इसीलिए देवताओ और मनुष्यों में यह नदी, दीपवती
नाम से स्मरण की जाती है ॥ २ ॥
दीपवत्याः पूर्वतस्तु
शृङ्गाटो नाम पर्वतः ।
तत्र देवस्य
भर्गस्य लिङ्गमेकं प्रतिष्ठितम् ।।३।।
दीपवती नदी के
पूर्व में एक शृंगाट नामक पर्वत है जहाँ भगवान् शिव का एक लिङ्ग स्थापित है ॥ ३ ॥
सरित् तु
सिद्धा त्रिः स्रोता दक्षिणोदधिगामिनी ।
शृङ्गाटकस्य
सततं स्रवन्ती सा तु पादतः ।
दक्षिणसागरं
याति भर्गस्य प्रियकारिणी ॥४ ॥
वहाँ
सिद्धात्रिस्रोता नामवाली, एक नदी है जो बहकर दक्षिण- सागर को जाती है । वह सदैव शृंगाटक पर्वत के
पादवहा (तलहटी) से निकलती है एवं दक्षिणसागर को जाती है। वह शिव का प्रिय करने
वाली है ॥४॥
सलिले यो नरः
स्नात्वा त्रिःस्रोतायां नरोत्तमः ।
शृङ्गाटकं समारुह्य
पूजयेल्लिङ्गशङ्करम् ।।५।।
स दीप्तकाय:
शुद्धात्मा प्राप्य कामानिहातुलान् ।
अन्ते
भर्गगृहं याति ततो मोक्षमवाप्नुयात् ।। ६।।
जो उत्तम पुरुष
उपर्युक्त त्रिस्रोता में स्नान कर, शृंगाटक पर जाकर शिवलिङ्ग का पूजन करता है वह तेजस्वी शरीर
और शुद्ध आत्मावाला हो, इस लोक में अतुल-कामनाओं को प्राप्त
कर, मृत्यु के पश्चात् शिवलोक जाता है तत्पश्चात् मोक्ष को
प्राप्त करता है।।५-६।
हरस्तु
द्विभुजस्तस्मिन् सदा वृषभवाहनः ।।७।।
उमया रमते
सार्धं वामदेवस्य मन्त्रकैः ।
तन्त्रैश्च
पूजयेद् देवमुमामन्त्रेण चण्डिकाम् ॥८॥
वहाँ पर वृषभ पर
सवार होकर दो भुजाओं वाले भगवान् शिव सदैव उमा के साथ रमण करते हैं । वहाँ भगवान्
शिव का वामदेव के मन्त्र तथा तन्त्रों से एवं चण्डिका का उमामन्त्रादि से पूजन
करना चाहिये ॥ ७-८।।
तत् पूर्वतो
निम्नगा तु नाम्ना तु वृद्धवेदिका ।
तस्यां
स्नात्वा फलं मर्त्यो वेदिकास्नानजं लभेत् ।।९।।
उसके पूर्व
में वृद्धवेदिका नाम की एक नदी है। उसमें स्नान करके मनुष्य वेदिका में स्नान करने
का फल प्राप्त करता है॥९॥
ततो भट्टारिका
नाम हिमशैलसमुद्भवा ।
महानदी
देवगणैर्या सदोपास्यते सुखम् ।।१०।।
उसके आगे
हिमालय पर्वत से उत्पन्न भट्टारिका नाम की एक महानदी है। जिसकी देवगण सदा
सुखपूर्वक उपासना करते हैं ॥१०॥
तस्यां यः
कुरुते स्नानं युगादिषु चतुर्ष्वपि ।
स याति परमं
स्थानं तद् विष्णोः परमं पदम् ।। ११ ।।
चारों युगों
में जो उसमें स्नान करता है वह उस परम स्थान को जाता है जो विष्णु का परमपद है॥११॥
अस्ति
नाटकशैले तु सरो मानससन्निभम् ।
यत्र सार्धं
शैलपुत्र्या जलक्रीडां सदा हरः ।
कुरुते नरशार्दूल
स्वर्णपङ्कजशोभिते ।।१२।।
हे नर
शार्दूल! नाटकशैल पर मानसरोवर के समान एक सरोवर है, जहाँ शिव, पार्वती के साथ, स्वर्णकमल से सुशोभित सरोवर में सदैव जल-क्रीड़ा करते हैं ॥ १२ ॥
तस्य
पश्चान्मध्यपूर्व भागेभ्यस्तु सरित् - त्रयम् ।
अवतीर्ण प्रयात्येव
दक्षिणं सागरं प्रति ।।१३।।
उसके पश्चात्
पश्चिमी-पूर्व भागों से तीन नदियाँ निकल कर, दक्षिणसागर की ओर जाती हैं ।। १३ ॥
तस्य
पश्चिमभागे तु नदी दिक्करिकाह्वया ।
दिग्गजक्षत
संजाता तेन दिक्करिकाह्वया ।।१४।।
उसके पश्चिमी भाग
में दिक्करिका नाम की एक नदी बहती है। वह नदी दिग्गजों के आघात से उत्पन्न हुई है, इसीलिए इसे दिक्करिका कहा जाता है ॥ १४ ॥
मध्यभागात्
सृता या तु शङ्करेणावतारिता ।
वृद्धगंगाह्वया
सा तु गंगेव फलदायिनी ।। १५ ।।
जो पृथ्वी पर
शङ्कर के द्वारा अवतरित की गई तथा मध्यभाग से निकली है, वह वृद्धगङ्गा नाम की नदी, गङ्गा के ही समान फल देने वाली है ।। १५ ।।
या निःसृता
पूर्व भागात् तस्माद् गिरिवरान्नदी ।
सुवर्णश्रीरिति
ख्याता सा गङ्गासदृशीफले ।। १६ ।।
जो नदी उस
श्रेष्ठ पर्वत के पूर्वभाग से निकली है वह सुवर्णश्री इस नाम से प्रसिद्ध है तथा
फल देने में गङ्गा के समान है ॥ १६ ॥
कुर्वत्याः
सरसि स्नानं पार्वत्याश्च शरीरतः ।
निःसृताः
स्वर्णकणिकास्ता वहन्ति जलैरिमाः ।। १७ ।।
क्रीडार्थं
शम्भुना गात्रे कणिकाभिः समाचिताः ।
स्वस्थानात्
तत्र संलग्नास्ततश्चन्दनबिन्दवः ।।१८।।
ता उमायाः
शरीरात् तु संस्रवन्ति जलैः सह ।
ततः स्वर्णवहा
नाम स्वर्णश्रीः सर्वतोऽधिका ।। १९ ।।
सरोवर में
स्नान करते समय पार्वती के शरीर से निकली स्वर्णकणिकायें इस जल में बहती हुई, क्रीड़ा करते समय शिव के शरीर की कणिकाओं
से मिलती हैं। उस समय अपने स्थान से लगे हुए चन्दन के बिन्दु उमा के शरीर में जल
के साथ बहते हैं तब से सबसे अधिक स्वर्णकण बहाने के कारण वह, स्वर्णश्रीनाम से प्रसिद्ध है।। १७-१९।।
एतासु
चैत्रमासं तु स्नात्वा मर्त्यो नरर्षभः ।
कृष्णपक्षे
चतुर्दश्यां त्रिकालं यत्र मानवः ।।२० ॥
चिरं देवीगृहे
स्थित्वा शेषे ब्रह्मगृहं व्रजेत् ।
भूमाववगतः
पश्चात् सार्वभौमो नृपो भवेत् ।। २१ ।।
हे मनुष्यों
में श्रेष्ठ ! चैत्रमास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी तिथि को जो मनुष्य इन नदियों में
त्रिकाल स्नान करता है। वह चिरकाल तक देवी के धाम में निवास कर, अन्त में ब्रह्मलोक को जाता है और
तत्पश्चात् भूमि पर पुनः आकर (जन्म लेकर) सार्वभौम राजा होता है ।।२०- २१ ॥
वृद्धगङ्गाजलस्यान्तस्तीरे
ब्रह्मसुतस्य वै ।
विश्वानाथाह्वयो
देवः शिवलिङ्गसमन्वितः ।। २२ ।।
विश्वदेवी महादेवी
योनिमण्डलरूपिणी ।। २३ ।।
ब्रह्मपुत्रनद
के तट पर वृद्धगङ्गा के जल में विश्वनाथ नामक देव, शिवलिङ्ग-रूप में तथा महादेवी, विश्वदेवी,
योनिमण्डल के रूप में समन्वितरूप में निवास करती हैं ।। २२-२३॥
हयग्रीवेण
युयुधे तत्र देवो जगत्पतिः ।
हयग्रीवं यत्र
हत्वा मणिकूटं पुरागतम् ।।२४।।
वहाँ जगत के
स्वामी भगवान् विष्णु ने प्राचीनकाल में, हयग्रीव नामक दैत्य से युद्ध किया था और हयग्रीव को मारकर
मणिकूट पर्वत पर गये थे ।। २४ ।।
तत्र यः
पूजयेद् दुर्गां शारदां तन्त्रमन्त्रकैः ।
हयग्रीवस्य
मन्त्रेण तन्त्रेण गरुडध्वजम् ।। २५ ।।
कामेश्वरस्य
तन्त्रेण मन्त्रेणापि च शङ्करम् ।
यो यजेत् परया
भक्त्या द्वादश्यां समुपोषितः ।
अष्टम्यां च
चतुर्दश्यां तस्य पुण्यफलं शृणु ।। २६ ।।
वहाँ जो साधक
शारदातन्त्र के मन्त्रों से देवी दुर्गा का, हयग्रीव के तन्त्र-मन्त्र से गरुडध्वज विष्णु का, कामेश्वर के तन्त्र-मन्त्र से भगवान् शङ्कर का पूजन करता है। जो द्वादशी,
अष्टमी और चतुर्दशी को उपवास रख कर इनका पूजन करता है, उसका पुण्यफल सुनिये ।। २५-२६ ।।
कल्पकोटित्रयं
स्थित्वा शिवगेहे गृहे हरेः ।। २७ ।।
तावन्तं
संस्थितः कालं तावन्तं च शिवागृहे ।
शेषे भुवं
समासाद्य वेदविद् ब्राह्मणो भवेत् ।। २८ ।।
वह तीन करोड़ कल्पों
तक शिव के धाम में, उतनी ही अवधि तक विष्णुलोक में, उतने ही समय तक शिवा
के धाम में रहकर, अन्त में पृथिवी पर जन्म लेकर वेदवेत्ता
ब्राह्मण होता है ।।२७-२८ ।।
नद्याः
स्वर्णश्रियः पूर्वं नदी कामाह्वया शुभा ।
कामायाः
पूर्वभागे तु नदी सोमाशनाह्वया ।। २९ ।।
सोमाशनायाः
पूर्वस्यां नदी धनाम्ना वृषोदका ।
ततः पूर्वे
कामरूपं पीठं ते जगतां प्रसूः ।
जगन्मयी
महामाया देवी दिक्करवासिनी ।। ३० ।।
स्वर्णश्री
नदी के पूर्व में कामा नाम की सुन्दर नदी स्थित हैं, उस कामा पूर्वभाग में सोमाशना नामक नदी, सोमाशना के पूर्व में वृषोदका नाम की नदी स्थित है। उसके पूर्व में,
जगत की माता, जगत् स्वरूपा के रूप में महामाया
दिक्करवासिनी देवी का काध्मरूपपीठ स्थित है ।। २९-३०॥
एता याः कथिता
नद्यः सकलाः दक्षिणस्रवाः ।
तासु स्नात्वा
च पीत्वा च स्वर्गलोकमवाप्नुयात् ।। ३१ ।।
ये जो ऊपर
वर्णित नदियाँ हैं, वे सभी दक्षिण दिशा में बहने वाली हैं। इनमें स्नान कर और इनका जल पीकर
मनुष्य, स्वर्गलोक को प्राप्त करता है ॥ ३१ ॥
प्रान्ते
दिक्करवासिन्याः सदा वहति स्वर्णदीं ।
सितगङ्गाह्वया
लोके साक्षाद् गङ्गाफलप्रदा ।। ३२।।
दिक्करवासिनी
के निकट ही स्वर्ग की नदी, सितगङ्गा नाम से सदैव बहती है जो लोक में गङ्गा के समान साक्षात् फल देने
वाली है ॥ ३२ ॥
सा
भूमिपीठसंस्था च देवी दिक्करवासिनी ।
अन्तर्जले
प्लावयन्ती याति प्रत्यक्षतां सुरैः ।। ३३ ।।
वह देवी
दिक्करवासिनी भूमि तल पर, जल में डूबी हुई स्थित रहती हैं तथा देवताओं द्वारा प्रत्यक्षरूप में देखी
जाती हैं ॥ ३३॥
सितगङ्गाजले
स्नात्वा दृष्ट्वा शम्भुं हरिं विधिम् ।
इष्ट्वा
ललितकान्ताख्यां पुनर्योनौ न जायते ।। ३४ ।।
सितगङ्गा के
जल में स्नान, शिव,
विष्णु और ब्रह्मा का दर्शन तथा ललितकान्ता नाम की देवी का पूजन कर,
मनुष्य पुनः योनि से जन्म नहीं लेता ॥ ३४ ॥
लिङ्गस्वरूपी
भगवाञ्छंभुस्तत्र स्वयं स्थितः ।
विष्णुः
शिलास्वरूपेण ब्रह्मलिङ्गस्वरूपधृक् ।। ३५ ।।
वहाँ भगवान्
शिव स्वयं लिङ्गरूप में, विष्णु शिलारूप में और ब्रह्मा भी लिङ्गरूप धारण कर वहीं विराजमान रहते
हैं ॥ ३५ ॥
पीठे
दिक्करवासिन्या द्विरूपा रमते शिवा ।। ३६ ।।
तीक्ष्णकान्ताह्वया
त्वेका योग्रतारा प्रकीर्तिता ।
परा
ललितकान्ताख्या या श्रीमङ्गलचण्डिका ।। ३७।।
दिक्करवासिनी
पीठ में शिवा दो रूपों में रमण करती हैं जिनमें से एक तीक्ष्णकान्ता नाम की हैं जो
उग्रतारा कही गई हैं तो दूसरी ललितकान्ता नामक श्री मङ्गलचण्डिका कही गई हैं । ।
३६-३७।।
कालिका पुराण अध्याय ८० तीक्ष्णकान्ता वर्णन
।।
तीक्ष्णकान्तावर्णन ॥
तस्यास्तु सततं
रूपं तीक्ष्णकान्ताह्वयं नृप ।
कृष्णा
लम्बोदरी या तु सा स्यादेकजटा शिवा ।। ३८ ।।
तेन रूपेण तां
देवीं सततं परिपूजयेत् ।
अङ्गमन्त्रं च
रूपं च तस्याः प्राक्प्रतिपादितम् ।। ३९ ।।
हे राजन् !
उनका शाश्वतरूप तीक्ष्णकान्ता नामक ही है जिसमें वह शिवा कालेवर्ण, लम्बे पेट, एकजटा से
युक्त रहती हैं। उसी तीक्ष्णकान्ता रूप में उन देवी का निरन्तर पूजन करना चाहिये ।
उनका अङ्गमन्त्र और ध्यान, पहले ही बताया गया है ।। ३८-३९।।
त्रिकोणं
मण्डलं चास्याः कर्तव्यं मंत्रपूर्वकम् ।
आदौ रेखे ततः
पश्चात् सुरेखेति पदं ततः ।। ४० ।।
तथा पदं
चाधिगम्य तिष्ठन्त्विति पदं ततः ।
मण्डलस्यास्य
मन्त्रोऽयं तीक्ष्णायाः परिकीर्तितः ।। ४१ ।।
इस देवी का
मण्डल, मन्त्रपूर्वक त्रिकोणात्मक बनाना चाहिये ।
इसके मन्त्र में पहले रेखे तब सुरेखे शब्द का प्रयोग करे तत्पश्चात् तिष्ठन्तु इस
शब्द का आश्रय लेने से इन तीक्ष्णकान्ता देवी के मण्डल निर्माण का मन्त्र रेखे सुरेखे
तथा तिष्ठन्तु कहा गया है ।। ४१-४१॥
नरत्रिपुरदेवादियमवेतालदुर्धराः
।
गणश्रमेत्यन्तकान्ता
द्वारपालाः प्रकीर्तिताः ।
एतांस्तु
पूजयेत् सम्यङ्मण्डलस्याष्टदिक्षु वै ।। ४२ ।।
अन्तक शब्द से
समाप्त होने वाले नर, त्रिपुर, देव, यम, वेताल, दुर्धर, गण, श्रम नरान्तक, त्रिपुरान्तक, देवान्तक,
यमान्तक, वेतालान्तक, दुर्धरान्तक,
गणान्तक और श्रमान्तक ये आठ देवी के द्वारपाल कहे गये हैं। मण्डल की
आठो दिशाओं में इनका भली-भाँति पूजन करे ॥४२॥
आदौ सम्बोधनं
कृत्वा वज्रपुष्पं ततः परम् ।
वह्निजायां ततः
पश्चान्मन्त्रमेषां प्रकीर्तितम् ।। ४३ ।।
इस हेतु पहले
उनका सम्बोधन (नामोच्चार) करके वज्रपुष्पं शब्द तत्पश्चात् वह्निजाया (स्वाहा)
शब्द के प्रयोग से बना, इन द्वारपालों का नाम और वज्रपुष्पं स्वाहा मिलकर इनका मन्त्र कहा गया है
॥ ४३ ॥
पात्रोपकरणादीनां
स्थानन्यासस्य सर्वतः ।
सर्वमुत्तरतन्त्रोक्तं
गुह्यं रूपयेऽपि च ।। ४४ ।।
दिक्करवासिनी
के दोनों ही रूपों (तीक्ष्णकान्ता एव ललितकान्ता) के पूजन में पात्र, उपकरण, स्थान और
न्यास, अन्य उपचारों में सब जगह, उत्तरतन्त्र
में कहे अनुसार सब कुछ गुप्त रूप से करना चाहिये ॥ ४४ ॥
चामुण्डा च
कराला च सुभगा भीषणा भगा ।
विकटेति च
योगिन्यः प्रोक्ता तस्यास्तथैव षट् ।। ४५ ।।
उनकी चामुण्डा, कराला, सुभगा,
भीषणा, भगा और विकटा, योगिनियाँ
बताई गई हैं । ४५ ॥
हे भगवत्येकजटे
विद्महे पदमन्ततः ।
विकटदंष्ट्रे धीमहि
तन्नस्तारे प्रचोदयात् ।। ४६ ।।
एषा तु
तीक्ष्णगायत्री पीठदेव्याः प्रकीर्तिता ।
निर्माल्यधारिणी
चास्या देवी विकटचण्डिका ।। ४७ ।।
हे भगवत्येक
विद्महे के पश्चात् विकटदंष्ट्रं धीमहि तन्नः तारे प्रचोदयात् । मन्त्रार्थ - हे
भगवति एक जटे हम आपको को जानते हैं, विकटदंष्ट्रा का ध्यान करते हैं, वे
तारा देवी हमें प्रेरित करें। यह पीठदेवी तीक्ष्णकान्ता की तीक्ष्ण गायत्री कही गई
है। विकटचण्डिका इनकी निर्माल्य धारिणीदेवी कही गई हैं। । ४६-४७।।
माला तु
मृन्मयी प्रोक्ता रुद्राक्षसम्भवापि वा ।
विशेष एष
देव्यास्तु पूजने परिकीर्तितः ।। ४८ ।।
इन देवी के
पूजन में उत्तरतन्त्र से हटकर के मिट्टी की या रुद्राक्ष की बनी माला, विशेषरूप कही गई है ॥ ४८ ॥
उपचारादिकं कृत्यं
बलिदानं जपादिकम् ।
सर्वं तु
पूर्ववद् ग्राह्यं कामाख्यापूजने यथा ।। ४९ ।।
पूजासम्बन्धी
उपचार, जप, बलिदान आदि सभी
कृत्य, जिस प्रकार से पहले कामाख्या पूजन में बताये गये हैं,
वैसा ही सब कुछ ग्रहण करना चाहिये ॥४९॥
पानेषु मदिरा
शस्ता नरो बलिषु पार्थिव ।। ५० ।।
मोदको
नारिकेलं च मांसव्यञ्चनमैक्षवम् ।
नैवेद्येषु
प्रियकरास्तीक्ष्णायाः परिकीर्तिताः ।। ५१ ।।
हे राजन् !
देवी के पेय पदार्थों में मदिरा तथा बलियों में नरबलि श्रेष्ठ बताई गई है। मोदक, नारीयल, मांस,
व्यञ्जन (चटनी), ऐक्षव (गन्ने का उत्पाद गुड़
आदि), तीक्ष्णा के प्रिय लगने वाले नैवेद्य कहे गये हैं ।।
५०-५१ ॥
कालिका पुराण
अध्याय ८० ललितकान्ता वर्णन
।।
ललितकान्तावर्णन ॥
यैषा
ललितकान्ताख्या देवी मङ्गलचण्डिका ।
वरदाभयहस्ता
सा द्विभुजा गौरदेहिका ।। ५२ ।।
रक्तपद्मासनस्था
च मुकुटोज्ज्वलमण्डिता ।
रक्तकौशेयवसना
स्मितवक्त्रा शुभानना ।
नवयौवनसम्पन्ना
चार्वङ्गी ललितप्रभा ।। ५३ ।।
जो ललितकान्ता
नामक मङ्गल चण्डिका देवी हैं, वे गोरे शरीरवाली, वरद और अभय हाथों की मुद्राओं से
युक्त, दो भुजाओं वाली हैं। वे लालकमल पर विराजमान हैं तथा
उज्ज्वल मुकुट से सुशोभित हैं। वे लाल रेशमीवस्त्र पहने हैं तथा और मुस्कुराते मुँहवाली,
नये यौवन से सम्पन्न, सुन्दर अङ्गोंवाली,
सुन्दर प्रभा से युक्त हैं ।। ५२-५३।।
उमायाः भाषितं
मंत्रं यत् पूर्वं त्वेकमक्षरम् ।
मन्त्रमस्यास्तु
तज्ज्ञेयं तेन देवीं प्रपूजयेत् ।। ५४ ।।
पहले उमा देवी
का जो एकाक्षर मन्त्र कहा गया है उसे ही इन ललितकान्ता- देवी का भी मन्त्र जानना
चाहिये तथा उसी से इनका भी पूजन करना चाहिये ॥ ॥ ५४ ॥
नारायण्यै
विद्महे त्वां चण्डिकायै तु धीमहि ।
तन्नो
ललितकांन्तेति ततः पश्चात् प्रचोदयात् ।। ५५ ।।
एषा
ललितागायत्री देव्या इष्टषै प्रकीर्तिता ।। ५६ ।।
नारायण्यै
विद्महे त्वां चण्डिकायैतुधीमहि तन्नो ललितकान्ता कह कर प्रचोदयात् कहे, यह नारायण्यै विद्महे त्वां चण्डिकायै
धीमहि तन्नो ललितकान्ता प्रचोदयात् (नारायणी को जानते हैं, आप
चण्डिका का ध्यान करते हैं वह ललितकान्ता हमें प्रेरित करें ) इष्ट प्राप्ति हेतु
यह ललितकान्ता की गायत्री कही गई है ।। ५५-५६॥
लोहितांगस्य
दिवसः प्रियोऽस्याः परिकीर्तितः ।
कालो वसन्तकालश्च
स्वरश्चापि तु पञ्चमः ।। ५७ ।।
लोहितांग
(मङ्गल) का दिन उनका प्रिय दिन कहा गया है, उनका प्रियकाल, वसन्तकाल तथा स्वर
पञ्चमस्वर है।।५७॥
अष्टम्यां च
नवम्यां च पूजा कार्या विभूतये ।
निर्माल्यधारिणी
चास्या देवी ललितचण्डिका ।। ५८ ।
ऐश्वर्य प्राप्ति
हेतु अष्टमी और नवमी को इनका पूजन करना चाहिये। इनकी निर्माल्यधारिणी देवी
ललितचण्डिका कही गई हैं ॥ ५८ ॥
दूर्वाङ्कुरैः
समायुक्तमक्षतं प्रीतिदं परम् ।
अयमस्या विशेषस्तु
पूजने परिकीर्तितः ।। ५९ ।।
इस देवी के
पूजन में दूर्वाङ्कुरयुक्त अक्षत विशेष रूप देवी को परम प्रीति देने वाला, कहा गया है ।। ५९॥
वैष्णवीतन्त्रमन्त्रस्य
तन्त्रं ग्राह्यं तु पूजने ।
उपचारो
बलिश्चास्या विहितो यः क्रमः पुरा ।। ६० ।।
महामायामहादेव्यास्तद्
ग्राह्यं परिपूजने ।
स्वगात्ररुधिरं
दद्यदात्मनश्च हिताय वै ।। ६१ ।।
वैष्णवीतन्त्रमन्त्र
की विधि ही इनके पूजन में ग्रहण करनी चाहिये । पहले महामाया महादेवी के पूजन का जो
उपचार, बलि या क्रम (पद्धति) बताया गया है। वही इन
देवी के भी पूजन में ग्रहण करना चाहिये। अपने कल्याण हेतु साधक को अपने शरीर का
रक्त, प्रदान करना चाहिये ॥ ६०-६१॥
पटेषु
प्रतिमायां वा घटे मङ्गलचण्डिकाम् ।
यः प्रपूजयेद्
भौमदिने शुभैर्दूर्वाङ्कुरैः शिवाम् ।
सततं साधकः
सोऽपि काममिष्टमवाप्नुयात् ।। ६२ ।।
जो साधक
भौमवार के दिन वस्त्रों पर (चित्र में), प्रतिमा में या कलश पर मङ्गलचण्डिका, शिवा
का सुन्दर दुर्वाङ्कुरों से निरन्तर पूजन करता है, वह साधक
अपनी अभीष्ट कामनाओं को प्राप्त कर लेता है॥ ६२ ॥
एवं
दिक्करवासिन्याः कथितः पूजनक्रमः ।
यच्छ्रुत्वा
नाशुभं किञ्चिदाप्नोति श्रवणे रतः ।। ६३ ।।
दिक्करवासिनी
देवी का इस प्रकार का पूजनक्रम कहा गया है जिसे सुनकर, सुनने वाला कुछ भी अशुभ नहीं प्राप्त करता
॥ ६३ ॥
दिक्करस्त्वरुणः
प्रोक्तस्तथा शम्भुश्च दिक्करः ।
तस्मिन्नध्युषिता
देवी तस्माद् दिक्करवासिनी ।। ६४ ।।
दिक्कर
सूर्यदेव को कहा जाता है, तथा शिव को भी दिक्कर कहा जाता है, देवी उनके ऊपर
बसी होती है, इसीलिए उसे दिक्करवासिनी कहा गया है ।। ६४ ।।
जगत् त्रयेऽपि
यस्यास्तु सदृशी चाऽपि सुन्दरी ।
नान्यास्ति
ललिता तेन देवी ललितकान्तिका ।। ६५ ।।
तीनों लोकों
में कोई दूसरी सुन्दरी, उनके समान सुन्दर नहीं है इसीलिए वे देवी ललितकान्तिका कही जाती हैं ।।
६५॥
कालिका पुराण
अध्याय ८० ब्रह्म पूजन विधि
।। ब्रह्मपूजनविधि
।।
शङ्करस्य पुरा
प्रोक्तो ग्राह्यो वै पूजनक्रमः ।
शृणु राजनन्वहितो
ब्रह्मणः पूजनक्रमम् ।। ६६ ।।
शङ्कर की पूजा
का जो क्रम पहले बताया गया है वहीं यहाँ भी ग्रहण करना चाहिये । हे राजन् ! अब आप
मेरे द्वारा ब्रह्मा के लिए निर्दिष्ट पूजनक्रम को सुनो।।६६॥
ब्रह्मबीजं
पुरा प्रोक्तं तन्मन्त्रं सर्वतश्चरेत् ।
तेनैव तं तु
सम्पूज्य परं निर्वाणमाप्नुयात् ।। ६७।।
ब्रह्मा का जो
बीजमन्त्र पहले बताया गया है, उसी मन्त्र का सब जगह प्रयोग करना चाहिये। उसी से ब्रह्मा की पूजा करके
साधक, परं निर्वाण को प्राप्त करता है ।।६७॥
एतस्य
चाङ्गमन्त्रं तु यथा भर्गेण भाषितम् ।
वेतालभैरवाभ्यां
तु रूपं च शृणु भूमिप ।। ६८ ।।
हे राजन् ! अब
इनके अङ्गमन्त्र और उनके रूप के विषय में सुनो जैसा कि भगवान् शङ्कर द्वारा वेताल
और भैरव से कहा गया है ॥ ६८ ॥
पस्तृतीयश्च बहिश्च
शेष: स्वरसमन्वितः ।
चन्द्रबिन्दुसमायुक्तो
ब्रह्ममन्त्रं प्रकीर्तितम् ।।६९।।
प से तृतीय
वर्ण ब और वह्नि (र) शेषस्वर (आ), चन्द्र-बिन्दु से युक्त हो ब्रह्मा का मन्त्र ब्राँ कहा गया है ।। ६९ ।।
अनेनैव तु
मन्त्रेण ब्रह्माणं यः प्रपूजयेत् ।
स काममिष्टं
संप्राप्य ब्रह्मलोकेषु मोदते ।।७० ।।
इसी मन्त्र से
जो ब्रह्मा का पूजन करता है,वह अपनी इष्ट कामनाओं को प्राप्त कर ब्रह्मलोक में आनन्द प्राप्त करता है।।७०॥
कालिका पुराण
अध्याय ८० ब्रह्मा का ध्यान
।। ब्रह्मा का
ध्यान ।।
ब्रह्मा कमण्डलुधरः
चतुर्वक्त्रश्चतुर्भुजः ।
कदाचिद्रक्तकमले
हंसारूढः कदाचन ।। ७१ ।
वर्णेन
रक्तगौराङ्गः प्रांशुस्तुङ्गाङ्ग उन्नतः ।
कमण्डलुं
वामकरे स्रुचं हस्ते च दक्षिणे ।।७२।।
दक्षिणाधस्तथा
मालां वामाधश्च तथा स्रुवम् ।
आज्यस्थाली
वामपार्श्वे देवाः सर्वेऽग्रतः स्थिताः ।। ७३ ।।
सावित्री
वामपार्श्वेस्था दक्षिणस्था सरस्वती ।
सर्वे च ऋषयो
ह्यग्रे कुर्यादेवं विचिन्तनम् ।। ७४ ।।
ब्रह्मा
कमण्डलु धारण किये, चार मुँह और चार भुजाओं से युक्त, भ कमल पर तो कभी
हंस पर सवार, लाल गोरेरङ्ग के, लम्बे,
उठे हुये अङ्गों वाले, ऊँची काया वाले हैं। वे
अपने बाएँ हाथों में कमण्डलु और दाहिने हाथ में स्रुचि, दाहिने
निचले हाथ में माला तथा बायें निचले हाथ में स्रुवा धारण किये हैं, उनके बायें भाग में आज्यस्थाली तथा सामने सभी देवगण स्थित रहते हैं। उनके
बाँये भाग सावित्री तथा दाहिने भाग में सरस्वती एवं आगे की ओर सभी ऋषिगण विराजमान
हैं। ब्रह्मा का ऐसा चिन्तन, ध्यान करना चाहिये ।। ७१-७४ ।।
कालिका पुराण
अध्याय ८० ब्रह्मा यन्त्र वर्णन
।। ब्रह्मा यन्त्र
वर्णन ।।
चतुष्कोणं
चतुर्द्वारमष्टपत्रसमन्वितम् ।
चतुष्कोणेष्वङ्कितं
तु स्रक्कमण्डलुस्रुक्स्रुवैः ।।७५।।
सम्मार्जनादिकं
सर्वं याश्चान्याः प्रतिपत्तयः ।
दृष्टवाश्चोत्तरतन्त्रोक्ता
योगपीठेऽङ्गिकादिकाः ।। ७६ ।।
आधारशक्तिप्रमुखांस्तथा
सर्वास्तु पूजयेत् ।
अष्टपत्रेषु
पद्मस्य दिक्पालांश्च प्रपूजयेत् ।। ७७ ।।
ब्रह्मा के
यन्त्र के रूप में चार द्वार एवं आठपत्रों (दलों) से युक्त एक चतुष्कोण बनाना
चाहिये। जिसके चारों द्वारों पर क्रमशः पूर्वादि क्रम से माला, कमण्डलु, स्रुक और
स्रुवा अङ्कित करे । सम्मार्जन आदि या अन्य प्रतिपत्तियाँ, जो
उत्तरतन्त्र में कही गई हैं, उन्हें वहाँ से देखकर, योगपीठ पर अङ्गिका आदि सभी आधार शक्तियों का पूजन करना चाहिये। योगपीठ पर
अष्टदल कमल के आठपत्रों में आठों दिग्पालों का पूजन करना चाहिये ।। ७५-७७।।
कालिका पुराण
अध्याय ८० ब्रह्मगायत्री
।।
ब्रह्मगायत्री ।।
पद्मासनाय विद्महे
हंसारूढाय धीमहि ।
तन्नो ब्रह्मन्निति
पदं ततः पश्चात् प्रचोदयात् ।। ७६ ।।
एषा तु
ब्रह्मगायत्री पूजयेदनया विधिम् ।। ७९ ।।
पद्मासनाय
विद्महे हंसारुढाय धीमहि तन्नो ब्रह्मन् के पश्चात् प्रचोदयात् पद लगाने से ॐ
पद्मासनायविद्महे हंसारूढ़ाय धीमहि तन्नो ब्रह्मन् प्रचोदयात् (हम पद्मासन को
जानते हैं, हंसारुढ
का ध्यान करते हैं वह ब्रह्मा हमें प्रेरित करें), यह
ब्रह्मा की गायत्री है, इससे ब्रह्मा का पूजन करना चाहिये ।।
७८-७९ ।।
निर्माल्यधारी
चैतस्य सनत्कुमार उच्यते ।
उपचाराः
पूर्ववत् तु नेत्राञ्जनविवर्जिताः ॥८०॥
इनके
निर्माल्यधारी सनत्कुमार कहे जाते हैं, इनके पूजोपचार भी पहले ही की भाँति हैं, केवल आँखों में अञ्जन का निषेध है ॥ ८० ॥
रक्तकौशेयवस्त्रं
तु ब्रह्मप्रीतिकरं परम् ।
अन्नं सपायसं सर्पिस्तिलयुक्तं
च भोजनम् ।
सितरक्तसमायुक्तं
चन्दनं परिकीर्तितम् ।। ८१ ।।
लाल रेशमीवस्त्र
ब्रह्मा को अत्यन्त प्रसन्नता देने वाला है। पायस (खीर), घी और तिल के सहित अन्न, ब्रह्मा का प्रिय भोजन है । श्वेत और लाल रङ्गों का मिला हुआ चन्दन,
उनका प्रिय चन्दन कहा गया है ।। ८१ ।।
पार्श्वयोः
शंकरं विष्णु पूजने पूजयेत् पुरः ।।८२।।
स्रुवादीन्
करसंस्थांस्तु मण्डले परिपूजयेत् ।
सरस्वतीं च
सावित्रीं हंसं पद्मं तथैव च ।। ८३ ।।
पूजन में पहले, ब्रह्मा के पार्श्वभागों में शङ्कर और
विष्णु का पूजन करना चाहिये। उनके हाथों में स्थित स्रुवा आदि का तथा सरस्वती,
सावित्री, हंस और पद्म का भी उसी प्रकार पूजन
करना चाहिये ।।८२-८३।।
अयं विशेषः
कथितः प्रणामश्चास्य दण्डवत् ।
पद्मबीजभवा
माला जपकर्मणि कीर्तिता ।।८४ ।।
यह विशेष रूप
से कहा गया, ब्रह्मा
का विशेष प्रणाम, दण्डवत कहा गया है। कमल के बीज (कमलगट्टे)
से बनी माला, इनके जपकर्म के लिए कही गई है।। ८४ ।।
पूर्णादर्शी
तिथी ग्राह्यौ पूजाकर्मणि सर्वदा ।
क्षीरेणार्धं
प्रदद्यात् तु सर्वदा ब्रह्मणे नृप ।। ८५ ।।
हे राजन् !
ब्रह्मा के पूजन में सदैव पूर्णिमा और अमावस्या तिथियों को ग्रहण करना चाहिये तथा
ब्रह्मा के लिए दूध से, अर्घ-प्रदान करना चाहिये ॥ ८५ ॥
अयं ते कथितो
भूप यथा भर्गेण भाषितः ।
दर्शयता
स्वपुत्राभ्यां कामरूपाह्वयं शुभम् ।। ८६ ।।
हे राजन् ! यह
मेरे द्वारा आपसे वह सब कहा गया जो भगवान् शिव ने अपने पुत्रों से, सुन्दर कामरूप क्षेत्र का परिचय देते हुये
कहा था ॥ ८६ ॥
यत्र तत्र
विधिश्चैव साधकः परिपूजयेत् ।
पीठे सम्यक्
पूजयित्वा परं निर्वाणमाप्नुयात् ।। ८७ ।।
जहाँ के लिए
जो विधि निर्दिष्ट हैं, साधक को वहाँ उसी के अनुसार पूजन चाहिये। पीठ पर विधिपूर्वक पूजन करके
साधक परं निर्वाण प्राप्त करता है ॥ ८७ ॥
कालिका पुराण
अध्याय ८० वैष्णवपूजाविधि
।।
वैष्णवपूजाविधि ।।
कथिता
ब्रह्मणः पूजा पूजनं शृणु वैष्णवम् ।
बीजं तु
वासुदेवस्य पुरैव प्रतिपादितम् ।।८८।।
मेरे द्वारा ब्रह्मा
की पूजा कही गई, अब आप
वैष्णवपूजा (विष्णु की पूजा) के विषय में सुनो। वासुदेव का बीजमन्त्र तो पहले ही
कहा गया है॥८८॥
तदङ्गमन्त्रं राजेन्द्र
द्वादशाक्षरमुच्यते ।
नमो भगवते
पूर्व वासुदेवाय वै परम् ।।८९।।
अङ्गमन्त्रमिदं
चैव वासुदेवाय कीर्तितम् ।
अस्य
प्रत्यङ्गरूपं तु दधिवामनसंज्ञकम् ।।९० ॥
राजेन्द्र !
उनका बारह अक्षरोंवाला अङ्गमन्त्र ॐ नमो भगवते पहले कहकर तत्पश्चात् वासुदेवाय
लिखने से बना ॐ नमो भगवते वासुदेवाय है । यही वासुदेव का अङ्गमन्त्र कहा गया है।
भगवान् विष्णु का प्रत्यङ्गरूप दधिवामन नाम का है।। ८९-९० ॥
तस्य मन्त्रं
नरश्रेष्ठ शम्भुना भाषितं शृणु ।
ॐ नमो विष्णवे
पूर्वपदं तस्य प्रकीर्तितम् ।। ९९ ।।
पदं च सुरपतये
चतुर्थ्यन्तं महाबलम् ।
स्वाहान्तं
हृदयासन्नं प्रत्यङ्गवैष्णवं मतम् ।।९२।।
हे नरश्रेष्ठ
! अब आप शिव के द्वारा कहा गया, उनका मन्त्र सुनो। ॐ नमो विष्णवे शब्द उसका पहला पद कहा गया है तत्पश्चात्
सुरपतये शब्द, तब चतुर्थी विभक्ति से महाबल शब्द महाबलाय
हृदय (नमः) से युक्त तथा अन्त में स्वाहा से समन्वित “ॐ
नमो विष्णवे सुरपतये महाबलाय नमः स्वाहा'" यह
भगवान् विष्णु का प्रत्यङ्ग मन्त्र कहा गया है ।९१-९२ ।।
मन्त्रत्रयं
तु यो वेद बीजं प्रत्यङ्गसंज्ञकम् ।
स पुमान्
देवकायस्तु न स भूयोऽभिजायते ।। ९३ ।।
जो बीज से
लेकर प्रत्यङ्गपर्यन्त उपर्युक्त तीनों मन्त्रों को जानता है, वह पुरुष देव- शरीर को प्राप्त करता है और
उसका पुनर्जन्म नहीं होता ॥ ९३ ॥
सर्वं
उत्तरतन्त्रोक्तः क्रमो ग्राह्यः प्रपूजने ।
त्रिषु
मंत्रेषु च सदा विशेषं शृणु भूपते ।। ९४ ।।
हे भूपति !
तीनों मन्त्रों के साथ सदा, सब जगह पूजन में उत्तरतन्त्र में कहा गया क्रम ही ग्रहण करना चाहिये। यहाँ
जो विशेष करणीय है उसे सुनिये ॥ ९४ ॥
रूपं तु
बीजमन्त्रस्य प्रथमं शृणु भूपते ।
पूर्णचन्द्रोपमः
शुक्लः पक्षिराजोपरिस्थितः ।। ९५ ।।
चतुर्भुजः
पीतवस्त्रैस्त्रिभिः संवीतदेहभृत् ।
दक्षिणोर्ध्वे
गदां धत्ते तदधो विकचाम्बुजम् ।। ९६ ।।
वामोर्ध्वे
चक्रमत्युग्रं धत्तेऽधः शङ्खमेव च ।
श्रीवत्सवक्षाः
सततं कौस्तुभं हृदि चांशुमत् ।। ९७ ।।
धत्ते कक्षे
ह्यधोवामे तूणीरं बाणपूरितम् ।
दक्षिण कोषगं
खड्गं नन्दकं सशरासनम् ।। ९८ ।।
शीर्षे किरीटं
सूद्योतं कर्णयोः कुण्डलद्वयम् ।
आजानुलम्बिनी
चित्रां वनमालां गले स्थिताम् ।। ९९ ।।
दधानं दक्षिणे
देवीं श्रियं पार्श्वे तु विभ्रतम् ।
सरस्वतीं
वामपार्श्वे चिन्तयेद् वरदं हरिम् ।। १०० ।।
हे राजन् !
बीजमन्त्र की साधना में प्रयुक्त भगवान् विष्णु का रूप (ध्यान) पहले सुनो-वे
विष्णु, पूर्ण चन्द्रमा के समान श्वेतवर्ण के हैं,
वे पक्षियों के राजा गरुड़ पर विराजमान हैं । वे चार भुजाओं से
युक्त हैं तथा उन्होंने अपने शरीर को तीन पीलेवस्त्रों से भलीभाँति ढँक रखा है। वे
अपने ऊपरी दाहिने हाथ में गदा एवं उसके नीचे खिला हुआ कमल, बायें
ऊपरी हाथ में अत्यन्त उग्र चक्र और नीचे शङ्ख, धारण किया है
। वे निरन्तर, हृदय में श्रीवत्स व चमकती हुई कौस्तुभमणि तथा
अपने बायें पार्श्व में नीचे की ओर बाणों से भरा तरकस व दाहिनी ओर म्यान में नन्दक
नामक खड्ग और धनुष रखे हुये हैं। उन्होंने मस्तक पर सुन्दर चमकता हुआ मुकुट तथा
कानों में दो कुण्डल, गले में घुटनों तक लम्बी रङ्गबिरङ्गी
वनमाला धारण की है। दाहिने- पार्श्व में श्री देवी (लक्ष्मी) तथा बायें पार्श्व
में सरस्वती से विभूषित वरदायक ऐसे विष्णु का ध्यान करे ।। ९५-१००॥
बीजमन्त्रस्य
रूपं च कथितं तव पार्थिव ।
द्वादशाक्षरमन्त्रस्य
रूपमेतच्छृणुष्व मे ।। १०१ ।।
हे राजन् !
बीजमन्त्र सम्बन्धी भगवान् विष्णु का ध्यान आपसे कहा गया अब आप द्वादशाक्षर मन्त्र
से सम्बन्धित ध्यान को मुझसे सुनें ॥ १०१ ॥
नीलोत्पलदलश्यामं
तथैव च चतुर्भुजम् ।
दक्षिणोर्ध्वस्थितं
पद्मं गदां चाधः प्रयोजयेत् ।। १०२ ।।
वामेऽधश्चक्रमतुलमूर्ध्वे
शंखं च विभ्रतम् ।
चिन्तयेद्
वरदं देवं सर्वमन्यच्च पूर्ववत् ।। १०३ ।।
नीलेकमल के
समान श्याम शरीर और वैसी ही चार भुजाओं से युक्त, जिनमें दक्षिण की ऊपरी भुजा में कमल तथा नीचे गदा, बायें निचले हाथ में अतुलनीय चक्र और ऊपरी हाथ में शंख धारण किये हुये
वरदायक भगवान् विष्णु का ध्यान करे। अन्य सब कुछ पहले बताये बीजमन्त्र की भाँति ही
जाने।।१०२-१०३।।
अष्टादशाक्षरस्यास्य
प्रत्यङ्गस्य च चिन्तनम् ।
श्रृणु
राजनन्वहितो दारिद्र्यभयनाशनम् ।। १०४ ।।
हे राजन् !
दरिद्रता के भय का नाश करने वाले इन (भगवान् विष्णु) के अठारह अक्षरों के
प्रत्यङ्ग मन्त्र सम्बन्धी चिन्तन (ध्यान) के विषय में मुझसे सुनो।। १०४ ॥
पूर्णेन्दुसदृशं
कान्त्या शुक्लवर्णं विचिन्तयेत् ।
करे
विचिन्तयेद् वामे पीयूषापूरितं घटम् ।। १०५ ।।
दध्यन्नखण्ड
संयुक्तं दक्षिणे स्वर्णभाजनम् ।
पद्मासनगतं
देवं चन्द्रमण्डलमध्यगम् ।। १०६ ।।
शुक्लवस्त्रधरं
देवं प्रमाणाद् वामनं सदा ।
ईषद्धाससमायुक्तं
त्रिलोकेशं त्रिविक्रमम् ।
चिन्तयेद्
वरदं देव सर्वकामफलप्रदम् ।। १०७ ।।
कान्ति की
दृष्टि से पूर्ण चन्द्रमा के समान शुक्लवर्ण का उनका ध्यान करे । उनके बायें हाथ
में अमृत से पूरी तरह भरा हुआ घट, दाहिने हाथ में दही और भात से भरा स्वर्णपात्र, चन्द्रमण्डल
के मध्य पद्मासन पर विराजमान, श्वेत वस्त्र धारण किये हुये,
आकार के मान से सदैव वामनरूप, थोड़ी हँसी से युक्त,
तीन लोकों के स्वामी, सभी भक्तों की कामनाओं
को फल देने वाले, वरदायक, त्रिविक्रमदेव
भगवान् विष्णु का, ध्यान करना चाहिये ॥। १०५ - १०७॥
दहनप्लवनादौ च
पूर्वतन्त्रोदिता यथा ।
तथा मन्त्राः
परिग्राह्यास्तथा चोत्तरतन्त्रगाः ।। १०८ ।।
इन मन्त्रों
का दहन - प्लवन आदि कार्य पहले के तन्त्रों में जैसा बताया गया है। वैसे ही करना
चाहिये। उत्तरतन्त्र में बताये मन्त्रों को ही ग्रहण करना चाहिये।। १०८ ।।
मण्डलस्य
क्रमं तस्य शृणु भर्गेण भाषितम् ।। १०९।।
हे राजन् ! अब
शिव द्वारा कहे गये इनके मण्डलक्रम को सुनो ॥ १०९ ॥
रेखया
नित्यपूजासु रजोभिः पंचभिस्तथा ।
नैमित्तिके
यथा कार्यं भेदाभेदेन साम्प्रतम् ।। ११० ।।
नित्य की पूजा
में पाँच रङ्ग के रजकणों की रेखाओं से तथा नैमित्तिक कार्यों में कार्यभेद के
अनुसार, यथोचित मण्डल निर्माण करना चाहिये ।। ११०
।।
हस्तमात्रं
चतुर्द्वारं वर्तुलाम्बुजसन्निभम् ।
चतुष्कोणे चतुर्भिस्तु
शङ्खैर्युक्तं मनोहरम् ।। १११।
बद्धद्वारं
दिक्पतीनामायुधैः करणैस्तथा ।
अष्टासु दिक्षु
निहितं सवहिर्वेष्टपद्मकम् ।। ११२ ।।
एक हाथ मात्र
में चतुष्कोण मण्डल बनाये जो चार द्वारों से युक्त एवं एक कमल के समान वृत्ताकार
हो, चारो कोनों पर शङ्खों से युक्त, सुन्दर दिक्पालों के आयुध एवं उपकरणों से आठों दिशाओं से घिरा हुआ,
बाहर से कमल से घिरा हो। १११-११२ ।।
एवं यथा
रजोभिस्तु कार्यं तच्छृणु पार्थिव ।
सितैः
पीतैस्तथा रक्तैः श्यामैश्च हरितैः क्रमात् ।
रजोभिर्मण्डलं
कुर्यादन्यथा न समाचरेत् ।।११३।।
हे राजन् !
ऐसा जिस प्रकार के रजकणों से करना चाहिये, वह सुनो- क्रमशः सफेद, पीला, लाल, काला एवं हरे चूर्ण से मण्डल बनाना चाहिये।
इससे अन्यथा नहीं करना चाहिये ॥ ११३ ॥
चतुर्हस्तं
त्रिहस्तं च द्विहस्तं हस्तमात्रकम् ।। ११४ । ।
सर्वत्र
मण्डलं कुर्याद् यथोक्तं वाधिकं पुनः ।
राजसूयाश्वमेधादौ
चतुर्हस्ताधिकं मतम् ।। ११५ ।।
चार हाथ, तीन हाथ, दो हाथ या
एक हाथ मान का या अधिक मान का सर्वत्र यथोचित मण्डल बनाना चाहिये किन्तु राजसूय-
अश्वमेध आदि यज्ञों में चार हाथ से अधिक माप का मण्डल बनाना चाहिये ।। ११४- ११५ ।।
कल्पानतिक्रमाद्
भूप यथोक्तं यत्र यत्र च ।
दिक्पालायुधपद्मानां
पूर्ववल्लिखनक्रमः ।। ११६।।
हे राजन् !
कल्पों, पूजा विधियों का अतिक्रमण बिना किये जहाँ
जैसा बताया गया है, वहाँ वैसा ही दिक्पालों के अस्त्रों और
पद्मों का पहले ही की भाँति लेखन करना चाहिये ॥ ११६ ॥
सितै रजोभिः
कर्तव्यं मध्ये पद्मं सुवर्तुलम् ।
कर्णिका
पीतवर्णस्य केशराग्रं तथारुणम् ।
रक्तैः पीतैः
पूरयेत् तु बहिः पद्मस्य सर्वतः ।। ११७ ।।
सफेद चूर्ण से
मध्य में गोलाकार कमल बनाना चाहिये । इसकी कर्णिका में पीले, केशरों का अगला भाग लालरङ्ग के, कमल के बाहर सब ओर लाल पीले रङ्ग के चूर्ण से भरे ॥ ११७ ॥
वज्रं शक्तिं
लोहदण्डं खड्गं पाशाङ्कुशं गदाम् ।
शूलमष्टदिगीशानामायुधानि
क्रमात पुनः ।। ११८ ।।
वज्र, शक्ति, लोहदण्ड,
खड्ग, पाश, अङ्कुश,
गदा, शूल ये क्रमशः इन्द्रादि आठ दिक्पालों के
आठ आयुध कहे गये हैं ।। ११८ ।।
शम्भुर्गौरी
तथा ब्रह्मा रामः कृष्णस्तथैव च ।
एतास्तु सततं
पूज्याः संस्थिताः पञ्चदेवताः ।। ११९ ।।
शिब, गौरी, ब्रह्मा,
राम, कृष्ण इन पाँचो संस्थित देवताओं का पूजन
करना चाहिये।। ११९॥
न कदाचिदबुधः
कुर्याच्छम्भुगौर्योर्वियोजनम् ।
वियोगे तु
कृता पूजा निष्फला तस्य जायते ।। १२० ।।
विच्छिन्नं
मूर्ध्नि भूतं तु पूजितं शक्तमेव च ।। १२१।।
कभी भी नीचे
की ओर (अर्धे के रूप में) स्थित शिव-पार्वती को एक दूसरे से अलग नहीं करना चाहिये।
जो पूजा इन दोनों को अलग करके की जाती है, वह निष्फल हो जाती है। इन्हें अलग कर की हुई मूर्ध्निभूत
(श्रेष्ठ) पूजा भी सीमित (अपूर्ण) ही रहती है। १२०-१२१ ।।
न्यासे तु
मण्डलस्यास्य रजोदोषं विवर्जयेत् ।
सर्वत्र
मण्डलं कार्यं वासुदेवस्य पूजने ।
एवमेव
नृपश्रेष्ठ निष्फलं चान्यथेतरत् ।। १२२।।
इस मण्डल के
निर्माण में रजो-दोष (आटे के दोष) को हटाना चाहिये । वासुदेव (विष्णु) के पूजन
हेतु सब जगह मण्डल का निर्माण करना चाहिये । हे राजाओं में श्रेष्ठ! इसी प्रकार
वासुदेव का पूजन करे, इससे अन्यथा करने पर पूजा निष्फल हो जाती है॥ १२२ ॥
बलभद्रश्च कामश्च
ह्यनिरुद्धस्तदुद्भवः ।
नारायणस्तथा
ब्रह्मा विष्णुः षष्ठः प्रकीर्तितः ।। १२३ ।।
नरसिंहो
वाराहश्च योगिन्नोऽष्टौ प्रकीर्तिताः ।। १२४ ।।
बलभद्र, काम और उससे उत्पन्न अनिरुद्ध, नारायण, ब्रह्मा तथा विष्णु ये छः तथा नरसिंह और
वाराह ये आठ योगी कहे गए हैं ।। १२३-१२४।।
पूर्वाद्यष्टदलेश्वेतान्
रूपतो मन्त्रतः पृथक् ।
पूजयेत्
कर्णिकामध्ये वासुदेवं तु नायकम् ।। १२५ ।।
पूर्व आदि के
आठ-श्वेतदलों में अलग-अलग ध्यान और मन्त्रों से इनका पूजन तथा कमल की कर्णिका के
मध्य में वासुदेव का नायक के रूप में पूजन करे ।। १२५।।
विमला नायिका
तस्य वासुदेवस्य कीर्तिता ।
बलभद्रमुखानां
तु योगिनी: शृणु पार्थिव ।। १२६ ।।
हे राजन् ! उन
वासुदेव की नायिका विमलादेवी कही गई हैं। अब बलभद्र आदि की योगिनियों के विषय में
सुनो॥१२६॥
आदावुत्कर्षिणी
ज्ञेया ज्ञाना पश्चात् क्रियापरा ।
योगा प्रह्वी
तथैशानी अनुग्राही तथाष्टमी ।। १२७ ।।
इनमें पहली
उत्कर्षिणी तत्पश्चात् क्रमशः ज्ञेया, क्रिया, योगा, प्रह्री
तथा ऐशानी और अनुग्राही, ये आठ योगिनियाँ हैं ॥ १२७॥
सर्वाश्चतुर्भुजाः
प्रोक्ताः शङ्खचक्रगदाधराः ।
योगिनो
बलभद्रं तु कामं विधिमृते तथा ।। १२८ ।।
बलभद्र, काम तथा ब्रह्मा को छोड़कर सभी पूर्वोक्त
योगी, चार भुजाओं वाले तथा शङ्ख-चक्र-गदाधारी बताये गये हैं
।। १२८ ॥
विधेरूपे तु
पूर्वोक्तं हलं च मुषलं बलः ।
खड्गं चक्रं च
धत्ते यो गदां पार्श्वे स्थितां सदा ।। १२९ ।।
विधाता
(ब्रह्मा) का रूप पहले ही कहा गया है तथा बलभद्र, हल एवं मुषल खड्ग और चक्र धारण करते हैं तथा गदा उनके
पार्श्वभाग में सदैव रखी रहती है ।। १२९ ॥
कामस्तु
पुष्पकोदण्डं धत्ते वामेन पाणिना ।
गदां चक्रं च
पुष्पं च धत्तेऽन्यैः पाणिभिः पुनः ।
पार्श्वे
पद्मं तथा धत्ते सर्वमन्यच्च पूर्ववत् ।। १३० ।।
कामदेव अपने
बायें हाथ में पुष्प का बना धनुष तथा अन्य हाथों में इसके अतिरिक्त गदा, चक्र एवं पुष्प धारण करते हैं। उनके
पार्श्व में पद्म रहता है तथा अन्य सब पहले की ही भाँति होता है ।। १३० ॥
चक्रं शङ्खो
वाराहस्य दक्षिणे परिकीर्तितौ ।
नृसिंहस्य
पुनश्चक्र शङ्खौ दक्षिणवामयोः ।। १३१ ।।
चक्र और शङ्ख
वाराह के दाहिने हाथों में तथा नृसिंह के दाहिने हाथ में चक्र और बायें में शङ्ख
होता है ।। १३१ ॥
शङ्खपद्मं तथा
विष्णोः पाण्योर्दक्षिणयोः स्थितम् ।। १३२ ।।
शङ्खो गदा
वामतस्तु नारायणकरस्थितौ ।
दक्षिणाधो
गदां धत्ते ह्यनिरुद्धो नरोत्तम ।। १३३ ।
हे नरों में
उत्तम् ! विष्णु के दाहिने हाथ में शङ्ख तथा पद्म, नारायण के बायें हाथ में शङ्ख और गदा रहती है तथा अनिरुद्ध
दाहिनी ओर के निचले हाथ में गदा धारण करते हैं ।। १३२-१३३ ।।
सितरक्तस्तथा पीतो
भिन्नाञ्जननिभस्तथा ।
नीलोत्पलदलश्यामस्तथा
रक्तघनप्रभः ।। १३४ ।।
भ्रमरश्यामलः पिङ्गः
सुवर्णगौरः क्रमादिमे ।
वर्णतो योगिनः
प्रोक्ता वासुदेवस्य पार्थिव ।। १३५ ।।
हे राजन् !
श्वेत, लाल, पीला, अञ्जन के टुकड़े के समान आभावाला (काला), नीलेकमल की
पंखुड़ियों की भाँति नीला, लाल बादल की प्रभा वाला, भौरे की तरह काला, पिङ्ग (पीताभ), सुनहले गोरे रङ्ग के भगवान् विष्णु के बलभद्रादि क्रमशः आठ योगी, कहे गये हैं ।। १३४ - १३५ ॥
यादृग्वर्णश्च
ध्यानं च यस्य यस्य च योगिनः ।
तादृशीर्योगिनीस्तस्य
चिन्तयेत् तत् समीपगाः ।। १३६ ।।
जिस योगी का
जो रङ्ग और ध्यान बताया गया है उसी प्रकार की उनकी समीपवर्ती योगिनियों का भी
चिन्तन करना चाहिये ॥ १३६ ॥
आधारशक्तिप्रमुखाः
सर्वा आसनदेवताः ।
ग्रहाश्च
सर्वे दिक्पाला ध्यानतो मन्त्रतस्तथा ।
पूजनीया
यथोद्देशे मण्डलस्य क्रमान्नृप ।। १३७ ।।
हे राजन् !
आधार शक्ति आदि सभी आसन देवताओं, ग्रहों, दिक्पालों का मण्डल के यथोचित स्थानों पर,
निर्दिष्ट ध्यान एवं मन्त्र के द्वारा क्रमशः पूजन करना चाहिये।।
१३७।।
देवस्य
चिन्तितं यद् यच्छरीरे कमलादिकम् ।
धृतास्त्रं वज्रशक्त्यादिगरुडादींश्च
पूजयेत् ।। १३८ ।।
देव (भगवान्
विष्णु) के चिन्तन में जिन-जिन रूपों में कहा है, कमल, वज्र, शक्ति
आदि धारण किये अस्त्रों एवं गरुड़ आदि का पूजन करे ॥ १३८ ॥
वर्णमालां
शम्भुमतामासाद्य क्रमयोगतः ।
आद्यद्वितीयक्रमतो
गदादीनां तु मंत्रकम् ।। १३९।।
पञ्चरात्रोदिते
भागे नारदेन यथोदिताः ।
मंत्राश्चक्रगदादीनां
ग्राह्याः सर्वत्र पूजने ।। १४० ।।
क्रमयोग में शिव
द्वारा प्रतिपादित, वर्णमाला व गदा आदि के मन्त्रों का प्रथम-द्वितीय के क्रम से अथवा नारद
द्वारा पञ्चरात्र दर्शन में कहे क्रम से, पूजन में सर्वत्र,
चक्र, गदा आदि के मन्त्रों को ग्रहण करना
चाहिये ।। १३९-१४० ।।
गरुत्मान्
सूर्यसङ्काशो गदा कृष्णायसी पुनः ।। १४१ ।।
सरस्वती शुक्लवर्णा
लक्ष्मीर्हेमप्रभा सदा ।
मध्याह्नसूर्यप्रतिमं
चक्रं तु परिकीर्तितम् ।। १४२ ।।
सदा गरुड़
सूर्य के समान, गदा काले
लोहे की, सरस्वतीदेवी श्वेतवर्ण की, लक्ष्मी
सुनहरी प्रभा से युक्त और चक्र, मध्याह्नकालिक सूर्य के समान, कहे गये हैं ।। १४१-१४२ ।।
सम्पूर्णचन्द्रप्रतिमः
शङ्खास्तु परिकीर्तितः ।
कौस्तुभो
ह्यरुणः प्रोक्तः श्रीवत्सो ह्यरुणद्युतिः ।। १४३ ।।
शंख सम्पूर्ण
चन्द्रमा के समान श्वेत कहा गया है। लालरङ्ग की कौस्तुभमणि तथा श्रीवत्स भी लाल ही
आभावाला कहा गया है ।। १४३ ॥
आरक्तकौस्तुभो
ज्ञेयो माला चित्रा प्रकीर्तिता ।
विद्युत्
प्रभा सर्वबाणाः शक्रचापप्रभं धनुः ।। १४४ । ।
कौस्तुभमणि को
लाल रङ्ग का जानना चाहिये, वनमाला रङ्गबिरङ्गी कही गई है । उनके सभी बाण, बिजली
के समान चमक वाले और धनुष, इन्द्रधनुष के समान आभावाला कहा
गया है ॥ १४४ ॥
स्वर्णचूर्णप्रकाशं
तु वस्त्रमस्य प्रकीर्तितम् ।
बालसूर्यप्रतीकाशे
कुण्डले द्वे श्रवोगते ।
सूर्यस्य
सदृशं शीर्षे किरीटं परिकीर्तितम् ।। १४५ ।।
उनका वस्त्र, स्वर्णचूर्ण के समान आभावाला कहा गया है,
उनके दोनों कानों में स्थित कुण्डल, बाल (नये उगते)
सूर्य के समान एवं सिर पर स्थित मुकुट, सूर्य के समान कहा
गया है ।। १४५ ।।
शृणु न्यासं
ततो भूप यैन्यसैर्विष्णुरूपधृक् ।
साधको हि
भवेन्नित्यं स्वर्गमोक्षप्रदायकम् ।। १४६ ।।
हे राजन् ! अब
उस न्यास के विषय में सुनो जिसे करके साधक, स्वयं विष्णुरूप धारण कर नित्य, स्वर्ग
और मोक्ष प्रदान करने में समर्थ हो जाता है ।। १४६ ॥
न्यासं तु
प्रथमं कुर्यान्मन्त्रविद् द्वादशाक्षरैः ।। १४७ ।।
वासुदेवस्य
बीजेन बीजं चैवाथ योगिनाम् ।
ततो न्यसेन्महामन्त्रे
ततश्चाष्टादशाक्षरैः ।। १४८ ।।
मन्त्रवेत्ता
साधक को सर्वप्रथम द्वादशक्षरों से न्यास करना चाहिये तब वह वासुदेवबीज एवं उनके
योगियों के बीजमन्त्रों से तत्पश्चात् अष्टादशाक्षर मन्त्र के अक्षरों से न्यास
करे।।१४७-१४८ ।।
ततस्तु हृदयादीनां
षड्भिर्मन्त्रैद्विधां पुनः ।
एवं
चतुर्भिर्न्यासैस्तु पूजामेकां समाचरेत् ।। १४९ ।।
तदनन्तर हृदय
आदि का छः मन्त्रों से दो बार न्यास (अङ्गन्यास एवं करन्यास) करे । इस प्रकार
उपर्युक्त चारो-न्यासों के करने के पश्चात् एक पूजन सम्पन्न करे ।। १४९॥
प्रथमं दक्षिणाङ्गष्ठे
न्यसेदाद्यक्षरं बुधः।
द्वादशाक्षरमन्त्रस्य
शेषबीजानि तु क्रमात् ।। १५० ।।
तर्जन्यादौ
दक्षिणस्य वामाङ्गुष्ठान्तमेव च ।
शेषाक्षरद्वयं
पश्चाद् न्यसेत् पाणितलद्वये ।। १५१ ।।
पहले
द्वादशाक्षर मन्त्र के प्रथम अक्षर का विद्वान् साधक अपने दाहिने अँगूठे पर न्यास
करे तब अन्य बीजमन्त्रों का भी क्रमशः न्यास करे । इस क्रम में पहले दाहिने हाथ की
तर्जनी से प्रारम्भ कर बाएँ अँगूठे के अन्त तक अक्षरों का न्यास करे। अन्त में शेष
दो अक्षरों का दोनों हथेलियों में न्यास करे ।। १५०-१५१।।
हृदि शीर्षे
शिखायां च स्कन्धयोर्दृपिचण्डयोः ।
पृष्ठे तु
भुजयोः पाण्योर्जंघयोः पादयोः क्रमात् ।
द्वादशाक्षरमन्त्रस्य
बीजानि च ततो न्यसेत् ।। १५२।।
हृदय, सिर, शिखा, दोनों कन्धों, नेत्र, दोनों
पिचण्ड (पेट), पीठ, दोनों- 'भुजाओं, हाथों, टखनों तथा
पैरों में न्यास करे तत्पश्चात् द्वादशाक्षर मन्त्र के बीजाक्षरों का क्रमशः न्यास
करे ॥ १५२ ॥
अङ्गुष्ठयोस्तु
प्रथमं वासुदेवस्य तत्त्वकम् ।
तर्जन्यादौ
योगिनां तु बीजान्यष्टौ द्वयोर्न्यसेत् ।। १५३ ।।
पहले दोनों
अँगूठों में वासुदेवतत्त्व से तथा दोनों हाथों की तर्जनी आदि आठ अंगुलियों में
बलभद्रादि आठ योगियों के बीजों का न्यास करे ॥ १५३ ॥
शिरोदृगास्यकण्ठोरोनाभिगुह्येशेषु
जानुनोः ।
पादयोर्वासुदेवस्य
योगिबीजानि विन्यसेत् ।। १५४ ।।
शिर, नेत्र, मुँह, कण्ठ, ऊरु, नाभि, गुह्य, घुटनों, तथा पैरों में
वासुदेव और उनके योगियों के बीजमन्त्र का न्यास करे ॥ १५४॥
मन्त्राणि
हृदयादीनां यान्युक्तानि पुरा नृप ।
तानि
न्यस्याङ्गुष्ठमूलेऽङ्गुलीजाते द्वये द्वये ।। १५५ ।।
वामदक्षिणपाण्योस्तु
शेषं तु तलयोर्न्यसेत् ।
हृदयाद्यस्त्रपर्यन्तं
पुनस्तानि क्रमान्यसेत् ।। १५६ ।।
हे राजन् !
हृदयादि के जो मन्त्र पहले कहे गये हैं उन्हें दोनों बायें हाथों के अँगूठे की
जड़ों तथा अङ्गुलियों के जड़ों में न्यास करे। शेष का बायें और दाहिने हाथ के तलों
में न्यास करे । हृदय से अस्त्रपर्यन्त पुनः उन्हीं मन्त्रों से न्यास करके
अङ्गन्यास को क्रमशः सम्पन्न करे ।। १५५-१५६॥
अष्टादशाक्षरस्यादिनववर्णान्
न्यसेद् बुधः ।
शिरोनेत्रादिपूर्वोक्ते
नवबीजस्य गोचरे ।। १५७।।
शेषान् वर्णान
श्रवणपार्श्ववस्तिषु शेफसि ।
कट्यामूर्वोर्जङ्घयोश्च
न्यसेत् पादाङ्गुलीषु च ।। १५८।।
विद्वान् साधक
अष्टादशाक्षर मन्त्र के प्रारम्भ के नववर्णों का क्रमश: पहले कहे सिर-नेत्र आदि नव
स्थानों पर बीजन्यास करे एवं शेष नववर्णों का श्रवण, पार्श्व, वस्ति, शेफ
(लिङ्ग), कटि, ऊरु (ज) आदि स्थानों एवं
पैरों की अङ्गुलियों में न्यास करे ।। १५७-१५८।।
यस्य
मन्त्रस्य या पूजा तन्त्रैस्तु यत्र चोदिता ।। १५९ ।।
तस्य
तन्त्रस्य तत्रैव न्यासं मन्त्री समाचरेत् ।
अथ चैकत्र
सर्वेषां न्यासं कुर्याद् विचक्षणः ।। १६० ।।
जिस मन्त्र से
जो पूजा, जिन तन्त्रों में जहाँ बतायी गई है,
उस तन्त्र के मन्त्र से उसी स्थान पर, मन्त्री
(मन्त्रवेत्ता) को न्यास करना चाहिये । इसके बाद विचक्षण साधक सभी न्यासों को एक
साथ करे ।। १५९-१६०।।
चतुर्विधैः
कृतैर्न्यासैः पूतात्मा धूतकल्मषः ।
साक्षाद्
विष्णुर्भवेन्मन्त्री सम्यक् पूजाफलं लभेत् ।। १६१ ।।
उपर्युक्त चार
प्रकार के न्यासों के करने से मन्त्रवेत्ता साधक, अपने पापों से रहित हो, पवित्र आत्मा हो,
साक्षात् विष्णुरूप हो जाता है और उसे भली-भाँति पूजा करने का फल
प्राप्त होता है ।। १६१ ॥
विनापि पूजनं
यस्तु न्यासं कुर्याच्चतुर्विधम् ।
स धीरो
विष्णुसायुज्यमाप्नोति परमं पदम् ।। १६२ ।।
बिना पूजन के
भी जो साधक उपर्युक्त चार प्रकार के न्यासों को करता है वह धीरपुरुष, विष्णु का सायुज्य प्राप्त कर परमपद को
प्राप्त करता है ॥ १६२ ॥
योगपीठं ततो
ध्यात्वा गरुडं चक्रं शङ्खं च ।
गदां लक्ष्मीं
तथा पद्मं क्रमादेतेषु विन्यसेत् ।। १६३ ।।
पूर्वदक्षिणकौबेरपश्चात्
कोणेषु वै क्रमात् ।
दक्षिणेचोत्तरे
वापि विन्यसेन्मन्त्रविद् बुधः ।। १६४ ।।
मन्त्रवेत्ता
विद्वान् साधक, पहले
योगपीठ का ध्यान करे तत्पश्चात् उनकी पूर्व दिशा में गरुड़ का, दक्षिण में चक्र का, उत्तर में शङ्ख का, पश्चिम में गदा, दक्षिण में लक्ष्मी और उत्तर में
कमल का क्रमशः न्यास करे ।। १६३-१६४ ।।
वनमालां
पद्ममध्ये श्रीवत्सं कौस्तुभं मणिम् ।
विन्यस्य
दक्षिणे तस्य न्यसेच्छार्ङ्ग शरासनम् ।। १६५ ।।
तूणीरयुगलं
वामे खड्गं दक्षिणतो न्यसेत् ।
वामे
चर्मनिधायाशु तत्र कुर्यात् सरस्वतीम् ।। १६६ ।।
पीठ पर कमल के
मध्य में ही वनमाला, श्रीवत्स और कौस्तुभमणि का न्यास कर, उसके दाहिने भाग
में शार्ङ्ग धनुष, बाएँ भाग में दो तरकस तथा पुनः दाहिने भाग
में खड्ग का न्यास कर, बायें ढाल को रखकर, वाम भाग में ही सरस्वती का न्यास करे ।। १६५ - १६६॥
पूजयित्वा च
सर्वाणि ततो मुद्रां प्रदर्शयेत् ।
मुद्राः
पुटाद्या याः प्रोक्ता विष्णुर्यश्चापि योगिनाम् ।
ग्रहाणां
दिक्पतीनां च मुद्रास्ता दर्शयेत् पृथक् ।। १६७।।
इन सबकी पूजा
करके साधक मुद्राओं का प्रदर्शन करे विष्णु और उनके योगियों, ग्रहों दिक्पालों की जो पुटादि मुद्रायें
पहले कही गई हैं, उनका अलग- अलग प्रदर्शन करे ।। १६७ ॥
शेषमन्त्राः
पुरा प्रोक्ता अच्छिद्रस्यावधारणे ।
तन्मन्त्रान्
संपठित्वैव सूर्यायार्घ्यं निवेदयेत् ।। १६८ ।।
अच्छिद्र (दोष
के दूरीकरण) के निर्धारण के प्रसङ्ग में पहले ही जो शेष मन्त्र कहे गये हैं, उन्हीं मन्त्रों को पढ़कर सूर्य को अर्घ्य
प्रदान करे।। १६८ ।।
निर्माल्यधारी
विष्णोस्तु विष्वक्सेनश्चतुर्भुजः ।। १६९ ।।
शङ्खश्चक्रगदापाणिर्दीर्घश्मश्रुजटाधरः।
रक्तपिङ्गलवर्णस्तु
सितपद्मोपरिस्थितः ।। १७० ।।
विष्णु का
निर्माल्य धारण करने वाले देवता विष्वक्सेन कहे गये हैं जो स्वयं चार भुजाओं से
युक्त हैं । वे अपने हाथों में शङ्ख, चक्र, गदा धारण करते हैं। वे लम्बी
दाढ़ी और जटा धारण करते हैं। उनके शरीर का रङ्ग पीलापन लिए हुए लाल है तथा वे
श्वेतकमल पर विराजमान हैं ।। १६९-१७० ।।
यत्
तृतीयस्वरान्तेन संयुक्तो बिन्दुनेन्दुना ।
कीर्तितस्तस्य
मन्त्रोऽयं तेन तं परिपूजयेत् ।। १७१ ।।
उनका मन्त्र य
से तृतीय वर्ण (ल) अन्तिम स्वर औ और चन्द्र तथा बिन्दु से युक्त मन्त्र लौं, बताया गया है। उसी से उन विष्वक्सेन का
पूजन करना चाहिये ॥ १७१ ॥
विसर्जनं तथा
विष्णोरैशान्यां परिकीर्तितम् ।
अन्येषां
मनसां कुर्याद् बलादीनां विसर्जनम् ।। १७२ ।।
विष्णु का
विसर्जन, ईशानकोण में कहा गया है। बलभद्र आदि अन्य
योगियों का विसर्जन मानसिकरूप से ही करे ।। १७२ ।।
एवं यः कुरुते
पूजां विष्णोः शम्भोर्विधेः क्वचित् ।
पीठे
दिक्करवासिन्याः सं याति परमं पदम् ।। १७३ ।।
जो साधक
दिक्करवासिनी देवी के स्थान में, उपर्युक्त रीति से कभी भी विष्णु- शिव या ब्रह्मा की पूजा करता है,
वह परमपद को प्राप्त करता है ।। १७३ ॥
यत्र यत्र
भवेद् विष्णोः पूजनं नृपसत्तम् ।
तत्र तत्रैव तन्त्रोऽयं
ग्राहयो वै वैष्णवैर्बुधैः ।। १७४ ।।
हे नृपसत्तम्
! जहाँ-जहाँ भगवान् विष्णु का पूजन करे, वहाँ-वहाँ वैष्णव साधकों द्वारा इसी तन्त्र (पद्धति) को ग्रहण
करना चाहिये ।। १७४ ॥
सङ्क्षेपेणैव तत्रैव
पूजयेद्दधिवामनम् ।
हृदयाद्यङ्गपूजा
तु न कर्तव्याऽस्य पूजने ।
संक्षेपैर्विस्तरैर्वापि
वासुदेवं प्रपूजयेत् ।। १७५ ।।
वहीं दधिवामन
का पूजन भी संक्षेप में करना चाहिये । इनके पूजन में हृदयादि अङ्गों की पूजा नहीं
करनी चाहिये। संक्षेप में हो या विस्तार से हो, वासुदेव का पूजन करना चाहिये ।। १७५ ।।
रक्तं
कौशेयवस्त्रं च पीतं शुक्लं तथैव च ।
प्रीतिदं
वासुदेवस्य वस्त्रमेतत् प्रकीर्तितम् ।। १७६ ।।
लाल, पीले और सफेद, रेशमी वस्त्र,
भगवान् विष्णु को विशेष प्रिय बताये गये हैं।।१७६।।
घृतप्रदीपो दीपेषु
गन्धेषु मलयोद्भवः ।
पानार्घ्यभोज्यपात्रेषु
ताम्र प्रीतकरं मतम् ।। १७७ ।।
दीपकों में घी
का दीपक, चन्दनों में मलयगिरि पर उत्पन्न चन्दन,
पेयपदार्थों हेतु प्रयुक्त अर्घ्य, भोजन के
पात्रों में ताम्रपात्र, विष्णु को विशेष प्रसन्नता देने
वाले कहे गये हैं ।। १७७ ॥
किरीटं
कुण्डलं हारो भूषणं विष्णुतुष्टिदम् ।। १७८ ।।
शङ्खः
स्नानीयपात्रेषु धूपेष्वगुरुरेव च ।
प्रीतिदो
वासुदेवस्य सततं परिकीर्तितः ।। १७९ ।।
आभूषणों में
मुकुट, कुण्डल और हार, विष्णु
को सन्तुष्ट करने वाले आभूषण, स्नान योग्यपात्रों में शङ्ख,
धूपों में अगुरु, वासुदेव को निरन्तर
प्रसन्नता देने वाले कहे गये हैं ।। १७८-१७९ ।।
कदम्बं कुब्जकं
जाती मल्लिका मालती तथा ।
पङ्कजं चेति
पुष्पाणि तद् विष्णोः प्रीतिदान्युत ।। १८० ।।
कदम्ब, कुब्जक, जाती,
मल्लिका, मालती और कमल ये, विष्णु को विशेष प्रसन्नता देने वाले पुष्प हैं ।। १८० ।।
निर्जनं
स्थण्डिलं स्थानं तीर्थं तोयमथापि वा ।
तद्
विष्णोरिति मन्त्रस्तु स्तुतिः पुरुषसूक्तकम् ।। १८१ ।।
एकान्त स्थान
में वेदी, तीर्थजल, तद्विष्णोः - मन्त्र, पुरुषसूक्त स्तुति कही गई है ॥ १८० ॥
पुत्रजीवोद्भवा
माला प्रशस्ता विष्णुपूजने ।
तिथिश्च
द्वादशी प्रोक्ता वसन्तः काल उत्तमः ।। १८२ ।।
विष्णु पूजन में पुत्रजीवा की माला उत्तम बताई गई है तथा द्वादशीतिथि
एवं वसन्तकाल (ऋतु) उत्तम कही गई है ॥ १८२ ॥
शाल्योदनं
हविष्यान्नं यावकं पायसं घृतम् ।
कृशरान्नं
तथान्नेषु पानेषु क्षीरमिष्यते ।। १८३ ॥
अन्नों (खाद्य
पदार्थों) में शालिचावल का भात, हविष्यान्न, हलुआ, खीर,
घी, खिचड़ी तथा पेयपदार्थों में दूध उन्हें
प्रसन्नता देने वाले कहे गये हैं ।। १८३॥
दलेषु
तुलसीपत्रं वैल्वमामलमेव च ।
हरे: प्रीतिकराणि
स्युरेतानि नृपसत्तम ।
सर्वाणि
परकीयाणि यानि तानि च वर्जयेत् ।। १८४ ।।
हे राजाओं में
श्रेष्ठ ! पत्तों में तुलसी, बेल या आँवले के पत्ते आदि ऊपर कहे गये पदार्थ, विष्णु
को विशेष प्रसन्नता देने वाले होते हैं। इनमें जो जो भी दूसरों के पदार्थ हों उनका
त्याग करना चाहिये ।। १.८४ ।।
एवं यः
पूजयेद् विष्णुं सततं नरसत्तमः ।
कुलकोटिं समुद्धृत्य
स स्वयं स्याज्जनार्दनः ।। १८५ ।।
पुरुषों में
श्रेष्ठ, जो साधक, इस प्रकार
से भगवान् विष्णु का निरन्तर पूजन करता है, वह करोड़ों कुलों
का उद्धार कर, स्वयं जनार्दन (विष्णु) स्वरूप हो जाता है ।।
१८५ ।।
इदं ते कथितं
भूप वासुदेवस्य मन्त्रकम् ।
पीठस्य
कामरूपस्य सङ्क्षेपान्निर्णयं तथा ।। १८६ ।।
हे राजा सगर !
यह वासुदेव का मन्त्र एवं संक्षेप में कामरूपपीठ का निर्णय तुमसे कहा गया ।। १८६ ॥
इति सर्वं
कामरूपपीठं शम्भुरदर्शयत् ।। १८७ ।।
पुत्राभ्यां स
पुनस्ताभ्यां कैलासं प्रययौ गिरिम् ।
तत्र गत्वा
यथायोगं निधाय तनयौ स्वकौ ।। १८८।।
इस प्रकार से
भगवान् शङ्कर ने अपने पुत्रों, वेताल और भैरव को समस्त कामरूपपीठ का निदर्शन कराया तत्पश्चात् उन्हीं के
साथ वे कैलाश पर्वत पर गये, वहाँ जाकर (उन्हें) अपने उन
पुत्रों को यथोचित योगमार्ग में नियोजित किया ।। १८७ - १८८ ।।
विमुक्तशापास्ते
जाताः शम्भुर्गिरिसुता तथा ।
वेतालो भैरवश्चेति
नृपसत्तमनिर्जराः ।। १८९ ।।
हे राजाओं में
श्रेष्ठ ! जिसके फलस्वरूप वे सभी शिव, पार्वती, वेताले और भैरव जो पहले देवता
थे किन्तु शापवश मनुष्य योनि में आये थे, शापमुक्त हो गये ।।
१८९ ॥
कालिका पुराण अध्याय
८० वेताल भैरवोपाख्यान- माहात्म्य
।। वेताल
भैरवोपाख्यान- माहात्म्य ।।
इदं यो
महदाख्यानं शृणोत्येकाग्रमानसः ।
शापभीतिर्न
तस्यास्ति व्याधयस्तस्य नाधयः ।। १९० ।।
इस महान्
आख्यान को जो एकाग्रमन से सुनता है उसको किसी प्रकार के शाप का भय नहीं होता और न उसे
किसी प्रकार के शारीरिक या मानसिक रोग ही होते हैं ।। १९० ।।
पुत्रपौत्रधनैश्वर्ययुक्तः
सर्वत्र वल्लभः ।
सर्वकल्याणसंयुक्तो
दीर्घकालं स जीवति ।। १९१ ।।
वह
पुत्र-पौत्र, धन-ऐश्वर्य
से युक्त होकर सब जगह प्रेम प्राप्त कर सभी प्रकार के कल्याणों से युक्त हो,
दीर्घकाल तक जीता है । १९१ ॥
कामरूपं
महापीठं यो जानाति नरोत्तमः ।
स
दिव्यज्ञानसम्पन्नः परं निर्वाणमाप्नुयात् ।।१९२।।
इस कामरूप महापीठ
को जो उत्तम नर (साधक) जान लेता है वह दिव्यज्ञान से युक्त हो, परनिर्वाण को प्राप्त करता है ।। १९२ ।।
यः कामरूपे सकले
पीठयात्रां समाचरेत् ।
आसाद्य सकलान्
पीठान् पूजयेत् सर्वदेवताः ।। १९३ ।।
दशपूर्वान्
दशापरानात्मानं चैकविंशतिम् ।
दिव्ये ज्ञाने
विधायाशु सर्वं मुक्तिमियात् सह ।। १९४ ।।
जो समस्त
कामरूपपीठ की यात्रा करता है, सभी पीठों पर जाकर सभी देवताओं का पूजन करता है। वह अपनी दश पहले की,
दश बाद की और अपने को लेकर इक्कीस पीढ़ियों को, दिव्यज्ञान में लगाकर, उन सबके साथ मुक्तिप्राप्त
करता है ॥ ८० ॥
॥ इति
श्रीकालिकापुराणे कामरूपवर्णनेदीपवत्यादिमाहात्म्यनाम अशीतितमोऽध्यायः ॥ ८० ॥
श्रीकालिकापुराण
में कामरूपवर्णनेदीपवत्यादिमाहात्म्यनामक अस्सीवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ। ८० ।।
आगे जारी..........कालिका पुराण अध्याय 81
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